शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय, ब्लॉग-गीरी पर उतर आए हैं| विभिन्न विषयों पर बेलाग और प्रसन्नमन लिखेंगे| उन्होंने निश्चय किया है कि हल्का लिखकर हलके हो लेंगे| लेकिन कभी-कभी गम्भीर भी लिख दें तो बुरा न मनियेगा|
||Shivkumar Mishra Aur Gyandutt Pandey Kaa Blog||
Saturday, December 29, 2007
ब्लॉग महिमा
इन्द्र को समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाय. दरबारियों और चापलूसों की मीटिंग बुलाई गई. मीटिंग बहुत देर तक चली. बीच में लंच ब्रेक भी हुआ. आधे से ज्यादा दरबारी केवल सोचने की एक्टिंग करते रहे जिससे लगे कि वे सचमुच इन्द्र के लिए बहुत चिंतित हैं. काफी बात-चीत के बाद एक बात पर सहमति हुई कि इन्द्र को उनके मजबूत पहलू को ध्यान में रखकर ही काम करना चाहिए. दरबारियों ने सुझाव दिया कि चूंकि इन्द्र का मजबूत पहलू डांस है सो एक बार फिर से डांस का सहारा लेना ही उचित होगा. डांस परफार्मेंस के लिए इस बार रम्भा को चुना गया. मेनका और उर्वशी इस चुनाव से जल-भुन गई. लेकिन कुछ किया नहीं जा सकता था. रम्भा ने तरह तरह के शास्त्रीय और पश्चिमी डांस किए लेकिन विश्वामित्र जमे रहे. उन्होंने रम्भा की तरफ़ देखा भी नहीं. हीन भावना में डूबी रम्भा ने एक लास्ट ट्राई मारा. मशहूर डांसर पाखी सावंत का रूप धारण किया और तीन दिनों तक फिल्मी गानों पर डांस करती रही लेकिन नतीजा वही, धाक के तीन पात. रम्भा को वापस लौटना पडा. रो-रो कर उसका बुरा हाल था. उसे अपनी असफलता का उतना दुख नहीं था जितना इस बात का था कि उर्वशी और मेनका अब उठते-बैठते उसे ताने देंगी.
प्लान फेल होने से इन्द्र दुखी रहने लग गए. सप्ताह में तीन चार दिन तो दारू चलती ही थी, अब सुबह-शाम धुत रहने लगे. लेकिन उनके प्रमुख सलाहकार को अभी तक नशे की लत नहीं लगी थी. काफी सोच-विचार के बाद वो एक दिन चंद्र देवता के पास गया. वहाँ पहुँच कर उसने पूरी कहानी सुनाई और साथ में चंद्र देवता से सहायता की मांग की. चंद्र देवता की गिनती वैसे ही इन्द्र के पुराने साथियों में होती थी. सभी जानते थे कि चन्द्र देवता इन्द्र के कहने पर एक बार मुर्गा तक बन चुके थे. वे इन्द्र के लिए एक बार फिर से पाप करने पर राजी हो गए.
चंद्र देवता रात की ड्यूटी करते-करते परेशान रहते थे, सो वे बाकी का समय सोने में बिताते थे. लेकिन इन्द्र की सहायता की जिम्मेदारी जो कन्धों पर पड़ी तो नीद और चैन जाते रहे. दिन में भी बैठ कर सोचते रहते थे कि 'इस विश्वामित्र का क्या किया जाय. इन्द्र के सलाहकार को वचन दे चुका हूँ. इन्द्र को भी दारू से छुटकारा दिलाना है नहीं तो आने वाले दिनों में पार्टियों का आयोजन ही बंद हो जायेगा.' एक दिन बेहद गंभीर मुद्रा में चिंतन करते चंद्र देवता को 'नारद' ने देख लिया. देखते ही नारद ने अपना विश्व प्रसिद्ध डायलाग दे मारा; "नारायण नारायण, किस सोच में डूबे हैं देव?"
"अरे ऋषिवर, बड़ी गंभीर समस्या है. वही इन्द्र और विश्वामित्र वाला मामला है. इसी सोच में डूबा हूँ कि इन्द्र की मदद कैसे की जाए. वैसे, ऋषिवर आप से तो देवलोक, पृथ्वीलोक, ये लोक, वो लोक सब जगह घूमते रहते हैं. आप ही कोई रास्ता सुझायें. इस विश्वामित्र की क्या कोई कमजोरी नहीं है?"; चंद्र देवता ने लगभग गिडगिडाते हुए पूछा.
"नारायण नारायण. ऐसा कौन है जिसकी कोई कमजोरी नहीं है. वैसे आप तो रात भर जागते हैं, लेकिन आप भी नहीं देख सके, जो मैंने देखा"; नारद ने चंद्र देवता से पूछा.
"हो सकता है, आपने जो देखा वो मुझे इतनी दूर से न दिखाई दिया हो. वैसे भी आजकल जागते-जागते आँख लग जाती है. लेकिन ऋषिवर आपने क्या देखा जो मुझे दिखाई नहीं दिया?"; चंद्र देवता ने पूछा.
"मैंने जो देखा वो बताकर इन्द्र की समस्या का समाधान कर मैं ख़ुद क्रेडिट ले सकता हूँ. लेकिन फिर भी आपको एक चांस देता हूँ. आज रात को ध्यान से देखियेगा, ये विश्वामित्र एक से तीन के बीच में क्या करते हैं"; नारद ने चंद्र देवता को बताया.
रात को ड्यूटी देते-देते चंद्र देवता विश्वामित्र की कुटिया के पास आकर ध्यान से देखने लगे. उन्हें जो दिखाई दिया उसे देखकर दंग रह गए. उन्होंने देखा कि विश्वामित्र अपने ब्लॉग पर पोस्ट लिख रहे हैं. पोस्ट पब्लिश करके वे और ब्लॉग पर कमेंट देने में मशगूल हो गए. चंद्र देवता को समझ में आ गया कि नारद का इशारा क्या था.
दूसरे ही दिन इन्द्र के सलाहकार ने इन्द्र का एक ब्लॉग बनाया. ब्लॉग पर पहले ही दिन विश्वामित्र की निंदा करते हुए इन्द्र ने एक पोस्ट लिखी. साथ में विश्वामित्र के ब्लॉग पोस्ट पर उन्हें गाली देते हुए कमेंट भी लिखा. कमेंट और पोस्ट का ये सिलसिला शुरू हुआ तो विश्वामित्र का सारा समय अब पोस्ट लिखने, इन्द्र के गाली भरे कमेंट का जवाब देने और इन्द्र के ब्लॉग पर गाली देते हुए कमेंट लिखने में जाता रहा. उनके पास तपस्या के लिए समय ही नहीं बचा.
विश्वामित्र की तपस्या भंग हो चुकी थी. इन्द्र खुश रहने लगे.
Friday, December 28, 2007
धमकी पुराण
एक वरिष्ठ नेता ने बताया; "असर की देखें, तो कोई असर नहीं हुआ. और फिर हमारी धमकियों से कोई असर हो, ये जरूरी नहीं. धमकी देने से हमें जो फायदा हुआ, केवल उसके बारे में सोचना चाहिए."
"लेकिन हमने इस बात का हिसाब नहीं लगाया कि हमें इन धमकियों से क्या फायदा हुआ"; पहले नेता ने कहा.
फिर क्या था. एक कमिटी बना दी गई. उसे कहा गया कि वो इस बात का पता लगाए कि वामपंथियों को धमकियों से क्या फायदा हुआ. दो दिन बाद कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में बताया;
हमने हमारे नेताओं द्वारा दी गई धमकियों की समग्र जांच की. अपनी जांच से हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि हमने जो धमकियाँ दी थी उससे हमें सबसे बड़ा फायदा ये हुआ कि धमकी देने की हमारी प्रैक्टिस होती रही. कुछ और फायदे हैं लेकिन कमिटी का मानना है कि उन फायदों को सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए. कमिटी अपने सुझाव के तौर पर ये भी कहना चाहती है कि बदलाव के लिए हम कुछ दिनों के लिए सरकार को धमकी देना बंद कर दें.
कमिटी के सुझाव को मान लिया गया. दूसरे दिन ही वामपंथियों ने सार्वजनिक तौर पर घोषणा की कि वे नए प्रयोग के तहत अब से सरकार को धमकी नहीं देंगे. वामपंथियों की इस घोषणा से सरकार खुश हो गई. कांग्रेस पार्टी ने भी वामपंथियों की सराहना की. सरकार और पार्टी दोनों को विश्वास हो गया कि अब सरकार अपना काम शांति-पूर्वक करेगी.
अभी कुछ दिन ही बीते थे कि सरकार के कई मंत्रियों ने वामपंथियों की शिकायत करनी शुरू कर दी. एक मंत्री ने संवाददाता सम्मेलन में कहा; " पिछले पूरे एक साल से हमें वामपंथियों के धमकियों की आदत सी लग गई थी. उनकी धमकियों के बीच सरकार चलाने का अपना मज़ा था. जब भी वे धमकी देते थे तो हमें लगता था कि हम वाकई काबिल हैं जो उनकी धमकियों के बावजूद सरकार चला रहे हैं. लेकिन वामपंथियों ने धमकियों को बंद कर हमारे साथ अच्छा नहीं किया."
पत्रकार मंत्री जी के ऐसे बयान सुनकर दंग रह गए. उन्हें लगा कि ऐसा कैसे हो सकता है कि धमकी बंद होने की वजह से भी सरकार को परेशानी हो. एक पत्रकार ने मंत्री जी से पूछा; "लेकिन आपको तो खुश होना चाहिए कि वामपंथियों ने धमकी देना बंद कर दिया. अब तो आप चैन के साथ अपना काम कर सकते हैं."
मंत्री जी ने अपनी बात का खुलासा करते हुए कहा; "असल में वामपंथी जब धमकी देते थे तो हमें जनता से बहुत सहानुभूति मिलती थी. लोग ये सोचकर संतोष कर लेते थे कि वामपंथियों के दबाव के चलते सरकार अपना काम नहीं कर पा रही है. लेकिन जब से वामपंथियों ने धमकी देना बंद कर दिया है, जनता आए दिन सवाल करती है कि अब आप अपना काम क्यों नहीं करते? अब वामपंथियों ने धमकी बंद कर दी है. अब जनता को पता चल गया है कि हम अपना काम नहीं करते, वामपंथी धमकी दें या न दें."
पत्रकारों को अबतक मंत्री जी की बात समझ में आ गई थी.
सुनने में आया है कि सरकार ने वामपंथियों को धमकी देना शुरू कर दिया है. कुछ लोगों का मानना है कि सरकार ने वामपंथियों को धमकी दी है कि; 'आपलोग सरकार को धमकी देना फिर से शुरू कर दें नहीं तो हम आपका समर्थन आपको वापस दे देंगे.'
Wednesday, December 26, 2007
आयोजक? मैं तो चीफ गेस्ट हूं!
इलाहाबाद से आई-नेक्स्ट (i-next) अपना प्रकाशन शुरू करने जा रहा है। कल यह मार्केट में आयेगा। एक रुपये का नयी पीढ़ी का अखबार जिसमें २४ में से ९ पन्ने इलाहाबाद से सम्पादित होंगे।
इसके तैयारी के लिये मेरे बहनोई श्री राजीव ओझा कई दिनों से लखनऊ से यहां डेरा डाले हैं। पिछले एक सप्ताह से भी अधिक हो गया उनकी टीम को इलाहाबाद में अपनी तैयारी करते। कल वे हमारे घर में दोपहर में आये थे। उन्होंने एक रोचक वाकया बताया।
उनके रिपोर्टर अल्लापुर में हुये एक फ्लावर शो को कवर करने गये थे। पर वापस आ कर उन्होने कोई रिपोर्ट नहीं की। जब उन नये और उत्साही रिपोर्टर से जवाब-तलब किया गया तो उसने कहा कि बड़ा ’खतम’ कार्यक्रम था। वह समय से पंहुच गये थे कैमरे के साथ। पर वहां कोई नहीं था। तम्बू में एक मेज पर एक सज्जन सो रहे थे। उन्हे उठा कर रिपोर्टर ने पूंछा कि क्या वे फ्लवर शो के आयोजक हैं? शो पोस्टपोन तो नहीं हो गया है? सज्जन ऊंघते हुये बोले - "आयोजक? मैं तो चीफ गेस्ट हूं। शो के बाद यहां कवि सम्मेलन भी होने जा रहा है। उसमें मुझे कविता पाठ भी करना है।"
शो बहुत देर बाद शुरू हुआ।
हमने इस फ्लावर शो की खबर अखबार में पढ़ी। पांचवे पन्ने पर फूलों और देखने वालों के कलर फोटो और शो में आने वाले दर्जनों नामों के साथ। उस खबर से कहीं नहीं लगता था कि इतना ’खतम’ शो होगा!
पिछली पोस्ट: बापी दास का क्रिसमस विवरण
Tuesday, December 25, 2007
बापी दास का क्रिसमस विवरण
यह निबंध नहीं बल्कि कलकत्ते में रहने वाले एक युवा, बापी दास का पत्र है जो उसने इंग्लैंड में रहने वाले अपने एक नेट फ्रेंड को लिखा था. इंटरनेट सिक्यूरिटी में हुई गफलत के कारण यह पत्र लीक हो गया. ठीक वैसे ही जैसे सत्ता में बैठी पार्टी किसी विरोधी नेता का पत्र लीक करवा देती है. आप पत्र पढ़ सकते हैं क्योंकि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे 'प्राइवेट' समझा जा सके.
प्रिय मित्र नेटाली,
पहले तो मैं बता दूँ कि तुम्हारा नाम नेटाली, हमारे कलकत्ते में पाये जाने वाले कई नामों जैसे शेफाली, मिताली और चैताली से मिलता जुलता है. मुझे पूरा विश्वास है कि अगर नाम मिल सकता है तो फिर देखने-सुनने में तुम भी हमारे शहर में पाई जाने वाली अन्य लड़कियों की तरह ही होगी. तुमने अपने देश में मनाये जानेवाले त्यौहार क्रिसमस और उसके साथ नए साल के जश्न के बारे में लिखते हुए ये जानना चाहा था कि हम अपने शहर में क्रिसमस और नया साल कैसे मनाते हैं. सो ध्यान देकर सुनो. सॉरी, पढो.
