शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय, ब्लॉग-गीरी पर उतर आए हैं| विभिन्न विषयों पर बेलाग और प्रसन्नमन लिखेंगे| उन्होंने निश्चय किया है कि हल्का लिखकर हलके हो लेंगे| लेकिन कभी-कभी गम्भीर भी लिख दें तो बुरा न मनियेगा|
||Shivkumar Mishra Aur Gyandutt Pandey Kaa Blog||
Thursday, November 29, 2007
ब्लॉगिंग पर कविता
जब भी 'कविता' लिखने के लिए जरूरी मात्रा में तुकबंदी करने बैठा, पचास ग्राम से ज्यादा तुकबंदी नहीं कर सका. आज पहली बार हुआ कि तुकबंदी की मात्रा सौ ग्राम पहुँच गई. इसीलिए ये कविता लिख डाली. झेलिये:
ब्लॉग खोलकर बैठ गए हैं
पोस्ट ठेलकर खुश हो जाते
दिन में बीसों बार देखते
पाठक कितने आते-जाते
बने निवेशक टिप्पणियों के
बिना मांग के भी दे देते
अगर मिले ना वापस भी तो
दिन कट जाता पीते-खाते
तीन के बदले एक मिले जो
चेहरा उसपर भी खिल जाता
कभी-कभी ऐसा भी होता
नहीं मिले फिर भी टिपियाते
मिले टिपण्णी यही जरूरी
नाम दिखे या हो बेनामी
कभी-कभी गाली पाकर भी
ब्लॉगर कितने खुश हो जाते
विषयों की भी कमी नहीं है
नेता, जनता, रेल, खेल में
कविता हो या गजल, कहानी
खोजें जहाँ वहीं पर पाते
लेकिन मोदी बिना अधूरी
ब्लागिंग की ये अमर कहानी
जहाँ मिले मौका खुश होकर
उन्हें कोसते और गरियाते
और एक उपलब्धि हमारी
हमने मेहनत से पाई है
तन्मयता से गुटबाजी कर
अपनी बातों को फैलाते
भाषा की ऐसी की तैसी
हम तो 'लिक्खें' नूतन भाषा
हिन्दी में अंग्रेजी जोडें
और अंग्रेजी में 'हिन्दियाते'
बड़े निराले नाम ब्लॉग के
और अनूठे ब्लॉगर के भी
सब में दर्शन रहे खोजते
कुछ में बिन खोजे ही पाते
ऐडसेंस में बड़ा सेंस है
जिनको बात समझ में आई
पोस्टों की बस झड़ी लगाकर
पाठकगण को बहुत सताते
गाली लिक्खें, कसें फब्तियाँ
दुखी अगर कोई हो जाता
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का
टूटा हुआ रेकॉर्ड बजाते
ये सारी बातें हैं फिर भी
कोई डोर हमें बांधे है
मिलकर हमसब गिरते-पड़ते
चिट्ठापथ पर चलते जाते
चिट्ठापथ पर चलते जाते
Wednesday, November 28, 2007
टेस्ट पोस्ट्- एक जोक ही सुन लें!
सरकारी विभाग के एक ठेका दिया जाने वाला था - एक दीवार की मरम्मत का। तीन प्रत्याशी सामने आये। पहले ने कागज पर गणना की और कहा - 900 रुपये। चार सौ का माल, चार सौ की मजूरी और 100 मेरा लाभ।
दूसरा तगड़ा प्रतिद्वन्द्वी था। गणना कर बोला - 700 रुपये। तीन सौ का माल, तीन सौ मजूरी और 100 मेरा लाभ।
तीसरा प्रतिद्वन्द्वी सबसे स्मार्ट था। उसने कोई गणना नहीं की। कागज-कलम का कोई प्रयोग नहीं किया। वह तुरंत अधिकारी के कान में फुसफुसाया - 2700 रुपये। हजार आपके, हजार मेरे और सात सौ इस दूसरे वाले से काम कराने के।
अधिकारी प्रसन्न! तुरत बोला - बिल्कुल सही। दो हजार सात सौ पर तय!
Monday, November 26, 2007
ब्लॉग में ब्लॉगर
ब्लॉगवाणी पर पोस्ट आने के बाद चिट्ठे के नाम के आगे चिट्ठाकार का नाम आता है. कई बार दोनों को मिलाने पर बड़े रोचक वाक्य बनते हैं. एक नज़र डालिए;
पहलू में चंद्र भूषण -किसके?
मीडिया व्यूह में नीशू - चक्रव्यूह का ज़माना गया अब.
छाया में प्रमोद रंजन - घनी है या नहीं?
जूनियर कौंसिल में संजीव तिवारी - भगवान् प्रमोशन दें
विस्फोट में संजय तिवारी - कब कौन कहाँ फंस जाए, कह नहीं सकते
झारखण्ड राज्य में राजेश कुमार - बगल में बिहार और बंगाल भी है
दर्पण के टुकडे में कृशन लाल 'किशन' - कितने टुकडों में हैं, सर
समयचक्र में महेंद्र मिश्रा - समय का चक्कर है
एक हिन्दुस्तानी की डायरी में अनिल रघुराज - और किसी का नाम नहीं है?
खेत खलियान में शिव नारायण गौर - भारत एक कृषि प्रधान देश है.
इन्द्रधनुष में नितिन बागला - रंग पूरे हैं तो?
तीसरा खम्बा में दिनेश राय द्विवेदी - बाकी दो में कौन है?
जीवनधारा में अस्तित्व - बाकी है तो ?
कबाड़खाना में दीपा पाठक - ऐसी जगह क्यों चुनी?
निर्मल आनद में अभय तिवारी - बहुत कम लोगों को नसीब होता है
चिटठा चर्चा में अनूप शुक्ल - केवल चिटठा चर्चा में?
कही अनकही में खुश - होना ही चाहिए
भूख में सत्येन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव - समय निकाल कर कुछ खा लीजिये
बाल उद्यान में नंदन - और किसी को इजाजत नहीं है
ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल में ज्ञान दत्त पाण्डेय - कौन किसके अन्दर है?
बाज़ार वाकई 'बिग' है
मैंने कहा; "अचानक ट्राली बदलने की जरूरत कैसे पड़ गई?"
बोले; "असल में छोटा घर है. जगह कम है. मैंने सोचा छोटी ट्राली लेने से जगह भी बचेगी और काम भी चल जायेगा. अब सोच रहा हूँ, 'बिग बाज़ार' से खरीद लूंगा. मिसेज बता रही थी कि नया वाला बिग बाज़ार काफ़ी बड़ा है. वहाँ फर्नीचर सस्ते मिलते हैं."
शाम को 'बिग बाज़ार' से डेलिवरी वैन आई. चंदन दा के घर के सामने खड़ी हुई. मैंने देखा उसमें से सैमसंग की दीवार पर टांगने वाली एलसीडी टीवी उतर रही है. सामने चंदन दा खड़े थे. मैंने पूछा; "टीवी ट्राली के साथ-साथ ने टीवी भी खरीद ली आपने?"
