घुन्नन जब दफ्तर में आया उस समय मैं अपने सीनियर के दफ्तर में हो रही एक मीटिंग में था. जैसे ही खबर मिली, मैंने तुंरत मीटिंग कैंसल की और अपने दफ्तर पहुंचा. मेरे सीनियर ने मीटिंग कैंसल करते वक्त मुझसे कहा; "मिश्रा जी, मीटिंग कैंसल नहीं करनी चाहिए आपको. बहुत ज़रूरी है."
मैंने उन्हें दो टूक जवाब देते हुए कहा; "सर, अगर बाल-सखा से मीटिंग और आफिसियल मीटिंग के बीच चुनना पड़े तो मैं बाल-सखा से मीटिंग को चुनूँगा."
मेरी बात सुनकर सीनियर डर गए.
कोई नई बात नहीं है. वे ऐसे ही डरते रहते हैं. उन्हें इस बात की चिंता सताती रहती है कि मैं कहीं रिजाइन न कर दूँ. जानकारी के लिए बता दूँ कि मैं बचपन से ही बम्बईया फिल्मों के उस इंस्पेक्टर से प्रभावित रहा हूँ जो इस्तीफा लिखकर जेब में रखता है और बात-बात पर अपने सीनियर को चमकाता रहता है.
दफ्तर आया तो घुन्नन को देखकर लगा जैसे सदियों से बरसात का मुंह न देखे रेगिस्तान में सावन के बादल उमड़ आये. उन्हें अंकवारि भरे पंद्रह मिनट तक भेंटता रहा. इच्छा तो हुई कि एक घंटा तक भेंटे और न जाने कितने वर्षों से घुन्नन को न मिल पाने का मलाल निकाल दें. लेकिन ऐसा हो न सका.
पछतावा हुआ कि घुन्नन से गाँव में क्यों नहीं मिला? गाँव में मिला होता तो कम से कम एक घंटा अंकवारि में भरे रहता घुन्नन को.
खैर, उसके बाद मैंने दफ्तर से पूरे दिन के लिए छुट्टी ले ली. रास्ते से दस किस्म की मिठाइयाँ, तीन पैकेट नमकीन, एक किलो जलेबी पैक करवाई.
जलेबी की कहानी बड़ी मजेदार है. जब मैं और घुन्नन गाँव के प्राईमरी स्कूल में पढ़ते थे, उनदिनों गाँव में जलेबी की गिनती सबसे प्रिय और हमेशा उपलब्ध रहने वाली मिठाई के तौर पर होती थी.
आज भी याद है. स्कूल के पिछवाड़े मोहनलाल हलवाई की दूकान थी. ज्यादा बड़ी नहीं थी. गाँव में हलवाई की दूकान कितनी बड़ी रहेगी? छोटी सी दूकान में कांच के कुछ मर्तबान. किसी में लाई रहती थी तो किसी में चूडा. गट्टा, रेवड़ी और गुड़ से बने सेव के लिए मर्तबान अलग से होते थे. एक मर्तबान में नमकीन रखी रहती थी. मिठाई के नाम पर मोहनलाल जलेबियाँ बनाता था. दो तरह की जलेबी. गुड़ से बननेवाली जलेबी और चीनी से बननेवाली जलेबी. गुड़ से बननेवाली जलेबी को हम चोटिया जलेबी कहते थे. थोड़ी काली होती थी न. अब तो ऐसी जलेबी के दर्शन दूभर हो गए हैं. शहर से नाता क्या जुड़ा, गाँव का सबकुछ पीछे छूट गया. रास्ते तो छूटे ही, चोटिया जलेबी भी छूट गई.
अब तो यादकर के केवल आँखों को नम किया जा सकता है.
मैं और घुन्नन जब क्लास बंक करते तो मोहनलाल की दूकान में बैठकर चोटिया जलेबी खाते. मोहनलाल भी हम दोनों से बहुत प्रसन्न रहता था. उनदिनों जलेबी वजन करके बिकती थी. जब हम ढाई सौ ग्राम जलेबी की फरमाईस करते तो तौलने के बाद मोहनलाल दो जलेबियाँ और रख देता.