हम क्रिसमस बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं. थोडा अन्तर जरूर है. जैसा कि तुमने लिखा था, क्रिसमस तुम्हारे शहर में धूम-धाम के साथ मनाया जाता है, लेकिन हम हमारे शहर में घूम-घाम के साथ मनाते हैं. हमारे जैसे छोकरे बाईक पर घूमने निकलते हैं और सडकों पर चलने वाली लड़कियों को छेड़ कर क्रिसमस मनाते हैं. हमारा मानना है कि हमारे शहर में अगर लड़कियों से छेड़-छाड़ न की जाय, तो यीशु नाराज हो जाते हैं. और हम छोकरे अपने माँ-बाप को नाराज कर सकते हैं, लेकिन यीशु को कभी नाराज नहीं करते.
क्रिसमस का महत्व केक के चलते बहुत बढ़ जाता है. हमें इस बात पर पूरा विश्वास है कि केक नहीं तो क्रिसमस नहीं. यही कारण है कि हमारे शहर में क्रिसमस के दस दिन पहले से ही केक की दुकानों की संख्या अचानक बढ़ जाती है. ठीक वैसे ही जैसे बरसात के मौसम में नदियों का पानी खतरे के निशान से ऊपर चला जाता है. क्रिसमस के दिनों में हम केवल केक खाते हैं. बाकी कुछ खाना पाप माना जाता है. शहर की दुकानों पर केक खरीदने के लिए जो लाइन लगती है उसे देखकर हमें विश्वास हो जाता है दिसम्बर के महीने में केक के धंधे से बढ़िया धंधा और कुछ भी नहीं. मैंने ख़ुद प्लान किया है कि आगे चलकर मैं केक का धंधा करूंगा. साल के ग्यारह महीने मस्टर्ड केक का और एक महीने क्रिसमस के केक का.
केक के अलावा एक चीज और है जिसके बिना हम क्रिसमस नहीं मनाते. वो है शराब. हमारी मित्र मंडली (फ्रेंड सर्कल) में अगर कोई शराब नहीं पीता तो हम उसे क्रिसमस मनाने लायक नहीं समझते. वैसे तो मैं ख़ुद क्रिश्चियन नहीं हूँ, लेकिन मुझे इस बात की समझ है कि क्रिसमस केवल केक खाकर नहीं मनाया जा सकता. उसके लिए शराब पीना भी अति आवश्यक है. मैंने सुना है कि कुछ लोग क्रिसमस के दिन चर्च भी जाते हैं और यीशु से प्रार्थना वगैरह भी करते हैं. तुम्हें बता दूँ कि हमारी दिलचस्पी इन फालतू बातों में कभी नहीं रही. इससे समय ख़राब होता है.
अब आ जाते हैं नए साल को मनाने की गतिविधियों पर. यहाँ एक बात बता दूँ कि जैसे तुम्हारे देश में एक जनवरी से नया साल शुरू होता है वैसे ही हमारे देश में भी नया साल एक जनवरी से ही शुरू होता है. ग्लोबलाईजेशन का यही तो फायदा है कि सब जगह सब कुछ एक जैसा रहे. नए साल की पूर्व संध्या पर हम अपने दोस्तों के साथ शहर की सबसे बिजी सड़क पार्क स्ट्रीट चले जाते हैं. है न पूरा अंग्रेजी नाम, पार्क स्ट्रीट? मुझे विश्वास है कि ये अंग्रेजी नाम सुनकर तुम्हें बहुत खुशी होगी. हाँ, तो हम शाम से ही वहाँ चले जाते हैं और भीड़ में घुसकर लड़कियों के साथ छेड़-खानी करते हैं. हमारा मानना है कि नए साल को मनाने का इससे अच्छा तरीका और कुछ नहीं होगा. सबसे मजे की बात ये है कि हम जैसे यंग लडके तो यहाँ जाते ही हैं, ४५-५० साल के लोग जो जींस की जैकेट पहनकर यंग दिखने की कोशिश करते हैं, वे भी आते हैं. भीड़ में अगर कोई उन्हें यंग नहीं समझता तो ये लोग बच्चों के जैसी अजीब-अजीब हरकते करते हैं जिससे लोग उन्हें यंग समझें.
तीन-चार साल पहले तक पार्क स्ट्रीट पर लड़कियों को छेड़ने का कार्यक्रम आराम से चल जाता था. लेकिन पिछले कुछ सालों से पुलिस वालों ने हमारे इस कार्यक्रम में रुकावटें डालनी शुरू कर दी हैं. पहले ऐसा ऐसा नहीं होता था. हुआ यूँ कि दो साल पहले यहाँ के चीफ मिनिस्टर की बेटी को मेरे जैसे किसी यंग लडके ने छेड़ दिया. बस, फिर क्या था. उसी साल से पुलिस वहाँ भीड़ में सादे ड्रेस में रहती है और छेड़-खानी करने वालों को अरेस्ट कर लेती है. मुझे तो उस यंग लडके पर बड़ा गुस्सा आता है जिसने चीफ मिनिस्टर की बेटी को छेड़ा था. उस बेवकूफ को वही एक लड़की मिली छेड़ने के लिए. पिछले साल तो मैं भी छेड़-खानी के चलते पिटते-पिटते बचा था.
नए साल पर हम लोग कोई काम-धंधा नहीं करते. वैसे तो पूरे साल कोई काम नहीं करते, लेकिन नए साल में कुछ भी नहीं करते. हम अपने दोस्तों के साथ ट्रक में बैठकर पिकनिक मनाने जरूर जाते हैं. पिकनिक मनाने में कोई बहुत दिलचस्पी नहीं रहती मेरी लेकिन चूंकि वहाँ जाने से शराब पीने में सुभीता रहता है सो हम खुशी-खुशी चले जाते हैं. एक ही प्रॉब्लम होती है. पिकनिक मनाकर लौटते समय एक्सीडेंट बहुत होते हैं क्योंकि गाड़ी चलाने वाला ड्राईवर भी नशे में रहता है.
नेटाली, क्रिसमस और नए साल को हम ऐसे ही मनाते हैं. तुम्हें और किसी चीज के बारे में जानकारी चाहिए, तो जरूर लिखना. मैं तुम्हें पत्र लिखकर पूरी जानकारी दूँगा. अगली बार अपना एक फोटो जरूर भेजना.
तुम्हारा,
बापी
पुनश्च: अगर हो सके तो अपने पत्र में यीशु के बारे में बताना. मुझे यीशु के बारे में जानने की बड़ी इच्छा है, जैसे, ये कौन थे?, क्या करते थे? ये क्रिसमस कैसे मनाते थे?
राखी सावंत और कांग्रेस - हार में समानता है क्या?
हारने के बाद राखी सावंत ने बताया कि उनके साथ नाइंसाफी शुरू से हुई. उन्हें मिलने वाले वोट रजिस्टर नहीं किए गए. उन्होंने अब कभी भी रियलिटी शो में हिस्सा न लेने की कसम खा ली है. उन्होंने ये भी बताया कि अगर ऐसी ही बेईमानी होती रही तो आने वाले दिनों में भारत में रियलिटी शो का भविष्य खतरे में है. हारने के बाद कांग्रेस पार्टी ने भी बताया कि 'पार्टी के हारने से भारत में लोकतंत्र पर ख़तरा मंडराने लगा है.' जी हाँ, वीरप्पा मोइली ने यही कहा. कांग्रेस का जीतना जरूरी था क्योंकि भारत में लोकतंत्र का जिंदा रहना ज्यादा जरूरी है. कांग्रेस ने हारने के कारणों में सबसे प्रमुख कारण गुजरात में ध्रुवीकरण को बताया. लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आई. ध्रुवीकरण होने के बाद दो ध्रुव बनते हैं. अब ऐसे में एक ध्रुव तो कांग्रेस के पास था ही. मोदी दोनों ध्रुवों पर तो कब्जा नहीं कर सके थे. फिर मैंने सोचा कि दक्षिणी ध्रुव पर बरफ की मात्रा शायद ज्यादा थी. साथ ही साथ वहाँ के शिलाखंडों पर अभी तक ग्लोबल वार्मिंग का असर उतना बड़ा नहीं था जितना कांग्रेस के कब्जे वाले उत्तरी ध्रुव पर था. शायद इसलिए मोदी जीत गए.
राखी सावंत को लोग घमंडी मानते हैं. उन्हें शायद इस बात का घमंड है कि उनसे बढिया ड्रामा करने वाला भारत में और कोई नहीं. उन्हें अपने ड्रामे पर बड़ा विश्वास था. उनकी नज़र में संजीदगी का कोई महत्व नहीं है. उन्हें अपने नाचने की कला पर भी कम घमंड नहीं है. इसलिए उनका मानना था कि वे ही जीतेंगी. जहाँ तक कांग्रेस के घमंड की बात है तो मुझे कांग्रेस भी एक दो बातों में घमंडी कम नहीं लगती. जैसे कांग्रेस को सेकुलर होने का घमंड है. अब इसे घमंड नहीं तो और क्या कहेंगे कि चार महीने पहले तक जो लोग मोदी के साथ रहते हुए साम्प्रदायिक थे, वही कांग्रेस के साथ होने पर सेकुलर मान लिए जाते हैं. कांग्रेस पार्टी ख़ुद को गंगा की भांति पवित्र मानती है. शायद इस सोच के साथ जीती है कि कोई कितना बड़ा साम्प्रदायिक हो, अगर कांग्रेस में चला अता है तो सेकुलर हो जाता है. ये घमंड नहीं तो और क्या है? घमंड इस बात का भी लगता है कि अगर कोई पार्टी इस देश में राज करने लायक है तो वो कांग्रेस पार्टी है. अन्य पार्टियां केवल खाना-पूर्ति के लिए बनाई गई हैं जिससे ये कहा जा सके कि भारत में लोकतंत्र है. इसके अलावा इन पार्टियों का कोई ख़ास महत्व नहीं है. अगर ऐसी सोच नहीं होती तो ये बात होती ही नहीं कि कांग्रेस के हारने से देश में लोकतंत्र ख़त्म हो जायेगा.
वैसे गुजरात चुनावों और नाच बलिये के नतीजे की वजह से केवल रखी सावंत और कांग्रेस ही दुखी नहीं है. कल मैं बाल किशन जी के ब्लॉग पर उनकी पोस्ट पढ़ रहा था. उनके मुताबिक कुछ टीवी वाले भी दुखी हैं. कुछ न्यूज़ चैनल और पत्रकार इस बात से दुखी हैं कि उनकी मेहनत के बावजूद गुजरात चुनावों में कांग्रेस की हार हुई. वहीं दूसरी तरफ़ राखी सावंत के हारने से कुछ टीवी चैनल भी दुखी हैं. ये सोचकर कि नच बलिये चलता था तो राखी के बहाने सप्ताह में २-३ घंटे का प्रोग्राम बन जाता था, लेकिन अब क्या करेंगे?
वैसे मुझे पूरी आशा है कि राखी सावंत भविष्य में भी रियलिटी शो में भाग लेंगी. टीवी चैनल वालों को राखी के ऊपर प्रोग्राम बनाने का मौका मिलेगा. साथ में देश में लोकतंत्र भी जिंदा रहेगा. चुनाव भी होंगे और कांग्रेस पार्टी एक बार फिर से चुनाव लड़ेगी. भले ही ध्रुवीकरण के बीच में लड़ना पड़े.
चलते-चलते:
गुजरात चुनावों के ऊपर टीवी पर दिखाए गए लगभग सभी एग्जिट पोल में बताया गया कि बीजेपी ही जीतेगी. पता नहीं ऐसा क्यों हुआ कि रिजल्ट आने से ठीक दो दिन पहले अचानक ये बात फैला दी गई कि कांग्रेस के जीतने के चांस बहुत बढ़ गए हैं. ऐसी बात फैलाने के लिए सट्टेबाजों का सहारा लिया गया. मुझे नहीं पता कि ऐसा किसने और क्यों किया, लेकिन एक बात जो मेरे मन में आई वो मैं कहता चलूँ.
कहीं ऐसा तो नहीं कि सट्टेबाजों ने जान-बूझ कर इस तरह की अफवाह उड़ाकर लोगों को कांग्रेस की जीत पर पैसा लगाने का लालच दिया और लोगों को नुकसान हुआ.
Saturday, December 22, 2007
मूढ़मति उपाधि - और भी लोग हैं लाइन में
जब से शुकुल जी को 'मूढ़मति' की उपाधि से नवाजा गया है, हम जैसे ब्लागरों की वाट लग गई है. शुकुल जी अपने मूढ़मति वाले ताम्रपत्र को हर दो-तीन बाद अपनी किसी पोस्ट पर चमका ही देते हैं. अगर अपने ब्लॉग पर चमकाने का मौका नहीं मिलता तो दूसरों के पोस्ट पर कमेंट में ही चमका देते हैं. जैसे कह रहे हों; 'भूलो मत, तुम जितना चाहे लिख लो, लेकिन मूढ़मति का सम्मान मिलना बहुत मुश्किल है.' ठीक वैसे ही जैसे कमल हासन को पद्मश्री मिलने के बाद उनकी हर फ़िल्म की पोस्टर पर उनका नाम पद्मश्री कमल हासन लिखा होता था और साउथ के तमाम नॉन-पद्मश्री स्टार उनकी फिल्मों के पोस्टर देखकर मरे जाते होंगे.
सच में, शुकुल जी का ये ताम्रपत्र देखकर हम तो हीन भावना से मरे जाते हैं. मन में बात आती है कि; 'हाय, एक वे हैं, जो मूढ़मति सम्मान पर कब्जा जमाये बैठे हैं और एक हम हैं, जिन्हें कोई मूढ़मति नहीं कहता.' उपाधि देनेवालों ने भी अभी तक इस बात को क्लीयर नहीं किया कि; 'ये उपाधि अब केवल शुकुल जी के पास ही रहेगी, या साल दो साल बाद किसी और का चांस है इस उपाधि से नवाजे जाने का.' कहीं ऐसा न हो कि किसी और का चांस ही न आए और शुकुल जी अगले कई सालों तक अपनी उपाधि का ताम्रपत्र जगह-जगह चमकाते रहें.
