यह निबंध नहीं बल्कि कलकत्ते में रहने वाले एक युवा, बापी दास का पत्र है जो उसने इंग्लैंड में रहने वाली अपने एक नेट-फ्रेंड को लिखा था. इंटरनेट सिक्यूरिटी में हुई गफलत के कारण यह पत्र लीक हो गया. ठीक वैसे ही जैसे सत्ता में बैठी पार्टी किसी विरोधी नेता का पत्र लीक करवा देती है. आप पत्र पढ़ सकते हैं क्योंकि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे 'प्राइवेट' समझा जा सके.
दिसम्बर २००७ में लिखा था. फिर से पब्लिश कर दे रहा हूँ. जिन्होंने नहीं पढ़ा होगा वे पढ़ लेंगे:-)
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प्रिय मित्र नेटाली,
पहले तो मैं बता दूँ कि तुम्हारा नाम नेटाली, हमारे कलकत्ते में पाये जाने वाले कई नामों जैसे शेफाली, मिताली और चैताली से मिलता जुलता है. मुझे पूरा विश्वास है कि अगर नाम मिल सकता है तो फिर देखने-सुनने में तुम भी हमारे शहर में पाई जाने वाली अन्य लड़कियों की तरह ही होगी.
तुमने अपने देश में मनाये जानेवाले त्यौहार क्रिसमस और उसके साथ नए साल के जश्न के बारे में लिखते हुए ये जानना चाहा था कि हम अपने शहर में क्रिसमस और नया साल कैसे मनाते हैं. सो ध्यान देकर सुनो. सॉरी, पढो.
तुमलोगों की तरह हम भी क्रिसमस बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं. थोडा अन्तर जरूर है. जैसा कि तुमने लिखा था, क्रिसमस तुम्हारे शहर में धूम-धाम के साथ मनाया जाता है, लेकिन हम हमारे शहर में घूम-घाम के साथ मनाते हैं. मेरे जैसे नौजवान छोकरे बाईक पर घूमने निकलते हैं और सड़क पर चलने वाली लड़कियों को छेड़ कर क्रिसमस मनाते हैं. हमारा मानना है कि हमारे शहर में अगर लड़कियों से छेड़-छाड़ न की जाय, तो यीशु नाराज हो जाते हैं. हम छोकरे अपने माँ-बाप को नाराज कर सकते हैं, लेकिन यीशु को कभी नाराज नहीं करते.
क्रिसमस का महत्व केक के चलते बहुत बढ़ जाता है. हमें इस बात पर पूरा विश्वास है कि केक नहीं तो क्रिसमस नहीं. यही कारण है कि हमारे शहर में क्रिसमस के दस दिन पहले से ही केक की दुकानों की संख्या बढ़ जाती है. ठीक वैसे ही जैसे बरसात के मौसम में नदियों का पानी खतरे के निशान से ऊपर चला जाता है.
क्रिसमस के दिनों में हम केवल केक खाते हैं. बाकी कुछ खाना पाप माना जाता है. शहर की दुकानों पर केक खरीदने के लिए जो लाइन लगती है उसे देखकर हमें विश्वास हो जाता है दिसम्बर के महीने में केक के धंधे से बढ़िया धंधा और कुछ भी नहीं. मैंने ख़ुद प्लान किया है कि आगे चलकर मैं केक का धंधा करूंगा. साल के ग्यारह महीने मस्टर्ड केक का और एक महीने क्रिसमस के केक का.
केक के अलावा एक चीज और है जिसके बिना हम क्रिसमस नहीं मनाते. वो है शराब. हमारी मित्र मंडली (फ्रेंड सर्कल) में अगर कोई शराब नहीं पीता तो हम उसे क्रिसमस मनाने लायक नहीं समझते. वैसे तो मैं ख़ुद क्रिश्चियन नहीं हूँ, लेकिन मुझे इस बात की समझ है कि क्रिसमस केवल केक खाकर नहीं मनाया जा सकता. उसके लिए शराब पीना भी अति आवश्यक है.
मैंने सुना है कि कुछ लोग क्रिसमस के दिन चर्च भी जाते हैं और यीशु से प्रार्थना वगैरह भी करते हैं. तुम्हें बता दूँ कि मेरी और मेरे दोस्तों की दिलचस्पी इन फालतू बातों में कभी नहीं रही. इससे समय ख़राब होता है.
अब आ जाते हैं नए साल को मनाने की गतिविधियों पर. यहाँ एक बात बता दूँ कि जैसे तुम्हारे देश में नया साल एक जनवरी से शुरू होता है वैसे ही हमारे देश में भी नया साल एक जनवरी से ही शुरू होता है. ग्लोबलाईजेशन का यही तो फायदा है कि सब जगह सब कुछ एक जैसा रहे.
नए साल की पूर्व संध्या पर हम अपने दोस्तों के साथ शहर की सबसे बिजी सड़क पार्क स्ट्रीट चले जाते हैं. है न पूरा अंग्रेजी नाम, पार्क स्ट्रीट? मुझे विश्वास है कि ये अंग्रेजी नाम सुनकर तुम्हें बहुत खुशी होगी. हाँ, तो हम शाम से ही वहाँ चले जाते हैं और भीड़ में घुसकर लड़कियों के साथ छेड़-खानी करते हैं.
हमारा मानना है कि नए साल को मनाने का इससे अच्छा तरीका और कुछ नहीं होगा. सबसे मजे की बात ये है कि मेरे जैसे यंग लड़के तो वहां जाते ही हैं, ४५-५० साल के अंकल टाइप लोग, जो जींस की जैकेट पहनकर यंग दिखने की कोशिश करते हैं, वे भी जाते हैं. भीड़ में अगर कोई उन्हें यंग नहीं समझता तो ये लोग बच्चों के जैसी अजीब-अजीब हरकतें करते हैं जिससे लोग उन्हें यंग समझें.
तीन-चार साल पहले तक पार्क स्ट्रीट पर लड़कियों को छेड़ने का कार्यक्रम आराम से चल जाता था. लेकिन पिछले कुछ सालों से पुलिस वालों ने हमारे इस कार्यक्रम में रुकावटें डालनी शुरू कर दी हैं. पहले ऐसा ऐसा नहीं होता था. हुआ यूँ कि दो साल पहले यहाँ के चीफ मिनिस्टर की बेटी को मेरे जैसे किसी यंग लडके ने छेड़ दिया. बस, फिर क्या था. उसी साल से पुलिस वहाँ भीड़ में सादे ड्रेस में रहती है और छेड़-खानी करने वालों को अरेस्ट कर लेती है.
मुझे तो उस यंग लडके पर बड़ा गुस्सा आता है जिसने चीफ मिनिस्टर की बेटी को छेड़ा था. उस बेवकूफ को वही एक लड़की मिली छेड़ने के लिए. पिछले साल तो मैं भी छेड़-खानी के चलते पिटते-पिटते बचा था.
नए साल पर हम लोग कोई काम-धंधा नहीं करते. वैसे तो पूरे साल कोई काम नहीं करते, लेकिन नए साल में कुछ भी नहीं करते. हम अपने दोस्तों के साथ ट्रक में बैठकर पिकनिक मनाने जरूर जाते हैं. वैसे मैं तुम्हें बता दूँ कि पिकनिक मनाने में मेरी कोई बहुत दिलचस्पी नहीं रहती. लेकिन चूंकि वहाँ जाने से शराब पीने में सुभीता रहता है सो हम खुशी-खुशी चले जाते हैं. एक ही प्रॉब्लम होती है. पिकनिक मनाकर लौटते समय एक्सीडेंट बहुत होते हैं क्योंकि गाड़ी चलाने वाला ड्राईवर भी नशे में रहता है.
नेटाली, क्रिसमस और नए साल को हम ऐसे ही मनाते हैं. तुम्हें और किसी चीज के बारे में जानकारी चाहिए, तो जरूर लिखना. मैं तुम्हें पत्र लिखकर पूरी जानकारी दूँगा. अगली बार अपना एक फोटो जरूर भेजना.
तुम्हारा,
बापी
पुनश्च: अगर हो सके तो अपने पत्र में मुझे यीशु के बारे में बताना. मुझे यीशु के बारे में जानने की बड़ी इच्छा है, जैसे, ये कौन थे?, क्या करते थे? ये क्रिसमस कैसे मनाते थे?
शिवकुमार मिश्र और ज्ञानदत्त पाण्डेय, ब्लॉग-गीरी पर उतर आए हैं| विभिन्न विषयों पर बेलाग और प्रसन्नमन लिखेंगे| उन्होंने निश्चय किया है कि हल्का लिखकर हलके हो लेंगे| लेकिन कभी-कभी गम्भीर भी लिख दें तो बुरा न मनियेगा|
||Shivkumar Mishra Aur Gyandutt Pandey Kaa Blog||
Friday, December 30, 2011
Saturday, December 24, 2011
लोकपाल कोई भी बने, उसका उदघाटोन का लिए हामको जोरूर बुलाये
पहले बातें हुई कि लोकपाल आना चाहिए. हील-हुज्ज़त के बाद यह बात शुरू हुई कि लोकपाल आ रहा है. एक बार लगा भी कि अब आ ही जाएगा लेकिन फिर लगा कि शायद आने में देरी है. महत्वपूर्ण लोगों को आने में देरी होती ही है और आज की तारीख में लोकपाल से महत्वपूर्ण कौन है? फिर इस मुद्दे पर बहस शुरू हो गई कि जो लोकपाल आएगा वह कमज़ोर हो कि मज़बूत? जबतक कुछ लोग़ कमज़ोर लोकपाल चाहते थे तबतक उसके आने की उम्मीद बनी हुई थी. समस्या तब से शुरू हुई जबसे इस मुद्दे से जुड़े सभी पक्ष मज़बूत लोकपाल लाना चाहते हैं.
अब लगता है कि लोकपाल आज के ज़माने की मूंगफली बनकर रह गया है. यानि टाइम-पास.
खैर, अब तक लगभग सभी जगह बहस हो चुकी है. रतीराम जी की पान-दुकान, बस, लोकल ट्रेन, फेसबुक, ट्विटर, गूगल-प्लस, से लेकर सर्वोपरि पार्लियामेंट तक में बहस हो चुकी है. कल किसी पाठक ने याद दिलाया कि मेरे ब्लॉग पर लोकपाल जैसे महतवपूर्ण मुद्दे पर बहस नहीं हुई है. वे मुझे धिक्कारते हुए बोले; "अगर इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहस नहीं करवा सकते तो ब्लागिंग में काहे झक मार रहे हैं."
आप में से जो ब्लॉगर हैं, उन्हें पता होगा कि एक ब्लॉगर का ईगो कितना बड़ा होता है. उधर हमारा ईगो हर्ट हुआ और इधर मैंने चंदू को भेज दिया लोकपाल के मुद्दे पर तमाम लोगों के बयान लेने. आप पढ़िए कि लोगों ने क्या कहा?
हरभजन सिंह : "आई वांट लोकपाल टू मेक इट लार्ज. मैं तो जी मानता हूँ कि लोकपाल बने और बड़ा बने. छोटे लोकपाल से क्या फायदा? मैं तो यह चाहूँगा कि जो भी लोकपाल हो, ही शुड स्ट्राइक ऐट रूट ऑफ करप्शन. कहने का मतलब ये कि स्ट्राकिंग लोकपाल हो. बिलकुल मेरी तरह जैसे मैं इंडियन टीम का स्ट्राकिंग बॉलर हूँ."
कपिल सिबल : "(मुस्कुराते हुए) लोकपाल लाने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. लोकपाल के बारे में डिस्कशन हमें जीरो से शुरू करना चाहिए. आप जानते ही होंगे कि कोई बात जब जीरो से शुरू होती है तो बड़ा फायदा होता है. सोनिया जी भी चाहती हैं कि एक मज़बूत लोकपाल आये. बहस के बाद जब भी लोकपाल बिल संसद में पास हो जाए तो मैं चाहूँगा कि सरकार के पास ये अधिकार रहे कि जो भी लोकपाल बने उसके बोलने या कुछ करने से पहले उसके दिमाग की स्कैनिंग कर सके. एकबार स्कैनिंग हो जाए तो फिर हम उन्ही बातों को उनसे बोलने के लिए कहेंगे जो हम चाहते हैं. मैं आई टी मिनिस्टर भी हूँ और मैंने कई टेक कंपनियों के रीप्रजेंटेटिव की एक मीटिंग की है. मैंने उनसे कहा है कि वे सजेस्ट करें कि लोकपाल की सोच और उनके काम की प्री-स्क्रीनिंग कैसे की जाए? अगर ये कम्पनियाँ हमारे साथ को-ऑपरेट नहीं करतीं तो फिर हम कोर्ट जायेंगे. "
प्रनब मुखर्जी : "ऐज आभार पार्टी हैज सेड आर्लियर आल्सो, उइ आल उवांट ए स्ट्रांग लोकपाल.. बाट ऐज इयु नो, डियु टू रेसेसोन ईन एयुरोप, ईट हैज रियाली बीकोम डिफिकोल्ट टू शासटेन ऐंड ब्रींग लोकपाल ऐज पार पीपुल्स च्वायस. बाट उइ स्टील बिलीभ दैट साम डे, स्पेसोली हुएन इन्फलेशोंन ईज कोंट्रोल्ड, उइ उविल बी एभुल टू ब्रींग ए स्ट्रांग लोकपाल."
लालू जी : "आ पहले बात सुनो आगे ही भकर-भकर मत बोलो. सूनो.. आ ई आना जो हैं देश के खिलाफ साजिश कर रहे हैं. आई भिल टेल नेशन... ई लोग़ सब सड़क पर बैठ के बिल बनना चाहता है लोग़. संसद जो है, ऊ सर्वोपरि है. ई सब आर एस एस वाला जो है सब आना के भड़काता है लोग़. हमलोग ऐज अ रिस्पेक्टेड लीडर का करप्शन नहीं मिटाना चाहते? आ फिर, का ज़रुरत है स्ट्रोंग लोकपाल का? हमको बताओ. लोकपाल जो है सो उ दूध का माफिक रहना चाहिए. जहाँ ढाल दिए, उहाँ ढल गया. तब न जाके अपना काम कर पायेगा. असली लोकपाल जो है सो दलित के बारे में सोचेगा..भीकर सेक्शन आफ सोसाइटी के बारे में सोचेगा...हमारे मुस्लिम भाइयों के बारे में सोचेगा...सीख भाइयों के बारे में सोचेगा..आ सुनो, हीन्दू, मुस्लिम, सीख, ईसाई, आ, आपस में हैं सब भाई-भाई.."
मुलायम जी : "देखिये सुइए..क्या है ये लोकपा? ये जो है वो एक तईका है... दओगा-आज लाने का तईका है ये. ओकपाल आ जाने से, अच्छे ओग आजनीति में आना बंद क देंगे. अखियेश ने हमें बताया है. सवोच्च-न्यालय को भी ये ओग चाहते हैं कि न्यालय भी लोकपा के अधीन ओ जाए..ऐसा संभव नहीं है..बात मानिए हमाई..ये ओकपाल का आना लोकतंत्र के इए खतरा है. सका को चाहिए कि ऐसा कदम न उहाये. वियोध कयेंगे हम सका के इस कदम का."
सुब्रमनियम स्वामी : "मेरे पास सुबूत हैं कि लोकपाल के मुद्दे पर चिदंबरम और सिबल के बीच कुल पाँच मीटिंग्स हुई थी और दोनों ने डिसाइड किया था कि फर्स्ट कम फर्स्ट सर्व बेसिस पर लोकपाल का अप्वाइंटमेंट होगा. चिदंबरम भले ही कहें कि ऐसी कोई मीटिंग नहीं हुई लेकिम मेरे पास इसका सुबूत है. मिनट्स ऑफ मीटिंग्स भी हैं. मैं जल्द ही ट्वीट करके बताऊंगा कि मैं आगे क्या करने वाला हूँ. जहाँ तक यह बात है कि लोकपाल कैसा रहे तो मेरे विचार से हमें एक विराट लोकपाल के गठन की कोशिश करनी चाहिए. इसी से करप्शन को दूर किया जा सकेगा."
प्रधानमंत्री जी : "
."
अरनब गोस्वामी : "दिस चैनल इज गोइंग तो आस्क सम टफ क्वेश्चंस टूनाईट एंड वी विल मेक इट स्योर दैट द इश्यू ऑफ लोकपाल इज नॉट पोलिटिसाइज्ड. वी अस्योर आर व्यूअर्स दैट वी आर ऑन ओउर हाइ-वे टू सीक द ट्रुथ एंड....
विनोद दुआ : "सभी यह चाहते हैं कि लोकपाल आये और एक मज़बूत लोकपाल आये परन्तु प्रश्न यह है कि लोकपाल के आने के बाद क्या नरेन्द्र मोदी को अपने किये पर शर्म आएगी? क्या वे राष्ट्र से माफी मांगेंगे? हजारों लोगों की हत्या की जिम्मेदारी जिनके ऊपर है उन्हें क्या लोकपाल सज़ा दिला पायेगा? अगर लोकपाल के आने के बाद भी नरेन्द्र मोदी को सज़ा नहीं मिलेगी तो फिर मुझे समझ नहीं आता कि ऐसा लोकपाल किस तरह भारत के हित में है. आप इसपर विचार करें तब तक हम सुनते हैं मुकेश का गाया गीत. फिल्म का नाम है पहली नज़र. गाने के बोल हैं; "दिल जलता है तो जलने दो..." गीतकार हैं आह सीतापुरी और संगीत अनिल विश्वास का है..."
शाहरुख़ खान, उर्फ़ डान -२ : "लोकपाल का आना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. हे हे हे हे हे.."
किरण बेदी : "ये देश के साथ अन्याय है. जिस तरह से सरकार ने लोकपाल के मुद्दे पर पूरे देश के साथ धोखा किया है हम उसे जनता के बीच लेकर जायेंगे. अभी तक तो हम ये मांग करते रहे हैं कि लोकपाल मज़बूत होना चाहिए लेकिन अब हम उनमें एक और मांग जोड़ देंगे कि लोकपाल ऐसा होना चाहिए जो अन्ना की तरह ही अनशन कर सके. हम तब तक नहीं बैठेंगे जबतक..."
रजत भंडारी, आई ए एस, चीफ सेक्रेटरी, सेंट्रल पब्लिक प्रोक्योरमेंट कमिटी : "मैं तो चाहूँगा कि देश को सही लोकपाल मिले उसके लिए हमें इसी वित्तवर्ष के मार्च महीने में लोकपाल सप्लाई का एक ग्लोबल टेंडर फ्लोट करना चाहिए. ऐसा करने से देश को मजबूत, कम्पीटेटिव और सस्ता लोकपाल मिलेगा...."
माननीय अमर सिंह जी : "कोई ज़रूरी नहीं कि देश में भ्रष्टाचार का खात्मा लोकपाल ही कर सकता है. मैं खुद भ्रष्टाचार ख़त्म कर सकता हूँ. अगर माननीय प्रधानमंत्री और सोनिया जी कहें तो मैं इस दिशा में काम करने के लिए तैयार हूँ. लोकतंत्र में मतभेद के लिए स्थान है. दरअसल मैंने सिंगापुर जाकर इलाज कराने के बहाने जो जमानत ली, वह भ्रष्टाचार मिटाने के लिए ही ली. ताकि मैं स्टैडिंग कमिटी की मीटिंग में हिसा ले सकूँ और देश से भ्रष्टाचार मिटा सकूँ. ये अलग बात है कि मैं पूरी तरह से स्वस्थ हूँ और घूम-फिर कर रैली भी कर रहा हूँ लेकिन बेसिक बात यही है कि मैं भ्रष्टाचार मिटाने में सक्षम हूँ."
एस एम कृष्णा : "पुर्तगाल की जनता एक सशक्त लोकपाल चाहती है और हमारी सरकार उन्हें एक सशक्त लोकपाल देने के लिए प्रतिबद्ध है."
ममता बनर्जी : "ये देश में जो कारप्शोंन है सोब लेफ्ट-फ्रोन्ट का बाजाह से हुआ है. किन्तु आब सोरकार सोतर्क हो गया है. अब लेफ्ट बेंगोल में भी नहीं रहा. सो, हाम तो एही कहेगा कि भ्रोष्टचार आब खोतोम होगा. किन्तु हाम इसका बास्ते एफ डी आई नहीं आने देगा... हाम तो प्रोधानमोंत्री से कहूँगी कि लोकपाल कोई भी बने, उसका उदघाटोन का लिए हामको जोरूर बुलाये. "
और लोगों की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा है. आने पर लगा दी जायेंगी. तब तक इतना बांचकर एक नई बहस छेड़ी जाय:-)
अब लगता है कि लोकपाल आज के ज़माने की मूंगफली बनकर रह गया है. यानि टाइम-पास.
खैर, अब तक लगभग सभी जगह बहस हो चुकी है. रतीराम जी की पान-दुकान, बस, लोकल ट्रेन, फेसबुक, ट्विटर, गूगल-प्लस, से लेकर सर्वोपरि पार्लियामेंट तक में बहस हो चुकी है. कल किसी पाठक ने याद दिलाया कि मेरे ब्लॉग पर लोकपाल जैसे महतवपूर्ण मुद्दे पर बहस नहीं हुई है. वे मुझे धिक्कारते हुए बोले; "अगर इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहस नहीं करवा सकते तो ब्लागिंग में काहे झक मार रहे हैं."
आप में से जो ब्लॉगर हैं, उन्हें पता होगा कि एक ब्लॉगर का ईगो कितना बड़ा होता है. उधर हमारा ईगो हर्ट हुआ और इधर मैंने चंदू को भेज दिया लोकपाल के मुद्दे पर तमाम लोगों के बयान लेने. आप पढ़िए कि लोगों ने क्या कहा?
हरभजन सिंह : "आई वांट लोकपाल टू मेक इट लार्ज. मैं तो जी मानता हूँ कि लोकपाल बने और बड़ा बने. छोटे लोकपाल से क्या फायदा? मैं तो यह चाहूँगा कि जो भी लोकपाल हो, ही शुड स्ट्राइक ऐट रूट ऑफ करप्शन. कहने का मतलब ये कि स्ट्राकिंग लोकपाल हो. बिलकुल मेरी तरह जैसे मैं इंडियन टीम का स्ट्राकिंग बॉलर हूँ."
कपिल सिबल : "(मुस्कुराते हुए) लोकपाल लाने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. लोकपाल के बारे में डिस्कशन हमें जीरो से शुरू करना चाहिए. आप जानते ही होंगे कि कोई बात जब जीरो से शुरू होती है तो बड़ा फायदा होता है. सोनिया जी भी चाहती हैं कि एक मज़बूत लोकपाल आये. बहस के बाद जब भी लोकपाल बिल संसद में पास हो जाए तो मैं चाहूँगा कि सरकार के पास ये अधिकार रहे कि जो भी लोकपाल बने उसके बोलने या कुछ करने से पहले उसके दिमाग की स्कैनिंग कर सके. एकबार स्कैनिंग हो जाए तो फिर हम उन्ही बातों को उनसे बोलने के लिए कहेंगे जो हम चाहते हैं. मैं आई टी मिनिस्टर भी हूँ और मैंने कई टेक कंपनियों के रीप्रजेंटेटिव की एक मीटिंग की है. मैंने उनसे कहा है कि वे सजेस्ट करें कि लोकपाल की सोच और उनके काम की प्री-स्क्रीनिंग कैसे की जाए? अगर ये कम्पनियाँ हमारे साथ को-ऑपरेट नहीं करतीं तो फिर हम कोर्ट जायेंगे. "
प्रनब मुखर्जी : "ऐज आभार पार्टी हैज सेड आर्लियर आल्सो, उइ आल उवांट ए स्ट्रांग लोकपाल.. बाट ऐज इयु नो, डियु टू रेसेसोन ईन एयुरोप, ईट हैज रियाली बीकोम डिफिकोल्ट टू शासटेन ऐंड ब्रींग लोकपाल ऐज पार पीपुल्स च्वायस. बाट उइ स्टील बिलीभ दैट साम डे, स्पेसोली हुएन इन्फलेशोंन ईज कोंट्रोल्ड, उइ उविल बी एभुल टू ब्रींग ए स्ट्रांग लोकपाल."
लालू जी : "आ पहले बात सुनो आगे ही भकर-भकर मत बोलो. सूनो.. आ ई आना जो हैं देश के खिलाफ साजिश कर रहे हैं. आई भिल टेल नेशन... ई लोग़ सब सड़क पर बैठ के बिल बनना चाहता है लोग़. संसद जो है, ऊ सर्वोपरि है. ई सब आर एस एस वाला जो है सब आना के भड़काता है लोग़. हमलोग ऐज अ रिस्पेक्टेड लीडर का करप्शन नहीं मिटाना चाहते? आ फिर, का ज़रुरत है स्ट्रोंग लोकपाल का? हमको बताओ. लोकपाल जो है सो उ दूध का माफिक रहना चाहिए. जहाँ ढाल दिए, उहाँ ढल गया. तब न जाके अपना काम कर पायेगा. असली लोकपाल जो है सो दलित के बारे में सोचेगा..भीकर सेक्शन आफ सोसाइटी के बारे में सोचेगा...हमारे मुस्लिम भाइयों के बारे में सोचेगा...सीख भाइयों के बारे में सोचेगा..आ सुनो, हीन्दू, मुस्लिम, सीख, ईसाई, आ, आपस में हैं सब भाई-भाई.."
मुलायम जी : "देखिये सुइए..क्या है ये लोकपा? ये जो है वो एक तईका है... दओगा-आज लाने का तईका है ये. ओकपाल आ जाने से, अच्छे ओग आजनीति में आना बंद क देंगे. अखियेश ने हमें बताया है. सवोच्च-न्यालय को भी ये ओग चाहते हैं कि न्यालय भी लोकपा के अधीन ओ जाए..ऐसा संभव नहीं है..बात मानिए हमाई..ये ओकपाल का आना लोकतंत्र के इए खतरा है. सका को चाहिए कि ऐसा कदम न उहाये. वियोध कयेंगे हम सका के इस कदम का."
सुब्रमनियम स्वामी : "मेरे पास सुबूत हैं कि लोकपाल के मुद्दे पर चिदंबरम और सिबल के बीच कुल पाँच मीटिंग्स हुई थी और दोनों ने डिसाइड किया था कि फर्स्ट कम फर्स्ट सर्व बेसिस पर लोकपाल का अप्वाइंटमेंट होगा. चिदंबरम भले ही कहें कि ऐसी कोई मीटिंग नहीं हुई लेकिम मेरे पास इसका सुबूत है. मिनट्स ऑफ मीटिंग्स भी हैं. मैं जल्द ही ट्वीट करके बताऊंगा कि मैं आगे क्या करने वाला हूँ. जहाँ तक यह बात है कि लोकपाल कैसा रहे तो मेरे विचार से हमें एक विराट लोकपाल के गठन की कोशिश करनी चाहिए. इसी से करप्शन को दूर किया जा सकेगा."
प्रधानमंत्री जी : "
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अरनब गोस्वामी : "दिस चैनल इज गोइंग तो आस्क सम टफ क्वेश्चंस टूनाईट एंड वी विल मेक इट स्योर दैट द इश्यू ऑफ लोकपाल इज नॉट पोलिटिसाइज्ड. वी अस्योर आर व्यूअर्स दैट वी आर ऑन ओउर हाइ-वे टू सीक द ट्रुथ एंड....
विनोद दुआ : "सभी यह चाहते हैं कि लोकपाल आये और एक मज़बूत लोकपाल आये परन्तु प्रश्न यह है कि लोकपाल के आने के बाद क्या नरेन्द्र मोदी को अपने किये पर शर्म आएगी? क्या वे राष्ट्र से माफी मांगेंगे? हजारों लोगों की हत्या की जिम्मेदारी जिनके ऊपर है उन्हें क्या लोकपाल सज़ा दिला पायेगा? अगर लोकपाल के आने के बाद भी नरेन्द्र मोदी को सज़ा नहीं मिलेगी तो फिर मुझे समझ नहीं आता कि ऐसा लोकपाल किस तरह भारत के हित में है. आप इसपर विचार करें तब तक हम सुनते हैं मुकेश का गाया गीत. फिल्म का नाम है पहली नज़र. गाने के बोल हैं; "दिल जलता है तो जलने दो..." गीतकार हैं आह सीतापुरी और संगीत अनिल विश्वास का है..."
शाहरुख़ खान, उर्फ़ डान -२ : "लोकपाल का आना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. हे हे हे हे हे.."
किरण बेदी : "ये देश के साथ अन्याय है. जिस तरह से सरकार ने लोकपाल के मुद्दे पर पूरे देश के साथ धोखा किया है हम उसे जनता के बीच लेकर जायेंगे. अभी तक तो हम ये मांग करते रहे हैं कि लोकपाल मज़बूत होना चाहिए लेकिन अब हम उनमें एक और मांग जोड़ देंगे कि लोकपाल ऐसा होना चाहिए जो अन्ना की तरह ही अनशन कर सके. हम तब तक नहीं बैठेंगे जबतक..."
रजत भंडारी, आई ए एस, चीफ सेक्रेटरी, सेंट्रल पब्लिक प्रोक्योरमेंट कमिटी : "मैं तो चाहूँगा कि देश को सही लोकपाल मिले उसके लिए हमें इसी वित्तवर्ष के मार्च महीने में लोकपाल सप्लाई का एक ग्लोबल टेंडर फ्लोट करना चाहिए. ऐसा करने से देश को मजबूत, कम्पीटेटिव और सस्ता लोकपाल मिलेगा...."
माननीय अमर सिंह जी : "कोई ज़रूरी नहीं कि देश में भ्रष्टाचार का खात्मा लोकपाल ही कर सकता है. मैं खुद भ्रष्टाचार ख़त्म कर सकता हूँ. अगर माननीय प्रधानमंत्री और सोनिया जी कहें तो मैं इस दिशा में काम करने के लिए तैयार हूँ. लोकतंत्र में मतभेद के लिए स्थान है. दरअसल मैंने सिंगापुर जाकर इलाज कराने के बहाने जो जमानत ली, वह भ्रष्टाचार मिटाने के लिए ही ली. ताकि मैं स्टैडिंग कमिटी की मीटिंग में हिसा ले सकूँ और देश से भ्रष्टाचार मिटा सकूँ. ये अलग बात है कि मैं पूरी तरह से स्वस्थ हूँ और घूम-फिर कर रैली भी कर रहा हूँ लेकिन बेसिक बात यही है कि मैं भ्रष्टाचार मिटाने में सक्षम हूँ."
एस एम कृष्णा : "पुर्तगाल की जनता एक सशक्त लोकपाल चाहती है और हमारी सरकार उन्हें एक सशक्त लोकपाल देने के लिए प्रतिबद्ध है."
ममता बनर्जी : "ये देश में जो कारप्शोंन है सोब लेफ्ट-फ्रोन्ट का बाजाह से हुआ है. किन्तु आब सोरकार सोतर्क हो गया है. अब लेफ्ट बेंगोल में भी नहीं रहा. सो, हाम तो एही कहेगा कि भ्रोष्टचार आब खोतोम होगा. किन्तु हाम इसका बास्ते एफ डी आई नहीं आने देगा... हाम तो प्रोधानमोंत्री से कहूँगी कि लोकपाल कोई भी बने, उसका उदघाटोन का लिए हामको जोरूर बुलाये. "
और लोगों की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा है. आने पर लगा दी जायेंगी. तब तक इतना बांचकर एक नई बहस छेड़ी जाय:-)
Wednesday, December 7, 2011
दुर्योधन की डायरी - पेज ३२०३
बहुत बढ़ गई है प्रजा भी. बताओ, मेरे फैसले पर बवालिया निशान लगा दिया. ऐसा कौन सा जुलुम कर दिया मैंने जो प्रजा इस तरह से बवाल कर रही है? अरे मैंने यही तो ढिंढोरा पिटवाया कि प्रजा के लोग़ चाय-पान की दुकानों में बैठकर राजमहल के बारे में उल्टी-सीधी बातें न किया करें? मैं कहता हूँ उल्टी-सीधी बातें करने के अलावा भी कोई काम है कि नहीं इनके पास? कोई काम नहीं है तो चौपाल पर बैठकर बिरहा गायें? खुद इनलोगों को भी आनंद आएगा. अगर बिरहा इसलिए नहीं गा सकते क्योंकि पुरानी धुनें अब बोर करती हैं तो नई धुनें तैयार करें. नई धुनें तैयार नहीं कर सकते तो परदेस के किसी संगीतकार की धुन चुरा लें. किसी फ़िल्मी गाने की धुन चुरा लें. मैं कहता हूँ मन हो तो चाहे संगीतकार को ही चुरा लें लेकिन बिरहा गाते रहें. इनका मन भी बहलता रहेगा और राजमहल के लोगों को गाली देकर जीभ थका देने की ज़रुरत भी नहीं पड़ेगी.
