स्टिंग ऑपरेशन तेजी से अपनी स्टिंग ब्लंट कर बैठे हैं. तहलका एक्स्पोजे के समय लगा था कि उन्होने बड़ी मुर्गी पकड़ ली है और राजनीति की दशा-दिशा बदल जायेगी. पर सब कुछ वैसा ही रहा. दो बार दो लॉट में सांसद निकाले गये. किसी को यह नही लगता था कि मीडिया ने कुछ नया बताया है. और भी कई स्टिंग ऑपरेशन हुये पर सबकी सनसनी कुछ दिन की रही. सबके समय एकबारगी लगा कि अब देश चमक जायेगा. पर देश वही धूसर बदरंग बना रहा.
अब यह स्टिंग ऑपरेशन, शिव कुमार मिश्र जिसकी चर्चा अपनी पोस्ट में कर रहे हैं, वकीलों को लेकर हुआ है. बढ़िया किया कि मीडिया ने उनपर हाथ डाला. पर मेरे दफ्तर के पास हाई कोर्ट है. उसके आस-पास सतरंगी दृष्य दीखते हैं. गिद्ध तो मरे को नोचते हैं (वैसे भी बेचारे खतम हो रहे हैं) पर यहां जिन्दा को नोचना देखा जा सकता है. किसी स्टिंग ऑपरेशन की जरूरत नहीं है. गवाह के मोल-तोल, उनके कोर्ट के सामने बयान से पल्टी मारने के रोज इतने मामले होते हैं कि इस स्टिंग ऑपरेशन का सरप्राइज एलीमेंट नजर ही नहीं आता. आप ही देख लें – कहां है स्टिंग और कहां है सनसनी?
शिव कुमार मिश्र ने बड़ा सटीक ऑब्जरवेशन किया है. वकील अपने धतकरम को जायज बताने को तर्क गढ़ लेते हैं. वे व्यवस्था को बदलने की पहल नहीं करते क्योकि वे व्यवस्था में हैं. शिव का ऑब्जर्वेशन बहुत से अन्य क्षेत्रों मे भी आसानी से देखा जा सकता है. व्यवस्था से बन्धे होने की मजबूरी को अन्य क्षेत्रों में भी लोग मैनीप्युलेट करते हैं.
थानेदार के सामने से अपराधी भागता है पर वह कुछ नहीं करता – उसके लिये वह तब तक नहीं कर सकता, जब तक कोई एफ.आई.आर. न लिखादे. डाक्टर सरकारी अस्पताल में काम न कर प्राइवेट प्रेक्टिस करता है. क्या करे सरकरी अस्पताल में न दवाइयां हैं न उपकरण. सो मजबूरी है कि प्राइवेट प्रेक्टिस करे. दवाई और उपकरण कहां जाते है – पता नहीं. क्लर्क घूस लेता है – क्या करे अफसर भ्रस्ट है – उसतक हिस्सा पंहुचाना है. जैसे कि अफसर अगर भ्रस्ट न होता तो क्या जरूरत थी कि वह घूस लेता. स्कूल मास्टर कक्षा में न पढ़ाकर कोचिंग करता है – क्या करे बच्चे स्कूल में पढ़ते ही नही! वही बच्चे कोचिंग क्लास में पढ़ते हैं.
लोग व्यवस्था में हैं, पर व्यवस्था के लिये उत्तरदाई नहीं है. दुनियां में हैं, दुनियां के तलबगार नहीं हैं.
और महत्वपूर्ण यह है कि जो उदाहरण दिये गये हैं – या अनेक और देखे जा सकते हैं – उनको जानने के लिये किसी स्टिंग ऑपरेशन या किसी तेज चैनल की जरूरत नहीं है.
हां मीडिया खुद किस तरह खबर बनाता या मरोड़ता है – उसपर अगर स्टिंग ऑपरेशन हो तो मजा आये.
"हां मीडिया खुद किस तरह खबर बनाता या मरोड़ता है – उसपर अगर स्टिंग ऑपरेशन हो तो मजा आये.
ReplyDeleteपर किसी कीड़े को खुद को डंक मारते देखा है?!"
हा हा!
अपन ने तो नहीं देखा किसी कीड़े को खुद डंकमारते हुए।
बढ़िया !
सही है! लोग घोटालों घपलों की खबरें सुनने के आदी से हो गये हैं।
ReplyDeleteआपके POV से काफी हद तक एग्रीमेंट में हूँ। आपका कहना भी सही है। हमारा approach "elephant in the room" जैसा है. कई ऐसे issues हैं जिनको हम "जानते" हैं। पर सिर्फ जानने से काम नही चलता है। जब तक कोई बोलेगा नही तब तक कोई मानेगा ही नही कि हाथी है कमरे में। जैसे "hostile witness" के बारे में हम "जानते" तो हमेशा से रहे हैं, पर जब कैमरे पर मुंशी जीं को झूठ बोलते देखा तभी इसकी रियलिटी समझ में आयी. ऐसे तो कोई भी शयन मुंशी से पूछता तो कह देता कि पुलिस झूठी हैं, मेरा स्टेटमेंट गलत रेकॉर्ड किया etc. इस बार तो फिर भी सबों ने बड़ी मछली पकड़ी है। इन वकीलों को बार से भी निकाल दिया गया है. शायद जेस्सिचा लाल कि तरह इस केस में भी कनविक्शन मिल जाएगा। इसीलिये मुखे लगता है कि स्टिंग ऑपरेशन blunt ज़रूर हो गयी है पर पूरी तरह से useless भी नही है. अब भी एक टूल है हाथी को acknowledge करने के लिए.
ReplyDeleteपर मीडिया को भी इतनी जल्दी अपनी पीठ नही थाप थापनी चाहिऐ। हर issue को dumb down करके एक "येस ओर नो" कि पोल बनाना भी ठीक नही है।
खुफिया पत्रकारिता एक नयी विधा है पत्रकारिता की.
ReplyDeleteजब विडिओ कैमरे नही होते थे ,तब यह खुफिया पत्रकारिता अलग रूप मेँ होति थी. मुझे याद है इंडिअन एक्स्प्रेस मेँ अरुन शौरी के कार्यकाल मेँ गुंडूराव का इंटेर्व्यू. फिर मुख्यमंत्री हेगडे की बात चीत का टेलीफोन टेप का प्रकाशन.
इन सबकी अपनी उपयोगिता है. इसे बिल्कुल नकारा नही जा सकता.
अरविन्द चतुर्वेदी
भारतीयम
अच्छा तो यह जॉइन्ट वेनचर है।
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