उनकी कल वाली पोस्ट पढ़ रहा था. पता चला कि उनके अच्छे मित्र भी उन्हें इस बात की याद दिलाते रहते हैं कि वे मूढ़मति उपाधि पर कब्ज़ा जमाये बैठे हैं. मुझे तो पूरा विश्वास है कि कल वाली पोस्ट पर जिन मित्र का जिक्र शुकुल जी ने किया था, वे भी उनके इस उपाधि से जलते होंगे. शुकुल जी की कल वाली पोस्ट पढ़कर आज बाल किशन ने मुझसे पूछा; "भइया, हम तो ठहरे नए ब्लॉगर, लेकिन तुम तो थोड़े पुराने टाइप हो चुके हो, सो ये बताओ कि मूढ़मति की उपाधि कैसे ली जा सकती है." मुझे लगा ये बाल किशन भी अपने नए ब्लॉगर का स्टेटस जब-तब चमकाते रहता है. नीरज भैया और संजीत पहले ही बाल किशन के नए ब्लॉगर वाले स्टेटस को लेकर बोल चुके हैं, लेकिन बाल किशन मानता ही नहीं कि वो अब नया नहीं रहा. वैसे बाल किशन का सवाल सुनकर मेरे मन में ये भी आया कि; 'मुझे मालूम होता तो मैं ख़ुद ही नहीं ले लेता ये मूढ़मति की उपाधि.'
Friday, December 21, 2007
रहिमन धंधा धर्म का कभी न मंदा होय
मेरे मन यह ख़याल कल शाम को मजुमदार साहब से मिलने के बाद आया. मजुमदार साहब के बारे में बता दूँ. ये साहब मेरे मुहल्ले में ही रहते हैं. धर्म के धंधे में पिछले बीस सालों से हैं. साथ में कुछ 'साइड बिजनेस' भी करते हैं. किराना की दो दुकाने हैं इनकी, लेकिन ज्यादा समय अपने 'मेन धंधे' में ही लगाते हैं. हर साल दिसम्बर महीने में धर्म का शोरूम मुहल्ले के पास वाले मैदान में स्थापित कर लेते हैं. ये शोरूम पूरे महीने भर खुला रहता है. कई सारे डिपार्टमेन्ट रहते हैं. भजन-कीर्तन का डिपार्टमेन्ट सबसे बड़ा होता है. अगले जनम को ठीक करने वाला डिपार्टमेन्ट अलग रहता है. करीब दस 'विजिटिंग साधु' हर साल आते हैं. साथ में करीब सात-आठ दुकानों से सज्जित एक मेला लगता है. पूरे दिन लाऊडस्पीकर पर भजन करके अगला जनम ठीक कराने और मोक्ष प्राप्त करने का इंतजाम पूरी तन्मयता के साथ चलता है. लाऊडस्पीकर रात के तीन बजे तक बजता है. शायद मोक्ष प्राप्त करने की साधना रात में ज्यादा फल देती है.
मजुमदार साहब ने अपने इस बिजनेस को चलाने के लिए इंतजाम पक्के कर रखे हैं. मुहल्ले के तथाकथिक जिम्मेदार लड़कों की बड़ी फौज है उनके पास. ये लड़के धंधे के लिए अर्थ की व्यवस्था में नवम्बर महीने से ही लग जाते हैं. मुहल्ले के हर घर से 'अनुचित मात्रा' में चन्दा उगाहने की जिम्मेदारी इनके पास है. कुछ लोगों का अनुमान है कि इकठ्ठा किए गए चंदे में से इन लड़कों को तीस प्रतिशत मिलता है. पता नहीं बात सच है या नहीं, लेकिन ये लड़के हर साल चंदे की रकम बढाते जाते हैं.
एक शामियाना सड़क के ठीक बीचों-बीच लगता है. इस शामियाने की वजह से रास्ता पूरे महीने भर बंद रहता है. शामियाने में सामने की तरफ़ रखे तख्त पर एक दान-पेटी रहती है. करीब पाँच साल पहले तक ये दान-पेटी काठ की बनी होती थी, लेकिन बाद में इस दान-पेटी में सामने की तरफ़ शीशा लगा दिया गया. शायद इसलिए कि बक्शे में रखा दान भक्तों को दिखाई दे. वैसे कुछ लोग ये भी कहते सुने जाते हैं कि सुबह-सुबह ख़ुद आयोजक इस दान-पेटी में पैसा रखते हैं जिससे बाद में आनेवाले भक्तों को दान देने के लिए उकसाया जा सके.
लगभग हर साल मेले में लगने वाली आठ-दस दुकानों से मजुमदार साहब के लोग 'लाईसेन्स फीस' की वसूली करते हैं. मुझे याद है, पिछले साल इनके लड़कों ने एक फुचका वाले का खोमचा पलट दिया था. कारण केवल इतना था कि इस फुचका वाले ने आयोजकों को 'लाईसेन्स फीस' के रूप में पचास रुपये कम दिए थे. दुकानदारों के साथ आयोजकों का लगभग हर साल झगड़ा होता है. वैसे मैंने सुना है कि आयोजक ऐसे किसी झगड़े को कार्यक्रम के लिए शुभ मानते हैं. ऐसे झगड़े से कार्यक्रम की सफलता को लेकर रही-सही शंका मिट जाती है.
मजुमदार साहब से कल मिलते ही मैंने हाल-चाल पूछा. काफ़ी खुश थे. बोले; "नेक्स्ट ईयर और बड़ा आयोजन करेंगे. हरिद्वार से साधु और ज्ञानी मंगवायेंगे. जो खर्च होगा, उसकी फ़िक्र नहीं है. लेकिन मुहल्ले के लोगों को सत्संग का लाभ मिलना चाहिए."
मैंने पूछा; "और घर में सब कैसे हैं?"
बोले; "बाकी तो सब ठीक है, पिताजी का पाँव टूट गया."
मैंने कहा; "अरे, ये तो बहुत बुरा हुआ. वैसे ये हुआ कैसे?"
मजुमदार साहब ने बताया; "अब आपको क्या बतायें. अस्सी साल उम्र हो गई. दिखाई तो देता नहीं. बाज़ार से सब्जी लाने गए थे. सड़क पर रिक्शे से टकरा गए. पाँव टूट गया. अब कम से कम तीन महीने तक घरवालों को परेशान रखेंगे."
मैं उनसे मिलकर चला आया. ये सोचते हुए कि रहीम होते तो शायद कुछ ऐसा लिखते;
रहिमन धंधा धर्म का कभी न मंदा होय
ये धंधा फूले-फले जब बाकी धंधे रोय
Thursday, December 20, 2007
देख नहीं रहे, मंत्री जी चिंतित हैं
वे जहाँ भी जाते हैं, उस जगह के मुताबिक चिंतित हो लेते हैं. महाराष्ट्र गए तो विदर्भ के किसानों की समस्या पर चिंतित हो लेते हैं. आसाम जाते हैं तो वहाँ हो रही हिंसा पर चिंतित हो लेते हैं. विदेश जाते हैं तो पाकिस्तान की समस्याओं को लेकर चिंतित रहते हैं. जिस जगह पर चिंतित होते हैं, वहाँ के लोगों को विश्वास हो जाता है कि 'प्रधानमंत्री जब ख़ुद ही चिंतित हैं, तो इसका मतलब सरकार काम कर रही है.' लोग आपस में बातें करते हुए सुने जा सकते हैं कि; 'मान गए भाई. यह सरकार वाकई काम कर रही है. देखा नहीं किस तरह से प्रधानमंत्री चिंतित दिख रहे थे.'
प्रधानमंत्री के चिंता के बारे में सोचते हुए मुझे लगा कि उनके और उनके निजी सचिव के बारे में वार्तालाप कैसी होती होगी. शायद कुछ इस तरह;
प्रधानमंत्री: "भई, कल तो २० तारीख है, कल किस बात पर चिंतित होना है?"
सचिव:" सर, कल आपको किसानों के प्रतिनिधियों से मिलना है. तो मेरा सुझाव है कि कल आप किसानों की हालत पर चिंतित हो लें."
प्रधानमंत्री: "हाँ, बात तो आपकी ठीक ही है. बहुत दिन हुए, किसानों की समस्याओं पर चिंतित हुए."
सचिव: "हाँ सर, किसानों की समस्याओं पर पिछली बार आप १५ अगस्त को लाल किले पर चिंतित हुए थे."
प्रधानमंत्री: " और, उसके बाद वाले दिन का क्या प्रोग्राम है?"
सचिव: "सर, २१ तारीख को आपको न्यूक्लीयर डील के मामले पर एक अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल से मिलना है. सो, मेरा सुझाव है कि उनसे मिलने के पहले आप अगर मीडिया को संबोधित कर लेते तो सरकार को मिले 'फ्रैकचर्ड मैनडेट' पर चिंता जाहिर किया जा सकता है."
प्रधानमंत्री: " हाँ, सुझाव तो अच्छा है. ठीक है, मीडिया से मिल लेंगे. लेकिन उसके बाद वाले दिनों में क्या प्रोग्राम है."
सचिव: "सर, २३ तारीख को गुजरात चुनावों का रिजल्ट आएगा. उस दिन रिजल्ट के हिसाब से चिंतित होना पड़ेगा. बीजेपी जीत जाती है तो साम्प्रदायिकता पर चिंतित हो लेंगे. लेकिन अगर हार जाती है तो फिर चिंता जताने की जरूरत नहीं है. हाँ, असली चिंता की जरूरत पड़ सकती है. चिंता इस बात की होगी कि मुख्यमंत्री किसे बनाना है."
प्रधानमंत्री: "ठीक है. वैसा कर लेंगे."
सचिव: "सर, एक बात और बतानी थी आपको. उड़ती ख़बर सुनी है कि गृहमंत्री शिकायत कर रहे थे कि उन्हें चिंतित होने का मौका नहीं दिया जा रहा है. कह रहे थे कि देश में कानून-व्यवस्था की स्थिति ख़राब है, बम विस्फोट हो रहे हैं लेकिन उन्हें चिंतित नहीं होने दिया जाता. और तो और, सर, वित्तमंत्री भी शायद ऐसा ही कुछ कह रहे थे. ख़बर है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर वे ख़ुद चिंतित होना चाहते थे, लेकिन आप के चिंतित होने से उनके हाथ से मौका जाता रहा."
प्रधानमंत्री: "एक तरह से इन लोगों का कहना ठीक ही है. मैं ख़ुद भी सोच रहा था कि चिंतित होने का काम मिल-बाँट कर कर लें तो अच्छा रहेगा. वैसे आपका क्या ख़याल है?"
सचिव: "सर, आपकी सोच बिल्कुल ठीक है. आर्थिक मामलों वित्तमंत्री को एक-दो बार चिंतित हो लेने दें. बहुत दिन हुए गृहमंत्री को कश्मीर की समस्या पर चिंतित हुए. उन्हें भी चिंतित होने का मौका मिलना चाहिए. लेकिन सर यहाँ एक समस्या है. शिक्षा की समस्या पर मानव संसाधन विकास मंत्री ख़ुद चिंतित नहीं होना चाहते. उनका मानना है कि उन्हें केवल आरक्षण के मुद्दे पर चिंतित होने का हक़ है."
प्रधानमंत्री: "देखिये, यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती. मैं उनको आरक्षण के मुद्दे पर चिंतित होने से नहीं रोकता. लेकिन उन्हें भी सोचना चाहिए कि शिक्षा का भी मुद्दा है. मैं ख़ुद महसूस कर रहा हूँ कि पिछले कई महीनों में उन्होंने प्राथमिक शिक्षा की हालत पर कोई चिंता जाहिर नहीं की. और फिर उन्हें ही क्यों दोष देना. कानूनमंत्री को भी किसी ने चिंतित होते नहीं देखा."
सचिव: "सर, आपका कहना बिल्कुल ठीक है. लोगों का मानना है कि बहुत सारे पुराने कानून बदलने चाहिए. और फिर कानून बदलें या न बदलें, कम से कम चिंतित तो दिखें. पिछली बार वे तब चिंतित हुए थे जब क्वात्रोकी जी को अर्जेंटीना में गिरफ्तार किया गया था. करीब डेढ़ साल हो गए उन्हें चिंतित हुए."
प्रधानमंत्री: "मसला तो वाकई गंभीर है. आज आपसे बातें नहीं करता तो मुझे तो पता भी नहीं चलता कि कौन सा मंत्री कब से चिंतित नहीं हुआ. एक काम कीजिये, चिंता को बढ़ावा देने वाली कैबिनेट कमेटी की मीटिंग कल ही बुलवाईये. मुझे तमाम मंत्रियों के चिंता का लेखा-जोखा चाहिए."
निजी सचिव कैबिनेट कमेटी के सचिव को चिट्ठी टाइप करने में व्यस्त हो जायेगा. शनिवार को चिंता का लेखा-जोखा ख़ुद प्रधानमंत्री लेंगे, इस बात की जानकारी देने के लिए.
Saturday, December 15, 2007
भारतीय चुनाव = चुन+नाव
नोट: यह निबंध एक ऐसे छात्र ने लिखा है, जो पहले केवल अलोक पुराणिक जी के लिए निबंध लिखता था लेकिन बाद में इस छात्र ने निबंध-लेखन की अपनी ख़ुद की कम्पनी खोली और अब यूरोप और अमेरिका में रहने वाले शिक्षकों और छात्रों के लिए भारतीय मुद्दों पर निबंध-लेखन की केपीओ (नॉलेज प्रॉसेस आउटसोर्सिंग) सर्विस देता है. आप निबंध पढ़ें:
भारत चुनावों का देश है. पहले ये किसानों का देश भी था लेकिन कालांतर में परिवर्तन हुआ और ये पूरी तरह से नेताओं का देश होते हुए चुनावों का देश बन बैठा. जिन्हें चुनाव शब्द के बारे में नहीं पता, उनकी जानकारी के लिए बताया जाता है कि चुनाव शब्द दो शब्दों को मिलाकर बना है, चुन और नाव. चुनाव की प्रक्रिया के तहत जनता एक ऐसे नेता रुपी नाव को चुनती है जो जनता को वैतरणी पार करा सके. (चुनाव शब्द के बारे में मेरा ज्ञान इतना ही है. इस शब्द के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए पाठकों को अग्रिम अर्जी देने की जरूरत है जिससे प्रसिद्ध शब्द-शास्त्री श्री अजित वडनेकर की सेवा ली जा सके. ऐसी सेवा की फीस एक्स्ट्रा ली जायेगी.)