सरल-मना मोहनलाल. अब कहाँ मिलेंगे ऐसे लोग?
आज जब इतने वर्षों बाद घुन्नन से मिला तो अनायास ही जलेबी की याद आ गई. इच्छा तो हुई कि अगर उपलब्ध होती तो आज चाहे जितनी भी दूर जाना पड़ता, जाते और चोटिया जलेबी खोजकर जरूर लाते. जैसे ही यह बात मन में आई, मैंने दफ्तर के प्यून को फ़ोन किया. जब मैंने उससे पूछा कि चोटिया जलेबी कहाँ मिल सकती है तो उसे समझ में ही नहीं आया कि मैं कैसी जलेबी की बात कर रहा हूँ. जब मैंने उसे पूरी बात बताई तो उसने कहा कि थोड़ी देर में वो बताएगा.
प्यून से बात करके मैंने फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया.
उसके बाद घुन्नन से उसके घर-परिवार के बारे में पूछा. उसी समय पता चला कि उसका बेटा अब अट्ठारह वर्ष का हो गया है. समय बीतते देर नहीं लगती. सुनकर विश्वास ही नहीं हुआ कि जिस बच्चे को तब देखा था जब वह डेढ़ वर्षों का था, अब अट्ठारह वर्षों का हो गया है.
मुझे याद है. जब घुन्नन का बेटा एक साल का था, मैं घुन्नन के घर उससे मिलने गया था. उसके बेटे को गोद में लिए बैठा था कि बच्चे ने सू-सू कर दिया. पहले के बच्चे सू-सू करते थे तो जिसकी गोद में करते थे उसके कपडे भीग जाते थे. अब तो बच्चे इतने स्मार्ट हो गए हैं कि सू-सू करते हैं तो पता ही नहीं चलता. कभी-कभी सोचता हूँ तो लगता है कि आज भी बच्चे तो बच्चे ही हैं. असल में स्मार्ट माता-पिता हो गए हैं जो बच्चों को हगीज और न जाने क्या-क्या पहना देते हैं.
ज़माने ने बच्चों को भी बच्चा नहीं रहने दिया. हाय रे सभ्यता.
बात ही बात में घुन्नन ने बताया कि लड़के का एम बी ए के एंट्रेंस एक्जाम में सेलेक्शन हो गया था लेकिन आर्थिक तंगी के कारण उसका एडमिशन अभी तक नहीं हो पाया. मैंने तुंरत घुन्नन से कहा कि वो पैसे की चिंता न करे. मैं उसकी पढ़ाई के लिए पैसे का इंतजाम कर दूंगा. घुन्नन को बहुत संकोच हुआ लेकिन मैंने अपनी बात मनवा ली.
अभी घुन्नन से और बात हो ही रही थी कि दफ्तर से प्यून का फ़ोन आया. उसने बताया कि कैसे उसने बड़ी मेहनत की लेकिन किसी दूकान का पता नहीं मिला जहाँ चोटिया जलेबी मिलती हो. मैं उसकी बात सुनकर दुखी होने ही वाला था कि उसने बताया कि उसके पड़ोस में हलवाई की दूकान है और वह हलवाई अलग से चोटिया जलेबी बनाने पर राजी हो गया है.
प्यून की बात सुनकर मुझे लगा जैसे किसी ने मरते हुए को संजीवनी बूटी खिला दी हो. अपनी हालत के बारे में सोचकर मैं कल्पना करने लगा कि श्री राम को कैसा लगा होगा जब उन्होंने हनुमान जी को संजीवनी बूटी वाले पर्वत के साथ देखा होगा.