मुझे सालों पहले पढ़ा एक चुटकुला याद आ गया. चुटकुला कुछ यूं था;
मैनेजर इस सेल्समैन से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका. उसने सेल्समैन से पूछा; "तुमने एक ही कस्टमर को इतना सारा सामान कैसे बेंचा?"
Friday, November 23, 2007
तीस साल के साम्यवादी शासन की फसलें
सान्याल साहब की निराशा समझी जा सकती है. कितने अरमान लेकर उन्होंने नक्सलबाड़ी का आन्दोलन शुरू किया होगा. लेकिन सब गुड़ गोबर हो गया. सत्ता में आए साम्यवादियों की सराहना पिछले महीने तक जारी थी. लेकिन परिस्थितियां बदलने के लिए शायद एक महीने का समय काफ़ी होता है. जो साम्यवादी सत्ता में नहीं हैं और जिनका साम्यवाद लेखन और पाठन तक सीमित है वे बेचारे भी दुखी हैं. सत्ता पाने के लिए किया गया संघर्ष सत्ता मिलने पर ख़त्म हो जाता है. साथ में लुट जाती है सिद्धांतों की पोटली, जिसमें किताबें बांधकर सत्ता पाने का संघर्ष किया जाता हैं.
लेकिन 'साम्यवादियों' का अत्याचार क्या केवल पिछले महीने की ही बात है? इन लोगों ने जिस देश में सत्ता का स्वाद पहली बार चखा, वहाँ की कहानी कैसे भूल जाते हैं? स्टालिन भी साम्यवादी थे, इस बात में लोगों को संदेह रहता है क्या? या फिर साम्यवाद के इस महान सपूत ने क्या-क्या किया, किसी को मालूम नहीं है. जहाँ तक अपने देश की बात है, तो पिछले महीने तक क्या सब कुछ ठीक था? अस्सी और नब्बे के दशक तक विरोधी पार्टियों को वोट देने वाले अंगूठे काट दिए जाते थे, ये बात किसी से छिपी नहीं है. हाँ, उदासीनता की चादर ओढ़ कर कुछ भी न देखने का नाटक तो कोई भी कर सकता है. वैचारिक मतभेद की बात आती है तो सत्ता में बैठे लोग (या फिर वे भी, जो सत्ता का सुख नहीं भोग पाने के कारण दुखी रहते हैं) किसी भी तह तक गिरने के लिए तैयार बैठे रहते हैं. फिर चाहे पाठ्यपुस्तकों से स्टालिन जैसे 'महान साम्यवादी' के ख़िलाफ़ लिखे गए लेख को हटाने की बात हो, या फिर निरीह किसानों को उनके ही घर से निकालने की बात, सब कुछ करना चुटकी बजाने के बराबर रहता है.
पश्चिम बंगाल में भूमि सुधारों को आगे रखकर कुछ भी करने के लिए तैयार बैठे लोग क्या-क्या कर सकते हैं, नंदीग्राम उसका एक नमूना मात्र है. ऐसा नहीं है कि नंदीग्राम पहली घटना है. इससे पहले भी कितना कुछ हो चुका है. इस बार समस्या केवल ये हो गई कि मामला सामने आ गया. लेकिन उससे भी क्या होने वाला है. सब कुछ सामने आने के बाद भी बेशर्मी से 'तर्कों' के जरिये सारी बातों को सिरे से खारिज कर रहे हैं. इतने सालों के शासन के बाद भी आम आदमी को राशन की दुकानों से अनाज तक नहीं दिला सके. ऊपर से तुर्रा ये कि "हमने सार्वजनिक वितरण प्रणाली में ऐसे परिवर्तन किए हैं, जो देश में और कहीं नहीं दिखाई देता." ऐसे परिवर्तन का नतीजा है कि जनता राशन दुकानों को लूटने पर आमादा है.
तीस सालों के शासन के बाद की पैदावार से निकला क्या? मोटरसाईकिल पर लाल झंडा गाड़े कैडर, अपने-अपने संसदीय क्षेत्रों में राजा की तरह जीने वाले सांसद जो चुनाव आयोग को बताते हैं कि उनके पास केवल चार सौ पैसठ रुपये हैं, मुहल्ले में चलने वाले क्लब जिनमें चालीस साल की उम्र वाले 'डेमोक्रेटिक यूथ' कैरम खेलते हैं, दूसरों की जमीन पर कब्जा करते हैं और वहाँ रहने वालों को डराते-धमकाते हैं.
इसके अलावा नयी फसल में एक चीज और उपजी है, नंदीग्राम.
Thursday, November 22, 2007
ब्रोकर, एनॉलिस्ट, आलोक पुरणिक और मैं
आलोक पुराणिक जी ने आज अपनी पोस्ट में मेरे पेशे के बारे में राज की बात बताई है -
जो समझ जाते हैं, वो नोट कमाते हैं। जो नोट नहीं कमा पाते हैं, वो शेयर बाजार एक्सपर्ट हो जाते हैं, और टीवी वगैरह पर बताने लगते हैं कि अईसे कमाओ या वैसे कमाओ।यह पोस्ट पढ़ कर मैने वहां दन्न से तुकबन्दी में एक लम्बी टिप्पणी ठेल दी है। मुझे मालुम है कि तुकबन्दी अपनी तरंग जाहिर करने की सटीक विधा है। उस तरंग को आप इस पोस्ट में भी ग्रहण करें/झेलें:
एक ब्रोकर और एक एनालिस्ट
साथ गए रेस कोर्स
एनालिस्ट था बुझा-बुझा
ब्रोकर में था गजब का फोर्स
रेस कोर्स पंहुचते ही
दस नम्बर के घोडे पर
ब्रोकर ने लगा दिया पैसा
एनालिस्ट से पूँछ बैठा;
तुम नहीं लगाओगे
एनालिस्ट बोला
हम तो पहले स्टडी करेंगे कि;
घोडे का पास्ट रेकॉर्ड्स है कैसा
ब्रोकर झल्लाया
एनालिस्ट को सुनाया
तुम बहुत कैलकुलेट करते हो
उसी के बेस पर
एनालिस्ट होने का दम भरते हो
रेस हुई
रिजल्ट आया
ब्रोकर का घोडा जीत गया
ब्रोकर ने बहुत पैसा कमाया
एनालिस्ट हैरान
ब्रोकर को देखकर परेशान
ब्रोकर से पूछ बैठा
अच्छा ये बताओ
इतने सारे घोडे थे
कुछ तो शक्तिमान दिखते थे
कुछ शक्ति में थोड़े थे
लेकिन ऐसा क्यों कि;
तुमने दस नम्बर के घोडे पर ही
पैसा लगाया
ये आईडिया कहाँ से आया
ब्रोकर बोला
मेरे दो बेटे हैं
एक छ साल का और
दूसरा तीन साल का
मैंने दोनों की उम्र को मिलाया
जो भी फिगर आया
उसी नंबर के घोडे पर
पैसा लगाया
तुम ख़ुद ही देख सकते हो
मैंने कितना माल कमाया
पूरी तरह से रीझ गया
लेकिन मन ही मन
थोड़ा सा खीझ गया
बोला;
कैसी ख़राब गणित है तुम्हारी
छ और तीन तो नौ होते हैं
ये किस तरह से प्लस करते हो
ब्रोकर बोला
मैंने पहले ही कहा था
तुम कैलकुलेट बहुत करते हो
Wednesday, November 21, 2007
देवेगौडा जी क्या करें, राज्य का नाम ही है कर-नाटक
बीजेपी के शासन करने की बारी आई तो देवेगौडा जी को याद आया कि बीजेपी वाले तो कम्यूनल हैं. एक कम्यूनल पार्टी सत्ता से बाहर रहकर समर्थन दे, ये बात उन्हें गंवारा है लेकिन सत्ता के अन्दर रहे, ये बात देवेगौडा जी को कैसे पचेगी. सो उन्होंने समर्थन देने से मना कर दिया. पिछले कई महीनों से सेक्यूलर नाम के बुखार से त्रस्त है बेचारे. बीजेपी वाले जब भी मनाने गए तो उन्हें बुखार नहीं था. लेकिन जब सदन में वोट देने की बात आई तो बुखार वापस आ गया. मलेरिया टाइप होता होगा ये बुखार जो कुछ दिनों के अंतराल पर आता है.