नब्बे के दशक तक जनता केवल नेताओं का चुनाव करती थी जिससे उन्हें शासक बनाया जा सके. लेकिन जनता को इस बात का भान भी नहीं था कि वोट देने की उनकी क्षमता में आए निखार के साथ-साथ टैक्स और मंहगाई की मार सहने की उसकी बढ़ती क्षमता पर टीवी सीरियल बनाने वालों की भी नज़र थी.
भारत में चुनावों का इतिहास पुराना है. वैसे तो हर चीज का इतिहास पुराना ही होता है लेकिन चुनावों के बारे में बिल्कुल ही पुराना है. देश में पहले जब राजाओं और सम्राटों का राज था, उस समय भी चुनाव होते थे. राजा और सम्राट लोग शासक के रूप में अपने पुत्रों का चुनाव कर डालते थे. ऐसी चुनावी प्रक्रिया में जनता का कोई रोल नहीं होता था. देश को जब आजादी नहीं मिली थी और अंग्रेजी शासन था, उस समय भी चुनाव होते थे. तत्कालीन नेता अपने कर्मों से अपना चुनाव ख़ुद ही कर लेते थे. देश को आजादी मिलने का परिणाम ये हुआ कि जनता को भी चुनावी प्रक्रिया में हिस्सेदारी का मौका मिलने लगा. नेता और जनता, दोनों आजाद हो गए. जनता को वोट देने की आजादी मिली और नेता को वोट लेने की. वोट लेने और देने की इसी प्रक्रिया का नाम चुनाव है जो लोकतंत्र के स्टेटस को मेंटेन करने के काम आता है. सन् १९५० से शुरू हुआ ये राजनैतिक कार्यक्रम कालांतर में सांस्कृतिक कार्यक्रम के रूप में स्थापित हुआ.
सत्तर के दशक के मध्य तक भारत में चुनाव हर पाँच साल पर होते थे. उस समय जनता को चुनावों का बेसब्री से इंतजार करते देखा जाता था. पाँच साल के बाद हुए चुनाव जब ख़त्म हो जाते थे तब जनता दुखी हो जाती थी. कालांतर में नेताओं को लगा कि पाँच साल में एक बार चुनाव न तो देश के हित में थे और न ही जनता के हित में. पाँच साल में केवल एक बार वोट देकर दुखी होने वाली जनता को सुख देने का एक ही तरीका था कि चुनावों की फ्रीक्वेंसी बढ़ा दी जाय. ऐसी सोच का नतीजा ये हुआ कि नेताओं ने प्लान करके सरकारों को गिराना शुरू किया जिससे चुनाव बिना रोक-टोक होते रहें. नतीजतन जनता को न सिर्फ़ केन्द्र में बल्कि प्रदेशों में भी गिरी हुई सरकारों के दर्शन हुए.
नब्बे के दशक तक जनता केवल नेताओं का चुनाव करती थी जिससे उन्हें शासक बनाया जा सके. लेकिन जनता को इस बात का भान भी नहीं था कि वोट देने की उनकी क्षमता में आए निखार के साथ-साथ टैक्स और मंहगाई की मार सहने की उसकी बढ़ती क्षमता पर टीवी सीरियल बनाने वालों की भी नज़र थी. इन लोगों ने जनता को इंडियन आइडल, स्टार वायस ऑफ़ इंडिया और नन्हें उस्तादों के चुनाव का भी भार दे डाला. नतीजा ये हुआ कि जिस जनता का वोट पाने के लिए नेता लोग पैसे, शराब और बार-बालाओं के नाच वगैरह का लालच देते थे, उसी जनता को ऐसे प्रोग्राम बनाने वालों ने उन्ही का पैसा खर्चकर वोट देने को मजबूर कर दिया. नतीजतन जनता वोट देकर और पैसे खर्च कर खुश रहने लगी.
भारतीय चुनावों को देश और विदेशों में भी काफी ख्यात-प्राप्ति हो चुकी है. लोकतंत्र और राजनीति के कुछ देशी विशेषज्ञों का मानना है कि देश की मजबूती के लिए चुनाव होते रहने चाहिए. हाल ही में कुछ मौसम-शास्त्रियों ने गर्मी, वर्षा, और सर्दी के साथ-साथ चुनावों के मौसम को एक नए मौसम के रूप में स्वीकार कर लिया है. टीवी न्यूज़ चैनल वालों ने चुनावों को जंग और संग्राम के पर्यायवाची शब्द के रूप में स्वीकार कर लिया है. कुछ न्यूज़ चैनलों ने चुनावों को महासंग्राम तक कहना शुरू कर दिया है. स्वीडेन में नाव बनाने वाली एक कंपनी ने 'भारतीय चुनाव' ब्रांड से एक नई नाव बाज़ार में उतारा है. चुनावों की लोकप्रियता और बढ़ते बाज़ार को देखते हुए देश के बड़े औद्योगिक घरानों ने 'चुनावी विशेषज्ञ' बनाने के लिए एस ई जेड खोलने का प्रस्ताव रखा है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारतीय चुनाव दुनियाँ का सर्वश्रेष्ठ चुनाव है.
Thursday, December 13, 2007
कलकत्ता निवासी चिट्ठाकारों से एक अपील
कोई नई बात नहीं है. कलकत्ता सदियों से धीमा शहर ही रहा है तो इस बात में समय के साथ-साथ कैसे चल सकता है. मैं चिट्ठाकार सम्मेलन की बात कर रहा हूँ. पिछले कई दिनों से हीन-भावना से ग्रस्त हूँ. मुझे पता नहीं कि प्रियंकर जी, बाल किशन और मीत जी के साथ भी ऐसा है या नहीं, लेकिन मैं तो भैया बहुत दुखी हूँ. मुम्बई को देखिये, पिछले दो महीने अन्दर चार चिट्ठाकार सम्मेलन हो गए, और हमारे कलकत्ते में एक भी नहीं.
मुम्बई में चिट्ठाकार सम्मेलन के फोटू देखते ही बनते हैं. शुकुल जी का बर्थडे केक, समीर जी का चश्मा और दार्शनिक मुद्रा, वगैरह वगैरह देखकर दिल और टूटा जा रहा कि हाय, एक वे हैं जो मुम्बई में रहते हैं और महीने में तीन बार चिट्ठाकार सम्मेलन कर डालते हैं और एक हम कलकत्ते वाले हैं, जो आजतक कुछ नहीं कर सके. और ध्यान देने वाली बात ये है कि ये तो केवल उन सम्मेलनों का जिक्र है जो घर में, काफ़ी हाऊस में और पार्क में हुए. उन तमाम सम्मेलनों की छोड़ ही दीजिये जो अँधेरी और चर्चगेट स्टेशन पर होते होंगे. जिनके बारे में चर्चा नहीं होती.
<<< आसमान से कोलकाता का गूगलीय दृष्य। कहीं भी हो जाये ब्लॉगर मीट!
और मुम्बई की ही बात क्यों करें, इस मामले में इलाहाबाद, कानपुर और आगरा भी कलकत्ते से आगे हैं. पिछले दिनों अभय जी की पोस्ट पर तसवीरें देख रहा था. तसवीरें देखकर मन में बात आई कि कलकत्ते में कितने 'फूल' भरे पार्क हैं, जहाँ सम्मेलन किया जा सकता है. लेकिन इन फूलों की तकदीर ख़राब है कि वे बेचारे भी चिट्ठाकारों के दर्शन नहीं कर पा रहे. हम जैसे चिट्ठाकारों के साथ बेचारे ये फूल भी ढेर हुए. साथ में काफ़ी का मग और प्लेट के बिस्कुट भी.
कभी-कभी संजीत से कहता हूँ कि एक दिन रायपुर जाकर ही सम्मेलन कर डालते हैं. कलकत्ते में न सही, रायपुर के पार्कों में तो फोटू खिचाने का मौका मिलेगा. संजीत भी तैयार हैं, लेकिन अभी तक ऐसा हो न सका. कई बार घर में रखे कैमरे पर नज़र जाती है तो लगता है जैसे कह रहा हो कि 'तुम जैसे निकम्मे से कुछ नहीं होनेवाला. उधर अभय जी, अनिल जी और अनिता जी के कैमरे देखो, कितने भाग्यशाली हैं जो चिट्ठाकार सम्मेलन कवर करते नहीं थकते. कभी मिल गए तो मुझे चिढायेंगे कि इतनी उम्र हुई लेकिन एक भी चिट्ठाकार सम्मेलन नहीं कवर कर सके. लानत है.'
शुकुल जी जुलाई में कलकत्ते आए थे. लेकिन मेरी समस्या थी कि मैं उस समय तक फुल-टाइम चिट्ठाकार नहीं बन सका था. सो उनसे मिलकर सम्मेलन करने का चांस भी जाता रहा. प्रियंकर जी से मिल चुका हूँ लेकिन उस समय कैमरा साथ नहीं था. अब फोटू नहीं रहे तो सम्मेलन के बारे में लिखना भी बड़ा कठिन रहता है. अगर उस सम्मेलन या फिर मिलन के बारे में कुछ लिखता तो शायद फोटू न होने की वजह से कोई पढ़ता भी नहीं.
आजतक अपने ब्लॉग पर एक भी पोस्ट नहीं लिखा सका जिसमें चिट्ठाकार सम्मेलन का जिक्र हो. अब तो लगता है जैसे छ महीने से चिट्ठाकारी में रहते हुए भी कुछ नहीं कर पाये. हे कलकत्ते निवासी चिट्ठाकारों, मुझे इस हीन-भावना से निकालने की कोई जुगत लगाईये. एक बार तो ऐसा कुछ कीजिये कि मेरे ब्लॉग पर भी चिट्ठाकारों की तस्वीरों का नया ही सही लेकिन म्यूज़ियम खुले तो.
Friday, December 7, 2007
'फिलिम वालों' के ख़िलाफ़ निंदक जी का अभियान
'निंदक' जी मिल गए. अरे, वही अखिल भारतीय निंदक महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष. रतीराम चौरसिया की पान-दुकान पर खड़े थे. रतीराम के साथ बहस में उलझे थे. उसे समझाते हुए कह रहे थे; "गजब मनई है यार तुम भी. अरे कह तो रहे हैं कि कर देंगे हिसाब, और तुम है कि एक ही जगह अटका है. हिसाब कीजिये, हिसाब कीजिये. आज तक ऐसा हुआ है का, कि तुम्हारा हिसाब नहीं दिए?"
रतीराम बोला; "ऊ सब तो ठीक है, लेकिन भजाते नहीं हैं कभी. खाली कहते है कि काल दे देंगे, काल दे देंगे. एही करते-करते चार महीना निकल गया."
"अरे ज़रा ई भी तो सोचो कि रोज आते तो हैं. आज हमरे आने से दस लोग अऊर आते हैं तुम्हारे दुकान पर." फिर मेरी तरफ़ मुड़ते हुए बोले; "का, ठीक कह रहा हूँ कि नहीं?"
मैंने कहा; "बिल्कुल ठीक कह रहे हैं. और बताईये, क्या हाल है?" मुझसे बात शुरू हुई तो रतीराम को चुप हो जाना पडा.
बोले; "वोइसे त सब ठीक है. बाकी, ई मीडिया वालों से दुखी हो गए हैं."
मैंने पूछा; "क्यों, ऐसा क्या हो गया. कोई झगड़ा हो गया क्या?"
बोले; "नहीं ऊ बात तो नहीं है. लेकिन बदमाश हो गया है सब. कल का ही बात लीजिये, ई फिलिम आई है न. अरे ओही, माधुरी वाली, आजा नच ले. उसका विरोध में सभा किए रहे. अखबार वाला आया सब. बक्तव्य भी ले गया, लेकिन बदमाशी देखिये कि छापा नहीं."
मैंने कहा; "फ़िल्म के विरोध में सभा किए. किस बात को लेकर विरोध दर्ज कराया आपने?"
बोले; "अरे आपको पता नहीं? ई फिलिम का एक गाना में जाति-सूचक शब्दों का प्रयोग कर दिया है, गीतकार ने. हमको तो बहुते बुरा लगा. हम बोले विरोध दर्ज कराना ही पड़ेगा."
"अच्छा, उस गाने को लेकर विरोध था. लेकिन अखबार वालों ने आपका वक्तव्य छापा क्यों नहीं? क्या बोले?"; मैंने उनसे पूछा.
<< एस्ट्रोपण्डित। राजस्थान पत्रिका की वेब साइट से साभार।
निंदक जी ने इधर-उधर देखते हुए मुझसे चुपके से कहा; "अरे का बतायें. ई लोग बोला, कि जब सरकारे फिलिम पर रोक लगा दिया, तो आपका बक्तव्य का महत्व नहीं रहा. इसीलिए नहीं छापे."
मैंने कहा; "अच्छा, ये बात है. क्या करियेगा, उनकी भी मजबूरी होगी कुछ."
बोले; "लेकिन फिलिम वालों के ख़िलाफ़ हमरे संगठन का विरोध जारी रहेगा. हम तो संगठन का लड़का लोगों को लगा दिए, ई खोजने के लिए कि और कौन मुद्दों पर फिलिम वालों का विरोध किया जा सकता है."
मैंने पूछा; "तो कुछ खोज पाये. मेरा मतलब कोई मुद्दा मिला, जिसपर फ़िल्म वालों का विरोध किया जा सके?"
निंदक जी ने मेरी तरफ़ देखा. मुंह पास लाते हुए धीरे से बोले; "आप अपने है, सो बता रहे हैं. बहुत सॉलिड मुद्दा खोजा है लड़कवा सब. बोल रहा था कि फिलिम में जिस तरह से पंडित और ब्राह्मण लोग को देखाता है, उससे ब्राह्मण जाति का बहुत अपमान होता है."
मैंने कहा; "अच्छा, इस मुद्दे पर फ़िल्म वालों का विरोध किया जा सकता है?"