आठ-नौ महीनों से गुप्तचर रपट दे रहे थे कि प्रजा के लोग़ न केवल मेरे बारे में बल्कि दुशासन, कर्ण, जयद्रथ और दुशाला के बारे में भी उल्टी-सीधी बातें करते हैं. किसी को जयद्रथ के मदिरापान करके सड़कों पर बवाल करने पर रोष है तो कोई इस बात पर गुस्सा है कि दुशासन ने उसकी बहन को मेले में छेड़ दिया था. कोई ये कह रहा है कि मामाश्री गंधार से आयात किये जाने वाले घोड़ों पर दलाली खाते हैं. मुझे आश्चर्य तो तब हुआ जब लोग़ इस बात पर भी बहस करने लगे कि राजमहल ने उस पानवाले को वाणिज्य और व्यापार में उसके योगदान के लिए भरतश्री से सम्मानित क्यों किया जिसकी दूकान से दुशासन पान खाता है? किसी को महगाई बढ़ जाने से शिकायत है तो किसी को किसानों की खराब होती हालत पर.
यहाँ तक कि लोग़ पुरानी बातें भी खोदकर निकाल ले आये हैं. बिना सबूत के यह आरोप लगा रहे हैं कि गुरु द्रोण के आश्रम में पढ़ाई-लिखाई के दौरान मैंने और दुशासन ने भीम को खीर में जहर खिलाकर मार देने की कोशिश की थी. मैंने पूछता हूँ कहाँ है सुबूत कि हम भाइयों ने ऐसा कुछ किया? किसके पास है इस बात का सुबूत? एक अखबार के कार्टूनिस्ट ऐसा कार्टून बनाया जिसमें उसने दिखाया कि भीम खीर का इंतज़ार कर रहा है और मैं दुशासन के साथ मिलकर उसकी खीर में जहर मिला रहा हूँ. मुझे तो बड़ा गुस्सा आया. मेरी चलती तो मैं तो उसी दिन उस कार्टूनिस्ट के ऊपर बलात्कार का आरोप लगाकर उसे जेल में ठूंसवा देता लेकिन मामाश्री ने रोक दिया. गुप्तचरों ने यह भी सूचना दी कि प्रजा के लोग़ फिर से पुरानी बात निकाल लायें कि लाक्षागृह में पांडवों को जलाकर मार देने की साजिश मैंने की थी. बिना सबूत के किसी के ऊपर आरोप लगाना कहाँ तक उचित है? मैं पूछता हूँ किसी के पास कोई रिकार्डिंग्स है क्या जिसमें मैं और मामाश्री पांडवों को जलाकर मार देने की साजिश रचा रहे हैं? अगर सबूत नहीं है तो फिर मैं कैसे मान लूँ कि वह साजिश हमने की थी? सोच रहा हूँ कि अब समय आ गया है एक ऐसा कानून लाने का जिसमें ऐसा प्रावधान हो कि अगर कोई बिना रिकार्डिंग्स के किसी के ऊपर कोई आरोप लगाता है तो उसके ऊपर देशद्रोह का मुकदमा करके उसे सीधा जेल में ठूंस दें.
मैं पूछता हूँ प्रजा का जन्म क्या शिकायत करने के लिए होता है? अब रात्रि के इस पहर यहाँ तो कोई है नहीं जो मेरे इस सवाल का जवाब देगा तो मैं खुद ही अपने सवाल का जवाब लिख देता हूँ. प्रजा का जन्म केवल और केवल राजा, युवराज और राजपरिवार के लोगों की जै-जैकार करने के लिए होता है. ऐसे में अगर प्रजा केवल जै-जैकार न करके शिकायत करने लगेगी तो विशेषज्ञ और बुद्धीजीवी भी यही कहेंगे कि प्रजा अपने कर्त्तव्य का पालन ठीक ढंग से नहीं कर रही. और फिर विशेषज्ञ और बुद्धिजीवी ऐसा क्यों नहीं कहेंगे? मैं तो कहता हूँ कि अगर वे ऐसा नहीं कहेंगे तो उनसे कहलवा दूंगा. ये हर साल ज़मीन का प्लाट किसलिए लेते हैं? इन्हें ताम्रपत्र, शॉल और नकदी क्या चुप रहने के लिए देता हूँ? अगर कोई बुद्धिजीवी ऐसा कहने से इन्कार करेगा तो राजपरिवार को हक है कि वो नए बुद्धिजीवी पैदा कर ले. वैसे देखा जाय तो हमें किस बात का हक नहीं है? बुद्धिजीवी तो क्या, हम चाहें तो नई प्रजा भी पैदा कर सकते हैं.
समस्याएं हैं. अरे प्रजा है तो समस्याएं तो रहेंगी ही. किसी कवि ने कहा है कि; "राजा है तो प्रजा है. प्रजा है तो समस्याएं हैं. समस्याएं हैं तो शिकायतें हैं. शिकायतें हैं तो समाधान है. समाधान है तो रास्ते हैं. रास्ते हैं तो राजमहल है. क्योंकि हर रास्ता राजमहल तक जाता है."
मानता हूँ कि किसान परेशान है. मंहगाई बढ़ी हुई है जिससे प्रजा हलकान है. लेकिन मैं पूछता हूँ कि किसी चीज का बढ़ना क्या उचित नहीं है? सच कहूँ तो मंहगाई बढ़ने में ही फबती है. मंहगाई के घटने में वो मज़ा नहीं है जो उसके बढ़ने में है. वैसे भी क्या हमने अपनी तरफ से प्रजा को मदद देने की कोशिश नहीं की? क्या राजमहल ने प्रजा में मुद्रा नहीं बांटा? अभी तीन महीने पहले ही अपने जन्मदिन पर दुशाला ने अपने हाथों से प्रजा के हज़ारों लोगों को इक्यावन रूपये और कंबल दिया था. माताश्री के कहने पर किसानों का कर्ज माफ़ कर दिया गया था. मानता हूँ कि जिन किसानों का कर्ज माफ़ किया गया था उनमें हमारे किसान ही ज्यादा थे लेकिन दो-चार हज़ार किसानो को तो कर्ज माफी का फायदा मिला ही. ऐसे में राजमहल के लोगों के बारें में उल्टी-सीधी बातें करना क्या एहसान-फरामोशी की निशानी नहीं है?
मामाश्री के कहने पर सात महीने पहले नगर के सभी चाय-पान के दुकानदारों को बुलाकर उन्हें लालच भी दिया. मैंने तो उनसे कहा भी कि वे अपनी दुकानें बंद कर दें ताकि लोग़ जमा नहीं हों. जब लोग़ जमा ही नहीं होंगे तो फिर राजपरिवार के बारे में उल्टी-सीधी बातें बंद हो जायेंगी. दुशासन ने तो अति-उत्साह में मुहावरा भी पढ़ डाला. बोला; "न रहेगी दूकान, न होंगी उल्टी-सीधी बातें" लेकिन वे दूकानदार कहने लगे कि ऐसा करने से वे भूखे मर जायेंगे. मामाश्री ने उनसे कहा भी कि उनका जो भी नुकशान होगा हम उसके एवज में उन्हें हर महीने पैसे देंगे लेकिन वे माने ही नहीं. दुशासन और जयद्रथ ने तो यहाँ तक कहा कि यदि मैं आज्ञा दूँ तो वे मिलकर इन दूकानदारों को वही धुनक के धर देंगे.
वो तो बाद में मित्र कर्ण से पता लगा कि चाय-पान की दूकानों को एक-दम से बंद करवा देने का फैसला उचित नहीं होगा. कर्ण ने यह बताकर हमारी आँखें खोल दीं कि हस्तिनापुर के जो हालात हैं उसे देखते हुए चाय-पान की दूकान चलने देना ही श्रेयस्कर रहेगा. उसी से पता चला कि लोग़ पान खाकर जब पीक से अपना मुँह भर लेते हैं तब वे कुछ बोल नहीं पाते. और जब पीक से मुँह भरा रहेगा तो कौन राजपरिवार के खिलाफ उल्टी-सीधी बातें करेगा? कर्ण ने तो यहाँ तक सुझाव दिया कि राजपरिवार को खुद मुद्रा खर्च करके चाय-पान की नई दुकानें खुलवानी चाहिए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग़ पान की पीक से अपना मुँह भर सकें.
खुद मैंने सब्सिडी देकर चाय-पान की हज़ारों नई दुकानें खुलवा दीं लेकिन उसका फायदा कुछ ही महीनों तक रहा. केवल कुछ महीनों तक ही लोग़ पान खाकर अपना मुँह पीक से भरते रहे. कुछ दिनों के लिए उनकी शिकायतें कम हो गई थीं लेकिन फिर से शुरू हो गई हैं. पिछले हफ्ते मेरे सबसे काबिल गुप्तचर ने सूचना दी कि किसी ने ह्विसपर कैम्पेन के जरिये प्रजा में यह बात फैला दी है कि पान की पीक को मुँह में देर तक रखना हानिकारक होता है. इसलिए जो भी पान और तम्बाकू का सेवन करे उसे बीच-बीच में थूकते रहना चाहिए.
मामाश्री और मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि कैसे जानकार और जागरूक लोग़ निकल आये हैं? ऐसे लोग़ जिन्हें यह पता है कि तम्बाकू और पान का सेवन हानिकारक होता है. ऐसे जानकार और पढ़े-लिखे लोग़ तो राजपरिवार के लिए खतरा बन सकते हैं. मैंने तो मामाश्री से कहा कि अबा समय आ गया है कि राजपरिवार के लोगों के खिलाफ शिकायत को रोकने का यही तरीका है कि किसानो के बोलकर पान की खेती ही बंद करवा दी जाय. साथ ही अब हस्तिनापुर में प्रजा के लिए चाय आयात करने पर रोक लगा देनी चाहिए ताकि लोग़ चाय-पान के बहाने एक जगह इकठ्ठा न हो सकें.
मामाश्री ने तो मेरे इस सुझाव को एक कदम और आगे बढ़ा दिया. उन्होंने सुझाव दिया कि अब प्रजा के सेवन के लिए अफीम का आयात शुरू किया जाय. गांधार में अफीम की पैदावार खूब होती है. उन्होंने गंधार के एक अफीम उद्योगपति को कल राजमहल में बुलाया है. देखते हैं क्या होता है.
आठ-नौ महीनों से गुप्तचर रपट दे रहे थे कि प्रजा के लोग़ न केवल मेरे बारे में बल्कि दुशासन, कर्ण, जयद्रथ और दुशाला के बारे में भी उल्टी-सीधी बातें करते हैं. किसी को जयद्रथ के मदिरापान करके सड़कों पर बवाल करने पर रोष है तो कोई इस बात पर गुस्सा है कि दुशासन ने उसकी बहन को मेले में छेड़ दिया था. कोई ये कह रहा है कि मामाश्री गंधार से आयात किये जाने वाले घोड़ों पर दलाली खाते हैं. मुझे आश्चर्य तो तब हुआ जब लोग़ इस बात पर भी बहस करने लगे कि राजमहल ने उस पानवाले को वाणिज्य और व्यापार में उसके योगदान के लिए भरतश्री से सम्मानित क्यों किया जिसकी दूकान से दुशासन पान खाता है? किसी को महगाई बढ़ जाने से शिकायत है तो किसी को किसानों की खराब होती हालत पर.
यहाँ तक कि लोग़ पुरानी बातें भी खोदकर निकाल ले आये हैं. बिना सबूत के यह आरोप लगा रहे हैं कि गुरु द्रोण के आश्रम में पढ़ाई-लिखाई के दौरान मैंने और दुशासन ने भीम को खीर में जहर खिलाकर मार देने की कोशिश की थी. मैंने पूछता हूँ कहाँ है सुबूत कि हम भाइयों ने ऐसा कुछ किया? किसके पास है इस बात का सुबूत? एक अखबार के कार्टूनिस्ट ऐसा कार्टून बनाया जिसमें उसने दिखाया कि भीम खीर का इंतज़ार कर रहा है और मैं दुशासन के साथ मिलकर उसकी खीर में जहर मिला रहा हूँ. मुझे तो बड़ा गुस्सा आया. मेरी चलती तो मैं तो उसी दिन उस कार्टूनिस्ट के ऊपर बलात्कार का आरोप लगाकर उसे जेल में ठूंसवा देता लेकिन मामाश्री ने रोक दिया. गुप्तचरों ने यह भी सूचना दी कि प्रजा के लोग़ फिर से पुरानी बात निकाल लायें कि लाक्षागृह में पांडवों को जलाकर मार देने की साजिश मैंने की थी. बिना सबूत के किसी के ऊपर आरोप लगाना कहाँ तक उचित है? मैं पूछता हूँ किसी के पास कोई रिकार्डिंग्स है क्या जिसमें मैं और मामाश्री पांडवों को जलाकर मार देने की साजिश रचा रहे हैं? अगर सबूत नहीं है तो फिर मैं कैसे मान लूँ कि वह साजिश हमने की थी? सोच रहा हूँ कि अब समय आ गया है एक ऐसा कानून लाने का जिसमें ऐसा प्रावधान हो कि अगर कोई बिना रिकार्डिंग्स के किसी के ऊपर कोई आरोप लगाता है तो उसके ऊपर देशद्रोह का मुकदमा करके उसे सीधा जेल में ठूंस दें.
मैं पूछता हूँ प्रजा का जन्म क्या शिकायत करने के लिए होता है? अब रात्रि के इस पहर यहाँ तो कोई है नहीं जो मेरे इस सवाल का जवाब देगा तो मैं खुद ही अपने सवाल का जवाब लिख देता हूँ. प्रजा का जन्म केवल और केवल राजा, युवराज और राजपरिवार के लोगों की जै-जैकार करने के लिए होता है. ऐसे में अगर प्रजा केवल जै-जैकार न करके शिकायत करने लगेगी तो विशेषज्ञ और बुद्धीजीवी भी यही कहेंगे कि प्रजा अपने कर्त्तव्य का पालन ठीक ढंग से नहीं कर रही. और फिर विशेषज्ञ और बुद्धिजीवी ऐसा क्यों नहीं कहेंगे? मैं तो कहता हूँ कि अगर वे ऐसा नहीं कहेंगे तो उनसे कहलवा दूंगा. ये हर साल ज़मीन का प्लाट किसलिए लेते हैं? इन्हें ताम्रपत्र, शॉल और नकदी क्या चुप रहने के लिए देता हूँ? अगर कोई बुद्धिजीवी ऐसा कहने से इन्कार करेगा तो राजपरिवार को हक है कि वो नए बुद्धिजीवी पैदा कर ले. वैसे देखा जाय तो हमें किस बात का हक नहीं है? बुद्धिजीवी तो क्या, हम चाहें तो नई प्रजा भी पैदा कर सकते हैं.
समस्याएं हैं. अरे प्रजा है तो समस्याएं तो रहेंगी ही. किसी कवि ने कहा है कि; "राजा है तो प्रजा है. प्रजा है तो समस्याएं हैं. समस्याएं हैं तो शिकायतें हैं. शिकायतें हैं तो समाधान है. समाधान है तो रास्ते हैं. रास्ते हैं तो राजमहल है. क्योंकि हर रास्ता राजमहल तक जाता है."
मानता हूँ कि किसान परेशान है. मंहगाई बढ़ी हुई है जिससे प्रजा हलकान है. लेकिन मैं पूछता हूँ कि किसी चीज का बढ़ना क्या उचित नहीं है? सच कहूँ तो मंहगाई बढ़ने में ही फबती है. मंहगाई के घटने में वो मज़ा नहीं है जो उसके बढ़ने में है. वैसे भी क्या हमने अपनी तरफ से प्रजा को मदद देने की कोशिश नहीं की? क्या राजमहल ने प्रजा में मुद्रा नहीं बांटा? अभी तीन महीने पहले ही अपने जन्मदिन पर दुशाला ने अपने हाथों से प्रजा के हज़ारों लोगों को इक्यावन रूपये और कंबल दिया था. माताश्री के कहने पर किसानों का कर्ज माफ़ कर दिया गया था. मानता हूँ कि जिन किसानों का कर्ज माफ़ किया गया था उनमें हमारे किसान ही ज्यादा थे लेकिन दो-चार हज़ार किसानो को तो कर्ज माफी का फायदा मिला ही. ऐसे में राजमहल के लोगों के बारें में उल्टी-सीधी बातें करना क्या एहसान-फरामोशी की निशानी नहीं है?
मामाश्री के कहने पर सात महीने पहले नगर के सभी चाय-पान के दुकानदारों को बुलाकर उन्हें लालच भी दिया. मैंने तो उनसे कहा भी कि वे अपनी दुकानें बंद कर दें ताकि लोग़ जमा नहीं हों. जब लोग़ जमा ही नहीं होंगे तो फिर राजपरिवार के बारे में उल्टी-सीधी बातें बंद हो जायेंगी. दुशासन ने तो अति-उत्साह में मुहावरा भी पढ़ डाला. बोला; "न रहेगी दूकान, न होंगी उल्टी-सीधी बातें" लेकिन वे दूकानदार कहने लगे कि ऐसा करने से वे भूखे मर जायेंगे. मामाश्री ने उनसे कहा भी कि उनका जो भी नुकशान होगा हम उसके एवज में उन्हें हर महीने पैसे देंगे लेकिन वे माने ही नहीं. दुशासन और जयद्रथ ने तो यहाँ तक कहा कि यदि मैं आज्ञा दूँ तो वे मिलकर इन दूकानदारों को वही धुनक के धर देंगे.
वो तो बाद में मित्र कर्ण से पता लगा कि चाय-पान की दूकानों को एक-दम से बंद करवा देने का फैसला उचित नहीं होगा. कर्ण ने यह बताकर हमारी आँखें खोल दीं कि हस्तिनापुर के जो हालात हैं उसे देखते हुए चाय-पान की दूकान चलने देना ही श्रेयस्कर रहेगा. उसी से पता चला कि लोग़ पान खाकर जब पीक से अपना मुँह भर लेते हैं तब वे कुछ बोल नहीं पाते. और जब पीक से मुँह भरा रहेगा तो कौन राजपरिवार के खिलाफ उल्टी-सीधी बातें करेगा? कर्ण ने तो यहाँ तक सुझाव दिया कि राजपरिवार को खुद मुद्रा खर्च करके चाय-पान की नई दुकानें खुलवानी चाहिए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग़ पान की पीक से अपना मुँह भर सकें.
खुद मैंने सब्सिडी देकर चाय-पान की हज़ारों नई दुकानें खुलवा दीं लेकिन उसका फायदा कुछ ही महीनों तक रहा. केवल कुछ महीनों तक ही लोग़ पान खाकर अपना मुँह पीक से भरते रहे. कुछ दिनों के लिए उनकी शिकायतें कम हो गई थीं लेकिन फिर से शुरू हो गई हैं. पिछले हफ्ते मेरे सबसे काबिल गुप्तचर ने सूचना दी कि किसी ने ह्विसपर कैम्पेन के जरिये प्रजा में यह बात फैला दी है कि पान की पीक को मुँह में देर तक रखना हानिकारक होता है. इसलिए जो भी पान और तम्बाकू का सेवन करे उसे बीच-बीच में थूकते रहना चाहिए.
मामाश्री और मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि कैसे जानकार और जागरूक लोग़ निकल आये हैं? ऐसे लोग़ जिन्हें यह पता है कि तम्बाकू और पान का सेवन हानिकारक होता है. ऐसे जानकार और पढ़े-लिखे लोग़ तो राजपरिवार के लिए खतरा बन सकते हैं. मैंने तो मामाश्री से कहा कि अबा समय आ गया है कि राजपरिवार के लोगों के खिलाफ शिकायत को रोकने का यही तरीका है कि किसानो के बोलकर पान की खेती ही बंद करवा दी जाय. साथ ही अब हस्तिनापुर में प्रजा के लिए चाय आयात करने पर रोक लगा देनी चाहिए ताकि लोग़ चाय-पान के बहाने एक जगह इकठ्ठा न हो सकें.
मामाश्री ने तो मेरे इस सुझाव को एक कदम और आगे बढ़ा दिया. उन्होंने सुझाव दिया कि अब प्रजा के सेवन के लिए अफीम का आयात शुरू किया जाय. गांधार में अफीम की पैदावार खूब होती है. उन्होंने गंधार के एक अफीम उद्योगपति को कल राजमहल में बुलाया है. देखते हैं क्या होता है.
Tuesday, November 22, 2011
@#!%&८? राष्ट्रीय गोबर मिशन
मंत्री जी सोच में डूबे थे. आप पूछ सकते हैं सोच में क्यों डूबे थे? खासकर तब, जब डूबने के लिए और बहुत कुछ है? तो मेरा कहना यह है कि आप सवाल बहुत करते हैं. पढ़ तो लीजिये कि उन्होंने सोच में डूबना क्यों पसंद किया? तो मैं बता रहा था कि मंत्री जी सोच में डूबे थे. मंत्री भी कौन विभाग के? मिनिस्ट्री ऑफ न्यू एंड री-न्यूएबिल एनर्जी यानि नवीन और नवीनीकरणीय उर्जा मंत्रालय. क्या कहा? नाम नहीं सुना कभी? अरे भइया वही मंत्रालय जो किसी भी चीज से उर्जा बना लेता है. सूरज की रौशनी को पेट्रोमैक्स और बल्ब की रौशनी में परिवर्तित कर डालता है. गोबर से गैस बना देता है. पोलीथीन से तेल बना देता है. यहाँ तक कि कूड़ा से सरकार भी बना सकता है.
तो मैं बता रहा था कि इसी मंत्रालय के मंत्री सोच में डूबे थे. सामने सचिव महोदय बैठे. ऑब्जेक्शन मत कीजिए सचिव के आगे महोदय लगाना ज़रूरी होता है. यही सरकारी नियम है. तो सामने सचिव महोदय बैठे थे. सोच में डूबकर जब मंत्री जी बोर हो गए तो सिर उठाकर बोले; "लगातार आठवां महीना है जब हम लोग़ टारगेट अचीव नहीं कर पाए. क्या हो रहा है? जब मैं मंत्री बना था तो मैंने मीडिया को बताया था कि मैं इस देश में ऊर्जा के नए-नए स्रोत स्थापित करूँगा लेकिन यहाँ हाल यह है कि गोबर गैस के टारगेट को भी हम अचीव नहीं कर पा रहे?"
सचिव जी के बोलने की बारी थी. वे बोले भी. उन्होंने कहा; "लेकिन सर, क्या किया जाय जब हमारे पास गोबर ही उपलब्ध नहीं है. एक जमाना था जब देश में गोबर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध था. लेकिन आज गोबर की कमी पड़ गई है. गोबर मिलेगा तब तो गोबर-गैस बनेगी."
मंत्री जी बोले; "लेकिन गोबर न मिलने का कारण क्या है? अचानक देश में गोबर की कमी हो जाना तो ठीक नहीं है न. गेंहू, चावल, दाल, सब्जी वगैरह की कमी समझ में आती है लेकिन गोबर की कमी? अरे भाई, भारत तो गोबर के लिए ही जाता है."
सचिव जी बोले; "लेकिन सर, यह कहना कि भारत को गोबर के लिए जाना जाता है ठीक नहीं होगा. भारत तो और बातों के लिए भी जाना जाता है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत करप्शन के लिए जाना जाता है. भारत महात्मा के लिए जाना जाता है. भारत ...."
मंत्री जी बोले; "ठीक है-ठीक है. मैं समझ गया. लेकिन सवाल यह है कि गोबर की कमी कैसे हो गई?"
सचिव जी ने अपनी फ़ाइल से एक कागज़ निकालते हुए कहा; "सर, यह रिपोर्ट है. हमने एक्सपर्ट्स लगाकर स्टडी करवाया तो पता चला कि पिछले वर्षों में देश में गायें ज्यादा कटने लगी हैं. वे अब कटकर एक्सपोर्ट्स होने के काम आती हैं. शायद गोबर की कमी इसीलिए हो रही है."
मंत्री जी बोले; "लेकिन हमारे यहाँ भैंस भी तो पायी जाती हैं. वे भी तो गोबर करती होंगी."
सचिव जी को पता था कि मंत्री जी ऐसा सवाल कर सकते हैं. वे इस सवाल के लिए तैयार थे. उन्होंने बताया; "सर, भैंस गोबर तो करती हैं लेकिन देश के लोग़ उस गोबर से उपले बनना ज्यादा ज़रूरी समझते हैं. और फिर सर, परिवार बड़े-बड़े होते हैं. एक परिवार में एक ही भैंस है. कई बार तो ऐसा देखा गया है कि एक ही भैंस का गोबर परिवार में चार भागों में बट जाता है. चारों लोग़ उस गोबर से उपले बनाते हैं जो जलाने के काम आता है."
मंत्री जी बोले; "और बैल? बैल भी तो गोबर करते होंगे? क्या बैलों ने गोबर करना छोड़ दिया है?"
सचिव जी इस अप्रत्याशित सवाल के लिए तैयार नहीं थे. कुछ क्षणों के लिए खुद को संभाला और बोले; "सर, देखा जाय तो बैल और करते ही क्या हैं? बैल गोबर ही तो करते हैं. लेकिन सर बैलों की संख्या भी तो घट गई है. वैसे सर, यहाँ एक समस्या और भी है कि भैंस तो एक जगह बंधी रहती है लेकिन बैल इधर-उधर आता-जाता रहता है. वह घूम-घूम कर गोबर करता है. ऐसे में लोग उसका पूरा गोबर इकठ्ठा नहीं कर पाते."
मंत्री जी भी शायद सोच में और डूब जाने के लिए तैयार नहीं थे. लिहाजा उन्होंने अपनी म्यान से एक और सवाल निकाला. बोले; "लेकिन बैल क्यों कम हो गए? क्या उन्हें अब भारतवर्ष पसंद नहीं आता?"
सचिव जी ने भी अपनी म्यान से जवाब निकाला. बोले; "सर, देखा जाय तो बैलों को हमेशा से ही भारतवर्ष पसंद रहा है. यहाँ समस्या यह है कि अब भारतवर्ष को बैल रास नहीं आते."
मंत्री जी ने पूछा; "क्यों? ऐसा क्यों? अगर भारतवर्ष को बैल रास नहीं आते तो फिर बैलों की जगह किसने ली?"
सचिव जी को पता था कि मंत्री जी यह ज़रूर पूछेंगे. वे बोले; "सर, अब बैलों की जगह ट्रैक्टर ने ले ली है."
मंत्री जी के लिए यह सूचना नई टाइप लगी. बोले; "क्या बात करते हैं आप? जो काम बैल कर सकता है क्या वे सारे काम ट्रैक्टर करने लगे हैं?"
सचिव जी बोले; "ट्रैक्टर लगभग सारे काम कर सकता है, बस गोबर नहीं कर सकता. वैसे सर, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि अपने मंत्रालय के टारगेट अचीव करने के लिए हम वाणिज्य मंत्रालय से कहें कि गायें कम काटी जायें. गायों को काटकर उन्हें एक्सपोर्ट्स करने का नया लाइसेंस न दिया जाय?"
मंत्री जी बोले; "लेकिन ऐसा करने से तो लफड़ा हो जाएगा. क्लैश ऑफ इंटरेस्ट की बात उभर कर सामने आ जायेगी. अभी तक हमारी मिनिस्ट्री इस झमेले से दूर थी लेकिन वह भी इसमें पड़ जायेगी तो मीडिया वालों को एक और बहाना मिल जाएगा हमारी सरकार के खिलाफ लिखने का. वैसे क्या ऐसी कोई तकनीक नहीं है जिससे गोबर मैन्यूफैक्चर किया जा सके?"
सचिव जी इस सवाल के लिए तैयार नहीं थे. उनके मन में एक बार तो आया कि कह दें कि; "सर देखा जाय तो हम और कर ही क्या रहे हैं? सब मिलकर गोबर मैन्यूफैक्चरिंग ही तो कर रहे हैं." फिर उन्हें लगा कि यह कहना ठीक नहीं होगा. लिहाजा उन्होंने मंत्री जी से कहा; "सर, अगर केवल इसलिए गोबर मैन्यूफैक्चर करना है कि उसकी गैस बनाई जाय तो फिर हम किसी समुद्र में सीधा-सीधा गैस ही खोज लें."
उनकी बात से मंत्री जी प्रभावित नहीं हुए. बोले; "लेट अस स्टिक टू आर प्रॉब्लम. समुद्र में गैस खोजना तो पेट्रोलियम मिनिस्ट्री का काम है. हमें गोबर गैस के बारे में सोचना है. आप केवल यह बताएं कि गोबर मैन्यूफैक्चर करने की कोई तकनीक है या नहीं?"
सचिव जी बोले; "सर, किस चीज को मैन्यूफैक्चर नहीं किया जा सकता? और खासकर सरकार तो कुछ भी मैन्यूफैक्चर कर सकती है."
सचिव जी की बात सुनकर मंत्री जी ने सरकार के टैलेंट की मन ही मन सराहना की. फिर सोचनीय मुद्रा बनाते हुए बोले; "वैसे सुना है कि गुड़ से भी गोबर बनाया जाता है. तो क्यों न हम उस तकनीक का इस्तेमाल करें?"
सचिव जी को लगा कि दो मिनट के लिए मंत्री जी की इजाजत लेकर बाहर जायें और हँस लें. फिर उन्हें लगा कि यह संभव नहीं है. वे बोले; "सर, अभी तक तो हम ज्यादातर गुड़ गोबर कर चुके हैं. अब तो गुड़ भी ज्यादा नहीं बचा."
मंत्री जी बोले; "वैसे गोबर मैन्यूफैक्चरिंग की कोई तकनीक है तो उसके बारे में बाद में सोचते हैं. पहले एक बार ट्राई किया जाय और जानवरों की संख्या बढ़ाकर पर्याप्त मात्रा में गोबर उपलब्ध करवाया जाय."
सचिव जी बोले; "लेकिन सर, यह कैसे होगा?"
मंत्री जी के पास शायद पहले से ही कोई प्लान था. बोले; "हम एक योजना की घोषणा करते हैं. योजना का नाम होगा "@#!%&८? राष्ट्रीय गोबर मिशन". एक बार योजना का उद्घाटन हो गया तो फिर अगले बजट में वित्तमंत्री को कहकर इस योजना के लिए करीब पाँच हज़ार करोड़ रुपया निकलवा लूंगा. आप बस योजना के लॉन्च करने के प्लान की घोषणा कीजिये."
सचिव जी ने सोचा कि मंत्री के पास कोई योजना है इसलिए ठीक यही होगा कि उन्ही से पूरी जानकारी ले ली जाय. वे बोले; "सर, आपने जिस तरह से योजना की बात की, उससे लगा कि आपके पास पूरा प्लान है. जब पूरा प्लान है ही तो वो मुझे बता ही दीजिये."
