पिछले एक महीने से शहर के सारे मार्ग भक्तिमार्ग में कन्वर्ट हो चुके हैं. हर मार्ग पर भक्त ही चलते-फिरते, नाचते-गाते, उत्पात मचाते दिखाई देते हैं. जो थोड़े-बहुत इंसान दिखाई देते हैं वे बेचारे हलकान-परेशान से भक्तों को निहारते हुए सोचते हैं; 'हाय हमारी औकात इतनी क्यों न हुई कि हम भी भक्तिगीरी पर उतर लेते.'
पूजा का मौसम बड़ा लंबा खिंचता है. भगवान विश्वकर्मा अपनी पूजा करवाकर विदाई लेते हैं तो भक्तगण माँ दुर्गा का इंतजार शुरू कर देते हैं. रात-दिन एक कर देते हैं. चंदा इकठ्ठा करते हैं. गाली देते हैं. मार-पीट करते हैं. इतने कामों के साथ-साथ इंतजार करते हैं.
पूजा के लिए इंतजार, मतलब अद्भुत पुण्य की प्राप्ति. मन्दिर के बाहर लाइन लगाकर घंटों इंतजार करते हुए पूजा करने का मतलब ही है मोक्ष की प्राप्ति. जितनी बड़ी लाइन, उतना बड़ा मोक्ष. दाल-रोटी की जुगाड़ करते लोग अफनाते हुए सोचते हैं; 'हमें मोक्षप्राप्ति का चांस कब मिलेगा?'
लेकिन उनके लिए पुण्य और मोक्ष के भण्डार में कुछ नहीं बचता. भक्तगण सारा मोक्ष इकठ्ठा कर जेब के हवाले कर लेते हैं. साथ में इंसान को देखते हुए सोचते हैं; 'मर रहे हैं साले दाल-रोटी के चक्कर में. घर से आफिस और आफिस से घर. पता नहीं मोक्षप्राप्ति के लिए भी कभी कुछ करेंगे या नहीं? पापी कहीं के.'
माँ दुर्गा की पूजा करते हैं. मेला लगवाते हैं. उद्घाटन करवाते हैं. फोटो खिचाते हैं. पुरस्कार लेते हैं. इनसब से मन भर जाता है तो माँ दुर्गा को गंगा के हवाले कर हाथ धो लेते हैं. साथ में ये सोचते हुए दुखी भी हो जाते हैं कि; 'अब अगले एक साल तक मोक्ष की प्राप्ति के लिए कौन सा काम करेंगे?'
उधर माँ गंगा भी दुखी हो लेतीं हैं. मूर्ति के साथ-साथ प्रदूषण ग्रहण करके. दुःख ही तो धर्म का आधार है. माँ गंगा को लगता है कि अब एक साल तक की छुट्टी.
लेकिन ऐसी बात नहीं है. भक्तगणों को अचानक ख्याल आता है कि अभी भी मोक्ष का बैलेंस बढ़ाने का एक साधन है, काली पूजा. बस, तैयारियां शुरू हो जाती हैं. वही चन्दा, वही झगड़ा, वही मूर्ति और मेला. फिर से वही सबकुछ. सड़कें रुक जाती हैं. इंसान खड़े हो जाते हैं. गाडियाँ जाम के हवाले हो लेती हैं. अगर कोई चलता हुआ दिखाई देता है तो पुण्य को समेट कर जेब के हवाले करते भक्तगण.
इनलोगों को सड़क पर चलते हुए, नाचते हुए, गाते हुए देखकर हम संतुष्ट हो लेते हैं कि देश में लोकतंत्र जिन्दा है.
अजब-अजब लोग दिखाई देते हैं. पूजा के बाद मूर्ति को गंगा के हवाले करने के लिए जब ले जाते हैं तो गजब माहौल की सृष्टि होती है. बैंड पार्टी, लाईट्स, पटाकों के धमाके, और लोकतंत्र को जिन्दा रखने का एहसास कराने वाले भक्त. पूरा शहर ही भक्तों से भर जाता है. सीटियों की गूँज और विकट कोलाहल के साथ नाचते-गाते लोग.