खैर, मैंने गाड़ी तुंरत दफ्तर की और मोड़ ली. दफ्तर के नीचे ही प्यून खडा मिल गया. मैंने उसे पाने साथ लिया और उस हलवाई की दूकान की तरफ चल दिया. वहां पहुँच कर हलवाई से आधा किलो जलेबी ली. प्यून ने मजाक में कहा भी इस उम्र में इतनी जलेबी खाना ठीक नहीं लेकिन मैं नहीं माना. फिर मन में आया कि जब इतनी मेहनत करके चोटिया जलेबी खरीद ही ली है तो क्यों न फिर शहर से बाहर कोई प्राईमरी स्कूल भी खोज लिया जाय. ड्राईवर को ऐसे एक प्राईमरी स्कूल की जानकारी थी. वह हमदोनों को वहां ले गया. संयोग देखिये कि इस स्कूल के पिछवाड़े भी एक हलवाई की दूकान थी. मैंने पहले से ख़रीदी चीनी वाली जलेबी ड्राईवर के हवाले कर दी.
मैंने और घुन्नन ने उस दूकान पर बैठकर चोटिया जलेबी खाई. न जाने कितने वर्षों बाद ऐसा लगा कि बिना किसी मशीन का इस्तेमाल किये ही बचपन में पहुँच गए.
शाम को घुन्नन ट्रेन पकड़कर गाँव चला गया. अब मैं उसके वापस आने की बाट जोह रहा हूँ.
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बाल-सखा के मिलन पर ब्लाग पोस्ट यहाँ पढ़ सकते हैं. यह तो साहित्यिक पोस्ट है.
Tuesday, July 14, 2009
घुन्नन-मिलन
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शिवकुमार जी कि स्टाइल का हर शब्द.. बहुत मजेदार... बहुत शानदार जुगलबंदी... शायद इसी की बात आप कर रहे थे.. मजा आया..
ReplyDeleteये क्या कर रहे हो मियां........कुछ समझ में नहीं आया.......जरा समझोगे??????
ReplyDeleteदोनों पोस्टें पढ़ीं .
ReplyDeleteसाहित्य और ब्लॉग में अंतर भली भाँति स्पष्ट हो गया .
यही तो मैं कहता हूँ कोई ब्लॉग को साहित्य न माने तो न सही यहाँ किसको गरज है . हम तो ब्लॉग को साहित्य से कहीं आगे ले जाने वाले हैं, पर कोई माने तब न :)
साहित्य और ब्लाग का अन्तर एकदम सुस्पष्ट हो गया
ReplyDeleteसाहित्य = जो सिर्फ कल्पना में हो, जिसका यथार्थ से कोई वास्ता न हो, जो भंग की तरंग में लिखा गया हो. साहित्य में आस पास के किसी की दारुण दशा पर आंसू बहाये जा सकते हैं, आस पास के किसी को मारा भी जा सकता है और उसे भोगा हुआ यथार्थ कह कर पाठकों को परोसा जा सकता है. पाठक सोचेगा हाय हाय, लेखक कितना पर दुख कातर है!
शायद इसीलिये जब किसी साहित्यकार से यथार्थ में मिलते हैं तो निराशा होती है
आप साहित्यकार तो नहीं बनने जा रहे शिवभाई?
गला रुंध गया है। हाथ कांप रहे हैं। अर्जुन सी दशा हो रही है।
ReplyDeleteहे गोविन्द! आपके विराट साहित्यकीय रूप के दर्शन हुये। हे केशव, आज से मैं चिरकुट सच की बजाय साहित्य ठेलन करूं, इसकी शक्ति दें।
हे शिव, घुन्नन को रीइन्वेण्ट कर आपने जो पशुपतास्त्र चमकाया है, उसकी जय हो!
कितने दिनों तक रहना है घुन्न को !!
ReplyDeleteजय हो अब देखते जाईये ब्लागजगत मे कितनी घुन्नन पोस्ट आयेंगी.:) माल बिल्कुल मौलिक लग रहा है.:)
ReplyDeleteरामराम.
आपका लिखा हर बार पसंद आता है। इस बार भी। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteअब मैं उसके वापस आने की बाट जोह रहा हूँ........और मैं भी.