बोले; "विरोध माने, सॉलिड विरोध. देखते नहीं कैसे देखाता है फिलिमकार लोग पंडित को. देखने से लगता है जैसे पंडित ही सबसे बड़ा घूसखोर होता है. देखाता है कि पंडित लोग घूस लेकर कुंडली मिला देता है. आ चाहे कुंडली मिलती हो, चाहे नहीं. आप ही बताईये, ई ग़लत बात है कि नहीं?"
मैंने कहा; "आप ठीक ही कहते हैं. मुद्दा तो ठीक उठाया आपने."
मेरी तरफ़ देखते हुए बोले; "और तो और, फिलिम में दिखाता है कि शादी हो या पूजा, मरण हो या कीर्तन, सब जगह पंडित एक ही 'इशलोक' बोल रहा है. अरे वही, 'मंगलम भगवान् विष्णु...'. हम पूछते हैं, का हमरे समाज का पंडित केवल यही एक ही 'इशलोक' जानता है? आप ख़ुद ही बताईये, पंडितों और ब्राह्मणों का बेइज्जती है कि नहीं ये?"
मैं सोच ही रहा था कि उन्होंने खुलासा करते हुए बताया; "और इस बार तो सोच रहे हैं कि टीवी चैनल वालों को बुला लेंगे विरोध प्रदर्शन के समय. राम बरन उकील का रिश्तेदार हैं. टीवी में काम करता है. भरोसा दिलाया है कि भइया आप प्रदर्शन कीजिये, हमारा चैनल कभरेज देगा आपका संगठन को."
उनसे बात करके मैं चला आया. 'निंदक' जी ने मुझे बताया; "आ टीवी पर कौन सा दिन देखायेगा, हम बता देंगे आपको. देखकर बतईयेगा, हमारा बक्तव्य टीवी पर कैसा लगा."
हर फिल्मकार के लिए चेतावनी टाइप दे गए हैं 'निंदक' जी.
Wednesday, December 5, 2007
अब बिन लादेन को अगवा भी किया जा सकता है.
मतलब ये कि अमेरिका में पहले से ही ऐसा है. अपराध करने की प्रवृत्ति का विकास बाकी के अपराधियों जैसा ही हुआ है.
अर्थव्यवस्था के मामले में भी अमेरिका ने विश्व के ज्यादातर देशों को अगवा कर रखा है. इन देशों की अर्थव्यवस्था इनके अपने आंकडों पर नहीं चलती. चलती है तो अमेरिका में पैदा किए जाने वाले आंकडों पर.
अर्थव्यवस्था के मामले में भी अमेरिका ने विश्व के ज्यादातर देशों को अगवा कर रखा है. इन देशों की अर्थव्यवस्था इनके अपने आंकडों पर नहीं चलती. चलती है तो अमेरिका में पैदा किए जाने वाले आंकडों पर. देखिये न, अमेरिका में सब-प्राईम लोन को लेकर जो हंगामा खडा हुआ है, उसने पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था को सकते में डाल दिया है. वहाँ के बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को ऐसे लोन से बहुत नुकसान हुआ. लेकिन यहाँ एक लोचा हो गया. पूरे विश्व को मैनेजमेंट के गुर सिखाने वाले अमेरिका को अब पता चल रहा है कि उसके देश के मैनेजर तो दो कौडी के हैं. सिटी ग्रुप के हेड चार्ल्स प्रिन्स को हटाया जाना इसका एक उदाहरण है. सबसे मजे की बात ये है कि उनकी जगह लेने के लिए जो लोग सबसे आगे चल रहे हैं, वे भारत और पाकिस्तान से हैं. इस घटना पर सबसे बढ़िया कमेंट मेरे सहयोगी विक्रम ने किया. बोला; "भैया, पूरा अमेरिका ही सब-प्राईम नेशन हो गया है."
अब पाकिस्तानी शायर की बात चली तो पाकिस्तान की याद आ गई. और पाकिस्तान की याद आई तो जनाब ओसामा बिन लादेन की याद आना भी लाजमी है. लादेन साहब को अब सतर्क रहने की जरूरत है क्योंकि उन्हें अगवा भी किया जा सकता है.है अमन के वास्ते दुनिया में बना U N Oइसमें U S A का U है, बाकी सब का NO ही NO
Tuesday, December 4, 2007
आजा नच ले - किसी और का नाचना बाकी है?
बोले; "आजा नच ले देखने गया था."
मैंने कहा; "लेकिन ऐसा भी क्या हो गया कि सोमवार के दिन बारह बजे ही चले गए. मुझे भी बताते तो मैं भी साथ में चलता. हम शाम को भी जा सकते थे."
बोले; "मैंने सोचा पहले ही देख लो. क्या पता कब बैन लग जाए."
मैंने कहा; "अब तो बैन करने वाली कोई बात तो रही नहीं. कुछ राज्यों में सरकार ने बैन किया था. लेकिन अब तो बैन होने का सवाल ही नहीं है. जाति सूचक शब्द थे लेकिन अब तो मामला शांत हो गया."
बालकिशन बोले; "अरे भैया, गाने में दो जातियों के लिए दो शब्द इस्तेमाल किए गए थे. जाति-सूचक शब्द की सूचना केवल एक जाति के लोगों को मिली सो उन्होंने फ़िल्म के प्रदर्शन पर रोक लगवा दिया. लेकिन दूसरी जाति वालों ने तो अभी कुछ किया ही नहीं. मैंने सोचा कहीं उन्हें भी सूचना मिल गई तो."
मैंने सोचा, ठीक ही तो कह रहे हैं. ऐसा तो हो ही सकता है. 'सूचना का अधिकार' तो दूसरी जाति के लोगों को भी है. जब भी वे अपने अधिकार का प्रयोग करेंगे, फ़िल्म पर एक बैन और लग ही सकता है.
Monday, December 3, 2007
क्रिकेट और तिरंगे से छलकती देशभक्ति
लेकिन नवीन जिंदल जी के कारण तिरंगा सरकार के एकाधिकार से निकल कर तमाम देशवासियों के हाथों में और शरीर तक पर जा पहुंचा. जिंदल साहब ने कानूनी लड़ाई लड़ी. देश की सरकार से लड़ना कितना मुश्किल काम होता है. लेकिन उन्होंने किया. उन्होंने शायद सोचा था कि तिरंगे का इस्तेमाल अगर सभी के हाथों में दे दिया जाय तो देशभक्ति बढेगी. देश का भला होगा. लिहाजा तिरंगा सरकारी इमारतों से निकलकर लोगों की कारों और उनके ड्राइंग रूम तक पहुँच गया. लेकिन जिंदल साहब को एकबार सोचना चाहिए था कि क्रिकेट के खेल में देशभक्ति ढूढ़ने और देखने वाली जनता के लिए तिरंगे में देशभक्ति ढूढ़ने का प्रयोजन कितना था.
नवीन जिंदल जी की सारी कवायद तिरंगा फहराकर देशवासियों में देशभक्ति का संचार करने के लिए थी. लेकिन शायद हमें लगा कि केवल फहराने से उचित मात्रा में देशभक्ति का संचार मुश्किल है. लिहाजा केवल फहराने की बात से आगे निकलते हुए हमने तिरंगे को पहनने का, टेबल पर बिछाने का और यहाँ तक कि साड़ी की तरह उसका इस्तेमाल करने में कोई कसर नहीं छोडी. क्रिकेट में देशभक्ति ढूढ़ने वाली जनता अगर तिरंगे के साथ क्रिकेट को जोड़ दे, तो फिर क्या कहने. आए दिन सुनने में आता है कि क्रिकेट हमारे देश में केवल खेल नहीं रह गया. अब ये धर्म हो गया है. अब धर्मांधता में डूबी जनता कभी-कभी पागल हो जाती है. नतीजा सामने है. पिछले कई महीनों में तिरंगे का सबसे ज्यादा अपमान क्रिकेट मैच के दौरान हुआ है. वैसे भी जिस देश के लोग औरतों का अपमान खुले आम सडकों पर करें, उनके लिए अपने देश के झंडे का महत्व कपड़े के एक टुकड़े से ज्यादा और क्या होगा.
वैसे समय बदलता है. मुझे आशा है कि आनेवाले दिनों में समय बदलेगा. तिरंगे का अपमान करने वाली देश की जनता शायद किसी का सम्मान भी करे. आनेवाले दिनों में हम इसी जनता को किसी लुच्चे नेता को सोने-चांदी या फिर सिक्कों से तौलते हुए देख सकेंगे.
Saturday, December 1, 2007
साहब, एक छापा मार दो न, प्लीज!
कहते हैं शेयर बाज़ार मानव-मन की दो भावनाओं से चलता है. एक है लालच और दूसरा है डर. किसी निवेशक के मन में अगर इन दो भावों की उपस्थिति उचित अनुपात में है तो वह बाज़ार से पैसा कमा सकता है. लेकिन अगर अनुपात ग़लत हुए तो पैसे खोने का चांस बढ़ जाता है. उदाहरण के तौर पर रिलायंस पेट्रोलियम के शेयर के दाम में पिछले महीने आई उछाल को देखिये.
'आम निवेशकों' के मन में ये बात भर दी गई कि इस कम्पनी के शेयर का दाम बढ़कर चार सौ रुपये तक हो जायेगा. ये ख़बर पूरे बाज़ार में तब फैलाई गई, जब इस कम्पनी के शेयर के दाम करीब २७५ रुपये तक पहुँच गए. बहुत सारे 'आम निवेशकों' ने इस शेयर में ये सोचकर पैसा लगाया कि चार सौ जाने पर बेंच कर मुनाफा कमा लेंगे. लालच बढ़ गया और डर कम हो गया था. कम्पनी के शेयर का दाम २९० रुपये तक जाकर वहाँ से लुढ़क गया. जब दाम २१० रुपये हो गया, तब रिलायंस के अम्बानी जी ने बताया कि उन्होंने अपनी इस कम्पनी के शेयर बाज़ार में बेंच दिए हैं. नतीजा ये हुआ कि शेयर का दाम २०० रुपये से भी कम हो गया.
सारा कुछ होने के बाद बाज़ार को रेगुलेट कराने वाली सेबी ने कहा कि वो इस कम्पनी के शेयर के दाम में होने वाले उछाल के बारे में जांच करेगी. सेबी की तरफ़ से किसी भी ऐसी जांच का नतीजा ये होता कि इस कम्पनी के शेयर के दाम घाट जाते, जैसा कि पहले बहुत सारी और कंपनियों के केस में देखा जा चुका था. लेकिन यहाँ हुआ ठीक उल्टा. रिलायंस पेट्रोलियम के शेयर के दाम बढ़ गए. जिन लोगों ने ये सोचकर शेयर बेंच दिए होंगे कि दाम घट जायेगा, उन्हें और नुकसान हुआ.
इस घटना से मेरे मन जो बात आई, वो मैं आपको बताता चलूँ :-
मुम्बई में डांस बार बंद कर दिए गए हैं. फिर भी आए दिन सुनने में आता है कि वहाँ फला बार में छापा पडा और लड़कियां बरामद हुईं. और ये कि वहाँ बार में डांस अब भी चलता था. मुझे लगता है कि इस तरह के छापे मारने के लिए बार के मालिक ख़ुद ही पुलिस से कहते होंगे. शायद पुलिस के पास जाकर कहते होंगे कि; "साहब कितने दिन हो गए, आपने छापा नहीं मारा. लोग मेरे बार को शक की निगाह से देखते हैं. आपस में खुसर-फुसर करते हैं कि यहाँ डांस अभी भी चलता है. आप एक बार छापा मार देते तो मैं निश्चिंत होकर धंधा करता."
बस, पुलिस छापा मारने निकल पड़ती होगी. छापा मार कार्यक्रम ख़त्म होने से बार के मालिक को कम से कम छः महीने आराम से डांस बार चलने का 'लाईसेन्स' मिल जाता होगा.
चलते-चलते:
कुछ दिन पहले मैंने सचिन तेंदुलकर के शतक न बनाने को लेकर देश भर के लोगों की चिंता पर एक पोस्ट लिखी थी. उसमें कुछ ज्योतिषियों द्वारा सुझाए गए टोटकों का भी जिक्र था. आप में से बहुत से लोगों ने उसपर टिपण्णी की थी. लेकिन बहुत दिनों बाद कल हरी ओम नामक सज्जन ने टिपण्णी की और मुझे बताया कि मेरी पोस्ट बहुत सेक्सी थी.
मैंने सोचा कि पहले मर्द औरत को सेक्सी कहते थे. हमने प्रगति कि और औरतों ने भी मर्दों को सेक्सी कहना शुरू किया. कालांतर में चीजों को भी सेक्सी कहा जाने लगा. इस उपमा से कारें, सड़कें, कपडे-लत्ते तक को सुशोभित होने का मौका मिला. अब लेख भी सेक्सी कहलाये जाने लगे हैं. मान गए फ्रायड को. तगड़े इंसान थे. नहीं?
Thursday, November 29, 2007
ब्लॉगिंग पर कविता
जब भी 'कविता' लिखने के लिए जरूरी मात्रा में तुकबंदी करने बैठा, पचास ग्राम से ज्यादा तुकबंदी नहीं कर सका. आज पहली बार हुआ कि तुकबंदी की मात्रा सौ ग्राम पहुँच गई. इसीलिए ये कविता लिख डाली. झेलिये:
ब्लॉग खोलकर बैठ गए हैं
पोस्ट ठेलकर खुश हो जाते
दिन में बीसों बार देखते
पाठक कितने आते-जाते
बने निवेशक टिप्पणियों के
बिना मांग के भी दे देते
अगर मिले ना वापस भी तो
दिन कट जाता पीते-खाते
तीन के बदले एक मिले जो
चेहरा उसपर भी खिल जाता
कभी-कभी ऐसा भी होता
नहीं मिले फिर भी टिपियाते
मिले टिपण्णी यही जरूरी
नाम दिखे या हो बेनामी
कभी-कभी गाली पाकर भी
ब्लॉगर कितने खुश हो जाते
विषयों की भी कमी नहीं है
नेता, जनता, रेल, खेल में
कविता हो या गजल, कहानी
खोजें जहाँ वहीं पर पाते
लेकिन मोदी बिना अधूरी
ब्लागिंग की ये अमर कहानी
जहाँ मिले मौका खुश होकर
उन्हें कोसते और गरियाते
और एक उपलब्धि हमारी
हमने मेहनत से पाई है
तन्मयता से गुटबाजी कर
अपनी बातों को फैलाते
भाषा की ऐसी की तैसी
हम तो 'लिक्खें' नूतन भाषा
हिन्दी में अंग्रेजी जोडें
और अंग्रेजी में 'हिन्दियाते'
बड़े निराले नाम ब्लॉग के
और अनूठे ब्लॉगर के भी
सब में दर्शन रहे खोजते
कुछ में बिन खोजे ही पाते
ऐडसेंस में बड़ा सेंस है
जिनको बात समझ में आई
पोस्टों की बस झड़ी लगाकर
पाठकगण को बहुत सताते
गाली लिक्खें, कसें फब्तियाँ
दुखी अगर कोई हो जाता
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का
टूटा हुआ रेकॉर्ड बजाते
ये सारी बातें हैं फिर भी
कोई डोर हमें बांधे है
मिलकर हमसब गिरते-पड़ते
चिट्ठापथ पर चलते जाते
चिट्ठापथ पर चलते जाते
Wednesday, November 28, 2007
टेस्ट पोस्ट्- एक जोक ही सुन लें!