नाच भी ऐसे-ऐसे कि संत-महंत देख लें तो एक बार शरीर त्यागने पर उतारू हो जाएँ.
सड़क पर उतरी भक्तगणों की भीड़ भी बड़ी सोच समझकर तैयार की जाती है. जुलूस के सामने चलते अधेड़ लोग जो दोनों तरफ़ से आने वाली गाड़ियों को रास्ता दिखाते हैं. शालीन से दिखने वाले ये लोग जिम्मेदार होने का एहसास दिलाते हैं. ये उनका जिम्मेदार दिखना बहुत बड़ा छलावा है. सबसे बड़ा छलावा.
उनके साथ कुछ अधनंगे नौजवान किस्म के भक्त. इन भक्तों के हाव-भाव ऐसे कि इंसान डर जाए. राह चलता कोई भी व्यक्ति इनसे कुछ कहने की हिम्मत नहीं करे. इनके अलावा सात-आठ नौजवान ऐसे होते हैं जो बिना शर्ट पहने होते हैं. पूरे शरीर से पसीना चू रहा होता है. ये विकट मेहनती होते हैं. लेकिन इनकी मेहनत किस काम में लगती है, ये शोध का विषय है.
इनके अलावा नाचने वाले लोग. ऐसा-ऐसा डांस करते हैं कि सड़क पर रुके हुए लोगों को समझ में नहीं आता कि वे रोयें या फिर हँसे? नागिन से लेकर नेवला तक, सब तरह का डांस होता है. उधर माँ काली की मूर्ति इनलोगों को देखती रहती है. वो भी क्या करे, लाचार है.
लोग घर पहुँचने की कोशिश करते रह जाते हैं. समय पर तो पहुँचने की बात तो छोड़ दीजिये, देर से भी नहीं पहुँच पाते.
सड़क पर उतरी इस भीड़ को देखकर समझ में नहीं आता कि संस्कृति का निर्माण हो रहा है या फिर उसकी रक्षा? सड़क पर इनको और इनके करतब देखकर लोग शर्म से लाल हुए जाते हैं और गुस्से से पीले.
कल रात को घर लौटते हुए इनके सामने पड़ गया था. इनके करतब देखते-देखते अचानक निगाह माँ काली की मूर्ति पर गई. नरमुंडों से सजी हुई मूर्ति. पांवों के नीचे लेटे हुए भगवान शिव.
फिर निगाह उनके मुख पर गई. जीभ निकली हुई. देखकर एक बात मन में आई कि आज से दो सौ साल बाद किसी किताब में ये पढने को न मिले कि;
उपरोक्त तस्वीर में माँ काली की निकली हुई जीभ जो दिखाई दे रही है उसके बारे में इतिहासकार एक मत से कहते हैं कि "एक बार पूजा के बाद मूर्ति विसर्जन के लिए ले जाते हुए सड़कों पर भक्तों ने ऐसा अश्लील नाच किया कि शर्म से माँ काली की जीभ निकल आई. तभी से माँ काली को इसी मुद्रा में दिखाया जाता है. और उनकी ये छवि संस्कृति का हिस्सा बन गई."
Saturday, November 1, 2008
हमें मोक्षप्राप्ति का चांस कब मिलेगा?
@mishrashiv I'm reading: हमें मोक्षप्राप्ति का चांस कब मिलेगा?Tweet this (ट्वीट करें)!
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पहले अक्षर सीधे करना सीखूँ,
ReplyDeleteतत्पश्चात आँगन सीधा करवाया जाय,
फिर, नाचना सीखें.. मोक्षधुन चुनी जाय
फेर बतावेंगे कि ब्लागरन का मोक्ष कबहिन मिलिहै ?
