Show me an example

Wednesday, December 29, 2010

दुर्योधन की डायरी - पेज २०८०




जिन्हें यह शिकायत है कि नए साल का जश्न मनाने का काम हमारी संस्कृति के खिलाफ है उन्हें यह जानने की ज़रुरत है कि नए साल का जश्न हमारी संस्कृति में हज़ारों सालों से मनाया जा रहा है. क्या कहा? विश्वास नहीं होता? पता था यही कहेंगे. इसीलिए तो मैं दुर्योधन की डायरी का वह पेज छाप रहा हूँ जिसमें युवराज नए साल का जश्न मनाने की तैयारी के बारे में लिखते हैं;

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नया साल आने को है. नया साल आने के लिए ही होता है. जाने का काम तो पुराने के जिम्मे है. काश कि ये बात पितामह और चाचा बिदुर जैसे लोग समझ पाते. सालों से जमे हुए हैं. हटने का नाम ही नहीं लेते. कम से कम आते-जाते सालों से ही कुछ सीख लेते. सीख लेते तो दरबार में बैठकर हर काम में टांग नहीं अड़ाते.

रोज नीतिवचन ठेलते रहते हैं. ये करना उचित रहेगा. वो करना अनुचित रहेगा. कदाचित ऐसा करना नीति के विरुद्ध रहेगा. कान पक गए हैं इनलोगों की बातें सुनकर. और इन्हें भी समझने की ज़रूरत है कि अब इनके दिन बायोग्राफी लिखने के हैं. दरबार में बैठकर हर काम में टांग अड़ाने के नहीं.

मैं तो कहता हूँ कि ये लोग पब्लिशर्स खोजें और अपनी-अपनी बायोग्राफी लिखकर मौज लें. पब्लिशर्स नहीं मिलते तो मुझसे कहें. मैं एक पब्लिशिंग हाउस खोल दूँगा. बस ये लोग राज-काज के कामों में दखल देना बंद कर दें. बायोग्राफी लिखने के दिन हैं इनके. ये उन कार्यों में अपना समय दें न. ये बात अलग है कि उनकी बायोग्राफी की वजह से तमाम लोगों की बखिया उधड़ जायेगी.

खैर, ये आने-जाने वाले सालों से कुछ नहीं सीखते तो हम कर भी क्या सकते हैं?

हमें तो नए साल का बेसब्री से इंतजार रहता है. आख़िर नया साल न आए और पुराना न जाए तो पता ही न चले कि पांडवों को अभी कितने वर्ष वनवास में रहना है? पड़े होंगे कहीं भाग्य को रोते. और फिर रोयेंगे क्यों नहीं? किसने कहा था जुआ खेलने के लिए?

जुआ खेला इसलिए वनवास की हवा खानी पडी. जुआ की जगह क्रिकेट खेलते तो ये नौबत नहीं आती. बढ़िया खेलते तो इंडोर्समेंट कंट्रेक्ट्स ऊपर से मिलते. लेकिन फिर सोचता हूँ कि वे तो क्रिकेट खेल लेते लेकिन हम कैसे खेलते? हम तो खेल ही नहीं पाते. आख़िर क्रिकेट इज अ जेंटिलमैन्स गेम.

दुशासन नए साल की तैयारियों में व्यस्त है. व्यस्त तो क्या है, व्यस्तता दिखा रहा है. कभी इधर तो कभी उधर. मदिरा का इंतजाम हुआ कि नहीं? नर्तकियों की लिस्ट फाईनल हुई कि नहीं? काकटेल पार्टी में कौन सी मदिरा का इस्तेमाल होगा? चमकीले कागज़ कहाँ-कहाँ लगने हैं? अतिथियों की लिस्ट रोज माडीफाई हो रही है. नर्तकियों का रोज आडीशन हो रहा है. इसकी तत्परता और मैनेजेरियल स्किल्स देखकर लगता है जैसे गुरु द्रोण ने इसे पार्टी आयोजन पर पी एचडी की डिग्री अपने हाथों से दी थी.

वैसे दुशासन को देखकर आश्वस्त भी हो जाता हूँ कि ये भविष्य में होटल इंडस्ट्री में हाथ आजमा सकता है.