देवेगौडा जी ने कांग्रेस के साथ भी कुछ समीकरण बैठाने की कोशिश की लेकिन वो हो नहीं सका. कांग्रेस तो ख़ुद अपने आपको महा सेक्यूलर पार्टी मानती आई है. अगर ये लोग देवेगौडा जी की पार्टी के साथ कुछ करने के मूड में होंगे भी तो देवेगौडा साहब की पार्टी का नाम देखकर डर गए होंगे. उनकी तो पार्टी के नाम के साथ भी सेक्यूलर लगा हुआ है. जाहिर सी बात है, कांग्रेस वाले डर गए होंगे कि कहीं देवेगौडा जी सेक्यूलेरिस्म की पूरी हवा समेट कर अपने पास न रख लें. ऐसे में कांग्रेस से भी बड़ा सेक्यूलर पैदा हो जायेगा.
देवेगौडा जी के कारनामे पर लोग तरह-तरह की बातें कर रहे हैं. कोई इसे लोकतंत्र के इतिहास में काला अध्याय बता रहा है तो कोई लोकतंत्र का कत्ल. हाँ और ना बोलने के नए-नए रेकॉर्ड्स बन रहे हैं. सुन रहे थे देश के राष्ट्रपति ने भी एक तरह का नया रेकॉर्ड बनाया है. इतने कम समय में दो बार एक राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने का.
हम सभी सुनते आए हैं कि लोकतंत्र तरह-तरह के रेकॉर्ड्स से चलता है. वोटर का रेकॉर्ड्स, नेता का रेकॉर्ड्स, शासन का रेकॉर्ड्स. इन रेकॉर्ड्स में कुछ और नए रेकॉर्ड्स और जुड़ जायेंगे.
वसीम बरेलवी साहब का शेर है. लिखते हैं;
हमारा अज्म-ऐ-सफर कब किधर का हो जाए
ये वो नहीं जो किसी रहगुजर का हो जाए
उसी को जीने का हक़ है जो इस जमाने में
इधर का दिखता रहे और उधर का हो जाए
Tuesday, November 20, 2007
ब्लॉग समाज के सदस्यों से अपील- सचिन को रास्ता दिखाये
सचिन फिर से शतक नहीं बना सके. कितने महीने बीत गए, एक शतक के लिए देश भर को तड़पा रहे हैं. देश के आधे लोगों की तड़प देखकर बाकी आधे तड़प रहे हैं. टीवी वाले सबसे ज्यादा दुखी दिख रहे हैं. धंधा ठीक ही चल रहा है लेकिन देश के लोगों के दुःख में शरीक हैं, ये भी दिखाना है, सो कैमरे पर आंखें दुखी हैं और माइक पर आवाज.
कोशिश के नाम पर केवल टीवी वालों ने ही मुंह पीट कर लाल कर लिया. एक चैनल पर देखा. ज्योतिषियों की भीड़ लगी थी. एक ने बताया; "देखिये, उनका चंद्र ठीक से ड्यूटी नहीं कर रहा है. उन्हें अपने चन्द्र के बारे में कुछ करना पडेगा."
टीवी चैनल के एंकर ने पूछा; "क्या लगता है आपको? सचिन को क्या करना चाहिए कि उनका चन्द्र ठीक से ड्यूटी पर आ जाए."
ज्योतिषी ने जवाब दिया; "उन्हें चांदी के गिलास में पानी पीना चाहिए. रात को चन्द्रमा को निहारना चाहिए. बैटिंग करने से पहले अगर वे चांदी का बुरादा पिच पर छिड़कें तो शतक बन जायेगा."
मैंने सोचा ऐसा सचिन कर सकते हैं. लेकिन कहीं ऐसा न हो कि क्रिकेट की 'गवर्निंग बाडी' आई सी सी उन्हें पिच की कंडीशन बदलने को लेकर सजा न सुना दें. अगर शतक बन भी जाए तो आई सी सी उस शतक को रेकॉर्ड बुक में जाने से ही रोक दे. मैच फीस की कटौती ऊपर से. सचिन भी सोचेंगे कि चांदी का बुरादा खरीदने में पैसे खर्च हो गए, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला.
एक और ज्योतिषी को देखा. बोले असल में समस्या चन्द्र की नहीं है. ये सारा कुछ मंगल का किया धरा है. सचिन का मंगल उनके लिए अमंगल पैदा कर रहा है. बोल रहे थे कि नौ की संख्या का रिमोट मंगल के हाथ में रहता है इसलिए शतक बन नहीं पा रहा. नब्बे और निन्यानवे के बीच सब कुछ रह जाता है. मुझे लगा इससे पहले भी तो सचिन ने इतने शतक लागाये हैं, तो क्या उस समय ये मंगल रिमोट कहीं रखकर भूल गया था क्या. एक ज्योतिषी ने तो समाधान बताया कि जिस शहर में खेलने जाएँ, वहाँ बह रही नदी में एक गिलास पानी सुबह-सुबह डाल दें, शतक बन जायेगा. इन ज्योतिषियों की बातें सुनकर लगा कि सब कुछ बड़ा सरल है. क्या जरूरत है बैटिंग की प्रैक्टिस की. क्या जरूरत है मेहनत करने की. चांदी की गिलास, चांदी का बुरादा, शहर की नदी ही काफ़ी है.
सोचते-सोचते मुझे एक खबरिया चैनल पर राशिफल बताने वाली एक महिला की बात याद आ गई. किसी राशि के लोगों के लिए दिन कैसे जायेगा, बताते हुए इस महिला ज्योतिष ने कहा था; "आप काली गाय को आज सबेरे-सबेरे पालक खिलाईये. और पालक खिलाते समय ध्यान रहे, कि आपने हरे रंग की शर्ट पहनी हो." मुझे लगा जुलाई महीने में इतनी भयानक बरसात होती है. ऐसे मौसम में पालक किसान तो क्या किसान का बाप भी नहीं उगा सकेगा. और फिर अगर कोई शहर में रहता हो और काली गाय खोजने निकल पड़े तो शायद घंटों का समय बरबाद हो जाए. आफिस में अब्सेंट लगेगा सो अलग. उस बेचारे का दिन तो ऐसे ही ख़त्म.