सरकारी विभाग के एक ठेका दिया जाने वाला था - एक दीवार की मरम्मत का। तीन प्रत्याशी सामने आये। पहले ने कागज पर गणना की और कहा - 900 रुपये। चार सौ का माल, चार सौ की मजूरी और 100 मेरा लाभ।
दूसरा तगड़ा प्रतिद्वन्द्वी था। गणना कर बोला - 700 रुपये। तीन सौ का माल, तीन सौ मजूरी और 100 मेरा लाभ।
तीसरा प्रतिद्वन्द्वी सबसे स्मार्ट था। उसने कोई गणना नहीं की। कागज-कलम का कोई प्रयोग नहीं किया। वह तुरंत अधिकारी के कान में फुसफुसाया - 2700 रुपये। हजार आपके, हजार मेरे और सात सौ इस दूसरे वाले से काम कराने के।
अधिकारी प्रसन्न! तुरत बोला - बिल्कुल सही। दो हजार सात सौ पर तय!
Monday, November 26, 2007
ब्लॉग में ब्लॉगर
ब्लॉगवाणी पर पोस्ट आने के बाद चिट्ठे के नाम के आगे चिट्ठाकार का नाम आता है. कई बार दोनों को मिलाने पर बड़े रोचक वाक्य बनते हैं. एक नज़र डालिए;
पहलू में चंद्र भूषण -किसके?
मीडिया व्यूह में नीशू - चक्रव्यूह का ज़माना गया अब.
छाया में प्रमोद रंजन - घनी है या नहीं?
जूनियर कौंसिल में संजीव तिवारी - भगवान् प्रमोशन दें
विस्फोट में संजय तिवारी - कब कौन कहाँ फंस जाए, कह नहीं सकते
झारखण्ड राज्य में राजेश कुमार - बगल में बिहार और बंगाल भी है
दर्पण के टुकडे में कृशन लाल 'किशन' - कितने टुकडों में हैं, सर
समयचक्र में महेंद्र मिश्रा - समय का चक्कर है
एक हिन्दुस्तानी की डायरी में अनिल रघुराज - और किसी का नाम नहीं है?
खेत खलियान में शिव नारायण गौर - भारत एक कृषि प्रधान देश है.
इन्द्रधनुष में नितिन बागला - रंग पूरे हैं तो?
तीसरा खम्बा में दिनेश राय द्विवेदी - बाकी दो में कौन है?
जीवनधारा में अस्तित्व - बाकी है तो ?
कबाड़खाना में दीपा पाठक - ऐसी जगह क्यों चुनी?
निर्मल आनद में अभय तिवारी - बहुत कम लोगों को नसीब होता है
चिटठा चर्चा में अनूप शुक्ल - केवल चिटठा चर्चा में?
कही अनकही में खुश - होना ही चाहिए
भूख में सत्येन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव - समय निकाल कर कुछ खा लीजिये
बाल उद्यान में नंदन - और किसी को इजाजत नहीं है
ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल में ज्ञान दत्त पाण्डेय - कौन किसके अन्दर है?
बाज़ार वाकई 'बिग' है
मैंने कहा; "अचानक ट्राली बदलने की जरूरत कैसे पड़ गई?"
बोले; "असल में छोटा घर है. जगह कम है. मैंने सोचा छोटी ट्राली लेने से जगह भी बचेगी और काम भी चल जायेगा. अब सोच रहा हूँ, 'बिग बाज़ार' से खरीद लूंगा. मिसेज बता रही थी कि नया वाला बिग बाज़ार काफ़ी बड़ा है. वहाँ फर्नीचर सस्ते मिलते हैं."
शाम को 'बिग बाज़ार' से डेलिवरी वैन आई. चंदन दा के घर के सामने खड़ी हुई. मैंने देखा उसमें से सैमसंग की दीवार पर टांगने वाली एलसीडी टीवी उतर रही है. सामने चंदन दा खड़े थे. मैंने पूछा; "टीवी ट्राली के साथ-साथ ने टीवी भी खरीद ली आपने?"
मुझे सालों पहले पढ़ा एक चुटकुला याद आ गया. चुटकुला कुछ यूं था;
मैनेजर इस सेल्समैन से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका. उसने सेल्समैन से पूछा; "तुमने एक ही कस्टमर को इतना सारा सामान कैसे बेंचा?"
Friday, November 23, 2007
तीस साल के साम्यवादी शासन की फसलें
सान्याल साहब की निराशा समझी जा सकती है. कितने अरमान लेकर उन्होंने नक्सलबाड़ी का आन्दोलन शुरू किया होगा. लेकिन सब गुड़ गोबर हो गया. सत्ता में आए साम्यवादियों की सराहना पिछले महीने तक जारी थी. लेकिन परिस्थितियां बदलने के लिए शायद एक महीने का समय काफ़ी होता है. जो साम्यवादी सत्ता में नहीं हैं और जिनका साम्यवाद लेखन और पाठन तक सीमित है वे बेचारे भी दुखी हैं. सत्ता पाने के लिए किया गया संघर्ष सत्ता मिलने पर ख़त्म हो जाता है. साथ में लुट जाती है सिद्धांतों की पोटली, जिसमें किताबें बांधकर सत्ता पाने का संघर्ष किया जाता हैं.
लेकिन 'साम्यवादियों' का अत्याचार क्या केवल पिछले महीने की ही बात है? इन लोगों ने जिस देश में सत्ता का स्वाद पहली बार चखा, वहाँ की कहानी कैसे भूल जाते हैं? स्टालिन भी साम्यवादी थे, इस बात में लोगों को संदेह रहता है क्या? या फिर साम्यवाद के इस महान सपूत ने क्या-क्या किया, किसी को मालूम नहीं है. जहाँ तक अपने देश की बात है, तो पिछले महीने तक क्या सब कुछ ठीक था? अस्सी और नब्बे के दशक तक विरोधी पार्टियों को वोट देने वाले अंगूठे काट दिए जाते थे, ये बात किसी से छिपी नहीं है. हाँ, उदासीनता की चादर ओढ़ कर कुछ भी न देखने का नाटक तो कोई भी कर सकता है. वैचारिक मतभेद की बात आती है तो सत्ता में बैठे लोग (या फिर वे भी, जो सत्ता का सुख नहीं भोग पाने के कारण दुखी रहते हैं) किसी भी तह तक गिरने के लिए तैयार बैठे रहते हैं. फिर चाहे पाठ्यपुस्तकों से स्टालिन जैसे 'महान साम्यवादी' के ख़िलाफ़ लिखे गए लेख को हटाने की बात हो, या फिर निरीह किसानों को उनके ही घर से निकालने की बात, सब कुछ करना चुटकी बजाने के बराबर रहता है.
पश्चिम बंगाल में भूमि सुधारों को आगे रखकर कुछ भी करने के लिए तैयार बैठे लोग क्या-क्या कर सकते हैं, नंदीग्राम उसका एक नमूना मात्र है. ऐसा नहीं है कि नंदीग्राम पहली घटना है. इससे पहले भी कितना कुछ हो चुका है. इस बार समस्या केवल ये हो गई कि मामला सामने आ गया. लेकिन उससे भी क्या होने वाला है. सब कुछ सामने आने के बाद भी बेशर्मी से 'तर्कों' के जरिये सारी बातों को सिरे से खारिज कर रहे हैं. इतने सालों के शासन के बाद भी आम आदमी को राशन की दुकानों से अनाज तक नहीं दिला सके. ऊपर से तुर्रा ये कि "हमने सार्वजनिक वितरण प्रणाली में ऐसे परिवर्तन किए हैं, जो देश में और कहीं नहीं दिखाई देता." ऐसे परिवर्तन का नतीजा है कि जनता राशन दुकानों को लूटने पर आमादा है.
तीस सालों के शासन के बाद की पैदावार से निकला क्या? मोटरसाईकिल पर लाल झंडा गाड़े कैडर, अपने-अपने संसदीय क्षेत्रों में राजा की तरह जीने वाले सांसद जो चुनाव आयोग को बताते हैं कि उनके पास केवल चार सौ पैसठ रुपये हैं, मुहल्ले में चलने वाले क्लब जिनमें चालीस साल की उम्र वाले 'डेमोक्रेटिक यूथ' कैरम खेलते हैं, दूसरों की जमीन पर कब्जा करते हैं और वहाँ रहने वालों को डराते-धमकाते हैं.
इसके अलावा नयी फसल में एक चीज और उपजी है, नंदीग्राम.
Thursday, November 22, 2007
ब्रोकर, एनॉलिस्ट, आलोक पुरणिक और मैं
आलोक पुराणिक जी ने आज अपनी पोस्ट में मेरे पेशे के बारे में राज की बात बताई है -
जो समझ जाते हैं, वो नोट कमाते हैं। जो नोट नहीं कमा पाते हैं, वो शेयर बाजार एक्सपर्ट हो जाते हैं, और टीवी वगैरह पर बताने लगते हैं कि अईसे कमाओ या वैसे कमाओ।यह पोस्ट पढ़ कर मैने वहां दन्न से तुकबन्दी में एक लम्बी टिप्पणी ठेल दी है। मुझे मालुम है कि तुकबन्दी अपनी तरंग जाहिर करने की सटीक विधा है। उस तरंग को आप इस पोस्ट में भी ग्रहण करें/झेलें:
एक ब्रोकर और एक एनालिस्ट
साथ गए रेस कोर्स
एनालिस्ट था बुझा-बुझा
ब्रोकर में था गजब का फोर्स
रेस कोर्स पंहुचते ही
दस नम्बर के घोडे पर
ब्रोकर ने लगा दिया पैसा
एनालिस्ट से पूँछ बैठा;
तुम नहीं लगाओगे
एनालिस्ट बोला
हम तो पहले स्टडी करेंगे कि;
घोडे का पास्ट रेकॉर्ड्स है कैसा
ब्रोकर झल्लाया
एनालिस्ट को सुनाया
तुम बहुत कैलकुलेट करते हो
उसी के बेस पर
एनालिस्ट होने का दम भरते हो
रेस हुई
रिजल्ट आया
ब्रोकर का घोडा जीत गया
ब्रोकर ने बहुत पैसा कमाया
एनालिस्ट हैरान
ब्रोकर को देखकर परेशान
ब्रोकर से पूछ बैठा
अच्छा ये बताओ
इतने सारे घोडे थे
कुछ तो शक्तिमान दिखते थे
कुछ शक्ति में थोड़े थे
लेकिन ऐसा क्यों कि;
तुमने दस नम्बर के घोडे पर ही
पैसा लगाया
ये आईडिया कहाँ से आया
ब्रोकर बोला
मेरे दो बेटे हैं
एक छ साल का और
दूसरा तीन साल का
मैंने दोनों की उम्र को मिलाया
जो भी फिगर आया
उसी नंबर के घोडे पर
पैसा लगाया
तुम ख़ुद ही देख सकते हो
मैंने कितना माल कमाया
पूरी तरह से रीझ गया
लेकिन मन ही मन
थोड़ा सा खीझ गया
बोला;
कैसी ख़राब गणित है तुम्हारी
छ और तीन तो नौ होते हैं
ये किस तरह से प्लस करते हो
ब्रोकर बोला
मैंने पहले ही कहा था
तुम कैलकुलेट बहुत करते हो
Wednesday, November 21, 2007
देवेगौडा जी क्या करें, राज्य का नाम ही है कर-नाटक
बीजेपी के शासन करने की बारी आई तो देवेगौडा जी को याद आया कि बीजेपी वाले तो कम्यूनल हैं. एक कम्यूनल पार्टी सत्ता से बाहर रहकर समर्थन दे, ये बात उन्हें गंवारा है लेकिन सत्ता के अन्दर रहे, ये बात देवेगौडा जी को कैसे पचेगी. सो उन्होंने समर्थन देने से मना कर दिया. पिछले कई महीनों से सेक्यूलर नाम के बुखार से त्रस्त है बेचारे. बीजेपी वाले जब भी मनाने गए तो उन्हें बुखार नहीं था. लेकिन जब सदन में वोट देने की बात आई तो बुखार वापस आ गया. मलेरिया टाइप होता होगा ये बुखार जो कुछ दिनों के अंतराल पर आता है.
देवेगौडा जी ने कांग्रेस के साथ भी कुछ समीकरण बैठाने की कोशिश की लेकिन वो हो नहीं सका. कांग्रेस तो ख़ुद अपने आपको महा सेक्यूलर पार्टी मानती आई है. अगर ये लोग देवेगौडा जी की पार्टी के साथ कुछ करने के मूड में होंगे भी तो देवेगौडा साहब की पार्टी का नाम देखकर डर गए होंगे. उनकी तो पार्टी के नाम के साथ भी सेक्यूलर लगा हुआ है. जाहिर सी बात है, कांग्रेस वाले डर गए होंगे कि कहीं देवेगौडा जी सेक्यूलेरिस्म की पूरी हवा समेट कर अपने पास न रख लें. ऐसे में कांग्रेस से भी बड़ा सेक्यूलर पैदा हो जायेगा.