ReplyDeleteपहले तो ई बताओ, इसे किस श्रेणी में डालें? व्यंग्य होते हुए भी है नहीं. साहित्य के साथ थोड़ी यह परेशानी रहती ही है.
ReplyDeleteब्लॉग वास्तविकता है, साहित्य काल्पनिक होता है. जैसी साहित्यकार की कल्पना. वहाँ रूहें आ सकती है, उस घटना के लिए जो हुई ही न हो. गुजरात दंगो पर असगर वजाहत की कहानियों की बात कर रहा हूँ.
दोनो पोस्ट पढी हमे तो खुद अपने बचपन की याद हो आई तो स्सवन भी है गाँव हो आते हैं झूले भी पडे होंगे और जलेबियाँ भि मिल जायेंगी आभार्
ReplyDeleteएक टिप्पणी और बोनस समझ लें. :)
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर मिलन रहा...हम शहरी लोग अपनी जड़ों से कटते जा रहें है (किसने कहा था, कटने को?) घुन्नन कहीं पीछे छूट गया है, बेरहम बजारवाद (?) ने शहरों और गाँवों के बीच की खाई को गहरा ही इतना कर दिया है (भले ही बजारवाद के चलते शहरी सुविधाएं गाँवों में पहूँच रही हो) खाई इतनी गहरी की दो दोस्त मिलन को तड़पते रहते है. आखिर क्या मिला इस विकास से....न जलेबी बची न बचपन का प्रेम...सब यांत्रिक हो गया है....पश्चीम की हवा से आज की पीढ़ी बिगड़ गई है (अरे..कहाँ से कहाँ पहुँच गए?)...'हाय ड्यूड' कहने वाले क्या जाने घुन्नन क्या है...जलेबी क्या है...आप भाग्यशाली है जो मित्र से मिल सके. सबका भाग्य ऐसा कहाँ. आँखे भर आयी है. गला रूँध सा गया. आपने बहुत ही संजीव चित्र खिंचा है. सारे पात्र जिवंत हो गए.
(ज्यादा तो नहीं हुआ? :) )
सिर्फ़ चोटिया जलेबी खाने के लिए इतना लम्बा पोस्ट ठेल सकते हैं, ये अन्दाजा नहीं था, नहीं तो हमने अब तक कब का एसएमएस कर दिया होता! लीजिए अभी करता हूं.
ReplyDeleteअरे वाह! जय हो घुन्नन और आपकी मित्रता की!
ReplyDeleteमजा आ गया
ReplyDeleteएक घुन्नन जिससे ठीक से मिले भी नहीं और एक २५० ग्राम चोटिया जलेबी ही ऐसी अमर साहित्यिक कृति को जन्म दे सकती है. आपकी यह रचना कालजयी है. आने वाले ५० वर्ष बाद इसका मह्त्व न सिर्फ बरकरार रहेगा बल्कि बढ़ जायेगा-क्योंकि अभी चोटिया शब्द चकित करता है और तब तो जलेबी और मर्तबान शब्द भी चकित करेंगे. जो जितना चकित कर सके, उतना महान साहित्य-ऐसा कल ही एक ज्ञानी ने आभास कराया और आज आपने कर दिखाया.
ReplyDeleteआप महान हैं. इस घोर साहित्यिक रचना की उपज भूमि उस हल्की फुल्की ब्लॉग पोस्ट के दर्शन पहले ही कर चुका हूँ वरना तो यह और भी चकित करती.
दोनों पोस्ट और टिप्पणी पढने के बाद ही पूरा मामला समझ आता है।
ReplyDeleteमेरे विचार से ये पोस्ट अमूर्त (Abstractism )का द्विबीजपत्री फल (पोस्ट) है :)
bhaiya kya bat hai, aapne to gyaan ji ke ghunnan milan ko ek naya hi rup de diya.