मंत्री जी को सचिव जी की बिना लाग-लपेट वाली बात खूब पसंद आयी. बोले; "तो फिर सुनो. योजना के पहले चरण में हम अपने मंत्रालय से एक सौ साठ करोड़ रुपया देंगे. उसके बाद चार महीने बाद बजट आने वाला है. उस बजट में पाँच
हज़ार करोड़ रुपया निकलवा लेंगे. काम आगे बढ़ेगा. अगले साल के अंत तक मीडिया में रिपोर्ट प्लांट करवाना है कि देश में अचानक गोबर की कमी हो गई है और यह योजना आगे नहीं बढ़ पाएगी. एक बार मीडिया में बात उठ गई और टीवी पर दस-पाँच पैनल डिस्कशन हो गए तो फिर इस गोबर योजना में एफ डी आई की इजाजत ले लेंगे. तुम तो जानते ही हो कि किसी भी उद्योग में एक बार एफ डी आई की ज़रुरत की बात हो जाती है तो उस उद्योग को लोग़ गंभीरता से लेने लगते हैं. ऐसे में आज यह देश के हित में है कि @#!%&८? राष्ट्रीय गोबर मिशन जल्द से जल्द शुरू किया जाय. बस अब काम शुरू करो और इस मिशन के पूरा होने के लिए अपनी जान लड़ा दो. तीन-चार दिन में एक सेमिनार में मुझे इस मिशन की घोषणा.....................
सचिव जी बड़ी तन्मयता से मंत्री जी को सुने जा रहे थे...
तो मैं बता रहा था कि इसी मंत्रालय के मंत्री सोच में डूबे थे. सामने सचिव महोदय बैठे. ऑब्जेक्शन मत कीजिए सचिव के आगे महोदय लगाना ज़रूरी होता है. यही सरकारी नियम है. तो सामने सचिव महोदय बैठे थे. सोच में डूबकर जब मंत्री जी बोर हो गए तो सिर उठाकर बोले; "लगातार आठवां महीना है जब हम लोग़ टारगेट अचीव नहीं कर पाए. क्या हो रहा है? जब मैं मंत्री बना था तो मैंने मीडिया को बताया था कि मैं इस देश में ऊर्जा के नए-नए स्रोत स्थापित करूँगा लेकिन यहाँ हाल यह है कि गोबर गैस के टारगेट को भी हम अचीव नहीं कर पा रहे?"
सचिव जी के बोलने की बारी थी. वे बोले भी. उन्होंने कहा; "लेकिन सर, क्या किया जाय जब हमारे पास गोबर ही उपलब्ध नहीं है. एक जमाना था जब देश में गोबर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध था. लेकिन आज गोबर की कमी पड़ गई है. गोबर मिलेगा तब तो गोबर-गैस बनेगी."
मंत्री जी बोले; "लेकिन गोबर न मिलने का कारण क्या है? अचानक देश में गोबर की कमी हो जाना तो ठीक नहीं है न. गेंहू, चावल, दाल, सब्जी वगैरह की कमी समझ में आती है लेकिन गोबर की कमी? अरे भाई, भारत तो गोबर के लिए ही जाता है."
सचिव जी बोले; "लेकिन सर, यह कहना कि भारत को गोबर के लिए जाना जाता है ठीक नहीं होगा. भारत तो और बातों के लिए भी जाना जाता है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत करप्शन के लिए जाना जाता है. भारत महात्मा के लिए जाना जाता है. भारत ...."
मंत्री जी बोले; "ठीक है-ठीक है. मैं समझ गया. लेकिन सवाल यह है कि गोबर की कमी कैसे हो गई?"
सचिव जी ने अपनी फ़ाइल से एक कागज़ निकालते हुए कहा; "सर, यह रिपोर्ट है. हमने एक्सपर्ट्स लगाकर स्टडी करवाया तो पता चला कि पिछले वर्षों में देश में गायें ज्यादा कटने लगी हैं. वे अब कटकर एक्सपोर्ट्स होने के काम आती हैं. शायद गोबर की कमी इसीलिए हो रही है."
मंत्री जी बोले; "लेकिन हमारे यहाँ भैंस भी तो पायी जाती हैं. वे भी तो गोबर करती होंगी."
सचिव जी को पता था कि मंत्री जी ऐसा सवाल कर सकते हैं. वे इस सवाल के लिए तैयार थे. उन्होंने बताया; "सर, भैंस गोबर तो करती हैं लेकिन देश के लोग़ उस गोबर से उपले बनना ज्यादा ज़रूरी समझते हैं. और फिर सर, परिवार बड़े-बड़े होते हैं. एक परिवार में एक ही भैंस है. कई बार तो ऐसा देखा गया है कि एक ही भैंस का गोबर परिवार में चार भागों में बट जाता है. चारों लोग़ उस गोबर से उपले बनाते हैं जो जलाने के काम आता है."
मंत्री जी बोले; "और बैल? बैल भी तो गोबर करते होंगे? क्या बैलों ने गोबर करना छोड़ दिया है?"
सचिव जी इस अप्रत्याशित सवाल के लिए तैयार नहीं थे. कुछ क्षणों के लिए खुद को संभाला और बोले; "सर, देखा जाय तो बैल और करते ही क्या हैं? बैल गोबर ही तो करते हैं. लेकिन सर बैलों की संख्या भी तो घट गई है. वैसे सर, यहाँ एक समस्या और भी है कि भैंस तो एक जगह बंधी रहती है लेकिन बैल इधर-उधर आता-जाता रहता है. वह घूम-घूम कर गोबर करता है. ऐसे में लोग उसका पूरा गोबर इकठ्ठा नहीं कर पाते."
मंत्री जी भी शायद सोच में और डूब जाने के लिए तैयार नहीं थे. लिहाजा उन्होंने अपनी म्यान से एक और सवाल निकाला. बोले; "लेकिन बैल क्यों कम हो गए? क्या उन्हें अब भारतवर्ष पसंद नहीं आता?"
सचिव जी ने भी अपनी म्यान से जवाब निकाला. बोले; "सर, देखा जाय तो बैलों को हमेशा से ही भारतवर्ष पसंद रहा है. यहाँ समस्या यह है कि अब भारतवर्ष को बैल रास नहीं आते."
मंत्री जी ने पूछा; "क्यों? ऐसा क्यों? अगर भारतवर्ष को बैल रास नहीं आते तो फिर बैलों की जगह किसने ली?"
सचिव जी को पता था कि मंत्री जी यह ज़रूर पूछेंगे. वे बोले; "सर, अब बैलों की जगह ट्रैक्टर ने ले ली है."
मंत्री जी के लिए यह सूचना नई टाइप लगी. बोले; "क्या बात करते हैं आप? जो काम बैल कर सकता है क्या वे सारे काम ट्रैक्टर करने लगे हैं?"
सचिव जी बोले; "ट्रैक्टर लगभग सारे काम कर सकता है, बस गोबर नहीं कर सकता. वैसे सर, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि अपने मंत्रालय के टारगेट अचीव करने के लिए हम वाणिज्य मंत्रालय से कहें कि गायें कम काटी जायें. गायों को काटकर उन्हें एक्सपोर्ट्स करने का नया लाइसेंस न दिया जाय?"
मंत्री जी बोले; "लेकिन ऐसा करने से तो लफड़ा हो जाएगा. क्लैश ऑफ इंटरेस्ट की बात उभर कर सामने आ जायेगी. अभी तक हमारी मिनिस्ट्री इस झमेले से दूर थी लेकिन वह भी इसमें पड़ जायेगी तो मीडिया वालों को एक और बहाना मिल जाएगा हमारी सरकार के खिलाफ लिखने का. वैसे क्या ऐसी कोई तकनीक नहीं है जिससे गोबर मैन्यूफैक्चर किया जा सके?"
सचिव जी इस सवाल के लिए तैयार नहीं थे. उनके मन में एक बार तो आया कि कह दें कि; "सर देखा जाय तो हम और कर ही क्या रहे हैं? सब मिलकर गोबर मैन्यूफैक्चरिंग ही तो कर रहे हैं." फिर उन्हें लगा कि यह कहना ठीक नहीं होगा. लिहाजा उन्होंने मंत्री जी से कहा; "सर, अगर केवल इसलिए गोबर मैन्यूफैक्चर करना है कि उसकी गैस बनाई जाय तो फिर हम किसी समुद्र में सीधा-सीधा गैस ही खोज लें."
उनकी बात से मंत्री जी प्रभावित नहीं हुए. बोले; "लेट अस स्टिक टू आर प्रॉब्लम. समुद्र में गैस खोजना तो पेट्रोलियम मिनिस्ट्री का काम है. हमें गोबर गैस के बारे में सोचना है. आप केवल यह बताएं कि गोबर मैन्यूफैक्चर करने की कोई तकनीक है या नहीं?"
सचिव जी बोले; "सर, किस चीज को मैन्यूफैक्चर नहीं किया जा सकता? और खासकर सरकार तो कुछ भी मैन्यूफैक्चर कर सकती है."
सचिव जी की बात सुनकर मंत्री जी ने सरकार के टैलेंट की मन ही मन सराहना की. फिर सोचनीय मुद्रा बनाते हुए बोले; "वैसे सुना है कि गुड़ से भी गोबर बनाया जाता है. तो क्यों न हम उस तकनीक का इस्तेमाल करें?"
सचिव जी को लगा कि दो मिनट के लिए मंत्री जी की इजाजत लेकर बाहर जायें और हँस लें. फिर उन्हें लगा कि यह संभव नहीं है. वे बोले; "सर, अभी तक तो हम ज्यादातर गुड़ गोबर कर चुके हैं. अब तो गुड़ भी ज्यादा नहीं बचा."
मंत्री जी बोले; "वैसे गोबर मैन्यूफैक्चरिंग की कोई तकनीक है तो उसके बारे में बाद में सोचते हैं. पहले एक बार ट्राई किया जाय और जानवरों की संख्या बढ़ाकर पर्याप्त मात्रा में गोबर उपलब्ध करवाया जाय."
सचिव जी बोले; "लेकिन सर, यह कैसे होगा?"
मंत्री जी के पास शायद पहले से ही कोई प्लान था. बोले; "हम एक योजना की घोषणा करते हैं. योजना का नाम होगा "@#!%&८? राष्ट्रीय गोबर मिशन". एक बार योजना का उद्घाटन हो गया तो फिर अगले बजट में वित्तमंत्री को कहकर इस योजना के लिए करीब पाँच हज़ार करोड़ रुपया निकलवा लूंगा. आप बस योजना के लॉन्च करने के प्लान की घोषणा कीजिये."
सचिव जी ने सोचा कि मंत्री के पास कोई योजना है इसलिए ठीक यही होगा कि उन्ही से पूरी जानकारी ले ली जाय. वे बोले; "सर, आपने जिस तरह से योजना की बात की, उससे लगा कि आपके पास पूरा प्लान है. जब पूरा प्लान है ही तो वो मुझे बता ही दीजिये."
मंत्री जी को सचिव जी की बिना लाग-लपेट वाली बात खूब पसंद आयी. बोले; "तो फिर सुनो. योजना के पहले चरण में हम अपने मंत्रालय से एक सौ साठ करोड़ रुपया देंगे. उसके बाद चार महीने बाद बजट आने वाला है. उस बजट में पाँच
हज़ार करोड़ रुपया निकलवा लेंगे. काम आगे बढ़ेगा. अगले साल के अंत तक मीडिया में रिपोर्ट प्लांट करवाना है कि देश में अचानक गोबर की कमी हो गई है और यह योजना आगे नहीं बढ़ पाएगी. एक बार मीडिया में बात उठ गई और टीवी पर दस-पाँच पैनल डिस्कशन हो गए तो फिर इस गोबर योजना में एफ डी आई की इजाजत ले लेंगे. तुम तो जानते ही हो कि किसी भी उद्योग में एक बार एफ डी आई की ज़रुरत की बात हो जाती है तो उस उद्योग को लोग़ गंभीरता से लेने लगते हैं. ऐसे में आज यह देश के हित में है कि @#!%&८? राष्ट्रीय गोबर मिशन जल्द से जल्द शुरू किया जाय. बस अब काम शुरू करो और इस मिशन के पूरा होने के लिए अपनी जान लड़ा दो. तीन-चार दिन में एक सेमिनार में मुझे इस मिशन की घोषणा.....................
सचिव जी बड़ी तन्मयता से मंत्री जी को सुने जा रहे थे...
Saturday, October 22, 2011
युग-युग में रा-वन
त्रेता युग
जामवंत जी ने हनुमान जी को याद दिलाया कि वे उड़ सकते हैं. बड़े-बुजुर्ग हमेशा से परोपकारी रहे हैं. उन्हें तो बस परोपकार करने का मौका चाहिए. वे कभी पीछे नहीं हटेंगे. दरअसल एक उम्र पर पहुंचकर उन्हें इसके अलावा कुछ और करना न तो आता है और न ही भाता है. जामवंत जी भी इसके अपवाद नहीं थे. हनुमान जी ने जामवंत जी को थैंक्स कहा और श्रीलंका की उड़ान भर ली. बैकग्राऊंड से रवींद्र जैन अपनी सुरीली आवाज़ में गाये जा रहे हैं; "राममन्त्र के पंख लगाकर हनुमत भरे उड़ान...हनुमत भरे उड़ान."
उधर हनुमान जी अपने दोनों पाँव ठीक वैसे ही ऊपर-नीचे करते उड़े जा रहे हैं जैसे पलंग पर पेट के बल लेटा डेढ़ साल का बच्चा अपने पाँव ऊपर-नीचे करता है. देखकर कोई भी बता सकता है कि वे इस समय ज्यादा ऊपर नहीं उड़ रहे हैं क्योंकि मौसम सुहाना है. बादल ऊंचाई पर हैं. रास्ता साफ़ है. दूर-दूर तक सबकुछ दिखाई दे रहा है. लिहाज़ा सामने से आते किसी राक्षस या वायुयान से टकराने की सम्भावना नगण्य है. सूर्य भगवान का पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम स्ट्रॉंग है इसलिए वे अपनी रोशनी पूरे संसार को बांटे जा रहे हैं. हिंद महासागर नीचे अविरल बहता जा रहा है.
हनुमान जी एकाग्र-चित्त उड़े जा रहे है. ठीक वैसे ही जैसे राहुल द्रविड़ पिच पर एकाग्र-चित्त होकर ऑफ स्टंप से बाहर जानेवाली गेंदों को बिना किसी छेड़-छाड़ के छोड़ दिया करते हैं. देखकर ही लग रहा है कि उन्हें उड़ने में बहुत मज़ा आ रहा है. वे किसी बच्चे की सी मुखमुद्रा लिए आनंदित दिखाई दे रहे हैं. अचानक देखते क्या हैं कि समुद्र में से सामने एक विशालकाय महिला उभरी. उसने बड़ा वीभत्स मेक-अप किया है. बड़े-बड़े बाल, माथे पर बहुत बड़ी बिंदी, मुँह के दोनों कोनों पर बड़े-बड़े तिरछे दांत और बड़ी गाढ़ी होठ-लाली से लैस यह महिला हनुमान जी के रास्ते में मुँह बाए खड़ी हो गई. उसे देख हनुमान जी ने खुद को उसके मुँह के आगे हवा में ही पार्क कर लिया. वह महिला जोर-जोर से हा हा हा करके हँसी. उसकी हँसी उसके मेक-अप से मेल खा रही है.
हनुमान जी ने उसे प्रश्नवाचक मुद्रा में देखा. उस महिला को लगा कि अब समय आ गया है कि वह अपना परिचय दे. उसने कहा; "मैं सुरसा हूँ. हा हा हा हा हा."
उसकी हँसी सुनकर कोई भी कह सकता है कि शायद उसे सुरसा होने पर बड़ा गर्व है. वैसे यह भी कह सकता है कि जैसे हनुमान जी उड़ना एन्जॉय करते हैं वैसे ही सुरसा हँसना एन्जॉय करती है. उसकी हँसी सुनकर हनुमान जी ने कहा; "वह तो ठीक है लेकिन आप इतना हँस क्यों रही हैं?"
सुरसा बोली; "हँसी ही मेरी पहचान है. मैं जब तक नहीं हँसती लोग़ मुझे राक्षसी समझते ही नहीं. अब तुम्ही सोचो कि अगर मैं हँसना बंद कर दूँ तो कौन मुझे सीरियसली लेगा?"
उसकी बात शायद हनुमान जी की समझ में आ गई इसीलिए उन्होंने उसकी हँसी की बाबत और कोई सवाल नहीं किया. आगे बोले; "लेकिन मुझसे क्या चाहती हो?"
वो बोली; "आज देवताओं ने तुम्हें मेरा आहार बनाकर भेजा है. आशा है मेरी बात तुम्हारी समझ में आ गई होगी. नहीं आई हो तो फिर मैं काव्य में सुनाऊं कि; आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा..."
उसकी बात सुनकर हनुमान जी डर गए. उन्होंने सोचा जल्दी से हाँ कर दें नहीं तो कहीं ऐसा न हो कि यह अपनी बात काव्य में सुनाना शुरू करे तो साथ में आगे-पीछे की दस-पंद्रह चौपाई और सुना दे. आखिर उन्हें भी पता है कि कविता सुनाने वाला अगर सुनाने के मोड में आ जाए तो फिर सामनेवाले के ऊपर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ता है.
वे झट से बोले; "नहीं-नहीं मैं समझ गया. लेकिन हे माता अभी तो मैं भगवान श्री राम के कार्य हेतु श्रीलंका जा रहा हूँ. इसलिए आप मुझे छोड़ दें. मुझे बहुत बड़ा कार्य करना है. माता सीता की खोज करनी है. हे माता आप समझ गईं या काव्य में बताऊँ कि; "राम काजु करि फिरि मैं आवौं...."
हनुमान जी की बात सुनकर अब डरने की बारी सुरसा जी की थी. वे बोलीं; "समझ गई मैं. तुम्हारी बात पूरी तरह से मेरी समझ में आ गई."
अभी वे बात कर ही रहे थे कि आस-पास बकरी की सी आवाज़ सुनाई दी. हनुमान जी और सुरसा दोनों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि समुद्र के ऊपर इस समय बकरी कहाँ से आ सकती है? वे इस आवाज़ के बारे में अभी सोच ही रहे थे कि उन्होंने देखा कि उनके सामने सूट-बूट पहने, छोटी सी चोटी बांधे एक मनुष्य खड़ा हुआ है.
उसने हनुमान जी को प्रणाम किया और बोला; "हे बजरंगबली, आप तो श्रीलंका जा रहे हैं. मैं यह बताने आया था कि मेरी फिल्म रा-वन कोलम्बो के सैवोय थियेटर में रिलीज होनेवाली है. आप से रिक्वेस्ट है कि आप वह फिल्म ज़रूर देखें."
इस मनुष्य को देखकर शायद हनुमान जी पहचान गए. बोले; "अरे तुम तो वही हो न जो परसों किष्किन्धा के आस-पास के इलाके में अपनी फिल्म का प्रचार करने वाये थे? महाराज सुग्रीव की सेना के कई बानर उसदिन अपना कर्त्तव्य भुलाकर तुम्हारा नाच-गाना देखने चले गए थे?"
उनकी बात सुनकर वह मनुष्य बोला; "हाँ, भगवन मैं वही हूँ. दरअसल मैं अपनी मूवी का प्रचार करने आपके इलाके में गया था. मेरा आपसे अनुरोध है कि आप मेरी मूवी ज़रूर देखें."
इस बार हनुमान जी बिदक गए. बोले; "तुमने पिछले वर्षा ऋतु से ही परेशान करके रख दिया है. जहाँ दृष्टि जाती है बस तुम्ही दिखाई देते हो. चित्रकूट हो या किष्किन्धा, अयोध्या हो या जनकपुर सब जगह तुम्ही दिखाई दे रहे हो. पागल कर दिया है तुमने सबको."
"लेकिन प्रभु, मेरी बात तो सुनिए. इस मूवी में रजनीकांत भी हैं. मैंने विदेशी गायक से इसमें गाना गवाया है. आप ज़रूर देखिएगा यह मूवी. आपको अच्छा लगेगा"; वह मनुष्य गिडगिडाने लगा.
उसकी बातें हनुमान जी को विरक्त कर रही थीं. बहुत नाराज़ होते हुए बोले; "हे माता, इस मनुष्य ने पूरी पृथ्वी पर हाहाकार मचा कर रखा है. मैं इसकी मूवी देखूँ उससे अच्छा तो यह होगा कि आप मुझे अपना आहार बना लें. माता सीता की खोज अंगद कर लेंगे."
कट टू द्वापर युग.
महाभारत की लड़ाई चल रही है.
महाराज धृतराष्ट्र के सारथी संजय उन्हें युद्ध के मैदान से आँखों देखा हाल बता रहे हैं. अचानक देखते क्या हैं कि उनकी स्क्रीन पर महाभारत की लड़ाई दिखनी बंद हो गई. सामने सूट-बूट में लैस एक मनुष्य नृत्य करते हुए गाने लागा; छम्मक छल्लो...चम्मक छल्लो..."
संजय की समझ में नहीं आ रहा कि यह कौन है? अभी वे कुछ सोच पाते कि आवाज़ आई; "महाराज धृतराष्ट्र की जय हो. महराज आज दिन भर युद्ध की रनिंग कमेंट्री सुनकर जब आप थक जायें तो आज रात्रिकालीन शो में मेरी मूवी रा-वन देखना न भूलें. बहुत बढ़िया मूवी है. बहुत पैसा खर्च करके मैंने यह मूवी बनाई है. आप आनंद से सरा-बोर हो जायेंगे."
उसकी आवाज़ सुनकर धृतराष्ट्र को लगा कि यह कौन है जो उनका मज़ाक उड़ा रहा है. आखिर जो व्यक्ति अँधा हो वह मूवी कैसे देखेगा? वे नाराज़ होते हुए बोले; "संजय यह कौन धृष्ट है जो मेरी हँसी उड़ा रहा है?"
संजय बोले; "महाराज यह एक चलचित्र अभिनेता है जो अपनी मूवी का विज्ञापन करते नहीं थक रहा. इसने पूरी पृथ्वी पर सबको परेशान करके रख दिया है. यह चाहता है कि आप इसकी मूवी देखें."
महाराज धृतराष्ट्र को बहुत गुस्सा आया. बोले; "क्या इसे यह नहीं मालूम कि मैं देख नहीं सकता?"
संजय अभी कुछ बोलते कि वह अभिनेता बोला; "महाराज आप केवल बैठे रहिये. संजय जी पूरी मूवी का वर्णन आपके सामने रखते जायेंगे. आप उसे फील करते रहिएगा. और हाँ, छम्मक छल्लो को अच्छी तरह से फील करियेगा. अब मैं जा रहा हूँ. मुझे पांडवों के शिविर में भी अपनी मूवी का विज्ञापन करना है."
इतना कहकर संजय की स्क्रीन से वह गायब हो गया. महाराज रात्रिकालीन शो का इंतजार करने लगे.
जामवंत जी ने हनुमान जी को याद दिलाया कि वे उड़ सकते हैं. बड़े-बुजुर्ग हमेशा से परोपकारी रहे हैं. उन्हें तो बस परोपकार करने का मौका चाहिए. वे कभी पीछे नहीं हटेंगे. दरअसल एक उम्र पर पहुंचकर उन्हें इसके अलावा कुछ और करना न तो आता है और न ही भाता है. जामवंत जी भी इसके अपवाद नहीं थे. हनुमान जी ने जामवंत जी को थैंक्स कहा और श्रीलंका की उड़ान भर ली. बैकग्राऊंड से रवींद्र जैन अपनी सुरीली आवाज़ में गाये जा रहे हैं; "राममन्त्र के पंख लगाकर हनुमत भरे उड़ान...हनुमत भरे उड़ान."
उधर हनुमान जी अपने दोनों पाँव ठीक वैसे ही ऊपर-नीचे करते उड़े जा रहे हैं जैसे पलंग पर पेट के बल लेटा डेढ़ साल का बच्चा अपने पाँव ऊपर-नीचे करता है. देखकर कोई भी बता सकता है कि वे इस समय ज्यादा ऊपर नहीं उड़ रहे हैं क्योंकि मौसम सुहाना है. बादल ऊंचाई पर हैं. रास्ता साफ़ है. दूर-दूर तक सबकुछ दिखाई दे रहा है. लिहाज़ा सामने से आते किसी राक्षस या वायुयान से टकराने की सम्भावना नगण्य है. सूर्य भगवान का पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम स्ट्रॉंग है इसलिए वे अपनी रोशनी पूरे संसार को बांटे जा रहे हैं. हिंद महासागर नीचे अविरल बहता जा रहा है.
हनुमान जी एकाग्र-चित्त उड़े जा रहे है. ठीक वैसे ही जैसे राहुल द्रविड़ पिच पर एकाग्र-चित्त होकर ऑफ स्टंप से बाहर जानेवाली गेंदों को बिना किसी छेड़-छाड़ के छोड़ दिया करते हैं. देखकर ही लग रहा है कि उन्हें उड़ने में बहुत मज़ा आ रहा है. वे किसी बच्चे की सी मुखमुद्रा लिए आनंदित दिखाई दे रहे हैं. अचानक देखते क्या हैं कि समुद्र में से सामने एक विशालकाय महिला उभरी. उसने बड़ा वीभत्स मेक-अप किया है. बड़े-बड़े बाल, माथे पर बहुत बड़ी बिंदी, मुँह के दोनों कोनों पर बड़े-बड़े तिरछे दांत और बड़ी गाढ़ी होठ-लाली से लैस यह महिला हनुमान जी के रास्ते में मुँह बाए खड़ी हो गई. उसे देख हनुमान जी ने खुद को उसके मुँह के आगे हवा में ही पार्क कर लिया. वह महिला जोर-जोर से हा हा हा करके हँसी. उसकी हँसी उसके मेक-अप से मेल खा रही है.
हनुमान जी ने उसे प्रश्नवाचक मुद्रा में देखा. उस महिला को लगा कि अब समय आ गया है कि वह अपना परिचय दे. उसने कहा; "मैं सुरसा हूँ. हा हा हा हा हा."
उसकी हँसी सुनकर कोई भी कह सकता है कि शायद उसे सुरसा होने पर बड़ा गर्व है. वैसे यह भी कह सकता है कि जैसे हनुमान जी उड़ना एन्जॉय करते हैं वैसे ही सुरसा हँसना एन्जॉय करती है. उसकी हँसी सुनकर हनुमान जी ने कहा; "वह तो ठीक है लेकिन आप इतना हँस क्यों रही हैं?"
सुरसा बोली; "हँसी ही मेरी पहचान है. मैं जब तक नहीं हँसती लोग़ मुझे राक्षसी समझते ही नहीं. अब तुम्ही सोचो कि अगर मैं हँसना बंद कर दूँ तो कौन मुझे सीरियसली लेगा?"
उसकी बात शायद हनुमान जी की समझ में आ गई इसीलिए उन्होंने उसकी हँसी की बाबत और कोई सवाल नहीं किया. आगे बोले; "लेकिन मुझसे क्या चाहती हो?"
वो बोली; "आज देवताओं ने तुम्हें मेरा आहार बनाकर भेजा है. आशा है मेरी बात तुम्हारी समझ में आ गई होगी. नहीं आई हो तो फिर मैं काव्य में सुनाऊं कि; आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा..."
उसकी बात सुनकर हनुमान जी डर गए. उन्होंने सोचा जल्दी से हाँ कर दें नहीं तो कहीं ऐसा न हो कि यह अपनी बात काव्य में सुनाना शुरू करे तो साथ में आगे-पीछे की दस-पंद्रह चौपाई और सुना दे. आखिर उन्हें भी पता है कि कविता सुनाने वाला अगर सुनाने के मोड में आ जाए तो फिर सामनेवाले के ऊपर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ता है.
वे झट से बोले; "नहीं-नहीं मैं समझ गया. लेकिन हे माता अभी तो मैं भगवान श्री राम के कार्य हेतु श्रीलंका जा रहा हूँ. इसलिए आप मुझे छोड़ दें. मुझे बहुत बड़ा कार्य करना है. माता सीता की खोज करनी है. हे माता आप समझ गईं या काव्य में बताऊँ कि; "राम काजु करि फिरि मैं आवौं...."
हनुमान जी की बात सुनकर अब डरने की बारी सुरसा जी की थी. वे बोलीं; "समझ गई मैं. तुम्हारी बात पूरी तरह से मेरी समझ में आ गई."
अभी वे बात कर ही रहे थे कि आस-पास बकरी की सी आवाज़ सुनाई दी. हनुमान जी और सुरसा दोनों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि समुद्र के ऊपर इस समय बकरी कहाँ से आ सकती है? वे इस आवाज़ के बारे में अभी सोच ही रहे थे कि उन्होंने देखा कि उनके सामने सूट-बूट पहने, छोटी सी चोटी बांधे एक मनुष्य खड़ा हुआ है.
उसने हनुमान जी को प्रणाम किया और बोला; "हे बजरंगबली, आप तो श्रीलंका जा रहे हैं. मैं यह बताने आया था कि मेरी फिल्म रा-वन कोलम्बो के सैवोय थियेटर में रिलीज होनेवाली है. आप से रिक्वेस्ट है कि आप वह फिल्म ज़रूर देखें."
इस मनुष्य को देखकर शायद हनुमान जी पहचान गए. बोले; "अरे तुम तो वही हो न जो परसों किष्किन्धा के आस-पास के इलाके में अपनी फिल्म का प्रचार करने वाये थे? महाराज सुग्रीव की सेना के कई बानर उसदिन अपना कर्त्तव्य भुलाकर तुम्हारा नाच-गाना देखने चले गए थे?"
उनकी बात सुनकर वह मनुष्य बोला; "हाँ, भगवन मैं वही हूँ. दरअसल मैं अपनी मूवी का प्रचार करने आपके इलाके में गया था. मेरा आपसे अनुरोध है कि आप मेरी मूवी ज़रूर देखें."
इस बार हनुमान जी बिदक गए. बोले; "तुमने पिछले वर्षा ऋतु से ही परेशान करके रख दिया है. जहाँ दृष्टि जाती है बस तुम्ही दिखाई देते हो. चित्रकूट हो या किष्किन्धा, अयोध्या हो या जनकपुर सब जगह तुम्ही दिखाई दे रहे हो. पागल कर दिया है तुमने सबको."
"लेकिन प्रभु, मेरी बात तो सुनिए. इस मूवी में रजनीकांत भी हैं. मैंने विदेशी गायक से इसमें गाना गवाया है. आप ज़रूर देखिएगा यह मूवी. आपको अच्छा लगेगा"; वह मनुष्य गिडगिडाने लगा.
उसकी बातें हनुमान जी को विरक्त कर रही थीं. बहुत नाराज़ होते हुए बोले; "हे माता, इस मनुष्य ने पूरी पृथ्वी पर हाहाकार मचा कर रखा है. मैं इसकी मूवी देखूँ उससे अच्छा तो यह होगा कि आप मुझे अपना आहार बना लें. माता सीता की खोज अंगद कर लेंगे."
कट टू द्वापर युग.
महाभारत की लड़ाई चल रही है.
महाराज धृतराष्ट्र के सारथी संजय उन्हें युद्ध के मैदान से आँखों देखा हाल बता रहे हैं. अचानक देखते क्या हैं कि उनकी स्क्रीन पर महाभारत की लड़ाई दिखनी बंद हो गई. सामने सूट-बूट में लैस एक मनुष्य नृत्य करते हुए गाने लागा; छम्मक छल्लो...चम्मक छल्लो..."
संजय की समझ में नहीं आ रहा कि यह कौन है? अभी वे कुछ सोच पाते कि आवाज़ आई; "महाराज धृतराष्ट्र की जय हो. महराज आज दिन भर युद्ध की रनिंग कमेंट्री सुनकर जब आप थक जायें तो आज रात्रिकालीन शो में मेरी मूवी रा-वन देखना न भूलें. बहुत बढ़िया मूवी है. बहुत पैसा खर्च करके मैंने यह मूवी बनाई है. आप आनंद से सरा-बोर हो जायेंगे."
उसकी आवाज़ सुनकर धृतराष्ट्र को लगा कि यह कौन है जो उनका मज़ाक उड़ा रहा है. आखिर जो व्यक्ति अँधा हो वह मूवी कैसे देखेगा? वे नाराज़ होते हुए बोले; "संजय यह कौन धृष्ट है जो मेरी हँसी उड़ा रहा है?"