देवेगौडा जी के कारनामे पर लोग तरह-तरह की बातें कर रहे हैं. कोई इसे लोकतंत्र के इतिहास में काला अध्याय बता रहा है तो कोई लोकतंत्र का कत्ल. हाँ और ना बोलने के नए-नए रेकॉर्ड्स बन रहे हैं. सुन रहे थे देश के राष्ट्रपति ने भी एक तरह का नया रेकॉर्ड बनाया है. इतने कम समय में दो बार एक राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने का.
हम सभी सुनते आए हैं कि लोकतंत्र तरह-तरह के रेकॉर्ड्स से चलता है. वोटर का रेकॉर्ड्स, नेता का रेकॉर्ड्स, शासन का रेकॉर्ड्स. इन रेकॉर्ड्स में कुछ और नए रेकॉर्ड्स और जुड़ जायेंगे.
वसीम बरेलवी साहब का शेर है. लिखते हैं;
हमारा अज्म-ऐ-सफर कब किधर का हो जाए
ये वो नहीं जो किसी रहगुजर का हो जाए
उसी को जीने का हक़ है जो इस जमाने में
इधर का दिखता रहे और उधर का हो जाए
Tuesday, November 20, 2007
ब्लॉग समाज के सदस्यों से अपील- सचिन को रास्ता दिखाये
सचिन फिर से शतक नहीं बना सके. कितने महीने बीत गए, एक शतक के लिए देश भर को तड़पा रहे हैं. देश के आधे लोगों की तड़प देखकर बाकी आधे तड़प रहे हैं. टीवी वाले सबसे ज्यादा दुखी दिख रहे हैं. धंधा ठीक ही चल रहा है लेकिन देश के लोगों के दुःख में शरीक हैं, ये भी दिखाना है, सो कैमरे पर आंखें दुखी हैं और माइक पर आवाज.
कोशिश के नाम पर केवल टीवी वालों ने ही मुंह पीट कर लाल कर लिया. एक चैनल पर देखा. ज्योतिषियों की भीड़ लगी थी. एक ने बताया; "देखिये, उनका चंद्र ठीक से ड्यूटी नहीं कर रहा है. उन्हें अपने चन्द्र के बारे में कुछ करना पडेगा."
टीवी चैनल के एंकर ने पूछा; "क्या लगता है आपको? सचिन को क्या करना चाहिए कि उनका चन्द्र ठीक से ड्यूटी पर आ जाए."
ज्योतिषी ने जवाब दिया; "उन्हें चांदी के गिलास में पानी पीना चाहिए. रात को चन्द्रमा को निहारना चाहिए. बैटिंग करने से पहले अगर वे चांदी का बुरादा पिच पर छिड़कें तो शतक बन जायेगा."
मैंने सोचा ऐसा सचिन कर सकते हैं. लेकिन कहीं ऐसा न हो कि क्रिकेट की 'गवर्निंग बाडी' आई सी सी उन्हें पिच की कंडीशन बदलने को लेकर सजा न सुना दें. अगर शतक बन भी जाए तो आई सी सी उस शतक को रेकॉर्ड बुक में जाने से ही रोक दे. मैच फीस की कटौती ऊपर से. सचिन भी सोचेंगे कि चांदी का बुरादा खरीदने में पैसे खर्च हो गए, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला.
एक और ज्योतिषी को देखा. बोले असल में समस्या चन्द्र की नहीं है. ये सारा कुछ मंगल का किया धरा है. सचिन का मंगल उनके लिए अमंगल पैदा कर रहा है. बोल रहे थे कि नौ की संख्या का रिमोट मंगल के हाथ में रहता है इसलिए शतक बन नहीं पा रहा. नब्बे और निन्यानवे के बीच सब कुछ रह जाता है. मुझे लगा इससे पहले भी तो सचिन ने इतने शतक लागाये हैं, तो क्या उस समय ये मंगल रिमोट कहीं रखकर भूल गया था क्या. एक ज्योतिषी ने तो समाधान बताया कि जिस शहर में खेलने जाएँ, वहाँ बह रही नदी में एक गिलास पानी सुबह-सुबह डाल दें, शतक बन जायेगा. इन ज्योतिषियों की बातें सुनकर लगा कि सब कुछ बड़ा सरल है. क्या जरूरत है बैटिंग की प्रैक्टिस की. क्या जरूरत है मेहनत करने की. चांदी की गिलास, चांदी का बुरादा, शहर की नदी ही काफ़ी है.
सोचते-सोचते मुझे एक खबरिया चैनल पर राशिफल बताने वाली एक महिला की बात याद आ गई. किसी राशि के लोगों के लिए दिन कैसे जायेगा, बताते हुए इस महिला ज्योतिष ने कहा था; "आप काली गाय को आज सबेरे-सबेरे पालक खिलाईये. और पालक खिलाते समय ध्यान रहे, कि आपने हरे रंग की शर्ट पहनी हो." मुझे लगा जुलाई महीने में इतनी भयानक बरसात होती है. ऐसे मौसम में पालक किसान तो क्या किसान का बाप भी नहीं उगा सकेगा. और फिर अगर कोई शहर में रहता हो और काली गाय खोजने निकल पड़े तो शायद घंटों का समय बरबाद हो जाए. आफिस में अब्सेंट लगेगा सो अलग. उस बेचारे का दिन तो ऐसे ही ख़त्म.
वैसे सचिन के लिए सबसे बढ़िया सुझाव उनके पुत्र ने दिया. बोला; "क्या जरूरत है आउट होने की. जब चौरानवे पर पहुँचें, तो एक छक्का लगा दें, झमेला खत्म." ये हुई न बात. क्रिकेटर का बेटा क्रिकेट खेलने की ही सलाह देगा.
वैसे आपके पास कोई सलाह हो तो जरूर बतायें. सचिन को अगर ज्योतिषी सलाह दे सकते हैं तो फिर ब्लॉगर क्यों नहीं.
Wednesday, November 14, 2007
दिल्ली में बन्दर - कुछ उतरे सडकों पर कुछ घर के अन्दर
समाचार यह है कि
तीज में, त्यौहार में
वित्त मंत्रीजी, इनकी मांगें पूरी करो
अस्सी और नब्बे के दशक में दूध वाला घर पर दूध दे जाता था. गाय का 'प्योर' दूध. बेचारा कभी-कभी पानी मिलाना भूल जाता था. दूध वाले से बड़ी शिकायत रहती थी. उसके सामने तो कुछ नहीं कहते थे लेकिन उसके जाने के बाद शुरू हो जाते थे; "इसकी बदमाशी बढ़ गई है. पहले केवल पानी मिलाता था, आजकल मूंगफली पीस कर दूध में मिला देता है जिससे दूध गाढा दिखे. इसे अब छुड़ाना ही पडेगा." लेकिन दूसरे दिन फिर पानी वाला दूध पीकर संतोष कर लेते थे.
आजकल दूध वाले को गाली देना बंद हो गया है. क्यों न हो, अब बाजार से पैकेट वाला दूध आता है. सालों तक ये कहकर पीते रहे कि "दूध ताजा तो नहीं रहता लेकिन प्योर रहता है." लेकिन यह क्या, हाल में रिपोर्ट आई है कि दूध में यूरिया मिलाया जाता है. साथ में डिटरजेंट भी. कहते हैं यूरिया मिलाने से दूध ज्यादा गाढा और सफ़ेद लगता है. उसके प्योर दिखने में कोई शक नहीं रहता. जब से पता चला है, गिलास में रखे दूध को शक की निगाह से देखते हैं. मन में 'लाऊडली' सवाल पूछ लेते हैं; "दूध पी रहे हो कि यूरिया?"
टीवी पर दूध में यूरिया मिलाने वालों को देखा. बता रहे थे इस मिलावट के धंधे में भी ज्यादा कुछ प्राफिट नहीं रहा अब. पानी के अलावा बाकी सब कुछ मंहगा है. क्या कर रही है सरकार? समाज के किसी वर्ग को तो मंहगाई की मार से बचाए. इन लोगों के लिए कम से कम यूरिया और डिटरजेंट तो सस्ता करवा सकती है. धंधा करने के लिए पुलिस से लेकर इलाके के नेता को पैसा देना पड़ता है. कम से कम नेताओं और पुलिस वालों से तो कह सकती है कि; 'भैया, इन लोगों का ख़याल रखो. इनके लिए अपनी 'फीस' में से कुछ छोड़कर इन्हें राहत दो.'
हाल में रिपोर्ट आई है कि दूध में यूरिया मिलाया जाता है.... जब से पता चला है, गिलास में रखे दूध को शक की निगाह से देखते हैं. मन में 'लाऊडली' सवाल पूछ लेते हैं; "दूध पी रहे हो कि यूरिया?" |
मिलावटी मामलों पर सरकार के एक अफसर को टीवी पर बोलते हुए देखा. उन्होंने समझाया कि किस तरह से खाने की चीजों में मिलावट रोक पाना आसान नहीं है. कह रहे थे "देखिये, हमारे देश में कानून ढीला है. सालों से बदलाव नहीं हुआ है. फ़ूड इंसपेक्टर कम हैं. नगर निगम ध्यान नहीं देता. ये मिलावट करने वाले एक्सपर्ट होते हैं. पुलिस भी इनसे मिली हुई है. फिर भी हम कोशिश तो कर ही रहे हैं."
मैं अपने आपसे बहुत नाराज हुआ. मन में अपने आपको धिक्कारा. मैंने सोचा "एक ये हैं जिन्हें देश में होने वाले हर वाकये की जानकारी है और एक मैं हूँ जिसे कुछ नहीं पता. कम से इतना तो पता कर सकता हूँ कि मिलावट करने वाले बड़े एक्सपर्ट होते हैं. देश का कानून पुराना और ढीला है."
बजट आ रहा है. दिसम्बर महीने से ही उद्योगों के तमाम क्षेत्रों के लोग 'गिरोह' बनाकर वित्तमंत्री से मिलना शुरू कर देंगे. अपने-अपने उद्योगों के लिए कस्टम और एक्साईज में कटौती की मांग करेंगे. मैं तो इस बात के पक्ष में हूँ कि मिलावट उद्योग के लोगों को भी वित्तमंत्री से मिलना चाहिए. दूध में मिलावट करने वाले कम से कम यूरिया पर मिलाने वाली सब्सिडी को बढ़ाने की मांग कर ही सकते हैं. साथ में डिटरजेंट और बाकी के 'रा मैटीरियल' पर सेल्स टैक्स, कस्टम, एक्साईज वगैरह कम करने की मांग भी जरूर करें.
Tuesday, November 13, 2007
पिटाई की राह ताकता लेखक
मैंने दुर्गा-पूजा पर एक 'रिजेक्टेड निबंध' लिखा तो ब्लॉगर मित्रों ने मुझे चेताया कि 'श्रध्दा और भक्ति' वालों से बचकर रहना, कहीं ऐसा न हो कि एक दिन धुनक कर धर दें. उसके बाद मैंने अपने राज्य में होने वाले बंद को लेकर लिखा तो भी लोगों ने मुझसे सहानुभूति दिखाई. ये कहते हुए कि "बंद वालों से संभल कर रहना, कहीं पिटाई नहीं कर दें तुम्हारी." लोगों से मिली सहानुभूति और चेतावनी ने मुझे और उकसा दिया है कि मैं तमाम लोगों के ख़िलाफ़ लिखूं.
अब मैं उस दिन का इंतजार कर रहा हूँ जब कुछ लोग आकर मुझे धुनक देंगे. मुझे इन लोगों के ऊपर गुस्सा आ रहा है कि अभी तक किसी ने पिटाई क्यों नहीं की. मैं सोच रहा हूँ कब आयेंगे मेरे ये तारनहार और मेरी पिटाई करेंगे. मैं उस दिन के बारे में सोच रहा हूँ जब अखबार में ख़बर छपेगी, "लेखक पिट गया." कम से कम लोग मुझे लेखक कहकर सम्बोधित तो करेंगे. सपने देखने लग गया हूँ अब. लोग मुझे दो-चार झापड़ मारेंगे, लेकिन इसका फायदा भी तो होगा. मुझसे सहानुभूति दिखाने वाले मुझे लेखक कहेंगे. हमारे शहर के बुद्धिजीवी मेरे लिए आगे आयेंगे. सरकार को लानत भेजेंगे कि; 'राज्य में 'लेखक' सुरक्षित नहीं रहे अब.'
आहा, क्या नजारा होगा. सुनील गंगोपाध्याय मेरे बगल में बैठे होंगे. साथ में और बहुत सारे बुद्धिजीवी. पत्रकार मुझसे सवाल करेंगे. मैं जवाब दूँगा. चेहरे पर दर्द ले आऊँगा. पत्रकार मेरी तस्वीर खीचेंगे. चेहरे पर दर्द की कमी रही तो मुझे फिर से दर्द पैदा करने के तरीके बताएँगे. अखबारों में फोटो. वाह. और क्या चाहिए एक 'लेखक' को?
मुझे चंद्र मोहन की याद आ रही है कि कैसे इस कलाकार ने देवी-देवताओं की नंगी तस्वीरें बनाई, और पिटने का आमंत्रण दे डाला. पिटाई हुई, और बुद्धिजीवी उसके समर्थन में आगे आए. मोदी की जमकर आलोचना की. सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया. शबनम हाशमी ने कितना बलिदान दिया चंद्र मोहन के लिए. चंद्र मोहन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पहचान बन गए.
मुझे एक बात पर शक है. सोचता हूँ, 'मैंने देवी-देवताओं की नंगी तस्वीरें तो बनाई नहीं. क्या बुद्धिजीवी मेरे समर्थन में आगे आयेंगे?
लेकिन फिर सोचता हूँ कि अगर 'लेखक' के रुप में नहीं पिट सका तो पेंटर बन जाऊँगा.
फुटनोट:
रविवार को मैंने हमारे ब्लॉग की पचासवीं पोस्ट पब्लिश कर दी लेकिन आपको बताना भूल गया. क्या करें, भूल ब्लॉगर से ही होती है. कितना बड़ा घाटा हो गया, बाद में ख्याल आया. बहुत पछतावा हुआ. काश, ये बात आपलोगों को रविवार को ही बताई होती, तो कम से कम ३-४ कमेंट ज्यादा मिलते. आप में से कितने लोगों की बधाई मिलती. कितने लोग मुझसे बहुत जल्दी सौवीं पोस्ट लिखने के लिए कहते. कई तो जल्द से जल्द दो सौवीं पोस्ट लिखने के लिए कहते. लेकिन इसमें आपलोगों का कोई कसूर नहीं, मैं ही अभागा निकला.