वैसे सचिन के लिए सबसे बढ़िया सुझाव उनके पुत्र ने दिया. बोला; "क्या जरूरत है आउट होने की. जब चौरानवे पर पहुँचें, तो एक छक्का लगा दें, झमेला खत्म." ये हुई न बात. क्रिकेटर का बेटा क्रिकेट खेलने की ही सलाह देगा.
वैसे आपके पास कोई सलाह हो तो जरूर बतायें. सचिन को अगर ज्योतिषी सलाह दे सकते हैं तो फिर ब्लॉगर क्यों नहीं.
Wednesday, November 14, 2007
दिल्ली में बन्दर - कुछ उतरे सडकों पर कुछ घर के अन्दर
समाचार यह है कि
तीज में, त्यौहार में
वित्त मंत्रीजी, इनकी मांगें पूरी करो
अस्सी और नब्बे के दशक में दूध वाला घर पर दूध दे जाता था. गाय का 'प्योर' दूध. बेचारा कभी-कभी पानी मिलाना भूल जाता था. दूध वाले से बड़ी शिकायत रहती थी. उसके सामने तो कुछ नहीं कहते थे लेकिन उसके जाने के बाद शुरू हो जाते थे; "इसकी बदमाशी बढ़ गई है. पहले केवल पानी मिलाता था, आजकल मूंगफली पीस कर दूध में मिला देता है जिससे दूध गाढा दिखे. इसे अब छुड़ाना ही पडेगा." लेकिन दूसरे दिन फिर पानी वाला दूध पीकर संतोष कर लेते थे.
आजकल दूध वाले को गाली देना बंद हो गया है. क्यों न हो, अब बाजार से पैकेट वाला दूध आता है. सालों तक ये कहकर पीते रहे कि "दूध ताजा तो नहीं रहता लेकिन प्योर रहता है." लेकिन यह क्या, हाल में रिपोर्ट आई है कि दूध में यूरिया मिलाया जाता है. साथ में डिटरजेंट भी. कहते हैं यूरिया मिलाने से दूध ज्यादा गाढा और सफ़ेद लगता है. उसके प्योर दिखने में कोई शक नहीं रहता. जब से पता चला है, गिलास में रखे दूध को शक की निगाह से देखते हैं. मन में 'लाऊडली' सवाल पूछ लेते हैं; "दूध पी रहे हो कि यूरिया?"
टीवी पर दूध में यूरिया मिलाने वालों को देखा. बता रहे थे इस मिलावट के धंधे में भी ज्यादा कुछ प्राफिट नहीं रहा अब. पानी के अलावा बाकी सब कुछ मंहगा है. क्या कर रही है सरकार? समाज के किसी वर्ग को तो मंहगाई की मार से बचाए. इन लोगों के लिए कम से कम यूरिया और डिटरजेंट तो सस्ता करवा सकती है. धंधा करने के लिए पुलिस से लेकर इलाके के नेता को पैसा देना पड़ता है. कम से कम नेताओं और पुलिस वालों से तो कह सकती है कि; 'भैया, इन लोगों का ख़याल रखो. इनके लिए अपनी 'फीस' में से कुछ छोड़कर इन्हें राहत दो.'
हाल में रिपोर्ट आई है कि दूध में यूरिया मिलाया जाता है.... जब से पता चला है, गिलास में रखे दूध को शक की निगाह से देखते हैं. मन में 'लाऊडली' सवाल पूछ लेते हैं; "दूध पी रहे हो कि यूरिया?" |
मिलावटी मामलों पर सरकार के एक अफसर को टीवी पर बोलते हुए देखा. उन्होंने समझाया कि किस तरह से खाने की चीजों में मिलावट रोक पाना आसान नहीं है. कह रहे थे "देखिये, हमारे देश में कानून ढीला है. सालों से बदलाव नहीं हुआ है. फ़ूड इंसपेक्टर कम हैं. नगर निगम ध्यान नहीं देता. ये मिलावट करने वाले एक्सपर्ट होते हैं. पुलिस भी इनसे मिली हुई है. फिर भी हम कोशिश तो कर ही रहे हैं."
मैं अपने आपसे बहुत नाराज हुआ. मन में अपने आपको धिक्कारा. मैंने सोचा "एक ये हैं जिन्हें देश में होने वाले हर वाकये की जानकारी है और एक मैं हूँ जिसे कुछ नहीं पता. कम से इतना तो पता कर सकता हूँ कि मिलावट करने वाले बड़े एक्सपर्ट होते हैं. देश का कानून पुराना और ढीला है."
बजट आ रहा है. दिसम्बर महीने से ही उद्योगों के तमाम क्षेत्रों के लोग 'गिरोह' बनाकर वित्तमंत्री से मिलना शुरू कर देंगे. अपने-अपने उद्योगों के लिए कस्टम और एक्साईज में कटौती की मांग करेंगे. मैं तो इस बात के पक्ष में हूँ कि मिलावट उद्योग के लोगों को भी वित्तमंत्री से मिलना चाहिए. दूध में मिलावट करने वाले कम से कम यूरिया पर मिलाने वाली सब्सिडी को बढ़ाने की मांग कर ही सकते हैं. साथ में डिटरजेंट और बाकी के 'रा मैटीरियल' पर सेल्स टैक्स, कस्टम, एक्साईज वगैरह कम करने की मांग भी जरूर करें.
Tuesday, November 13, 2007
पिटाई की राह ताकता लेखक
मैंने दुर्गा-पूजा पर एक 'रिजेक्टेड निबंध' लिखा तो ब्लॉगर मित्रों ने मुझे चेताया कि 'श्रध्दा और भक्ति' वालों से बचकर रहना, कहीं ऐसा न हो कि एक दिन धुनक कर धर दें. उसके बाद मैंने अपने राज्य में होने वाले बंद को लेकर लिखा तो भी लोगों ने मुझसे सहानुभूति दिखाई. ये कहते हुए कि "बंद वालों से संभल कर रहना, कहीं पिटाई नहीं कर दें तुम्हारी." लोगों से मिली सहानुभूति और चेतावनी ने मुझे और उकसा दिया है कि मैं तमाम लोगों के ख़िलाफ़ लिखूं.
अब मैं उस दिन का इंतजार कर रहा हूँ जब कुछ लोग आकर मुझे धुनक देंगे. मुझे इन लोगों के ऊपर गुस्सा आ रहा है कि अभी तक किसी ने पिटाई क्यों नहीं की. मैं सोच रहा हूँ कब आयेंगे मेरे ये तारनहार और मेरी पिटाई करेंगे. मैं उस दिन के बारे में सोच रहा हूँ जब अखबार में ख़बर छपेगी, "लेखक पिट गया." कम से कम लोग मुझे लेखक कहकर सम्बोधित तो करेंगे. सपने देखने लग गया हूँ अब. लोग मुझे दो-चार झापड़ मारेंगे, लेकिन इसका फायदा भी तो होगा. मुझसे सहानुभूति दिखाने वाले मुझे लेखक कहेंगे. हमारे शहर के बुद्धिजीवी मेरे लिए आगे आयेंगे. सरकार को लानत भेजेंगे कि; 'राज्य में 'लेखक' सुरक्षित नहीं रहे अब.'