भई ये और इस तरह के लोग हर जगह मिल जाएंगे। मूर्ति को विसर्जन करने के लिये ले जाते समय होने वाले डांस को देखकर तो सभी फिल्मस्टार सीख लेते हैं...यह उनके सीखने के नर्सरी स्थल होते हैं। नर्सरी से लाये गये इन्हीं डांस पर बाद मे कलम लगाई जाती है और देखते- देखते वह कलमी पौधा डांस करते कहता है - पप्पू कॉन्ट डांस साला :)
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट।
"एक बार पूजा के बाद मूर्ति विसर्जन के लिए ले जाते हुए सड़कों पर भक्तों ने ऐसा अश्लील नाच किया कि शर्म से माँ काली की जीभ निकल आई. तभी से माँ काली को इसी मुद्रा में दिखाया जाता है. और उनकी ये छवि संस्कृति का हिस्सा बन गई."
ReplyDeleteआपका यह कहना बिल्कुल उचित जान पड़ रहा है ! शायद आज किसी को अतिशयोक्ति लग सकती है पर मुझे नही लग रही ! कोलकाता का आपने जीवंत चित्रण किया पूजा बसान का ! शायद अन्य जगह भी यही हालत हैं ! नाम बदल कर गणेश पूजा या कुछ और पूजा या किसी अन्य धर्म के त्योंहार का जुलूस हो जाती है ! आख़िर भुगतना तो राहगीर को ही है ! क्या जाने उनमे कितने इमरजेंसी में अस्पताल जा रहे होते होंगे या अपनी ट्रेन पकड़ने जाते होंगे ? ये जो जुलुस के आगे २ चलने वाले सभ्य और अधनंगे लोगो का जिक्र किया है आपने , इस जिक्र ने पोस्ट को सही, सटीक और धारदार बना दिया है ! भगवान् बचाए इनसे ! शुभकामनाएं !
यह समझ में आ गया कि कलकत्ता की सड़कों पर स्वर्ग है और उसपर उन्मादग्रस्त हैं स्वर्गवासी। :)
ReplyDeleteगर फिरदौस बर रू-ए-जमीं अस्त हमीं अस्तो हमीं अस्तो हमीं अस्त!
(स्पैलिंग मिस्टेक सही कर लें!)
शिव भाई!
ReplyDeleteइन में मोक्ष कोई नहीं चाहता। इन में से अधिकांश वे लोग हैं जिन्हें घर, द्फ्तर समाज में कोई महत्व नहीं मिलता। इसी तरह अपना महत्व स्थापित करने का यत्न करते हैं, कुछ वो हैं जो इस माध्यम से सफलता पा लेना चाहते हैं, कुछ राजनीति में पहचान बनाने निकले हैं और कुछ हैं जो अपने श्रम और बुद्धि से नहीं संयोग से कुछ पा गए हैं, समझते हैं भगवत्कृपा का फल है जो उन्हें इसी रास्ते मिली है।
असली कारण कोई नहीं बताता सब मोक्ष के पीछे छुपाए बैठे हैं।
भारत धर्मप्रधान देश है, इसी का तो क्लेश है।
ReplyDeleteबंधू मोक्ष की तलाश में इंसान जो कर ले थोड़ा है....सब परलोक की चिंता में हैं...इस लोक में जो होना था उस से अधिक और कुछ हो नहीं सकता...दूसरे अब टाइम पास करने के लिए सब लोग तो ब्लॉग लिखने नहीं बैठ सकते जो नहीं लिखते वो ये सब करते हैं...अपना अपना ईसटाइल है क्या समझे?
ReplyDeleteनीरज
जीभ निकल आई..इनका नाच देख कर आँख निकल कर सड़क पर न गिर पड़ी, यही गनीमत मानिये.
ReplyDeleteबढ़िया लिखा है.
मेहनत का पसीना बहते देखकर कालीजी जीभ दबा लेती होंगीं -सही है।
ReplyDeleteमाँ काली की निकली हुई जीभ जो दिखाई दे रही है चलिये आज पता चल गया कि मां भी कह रही है हाय देईया !! केसे केसे लुच्चे भगत है!!! ओर हाय दईया कहते समय यह जीभ बाहर निकल गई होगी, ओर जब भी जीभ अन्दर करती होगी तो दुसरा नमुना दिख जाता होगा.
ReplyDeleteधन्यवाद इस नयी जानकारी के लिये
Tarch bechane wale hee bata sakate hain
ReplyDeletebadhaaiyaan
डांस के इतने प्रकार बताने के लिए शुक्रिया!