ReplyDeleteआर्ट मूवी-सी लगी। अंतराल से पूर्व ज्ञान जी की पोस्ट और अंतराल के बाद शिव जी की:)
ReplyDeleteजय हो सुदामा प्रिय कृष्ण की।
ReplyDeleteमाफ कीजिए, मुझे तो ज्ञानदत्त वाला छोटा पोस्ट घुन्न ही अधिक साहित्यिक (या साइबरित्य) लगा, उसी के 50 साल जीने की अधिक संभावना है!
ReplyDeleteयह तो जबर्दस्ती खींचा हुआ लेखन लगा, ईमानदारी से कहता हूं!
" उन्हें अंकवारि भरे पंद्रह मिनट तक भेंटता रहा. इच्छा तो हुई कि एक घंटा तक भेंटे .."
ReplyDeleteहां, हां, भेंटिये --घणा गे युग जो आ गया है!!!!!!!!!!!! जय हो चोटिया जलेबी की:)
अरे मिसीर जी, ..हमको तो पहले से ही शक था की ई जलेबी जरूर बामन ही है..आज आप बताये की इका चोटियों होता है था हमरा शक यकीन में बदल गया..मुदा हम कभी खाए नहीं हैं..आ अब ता जिलेबी से ज्यादा ..ससुरा ऊका चोटिया खाने का मन कर रहा है..ई घुनान्न्वा ता हमको भी अपना लाप्तान्वा का याद दिला दिया..बस एके गो अंतर था..ओका साथे हम ..नोक वाला लित्तिया खाते थे...बड़ा भारत मिलन टाईप लगा ई एपीसोड...जानते हैं..अरे मिसर जी आप जानबे करते होंगे...
ReplyDeleteज्ञान जी और घुन्नन जी को बहुत बहुत धन्यवाद। ज्ञान जी ना लिखते तो हम सब इस घोर साहित्यिक रचना रुपी चोटिया जलेबी का स्वाद ना ले पाते!!
ReplyDeleteएकदम आईएसआई मार्का असली साहित्य।
ReplyDeleteखूब पतंग उड़ी मिलन-जुलन की लेकिन बालसुब्रमण्यम जी लंगड़ भी लगाये हैं-पूरी ईमानदारी से।
ReplyDeleteचलो पोस्ट व टिप्पणियाँ पढने के बाद पता तो चला की साहित्य क्या होता है |
ReplyDeleteवैसे आलेख बहुत अच्छा लगा पढ़कर हमें भी स्कूल के दिन याद आ गए | साथ ही रामावतार की दुकान की कलाकंद |
अगली बार जब घुन्नन आयें तो उनसे फिर मिलवाईयेगा और हमारी तरफ से भी जलेबी खिलाइयेगा ।
ReplyDeleteसौरी भाई,हम ता समझबे नहीं किये की ई साहित्यिक कालजयी रचना कृति है....उ ता संजय बेंगानी जी की टिपण्णी पढ़े ता बुझाया की ई बहुते महान लेखन है....."घुन्नन मिलन साहित्यिक दृष्टि से"
ReplyDeleteचलो ई हमरा सौभाग्य है की एतना महान साहित्यकार से हमरा जान पहचान है....धन्य भाग हमारे.
बंधू अब आप ही कहिये अगर ये साहित्य नहीं है तो और क्या है? बाल सखा घुन्नन पर आप जो लिखें हैं उसे पढ़ कर आज भले ही कोई उसे ब्लॉग पोस्ट समझ कर भुला दे लेकिन कल इसी पोस्ट को देखिएगा लोग सर आँखों पे बिठाएंगे और हो सकता है की उच्च माध्यमिक बोर्ड इसे हिंदी साहित्य की किसी किताब में जगह भी दे दें.
ReplyDeleteआपने चोटिया जलेबी को, जिसे हमने आज तक नहीं खाया था, इतिहास में अमर कर दिया है.
हम आपके इस विलक्षण लेखन के सम्मुख नतमस्तक हैं...
नीरज
बहुत प्यारी पोस्ट
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