आहा, क्या नजारा होगा. सुनील गंगोपाध्याय मेरे बगल में बैठे होंगे. साथ में और बहुत सारे बुद्धिजीवी. पत्रकार मुझसे सवाल करेंगे. मैं जवाब दूँगा. चेहरे पर दर्द ले आऊँगा. पत्रकार मेरी तस्वीर खीचेंगे. चेहरे पर दर्द की कमी रही तो मुझे फिर से दर्द पैदा करने के तरीके बताएँगे. अखबारों में फोटो. वाह. और क्या चाहिए एक 'लेखक' को?
मुझे चंद्र मोहन की याद आ रही है कि कैसे इस कलाकार ने देवी-देवताओं की नंगी तस्वीरें बनाई, और पिटने का आमंत्रण दे डाला. पिटाई हुई, और बुद्धिजीवी उसके समर्थन में आगे आए. मोदी की जमकर आलोचना की. सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया. शबनम हाशमी ने कितना बलिदान दिया चंद्र मोहन के लिए. चंद्र मोहन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पहचान बन गए.
मुझे एक बात पर शक है. सोचता हूँ, 'मैंने देवी-देवताओं की नंगी तस्वीरें तो बनाई नहीं. क्या बुद्धिजीवी मेरे समर्थन में आगे आयेंगे?
लेकिन फिर सोचता हूँ कि अगर 'लेखक' के रुप में नहीं पिट सका तो पेंटर बन जाऊँगा.
फुटनोट:
रविवार को मैंने हमारे ब्लॉग की पचासवीं पोस्ट पब्लिश कर दी लेकिन आपको बताना भूल गया. क्या करें, भूल ब्लॉगर से ही होती है. कितना बड़ा घाटा हो गया, बाद में ख्याल आया. बहुत पछतावा हुआ. काश, ये बात आपलोगों को रविवार को ही बताई होती, तो कम से कम ३-४ कमेंट ज्यादा मिलते. आप में से कितने लोगों की बधाई मिलती. कितने लोग मुझसे बहुत जल्दी सौवीं पोस्ट लिखने के लिए कहते. कई तो जल्द से जल्द दो सौवीं पोस्ट लिखने के लिए कहते. लेकिन इसमें आपलोगों का कोई कसूर नहीं, मैं ही अभागा निकला.
जितने कमेंट्स की कमी रह गई थी, उतने ही लेने के लिए मैंने ये फुटनोट लिखा है. वैसे अगर कमेंट नहीं मिले तो मैं फिर ब्लॉग-गीरी 'छोड़ते' हुए एक पोस्ट लिख डालूँगा. फिर देखता हूँ, कमेंट्स कैसे नहीं मिलते.
Sunday, November 11, 2007
हर रंग कुछ कहता है
आज सुबह एक टीवी चैनल पर एक रिपोर्ट देखी. कानपुर के ग्रीन पार्क स्टेडियम में सब कुछ नीला हो गया है. विपक्षी दल आरोप लगा रहे हैं कि मुख्यमंत्री ने स्टेडियम में नीले रंग का प्रयोग कर के अपनी पार्टी का प्रचार करना शुरू कर दिया है. अब चूंकि उनकी पार्टी का रंग नीला है तो ऐसे आरोप स्वाभाविक हैं. मैंने सोचा नीले रंग में स्टेडियम को रंगने के पीछे क्या कारण हो सकता है.
बहुत सोचने के बाद मुझे लगा शायद कुछ ऐसा हुआ हो:-
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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कार्यालय में सचिवों की भीड़ लगी हुई थी. निजी सचिव, खेल मंत्रालय के सचिव, अम्बेडकर मामलों की मंत्रालय के सचिव, मुख्य सचिव, जरूरी सचिव, गैर-जरूरी सचिव, सब मौजूद हैं. मुख्यमंत्री ने मीटिंग बुलाई थी.
जरूरी हथजोड़ और आशीर्वाद कार्यक्रम के बाद मुख्यमंत्री ने मीटिंग शुरू करते हुए कहा; "रंगीन कंपनी का प्रचार देखा है आप लोगों ने?"
सबके चेहरे पर आश्चर्य के भाव थे. 'रंगीन कंपनी' से मुख्यमंत्री का आशय समझ नहीं पाये, लेकिन हिम्मत नहीं हुई कि मुख्यमंत्री से कुछ कहें. मुख्यमंत्री ने इन डरे हुए सचिवों की हालत का अंदाजा लगा लिया. मुस्कुराते हुए कहा; "लगता है आपलोगों को समझ में नहीं आया. कोई बात नहीं है. सचिवों को नेताओं की भाषा अक्सर समझ में नहीं आती."
निजी सचिव ने बड़ी हिम्मत करके कहा; "नहीं, ऐसी बात नहीं है मैडम. हमें अब आपकी भाषा थोडी-थोडी समझ में आने लगी है. थोड़े दिन और लगेंगे पारंगत होने में. क्षमा कीजिये, लेकिन कौन से प्रचार की बात कर रही हैं आप?"
"अरे वही प्रचार, जिसमें कहा गया है कि "हर रंग कुछ कहता है"; मुख्यमंत्री ने समझाते हुए कहा।
"अच्छा, आप रंग बनाने वाली कंपनी के प्रचार की बात कर रही हैं. हाँ हाँ मैडम, हमने देखा है वो प्रचार"; निजी सचिव ने बताया.
"आप सब केवल देखते हैं या कभी सोचते भी हैं? कभी सोचा है कि अगर हर रंग कुछ कहता है तो ग्रीन मतलब हरा रंग भी कुछ कहता होगा. केवल देखने से काम नहीं चलता."; मुख्यमंत्री ने थोड़ा नाराज होते हुए कहा.
सभी सचिवों की बोलती बंद. बेचारे तुरंत 'सोचनीय' मुद्रा में आ गए. अभी सोच ही रहे थे कि मुख्यमंत्री को क्या जवाब दें कि मुख्यमंत्री ने पूछा; "वैसे आपको क्या लगता है, हरा रंग क्या कहता होगा?"
निजी सचिव ने सकुचाते हुए कहा; "मैडम आपके सामने कैसे कहूं, लेकिन मेरी समझ बताती है कि हरा रंग कुछ ठीक नहीं कहता. जब भी देखते हैं, हमें तो लगता है जैसे ये रंग समाजवादी पार्टी के बारे में कुछ कहता है."
अब तक लगभग सभी सचिवों को मुख्यमंत्री की बात समझ में आने लगी थी. खेल मंत्रालय के सचिव ने भी निजी सचिव का समर्थन करते हुए कहा; "सर ठीक कह रहे हैं मैडम. हमें भी ये हरा रंग उसी पार्टी की याद दिलाता है. वैसे, अचानक हरे रंग की याद कैसे आ गई आपको?"
मुख्यमंत्री ने बताया; "आएगी कैसे नहीं. अभी हाल ही में कानपुर के ग्रीन पार्क स्टेडियम की मरम्मत के लिए हमने पैसा दिया है. पहले मेरे दिमाग में नहीं आई बात, लेकिन बाद में लगा कि ग्रीन के बारे में मुझे सोचना चाहिए था."
