
उदय प्रताप सिंह जी को मैं सन 2004 से पहले तक नहीं जानता था. उनके बारे में मुझे पहली बार अक्टूबर 2004 में पता चला जब कलकत्ते के एक कवि सम्मेलन में उन्हें पहली बार कविता पाठ करते हुए देखा. वहाँ मुझे पता चला कि उदय जी राज्यसभा के सदस्य हैं. अंगरेजी के प्रोफेसर थे. मैं नजदीक से उन्हें नहीं जानता, लेकिन उन्हें सुनकर और देखकर एक बात जो मन में आती है, वो है कि बडे अच्छे इन्सान हैं.
मेरा मानना है कि कविता के प्रति एक आम आदमी के रुचि की शुरुआत छन्द और तुकबन्दी के प्रति उसके आकर्षण से होती है और इस मामले में उदय जी की गिनती हमारे समय के सबसे अच्छे कवियों में की जा सकती है. उनके द्वारा लिखे गए छन्दों को सुनकर मन प्रसन्न हो गया था मेरा. उनके बारे में सबसे अच्छी बात उनकी कविता-पाठ की शैली है. जिस तरह से वे अपने छन्दों की व्याख्या करते हैं, देखने लायक होता है. बहुत सारे मित्रों ने उदय जी को जरूर सुना होगा, और मुझे विश्वास है कि वे सभी मुझसे सहमत होंगे.
मैं उनके द्वारा लिखी गई कुछ कवितायें, जो मुझे बेहद पसन्द हैं, प्रस्तुत कर रहा हूं, इस आशा के साथ कि हमारे मित्रों को भी पसन्द आयेंगी.
(एक प्रयोग के तौर पर मैं उनके द्वारा छन्दों की व्याख्या, उन्हीं के लहजे में प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहा हूं....)
उदय जी के शब्दों में...
" देखिए, भरत भी रघुकुल के थे, और उन्हें ये पता था कि उनके कुल में किसी ने भी दिया हुआ वचन कभी नही तोडा. न दशरथ ने. न दिलीप ने. न यती ने. तो फिर उनको क्यों लगा कि श्री राम अपना दिया हुआ वचन तोड़ देंगे और वन से वापस आ जायेंगे. फिर मुझे लगा कि बात ये नहीं थी.ऐसा कर के भरत कैकेयी को कुछ समझाना चाहते थे. उसपर मैने ये छन्द लिखा "जननी ने किये हैं जघन्य से जघन्य पाप
भक्ति-भाव से भरे भरत को ये भान है; कि
प्राण से अधिक प्रण धारते हैं रघुनाथ
वन या वचन न तजेंगे अनुमान है
किंतु जग के प्रलोभनों में फंसी कैकेयी को
पादुका-प्रसंग एक मौन समाधान है; कि
राम के चरण-रज का मिले जो एक कण
सुर-राज का भी पद धूल के समान है.
एक और छन्द सुनाते हुए उन्होने कहा;
"सीता जी कोई मामूली स्त्री नहीं थीं. मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की पत्नी थीं. विदेह की पुत्री वैदेही थीं. लेकिन एक सोने के हिरन पर मोहित हो गईं. और राम समझा रहे हैं कि सोने का हिरन होता नहीं है. लेकिन सीता जी की जिद. राम सोने के हिरन का शिकार करने जाते हैं और सीता जी अशोक वाटिका में पहुंच जाती हैं. जब उनके पास राम थे तो उन्हें सोना चाहिए था, और जब उनके पास सोना ही सोना है तो उन्हें राम चाहिए. सारे संसार की यही कहानी है. हमपर जब राम होते हैं तो हमें सोना चाहिए और जब हमारे पास सोना होता है तो हमें राम चाहिए. तो इसपर मैंने एक छन्द लिखा. बहुत ध्यान से सुनियेगा. खासकर बहनें"।
विश्वमोहिनी सी स्वरूपा को मोह लिया
जाने कौन मोहिनी थी सोने के हिरन में
सीता जी बैठी सोच रही अशोक वाटिका में
कुबेर-बंद रावण के कंचन सदन में