जितने कमेंट्स की कमी रह गई थी, उतने ही लेने के लिए मैंने ये फुटनोट लिखा है. वैसे अगर कमेंट नहीं मिले तो मैं फिर ब्लॉग-गीरी 'छोड़ते' हुए एक पोस्ट लिख डालूँगा. फिर देखता हूँ, कमेंट्स कैसे नहीं मिलते.
Sunday, November 11, 2007
हर रंग कुछ कहता है
आज सुबह एक टीवी चैनल पर एक रिपोर्ट देखी. कानपुर के ग्रीन पार्क स्टेडियम में सब कुछ नीला हो गया है. विपक्षी दल आरोप लगा रहे हैं कि मुख्यमंत्री ने स्टेडियम में नीले रंग का प्रयोग कर के अपनी पार्टी का प्रचार करना शुरू कर दिया है. अब चूंकि उनकी पार्टी का रंग नीला है तो ऐसे आरोप स्वाभाविक हैं. मैंने सोचा नीले रंग में स्टेडियम को रंगने के पीछे क्या कारण हो सकता है.
बहुत सोचने के बाद मुझे लगा शायद कुछ ऐसा हुआ हो:-
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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कार्यालय में सचिवों की भीड़ लगी हुई थी. निजी सचिव, खेल मंत्रालय के सचिव, अम्बेडकर मामलों की मंत्रालय के सचिव, मुख्य सचिव, जरूरी सचिव, गैर-जरूरी सचिव, सब मौजूद हैं. मुख्यमंत्री ने मीटिंग बुलाई थी.
जरूरी हथजोड़ और आशीर्वाद कार्यक्रम के बाद मुख्यमंत्री ने मीटिंग शुरू करते हुए कहा; "रंगीन कंपनी का प्रचार देखा है आप लोगों ने?"
सबके चेहरे पर आश्चर्य के भाव थे. 'रंगीन कंपनी' से मुख्यमंत्री का आशय समझ नहीं पाये, लेकिन हिम्मत नहीं हुई कि मुख्यमंत्री से कुछ कहें. मुख्यमंत्री ने इन डरे हुए सचिवों की हालत का अंदाजा लगा लिया. मुस्कुराते हुए कहा; "लगता है आपलोगों को समझ में नहीं आया. कोई बात नहीं है. सचिवों को नेताओं की भाषा अक्सर समझ में नहीं आती."
निजी सचिव ने बड़ी हिम्मत करके कहा; "नहीं, ऐसी बात नहीं है मैडम. हमें अब आपकी भाषा थोडी-थोडी समझ में आने लगी है. थोड़े दिन और लगेंगे पारंगत होने में. क्षमा कीजिये, लेकिन कौन से प्रचार की बात कर रही हैं आप?"
"अरे वही प्रचार, जिसमें कहा गया है कि "हर रंग कुछ कहता है"; मुख्यमंत्री ने समझाते हुए कहा।
"अच्छा, आप रंग बनाने वाली कंपनी के प्रचार की बात कर रही हैं. हाँ हाँ मैडम, हमने देखा है वो प्रचार"; निजी सचिव ने बताया.
"आप सब केवल देखते हैं या कभी सोचते भी हैं? कभी सोचा है कि अगर हर रंग कुछ कहता है तो ग्रीन मतलब हरा रंग भी कुछ कहता होगा. केवल देखने से काम नहीं चलता."; मुख्यमंत्री ने थोड़ा नाराज होते हुए कहा.
सभी सचिवों की बोलती बंद. बेचारे तुरंत 'सोचनीय' मुद्रा में आ गए. अभी सोच ही रहे थे कि मुख्यमंत्री को क्या जवाब दें कि मुख्यमंत्री ने पूछा; "वैसे आपको क्या लगता है, हरा रंग क्या कहता होगा?"
निजी सचिव ने सकुचाते हुए कहा; "मैडम आपके सामने कैसे कहूं, लेकिन मेरी समझ बताती है कि हरा रंग कुछ ठीक नहीं कहता. जब भी देखते हैं, हमें तो लगता है जैसे ये रंग समाजवादी पार्टी के बारे में कुछ कहता है."
अब तक लगभग सभी सचिवों को मुख्यमंत्री की बात समझ में आने लगी थी. खेल मंत्रालय के सचिव ने भी निजी सचिव का समर्थन करते हुए कहा; "सर ठीक कह रहे हैं मैडम. हमें भी ये हरा रंग उसी पार्टी की याद दिलाता है. वैसे, अचानक हरे रंग की याद कैसे आ गई आपको?"
मुख्यमंत्री ने बताया; "आएगी कैसे नहीं. अभी हाल ही में कानपुर के ग्रीन पार्क स्टेडियम की मरम्मत के लिए हमने पैसा दिया है. पहले मेरे दिमाग में नहीं आई बात, लेकिन बाद में लगा कि ग्रीन के बारे में मुझे सोचना चाहिए था."
निजी सचिव ने मुख्यमंत्री की बात का समर्थन करते हुए कहा; "आप ठीक कह रही हैं मैडम. लेकिन अभी भी देर नहीं हुई है, सोचना है तो अभी भी सोच सकते हैं."
"अच्छा, तो सोच कर बताईये कि क्या किया जा सकता है. अब पैसा तो हमने दे दिया है. उसे वापस तो ले नहीं सकते लेकिन ऐसा कुछ तो जरूर कर सकते हैं कि ग्रीन के ऊपर कोई और रंग आ जाए. मेरा मतलब रंग जमाने का कोई आईडिया निकालिए"; मुख्यमंत्री ने सोचते हुए कहा.
एक सचिव को ब्रेन-वेव आ गई. उसने कहा; "मैडम क्यों न इस ग्रीन की समस्या को ब्लू से सुलझाया जाय. आप इजाज़त दें तो मैं एक आईडिया देता हूँ."
"हाँ-हाँ बताईये, क्या कहना चाहते हैं आप?"; मुख्यमंत्री का चेहरा चमक उठा. उन्हें इस अफसर से कुछ अच्छा सुनने की उम्मीद जाग गई.
"मैं कह रहा था मैडम, स्टेडियम को नीले रंग से भर दें. नीले रंग का पैवेलियन, नीले रंग की कुर्सियाँ, नीले रंग का...मतलब मैडम सब कुछ नीला ही नीला"; अफसर ने अपना आईडिया बताया.
"नहीं नहीं. इसमें तो पूरी राजनीति दिखाई देगी वो भी सरे-आम. हमने पहले ही आधे लखनऊ को नीले रंग में रंग दिया है. अब नीला रंग लखनऊ से कानपुर पहुँच गया तो लोग सवाल उठाएंगे. हमारा हाथी ही नीला रहने दीजिये"; मुख्यमंत्री ने अपनी शंका जताते हुए कहा.
"देखिये मैडम, हाथियों का क्या भरोसा. आज जो हाथी नीले हैं, कल 'सफ़ेद' भी तो हो सकते हैं. आपने तो पहले भी देखा है अपने हाथियों को सफ़ेद होते हुए. जब तक हम सब कुछ नीला कर सकें, तब तक जारी रखें. मीडिया और विपक्षी पार्टियों की खिलाफत का तरीका निकल ही आएगा. आप निश्चिंत रहे"; निजी सचिव ने समझाया.
तब तक एक और सचिव की बुद्धि का ज्वालामुखी फूट पड़ा. उसने बताया; "मैडम, आप निश्चिंत होकर पूरे स्टेडियम को नीले रंग में रंगवा दें. हमें केवल ये प्रचार करना है कि ये नीला रंग टीम इंडिया की हौसला आफजाई के लिए है. हम ये भी जोड़ देंगे कि हमने 'चक दे इंडिया' के थीम पर स्टेडियम को नीला कर डाला है."
मुख्यमंत्री ने इस अफसर की जमकर प्रशंसा की. उसे प्रमोशन का वादा भी किया है. सुना है रविवार को दस मिनट के लिए वे क्रिकेट देखने कानपुर जा रही हैं.
वैसे हम उन्हें नहीं बल्कि फुरसतिया शुकुल जी को स्टेडियम में देखने की कोशिश करेंगे.
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(चित्र ग्रीन पार्क स्टेडियम, कानपुर का। जब वैसे ही नीलाभ दीखता है तो नाम भी ब्ल्यू पार्क स्टेडियम रखने में क्या हर्ज है?)
Friday, November 9, 2007
नंदीग्राम - आज का सियाचीन
अस्सी के दशक में एक जगह के बारे में बहुत सुनते थे. नाम था सियाचीन. आए दिन वहाँ कब्जा करने का साप्ताहिक कार्यक्रम चलता रहता था. कभी भारत का कब्जा तो कभी पाकिस्तान का. ये 'कब्जात्मक' कार्यवाई सालों चली. उन दिनों भूगोल के प्रश्नपत्र में सियाचीन को लेकर प्रश्न नहीं पूछा जाता था. छात्रों की हालत ख़राब हो जाती. शायद भारत और पाकिस्तान के शिक्षा मंत्रियों ने आपस में समझौता कर लिया था कि; 'स्कूल की परीक्षाओं में सियाचीन को लेकर सवाल नहीं पूछे जायेंगे.'
कुछ दिनों के बाद सियाचीन पर कब्जे की समस्या जाती रही. बाद में ये समस्या शहरों में लोगों के मकान पर गुंडों और किरायेदारों द्वारा किए गए कब्जे तक सीमित रही. अखबार और टीवी चैनल पर ऐसी समस्याएं न पाकर लोग बोर होने लगे. 'कब्जात्मक' कार्यक्रम में आया सूखा अब जाकर ख़त्म हुआ है. हमारे राज्य में एक जगह है नंदीग्राम. आज का सियाचीन. अन्तर केवल इतना है कि सियाचीन में कब्जे का फेर-बदल दो देशों के बीच होता था लेकिन यहाँ दो दलों के बीच.
हम तो यह सोचते थे की नंदीग्राम नामक जगह हमारे देश में ही है. इसलिए यहाँ भी देश का कानून और संविधान चलेगा. लेकिन यह क्या? पश्चिम बंगाल सरकार पिछले कई महीनों से बता रही है कि वहाँ सरकार का राज नहीं रहा. पुलिस वहाँ जा नहीं सकती. सी पी एम को समर्थन देने वालों को वहाँ से बाहर कर दिया गया है. बेचारे अपना घर-बार छोड़कर स्कूल में रह रहे हैं. स्कूल बंद हैं. बच्चे महीनों से स्कूल नहीं गए. कभी किसी ने नहीं सोचा होगा कि हमारे ही देश में एक ऐसी जगह होगी जहाँ देश का क़ानून नहीं चलेगा. आए दिन यहाँ कब्जा बदलता रहता है. कभी सीपीएम वाले कब्जा कर लेते हैं कभी उनके विरोधी. गोलियों का आदान-प्रदान महीनों से जारी है.
स्थानीय स्तर पर अपने कैडरों को क़ानून अपने हाथ में लेने की छूट देने वाली सीपीएम पार्टी ने शायद ही सोचा हो कि बात-बात पर कानून को हाथ में लेने वाले ये कैडर इतने आगे निकल जायेंगे कि कानून इनका कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा. ऐसा पहली बार हुआ है कि इन महारथियों को टक्कर देने वाले और भी लोग खड़े हो गए हैं. ऐसा भी हो सकता है कि जो लोग इनके विरोध में खड़े हुए हैं, वे लोग भी कुछ महीने पहले शायद सी पी एम् पार्टी के कार्यकर्ता थे. कितने लोग मारे जा चुके हैं, किसी को नहीं पता. पता भी कैसे चले जब वहाँ प्रशासन का तंत्र जा ही नहीं सकता.
हमारे राज्य में एक नेता पाई जाती हैं. नाम है ममता बनर्जी. ममता जी जब कलकत्ते में रहते-रहते बोर होने लगती हैं तो पिकनिक मनाने नंदीग्राम चली जाती हैं. इनके आने-जाने में कई लोगों की जान खर्च हो जाती है. वहाँ भूमि के अधिग्रहण की खिलाफत करने वाली एक संस्था है. ममता जी इस संस्था को समर्थन देती हैं. सरकार का कहना है कि; 'जब हमने जमीन न लेने का एलान कर दिया है तो फिर ऐसी किसी संस्था की जरूरत नहीं है. भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय ने भी कह दिया है कि नंदीग्राम में किसानों की जमीन नहीं ली जायेगी.'
सरकार चाहती है कि उनका यह लॉजिक ममता बनर्जी समझ जाएँ. लेकिन दूसरों की लॉजिक न समझने वाली सी पी एम पार्टी को कौन समझाये कि 'जैसे आप अपने 'तर्कों' से दूसरों की बातें नहीं समझते, ठीक वैसे ही ममता बनर्जी भी नहीं समझेंगी.' इन लोगों को अब समझ में आ रहा होगा कि 'अगर सामने वाला लॉजिक समझने के लिए तैयार न हो, तो कोई उसे समझाया नहीं सकता.' कुछ दिनों पहले राज्य के मुख्यमंत्री को थोडा जोश आया तो उन्होने केन्द्र सरकार से सुरक्षा बलों की माँग कर डाली. अब कह रहे हैं कि केन्द्रीय सुरक्षा बलों को नंदीग्राम में घुसने की इजाज़त नहीं दी जा सकती. शायद नवम्बर महीने का असर है. सुना था इसी महीने में 'क्रांति' हुई थी. लगता है राज्य सरकार सोच रही है कि नंदीग्राम में भी कोई क्रांति हो जाये और स्थिति सुधर जाये.
बड़ी अजीब स्थिति है. सालों से लोग गुजरात और मोदी के पीछे पड़े हैं. कहते हैं मोदी ने राजधर्म का पालन नहीं किया. लेकिन नंदीग्राम के बारे में राजधर्म का पालन करने के लिए कहने वाला कोई नहीं है.
नीरो पश्चिमी देश के सम्राट थे. जाहिर है कि उनकी तुलना केवल पश्चिमी प्रदेश के किसी 'शासक' के साथ होनी है. हमें तो केवल ये देखना है कि नीरो का नाम दूरी तय कर के पूरब तक पंहुचता है कि नहीं.