निजी सचिव ने मुख्यमंत्री की बात का समर्थन करते हुए कहा; "आप ठीक कह रही हैं मैडम. लेकिन अभी भी देर नहीं हुई है, सोचना है तो अभी भी सोच सकते हैं."
"अच्छा, तो सोच कर बताईये कि क्या किया जा सकता है. अब पैसा तो हमने दे दिया है. उसे वापस तो ले नहीं सकते लेकिन ऐसा कुछ तो जरूर कर सकते हैं कि ग्रीन के ऊपर कोई और रंग आ जाए. मेरा मतलब रंग जमाने का कोई आईडिया निकालिए"; मुख्यमंत्री ने सोचते हुए कहा.
एक सचिव को ब्रेन-वेव आ गई. उसने कहा; "मैडम क्यों न इस ग्रीन की समस्या को ब्लू से सुलझाया जाय. आप इजाज़त दें तो मैं एक आईडिया देता हूँ."
"हाँ-हाँ बताईये, क्या कहना चाहते हैं आप?"; मुख्यमंत्री का चेहरा चमक उठा. उन्हें इस अफसर से कुछ अच्छा सुनने की उम्मीद जाग गई.
"मैं कह रहा था मैडम, स्टेडियम को नीले रंग से भर दें. नीले रंग का पैवेलियन, नीले रंग की कुर्सियाँ, नीले रंग का...मतलब मैडम सब कुछ नीला ही नीला"; अफसर ने अपना आईडिया बताया.
"नहीं नहीं. इसमें तो पूरी राजनीति दिखाई देगी वो भी सरे-आम. हमने पहले ही आधे लखनऊ को नीले रंग में रंग दिया है. अब नीला रंग लखनऊ से कानपुर पहुँच गया तो लोग सवाल उठाएंगे. हमारा हाथी ही नीला रहने दीजिये"; मुख्यमंत्री ने अपनी शंका जताते हुए कहा.
"देखिये मैडम, हाथियों का क्या भरोसा. आज जो हाथी नीले हैं, कल 'सफ़ेद' भी तो हो सकते हैं. आपने तो पहले भी देखा है अपने हाथियों को सफ़ेद होते हुए. जब तक हम सब कुछ नीला कर सकें, तब तक जारी रखें. मीडिया और विपक्षी पार्टियों की खिलाफत का तरीका निकल ही आएगा. आप निश्चिंत रहे"; निजी सचिव ने समझाया.
तब तक एक और सचिव की बुद्धि का ज्वालामुखी फूट पड़ा. उसने बताया; "मैडम, आप निश्चिंत होकर पूरे स्टेडियम को नीले रंग में रंगवा दें. हमें केवल ये प्रचार करना है कि ये नीला रंग टीम इंडिया की हौसला आफजाई के लिए है. हम ये भी जोड़ देंगे कि हमने 'चक दे इंडिया' के थीम पर स्टेडियम को नीला कर डाला है."
मुख्यमंत्री ने इस अफसर की जमकर प्रशंसा की. उसे प्रमोशन का वादा भी किया है. सुना है रविवार को दस मिनट के लिए वे क्रिकेट देखने कानपुर जा रही हैं.
वैसे हम उन्हें नहीं बल्कि फुरसतिया शुकुल जी को स्टेडियम में देखने की कोशिश करेंगे.
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(चित्र ग्रीन पार्क स्टेडियम, कानपुर का। जब वैसे ही नीलाभ दीखता है तो नाम भी ब्ल्यू पार्क स्टेडियम रखने में क्या हर्ज है?)
Friday, November 9, 2007
नंदीग्राम - आज का सियाचीन
अस्सी के दशक में एक जगह के बारे में बहुत सुनते थे. नाम था सियाचीन. आए दिन वहाँ कब्जा करने का साप्ताहिक कार्यक्रम चलता रहता था. कभी भारत का कब्जा तो कभी पाकिस्तान का. ये 'कब्जात्मक' कार्यवाई सालों चली. उन दिनों भूगोल के प्रश्नपत्र में सियाचीन को लेकर प्रश्न नहीं पूछा जाता था. छात्रों की हालत ख़राब हो जाती. शायद भारत और पाकिस्तान के शिक्षा मंत्रियों ने आपस में समझौता कर लिया था कि; 'स्कूल की परीक्षाओं में सियाचीन को लेकर सवाल नहीं पूछे जायेंगे.'
कुछ दिनों के बाद सियाचीन पर कब्जे की समस्या जाती रही. बाद में ये समस्या शहरों में लोगों के मकान पर गुंडों और किरायेदारों द्वारा किए गए कब्जे तक सीमित रही. अखबार और टीवी चैनल पर ऐसी समस्याएं न पाकर लोग बोर होने लगे. 'कब्जात्मक' कार्यक्रम में आया सूखा अब जाकर ख़त्म हुआ है. हमारे राज्य में एक जगह है नंदीग्राम. आज का सियाचीन. अन्तर केवल इतना है कि सियाचीन में कब्जे का फेर-बदल दो देशों के बीच होता था लेकिन यहाँ दो दलों के बीच.
हम तो यह सोचते थे की नंदीग्राम नामक जगह हमारे देश में ही है. इसलिए यहाँ भी देश का कानून और संविधान चलेगा. लेकिन यह क्या? पश्चिम बंगाल सरकार पिछले कई महीनों से बता रही है कि वहाँ सरकार का राज नहीं रहा. पुलिस वहाँ जा नहीं सकती. सी पी एम को समर्थन देने वालों को वहाँ से बाहर कर दिया गया है. बेचारे अपना घर-बार छोड़कर स्कूल में रह रहे हैं. स्कूल बंद हैं. बच्चे महीनों से स्कूल नहीं गए. कभी किसी ने नहीं सोचा होगा कि हमारे ही देश में एक ऐसी जगह होगी जहाँ देश का क़ानून नहीं चलेगा. आए दिन यहाँ कब्जा बदलता रहता है. कभी सीपीएम वाले कब्जा कर लेते हैं कभी उनके विरोधी. गोलियों का आदान-प्रदान महीनों से जारी है.
स्थानीय स्तर पर अपने कैडरों को क़ानून अपने हाथ में लेने की छूट देने वाली सीपीएम पार्टी ने शायद ही सोचा हो कि बात-बात पर कानून को हाथ में लेने वाले ये कैडर इतने आगे निकल जायेंगे कि कानून इनका कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा. ऐसा पहली बार हुआ है कि इन महारथियों को टक्कर देने वाले और भी लोग खड़े हो गए हैं. ऐसा भी हो सकता है कि जो लोग इनके विरोध में खड़े हुए हैं, वे लोग भी कुछ महीने पहले शायद सी पी एम् पार्टी के कार्यकर्ता थे. कितने लोग मारे जा चुके हैं, किसी को नहीं पता. पता भी कैसे चले जब वहाँ प्रशासन का तंत्र जा ही नहीं सकता.