एक ओर मायावी मारीच छद्म-वेश धारे
एक ओर सारा जग जिनकी शरण में
और की तो कौन कहे जानकी न जान पाई
ग्राह-अनुग्राह कौन जग के चयन में।
आगे बोले;
"देखिए, रामचरित मानस हो या बाल्मीकि रामायण. दोनो में आपने राम के मुँह से रावण की प्रशंसा सुनी होगी. लेकिन रावण के मुँह से राम की प्रशंसा शायद नहीं सुनी होगी. यहाँ मैंने एक छन्द लिखा. प्रसंग ये है कि रावण सीता जी कहता है कि मेरी पटरानी बन जाओ और सीता जी उसे तिनके के ओट से जवाब दे देती हैं. रावण वापस चला जाता है. उसे देखकर मंदोदरी व्यंग करती है कि आ गए मुँह लटका के।"
व्यंग मंदोदरी ने किया एक रावण पर; कि
आप जैसी ज्यों मैं प्रेम-अग्नि में सुलगती
मायावी स्वरूप ठीक राम जैसा धार लेती
देखूं कैसे जानकी की प्रीति ना उमगती
बोला दसशीश ये भी चाल चल देख चुका
ठगनी कुचाल मेरी मुझको ही ठगती
जब-जब राम का रुप धारता हूँ तो
हर पराई नारि मुझे जननी ही दीखती।
बोले;
"ऐसा कैसे हो सकता है कि राम का रुप धार ले और प्रवृत्ति राक्षसी बनी रही।""एक छन्द और सुन लीजिये. प्रसंग ये है कि समुद्र पर सेतु बन रहा था.नल-नील पत्थरों को जल पर रखते जाते थे ओ पत्थर तैरने लगते थे. राम देख रहे थे. उन्हें लगा कि उन्हें भी कुछ करना चाहिए. वे एक कंकर उठाते हैं और और पानी में डालते हैं. लेकिन कंकर डूब जाता है. श्री राम सकुचा जाते हैं और किस तरह से हनुमान जी उनके संकोच को दूर करते हैं।"
नल-नील पाहनों पर राम-नाम लिख-लिख
सेतु बांधते हैं और फूले न समाते हैं
भारी-भारी शिलाखंड डूबना तो दूर रहा
भार-हीन काठ जैसी नौका बन जाते हैं
देखा देखी राम ने भी कंकरी उठाई एक
फेंकी वहीँ डूब गयी बहुत सकुचाते हैं
तभी राम-भक्त हनुमान ने कहा कि नाथ
आपके करों से छूट सभी डूब जाते हैं।
आगे बोले;
"जब मैं ये सब लिख रहा था, उसी समय अयोध्या का विवाद शुरू हो गया. मुझे लगा कि मंदिर बने या ना बने लेकिन राम छोटे नहीं होने चाहिए. आज सुबह जब मैं आ रहा था तो मुझे भाई नन्द लाल शाह जी ने बहुत डराया. उन्होने कहा कि अपने आप को बहुत बड़ा विद्वान मत समझना. वहाँ तुम्हारे आगे तुमसे बडे विद्वान बैठे होंगे. तो मैं बडे होशो हवाश में कह रहा हूँ कि रामचरित मानस हो या बाल्मीकि रामायण दोनो में यही लिखा गया है कि जब राम का जन्म हुआ तो पुष्पवर्षा पूरी पृथ्वी पर हुई. फिर से कह रहा हूँ, पूरी पृथ्वी पर हुई थी, केवल अयोध्या और फैजाबाद में नहीं. और मैंने ये छन्द लिखा।"सारी धरा-धाम राम-जन्म से हुई है धन्य
निर्विवाद सत्य को विवाद से निकालिए
रोम-रोम में बसें हैं विश्वव्यापी राम
राम का महत्व एक वृत्त में डालिए
वसुधा कुटुंब के सम्मान देखते रहे वे
ये घड़ा के सर्प आस्तीन में ना पालिए
राम-जन्म भूमि को तो राम ही संभाल लेंगे
हो सके तो आप मातृभूमि को संभालिए।
जिन नन्द लाल शाह जी का जिक्र उदय जी ने किया वे ही इस कवि सम्मेलन के प्रमुख आयोजक थे.
(और एक बात. चूंकि ये सारा कुछ लिखने के लिए मुझे पूरी तरह से अपनी याददाश्त पर निर्भर होना पड़ा तो हो सकता है कि कहीँ कुछ छूट गया हो.)