संजय बोले; "महाराज यह एक चलचित्र अभिनेता है जो अपनी मूवी का विज्ञापन करते नहीं थक रहा. इसने पूरी पृथ्वी पर सबको परेशान करके रख दिया है. यह चाहता है कि आप इसकी मूवी देखें."
महाराज धृतराष्ट्र को बहुत गुस्सा आया. बोले; "क्या इसे यह नहीं मालूम कि मैं देख नहीं सकता?"
संजय अभी कुछ बोलते कि वह अभिनेता बोला; "महाराज आप केवल बैठे रहिये. संजय जी पूरी मूवी का वर्णन आपके सामने रखते जायेंगे. आप उसे फील करते रहिएगा. और हाँ, छम्मक छल्लो को अच्छी तरह से फील करियेगा. अब मैं जा रहा हूँ. मुझे पांडवों के शिविर में भी अपनी मूवी का विज्ञापन करना है."
इतना कहकर संजय की स्क्रीन से वह गायब हो गया. महाराज रात्रिकालीन शो का इंतजार करने लगे.
Saturday, October 8, 2011
चंदू'ज एक्सक्लूसिव चैट विद पैरिस हिल्टन...
पैरिस हिल्टन भारत आईं. वैसे अब यह नॉर्मल बात हो गई है. कोई न कोई भारत आता ही रहता है. पैरिस नहीं आती तो ब्रिटनी आ जाती. ब्रिटनी नहीं आती तो अंजेलिना जोली आ जाती. अपने यहाँ आनेवालों की कमी नहीं है. पिछले साल इन्ही दिनों सुश्री पामेला एन्डरसन आई थीं. अभी हाल ही में शोएब अख्तर अपना किताबी मंजन बेंचने आये थे. उसके लिए उन्होंने सचिन को बिना कुछ दिए अपना ब्रांड अम्बेसेडर बना लिया. पैरिस भी आईं थीं कुछ बेंचने ही. पता चला बैग बेचने आई थीं.
मेरे कहने का मतलब यह था कि अब हम ऐसे कंज्यूमर देश हो चुके हैं कि आनेवाले लोगों की कमी नहीं है.
कई लोगों ने मुझसे कहा कि चंदू को भेजकर पैरिस हिल्टन का इंटरव्यू लूँ. अब मैं ठहरा ब्लॉगर. अगर अपने पाठकों के आदेश का पालन न करूं तो ब्लॉगर-धर्म का निर्वाह कैसे करूँगा? मैंने चंदू को मुंबई भेज तो दिया लेकिन इंटरव्यू लेकर आने में उसने काफी समय लगा दिया. वैसे तो उसने बताया कि वह मुंबई भ्रमण कर रहा था इसलिए देर हो गई लेकिन सूत्रों ने बताया कि उसने फिल्म निर्माताओं से मुलाक़ात की है. शायद फ़िल्मी लेखक बनने का प्लान है उसका.
खैर, पेश है चंदू इन एक्सक्लूसिव चैट विद पैरिस हिल्टन.
चंदू: पेरिश जी नमस्कार.
पैरिस हिल्टन: चंदू जी, पेरिश मत कहो न. पेरिश का मतलब कुछ और ही होता है. पेरिश कहने से लगता है जैसे में...
चंदू: (सकपकाते हुए) सॉरी सॉरी मैडम. मैं समझ गया. मुझको याद आ गया कि डिक्शनरी में पेरिश का मतलब सड़ जाना होता है. माफ़ कीजियेगा.
पैरिस हिल्टन: कोई बात नहीं.
चंदू: सबसे पहले तो ये बताइए मैडम कि इंडिया आकर कैसा लग रहा है?
पैरिस हिल्टन: चंदू जी, आप तो ब्लॉग पत्रकार हैं. आप तो कभी टीवी पत्रकार नहीं रहे. फिर भी आप "आपको कैसा लग रहा है" टाइप सवाल कर रहे हैं?
चंदू: वो क्या है मैडम कि यह सवाल भारतीय जर्नलिस्ट का शास्वत सवाल है. अगर यह पूछा न जाय तो इंटरव्यू की तो जाने दें, बाईट भी नहीं पूरी होती. वैसे मैडम जी, हम बहुत खुश हुए कि आपको हमारे बारे में इतना पता है. हम इमोशनल टाइप हो गए यह जानकर कि आपको हमारे बारे में भी पता है.
पैरिस हिल्टन: अरे चंदू जी, हमें पता नहीं रहेगा आपके बारे में? हम सब कुछ जांच-परख कर इंटरव्यू के लिए राजी होते हैं. अब आप यही देख लें कि एक अंग्रेजी ब्लॉग से रिक्वेस्ट आई थी कि हम उन्हें भी इंटरव्यू दें लेकिन हमने मना कर दिया. हमारे एजेंट ने बताया कि उस ब्लॉगर ने अपने ब्लॉग पर हमारे ऊपर पोस्ट लिखी है लेकिन फोटो लगाई है बिनोद काम्बली की. अब आप ही बताइए, यह ठीक है क्या? हमारे अमेरिका में लोग़ सुनेंगे तो क्या कहेंगे? और आपके बारे में कौन नहीं जानता? आपने हमारे प्रेसिडेंट का इंटरव्यू लिया था. ...वैसे अब मैं आपके सवाल का जवाब देती हूँ. इंडिया आकर मुझे बहुत अच्छा लग रहा है.
चंदू: यह अच्छी बात है मैडम. इंडिया आकर बाहरवालों को अब अच्छा ही लगता है. पहले की बात और थी जब बाहर वालों को इंडिया आने पर खराब के साथ-साथ कभी-कभी पत्थर तक लग जाता था.
पैरिस हिल्टन: अरे नहीं, हमें तो बहुत अच्छा लगा.
चंदू: वैसे इंडिया आने से पहले आपने क्या-क्या तैयारी की?
पैरिस हिल्टन: बहुत तैयारी की. बिना तैयारी के मैं कहीं नहीं जाती. दो दिन तो मैंने दोनों हाथ जोड़कर नमास्टे बोलने की प्रैक्टिस की. फिर दो दिन मैंने दो लाइन; "इंडिया इज अ ग्रेट नेशन.....वेस्ट ओ सो मच टू इंडिया" जैसे सेंटेंस याद किये. मेरे एजेंट ने तो कहा कि मैं गूगल करके महात्मा गांधी के बारे में भी जान लूं लेकिन उसदिन पार्टी में देर हो जाने के कारण मैं उसकी बात भूल गई.
चंदू: आप तो सचमुच बहुत तैयारी से आई हैं. वैसे मेरे मन में एक सवाल है पेरिश जी. आप असल में क्या हैं?
पैरिस हिल्टन: चंदू जी, पेरिश मत कहो न. पेरिश सुनने से लगता है...
चंदू: सॉरी सॉरी मैडम, मैं फिर से भूल गया. वैसे मेरा सवाल यह था कि आप क्या हैं? मॉडल हैं, टीवी एक्टर हैं, सिनेमा एक्टर हैं, होटल मालकिन हैं....आप हैं क्या? हम आपको क्या समझें?
पैरिस हिल्टन: गुड क्वेश्चन चंदू जी. वैसे ये बताइए कि आप मुझे समझना क्यों चाहते हैं?
चंदू: (सकपकाते हुए) वो अब मैं कैसे बताऊँ आपको? मेरा मतलब यह था हम क्या मानें कि आप क्या हैं?
पैरिस हिल्टन: यह तो बड़ा कठिन सवाल कर दिया आपने. आजतक हमें भी नहीं पता चला कि मैं क्या हूँ. दरअसल में खुद को खोज रही हूँ. इसीलिए मैं हमेशा बदलती रहती हूँ. अब किसे पता कि कौन से किरदार में खुद को खोज लूँ? इसीलिए मैं कभी ये बनती रहती हूँ तो कभी वो. आप समझ रहे हैं न? वैसे भी आप तो फिलास्फी और योगा के देश के हैं तो आशा है कि आपको मेरी बात समझ में आ गई होगी.
चंदू: हाँ-हाँ समझ में आ गई. आपकी बात समझ में आ गई. वैसे ये बताएं कि आप इस बार इंडिया क्यों आई हैं?
पैरिस हिल्टन: मैं बैग बेचने आई हूँ. मैंने एक बैग लॉन्च किया तो सोचा कि इसे इंडिया में बेंचा जाय.
चंदू: लेकिन आपको क्यों लगा कि इंडिया में आपका बैग बिक जाएगा?
पैरिस हिल्टन: वो अभी हाल ही में आपके फिनांस मिनिस्टर हमारे देश में थे. उन्होंने वहाँ बताया कि इंडिया एट प्वाइंट फाइव परसेंट से ग्रो करेगा. उनकी बात हमारे एजेंट ने कहीं सुन ली और हमसे बोला कि अगर ऐसा है तो सारा रुपया तो इंडिया में होगा. और अगर सारा रुपया इंडिया में होगा तो उसे रखने के लिए बैग की सबसे ज्यादा ज़रुरत इंडिया के लोगों को होगी. ऐसे में इंडिया मेरे बैग के लिए सबसे बड़ा मार्केट है.
चंदू: बहुत बढ़िया. और आप यहाँ आई हैं तो किस-किस से मिलना चाहेंगी आप?
पैरिस हिल्टन: मैं राखी सावंत से मिलना चाहूँगी. मैंने उनके बारे में बहुत सुना है. हमारे देश में मुझे लोग़ यूएस का राखी सावंत कहते हैं तो मैंने सोचा कि इस महान हस्ती से मिलना चाहिए मुझे. और मिलने की बात है तो मेरे पास सिमी गरेवाल के शो पर जाने की ऑफर आई थी लेकिन मेरे एजेंट ने जाने से मना कर दिया. मैंने सुना है कि उनके शो पर चाहे हमारे प्रेसिडेंट ओबामा भी चले जायें तो भी लोग़ सिमी गरेवाल को ही देखेंगे. अब आप ही बताएं कि ऐसे शो पर जाने का क्या फायदा?
चंदू: आपने बिलकुल सही कहा मैडम. एक बार क्या हुआ कि एक बहुत बड़ा टीवी पत्रकार, मैं नाम नहीं लेना चाहूँगा, वह सिमी गरेवाल के शो पर गया और वापस आकर मुँह लटका कर बैठ गया. तीन दिन तक घर से नहीं निकला. बाद में लोगों ने पूछ तो उसने बताया कि सिमी के शो पर लोग़ उसे नहीं बल्कि सिमी गरेवाल को देख रहे थे. आपने बिलकुल ठीक किया. वैसे एक सवाल यह था मैडम कि सुना कि आपने एक भिखारी को सौ डॉलर दिए? क्या यह सच है?
पैरिस हिल्टन: हाँ यह सच है.
चंदू: आपने भिखारी के साथ फोटो भी खिंचाया या नहीं?
पैरिस हिल्टन: चंदू जी, आपतो जानते ही हैं. मैंने उसके साथ फोटो खिंचाने के लिए ही तो उसे पैसे दिए. हमें हमारी फोटो बहुत प्यारी लगती हैं. और मैं अपने फोटो के लिए कुछ भी कर सकती हूँ.
चंदू: वैसे मैडम एक सवाल था. सुना है आप कन्वर्ट हो गई हैं और आपने इस्लाम धर्म क़ुबूल कर लिया है?
पैरिस हिल्टन: क़ुबूल तो हम कुछ नहीं करते चंदू जी. हाँ, कन्वर्ट हो सकते हैं. हे हे हे ....आप समझ रहे हैं न.
चंदू: हाँ-हाँ, मैडम मैं समझ गया. वैसे आख़िरी सवाल यह था कि आपन अगली बार कब आएँगी इंडिया? और क्या बेचने आएँगी?
पैरिस हिल्टन: हे हे हे..चंदू जी आप तो जानते ही हैं. हम अमेरिका वाले हैं. ऐसे में बेचने के लिए हमारे पास बहुत कुछ है. जब इच्छा हुई कुछ न कुछ बेंचने वापस आ जायेंगे.
चंदू: अगली बार आएँगी तो मैं मिलूंगा मैडम आपसे. फिर से ज़रूर इंटरव्यू दीजियेगा.
पैरिस हिल्टन: अरे चंदू जी, ज़रूर. आपके लिए तो मेरी...
चंदू: मेरी क्या? मेरी क्या मैडम? आपके लिए मेरी क्या?
पैरिस हिल्टन: अरे अरे...मेरा मतलब यह था कि आपके लिए मेरी इंटरव्यू भी हाज़िर है.
चंदू: मेरी इंटरव्यू नहीं मैडम, मेरा इंटरव्यू. ओके मैडम आपको धन्यवाद.
पैरिस हिल्टन: ओके धान्यवाद. नमास्टे.
Thursday, October 6, 2011
यहाँ का रावण इतना छोटा है कि इसे तो शत्रुघ्न ही मार लेंगे...
आज विजयदशमी है. सुनते हैं भगवान राम ने आज ही के दिन (ग़लत अर्थ न निकालें. आज ही के दिन का मतलब ९ अक्टूबर नहीं बल्कि दशमी) रावण का वध किया था. अपनी-अपनी सोच है. कुछ लोग कहते हैं आज विजयदशमी इसलिए मनाई जाती है कि भगवान राम आज विजयी हुए थे. कुछ लोग ये भी कहते हुए मिल सकते हैं कि आज रावण जी की पुण्यतिथि है. आँखों का फरक है जी.
हाँ तो बात हो रही थी कि आज विजयदशमी है और आज ही के दिन राम ने रावण का वध कर दिया था. आज ही के दिन क्यों किया? इसका जवाब कुछ भी हो सकता है. ज्योतिषी कह सकते हैं कि उसका मरना आज के दिन ही लिखा था. यह तो विधि का विधान है. लेकिन शुकुल जी की बात मानें तो ये भी कह सकते हैं कि भगवान राम और उनकी सेना लड़ते-लड़ते बोर हो गई तो रावण का वध कर दिया.
आज एक विद्वान् से बात हो रही थी. बहुत खुश थे. बोले; "भगवान राम न होते तो रावण मरता ही नहीं. वीर थे राम जो रावण का वध कर पाये. अरे भाई कहा ही गया है कि जब-जब होई धरम की हानी...."
उन्हें देखकर लगा कि सच में बहुत खुश हैं. रावण से बहुत घृणा करते हैं. राम के लिए इनके मन में सिर्फ़ और सिर्फ़ आदर है. लेकिन उन्होंने मेरी धारणा को दूसरे ही पल उठाकर पटक दिया. बोले; "लेकिन देखा जाय तो एक तरह से धोखे से रावण का वध किया गया. नहीं? मेरे कहने का मतलब विभीषण ने बताया कि रावण की नाभि में अमृत है तब जाकर राम भी मार पाये. नहीं तो मुश्किल था. और फिर राम की वीरता तो तब मानता जब वे बिना सुग्रीव और हनुमान की मदद लिए लड़ते. देखा जाय तो सवाल तो राम के चरित्र पर भी उठाये जा सकते हैं."
उनकी बात सुनकर लगा कि किसी की प्रशंसा बिना मिलावट के हो ही नहीं सकती. राम की भी नहीं. यहाँ सबकुछ 'सब्जेक्ट टू' है.
शाम को घर लौटते समय आज कुछ नया ही देखने को मिला. इतने सालों से कलकत्ते में रहता हूँ लेकिन आज ही पता चला हमारे शहर में भी रावण जलाया जाता है. आज पहली बार देखा तो टैक्सी से उतर गया. बड़ी उत्सुकता थी देखने की. हर साल न्यूज़ चैनल पर दिल्ली के रावण को जलते देखते थे तो मन में यही बात आती थी; "हमारे शहर में रावण क्यों नहीं जलाया जाता. भारत के सारे शहरों में रावण जलाया जाता है लेकिन हमारे शहर में क्यों नहीं? कब जलाया जायेगा? "
दिल्ली वालों से जलन होती थी ऊपर से. सोचता था कि एक ये हैं जो हर साल रावण को जला लेते हैं और एक हम हैं कि पाँच साल में भी नहीं जला पाते.
लेकिन आज जो कुछ देखा, मेरे लिए सुखद आश्चर्य था. खैर, टैक्सी से उतर कर मैदान की भीड़ का हिस्सा हो लिया. बड़ी उत्तम व्यवस्था थी. भीड़ थी, मंच था, राम थे, रावण था और पुलिस थी. हर उत्तम व्यवस्था में पुलिस का रहना ज़रूरी है. अपने देश में जनता को आजतक उत्तम व्यवस्था करते नहीं देखा.
जनता सामने खड़ी थी. जनता की तरफ़ राम थे और मंच, जहाँ कुछ नेता टाइप लोग बैठे थे, उस तरफ़ रावण था. मंच के चारों और पुलिस वाले तैनात थे. देखकर लग रहा था जैसे सारे के सारे रावण के बॉडी गार्ड हैं.
मैं भीड़ में खड़ा रावण के पुतले को देख रहा था. मन ही मन भगवान राम को प्रणाम भी किया. रावण को देखते-देखते मेरे मुंह से निकल आया; "रावण छोटा है."
मेरा इतना कहना था कि मेरे पास खड़े एक बुजुर्ग बोले; "ठीक कह रहे हैं आप. रावण छोटा है ही. इतना छोटा रावण भी होता है कहीं?"
मैंने कहा; "मुझे भी यही लगा. जब वध करना ही है तो बड़ा बनाते."
वे बोले; "अब आपको क्या बताऊँ? मैं तेरह साल दिल्ली में रहा हूँ. रावण तो दिल्ली के होते हैं. या बड़े-बड़े. कम से कम चालीस फीट के. हर साल देखकर लगता था कि इस साल का रावण पिछले साल के रावण से बड़ा है."
मैंने कहा; "दिल्ली की बात ही कुछ और है. वहां का रावण तो बहुत फेमस है. टीवी पर देखा है."
मेरी बात सुनकर उन्होंने अपने अनुभव बताने शुरू किए. बोले; "अब देखिये दिल्ली में बहुत पैसा है. वहां रावण के ऊपर बहुत पैसा खर्च होता है. और फिर वहां रावण का साइज़ बहुत सारा फैक्टर पर डिपेंड करता है."
उनकी बातें और अनुभव सुनकर मुझे अच्छा लगा. भाई कोई दिल्ली में रहा हुआ मिल जाए तो दिल्ली की बातें सुनने में अच्छा लगता है. मैंने उनसे कहा; "जैसे? किन-किन फैक्टर पर डिपेंड करता है रावण का साइज़?"
मेरा सवाल सुनकर वे खुश हो गए. शायद अकेले ही थे. कोई साथ नहीं आया था. लिहाजा उन्हें भी किसी आदमी की तलाश होगी जिसके साथ वे बात कर सकें.
'दो अकेले' मिल जाएँ, बस. दुनियाँ का कोई मसला नहीं बचेगा. मेरा सवाल सुनकर उनके चेहरे पर ऐसे भाव आए जिन्हें देखकर लगा कि बस कहने ही वाले हैं; "गुड क्वेश्चन."
लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा बल्कि बड़े उत्साह के साथ बोले; "बहुत सारे फैक्टर हैं. देखिये वहां तो रावण का साइज़ नेता के ऊपर भी डिपेंड करता है. समारोह में जितना बड़ा नेता, रावण का कद भी उसी हिसाब से बड़ा समझिये. अब देखिये कि जिस समारोह में प्रधानमन्त्री जाते हैं, उसके रावण के क्या कहने! या बड़ा सा रावण. चालीस-पचास फीट का रावण. उसके जलने में गजब मज़ा आता है. कुल मिलाकर मैंने बारह रावण देखे हैं जलते हुए. बाजपेई जी के राज में भी रावण बड़ा ही रहता था."
मैंने कहा; "सच कह रहे हैं. वैसे दिल्ली में पैसा भी तो खूब है. यहाँ तो सारा पैसा दुर्गापूजा में लग जाता है. ऐसे में रावण को जलाने में ज्यादा पैसा खर्च नहीं कर पाते."
मेरी बात सुनकर बोले; "देखिये, बात केवल पैसे की नहीं है. दिल्ली में बड़े-बड़े रावण केवल पैसे से नहीं बनते. रावण बनाने के लिए पैसे से ज्यादा महत्वपूर्ण है डेडिकेशन. कम पैसे खर्च करके भी बड़े रावण बनाये जा सकते हैं. सबकुछ डिपेंड करता है बनानेवालों के उत्साह पर. और इस रावण को देखिये. देखकर लगता है जैसे इसे मारने के लिए राम की भी ज़रूरत नहीं है. इसे तो शत्रुघ्न ही मार लेंगे."
मैंने कहा; "हाँ, वही तो मैं भी सोच रहा था. सचमुच काफी छोटा रावण है."
मेरी बात सुनकर बोले; "लेकिन देखा जाय तो अभी यहाँ नया-नया शुरू हुआ है. जैसे-जैसे फोकस बढ़ेगा, यहाँ का रावण भी बड़ा होगा..."
अभी वे अपनी बात पूरी करने ही वाले थे कि राम ने अग्निवाण दाग दिया. वाण सीधा रावण के दिल पर जाकर लगा. रावण जलने लगा.
चलिए हमारे शहर में भी रावण जलने लगा. अगले साल फिर जलेगा. फिर विजयदशमी आएगी....... और रावण की पुण्यतिथि भी.
..............................
नोट: पुरानी पोस्ट है. साल २००८ की.
हाँ तो बात हो रही थी कि आज विजयदशमी है और आज ही के दिन राम ने रावण का वध कर दिया था. आज ही के दिन क्यों किया? इसका जवाब कुछ भी हो सकता है. ज्योतिषी कह सकते हैं कि उसका मरना आज के दिन ही लिखा था. यह तो विधि का विधान है. लेकिन शुकुल जी की बात मानें तो ये भी कह सकते हैं कि भगवान राम और उनकी सेना लड़ते-लड़ते बोर हो गई तो रावण का वध कर दिया.
आज एक विद्वान् से बात हो रही थी. बहुत खुश थे. बोले; "भगवान राम न होते तो रावण मरता ही नहीं. वीर थे राम जो रावण का वध कर पाये. अरे भाई कहा ही गया है कि जब-जब होई धरम की हानी...."
उन्हें देखकर लगा कि सच में बहुत खुश हैं. रावण से बहुत घृणा करते हैं. राम के लिए इनके मन में सिर्फ़ और सिर्फ़ आदर है. लेकिन उन्होंने मेरी धारणा को दूसरे ही पल उठाकर पटक दिया. बोले; "लेकिन देखा जाय तो एक तरह से धोखे से रावण का वध किया गया. नहीं? मेरे कहने का मतलब विभीषण ने बताया कि रावण की नाभि में अमृत है तब जाकर राम भी मार पाये. नहीं तो मुश्किल था. और फिर राम की वीरता तो तब मानता जब वे बिना सुग्रीव और हनुमान की मदद लिए लड़ते. देखा जाय तो सवाल तो राम के चरित्र पर भी उठाये जा सकते हैं."
उनकी बात सुनकर लगा कि किसी की प्रशंसा बिना मिलावट के हो ही नहीं सकती. राम की भी नहीं. यहाँ सबकुछ 'सब्जेक्ट टू' है.
शाम को घर लौटते समय आज कुछ नया ही देखने को मिला. इतने सालों से कलकत्ते में रहता हूँ लेकिन आज ही पता चला हमारे शहर में भी रावण जलाया जाता है. आज पहली बार देखा तो टैक्सी से उतर गया. बड़ी उत्सुकता थी देखने की. हर साल न्यूज़ चैनल पर दिल्ली के रावण को जलते देखते थे तो मन में यही बात आती थी; "हमारे शहर में रावण क्यों नहीं जलाया जाता. भारत के सारे शहरों में रावण जलाया जाता है लेकिन हमारे शहर में क्यों नहीं? कब जलाया जायेगा? "
दिल्ली वालों से जलन होती थी ऊपर से. सोचता था कि एक ये हैं जो हर साल रावण को जला लेते हैं और एक हम हैं कि पाँच साल में भी नहीं जला पाते.
लेकिन आज जो कुछ देखा, मेरे लिए सुखद आश्चर्य था. खैर, टैक्सी से उतर कर मैदान की भीड़ का हिस्सा हो लिया. बड़ी उत्तम व्यवस्था थी. भीड़ थी, मंच था, राम थे, रावण था और पुलिस थी. हर उत्तम व्यवस्था में पुलिस का रहना ज़रूरी है. अपने देश में जनता को आजतक उत्तम व्यवस्था करते नहीं देखा.
जनता सामने खड़ी थी. जनता की तरफ़ राम थे और मंच, जहाँ कुछ नेता टाइप लोग बैठे थे, उस तरफ़ रावण था. मंच के चारों और पुलिस वाले तैनात थे. देखकर लग रहा था जैसे सारे के सारे रावण के बॉडी गार्ड हैं.
मैं भीड़ में खड़ा रावण के पुतले को देख रहा था. मन ही मन भगवान राम को प्रणाम भी किया. रावण को देखते-देखते मेरे मुंह से निकल आया; "रावण छोटा है."
मेरा इतना कहना था कि मेरे पास खड़े एक बुजुर्ग बोले; "ठीक कह रहे हैं आप. रावण छोटा है ही. इतना छोटा रावण भी होता है कहीं?"
मैंने कहा; "मुझे भी यही लगा. जब वध करना ही है तो बड़ा बनाते."
वे बोले; "अब आपको क्या बताऊँ? मैं तेरह साल दिल्ली में रहा हूँ. रावण तो दिल्ली के होते हैं. या बड़े-बड़े. कम से कम चालीस फीट के. हर साल देखकर लगता था कि इस साल का रावण पिछले साल के रावण से बड़ा है."
मैंने कहा; "दिल्ली की बात ही कुछ और है. वहां का रावण तो बहुत फेमस है. टीवी पर देखा है."
मेरी बात सुनकर उन्होंने अपने अनुभव बताने शुरू किए. बोले; "अब देखिये दिल्ली में बहुत पैसा है. वहां रावण के ऊपर बहुत पैसा खर्च होता है. और फिर वहां रावण का साइज़ बहुत सारा फैक्टर पर डिपेंड करता है."
उनकी बातें और अनुभव सुनकर मुझे अच्छा लगा. भाई कोई दिल्ली में रहा हुआ मिल जाए तो दिल्ली की बातें सुनने में अच्छा लगता है. मैंने उनसे कहा; "जैसे? किन-किन फैक्टर पर डिपेंड करता है रावण का साइज़?"
मेरा सवाल सुनकर वे खुश हो गए. शायद अकेले ही थे. कोई साथ नहीं आया था. लिहाजा उन्हें भी किसी आदमी की तलाश होगी जिसके साथ वे बात कर सकें.
'दो अकेले' मिल जाएँ, बस. दुनियाँ का कोई मसला नहीं बचेगा. मेरा सवाल सुनकर उनके चेहरे पर ऐसे भाव आए जिन्हें देखकर लगा कि बस कहने ही वाले हैं; "गुड क्वेश्चन."
लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा बल्कि बड़े उत्साह के साथ बोले; "बहुत सारे फैक्टर हैं. देखिये वहां तो रावण का साइज़ नेता के ऊपर भी डिपेंड करता है. समारोह में जितना बड़ा नेता, रावण का कद भी उसी हिसाब से बड़ा समझिये. अब देखिये कि जिस समारोह में प्रधानमन्त्री जाते हैं, उसके रावण के क्या कहने! या बड़ा सा रावण. चालीस-पचास फीट का रावण. उसके जलने में गजब मज़ा आता है. कुल मिलाकर मैंने बारह रावण देखे हैं जलते हुए. बाजपेई जी के राज में भी रावण बड़ा ही रहता था."
मैंने कहा; "सच कह रहे हैं. वैसे दिल्ली में पैसा भी तो खूब है. यहाँ तो सारा पैसा दुर्गापूजा में लग जाता है. ऐसे में रावण को जलाने में ज्यादा पैसा खर्च नहीं कर पाते."
मेरी बात सुनकर बोले; "देखिये, बात केवल पैसे की नहीं है. दिल्ली में बड़े-बड़े रावण केवल पैसे से नहीं बनते. रावण बनाने के लिए पैसे से ज्यादा महत्वपूर्ण है डेडिकेशन. कम पैसे खर्च करके भी बड़े रावण बनाये जा सकते हैं. सबकुछ डिपेंड करता है बनानेवालों के उत्साह पर. और इस रावण को देखिये. देखकर लगता है जैसे इसे मारने के लिए राम की भी ज़रूरत नहीं है. इसे तो शत्रुघ्न ही मार लेंगे."
मैंने कहा; "हाँ, वही तो मैं भी सोच रहा था. सचमुच काफी छोटा रावण है."
मेरी बात सुनकर बोले; "लेकिन देखा जाय तो अभी यहाँ नया-नया शुरू हुआ है. जैसे-जैसे फोकस बढ़ेगा, यहाँ का रावण भी बड़ा होगा..."
अभी वे अपनी बात पूरी करने ही वाले थे कि राम ने अग्निवाण दाग दिया. वाण सीधा रावण के दिल पर जाकर लगा. रावण जलने लगा.
चलिए हमारे शहर में भी रावण जलने लगा. अगले साल फिर जलेगा. फिर विजयदशमी आएगी....... और रावण की पुण्यतिथि भी.
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नोट: पुरानी पोस्ट है. साल २००८ की.
Saturday, October 1, 2011
अमन की बात करे जब, करे तकरार के साथ....
कट्टा कानपुरी की तथाकथित ग़ज़ल बांचिये. पूरे डेढ़ सौ ग्राम शुद्ध तुकबंदी है.
अमन की बात करे जब, करे तकरार के साथ,
मिला करे है गले भी, मगर तलवार के साथ.
बताये मार्क्स, माओ, लेनिन को अपना रहबर
दौड़ता रहता है वो भी, इसी बाज़ार के साथ.
वक़्त के साथ पैमाना भी खाली,महफ़िल भी
लिपटकर रोयेगा फिर वो किसी दीवार के साथ
मिटाकर चंद गरीबों को हुकूमत समझे
मुल्क अब दौड़ेगा तेजी से इस संसार के साथ
न समझा है, न समझेगा वो खामोशी की ताक़त
पड़ोसी फिर मिलेगा झूठी इक ललकार के साथ
हमें उम्मीद थी जिससे कि, उठाएगा सवाल
दिखाई रोज देता है वही सरकार के साथ
समझते हैं सभी 'कट्टा' को सितमगर लेकिन
खड़ा मिलेगा हमेशा किसी हकदार के साथ
अमन की बात करे जब, करे तकरार के साथ,
मिला करे है गले भी, मगर तलवार के साथ.
बताये मार्क्स, माओ, लेनिन को अपना रहबर
दौड़ता रहता है वो भी, इसी बाज़ार के साथ.
वक़्त के साथ पैमाना भी खाली,महफ़िल भी
लिपटकर रोयेगा फिर वो किसी दीवार के साथ
मिटाकर चंद गरीबों को हुकूमत समझे
मुल्क अब दौड़ेगा तेजी से इस संसार के साथ
न समझा है, न समझेगा वो खामोशी की ताक़त
पड़ोसी फिर मिलेगा झूठी इक ललकार के साथ
हमें उम्मीद थी जिससे कि, उठाएगा सवाल
दिखाई रोज देता है वही सरकार के साथ
समझते हैं सभी 'कट्टा' को सितमगर लेकिन
खड़ा मिलेगा हमेशा किसी हकदार के साथ
Saturday, September 24, 2011
कल को तेरा भी घर जेलखाना हुआ तो? ...
कट्टा कानपुरी की ताज़ी ग़ज़ल पढी जाय.
अगर आप को लगे कि इस मीटर की ग़ज़ल आपने पहले कहीं पढ़ी है तो यह समझें कि वो महज एक संयोग है और संयोग से बढ़कर और कुछ नहीं. कट्टा कानपुरी केवल ओरिजिनल गज़लें लिखते हैं. वैसे कानपुर से लखनऊ ज्यादा दूर नहीं है:-)
.................................................
जो उसका है वो तेरा भी अफसाना हुआ तो,
कल को तेरा भी घर जेलखाना हुआ तो?
तू आज तो बचने की जुगत खूब करो हो,
मज़मून नोट वाला कातिलाना हुआ तो?