हमारे राज्य में एक नेता पाई जाती हैं. नाम है ममता बनर्जी. ममता जी जब कलकत्ते में रहते-रहते बोर होने लगती हैं तो पिकनिक मनाने नंदीग्राम चली जाती हैं. इनके आने-जाने में कई लोगों की जान खर्च हो जाती है. वहाँ भूमि के अधिग्रहण की खिलाफत करने वाली एक संस्था है. ममता जी इस संस्था को समर्थन देती हैं. सरकार का कहना है कि; 'जब हमने जमीन न लेने का एलान कर दिया है तो फिर ऐसी किसी संस्था की जरूरत नहीं है. भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय ने भी कह दिया है कि नंदीग्राम में किसानों की जमीन नहीं ली जायेगी.'
सरकार चाहती है कि उनका यह लॉजिक ममता बनर्जी समझ जाएँ. लेकिन दूसरों की लॉजिक न समझने वाली सी पी एम पार्टी को कौन समझाये कि 'जैसे आप अपने 'तर्कों' से दूसरों की बातें नहीं समझते, ठीक वैसे ही ममता बनर्जी भी नहीं समझेंगी.' इन लोगों को अब समझ में आ रहा होगा कि 'अगर सामने वाला लॉजिक समझने के लिए तैयार न हो, तो कोई उसे समझाया नहीं सकता.' कुछ दिनों पहले राज्य के मुख्यमंत्री को थोडा जोश आया तो उन्होने केन्द्र सरकार से सुरक्षा बलों की माँग कर डाली. अब कह रहे हैं कि केन्द्रीय सुरक्षा बलों को नंदीग्राम में घुसने की इजाज़त नहीं दी जा सकती. शायद नवम्बर महीने का असर है. सुना था इसी महीने में 'क्रांति' हुई थी. लगता है राज्य सरकार सोच रही है कि नंदीग्राम में भी कोई क्रांति हो जाये और स्थिति सुधर जाये.
बड़ी अजीब स्थिति है. सालों से लोग गुजरात और मोदी के पीछे पड़े हैं. कहते हैं मोदी ने राजधर्म का पालन नहीं किया. लेकिन नंदीग्राम के बारे में राजधर्म का पालन करने के लिए कहने वाला कोई नहीं है.
नीरो पश्चिमी देश के सम्राट थे. जाहिर है कि उनकी तुलना केवल पश्चिमी प्रदेश के किसी 'शासक' के साथ होनी है. हमें तो केवल ये देखना है कि नीरो का नाम दूरी तय कर के पूरब तक पंहुचता है कि नहीं.
Thursday, November 8, 2007
एक फिल्मी पोस्टर का पोस्टमार्टम
युधिष्ठिर के मन वाले प्रसंग की बात आज भी याद आ गई. उनकी एक लाख स्वर्ण-मुद्राओं वाली बात कि; 'मन सबसे तेज होता है.' कल की बात बताता हूँ. मैं और मेरा मित्र सुदर्शन साथ में घर लौट रहे थे. रास्ते में शाहरुख़ खान से मुलाक़ात हो गई. पोस्टर पर चिपके खड़े थे. बड़े-बड़े बाल.शरीर पर कोई वस्त्र नहीं. एक कंधे पर रस्सी टाँगे हुए. सिर पर कोयला खदानों के मजदूर वाला हेलमेट. पोस्टर पर लिखा हुआ था ॐ शान्ति ॐ.
अब देखिये, मन कैसे भागता है. पोस्टर देखकर मैंने कहा; "शायद कोयला खदानों के मजदूरों के जीवन पर आधारित फ़िल्म है."
सुदर्शन ने कहा; "मुझे नहीं लगता. आपको मालूम है कि नहीं, इस फ़िल्म में डिस्को पर आधारित गाना है. फिर फ़िल्म कोयला खदानों के मजदूरों पर कैसे आधारित हो सकती है?"
मैंने कहा; "क्यों नहीं हो सकती. इसके पहले भी कोयला खदान के मजदूरों को हमने गाना गाते देखा है. हमने काला पत्थर में देखा है." मुझे लगा सुदर्शन मेरी बात मान गया.
फिर सुदर्शन ने कुछ सोचते हुए पूछा; "अच्छा, यही फ़िल्म है जिसमें शाहरुख़ खान ने सिक्स पैक ऐब्स दिखाए हैं?"
"हाँ यही फ़िल्म है. देखने से लगता है, फ़िल्म में ऐब ही ऐब है"; मैंने उसे बताया.
सुदर्शन ने कहा; "जो भी बोलिए, शाहरुख़ खान का ये अंदाज़ मुझे अच्छा नहीं लगा. बड़े-बड़े बाल और नंगे बदन वाले शाहरुख़ को देखकर मुझे लगा जैसे जंगल बुक वाले मोगली को देख रहा हूँ."
मुझे बड़ी हँसी आई. लेकिन मुझे मेरे मित्र की बातों में दम लगा. बड़े-बड़े बालों और बिना कपडे के शाहरुख मोगली की तरह ही दिखते हैं. फिर मैंने सोचा, 'कितने पुराने हो गए हैं हम लोग. एक फिल्मी हीरो की जिस बाडी को देखकर पूरा भारत खुश हो रहा है हमें उसमें मोगली नज़र आ रहा है. हम क्या ज़माने के साथ नहीं चल सकते?
बात आगे चली और सुदर्शन ने कहा;"इसका एक गाना, 'दिल में मेरे है दर्द-ए-डिस्को', बहुत हिट हो गया है।"
फिर क्या था. मन इस बात की तहकीकात में चला गया कि दर्द-ए-डिस्को क्या होता है. मैंने सोचा; 'डिस्को का दर्द तो पाँव में होना चाहिए. ये तो नई बात हो गई कि डिस्को का दर्द दिल में हो रहा है. अरे, आदमी डांस करेगा तो पाँव थकेंगे. दर्द पाँव में होगा. लेकिन अजीब बात है कि इस हीरो के दिल में दर्द हो रहा है.'
फिर भी मैंने कहा; "शायद हीरो ठीक से डिस्को न कर पाता होगा, इसलिए उसका दिल दुखता होगा." फ़िल्म के बाकी पहलुओं पर बात हुई. अंत में बात फ़िल्म की टाईटल पर आ गई. सुदर्शन ने कहा; "अजीब टाईटल है.ॐ शान्ति ॐ. कहीं ये कोई धार्मिक फ़िल्म तो नहीं?"
मैंने मन ही मन सोचा कि फ़िल्म धार्मिक नहीं हो सकती. अभी तक तो किसी संगठन ने कोई बवाल खडा नहीं किया. फ़िल्म अगर धार्मिक होती तो कुछ न कुछ बवाल जरूर खडा हो जाता अब तक. धार्मिक या धर्मनिरपेक्ष 'ताकतों' की तरफ़ से कुछ न कुछ बात जरूर सामने आती. सोचते-सोचते मैंने सुदर्शन को अपने मन में आई बात बताई; "हो सकता है फ़िल्म के अन्तिम दृश्यों में कोयले की खदान में आग लग गई होगी. उसे बुझाने के लिए किसी तांत्रिक का सहारा लिया गया होगा जिसने ॐ शान्ति ॐ नामक मन्त्र का जाप करके आग बुझाई होगी."