ReplyDelete"नागिन से नेवला तक"
नागिन तो देखा....नेवला डांस दिखे तो वीडियो पोस्ट से दर्शन कराएँ!
संस्कृती का निर्माण ही समझीये !! ये तो एक बेकिंग न्युज है "काली अमंग डांसर" !!
ReplyDelete"एक बार पूजा के बाद मूर्ति विसर्जन के लिए ले जाते हुए सड़कों पर भक्तों ने ऐसा अश्लील नाच किया कि शर्म से माँ काली की जीभ निकल आई. तभी से माँ काली को इसी मुद्रा में दिखाया जाता है. और उनकी ये छवि संस्कृति का हिस्सा बन गई."
ReplyDelete"oh ye sach hai kya...... inssan to inssan yhan bhagwan ko bhee sharminda kiya .... lanet hai aise insano pr.."
Regards
मन की बात कही आपने .....!! हम ऐसे जुलूस, जलसों और चल समारोहों की व्यवस्था में हमेशा शर्मसार होते हैं. मैंने कई बार स्थानीय राजनीतिक नेताओं, सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित नागरिक और आयोजन समिति के पदाधिकारियों के साथ मिल बैठकर इस अपसंस्कृति के उपचार के लिए प्रयास किया, लेकिन 5-10 प्रतिशत से अधिक फलीभूत नहीं हो पाता है.
ReplyDeleteनाच भी ऐसे-ऐसे कि संत-महंत देख लें तो एक बार शरीर त्यागने पर उतारू हो जाएँ.
ReplyDeleteउनके साथ कुछ अधनंगे नौजवान किस्म के भक्त. इन भक्तों के हाव-भाव ऐसे कि इंसान डर जाए. राह चलता कोई भी व्यक्ति इनसे कुछ कहने की हिम्मत नहीं करे. इनके अलावा सात-आठ नौजवान ऐसे होते हैं जो बिना शर्ट पहने होते हैं. पूरे शरीर से पसीना चू रहा होता है. ये विकट मेहनती होते हैं. लेकिन इनकी मेहनत किस काम में लगती है, ये शोध का विषय है.
इनके अलावा नाचने वाले लोग. ऐसा-ऐसा डांस करते हैं कि सड़क पर रुके हुए लोगों को समझ में नहीं आता कि वे रोयें या फिर हँसे? नागिन से लेकर नेवला तक, सब तरह का डांस होता है. उधर माँ काली की मूर्ति इनलोगों को देखती रहती है. वो भी क्या करे, लाचार है.
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lajawaab chitran kiya hai.sara drishya nayanabhiraam ho gaya.
ekdam sateek chitran kiya hai.sundar vyangya hai.
ऐसा लगा किसी विसर्जन जुलूस मे फ़ंस गया हूं।बहुत सही लिखा आपने।सटीक चित्रण नये किस्म के धार्मिक चरित्र का।
ReplyDeleteमोक्षप्राप्ति का कौनौ चांस नहीं है . अब का कहें, आप क्वालीफाइडै नहीं हैं . बीच-बाज़ार कमीज़ लौ उतार नहीं सकते और मोक्ष की बात करते हैं . कभी चौराहे पर हरी बत्ती के होते दुस्साहसिक नागिन-नेवला डांस किए हैं ? कभी बीच सड़क पर आपके भीतर की आदिम आदिवासी आत्मा ने जोर से टल्ला मार कर नैतिकताबोध और नागरिकताबोध की ऐसीतैसी की है ? नहीं न ! तब कैसे मोक्ष मिलेगा . हम कहे न,कि आपमें न तो वह क्वालिफिकेशन है और न वह क्वालिटी,इसलिए मोक्ष की बात तो बस भूल ही जाइए .
ReplyDeleteनैतिक बाधा से ग्रस्त ऐसा कायर मन तो बार-बार इस भवसागर में डुबकी खाने के लिए बना है सो खाली धर्म,अर्थ और काम से काम चलाइए . इस वाले और उस वाले मोक्ष को भूल जाइए .
जै राम जी की .