तुझको भी ठेल देगा वो इक सेल देखकर,
पकड़ेगा जो तुझे वो दीवाना हुआ तो?
जेलों की जियारत का सफ़र कल को करोगे,
जेलों के रास्ते में गर मयखाना हुआ तो?
तेरे तो आस-पास वैसे हैं सभी हलकट,
उनमें भी अगर कोई शरीफाना हुआ तो?
देगी तेरा वो साथ कहे दोस्तों की फौज
लेकिन कोई गर उनमें भी बेगाना हुआ तो?
सालों से खाते आया है तू मालपुआ-खीर
खाने को मिले कल जो रामदाना हुआ तो?
'कट्टा' को आज समझे है तू दुश्मन-ए-जानी,
लेकिन उसी से कल को याराना हुआ तो?
अगर आप को लगे कि इस मीटर की ग़ज़ल आपने पहले कहीं पढ़ी है तो यह समझें कि वो महज एक संयोग है और संयोग से बढ़कर और कुछ नहीं. कट्टा कानपुरी केवल ओरिजिनल गज़लें लिखते हैं. वैसे कानपुर से लखनऊ ज्यादा दूर नहीं है:-)
.................................................
जो उसका है वो तेरा भी अफसाना हुआ तो,
कल को तेरा भी घर जेलखाना हुआ तो?
तू आज तो बचने की जुगत खूब करो हो,
मज़मून नोट वाला कातिलाना हुआ तो?
तुझको भी ठेल देगा वो इक सेल देखकर,
पकड़ेगा जो तुझे वो दीवाना हुआ तो?
जेलों की जियारत का सफ़र कल को करोगे,
जेलों के रास्ते में गर मयखाना हुआ तो?
तेरे तो आस-पास वैसे हैं सभी हलकट,
उनमें भी अगर कोई शरीफाना हुआ तो?
देगी तेरा वो साथ कहे दोस्तों की फौज
लेकिन कोई गर उनमें भी बेगाना हुआ तो?
सालों से खाते आया है तू मालपुआ-खीर
खाने को मिले कल जो रामदाना हुआ तो?
'कट्टा' को आज समझे है तू दुश्मन-ए-जानी,
लेकिन उसी से कल को याराना हुआ तो?
Thursday, September 22, 2011
ऐ मेरे दाता.....
गाने के रियलिटी-शो में दस साल के बच्चे ने हारमोनियम बजाते हुए एक ग़ज़ल इस तरह से गाई जैसे बड़े-बड़े उस्ताद गाते हैं. उसने मेंहदी हसन स्टाइल में ग़ज़ल के शेरों को सुर और मुर्कियों के बल पर पहले तो कंट्रोल में लिया फिर उन्हें पटका. उसके बाद उनका कॉलर पकड़ कर उनके ऊपर चढ़ बैठा. काफी देर तक वह उन्हें तरह-तरह से रगेदता रहा. कुछ मिनटों तक ग़ज़ल पर आवाज़ की ठनक, सरगम की सनक और राग का प्रहार होता रहा. जैसे-जैसे उसपर बच्चे का आक्रमण बढ़ता जा रहा था, ग़ज़ल के शेर कमज़ोर पड़ते जा रहे थे. दर्शक ताली बाजा रहे थे और जज-गुरु लोग़ बच्चे की आवाज़ के अनुसार अपना हाथ ऐसे ऊपर-नीचे कर रहे थे जैसे कोई बच्चा हवा में हाथों की गाड़ी बनाकर उसे उड़ाता है.
एक समय ऐसा आया जब लगा कि बेचारे शेर अब पूरी तरह से पस्त हो चुके हैं. उनमें अब कोई जान नहीं रही कि गायक बच्चा उन्हें और रगेदे. समय सीमा, समय का अभाव या फिर शायद ग़ज़ल के माफीनामे की वजह से बच्चे ने प्लेटफॉर्म पर धीरे-धीरे रुकने वाली रेलगाड़ी स्टाइल में अपना गाना रोका. स्टैंडिंग ओवेशन की बहार आ गई. ऐंकर ने बच्चे को दोनों हाथों से उठा लिया. महागुरु आश्चर्यचकित होने की अपनी चिर-परिचित मुख मुद्रा लुटाने लगीं. कुल मिलाकर विकट रियलटीय टेलीविजन के दर्शन होने लगे.
कुछ देर तक बच्चे को अपनी गोद में रखने के बाद ऐंकर ने उसे नीचे उतारा और अपने ऐन्करीय धर्म का पालन करते हुए शुरू हो गया; "गुरु कैलाश? क्या कहना चाहेंगे आज आप?"
गुरु कैलाश चूल्हे पर रखे पानी के पहले उबाल की तरह शुरू होना ही चाहते थे लेकिन शब्दों की शॉर्ट-सप्लाई के कारण अदबदा गए. कुछ क्षणों तक अ ब स करने के बाद और काफी मशक्कत और खोजबीन के बाद जब कुछ शब्द उनके मुँह लगे तो वे शुरू हो गए; "आज~~~ मैं मेरे दाता से कहना चाहूँगा कि ऐ मेरे दाता, ऐ मेरे मालिक, ऐ मेरे भगवान इन्हें ऐसे ही रखना. इनके ऊपर कृपा करना. मैं तो कहूँगा कि आज मेरे दाता ने इन्हें अपना आशीर्वाद दिया...ये भटकने न पाए... आज इनका यश, इनका ऐश्वर्य पूरी दुनियाँ देख रही है. बच्चे तो भगवान की मूरत होते हैं. 'प्रथ्वी' पर आज इनका जो नाम हो गया है.... आज पूरा ब्रह्माण्ड इन्हें दुआएं दे रहा है. तो ऐ मेरे दाता.......महागुरु, आज तो इसने बावला कर दिया."
जज-गुरु की गलती नहीं है. वे और क्या करेंगे जब ऐसे बिकट टैलेंटेड बच्चे प्रतियोगी बनकर स्टेज पर उतर जायेंगे और सुरों के चौके-छक्के जड़ने लगेंगे? टैलेंटेड, मेहनती और इतने परफेक्ट कि सुनकर मन में आता है जैसे इनका गला बाकायदा ऑर्डर देकर बनवाया गया है. पॉवर-पॉइंट प्रजेंटेशन के बाद. बिलकुल परफेक्ट. कहीं कोई दोष नहीं. हाँ, परफेक्ट होने के चक्कर में इन बच्चों ने अपना बचपना कहाँ और किसके पास गिरवी रख छोड़ा है वह शोध और जांच, दोनों का विषय है. अगर शोध या जांच के बाद यह पता चल भी जाए कि कहाँ और किसके पास रखा गया है तो भी उस बचपने को वापस पाने का कोई अर्थ नहीं क्योंकि तबतक ये इतने उस्ताद हो चुके होते हैं कि इन्हें बचपने और मासूमियत के तीर-कमान की ज़रुरत ही नहीं रहती.
गुरु, महागुरु, गेस्ट गुरु, बैंड वाले, दर्शक, संगीत प्रेमी वगैरह इन बच्चों को देखकर दाँतों तले ऊँगली दबाते हैं. और फिर ऐसा क्यों न हो? दस साल के बच्चे के मुँह से राहत फ़तेह अली खान की आवाज़ इस तरह से निकलती है कि अगर वे सुन लें तो सोचने लग जायें कि; 'ये बच्चा मुझसे मेरी आवाज़ कब चुरा ले गया?' सुनने वालों को यह भी लग सकता है कि 'दो-तीन महीने के लिए ये बच्चा राहत बाबू का गला उधार मांग लाया है.'
न तो इन बच्चों की आवाज में कोई कमी है और न ही हुनर में. अगर किसी ऑड-डे पर ख़ुदा न खास्ता इनसे कोई गलती हो जाती है तो जज साहब उन्हें बताते हैं कि; "ये जो हरकत-उल-आवाज़ तुमने ऐसे ली थी, उसे गाने में रफ़ी साहब ने वैसे लिया है", या फिर; "तुमने गाने को चार से उठाया. अगर तीन से उठाया होता तो जो ऊंची आवाज़ में तुम्हारा सुर गया, वह नहीं जाता."
सब तरह के नुक्श निकाल कर भी जज-गुरु यह कहना नहीं भूलते कि; "फिर भी तुमने कमाल का गाया."
गेस्ट-गुरु के रूप में आया कोई संगीतकार बच्चे को बताना नहीं भूलता कि उसकी आवाज़ रेकॉर्डिंग स्टूडियो के लिए ही बनी है. साथ ही वादा भी कर डालता है कि दो साल बाद वह अपने सारे गाने उसी बच्चों से गवायेगा. पूरे सेट पर ख़ुशी का मौसम आ जाता है. कई-कई बार तो इतनी ख़ुशी आ जाती है कि डर लगता है कि सेट की दीवारें फट न पड़ें. जितना खुश वह बच्चा नहीं होता उससे ज्यादा उसके माँ-बाप खुश होते हैं. ठीक वैसे ही एलिमिनेशन पर बच्चा जितना दुखी नहीं रहता उससे ज्यादा उसके माँ-बाप दुखी होते हैं. उन्हें देखकर लगता है जैसे अब इनका जीवन व्यर्थ हो गया. इनके ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है और अब ये इससे कैसे उबरेंगे?
इन बच्चों में परफेक्शन, गुण, मेहनत, कला वगैरह वगैरह कूट-कूट कर भर गए है.
लेकिन जो चीज इन्हें छोड़कर चली गई है उसकी बात?
जब से हमने तय किया है कि हम अपने देश को इकॉनोमिक सुपर पॉवर और सामरिक दृष्टि से भी महाशक्ति बनायेंगे तबसे देश में रियलिटी शो की संख्या में दिन दूनी नहीं तो रात में चौगुनी वृद्धि तो ज़रूर हुई है. तरह-तरह के विषयों पर रियलिटी शो बनाये जा रहे हैं. यहाँ तक कि अच्छे-खासे घर-दुआर वाले लोग़ जंगलों में जाकर वास कर रहे हैं ताकि रियलिटी शो बन सके. कई लोग़ सांप-छछूंदर, केकड़े-अजगर के साथ खुद को कांच के डब्बे में कैद कर ले रहे हैं और उन जानवरों को सता रहे हैं ताकि जानवरों को तंग करने वाली उनकी हरकतों को कैमरे में कैद करके उसे रियलिटी शो में बदला जा सके.
कई बार मन में आता है कि अच्छा हुआ जो श्री राम ने त्रेता युग में जन्म लेकर खुद को उसी युग में सरयू नदी के हवाले कर दिया. सोचिये अगर आज श्री राम खुद को सरयू नदी के हवाले करते तो क्या होता? उनके जल समाधि को लाइव टेलीकास्ट करने के लिए चैनलों में होड़ लग जाती. ये चैनल वाले एक कांख में अपनी पूरी बेशर्मी दबाये और दूसरी में रूपये की थैली लिए उनके पास एक्सक्ल्यूसिव राइट्स के लिए पहुँच जाते. गारंटी तो नहीं डे सकता लेकिन फिर भी ऐसा ज़रूर लगता है कि अगर वे आज होते तो ये रियलिटी शो वाले उनके वनवास की खबर पर उनके पास भीड़ लगा लेते और उनके वनवास को रियलिटी शो में बदल देने के लिए उन्हें पक्का लालच देते. जनक भले ही विदेह होंगे लेकिन सीता स्वयंवर के अवसर पर कोई न कोई चैनल वाला स्वयंवर के लाइव टेलीकास्ट की एक्स्क्यूसिव राइट्स के लिए पैसे लेकर रोज उनके राजमहल के चक्कर लगाता.
आज इन शो बनाने वालों को परफेक्ट सिंगर और परफेक्ट डांसर वगैरह की तलाश है लेकिन इस परफेक्शन से ये दर्शकों को कितने वर्षों तक चमत्कृत या फिर बोर कर पायेंगे? मुझे तो पक्का विश्वास है कि एक समय ऐसा भी आएगा जब शो बनाने वाले ये लोग़ ऐसे बच्चों को ढूढेंगे जिनके पास मासूमियत होगी. जिनमें बचपना होगा. जिनमें परफेक्शन नहीं होगा. जो बच्चे 'कम्प्लीट' सिंगर या 'कम्प्लीट' डांसर नहीं होंगे. और फिर ये लोग़ उन बच्चों की मासूमियत, तुतलाहट वगैरह पर रियलिटी शो बनायेंगे.
और तब हमें जज-गुरु द्वारा सुनने को मिलेगा; "आज~~ मैं मेरे दाता से कहूँगा कि ऐ मेरे दाता, ऐ मेरे ईश्वर, ऐ मेरे मालिक, इनको हमेशा मासूम बनाये रखो....ये जो इनकी तुतलाहट है वो हमेशा ऐसे ही बनी रही. ऐ मेरे दाता इनकी नाक ऐसे ही बहती रहे जिससे ये बच्चे लगें....आज पूरी 'प्रथ्वी' में इनकी मासूमियत की चर्चा हो रही होगी........................."
समस्या एक ही है. आज रियलिटी शो है...कल भी रियलिटी शो ही रहेगा. बिक्री के लिए केवल कमोडिटी बदल जायेगी.
एक समय ऐसा आया जब लगा कि बेचारे शेर अब पूरी तरह से पस्त हो चुके हैं. उनमें अब कोई जान नहीं रही कि गायक बच्चा उन्हें और रगेदे. समय सीमा, समय का अभाव या फिर शायद ग़ज़ल के माफीनामे की वजह से बच्चे ने प्लेटफॉर्म पर धीरे-धीरे रुकने वाली रेलगाड़ी स्टाइल में अपना गाना रोका. स्टैंडिंग ओवेशन की बहार आ गई. ऐंकर ने बच्चे को दोनों हाथों से उठा लिया. महागुरु आश्चर्यचकित होने की अपनी चिर-परिचित मुख मुद्रा लुटाने लगीं. कुल मिलाकर विकट रियलटीय टेलीविजन के दर्शन होने लगे.
कुछ देर तक बच्चे को अपनी गोद में रखने के बाद ऐंकर ने उसे नीचे उतारा और अपने ऐन्करीय धर्म का पालन करते हुए शुरू हो गया; "गुरु कैलाश? क्या कहना चाहेंगे आज आप?"
गुरु कैलाश चूल्हे पर रखे पानी के पहले उबाल की तरह शुरू होना ही चाहते थे लेकिन शब्दों की शॉर्ट-सप्लाई के कारण अदबदा गए. कुछ क्षणों तक अ ब स करने के बाद और काफी मशक्कत और खोजबीन के बाद जब कुछ शब्द उनके मुँह लगे तो वे शुरू हो गए; "आज~~~ मैं मेरे दाता से कहना चाहूँगा कि ऐ मेरे दाता, ऐ मेरे मालिक, ऐ मेरे भगवान इन्हें ऐसे ही रखना. इनके ऊपर कृपा करना. मैं तो कहूँगा कि आज मेरे दाता ने इन्हें अपना आशीर्वाद दिया...ये भटकने न पाए... आज इनका यश, इनका ऐश्वर्य पूरी दुनियाँ देख रही है. बच्चे तो भगवान की मूरत होते हैं. 'प्रथ्वी' पर आज इनका जो नाम हो गया है.... आज पूरा ब्रह्माण्ड इन्हें दुआएं दे रहा है. तो ऐ मेरे दाता.......महागुरु, आज तो इसने बावला कर दिया."
जज-गुरु की गलती नहीं है. वे और क्या करेंगे जब ऐसे बिकट टैलेंटेड बच्चे प्रतियोगी बनकर स्टेज पर उतर जायेंगे और सुरों के चौके-छक्के जड़ने लगेंगे? टैलेंटेड, मेहनती और इतने परफेक्ट कि सुनकर मन में आता है जैसे इनका गला बाकायदा ऑर्डर देकर बनवाया गया है. पॉवर-पॉइंट प्रजेंटेशन के बाद. बिलकुल परफेक्ट. कहीं कोई दोष नहीं. हाँ, परफेक्ट होने के चक्कर में इन बच्चों ने अपना बचपना कहाँ और किसके पास गिरवी रख छोड़ा है वह शोध और जांच, दोनों का विषय है. अगर शोध या जांच के बाद यह पता चल भी जाए कि कहाँ और किसके पास रखा गया है तो भी उस बचपने को वापस पाने का कोई अर्थ नहीं क्योंकि तबतक ये इतने उस्ताद हो चुके होते हैं कि इन्हें बचपने और मासूमियत के तीर-कमान की ज़रुरत ही नहीं रहती.
गुरु, महागुरु, गेस्ट गुरु, बैंड वाले, दर्शक, संगीत प्रेमी वगैरह इन बच्चों को देखकर दाँतों तले ऊँगली दबाते हैं. और फिर ऐसा क्यों न हो? दस साल के बच्चे के मुँह से राहत फ़तेह अली खान की आवाज़ इस तरह से निकलती है कि अगर वे सुन लें तो सोचने लग जायें कि; 'ये बच्चा मुझसे मेरी आवाज़ कब चुरा ले गया?' सुनने वालों को यह भी लग सकता है कि 'दो-तीन महीने के लिए ये बच्चा राहत बाबू का गला उधार मांग लाया है.'
न तो इन बच्चों की आवाज में कोई कमी है और न ही हुनर में. अगर किसी ऑड-डे पर ख़ुदा न खास्ता इनसे कोई गलती हो जाती है तो जज साहब उन्हें बताते हैं कि; "ये जो हरकत-उल-आवाज़ तुमने ऐसे ली थी, उसे गाने में रफ़ी साहब ने वैसे लिया है", या फिर; "तुमने गाने को चार से उठाया. अगर तीन से उठाया होता तो जो ऊंची आवाज़ में तुम्हारा सुर गया, वह नहीं जाता."
सब तरह के नुक्श निकाल कर भी जज-गुरु यह कहना नहीं भूलते कि; "फिर भी तुमने कमाल का गाया."
गेस्ट-गुरु के रूप में आया कोई संगीतकार बच्चे को बताना नहीं भूलता कि उसकी आवाज़ रेकॉर्डिंग स्टूडियो के लिए ही बनी है. साथ ही वादा भी कर डालता है कि दो साल बाद वह अपने सारे गाने उसी बच्चों से गवायेगा. पूरे सेट पर ख़ुशी का मौसम आ जाता है. कई-कई बार तो इतनी ख़ुशी आ जाती है कि डर लगता है कि सेट की दीवारें फट न पड़ें. जितना खुश वह बच्चा नहीं होता उससे ज्यादा उसके माँ-बाप खुश होते हैं. ठीक वैसे ही एलिमिनेशन पर बच्चा जितना दुखी नहीं रहता उससे ज्यादा उसके माँ-बाप दुखी होते हैं. उन्हें देखकर लगता है जैसे अब इनका जीवन व्यर्थ हो गया. इनके ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है और अब ये इससे कैसे उबरेंगे?
इन बच्चों में परफेक्शन, गुण, मेहनत, कला वगैरह वगैरह कूट-कूट कर भर गए है.
लेकिन जो चीज इन्हें छोड़कर चली गई है उसकी बात?
जब से हमने तय किया है कि हम अपने देश को इकॉनोमिक सुपर पॉवर और सामरिक दृष्टि से भी महाशक्ति बनायेंगे तबसे देश में रियलिटी शो की संख्या में दिन दूनी नहीं तो रात में चौगुनी वृद्धि तो ज़रूर हुई है. तरह-तरह के विषयों पर रियलिटी शो बनाये जा रहे हैं. यहाँ तक कि अच्छे-खासे घर-दुआर वाले लोग़ जंगलों में जाकर वास कर रहे हैं ताकि रियलिटी शो बन सके. कई लोग़ सांप-छछूंदर, केकड़े-अजगर के साथ खुद को कांच के डब्बे में कैद कर ले रहे हैं और उन जानवरों को सता रहे हैं ताकि जानवरों को तंग करने वाली उनकी हरकतों को कैमरे में कैद करके उसे रियलिटी शो में बदला जा सके.
कई बार मन में आता है कि अच्छा हुआ जो श्री राम ने त्रेता युग में जन्म लेकर खुद को उसी युग में सरयू नदी के हवाले कर दिया. सोचिये अगर आज श्री राम खुद को सरयू नदी के हवाले करते तो क्या होता? उनके जल समाधि को लाइव टेलीकास्ट करने के लिए चैनलों में होड़ लग जाती. ये चैनल वाले एक कांख में अपनी पूरी बेशर्मी दबाये और दूसरी में रूपये की थैली लिए उनके पास एक्सक्ल्यूसिव राइट्स के लिए पहुँच जाते. गारंटी तो नहीं डे सकता लेकिन फिर भी ऐसा ज़रूर लगता है कि अगर वे आज होते तो ये रियलिटी शो वाले उनके वनवास की खबर पर उनके पास भीड़ लगा लेते और उनके वनवास को रियलिटी शो में बदल देने के लिए उन्हें पक्का लालच देते. जनक भले ही विदेह होंगे लेकिन सीता स्वयंवर के अवसर पर कोई न कोई चैनल वाला स्वयंवर के लाइव टेलीकास्ट की एक्स्क्यूसिव राइट्स के लिए पैसे लेकर रोज उनके राजमहल के चक्कर लगाता.
आज इन शो बनाने वालों को परफेक्ट सिंगर और परफेक्ट डांसर वगैरह की तलाश है लेकिन इस परफेक्शन से ये दर्शकों को कितने वर्षों तक चमत्कृत या फिर बोर कर पायेंगे? मुझे तो पक्का विश्वास है कि एक समय ऐसा भी आएगा जब शो बनाने वाले ये लोग़ ऐसे बच्चों को ढूढेंगे जिनके पास मासूमियत होगी. जिनमें बचपना होगा. जिनमें परफेक्शन नहीं होगा. जो बच्चे 'कम्प्लीट' सिंगर या 'कम्प्लीट' डांसर नहीं होंगे. और फिर ये लोग़ उन बच्चों की मासूमियत, तुतलाहट वगैरह पर रियलिटी शो बनायेंगे.
और तब हमें जज-गुरु द्वारा सुनने को मिलेगा; "आज~~ मैं मेरे दाता से कहूँगा कि ऐ मेरे दाता, ऐ मेरे ईश्वर, ऐ मेरे मालिक, इनको हमेशा मासूम बनाये रखो....ये जो इनकी तुतलाहट है वो हमेशा ऐसे ही बनी रही. ऐ मेरे दाता इनकी नाक ऐसे ही बहती रहे जिससे ये बच्चे लगें....आज पूरी 'प्रथ्वी' में इनकी मासूमियत की चर्चा हो रही होगी........................."
समस्या एक ही है. आज रियलिटी शो है...कल भी रियलिटी शो ही रहेगा. बिक्री के लिए केवल कमोडिटी बदल जायेगी.
Friday, September 9, 2011
जसौदा कहाँ कहौं मैं बात.....
आपसे अनुरोध है कि इस ब्लॉग पोस्ट को श्री कृष्ण के खिलाफ लिखा हुआ न मानें. इसे केवल एक पैरोडी के रूप में लिया जाय और कुछ नहीं.
जसौदा कहाँ कहौं मैं बात
तुम्हरे सुत को करतब अब तो
कहौं कहे नहीं जात
जंह-जंह मौका मिले हौं ओकू
इधर-उधर घुसि जात
सखा सबै अब तंह संग मिलि के
चाटि-चाटि सब खात
करौं रपट जौं सीएजी तौं
मारत ओकूं लात
जसौदा कहाँ कहौं मैं बात
************************************************
नचावत सबै जसौदा-लाल
पग-पग, नग-नग तंग करत हों
चलत कुसंगति चाल
संग सखा सब कोरस टेरत
नानाविध दै ताल
माया कौ कटि फैंटा बांध्यो
दियो मुलायम माल
ममता संग मिलि सबहि नचावत
करि स्कैम बवाल
गोकुल वासी दुखी सभी जन
कब बदलेगा काल
नचावत सबै जसौदा लाल
***********************************************
मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
पंद्रह परसेंट तो मैंने खायो, बाकी तोको खिलायो
मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
ग्वाल-बाल सब हमरौ संगी, ताको हेल्प भी पायो
मैं नहिं बालक जानौ सब बिधि, विदेश से डिग्री लायो
मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
जोर भयो ज्यों छूट दियो तौं, हिम्मत भीतर आयो
सबौं मिनिस्ट्री सखा लगाकर, भारी माल कमायो
मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
तू जननी मन की नहि भोली, पूत को सिर पे बिठायो
सब माखन तू ही खा लेवे, छींको मैं तुड़वायो
मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
सीएजी तो पकड़े मोकूं, तू तो बचि-बचि जायो
जब-जब भी अकुलाइ उठूं मैं, सुषमा मन हरसायो
मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
जसौदा कहाँ कहौं मैं बात
तुम्हरे सुत को करतब अब तो
कहौं कहे नहीं जात
जंह-जंह मौका मिले हौं ओकू
इधर-उधर घुसि जात
सखा सबै अब तंह संग मिलि के
चाटि-चाटि सब खात
करौं रपट जौं सीएजी तौं
मारत ओकूं लात
जसौदा कहाँ कहौं मैं बात
************************************************
नचावत सबै जसौदा-लाल
पग-पग, नग-नग तंग करत हों
चलत कुसंगति चाल
संग सखा सब कोरस टेरत
नानाविध दै ताल
माया कौ कटि फैंटा बांध्यो
दियो मुलायम माल
ममता संग मिलि सबहि नचावत
करि स्कैम बवाल
गोकुल वासी दुखी सभी जन
कब बदलेगा काल
नचावत सबै जसौदा लाल
***********************************************
मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
पंद्रह परसेंट तो मैंने खायो, बाकी तोको खिलायो
मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
ग्वाल-बाल सब हमरौ संगी, ताको हेल्प भी पायो
मैं नहिं बालक जानौ सब बिधि, विदेश से डिग्री लायो
मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
जोर भयो ज्यों छूट दियो तौं, हिम्मत भीतर आयो
सबौं मिनिस्ट्री सखा लगाकर, भारी माल कमायो
मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
तू जननी मन की नहि भोली, पूत को सिर पे बिठायो
सब माखन तू ही खा लेवे, छींको मैं तुड़वायो
मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
सीएजी तो पकड़े मोकूं, तू तो बचि-बचि जायो
जब-जब भी अकुलाइ उठूं मैं, सुषमा मन हरसायो
मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
Monday, September 5, 2011
दुर्योधन की डायरी - पेज ३७१
आज शिक्षक दिवस है. मैंने सोचा कि एक बार उलट-पलट कर देखा जाय कि युवराज दुर्योधन ने शिक्षक दिवस पर कुछ लिखा है क्या? पता चला कि उन्होंने शिक्षक दिवस पर तो कुछ नहीं लेकिन अपने समय के शिक्षक और शिक्षा पर कुछ लिखा है. पढ़कर लगा कि ज्यादा कुछ बदलाव नहीं आया है.
क्या कहा आपने? मैं ऐसा क्यों लिख रहा हूँ? आप खुद ही पढ़ लीजिये कि मैं ऐसा क्यों लिख रहा हूं.
दुर्योधन की डायरी - पेज ३७१
सालाना इम्तिहान को अब केवल दो महीने रह गए हैं लेकिन गुरु द्रोण हैं कि पिछले तीन दिन से क्लास में आ ही नहीं रहे हैं. कोई खबर भी नहीं है कि कहाँ हैं? विद्यार्थी अपनी-अपनी तरह से अनुमान लगाये जा रहे हैं. अर्जुन कह रहा था कि वे अवंती में छुट्टियाँ बिताने गए हैं तो वहीँ भीम ने बताया कि हस्तिनापुर में ही किसी फ़ूड फेस्टिवल का उद्घाटन करने गए हैं. इस भीम को खाने की बातों के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं. इसकी नज़र हमेशा खाने पर रहती है. पेटू कहीं का. मैंने कई बार अश्वथामा से पूछने की कोशिश तो टाल गया. मामला क्या है समझ नहीं आ रहा.
खैर, मामला चाहे जो हो लेकिन गुरुदेव इस तरह से पढायेंगे तो सिलेबस कैसे ख़त्म होगा? तीन दिन पहले जब मैंने सवाल किया कि गुरुदेव परीक्षा को अब केवल दो महीने रह गए हैं लेकिन आपने भूगोल और समाजशास्त्र का सिलेबस पूरा नहीं किया तो भड़क गए. बोले; "तुम्हें समाजशास्त्र का ज्ञान है कोई? जितना पढ़ा है, उसे भी अपने व्यवहार में प्रयोग किया है कभी? कल शाम को क्रीड़ास्थल पर मिले थे तो मुझे प्रणाम नहीं किया. और कहते हो कि समाजशास्त्र का सिलेबस ख़त्म नहीं हुआ."
ये अर्जुन, भीम वगैरह को फेवर तो करते ही थे अब बात-बात पर हमें डाटते रहते हैं. हमें डाटने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते. अब इन्हें कौन समझाए कि दिन में सत्रह बार प्रणाम करते-करते छात्र एक-आध बार भूल भी तो सकता है. समाजशास्त्र के सिलेबस में क्या बस प्रणाम करना लिखा है? और कुछ नहीं लिखा? समाज क्या केवल प्रणाम और आशीर्वाद से ही चलता है? मानता हूँ कि गुरुदेव ब्राह्मण हैं और उन्हें न केवल विद्यार्थियों से लेकिन राज्य के साधारण नागरिकों से प्रणाम लेना अच्छा लगता है लेकिन प्रणाम के लिए इतना भी क्या लालायित रहना? मैं कहता हूँ कि दो-चार प्रणाम कम भी मिलेंगे तो क्या उनका डिमोशन हो जाएगा? कई बार तो मन में आता है कि इनके ब्राह्मण होने की बात को प्रजा में उछाल दिया जाय और पिछड़ी जाति के नागरिकों को इनके खिलाफ भड़का दिया जाय लेकिन चचा विदुर की वजह से रुक जाता हूँ.
मेरा मानना है कि इनके ब्राह्मणत्व की बात को अगर उछाल दिया जाय फिर एकलव्य को इनके खिलाफ खड़ा किया जा सकता है. दुशासन तो कह रहा था कि मैं ही एकलव्य को फिनांस करके गुरु द्रोण की शिकायत उप-कुलपति से करवा दूँ कि ये गुरुदक्षिणा में रुपया-पैसा, ज़मीन-जायदाद नहीं बल्कि अंगूठा कटवा लेते हैं. एक बार एकलव्य इनकी शिकायत उप-कुलपति से कर दे फिर हज़ार-पाँच सौ विद्यार्थियों को कुछ पैसा-वैसा खिलाकर इनके निवास स्थान पर नारे लगवा दूँ. इनका कैरियर खराब हो जाएगा. रिटायरमेंट के बाद पेंशन के लिए मोहताज़ हो जायेंगे ये.
अभी ये पूरे डेढ़ महीने की छुट्टी बिताकर आए हैं. प्रयाग गए थे. संगम के किनारे माघ महीने में कल्पवास करने. अपनी जगह अपने किसी रिश्तेदार को पढ़ाने का काम सौंप गए थे. रिश्तेदार हमें पढाता था लेकिन हाजिरी रजिस्टर में गुरुदेव की हाजिरी लगती थी. प्रयाग से लौटने के बाद पूरे महीने की सैलरी भी उन्ही को मिली. ये सब बातें अगर पिताश्री को बता दूँ तो इनकी शामत आ जायेगी. बिदुर चचा को बताने का कोई फायदा तो है नहीं. वे तो गुरुदेव को ही सपोर्ट करते हैं. वैसे भी मेरी बात पर उन्हें ज़रा भी विश्वास नहीं सो उन्हें बताने का कोई फायदा भी नहीं है. फिर सोचता हूँ कि गरीब आदमी हैं, इनकी नौकरी चली गई तो इनका घर-परिवार कैसे चलेगा?