ये तो हुई हमारे मन की बातें जो एक फिल्मी पोस्टर देखकर उपजीं. आपने भी पोस्टर देखा ही होगा. आपके मन में भी कुछ बातें अवश्य आईं होगी. वो बातें क्या थीं, ज़रा बताईयेगा तो!
पोस्ट की प्री-पब्लिश टिप्पणी - मुझे तो मालूम भी न था कि यह ॐ शान्ति ॐ क्या बला है। पर शिव की पोस्ट का ड्रॉफ्ट देख कर इण्टरनेट छाना तो पता चला कि यह फिल्म अभी प्रदर्शित भी नहीं हुई। नौ नवम्बर को होगी। मूवी के लिये बदन की मछलियाँ बनाने को एसआरके ने बहुत मेहनत की है और प्रकाश पदुकोण की पुत्री पहले ही प्रसिद्धि पा चुकी है। यह फिल्म प्री-पब्लिकेशन कमाई भी कस के कर चुकी है। जब इतना ज्ञानार्जन कर ही चुका हूं, तो अपने फिल्म ज्ञान को पोस्ट की प्री-पब्लिश टिप्पणी में ठेल ही सकता हूं! वैसे इससे कहीं ज्यादा और कहीं रोचक पाठक जानते होंगे, जो पोस्ट-पब्लिश टिप्पणियों में उद्घाटित होगा! - ज्ञानदत्त पाण्डेय
चित्र फिल्म की वेब साइट और बॉलीवुड.कॉम से।
Wednesday, November 7, 2007
और मुशर्रफ़ साहब ने मन को छुट्टी पर भेज दिया.
भूमिका:-
यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किया; "सबसे तेज कौन चलता है?"
"मन"; युधिष्ठिर ने जवाब दिया था.
आश्चर्य की बात है. बाकी भाईयों के मन में यह बात नहीं आई लेकिन युधिष्ठिर के मन में ही क्यों आई? शायद इसलिए की अज्ञातवास के दौरान बाकी के भाई तो काम करते थे. जंगल से लकड़ी इकठ्ठा करके लाते थे. खाना बनाते थे. झाडू वगैरह देते थे और युधिष्ठिर आराम से बैठे रहते थे. भीम से पाँव दबवाते थे सो अलग. जो आदमी कोई काम न करे उसके भीतर अध्यात्मिकता कूट-कूट के भर जाती है. उसके लिए भोजन और भाषण के अलावा आध्यात्मिकता का सहारा रहता है.
एक दिन बैठे-बैठे युधिष्ठिर ने सोचा होगा कि 'अज्ञातवास ख़त्म होने दो, वापस हस्तिनापुर जायेंगे. कृष्ण को बुला लेंगे. उनके साथ बैठकर प्लान बनायेंगे. पहले सीधे-सीधे युद्ध नहीं करेंगे. पहले पाँच गाँव मांगेंगे. दुर्योधन है तो काइयां, इसलिए आराम से तो देगा नहीं. गाली-वाली बकेगा ऊपर से. उसके 'लुक्खेपन' की वजह से हम जनता की सारी सहानुभूति इकट्ठी कर लेंगे. जनता को बताएँगे कि देखो, ये दुर्योधन हमें गद्दी तो छोडो, पाँच गाँव भी नहीं दे रहा. युद्ध की पचास प्रतिशत भूमिका केवल इसी बात पर तैयार कर लेंगे. युद्ध शुरू हो जायेगा तो कौरवों के महारथियों को एक एक करके रास्ते से हटाते जायेंगे. गुरु द्रोण से भी थोडा झूठ बोलना पड़े तो चलेगा. आख़िर युद्ध में सब कुछ जायज है.'
ये सोचते-सोचते अचानक युधिष्ठिर ने यूरेका-यूरेका चिल्लाना शुरू कर दिया होगा. द्रौपदी ने चेहरे पर आश्चर्य के भाव रखकर चिल्लाने का कारण पूछा होगा तो युधिष्ठिर ने बताया होगा कि; "प्रिये अभी-अभी मुझे पता चला कि मन सबसे तेज भागता है."
कालांतर/स्थानांतर:-
मुशर्रफ साहब का मन भी तेज भागा होगा. इमरजेंसी लगाना चाहते हैं, लेकिन कैसे लगाएं. सुप्रीम कोर्ट के चौधरी साहब अलग से तलवार ताने बैठे हैं. नवाज शरीफ वापस आना चाहते हैं. अमेरिका ऊपर से सर पर सवार है. कहता है, जम्हूरियत ले आओ. अरे कहाँ से ले आयें ये जम्हूरियत. जम्हूरियत न हुई टमाटर हो गया कि जेब में पैसे रखो, एक थैला लो और बाजार जाकर खरीद ले आओ. अमेरिका को देते हुए कहो कि; 'लीजिये जम्हूरियत और खाईये.' कौन समझाये इन अमेरिका वालों को कि जम्हूरियत के लिए जनता के साथ-साथ नेता की भी जरूरत होती है. जनता तो है लेकिन नेता नहीं हैं. अब ये नेता कहाँ से ले आयें? मुझे तो कोई नेता समझता ही नहीं. मेरे ऊपर आतंकवादी हमला करते हैं तो लोग शक की निगाह से देखते हैं कि हमला मैंने ही करवाया है, जिससे नेता बन सकूं. सब कुछ कर सकते हैं लेकिन ये नेता पैदा करना बड़ा मुश्किल है, वो भी पाकिस्तान में.'
उनका मन तेज गति से चलना शुरू हो गया होगा. फिर अचानक उन्हें भी यूरेका का दौरा पडा होगा. खयाल आया होगा कि 'नेता इंपोर्ट किया जा सकता है. क्यों न बेनजीर को इंपोर्ट कर लें. एक बना बनाया नेता मिल जायेगा.' लेकिन फिर मन में बात आई होगी कि अगर बेनजीर ने सारी सहानुभूति अपने कब्जे में कर ली, तब क्या होगा? फिर पाँच तारीख को चौधरी साहब लोचा करने के लिए तैयार बैठे हैं. आतंकवादियों ने सैनिकों को अगवा कर लिया है. आतंकवादियों से सैनिकों को वापस नहीं ला पाए तो सेना ही खटिया न खड़ी कर दे. अरे जनता के नेता नहीं है, माना, लेकिन सेना के नेता तो बने रहे.
बेचारे एक तानाशाह का मन कितने कोनों में दौडेगा? उन्होंने सोचा होगा; 'मन तो चंचल है लेकिन इसके दौड़ने की भी तो सीमा होगी. इसलिए दौडाने से अच्छा है इसे स्थिर रखो. फैसला लो, और इमरजेंसी लगा दो. मन को थोड़े दिन की छुट्ठी दो. उसे भी आराम मिलेगा और मुझे भी.'
नतीजा सामने है.
(मेरा मन दौड़ा तो पांच हजार साल और हजारों किलोमीटर घूम आया. मेरी गलती नहीं है. मैं तो युधिष्ठिर के हवाले से जानता हूँ, कि 'मन सबसे तेज होता है'।)