कल उज़बेकिस्तान से पधारी दो नर्तकियों को लेकर आया. कह रहा था ये दोनों वहां की सबसे कुशल नर्तकियां हैं. पोल डांस में माहिर. उनकी फीस के बारे में पूछा तो पता चला कि बहुत पैसा मांगती हैं. कह रही थीं सारा पेमेंट टैक्स फ्री होना चाहिए. उनकी डिमांड सुनकर महाराज भरत की याद आ गई. एक समय था जब उज़बेकिस्तान भी महाराज भरत के राज्य का हिस्सा था. आज रहता तो इन नर्तकियों की हिम्मत नहीं होती इस तरह की डिमांड करने की. लेकिन अब कर भी क्या सकते हैं?

वैसे इन नर्तकियों की नृत्य प्रतिभा देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई. अब तो मैंने दृढ़ निश्चय किया है कि जब मैं राजा बनूँगा और अपने राज्य का विस्तार एक बार फ़िर से उज़बेकिस्तान तक केवल इसलिए करूंगा क्योंकि वहां की नर्तकियां बहुत कुशल होती हैं.

शाम को कर्ण आकर गया. मैंने नए साल की तैयारियों के बारे में जानकारी देने की कोशिश की तो उसने कोई उत्सुकता ही नहीं दिखाई. पता नहीं कैसा बोर आदमी है. न तो मदिरापान में रूचि है और न ही नाच-गाने में. इसे देखकर तो नया साल भी बोर हो जाता होगा. मैंने रुकने के लिए कहा तो ये कहकर टाल गया कि सुबह-सुबह पिताश्री के दर्शन करने जाना है. रात को पार्टी में देर तक रहेगा तो सुबह आँख नहीं खुलेगी.

खैर, और कर भी क्या सकते है. कभी-कभी तो लगता है कि कितना अच्छा होता अगर कर्ण इन्द्र का पुत्र होता. इन्द्र के गुण इसके अन्दर रहते और इसके साथ नया साल मनाने का मज़ा ही आ जाता.

जयद्रथ भी बहुत खुश है. शाम से ही केश- सज्जा में लगा हुआ है. दर्पण के सामने से हट ही नहीं रहा है. कभी मुकुट को बाईं तरफ़ से देखता है तो कभी दाईं तरफ़ से. शाम से अब तक मोतियों की सत्रह मालाएं बदल चुका है. चार तो आफ्टरसेव ट्राई कर चुका है. उसे देखकर लग रहा है जैसे उसने आज ऐसा नहीं किया तो नया साल आने से मना कर देगा.

दुशासन ने अवन्ती से मशहूर डीजे केतु को बुलाया है. आने के बाद ये डीजे फिल्मी गानों की सीडी परख रहा है. कौन से गाने के बाद कौन सा गाना चलेगा. दुशासन और जयद्रथ ने अपनी-अपनी फरमाईश इसे थमा दी है. आख़िर एक सप्ताह से ये दोनों डांस की प्रक्टिस करते हलकान हुए जा रहे हैं.

कवियों ने भी नए साल के स्वागत में कवितायें लिखनी शुरू कर दी है. इन कवियों को भी लगता है कि ये कविता नहीं लिखेंगे तो नया साल आएगा ही नहीं. ऐसे क्लिष्ट शब्दों का इस्तेमाल करते हैं कि उनके अर्थ खोजने के लिए शब्दकोष की आवश्यकता पड़ती है. नए साल को नव वर्ष कहते हैं. एक कवि ने नए साल के दिनों को नव-कोपल तक बता डाला.

पता नहीं कब तक इन शब्दों और उपमाओं को ढोते रहेंगे? वो भी तब जब परसों ही हस्तिनापुर के सबसे वयोवृद्ध साहित्यकार ने घोषणा कर दी कि इस तरह की उपमाएं और साहित्य अब अजायबघर में रखने की चीजें हो गईं हैं. लेकिन इन कवियों और साहित्यकारों की आंखों पर तो काला चश्मा पड़ा हुआ है.

खैर, हमें क्या? कौन सा हमें कविताओं पर डांस करना है? हमारे लिए अवन्ती का डीजे फिल्मी गाने चुनने में सुबह से ही लगा हुआ है.

हम भी चलते हैं अब. जरा केश-सज्जा वगैरह कर ली जाय. दुशासन आज ही नया बॉडी-शैम्पू लाया है. देखें तो कैसा है?


पुनश्च: अच्छा हुआ आज शाम को सात बजे ही डायरी लिख ली. सोने से पहले लिखने की सोचता तो शायद आज का पेज लिख ही नहीं पाता. आख़िर आज तो सोने का दिन ही नहीं है. आज तो सारी रात जागना है.