फिर भी ये जिस तरह से हमारे साथ व्यवहार करते हैं मन तो करता ही है कि इनके खिलाफ अफवाहें उड़ा कर इन्हें बदनाम कर दूँ. ह्विसपर कैम्पेन चला दूँ कि मैंने पाठशाला में तमाम तरह की अनर्गल बातें नोट की हैं. कि गुरुदेव ये मिड-डे मील के रिकार्ड में गड़बड़ करते हैं. कि पाठशाला को मिलने वाली राशि से कुछ निकालकर इन्होने अश्वथामा के नाम एफडी कर ली है. फिर सोचता हूँ कि अगर मैं इनके खिलाफ खड़ा हो गया तो ये कहीं के न रहेंगे.
ऐसा नहीं है कि पाठशाला में गुरुदेव कोई गड़बड़ी नहीं करते. पिछली छमाही इम्तिहान के बाद उन्होंने हमारी कापी जांचने का काम अश्वत्थामा से करवाया था. ख़ुद बैठे-बैठे ताश खेलते थे और अश्वत्थामा कॉपी जांचता था. ये बात तो मुझे तब पता चली जब मैं, दु:शासन और अश्वत्थामा फ़िल्म देखने गए थे. अश्वत्थामा ने ही बताया था कि मैं गणित में फेल हो रहा था लेकिन उसने मेरा नंबर इसलिए बढ़ा दिया क्योंकि पिछले महीने मैंने उसे आईसक्रीम खिलाई थी.
गणित में मेरी कमजोरी तो मुझे ले डूबेगी.
हस्तिनापुर में प्राथमिक शिक्षा की हालत सचमुच बहुत ख़राब है. जानते सभी हैं लेकिन कोई इसके बारे में कुछ करने के लिए तैयार नहीं है. करने के नाम पर चचा विदुर और कृपाचार्य कभी-कभी मीडिया में प्राथमिक शिक्षा पर चिंता व्यक्त कर देते हैं. जब वे चिंता व्यक्त करते हैं तो पूरे हस्तिनापुर के नागरिकों को लगता है कि ये लोग़ सच में चिंतित हैं और कुछ करना चाहते हैं. एक बार चिंता व्यक्त करके ये लोग़ फिर साल-छ महीने चुप रहते हैं और जब कहीं कोई पत्रकार या सम्पादक कुछ लिख देता है तो ये सभी एक बार फिर से चिंता व्यक्त कर देते हैं. उधर प्राथमिक शिक्षा की हालत खराब होती जा आरही है और इधर इन लोगों की चिंता व्यक्त करने की कला निखरती जा रही है. कई बार तो ये लोग़ यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं कि श्री राम के दिनों में अयोध्या में भी प्राथमिक शिक्षा की हालत ऐसी ही थी और विश्वामित्र और वशिष्ट जैसे महागुरु भी केवल चिंता ही व्यक्त करते थे और कुछ नहीं करते थे.
एक दिन मैने गुरुदेव से प्राथमिक शिक्षा की ख़राब हालत के बारे में कहा तो बोले; "राजमहल से ऐसे आदेश मिले हैं कि सारी इनर्जी उच्च शिक्षा पर लगाई जाय. हमें ज्यादा से ज्यादा मैनेजमेंट ग्रैजुएट पैदा करने हैं."
मैं कहता हूँ कि जब आधार ही मजबूत नहीं रहेगा तो उच्च शिक्षा की पढाई करके क्या फायदा? लेकिन मेरी बात कौन सुने? फिर सोचता हूँ, मुझे भी इन सब बातों में नाक घुसाने की जरूरत नहीं है. लेकिन सच बात पर कोई ध्यान नहीं देता. नागरिकों को कहाँ मालूम है कि उच्च शिक्षा पर जोर और मैनेजमेंट ग्रेजुयेट पैदा करने के पीछे मामाश्री और उनके लोगों का हाथ है. किसी को नहीं पता कि मामाश्री ने अपने लोगों को लगाकर तमाम मैनजेमेंट कालेज खुलवा दिए हैं और अपने कुछ और रिश्तेदारों को महाजन बनाकर आगे कर दिया है ताकि विद्यार्थियों को लोन देकर इन कालेजों में एडमिशन दिलवाया जा सके और धंधा मस्त चले. महाजनों, इन कालेज के बोर्ड और मामाश्री की लॉबी का कमाल है जो दिन-रात हस्तिनापुर में मैनेजमेंट ग्रैजुयेट पैदा होते चले जा रहे हैं. ये कालेज वाले हर साल फीस बढ़ा देते हैं और विद्यार्थियों को भी फीस पेमेंट करने में कोई अड़चन नहीं दिखाई देती क्योंकि मामाश्री के अप्वाइंट किये गए महाजन इन विद्यार्थियों को लोन देने के लिए पैसा हाथ में लेकर खड़े हैं.
खैर, इन सब बातों से मुझे क्या लेना-देना? मेरे पिताश्री का क्या जाता है? मैं अगर ऐसी टुच्ची बातों के बारे में सोचूँगा तो फिर राजा कैसे बनूंगा? और फिर मुझे पढ़-लिख कर कौन सा क्लर्क बनना है? मैं तो राजा बनूंगा. और एक बार मैं राजा बन गया तो हजारों मैनेजमेंट ग्रेजुयेट मेरे लिए काम करेंगे.
मुझे तो अपनी राजनीति की फिकर है. मुझे लगता है कि नयी खुराफात करने का मौका आ गया है. आज दु:शासन बता रहा था कि राजमहल से ख़बर आई है कि एकलव्य ने कुछ युवकों का दल बना लिया है और कल राजमहल के सामने प्रदर्शन कर रहा था और नारे लगा रहा था. गुरुदेव ने उसे शिक्षा दे देती होती तो आज ऐसा नहीं होता. जब दु:शासन से मैंने पूछा कि एकलव्य क्या चाहता है तो उसने बताया कि वो मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग कालेज में आरक्षण चाहता है. जिस दिन गुरुदेव ने उसे लौटाया था उस दिन मैं मिला होता तो उसके लिए ज़रूर कुछ करता. लेकिन अब सोचता हूँ कि एकलव्य और उसके साथियों को आरक्षण दिलाने का वादा मैं ख़ुद ही कर दूँ. भविष्य में जब भी अर्जुन वगैरह से झमेला होगा तो ये एकलव्य बहुत काम आएगा.
कल ही एकलव्य से अप्वाईंटमेंट फिक्स करूंगा.
क्या कहा आपने? मैं ऐसा क्यों लिख रहा हूँ? आप खुद ही पढ़ लीजिये कि मैं ऐसा क्यों लिख रहा हूं.
दुर्योधन की डायरी - पेज ३७१
सालाना इम्तिहान को अब केवल दो महीने रह गए हैं लेकिन गुरु द्रोण हैं कि पिछले तीन दिन से क्लास में आ ही नहीं रहे हैं. कोई खबर भी नहीं है कि कहाँ हैं? विद्यार्थी अपनी-अपनी तरह से अनुमान लगाये जा रहे हैं. अर्जुन कह रहा था कि वे अवंती में छुट्टियाँ बिताने गए हैं तो वहीँ भीम ने बताया कि हस्तिनापुर में ही किसी फ़ूड फेस्टिवल का उद्घाटन करने गए हैं. इस भीम को खाने की बातों के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं. इसकी नज़र हमेशा खाने पर रहती है. पेटू कहीं का. मैंने कई बार अश्वथामा से पूछने की कोशिश तो टाल गया. मामला क्या है समझ नहीं आ रहा.
खैर, मामला चाहे जो हो लेकिन गुरुदेव इस तरह से पढायेंगे तो सिलेबस कैसे ख़त्म होगा? तीन दिन पहले जब मैंने सवाल किया कि गुरुदेव परीक्षा को अब केवल दो महीने रह गए हैं लेकिन आपने भूगोल और समाजशास्त्र का सिलेबस पूरा नहीं किया तो भड़क गए. बोले; "तुम्हें समाजशास्त्र का ज्ञान है कोई? जितना पढ़ा है, उसे भी अपने व्यवहार में प्रयोग किया है कभी? कल शाम को क्रीड़ास्थल पर मिले थे तो मुझे प्रणाम नहीं किया. और कहते हो कि समाजशास्त्र का सिलेबस ख़त्म नहीं हुआ."
ये अर्जुन, भीम वगैरह को फेवर तो करते ही थे अब बात-बात पर हमें डाटते रहते हैं. हमें डाटने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते. अब इन्हें कौन समझाए कि दिन में सत्रह बार प्रणाम करते-करते छात्र एक-आध बार भूल भी तो सकता है. समाजशास्त्र के सिलेबस में क्या बस प्रणाम करना लिखा है? और कुछ नहीं लिखा? समाज क्या केवल प्रणाम और आशीर्वाद से ही चलता है? मानता हूँ कि गुरुदेव ब्राह्मण हैं और उन्हें न केवल विद्यार्थियों से लेकिन राज्य के साधारण नागरिकों से प्रणाम लेना अच्छा लगता है लेकिन प्रणाम के लिए इतना भी क्या लालायित रहना? मैं कहता हूँ कि दो-चार प्रणाम कम भी मिलेंगे तो क्या उनका डिमोशन हो जाएगा? कई बार तो मन में आता है कि इनके ब्राह्मण होने की बात को प्रजा में उछाल दिया जाय और पिछड़ी जाति के नागरिकों को इनके खिलाफ भड़का दिया जाय लेकिन चचा विदुर की वजह से रुक जाता हूँ.
मेरा मानना है कि इनके ब्राह्मणत्व की बात को अगर उछाल दिया जाय फिर एकलव्य को इनके खिलाफ खड़ा किया जा सकता है. दुशासन तो कह रहा था कि मैं ही एकलव्य को फिनांस करके गुरु द्रोण की शिकायत उप-कुलपति से करवा दूँ कि ये गुरुदक्षिणा में रुपया-पैसा, ज़मीन-जायदाद नहीं बल्कि अंगूठा कटवा लेते हैं. एक बार एकलव्य इनकी शिकायत उप-कुलपति से कर दे फिर हज़ार-पाँच सौ विद्यार्थियों को कुछ पैसा-वैसा खिलाकर इनके निवास स्थान पर नारे लगवा दूँ. इनका कैरियर खराब हो जाएगा. रिटायरमेंट के बाद पेंशन के लिए मोहताज़ हो जायेंगे ये.
अभी ये पूरे डेढ़ महीने की छुट्टी बिताकर आए हैं. प्रयाग गए थे. संगम के किनारे माघ महीने में कल्पवास करने. अपनी जगह अपने किसी रिश्तेदार को पढ़ाने का काम सौंप गए थे. रिश्तेदार हमें पढाता था लेकिन हाजिरी रजिस्टर में गुरुदेव की हाजिरी लगती थी. प्रयाग से लौटने के बाद पूरे महीने की सैलरी भी उन्ही को मिली. ये सब बातें अगर पिताश्री को बता दूँ तो इनकी शामत आ जायेगी. बिदुर चचा को बताने का कोई फायदा तो है नहीं. वे तो गुरुदेव को ही सपोर्ट करते हैं. वैसे भी मेरी बात पर उन्हें ज़रा भी विश्वास नहीं सो उन्हें बताने का कोई फायदा भी नहीं है. फिर सोचता हूँ कि गरीब आदमी हैं, इनकी नौकरी चली गई तो इनका घर-परिवार कैसे चलेगा?
फिर भी ये जिस तरह से हमारे साथ व्यवहार करते हैं मन तो करता ही है कि इनके खिलाफ अफवाहें उड़ा कर इन्हें बदनाम कर दूँ. ह्विसपर कैम्पेन चला दूँ कि मैंने पाठशाला में तमाम तरह की अनर्गल बातें नोट की हैं. कि गुरुदेव ये मिड-डे मील के रिकार्ड में गड़बड़ करते हैं. कि पाठशाला को मिलने वाली राशि से कुछ निकालकर इन्होने अश्वथामा के नाम एफडी कर ली है. फिर सोचता हूँ कि अगर मैं इनके खिलाफ खड़ा हो गया तो ये कहीं के न रहेंगे.
ऐसा नहीं है कि पाठशाला में गुरुदेव कोई गड़बड़ी नहीं करते. पिछली छमाही इम्तिहान के बाद उन्होंने हमारी कापी जांचने का काम अश्वत्थामा से करवाया था. ख़ुद बैठे-बैठे ताश खेलते थे और अश्वत्थामा कॉपी जांचता था. ये बात तो मुझे तब पता चली जब मैं, दु:शासन और अश्वत्थामा फ़िल्म देखने गए थे. अश्वत्थामा ने ही बताया था कि मैं गणित में फेल हो रहा था लेकिन उसने मेरा नंबर इसलिए बढ़ा दिया क्योंकि पिछले महीने मैंने उसे आईसक्रीम खिलाई थी.
गणित में मेरी कमजोरी तो मुझे ले डूबेगी.
हस्तिनापुर में प्राथमिक शिक्षा की हालत सचमुच बहुत ख़राब है. जानते सभी हैं लेकिन कोई इसके बारे में कुछ करने के लिए तैयार नहीं है. करने के नाम पर चचा विदुर और कृपाचार्य कभी-कभी मीडिया में प्राथमिक शिक्षा पर चिंता व्यक्त कर देते हैं. जब वे चिंता व्यक्त करते हैं तो पूरे हस्तिनापुर के नागरिकों को लगता है कि ये लोग़ सच में चिंतित हैं और कुछ करना चाहते हैं. एक बार चिंता व्यक्त करके ये लोग़ फिर साल-छ महीने चुप रहते हैं और जब कहीं कोई पत्रकार या सम्पादक कुछ लिख देता है तो ये सभी एक बार फिर से चिंता व्यक्त कर देते हैं. उधर प्राथमिक शिक्षा की हालत खराब होती जा आरही है और इधर इन लोगों की चिंता व्यक्त करने की कला निखरती जा रही है. कई बार तो ये लोग़ यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं कि श्री राम के दिनों में अयोध्या में भी प्राथमिक शिक्षा की हालत ऐसी ही थी और विश्वामित्र और वशिष्ट जैसे महागुरु भी केवल चिंता ही व्यक्त करते थे और कुछ नहीं करते थे.
एक दिन मैने गुरुदेव से प्राथमिक शिक्षा की ख़राब हालत के बारे में कहा तो बोले; "राजमहल से ऐसे आदेश मिले हैं कि सारी इनर्जी उच्च शिक्षा पर लगाई जाय. हमें ज्यादा से ज्यादा मैनेजमेंट ग्रैजुएट पैदा करने हैं."
मैं कहता हूँ कि जब आधार ही मजबूत नहीं रहेगा तो उच्च शिक्षा की पढाई करके क्या फायदा? लेकिन मेरी बात कौन सुने? फिर सोचता हूँ, मुझे भी इन सब बातों में नाक घुसाने की जरूरत नहीं है. लेकिन सच बात पर कोई ध्यान नहीं देता. नागरिकों को कहाँ मालूम है कि उच्च शिक्षा पर जोर और मैनेजमेंट ग्रेजुयेट पैदा करने के पीछे मामाश्री और उनके लोगों का हाथ है. किसी को नहीं पता कि मामाश्री ने अपने लोगों को लगाकर तमाम मैनजेमेंट कालेज खुलवा दिए हैं और अपने कुछ और रिश्तेदारों को महाजन बनाकर आगे कर दिया है ताकि विद्यार्थियों को लोन देकर इन कालेजों में एडमिशन दिलवाया जा सके और धंधा मस्त चले. महाजनों, इन कालेज के बोर्ड और मामाश्री की लॉबी का कमाल है जो दिन-रात हस्तिनापुर में मैनेजमेंट ग्रैजुयेट पैदा होते चले जा रहे हैं. ये कालेज वाले हर साल फीस बढ़ा देते हैं और विद्यार्थियों को भी फीस पेमेंट करने में कोई अड़चन नहीं दिखाई देती क्योंकि मामाश्री के अप्वाइंट किये गए महाजन इन विद्यार्थियों को लोन देने के लिए पैसा हाथ में लेकर खड़े हैं.
खैर, इन सब बातों से मुझे क्या लेना-देना? मेरे पिताश्री का क्या जाता है? मैं अगर ऐसी टुच्ची बातों के बारे में सोचूँगा तो फिर राजा कैसे बनूंगा? और फिर मुझे पढ़-लिख कर कौन सा क्लर्क बनना है? मैं तो राजा बनूंगा. और एक बार मैं राजा बन गया तो हजारों मैनेजमेंट ग्रेजुयेट मेरे लिए काम करेंगे.
मुझे तो अपनी राजनीति की फिकर है. मुझे लगता है कि नयी खुराफात करने का मौका आ गया है. आज दु:शासन बता रहा था कि राजमहल से ख़बर आई है कि एकलव्य ने कुछ युवकों का दल बना लिया है और कल राजमहल के सामने प्रदर्शन कर रहा था और नारे लगा रहा था. गुरुदेव ने उसे शिक्षा दे देती होती तो आज ऐसा नहीं होता. जब दु:शासन से मैंने पूछा कि एकलव्य क्या चाहता है तो उसने बताया कि वो मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग कालेज में आरक्षण चाहता है. जिस दिन गुरुदेव ने उसे लौटाया था उस दिन मैं मिला होता तो उसके लिए ज़रूर कुछ करता. लेकिन अब सोचता हूँ कि एकलव्य और उसके साथियों को आरक्षण दिलाने का वादा मैं ख़ुद ही कर दूँ. भविष्य में जब भी अर्जुन वगैरह से झमेला होगा तो ये एकलव्य बहुत काम आएगा.
कल ही एकलव्य से अप्वाईंटमेंट फिक्स करूंगा.
Friday, August 19, 2011
गवरनेंस बाइ मैजिक वैंड - ए बुक बाइ मैजिकानो वैंडलोई
नई दिल्ली से चंदू चौरसिया, मुंबई से निर्भय सावंत और बैंगलुरू से रजत चिनप्पा
आज एक ऐतिहासिक निर्णय देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने फेडरेशन ऑफ इंडियन चेम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) को आदेश दिया कि वह एक जांच करके बताये कि केंद्र सरकार, उसके मंत्रियों और प्रधानमंत्री के लिए मैजिक वैंड देश में ही कैसे उपलब्ध कराया जा सकता है. ज्ञात हो कि प्रधानमंत्री और उनके कई मत्रियों ने मैजिक वैंड उपलब्ध न होने के कारण पिछले ढाई वर्षों में कई बार समस्याओं को सुलझाने में असमर्थता जताई थी. अभी तीन दिन पहले ही स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले से बोलते हुए प्रधानमंत्री ने असमर्थता जताते हुए अपने भाषण में कहा था; "भ्रष्टाचार मिटाने के लिए हमारे हाथ में कोई मैजिक वैंड नहीं है."
करीब दो महीने पहले सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करते हुए अखिल भारतीय सरकार सताओ आन्दोलन के प्रमुख श्री अशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया था कि न्यायालय सी बी आई को आदेश दे कर सरकार और उसके मंत्रियों के खोये हुए मैजिक बैंड को बरामद करवाए. कालांतर में सी बी आई ने एक जांच कर के सुप्रीम कोर्ट को दिए गए अपने हलफनामे में यह खुलासा किया सरकार या उसके किसी भी मंत्री के पास कभी कोई मैजिक वैंड था ही नहीं. दरअसल सरकार और उसके मंत्री चाहते हैं कि या तो देश में ही मैजिक वैंड का उत्पादन शुरू हो या फिर उसे विकसित देशों से आयात करके उन्हें मंत्रियों को उपलब्ध करवाया जाय. सी बी आई के इस हलफनामे के बाद मैजिक वैंड को लेकर देशवासियों में व्याप्त कई तरह के भ्रम ख़त्म हो गए.
यहाँ पर यह बता देना उचित है कि देशवासियों में यह भ्रम था कि सरकार और उसके मंत्रियों के मैजिक वैंड चोरों ने चुरा लिए हैं जिसके कारण मंत्रीगण समस्याएं नहीं सुलझा पा रहे हैं.
ज्ञात हो कि पिछले ढाई वर्षों में वित्तमंत्री, कृषिमंत्री, गृहमंत्री, रक्षामंत्री वगैरह ने कई बार कहा कि उनके पास कोई मैजिक वैंड नहीं है जिससे देश की समस्याओं को सुलझाया जा सके. जहाँ वित्तमंत्री ने मंहगाई को रोक पाने में असमर्थता जताते हुए मैजिक वैंड की अनुपलब्धता की बात बताई वहीँ गृहमंत्री ने आतंकवाद की रोकथाम न कर पाने का श्रेय मैजिक वैंड की अनुपलब्धता को दिया. उधर हाथ में मैजिक वैंड न होने के कारण कृषिमंत्री हर बार चीनी, प्याज, सब्जी, तेल वगैरह के दाम को कंट्रोल नहीं कर पाए.
मैजिक वैंड के बल पर शासन करने की बात नई नहीं है लेकिन इस तरह के सभी शासक हमेशा केवल किस्से-कहानियों में पाए जाते रहे हैं. पुराने किस्से-कहानियों के जादूगर वगैरह मैजिक वैंड के बल पर लोगों के ऊपर शासन करते हुए बरामद होते रहे हैं. लेकिन पाँच साल पहले इटली के समाजशास्त्री, लेखक और विचारक श्री मैजिकानो वैडलोई ने गवरनेंस बाइ मैजिक वैंड नामक किताब लिखकर शासन के इस तरीके को एक बार फिर से विश्व के राजनीतिक पटल पर ला खड़ा किया. वर्तमान भारतीय सरकार श्री वैंडलोई के इस सिद्धांत से इतना प्रभावित हुई कि उसे हर समस्या का समाधान मैजिक वैंड में ही नज़र आने लगा. यह बात अलग है कि देश में अभी तक मैजिक वैंड का न तो उत्पादन शुरू हुआ और न ही इसके आयात के लिए रास्ता खोला गया.
उधर आज दिल्ली में अखिल भारतीय निज-भाषा उन्नति समिति के अध्यक्ष श्री रामप्रवेश शुक्ला ने सरकार और उसके मंत्रियों की यह कहते हुए आलोचना की है कि मंत्रीगण अपनी भाषा पूरी तरह से भूल गए हैं जिसके चलते वे देश के विशाल जनमानस से कट चुके हैं. श्री शुक्ला ने अपने आरोप को सही ठहराते हुए बताया कि सरकार और उसके मंत्रियों को मैजिक वैंड न कहकर जादुई छड़ी कहना चाहिए. मंत्रियों के ऐसा न करने की वजह से हिंदी रसातल में चली जा रही है. श्री शुक्ला ने राष्ट्रपति को एक ज्ञापन देते हुए आग्रह किया कि सरकार के मंत्री अब से केवल और केवल जादुई छड़ी की बात करें.
उधर आज बैंगलुरू में डिफेन्स रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन (डीआरडीओ) की तरफ से दायर हलफनामे में संस्थान ने मैजिक वैंड का उत्पादन करने में असमर्थता जताई है. ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट ने अखिल भारतीय सरकार सताओ आन्दोलन द्वारा दायर जनहित याचिका के बाद डी आर डी ओ से हलफनामा माँगा था कि संसथान मैजिक वैंड के उत्पादन के तरीके पर विचार करके एक रिपोर्ट फाइल करे. संस्थान ने सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे में कहा है कि; "यह संस्थान ऐसी कोई चीज के उत्पादन के बारे में विचार नहीं करेगा जिसके साथ मैजिक जुडा हो. संस्थान और उसमें काम करने वाले वैज्ञानिकों को मैजिक में कोई विश्वास नहीं है. संस्थान ने कसम खाई है कि वह केवल और केवल वैज्ञानिक दृष्टि से प्रमाणिक चीजों का ही उत्पादन करेगा."
डी आर डी ओ के इस हलफनामे के बाद सुप्रीम कोर्ट के पास और कोई रास्ता नहीं बचा था. यही कारण है कि मैजिक वैंड के उत्पादन या आयात के बारे में अध्ययन और रिपोर्ट का काम उसने फिक्की को सौंप दिया है.
मैजिक वैंड के बारे में प्रधानमंत्री और उनेक मंत्रियों द्वारा पिछले ढाई वर्षों से लगातार बात करने की वजह से पूरे देश के सरकारी विभाग और उनके कर्मचारी जाग गए हैं और उन्होंने मांग रखी है कि उन्हें भी मैजिक वैंड उपलब्ध करवाया जाय जिससे वे अपने-अपने विभागों की समस्याओं का समाधान कर सके. यही कारण है कि पिछले पंद्रह दिनों से, शिक्षा, रक्षा, रेल, खेल, ट्रांसपोर्ट, एयरपोर्ट, डी डी ए, पी डब्ल्यू डी, सेल्स टैक्स, इनकम टैक्स, नगर पालिका, और ऐसे ही तमाम विभागों के कर्मचारियों ने सरकार के सामने मांग रखी है कि सरकार जल्द से जल्द उन्हें मैजिक वैंड उपलब्ध करवाए जिससे पूरे भारत को एक बार फिर से सोने की चिड़िया बनाकर उसे लूट लिया जाय.
सरकारी कर्मचारियों द्वारा इतनी बड़ी संख्या में मांग रखने के कारण देश के प्रमुख औद्योगिक घराने हरकत में आ गए हैं. कई औद्योगिक घराने मैजिक वैंड के उत्पादन पर विचार करने लगे हैं. अलायंस उद्योग समूह के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की एक मीटिंग में कल फैसला लिया गया कि भारी मात्रा में मैजिक वैंड की डिमांड को देखते हुए कंपनी जल्द ही उसके उत्पादन के क्षेत्र में उतारेगी. सूत्रों के अनुसार कुछ भारतीय उद्योग समूहों ने मैजिक वैंड के क्षेत्र में निवेश करने के लिए मॉरिसश के रास्ते देश में पैसे लाने का इंतज़ाम शुरू कर दिया है. बाहर के कुछ निवेशक समूह इस बात पर कयास लगा रहे हैं कि इस क्षेत्र में सरकार कितने प्रतिशत एफ डी आई पर राजी होगी. भारतीय उद्योग समूहों के अलावा कुछ विदेशी निवेशकों ने भी मैजिक वैंड के उत्पादन में निवेश की घोषणा की है. प्रसिद्द निवेशन श्री वारेन बफेट ने कल बताया कि उनका समूह भारतीय मैजिक वैंड क्षेत्र में पहले चारण में करीब सात करोड़ डॉलर इन्वेस्ट करेगा.
सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक निर्णय के बाद देश के लोगों में ख़ुशी की लहर दौड़ गई है. आल इंडिया कॉमन-मेन एशोसियेशन के अध्यक्ष श्री प्रशांत अभ्यंकर ने कल मुंबई में एक संवाददाता सम्मलेन को संबोधित करते हुए कहा; "इस देश के नागरिकों का अब केवल सुप्रीम कोर्ट पर ही विश्वास रह गया है. हमें विश्वास है कि सुप्रीम कोर्ट के इस कदम की वजह से देश में जल्द ही मैजिक वैंड का उत्पादन शुरू हो जाएगा. देश की सारी समस्याएं छू-मंतर हो जायेंगी और भारत पूरे विश्व में एक इकॉनोमिक सुपर पॉवर बनकर उभरेगा."
Friday, August 12, 2011
पंद्रह अगस्त की तैयारी
पंद्रह अगस्त लगभग आ गया है. लगभग इसलिए कि अभी चार दिन बाकी हैं. कई देशभक्त मोहल्लों में पंद्रह अगस्त मनाने का प्लान बन चुका है. थोड़े कम देशभक्त मोहल्लों में अभी भी बनाया जा रहा है. लाऊडस्पीकर पर कौन सा गाना पहले पायदान पर होगा और कौन सा तीसरे पर, यह फाइनल किया जाने लगा है. कितने लोग़ चिकेन बिरियानी खायेंगे और कितने मटन बिरियानी, इसकी लिस्ट बननी शुरू हो गई है. "पिछले पंद्रह अगस्त तक बीयर पीनेवाले छोटका को क्या इस बार ह्विस्की दे दी जाय?" जैसे सवालों के जवाब खोजने की कवायद शुरू हो चुकी है.
हमारे सूमू दा यह बात निश्चित कर रहे होंगे कि इस बार किससे ज्यादा चंदा लेना है? पासवाले मोहल्ले के झूनू दा, 'गरीबों' को कंबल बांटने के लिए चंदा इकठ्ठा कर रहे होंगे. इस कांफिडेंस के साथ कि; "बरसात में अगर गरीबों को कंबल न मिला तो वे बेचारे भीग जायेंगे..." उनके डिप्टी ब्लड डोनेशन कैम्प की तैयारी कर रहे होंगे. उनके दायें ब्लड डोनेशन के समय दिए जाने वाले बिस्कुट और केले के हिसाब में हेर-फेर का प्लान बना रहे होंगे.
सिनेमाई चैनल देशभक्ति से ओत-प्रोत फिल्मों का चुनाव कर रहे होंगे. पंद्रह अगस्त को सुबह नौ बजे वाले वाले स्लॉट में बोर्डर दिखाया जाय या क्रान्ति? न्यूज़ चैनल वाले नई पीढ़ी का टेस्ट लेने के लिए क्वेश्चन छांट रहे होंगे. "ये बताइए, कि गाँधी जी के चचा का क्या नाम था?" या फिर; "जवाहर लाल नेहरु की माता का क्या नाम था?" ऐसा सवाल जिसे सुनकर सामनेवाला ड्यूड ढाई मिनट तक कन्फ्यूजन की धारा मुखमंडल पर बहाने के बाद उल्टा सवाल करे; "माता मीन्स मॉम ना?" न्यूज़ चैनल के संवाददाता यह सोच रहे होंगे कि इस बार कौन से नेता को पकड़कर पूछें कि; "राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत में क्या फरक होता है?" या फिर " जन गण मन तो राष्ट्रगान है, ये बताइए राष्ट्रगीत क्या है?" या फिर; "अच्छा, पूरा राष्ट्रगान गाकर सुनाइये?"
उन्हें किसी ऐसे नेता की तलाश होगी जिससे अगर वे राष्ट्रगीत गाने को कहें तो वो फट से शुरू हो जाए; "ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आँख में भर लो पानी...." या फिर; "मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती..."
ट्रैफिक सिग्नल पर जो रामनरेश कल तक भुट्टा और चेरी बेंचते थे, वही पिछले तीन-चार दिन से तिरंगा बेंच रहे हैं. स्वतंत्रता दिवस मौसमी धंधा जो ठहरा. पूरे साल भर टैक्स चोरी का प्लान बनानेवाले अचानक देशभक्ति काल में चले गए हैं और रामनरेश जी से तिरंगा खरीदकर अपनी कार में इस तरह से रख लिया है जिससे आयकर भवन के सामने से गुजरें तो लोग़ उनकी कार में रखा देशभक्ति-द्योतक तिरंगा देख पाएं. कल-परसों से ही मोहल्ले में बजने वाले गाने ....कैरेक्टर ढीला है की जगह मेरे देश की धरती सोना उगले नामक गाना ले लेगा.
कुल मिलाकर मस्त महौल में जीने दे टाइप वातावरण बन चुका है लेकिन पता नहीं क्यों मुझे कुछ मिसिंग लग रहा है. पता नहीं क्यों लगता है जैसे पहले की ह़र बात अच्छी थी और अब चूंकि ज़माना खराब हो गया है लिहाजा वही बातें बुरी हो गई हैं. वैसे ही पहले का पंद्रह अगस्त अच्छा था और ज़माना खराब हो गया है तो अब पहले जैसा नहीं रहा.
याद कीजिये १०-१२ साल पहले का पंद्रह अगस्त. हर पंद्रह अगस्त के शुभ अवसर पर कार्यकुशल सरकारी पुलिस आतंक फैलाने का प्लान बनाते हुए आतंकवादियों को पकड़ लेती थी. दूरदर्शन हमें बताता था कि; "आज शाम पुरानी दिल्ली के फलाने इलाके से पुलिस ने तीन पाकिस्तानी आतंकवादियों को गिरफ्तार कर लिया. ये आतंकवादी स्वतंत्रता दिवस पर आतंक फैलाने का प्लान बनाकर भारत आये थे." उधर दूरदर्शन हमें यह खबर देता और इधर हम प्रसन्न हो जाते. यह सोचते हुए कि; "चलो अब देश के ऊपर कोई खतरा नहीं रहा. अब पेट भरकर पंद्रह अगस्त मनाएंगे."
अब दिल्ली में पाकिस्तानी आतंकवादी गिरफ्तार नहीं होते. इसका कारण यह भी हो सकता है कि पहले आतंक के दो मौसम होते थे, एक पंद्रह अगस्त और एक छब्बीस जनवरी और अब तो हर मौसम आतंक का है. ऐसे में आतंकवादी 'जी' लोग़ जब चाहें पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी मना ले रहे हैं.
वैसे दिल्ली में तैयारियां जोरों पर होंगी. धोबी शेरवानियाँ धोने में व्यस्त होंगे. ट्रैफिक पुलिस वाले खोलने और बंद करने के लिए रास्तों का चुनाव कर रहे होंगे. प्रधानमंत्री का भाषण लिखने वाले यह सोचकर परेशान हो रहे होंगे कि भाषण में किसान, दलित, पीड़ित, ईमानदारी, चिंता, भ्रष्टाचार, अच्छे सम्बन्ध, जीडीपी, विकास दर, मज़बूत सरकार जैसे शब्द कहाँ-कहाँ फिट किये जायें जिससे भाषण को मैक्सिमम स्ट्रेंथ मिले और भाषण खूब मज़बूत बनकर उभरे. ईमानदारी के प्रदर्शन से फुरसत मिलती होगी तो प्रधानमंत्री जी सलामी लेने की भी प्रैक्टिस कर रहे होंगे. रोज रात को साढ़े आठ से नौ के बीच. उनके लिए चूंकि हिंदी एक कठिन भाषा है तो वे भाषण पढ़कर कम गलतियाँ करने की कोशिश कर रहे होंगे.
पिछले तमाम भाषणों को सुनने के बाद मेरे मन में आया कि भाषण के बारे में प्रधानमंत्री और उनके निजी सचिव के बीच शायद कुछ इस तरह की बात होती होगी;
-- सर, एक बात पूछनी थी आपसे?
-- हाँ हाँ, पूछिए न.
-- सर, वो ये पूछ रहा था कि इस बार लाल किले पर आप पहले किसानों की समस्याओं पर चिंता प्रकट करेंगे या अल्प-संख्यकों की?
-- जैसा आप कहें. वैसे मुझे लगता है कि पहले अल्पसंख्यकों की समस्याओं पर चिंता प्रकट करना ठीक रहेगा.
-- जी सर. मैं भी यही सोच रहा था. वैसे भी एक बार आपने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है ऐसे में..
-- हाँ, अच्छा याद दिलाया आपने. पहले उनकी समस्याओं पर चिंता प्रकट करूँगा तो लोगों को लगेगा कि मैं ऐसा प्रधानमंत्री हूँ "हू वाक्स द टाक."
-- और सर, किसानों की समस्याओं पर चिंता के अलावा और क्या प्रकट करना चाहेंगे आप?
-- और क्या प्रकट किया जा सकता है वो तो आप बतायेंगे? मुझे लगता है कि चिंता करने के अलावा अगर उन्हें विश्वास दिला दें तो ठीक रहेगा. नहीं?
-- बिलकुल ठीक सोचा है सर आपने. उन्हें लोन दिला ही चुके हैं. लोन माफी दिला ही दिया. नरेगा में रोजगार दिला ही दिया. सब्सिडी देते ही हैं. सबकुछ ठीक रहा तो अब कैश भी देने लगेंगे. कहीं-कहीं उन्हें गोली भी मिल चुकी है. ज़मीन के बदले में मुवावजा दिला ही देते हैं. इनसब के अलावा और बचता ही क्या है? सबकुछ तो दिला चुके. अब तो केवल विश्वास दिलाना बाकी है.
-- बिलकुल सही कह रहे हैं. जब तक विश्वास न दिलाया जाय, इनसब चीजों को दिलाने का कोई महत्व नहीं है.
-- और सर, पड़ोसी देशों से अच्छे सम्बन्ध कायम करने की बात आप कितनी बार करना चाहेंगे? तीन बार से काम चल जाएगा?
-- मुझे लगता है उसे बढ़ाकर चार कर दीजिये. वो ठीक रहेगा. हाँ, एक बात बतानी थी आपको. अभी तक जो भाषण मैंने पढ़ा है, उसमें भ्रष्टाचार के बारे में केवल आठ बार चिंतित होने का मौका मिल रहा है. मुझे लगता है उसे बढ़ाकर ग्यारह कर दिया जाय तो ठीक रहेगा.
-- अरे सर, मैं तो बारह करने वाला था. बाद में याद आया कि पाँच कैबिनेट मिनिस्टर पिछले सात दिन में कुल मिलाकर तेईस बार चिंता व्यक्त कर चुके हैं ऐसे में आप आठ बार ही व्यक्त करें नहीं तो बड़ा बोरिंग लगेगा.
-- कोई बात नहीं. चिंता करने की बात पर मुझे अपने मंत्रियों पर बहुत गर्व है. हाँ, ये बात कम से काम चार बार लिखवाईयेगा कि सरकार भ्रष्टाचार मिटाने के लिए कटिबद्ध है.
-- वो तो मैंने चार बार लिखवा दिया है सर. साथ ही मैंने इस बात पर जोर दिलवा दिया है कि सरकार का लोकपाल बिल सब बिलों से अच्छा है और उसके माध्यम से देश को एक मज़बूत लोकपाल मिलेगा.
-- ये आपने सही किया. अच्छा पूरे भाषण में मंहगाई पर कितनी बार चिंतित होना है?
-- यही कोई सात बार सर. वैसे सर, मंहगाई पर केवल चिंतित होना है या और कुछ भी होना चाहते हैं आप?
-- अरे मंहगाई को कंट्रोल में लाना चाहते हैं हम. एक काम कीजिये. ये जो कंट्रोल में लाने वाली बात है, उसे आप पिछले तीन भाषणों से कॉपी कर सकते हैं. अगर कॉपी करेंगे तो फिर अलग से मेहनत नहीं करनी पड़ेगी.
-- हे हे हे ..सर उसके लिए तो आपको याद दिलाने की ज़रुरत बिलकुल नहीं है. वो तो मैंने साल दो हज़ार आठ के भाषण से ही कॉपी किया है. और सर, दो हज़ार नौ और दस में भी दो हज़ार आठ के भाषण से कॉपी किया था. सबसे बढ़िया बात यह है सर कि ऐसा करने से हमारी उस फिलास्फी का पालन भी हो जाता है जिसके अनुसार हम पिछले रिकॉर्ड देखकर काम करते हैं.
-- यह बहुत ज़रूरी है कि हम अपने पुराने रास्तों को न भूलें. वैसे एक बात मत भूलियेगा. हम डबल डिजिट में ग्रो कर सकते हैं, यह बात आप चार-पाँच जगह डलवा दीजियेगा.
-- हें हें हें..सर, ये भी कोई कहने की बात है? सर, एट प्वाइंट फाइव का जीडीपी और डबल डिजिट में ग्रो करने की बात आपको याद दिलानी नहीं पड़ेगी सर.
-- गुड गुड.
-- सर, साम्प्रदायिकता के बारे में आप उतना ही चिंतित होना चाहते हैं जितना पिछले तीन साल से चिंतित हैं या इसबार थोड़ा और चिंतित हों चाहेंगे?
-- गुड क्वेश्चन...देखिये मुझे लगता है कि इस बार थोड़ा और चिंतित होने की ज़रुरत है. इतने सारे स्कैम फैले हुए हैं ऐसे में सैफ्रोन टेरर की बात हो जाए तो थोड़ा बैलेंस बन जाएगा.
-- बाकी तो लगभग पूछ ही लिया सर. एक बात ये पूछनी थी कि भ्रष्टाचार पर कार्यवाई करने की बात पर भाषण में सरकार की पीठ कितनी बार ठोंकी जाए?
-- अरे, सरकार भी अपनी है और पीठ भी अपनी. जितनी बार चाहें ठोंक लीजिये. इतने सालों तक भाषण लिखवाने के बाद ये सवाल तो नहीं पूछना चाहिए आपको...
-- सॉरी सर...
-- कोई बात नहीं. आप आगे का भाषण लिखवाइए. बाकी जो पूछना होगा वह सब कल पूछ लीजियेगा. अब मेरा ईमानदारी आसन में बैठने का समय हो गया है. मैं आधा घंटा ईमानदारी आसन में बैठकर ईमानदार होने की प्रैक्टिस करूँगा. कल फिर मिलते हैं.
Saturday, August 6, 2011
मॉंनसून स्कैम - पार्ट २
जैसा कि मैंने अपनी पिछली पोस्ट में बताया कि बारिश स्कैम के लिए जिम्मेदार सभी लोगों की प्रेस कांफ्रेंस के बारे में लिखूँगा. पिछली बार आपने कोलकाता के प्रभारी बादल की प्रेस कांफ्रेंस की रिपोर्टिंग देखी. आज पेश है कोलकाता के आकाश में छाने वाले बादलों को कंट्रोल करने वाले देवता की प्रेस कांफ्रेंस.
पत्रकार आ चुके हैं. देवता के सेक्यूरिटी गार्ड चाहते थे कि पत्रकार अपने जूते कांफ्रेंस हाल से बाहर उतार कर अन्दर घुसें. देवता ने मना कर दिया. बोले; "पत्रकार भी अपने हैं और जूते भी अपने ही हैं. जो अपने हैं उनसे कैसा खतरा? जूते समेत ही इन्हें अन्दर जाने दो."
उनकी बात सुनकर उनका एक सलाहकार बोला; "हे देव, चूंकि मामला बहुत गरमाया हुआ है और आपके द्वारा साध ली गई मीडिया को देखकर पूरे देवलोक के निवासी यह सोचते हैं कि आपकी यह प्रेस कांफ्रेंस केवल खानापूर्ती है, इसलिए मैं आपको एक सलाह देना चाहूँगा. अगर ऐसे मौकों पर मैं सलाह नहीं दे सकता तो फिर मेरे सलाहकार रहने का क्या फायदा? और तो और, हे देव, बिना सलाह लिए मैं अपनी सैलेरी लेकर गिल्टी फील करूँगा."
देव बोले; "सलाह दीजिये. जरूर दीजिये. सलाह के लिए ही तो आपको स्वर्ण मुद्राएं मिलती हैं. सलाह देने का आपका अधिकार बनता है."
अपने देव से ग्रीन सिग्नल मिलते ही सलाहकार बोला उठा; "तो हे देव, यह रही मेरी सलाह. ध्यान देकर सुनें.... मेरी सलाह यह है कि यहाँ उपस्थित पत्रकारों में से किसी एक को कहकर अपने ऊपर जूता फेंकवा लें. इससे दो बातें होंगी. एक तो आपकी अपनी मीडिया की क्रेडिबिलिटी बनी रहेगी और दूसरा उस पत्रकार को क्षमा करके आप अपना कद बढ़ा लेंगे."
सलाहकार की बात सुनकर देव प्रसन्न हो गए. बोले; "वाह! वाह! तुम्हारी सलाह पाकर हम धन्य हुए. ऐसा सलाहकार किसी और देवता के पास कहाँ? कहो तो अभी गैजेट साइन करके तुम्हें देवलोक महारत्न सम्मान दिलवा दूँ?"
सलाहकार हमेशा की तरह लजाने की एक्टिंग करने लगा. 'लजाते' हुए बोला; "सेवक को केवल देव का आशीर्वाद चाहिए. महारत्न सम्मान तो मिल ही जाएगा. महारत्न सम्मान देव के आशीर्वाद से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है."
देवता अपने सलाहकार के चमचत्व गुण से भाव विभोर हो गया. वातावरण में चारों तरफ चमचत्व के कण तैर रहे थे. ऊपर से बाकी देवता इस दृश्य को देखकर खुश हुए जा रहे थे. एक देवता ने इस प्रेस कांफ्रेंस पर पुष्पवर्षा कर डाली. सलाहकार ने एक पत्रकार को इस बात के लिए पटा लिया कि कोई कठिन सवाल पूछकर देवता से उचित उत्तर की कामना भंग होने का अभिनय करते हुए वह पत्रकार देवता के ऊपर जूता फेंकेगा. बाद में देवता उसे क्षमा कर देंगे. मीडिया की क्रेडिबिलिटी भी बन जायेगी और उधर उस देवता का कद भी एवेरेस्ट टाइप हो जाएगा.
प्रेस कांफ्रेंस शुरू हुई. देव बोले; "फ्रेंड्स, ऐज यू आर अवेयर, देयर हैव बीन सम....."
अभी देवता ने बोलना शुरू ही किया था कि तीन-चार पत्रकारों ने देवता से देवभाषा में बोलने के लिए कहा. उनकी बात सुनकर देवता बोले; "देवताओं से क्यों देवभाषा बोलवाना चाहते है आपलोग? हम देवता हैं. हमें आंग्ल भाषा में बोलना ही शोभा देता है."
इधर-उधर की बातें हुई. मौका देखते हुए देवता ने अपने सेन्स ऑफ ह्यूमर का प्रदर्शन किया. कुछ ठहाके लगे. उसके बाद पत्रकारों ने प्रश्न दागना शुरू किया. नमूना देखिये;
पत्रकार: क्या यह सही है कि आपके आदेश पर ही कोलकाता के बादलों ने कोलकाता पर वर्षा नहीं करके वहाँ के पानी का कोटा किसी और जगह दे दिया?
देवता: देखिये, यह पहली बार नहीं हुआ है. ऐसा पहले भी होता आया है. मुझसे पहले कोलकाता के प्रभारी देव ने ऐसा कई बार किया था. एक जगह के पानी को दूसरी जगह गिरवा देना कोई नई बात नहीं है.
पत्रकार: लेकिन पहले जो होता आया है उसकी आड़ में ऐसा करना आपको शोभा देता है क्या?
देवता: देखिये, देवों के काम करने का एक तरीका है. हमारा हर फैसला पहले किये गए फैसलों के आधार पर होता है. और जैसा कि मैंने बताया कि हमारे पहले भी वहाँ के प्रभारी देव यह करते रहे हैं....
पत्रकार: क्या यह सच है कि आपने इस बात का फैसला बिना किसी और को बताये कर लिया? क्या यह तानाशाही का प्रतीक नहीं है?
देवता: देखिये, यह तानाशाही है या नहीं वह तो आप पूरा सच जानकर ही निश्चित करें.
पत्रकार: लेकिन डी बी आई (देवलोक ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन) की इन्टेरिम रिपोर्ट में यह कहा गया है कि आपने यह फैसला खुद ही लिया है.
देवता: यह सच नहीं है. यह फैसला लेने से पहले जीओडी यानि ग्रुप ऑफ देवाज की कम से कम तीन मीटिंग्स हुई. इन मीटिंग्स की जानकारी देवराज को भी थी.
पत्रकार: परन्तु देवराज का कहना है कि उन्हें इस फैसले की जानकारी नहीं दी गई. आपने उन्हें अँधेरे में रखा.
देवता: यह सच नहीं है. देवराज को इसकी जानकारी थी. जिस दिन मैंने मिनट्स ऑफ मीटिंग्स उन्हें भेजी थी, वे डांस कंसर्ट में बिजी थे और शायद इसीलिए उन्होंने मिनट्स बुक नहीं देखा.
पत्रकार: आपके ऊपर यह आरोप भी है कि आप मेनका के दूर के रिश्तेदार हैं और इसीलिए उसने देवराज को कहकर आपको कोलकाता जैसे मलाईदार इलाके का प्रभारी बनाया गया. क्या यह रिश्तेदारवाद को बढ़ावा देना नहीं हुआ?
देवता: किसी का रिश्तेदार होना कोई अपराध नहीं है. वैसे हम आपको बता दें कि हमारी नियुक्ति हमारी योग्यता की वजह से हुई है.
पत्रकार: यह अफवाह भी है कि उड़ीसा के कुछ इलाकों से पिछले महीने आपको करीब सात हज़ार घंटे की पूजा-अर्चना मिली और इसलिए आपने कोलकाता का पानी उड़ीसा के उन्ही इलाकों को दे दिया?
देवता: देखिये, देवताओं में चूंकि मैं बहुत पॉपुलर हूँ इसलिए मेरे भक्त हर इलाके में हैं. आप उड़ीसा की बात करते हैं? मेरे भक्त तो रांची में भी हैं. मुझे वहाँ से भी कई हज़ार घंटे की पूजा-अर्चना मिलती रहती है. लेकिन कोलकाता में बरसात न होने की बात को मुझे मिली पूजा से जोड़ना उचित नहीं होगा.
पत्रकार: लेकिन ऐसी खबर आई है कि डीबीआई ने देवराज इन्द्र से ख़ास तौर इस ऐंगिल की जांच करवाने की सिफारिश की है?
देवता: अब यह तो देवराज पर निर्भर करता है कि वे क्या करते हैं. लेकिन मैं यहाँ बता देना चाहता हूँ कि देवराज हमारे देव हैं. हमें उनमें पूरा विश्वास है.
पत्रकार: आपके ऊपर यह आरोप भी हैं कि आपके क्षेत्र के बादल बहुत उद्दंड हो गए हैं. उनके अन्दर डिसिप्लिन नाम की कोई चीज ही नहीं रही. इसी की वजह से वे ढंग से बरसात नहीं कर पाते.
देवता: यह भी गलत आरोप है. जब मैंने अपने इलाके का कार्यभार संभाला था तब वहाँ बादलों की पैदावार बहुत कम होती थी. ऐसे में पानी भी कम ही बरसता था. अब ऐसा नहीं है. अब बादल भी खूब पैदा होते हैं और पानी भी खूब बरसता है.
पत्रकार: कहाँ खूब बरसता है? अगर खूब ही बरसता तो फिर इतना बवाल क्यों होता?
देवता: आप कदाचित उत्तेजित हो रहे हैं. आप बात समझ नहीं रहे हैं. अगर आप देखेंगे तो....
अभी वे बोल ही रहे थे कि पत्रकार ने दाहिने हाथ से अपने दाहिने पाँव का जूता उठाकर इस तरह से देवता की तरफ फेंका कि वह जूता उनके दाहिनी कनपटी के दाहिने तरफ से निकल गया. वहाँ उपस्थित बाकी पत्रकारों, देवता के सिक्यूरिटी गार्ड्स और उसके सलाहकार ने इस पत्रकार को पकड़ लिया. इधर देवता के सिक्यूरिटी गार्ड्स उस पत्रकार को पुलिस को सौंपने की धमकी दे ही रहे थे कि देवता ने कहा; "जाने दो. जाने दो. इस पत्रकार को देखकर लगता है जैसे इसे बहकाया गया है. इसकी गलती नहीं है. किसी ने इसे बहका कर हमारे ऊपर यह आक्रमण करवाया है. इसमें असुरों का हाथ है. यह तो निष्कपट निश्छल पत्रकार मात्र है. इसे छोड़ दो. मैं देवराज से भी आग्रह करूँगा कि वे इसके विरुद्ध कोई कार्यवाई न करें. इसे कारवास की सजा न मिले."
देवता की बात सुनकर उसके सलाहकार ने पत्रकार को देखते हुए अपनी बाएँ आँख दबा दी. पत्रकार मुस्कुरा उठा.
दूसरे दिन ही देवलोक वासियों ने मीडिया की भरपूर सराहना की. उस पत्रकार का नागरिक अभिनन्दन किया गया. देवलोक वासियों में मीडिया की क्रेडिबिलिटी एकबार फिर से वापस आ गई थी. सब इस बात से आश्वस्त थे कि जबतक मीडिया है तबतक उनके अधिकारों की रक्षा होती रहेगी.
पत्रकार आ चुके हैं. देवता के सेक्यूरिटी गार्ड चाहते थे कि पत्रकार अपने जूते कांफ्रेंस हाल से बाहर उतार कर अन्दर घुसें. देवता ने मना कर दिया. बोले; "पत्रकार भी अपने हैं और जूते भी अपने ही हैं. जो अपने हैं उनसे कैसा खतरा? जूते समेत ही इन्हें अन्दर जाने दो."
उनकी बात सुनकर उनका एक सलाहकार बोला; "हे देव, चूंकि मामला बहुत गरमाया हुआ है और आपके द्वारा साध ली गई मीडिया को देखकर पूरे देवलोक के निवासी यह सोचते हैं कि आपकी यह प्रेस कांफ्रेंस केवल खानापूर्ती है, इसलिए मैं आपको एक सलाह देना चाहूँगा. अगर ऐसे मौकों पर मैं सलाह नहीं दे सकता तो फिर मेरे सलाहकार रहने का क्या फायदा? और तो और, हे देव, बिना सलाह लिए मैं अपनी सैलेरी लेकर गिल्टी फील करूँगा."
देव बोले; "सलाह दीजिये. जरूर दीजिये. सलाह के लिए ही तो आपको स्वर्ण मुद्राएं मिलती हैं. सलाह देने का आपका अधिकार बनता है."
अपने देव से ग्रीन सिग्नल मिलते ही सलाहकार बोला उठा; "तो हे देव, यह रही मेरी सलाह. ध्यान देकर सुनें.... मेरी सलाह यह है कि यहाँ उपस्थित पत्रकारों में से किसी एक को कहकर अपने ऊपर जूता फेंकवा लें. इससे दो बातें होंगी. एक तो आपकी अपनी मीडिया की क्रेडिबिलिटी बनी रहेगी और दूसरा उस पत्रकार को क्षमा करके आप अपना कद बढ़ा लेंगे."
सलाहकार की बात सुनकर देव प्रसन्न हो गए. बोले; "वाह! वाह! तुम्हारी सलाह पाकर हम धन्य हुए. ऐसा सलाहकार किसी और देवता के पास कहाँ? कहो तो अभी गैजेट साइन करके तुम्हें देवलोक महारत्न सम्मान दिलवा दूँ?"
सलाहकार हमेशा की तरह लजाने की एक्टिंग करने लगा. 'लजाते' हुए बोला; "सेवक को केवल देव का आशीर्वाद चाहिए. महारत्न सम्मान तो मिल ही जाएगा. महारत्न सम्मान देव के आशीर्वाद से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है."
देवता अपने सलाहकार के चमचत्व गुण से भाव विभोर हो गया. वातावरण में चारों तरफ चमचत्व के कण तैर रहे थे. ऊपर से बाकी देवता इस दृश्य को देखकर खुश हुए जा रहे थे. एक देवता ने इस प्रेस कांफ्रेंस पर पुष्पवर्षा कर डाली. सलाहकार ने एक पत्रकार को इस बात के लिए पटा लिया कि कोई कठिन सवाल पूछकर देवता से उचित उत्तर की कामना भंग होने का अभिनय करते हुए वह पत्रकार देवता के ऊपर जूता फेंकेगा. बाद में देवता उसे क्षमा कर देंगे. मीडिया की क्रेडिबिलिटी भी बन जायेगी और उधर उस देवता का कद भी एवेरेस्ट टाइप हो जाएगा.
प्रेस कांफ्रेंस शुरू हुई. देव बोले; "फ्रेंड्स, ऐज यू आर अवेयर, देयर हैव बीन सम....."
अभी देवता ने बोलना शुरू ही किया था कि तीन-चार पत्रकारों ने देवता से देवभाषा में बोलने के लिए कहा. उनकी बात सुनकर देवता बोले; "देवताओं से क्यों देवभाषा बोलवाना चाहते है आपलोग? हम देवता हैं. हमें आंग्ल भाषा में बोलना ही शोभा देता है."
इधर-उधर की बातें हुई. मौका देखते हुए देवता ने अपने सेन्स ऑफ ह्यूमर का प्रदर्शन किया. कुछ ठहाके लगे. उसके बाद पत्रकारों ने प्रश्न दागना शुरू किया. नमूना देखिये;
पत्रकार: क्या यह सही है कि आपके आदेश पर ही कोलकाता के बादलों ने कोलकाता पर वर्षा नहीं करके वहाँ के पानी का कोटा किसी और जगह दे दिया?
देवता: देखिये, यह पहली बार नहीं हुआ है. ऐसा पहले भी होता आया है. मुझसे पहले कोलकाता के प्रभारी देव ने ऐसा कई बार किया था. एक जगह के पानी को दूसरी जगह गिरवा देना कोई नई बात नहीं है.
पत्रकार: लेकिन पहले जो होता आया है उसकी आड़ में ऐसा करना आपको शोभा देता है क्या?
देवता: देखिये, देवों के काम करने का एक तरीका है. हमारा हर फैसला पहले किये गए फैसलों के आधार पर होता है. और जैसा कि मैंने बताया कि हमारे पहले भी वहाँ के प्रभारी देव यह करते रहे हैं....
पत्रकार: क्या यह सच है कि आपने इस बात का फैसला बिना किसी और को बताये कर लिया? क्या यह तानाशाही का प्रतीक नहीं है?
देवता: देखिये, यह तानाशाही है या नहीं वह तो आप पूरा सच जानकर ही निश्चित करें.
पत्रकार: लेकिन डी बी आई (देवलोक ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन) की इन्टेरिम रिपोर्ट में यह कहा गया है कि आपने यह फैसला खुद ही लिया है.
देवता: यह सच नहीं है. यह फैसला लेने से पहले जीओडी यानि ग्रुप ऑफ देवाज की कम से कम तीन मीटिंग्स हुई. इन मीटिंग्स की जानकारी देवराज को भी थी.
पत्रकार: परन्तु देवराज का कहना है कि उन्हें इस फैसले की जानकारी नहीं दी गई. आपने उन्हें अँधेरे में रखा.
देवता: यह सच नहीं है. देवराज को इसकी जानकारी थी. जिस दिन मैंने मिनट्स ऑफ मीटिंग्स उन्हें भेजी थी, वे डांस कंसर्ट में बिजी थे और शायद इसीलिए उन्होंने मिनट्स बुक नहीं देखा.
पत्रकार: आपके ऊपर यह आरोप भी है कि आप मेनका के दूर के रिश्तेदार हैं और इसीलिए उसने देवराज को कहकर आपको कोलकाता जैसे मलाईदार इलाके का प्रभारी बनाया गया. क्या यह रिश्तेदारवाद को बढ़ावा देना नहीं हुआ?
देवता: किसी का रिश्तेदार होना कोई अपराध नहीं है. वैसे हम आपको बता दें कि हमारी नियुक्ति हमारी योग्यता की वजह से हुई है.
पत्रकार: यह अफवाह भी है कि उड़ीसा के कुछ इलाकों से पिछले महीने आपको करीब सात हज़ार घंटे की पूजा-अर्चना मिली और इसलिए आपने कोलकाता का पानी उड़ीसा के उन्ही इलाकों को दे दिया?
देवता: देखिये, देवताओं में चूंकि मैं बहुत पॉपुलर हूँ इसलिए मेरे भक्त हर इलाके में हैं. आप उड़ीसा की बात करते हैं? मेरे भक्त तो रांची में भी हैं. मुझे वहाँ से भी कई हज़ार घंटे की पूजा-अर्चना मिलती रहती है. लेकिन कोलकाता में बरसात न होने की बात को मुझे मिली पूजा से जोड़ना उचित नहीं होगा.
पत्रकार: लेकिन ऐसी खबर आई है कि डीबीआई ने देवराज इन्द्र से ख़ास तौर इस ऐंगिल की जांच करवाने की सिफारिश की है?
देवता: अब यह तो देवराज पर निर्भर करता है कि वे क्या करते हैं. लेकिन मैं यहाँ बता देना चाहता हूँ कि देवराज हमारे देव हैं. हमें उनमें पूरा विश्वास है.
पत्रकार: आपके ऊपर यह आरोप भी हैं कि आपके क्षेत्र के बादल बहुत उद्दंड हो गए हैं. उनके अन्दर डिसिप्लिन नाम की कोई चीज ही नहीं रही. इसी की वजह से वे ढंग से बरसात नहीं कर पाते.
देवता: यह भी गलत आरोप है. जब मैंने अपने इलाके का कार्यभार संभाला था तब वहाँ बादलों की पैदावार बहुत कम होती थी. ऐसे में पानी भी कम ही बरसता था. अब ऐसा नहीं है. अब बादल भी खूब पैदा होते हैं और पानी भी खूब बरसता है.
पत्रकार: कहाँ खूब बरसता है? अगर खूब ही बरसता तो फिर इतना बवाल क्यों होता?
देवता: आप कदाचित उत्तेजित हो रहे हैं. आप बात समझ नहीं रहे हैं. अगर आप देखेंगे तो....
अभी वे बोल ही रहे थे कि पत्रकार ने दाहिने हाथ से अपने दाहिने पाँव का जूता उठाकर इस तरह से देवता की तरफ फेंका कि वह जूता उनके दाहिनी कनपटी के दाहिने तरफ से निकल गया. वहाँ उपस्थित बाकी पत्रकारों, देवता के सिक्यूरिटी गार्ड्स और उसके सलाहकार ने इस पत्रकार को पकड़ लिया. इधर देवता के सिक्यूरिटी गार्ड्स उस पत्रकार को पुलिस को सौंपने की धमकी दे ही रहे थे कि देवता ने कहा; "जाने दो. जाने दो. इस पत्रकार को देखकर लगता है जैसे इसे बहकाया गया है. इसकी गलती नहीं है. किसी ने इसे बहका कर हमारे ऊपर यह आक्रमण करवाया है. इसमें असुरों का हाथ है. यह तो निष्कपट निश्छल पत्रकार मात्र है. इसे छोड़ दो. मैं देवराज से भी आग्रह करूँगा कि वे इसके विरुद्ध कोई कार्यवाई न करें. इसे कारवास की सजा न मिले."
देवता की बात सुनकर उसके सलाहकार ने पत्रकार को देखते हुए अपनी बाएँ आँख दबा दी. पत्रकार मुस्कुरा उठा.
दूसरे दिन ही देवलोक वासियों ने मीडिया की भरपूर सराहना की. उस पत्रकार का नागरिक अभिनन्दन किया गया. देवलोक वासियों में मीडिया की क्रेडिबिलिटी एकबार फिर से वापस आ गई थी. सब इस बात से आश्वस्त थे कि जबतक मीडिया है तबतक उनके अधिकारों की रक्षा होती रहेगी.
Thursday, August 4, 2011
मॉंनसून स्कैम
कोलकाता में करीब पंद्रह-बीस दिनों तक बरसात नहीं हुई. ऐसा नहीं कि बादल छाये नहीं. ऐसा भी नहीं कि बादल भाये नहीं. जब-जब बादल छाये तब-तब बादल भाये (इस कहते हैं आँसू कविता. लिखने वाला लिखे और पढनेवाला आँसू बहाए). ट्विटर पर हजारों ट्वीट दिखाई दीं, जिनमें ट्विटर योद्धाओं ने कोलकाता के आसमान पर छाए गोरे, भूरे, काले, लाल, पीले, सब तरह के बादलों को इतना खूबसूरत बताया कि अगर कटरीना कैफ पढ़ लेतीं तो डिप्रेशन में चली जातीं. जरा सी रिम-झिम हुई तो इन ट्विटर योद्धाओं ने ट्वीट करके अपने पछतावे के बारे में बताया कि क्या बिडम्बना है कि; "ऐसे मौसम में आफिस जाना पड़ेगा." मन ही मन गरम पकौड़े और चाय के संहार का सपना देखा और मन ही मन उन सपनों पर पसीना फेर दिया.
न जाने कितनो ने ने रवींद्र संगीत सुना. कितने तो गुनगुनाते पकड़े गए कि; "पागला हवा बादोल दिने पागोल आमार मोन जेगे उठे.." कवि-हृदय मानवों ने श्री सुमित्रा नंदन पन्त से इंस्पायर होते हुए कवितायें लिखीं. रेन-कोट की बिक्री बढ़ी. दूकान में रखे छातों को घरों का कोना नसीब हुआ. टैक्सी वालों ने टैक्सी यात्रियों से बरसात में एक्स्ट्रा भाड़ा मांगने के प्लान बनाये. प्यासी सड़कों ने पानी पीने के सपने देखे. महानगर पालिका ने भारी बरसात की संभावना को देखते हुए अपने कर्मचारी और पम्प तैयार किये जिससे रास्तों और गलियों में जमे पानी को जल्द-जल्द से निकाला जा सके.
लेकिन बरसात नहीं हुई. सारी तैयारियों पर बादल फिर गए.
कोलकाता के नागरिकों ने देवराज इंद्र को गरियाना शुरू किया. पहले पाँच दिन तो देवलोक की मीडिया ने यह मुद्दा उठाया ही नहीं. कारण यह था कि तमाम बड़े पत्रकार, सम्पादक वगैरह देवराज के साथ डांस कर्सर्ट देखने में बिजी थे. बाद में जब मीडिया को लगा कि बीच-बीच में उसे मीडिया-धर्म का पालन भी करते रहना है, तब उसने यह मुद्दा उठाया. पहले तो देवराज इन्द्र के चेले-चमचों ने साफ़-साफ़ कह दिया कि उनकी इंटीग्रिटी पर सवाल उठाने का अधिकार किसी को नहीं है. कुछ संपादकों ने भी देवराज का बचाव यह कहते हुए किया कि; "देवलोक के छोटे-मोटे कर्मचारियों की लापरवाही के लिए लिए उन्हें दोषी करार देना उचित नहीं है. वे तो दैवीय कार्यों में व्यस्त रहते हैं. किसी इलाके में बारिश हुई या नहीं, ऐसी टुच्ची बात से उनका का क्या लेना-देना?
उनके कुछ चमचों ने तो यहाँ तक कह दिया कि "देवराज को इस मामले में फंसाया जा रहा है. यह शुक्राचार्य की चाल है."
लेकिन तब तक मामला गरमा गया था. मामले ने इतना तूल पकड़ा कि देवराज का मन डांस और सोमरस से भटकने लगा. बाद में उनके सलाहकारों ने उन्हें सलाह दी कि दो-चार प्रेस कांफेरेंस करके मामले को दफनाया जा सकता है. इन्ही परिस्थियों में तमाम लोगों ने प्रेस कांफेरेंस की.
पेश है उन्ही में से एक प्रेस कांफेरेंस कोलकाता के प्रभारी बादल ने किया जिसे कोलकाता में बारिश मैनेजमेंट का प्रभार सौंपा गया था;
कोलकाता के प्रभारी बादल की प्रेस कांफेरेंस:
पत्रकार: आपके ऊपर जो आरोप हैं, क्या वह सही हैं?
बादल: देवलोक के कर्मचारियों पर लगे आरोप कभी सही होते हैं क्या?
पत्रकार: क्या यह सच नहीं है कि देवलोक से कोलकाता के लिए जल लेकर तो आप चले लेकिन कोलकाता के ऊपर बरसात न करके आपने कहीं और बरसात कर दी?
बादल: यह सही नहीं है.
पत्रकार: परन्तु कोलकाता की सूखी सड़कें इस बात की गवाह हैं कि आपने वहाँ बरसात नहीं की.
बादल: हमने तो बरसात की थी. अब ग्लोबल वार्मिंग की वजह से पृथ्वी की ऊपरी सतह पानी सोख ले, तो हम क्या कर सकते हैं?
पत्रकार: लेकिन लोगों ने आपको बरसात करते नहीं देखा.
बादल: देखिये, यह आरोप बदले की भावना से लगाया जा रहा है. पिछले वर्ष जो सूखा पड़ा था उसकी वजह से पत्रकार हमसे बदला लेना चाहते हैं.
पत्रकार: यह आरोप केवल पत्रकारों का नहीं है. कोलकाता के लोगों ने भी आरोप लगाया है.
बादल: लोग़ तो आरोप लगाते रहते हैं लेकिन उन आरोपों में सच्चाई कितनी होती है? अगर लगता है कि जांच की ज़रुरत है तो हम किसी भी तरह की जांच के लिए तैयार हैं.
पत्रकार: जांच की क्या ज़रुरत है? यह तो सीधा-सीधा दिखाई दे रहा है कि पानी कहीं नहीं है. आप चाहें तो अपने हाथों से मिट्ठी छूकर देख लें. किसी तालाब में पानी नहीं है. झील में पानी का स्तर नहीं बढ़ा. सबकुछ तो वैसे ही देखा जा सकता है. इसके लिए जांच की क्या ज़रुरत है?
बादल: देखिये, देवलोक के काम करने का अपना एक तरीका है. हम बिना सुबूत के कुछ नहीं मानते. हाथ से छूकर हम नहीं देखेंगे.
पत्रकार: तो फिर आप क्या चाहते हैं?
बादल: देवराज डी बी आई को निर्देश दें, वह जांच करे. वे चाहे तो किसी अवकाश प्राप्त देवता की अध्यक्षता में एक कमीशन बैठा दें. हमें कोई आपत्ति नहीं.
पत्रकार: जब तक कमीशन जांच करेगा, तब तक अगर आप पानी लाकर फिर से बारिश कर देंगे तो?
बादल: कोलकाता के लिए जितना कोटा इस महीने का था, वह सब ख़त्म हो गया है. अब अगले महीने जितना मिलेगा हम वही आपको दे सकेंगे.
पत्रकार: ऐसी बात है? कोलकाता का कोटा तो आपने कहीं और दे दिया.
बादल: आप चाहें तो ओवर-ड्राफ्ट के लिए अप्लाई कर दें. कोटा बढाया जा सकता है.
पत्रकार: आपके पास कोई सुबूत है कि आपने पानी बरसाया?
बादल: हाँ, हमारे पास सुबूत है. मैं अकेले तो बरसात करने नहीं आया था. मेरे साथ इस समय जो चार बादल और दो बदली बैठी हुई हैं, उनसे पूछ लीजिये. वे आपको बतायेंगे कि पानी बरसाया गया था.
पत्रकार: ये तो सब आपके मातहत काम करते हैं. वो छुटकी बदली बेचारी आपके खिलाफ कैसे जा सकती है?
बादल: हम देवलोक के बादल हैं. हमारे यहाँ सबको छूट है कहीं भी जाने की. वो बादल हो या बदली.
पत्रकार: आप मुद्दे से हमें भटका रहे हैं.
बादल: हम आपको मुद्दे से क्या भटकायेंगे? आपलोग मुद्दे पर थे ही कब?
पत्रकार: आप कहना क्या चाहते हैं?
बादल: हम यही कहना चाहते हैं कि हमें इस बारे में और कुछ नहीं कहना. अब आपको जो कुछ पूछना है वह हमारे बॉस, यानि कोलकाता के प्रभारी देव से पूछिए. उन्होंने हमें जो करने के लिए कहा, हमने किया. अब हम और कोई सवाल नहीं लेंगे.
प्रेस कांफेरेंस ख़त्म हो गई. मामला गरमाया हुआ है. पत्रकार अब कोलकाता के प्रभारी देव से सवाल करेंगे. देव के प्रेस कांफेरेंस के लिए एक दिन का इंतजार कीजिये.
न जाने कितनो ने ने रवींद्र संगीत सुना. कितने तो गुनगुनाते पकड़े गए कि; "पागला हवा बादोल दिने पागोल आमार मोन जेगे उठे.." कवि-हृदय मानवों ने श्री सुमित्रा नंदन पन्त से इंस्पायर होते हुए कवितायें लिखीं. रेन-कोट की बिक्री बढ़ी. दूकान में रखे छातों को घरों का कोना नसीब हुआ. टैक्सी वालों ने टैक्सी यात्रियों से बरसात में एक्स्ट्रा भाड़ा मांगने के प्लान बनाये. प्यासी सड़कों ने पानी पीने के सपने देखे. महानगर पालिका ने भारी बरसात की संभावना को देखते हुए अपने कर्मचारी और पम्प तैयार किये जिससे रास्तों और गलियों में जमे पानी को जल्द-जल्द से निकाला जा सके.
लेकिन बरसात नहीं हुई. सारी तैयारियों पर बादल फिर गए.
कोलकाता के नागरिकों ने देवराज इंद्र को गरियाना शुरू किया. पहले पाँच दिन तो देवलोक की मीडिया ने यह मुद्दा उठाया ही नहीं. कारण यह था कि तमाम बड़े पत्रकार, सम्पादक वगैरह देवराज के साथ डांस कर्सर्ट देखने में बिजी थे. बाद में जब मीडिया को लगा कि बीच-बीच में उसे मीडिया-धर्म का पालन भी करते रहना है, तब उसने यह मुद्दा उठाया. पहले तो देवराज इन्द्र के चेले-चमचों ने साफ़-साफ़ कह दिया कि उनकी इंटीग्रिटी पर सवाल उठाने का अधिकार किसी को नहीं है. कुछ संपादकों ने भी देवराज का बचाव यह कहते हुए किया कि; "देवलोक के छोटे-मोटे कर्मचारियों की लापरवाही के लिए लिए उन्हें दोषी करार देना उचित नहीं है. वे तो दैवीय कार्यों में व्यस्त रहते हैं. किसी इलाके में बारिश हुई या नहीं, ऐसी टुच्ची बात से उनका का क्या लेना-देना?
उनके कुछ चमचों ने तो यहाँ तक कह दिया कि "देवराज को इस मामले में फंसाया जा रहा है. यह शुक्राचार्य की चाल है."
लेकिन तब तक मामला गरमा गया था. मामले ने इतना तूल पकड़ा कि देवराज का मन डांस और सोमरस से भटकने लगा. बाद में उनके सलाहकारों ने उन्हें सलाह दी कि दो-चार प्रेस कांफेरेंस करके मामले को दफनाया जा सकता है. इन्ही परिस्थियों में तमाम लोगों ने प्रेस कांफेरेंस की.
पेश है उन्ही में से एक प्रेस कांफेरेंस कोलकाता के प्रभारी बादल ने किया जिसे कोलकाता में बारिश मैनेजमेंट का प्रभार सौंपा गया था;
कोलकाता के प्रभारी बादल की प्रेस कांफेरेंस:
पत्रकार: आपके ऊपर जो आरोप हैं, क्या वह सही हैं?
बादल: देवलोक के कर्मचारियों पर लगे आरोप कभी सही होते हैं क्या?
पत्रकार: क्या यह सच नहीं है कि देवलोक से कोलकाता के लिए जल लेकर तो आप चले लेकिन कोलकाता के ऊपर बरसात न करके आपने कहीं और बरसात कर दी?
बादल: यह सही नहीं है.
पत्रकार: परन्तु कोलकाता की सूखी सड़कें इस बात की गवाह हैं कि आपने वहाँ बरसात नहीं की.
बादल: हमने तो बरसात की थी. अब ग्लोबल वार्मिंग की वजह से पृथ्वी की ऊपरी सतह पानी सोख ले, तो हम क्या कर सकते हैं?
पत्रकार: लेकिन लोगों ने आपको बरसात करते नहीं देखा.
बादल: देखिये, यह आरोप बदले की भावना से लगाया जा रहा है. पिछले वर्ष जो सूखा पड़ा था उसकी वजह से पत्रकार हमसे बदला लेना चाहते हैं.
पत्रकार: यह आरोप केवल पत्रकारों का नहीं है. कोलकाता के लोगों ने भी आरोप लगाया है.
बादल: लोग़ तो आरोप लगाते रहते हैं लेकिन उन आरोपों में सच्चाई कितनी होती है? अगर लगता है कि जांच की ज़रुरत है तो हम किसी भी तरह की जांच के लिए तैयार हैं.
पत्रकार: जांच की क्या ज़रुरत है? यह तो सीधा-सीधा दिखाई दे रहा है कि पानी कहीं नहीं है. आप चाहें तो अपने हाथों से मिट्ठी छूकर देख लें. किसी तालाब में पानी नहीं है. झील में पानी का स्तर नहीं बढ़ा. सबकुछ तो वैसे ही देखा जा सकता है. इसके लिए जांच की क्या ज़रुरत है?
बादल: देखिये, देवलोक के काम करने का अपना एक तरीका है. हम बिना सुबूत के कुछ नहीं मानते. हाथ से छूकर हम नहीं देखेंगे.
पत्रकार: तो फिर आप क्या चाहते हैं?
बादल: देवराज डी बी आई को निर्देश दें, वह जांच करे. वे चाहे तो किसी अवकाश प्राप्त देवता की अध्यक्षता में एक कमीशन बैठा दें. हमें कोई आपत्ति नहीं.
पत्रकार: जब तक कमीशन जांच करेगा, तब तक अगर आप पानी लाकर फिर से बारिश कर देंगे तो?
बादल: कोलकाता के लिए जितना कोटा इस महीने का था, वह सब ख़त्म हो गया है. अब अगले महीने जितना मिलेगा हम वही आपको दे सकेंगे.
पत्रकार: ऐसी बात है? कोलकाता का कोटा तो आपने कहीं और दे दिया.
बादल: आप चाहें तो ओवर-ड्राफ्ट के लिए अप्लाई कर दें. कोटा बढाया जा सकता है.
पत्रकार: आपके पास कोई सुबूत है कि आपने पानी बरसाया?
बादल: हाँ, हमारे पास सुबूत है. मैं अकेले तो बरसात करने नहीं आया था. मेरे साथ इस समय जो चार बादल और दो बदली बैठी हुई हैं, उनसे पूछ लीजिये. वे आपको बतायेंगे कि पानी बरसाया गया था.
पत्रकार: ये तो सब आपके मातहत काम करते हैं. वो छुटकी बदली बेचारी आपके खिलाफ कैसे जा सकती है?
बादल: हम देवलोक के बादल हैं. हमारे यहाँ सबको छूट है कहीं भी जाने की. वो बादल हो या बदली.
पत्रकार: आप मुद्दे से हमें भटका रहे हैं.
बादल: हम आपको मुद्दे से क्या भटकायेंगे? आपलोग मुद्दे पर थे ही कब?
पत्रकार: आप कहना क्या चाहते हैं?
बादल: हम यही कहना चाहते हैं कि हमें इस बारे में और कुछ नहीं कहना. अब आपको जो कुछ पूछना है वह हमारे बॉस, यानि कोलकाता के प्रभारी देव से पूछिए. उन्होंने हमें जो करने के लिए कहा, हमने किया. अब हम और कोई सवाल नहीं लेंगे.
प्रेस कांफेरेंस ख़त्म हो गई. मामला गरमाया हुआ है. पत्रकार अब कोलकाता के प्रभारी देव से सवाल करेंगे. देव के प्रेस कांफेरेंस के लिए एक दिन का इंतजार कीजिये.
Wednesday, July 27, 2011
एक मुलाक़ात सुरेश कलमाडी के साथ
पत्रकारिता केवल वह नहीं होती जो टीवी न्यूज़ स्टूडियो में बैठकर की जाती है. पत्रकारिता वह भी होती है जो फील्ड में रहकर की जाती है. अब हमारे चंदू को ही ले लीजिये. उधर सुरेश कलमाडी जी को डिमेंसिया यानि भूलने की बीमारी की खबर आई और इधर चंदू को बेचैनी की बीमारी ने घेर लिया. बेचैन रहने लगा कि सुरेश कलमाडी जी का इंटरव्यू किसी भी तरह से लेकर आये. मैंने कहा; "वे जेल में बंद हैं. वहाँ इंटरव्यू नहीं लिया जा सकेगा"
वह बोला; "जेल से फिरौती का धंधा चल सकता है, जेल से राजनीति चल सकती है, कलमाडी जी जेल में रहकर अपने एमपी फंड से चेक काट सकते हैं तो फिर जेल में इंटरव्यू क्यों नहीं लिया जा सकता?"
मैंने कहा; "मेरी तो कोई जान-पहचान नहीं है कि मैं किसी को कहकर उनके इंटरव्यू का इंतज़ाम करवा सकूँ. तुम्हारी कोई जान-पहचान हो तो तुम जाओ."
चंदू बोला; "एक बार मैंने तिहाड़ में एक हवलदार की हेल्प से एक स्वामी जी का इंटरव्यू लिया था. उसी को फिर से पटाते हैं."
इतना कहकर चला गया. कल शाम को लौटा तो हाथ में कलमाडी का इंटरव्यू था. पेपर देते हुए बोला; "सुबहे ब्लॉग पर छाप दीजिये नहीं तो कोई न्यूज़ चैनल इसी को एक्सक्लूसिव बताकर दिखा देगा."
तो मैं चंदू द्वारा लिया गया कलमाडी जी का इंटरव्यू छाप रहा हूँ. आप बांचिये.
चंदू: कलमाडी जी, सुना है आप डिमेंसिया के शिकार हो गए हैं?
कलमाडी: ये डिमेंसिया क्या होता है?
चंदू: (धीरे से) लगता है सही में शिकार हो गए हैं.
कलमाडी : आपने कुछ कहा?
चंदू: नहीं-नहीं, मैंने कुछ कहा नहीं. मैं यह पूछ रहा था कि आपको कब लगा कि आपकी याददाश्त जा रही है?
कलमाडी: मुझे नहीं लगा. दस दिन पहले मेरे वकील ने बताया कि मेरी याददाश्त धीरे-धीरे चली जा रही है.
चंदू: लेकिन याददाश्त तो आपकी है. उन्हें कैसे पता चला?
कलमाडी: क्या कैसे पता चला?
चंदू: (धीरे से बुदबुदाते हुए) लगता है सही में गए...नहीं मैं पूछ रहा था कि याददाश्त तो आपकी पर्सनल है, आपके वकील को कैसे पता चला कि वो खो रही है.
कलमाडी: अच्छा, वो पूछ रहे हैं. वो हुआ ऐसा कि मैंने उनकी फीस का जो चेक दिया उसमें तारीख गलत लिख दी. उसे देखकर वे बोले कि मैं डिमेंसिया का शिकार हो गया हूँ.
चंदू: केवल तारीख गलत लिख देने से वे इस नतीजे पर पहुँच गए.
कलमाडी: कौन पहुँच गया?
चंदू: वही, आपके वकील साहब.
कलमाडी: कहाँ पहुँच गए?
चंदू: सर, आप मेरी बात समझ नहीं रहे हैं. आपकी बात सुनकर लग रहा है कि आप मेरा इंटरव्यू ले रहे हैं. मैं यह कह रहा था कि चेक पर केवल तारीख गलत लिख देने से वकील साहब मान गए कि आप डिमेंसिया के शिकार हो गए हैं?
कलमाडी: हाँ, ऐसा ही तो हुआ. वैसे भी वकील कुछ भी मान सकते हैं और कुछ भी मनवा सकते हैं.
चंदू: और कोई घटना ऐसी हुई क्या जिससे लगे कि आप डिमेंसिया के शिकार हो गए हैं?
कलमाडी: मैं तो नहीं मान रहा था लेकिन वकील साहब ने ही बताया कि एक घटना हाल में ही घटी जिससे मेरी याददाश्त के खो जाने की बात साबित होती है.
चंदू; कौन सी घटना?
कलमाडी: वकील साहब ने ही याद दिलाया कि मैं उस दिन जेलर के आफिस में बैठकर जो चाय, बिस्कुट और नमकीन उड़ा रहा था वह भी डिमेंसिया की वजह से ही हुआ होगा.
चंदू: वह कैसे?
कलमाडी: उनका मानना है कि डिमेंसिया के चलते ही मैं जेलर के आफिस को अपना घर समझ बैठा.
चंदू: लेकिन मैंने तो यह भी सुना है कि आप जेल में ही रहते हुए अपने एमपी फंड से खर्च भी कर रहे हैं.
कलमाडी: उसको लेकर भी वकील साहब ने साबित कर दिया कि एमपी फंड से खर्च करना इस बात को साबित करता है कि मैं सच में डिमेंसिया का शिकार हो गया हूँ.
चंदू: वह कैसे?
कलमाडी: एक दिन वकील साहब ने बताया कि मैं यह भूल गया हूँ कि मैं एमपी भी हूँ और मेरा एमपी फंड खर्च के लिए तरस रहा है. उनके याद दिलाने के बाद कि मैं एक एमपी हूँ, मैंने अपने फंड से खर्च करना शुरू किया.
चंदू: लेकिन मुझे तो लगता है कि डिमेंसिया आपका कानूनी दाव-पेंच है खुद को बचाने के लिए.
कलमाडी: मिस्टर अरनब गोस्वामी आप मेरे ऊपर ऐसे आरोप लगाकर गलती कर रहे हैं. मैं वार्निंग दे रहा हूँ कि अगर एक बार और आपने ऐसा आरोप लगाया तो मैं आपके खिलाफ और आपकी टाइम मैगजीन के खिलाफ आदालत में डिफेमेशन केस फाइल कर दूंगा.
चंदू: सर जी, मैं अरनब गोस्वामी नहीं हूँ. मैं चंदू चौरसिया हूँ. और बाइ द वे, अरनब गोस्वामी टाइम मैगजीन में काम नहीं करते वे टाइम्स नाउ चैनल के पत्रकार हैं.
कलमाडी: ओह, मैं तो भूल ही गया था. देखिये ये डिमेंसिया का ही असर होगा.
चंदू: आपके वकील साहब को क्या लगता है? क्या आपकी यह डिमेंसिया वाली बात सचमुच ठोस है?
कलमाडी: क्या ठोस है?
चंदू: मैं पूछ रहा था कि यह डिमेंसिया वाली बात क्या साबित कर पायेंगे आप और आपके वकील साहब?
कलमाडी: हाँ, बिलकुल कर पायेंगे. दरअसल मेरी खराब होती याददाश्त और अपनी तेज याददाश्त के सहारे मेरे वकील साहब फिर साल २००९-१० में गए. उन्होंने मुझे याद दिलाया कि गेम्स ओर्गेनाइजिन्ग कमिटी का चीफ होने के बावजूद मैंने समय पर तैयारी नहीं की. दरअसल मैं भूल जाता था कि मुझे तैयारी करनी है. फिर उन्होंने याद दिलाया कि मैंने इंडियन हाइ कमीशन के डोक्यूमेंट फोर्ज करने के बाद भी लोगों को बताया कि मैंने डोक्यूमेंट फोर्ज नहीं किया. यह डिमेंसिया की वजह से ही था. फिर उन्होंने याद दिलाया कि सारे फैसले मैंने लिए लेकिन याददाश्त ख़राब होने के कारण मैंने दरबारी, महेन्द्रू वगैरह को फँसा दिया. फिर उन्होंने बताया कि........सबसे अंत में उन्होंने बताया कि इन सारी बातों की वजह से मुझपर डिमेंसिया का केस तो बनता ही बनता है.
चंदू: मतलब आपकी तैयारी फूल-प्रूफ है.
कलमाडी: अपनी तरफ से तो तैयारी फूल-प्रूफ ही रहती है. अरनब गोस्वामी जी, चलिए अब इंटरव्यू ख़त्म कीजिए मुझे मूवी देखना है. वकील साहब ये सीडी दे गए थे. देखने के लिए कहा है. हाँ, आपकी टाइम मैगजीन के जिस एडिशन में यह इंटरव्यू छापेंगे उसकी एक कॉपी ज़रूर भेज दीजियेगा.
चंदू: सर जी, मैं अरनब गोस्वामी नहीं हूँ. बाइ द वे, अरनब गोस्वामी टाइम मैगजीन के नहीं बल्कि टाइम्स नाउ टीवी चैनल के पत्रकार हैं.
कलमाडी: वकील साहब ठीक ही कहते हैं. मैं सच में डिमेंसिया का शिकार हो गया हूँ. ठीक है, आप जाइए. मैं मूवी देखने जाता हूँ.
चंदू ने सीडी हाथ में लेकर देखा तो वह आमिर खान की फिल्म गजनी की सीडी थी. उधर कलमाडी जी गज़नी एन्जॉय करने गए और इधर चंदू जेल से बाहर.
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काजू भुने पलेट में, ह्विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में
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पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में
---अदम गौंडवी
वह बोला; "जेल से फिरौती का धंधा चल सकता है, जेल से राजनीति चल सकती है, कलमाडी जी जेल में रहकर अपने एमपी फंड से चेक काट सकते हैं तो फिर जेल में इंटरव्यू क्यों नहीं लिया जा सकता?"
मैंने कहा; "मेरी तो कोई जान-पहचान नहीं है कि मैं किसी को कहकर उनके इंटरव्यू का इंतज़ाम करवा सकूँ. तुम्हारी कोई जान-पहचान हो तो तुम जाओ."
चंदू बोला; "एक बार मैंने तिहाड़ में एक हवलदार की हेल्प से एक स्वामी जी का इंटरव्यू लिया था. उसी को फिर से पटाते हैं."
इतना कहकर चला गया. कल शाम को लौटा तो हाथ में कलमाडी का इंटरव्यू था. पेपर देते हुए बोला; "सुबहे ब्लॉग पर छाप दीजिये नहीं तो कोई न्यूज़ चैनल इसी को एक्सक्लूसिव बताकर दिखा देगा."
तो मैं चंदू द्वारा लिया गया कलमाडी जी का इंटरव्यू छाप रहा हूँ. आप बांचिये.
चंदू: कलमाडी जी, सुना है आप डिमेंसिया के शिकार हो गए हैं?
कलमाडी: ये डिमेंसिया क्या होता है?
चंदू: (धीरे से) लगता है सही में शिकार हो गए हैं.
कलमाडी : आपने कुछ कहा?
चंदू: नहीं-नहीं, मैंने कुछ कहा नहीं. मैं यह पूछ रहा था कि आपको कब लगा कि आपकी याददाश्त जा रही है?
कलमाडी: मुझे नहीं लगा. दस दिन पहले मेरे वकील ने बताया कि मेरी याददाश्त धीरे-धीरे चली जा रही है.
चंदू: लेकिन याददाश्त तो आपकी है. उन्हें कैसे पता चला?
कलमाडी: क्या कैसे पता चला?
चंदू: (धीरे से बुदबुदाते हुए) लगता है सही में गए...नहीं मैं पूछ रहा था कि याददाश्त तो आपकी पर्सनल है, आपके वकील को कैसे पता चला कि वो खो रही है.
कलमाडी: अच्छा, वो पूछ रहे हैं. वो हुआ ऐसा कि मैंने उनकी फीस का जो चेक दिया उसमें तारीख गलत लिख दी. उसे देखकर वे बोले कि मैं डिमेंसिया का शिकार हो गया हूँ.
चंदू: केवल तारीख गलत लिख देने से वे इस नतीजे पर पहुँच गए.
कलमाडी: कौन पहुँच गया?
चंदू: वही, आपके वकील साहब.
कलमाडी: कहाँ पहुँच गए?
चंदू: सर, आप मेरी बात समझ नहीं रहे हैं. आपकी बात सुनकर लग रहा है कि आप मेरा इंटरव्यू ले रहे हैं. मैं यह कह रहा था कि चेक पर केवल तारीख गलत लिख देने से वकील साहब मान गए कि आप डिमेंसिया के शिकार हो गए हैं?
कलमाडी: हाँ, ऐसा ही तो हुआ. वैसे भी वकील कुछ भी मान सकते हैं और कुछ भी मनवा सकते हैं.
चंदू: और कोई घटना ऐसी हुई क्या जिससे लगे कि आप डिमेंसिया के शिकार हो गए हैं?
कलमाडी: मैं तो नहीं मान रहा था लेकिन वकील साहब ने ही बताया कि एक घटना हाल में ही घटी जिससे मेरी याददाश्त के खो जाने की बात साबित होती है.
चंदू; कौन सी घटना?
कलमाडी: वकील साहब ने ही याद दिलाया कि मैं उस दिन जेलर के आफिस में बैठकर जो चाय, बिस्कुट और नमकीन उड़ा रहा था वह भी डिमेंसिया की वजह से ही हुआ होगा.
चंदू: वह कैसे?
कलमाडी: उनका मानना है कि डिमेंसिया के चलते ही मैं जेलर के आफिस को अपना घर समझ बैठा.
चंदू: लेकिन मैंने तो यह भी सुना है कि आप जेल में ही रहते हुए अपने एमपी फंड से खर्च भी कर रहे हैं.
कलमाडी: उसको लेकर भी वकील साहब ने साबित कर दिया कि एमपी फंड से खर्च करना इस बात को साबित करता है कि मैं सच में डिमेंसिया का शिकार हो गया हूँ.
चंदू: वह कैसे?
कलमाडी: एक दिन वकील साहब ने बताया कि मैं यह भूल गया हूँ कि मैं एमपी भी हूँ और मेरा एमपी फंड खर्च के लिए तरस रहा है. उनके याद दिलाने के बाद कि मैं एक एमपी हूँ, मैंने अपने फंड से खर्च करना शुरू किया.
चंदू: लेकिन मुझे तो लगता है कि डिमेंसिया आपका कानूनी दाव-पेंच है खुद को बचाने के लिए.
कलमाडी: मिस्टर अरनब गोस्वामी आप मेरे ऊपर ऐसे आरोप लगाकर गलती कर रहे हैं. मैं वार्निंग दे रहा हूँ कि अगर एक बार और आपने ऐसा आरोप लगाया तो मैं आपके खिलाफ और आपकी टाइम मैगजीन के खिलाफ आदालत में डिफेमेशन केस फाइल कर दूंगा.
चंदू: सर जी, मैं अरनब गोस्वामी नहीं हूँ. मैं चंदू चौरसिया हूँ. और बाइ द वे, अरनब गोस्वामी टाइम मैगजीन में काम नहीं करते वे टाइम्स नाउ चैनल के पत्रकार हैं.
कलमाडी: ओह, मैं तो भूल ही गया था. देखिये ये डिमेंसिया का ही असर होगा.
चंदू: आपके वकील साहब को क्या लगता है? क्या आपकी यह डिमेंसिया वाली बात सचमुच ठोस है?
कलमाडी: क्या ठोस है?
चंदू: मैं पूछ रहा था कि यह डिमेंसिया वाली बात क्या साबित कर पायेंगे आप और आपके वकील साहब?
कलमाडी: हाँ, बिलकुल कर पायेंगे. दरअसल मेरी खराब होती याददाश्त और अपनी तेज याददाश्त के सहारे मेरे वकील साहब फिर साल २००९-१० में गए. उन्होंने मुझे याद दिलाया कि गेम्स ओर्गेनाइजिन्ग कमिटी का चीफ होने के बावजूद मैंने समय पर तैयारी नहीं की. दरअसल मैं भूल जाता था कि मुझे तैयारी करनी है. फिर उन्होंने याद दिलाया कि मैंने इंडियन हाइ कमीशन के डोक्यूमेंट फोर्ज करने के बाद भी लोगों को बताया कि मैंने डोक्यूमेंट फोर्ज नहीं किया. यह डिमेंसिया की वजह से ही था. फिर उन्होंने याद दिलाया कि सारे फैसले मैंने लिए लेकिन याददाश्त ख़राब होने के कारण मैंने दरबारी, महेन्द्रू वगैरह को फँसा दिया. फिर उन्होंने बताया कि........सबसे अंत में उन्होंने बताया कि इन सारी बातों की वजह से मुझपर डिमेंसिया का केस तो बनता ही बनता है.
चंदू: मतलब आपकी तैयारी फूल-प्रूफ है.
कलमाडी: अपनी तरफ से तो तैयारी फूल-प्रूफ ही रहती है. अरनब गोस्वामी जी, चलिए अब इंटरव्यू ख़त्म कीजिए मुझे मूवी देखना है. वकील साहब ये सीडी दे गए थे. देखने के लिए कहा है. हाँ, आपकी टाइम मैगजीन के जिस एडिशन में यह इंटरव्यू छापेंगे उसकी एक कॉपी ज़रूर भेज दीजियेगा.
चंदू: सर जी, मैं अरनब गोस्वामी नहीं हूँ. बाइ द वे, अरनब गोस्वामी टाइम मैगजीन के नहीं बल्कि टाइम्स नाउ टीवी चैनल के पत्रकार हैं.
कलमाडी: वकील साहब ठीक ही कहते हैं. मैं सच में डिमेंसिया का शिकार हो गया हूँ. ठीक है, आप जाइए. मैं मूवी देखने जाता हूँ.
चंदू ने सीडी हाथ में लेकर देखा तो वह आमिर खान की फिल्म गजनी की सीडी थी. उधर कलमाडी जी गज़नी एन्जॉय करने गए और इधर चंदू जेल से बाहर.
मेरी भी पसंद:
काजू भुने पलेट में, ह्विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में
---अदम गौंडवी