Monday, December 27, 2010

सिंगिंग रिअलिटी-शो ला रा लप्पा ला का फिनाले





मुंबई से एन टी एम एन संवाददाता चंदू चौरसिया

कल मुंबई में हुआ ला रा लप्पा ला नामक सिंगिंग रिअलिटी शो का फायनल तमाम अस्वाभाविक घटनाओं के लिए वर्षों तक याद किया जाएगा. ज़ीहाँ टीवी द्वारा आयोजित इस टैलेंट हंट के फिनाले में शुरुआत ही अच्छी नहीं रही. तब हंगामा मच गया जब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ताओं ने यह कहते हुए बवाल कर दिया कि फिनाले के पहले तक जो हुआ सो हुआ लेकिन फिनाले में प्रतियोगियों को केवल मराठी गीत ही गाना पड़ेगा. इन कार्यकर्ताओं ने अपनी मांग को एक कदम आगे बढ़ाते हुए कहा कि कार्यक्रम को प्रजेंट करने वाले एंकर को भी केवल मराठी में ही अनाऊँसमेंट करना होगा.

तमाम बड़े और गणमान्य व्यक्तियों के हस्तक्षेप के बाद मामला सुलझा और कार्यक्रम की शुरुआत हो सकी.

कार्यक्रम शुरू होने के बाद फिर से तब बवाल शुरू हुआ जब कार्यक्रम में अथिति के रूप में आये अक्षय कुमार अपनी कार से उतरकर पैदल चलते हुए अपनी सीट तक गए. उनके ऐसा करने से निराश तमाम दर्शकों ने यह कहते हुए हंगामा शुरू कर दिया कि उन्हें ठग लिया गया. अपनी बात को स्पष्ट करते हुए इन लोगों ने बताया कि उन्हें आशा थी कि अक्षय कुमार ज़ी उड़ते हुए, कूदते हुए या फिर तार के सहारे आसमान से उतरेंगे और उनके ऐसा नहीं करने की वजह से इन दर्शकों का पैसा वसूल नहीं हुआ.

जहाँ ये दर्शक इस बात से नाराज़ थे वहीँ अक्षय कुमार फैन्स क्लब के महासचिव मिलिंद खेलकर ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि अक्षय कुमार का पैदल चलकर अपनी सीट तक आना उनके खिलाफ साजिश है. खेलकर ज़ी ने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए बताया कि चैनल ने जानबूझकर अक्षय को स्टेज पर उड़ते हुए नहीं आने दिया. खेलकर ज़ी की बात को उस समय और बल मिला जब अक्षय कुमार के मित्र और प्रोड्यूसर विपुल शाह ने कहा; "अक्षय को पैदल चल कर अपनी सीट तक जाने से बचना चाहिए. पैदल चलना उनकी ईमेज के लिए हानिकारक है. अगर वे ऐसे ही पैदल चलेंगे तो फिर उनके और फिल्म इंडस्ट्री के खानों के बीच कोई अंतर नहीं रह जाएगा और अक्षय के फैन्स कम हो जायेंगे."

विपुल शाह की इस बात को अक्षय कुमार ने गाँठ बांधकर रख ली और उन्होंने फैसला किया कि भविष्य में वे स्टेज पर उड़ते हुए, कूदते हुए या फिर गिरते हुए ही प्रकट होंगे और पैदल चलकर अपनी सीट तक पहुँचने की गलती फिर नहीं करेंगे.

कार्यक्रम आगे बढ़ा और प्रतियोगियों के अलावा उनके मेंटोर्स ने भी गाने गाये.

एक स्पेशल प्रजंटेशन में विख्यात गजल गायक गुलाम अली साहब ने एक ग़ज़ल सुनाई. सबकुछ ठीक चल रहा था. तभी एक और घटना हो गई. जब गुलाम अली साहब ने ग़ज़ल ख़त्म की तभी विख्यात मेंटोर और कुख्यात गायक श्री दलेर मेंहदी ने गुलाम अली साहब से कहा; "रब्ब राखां पुत्तर. चक दे फटे. जिन्दा रह पुत्तर."

उनकी इस बात पर वहाँ उपस्थित लोगों में हडकंप मच गया. सब इस बात से आश्चर्यचकित थे कि प्रतियोगियों के लिए रिजर्व इस लाइन को दलेर मेंहदी ने गुलाम अली के लिए कैसे कह दिया. बाद में तमाम भूतपूर्व गायकों ने दलेर मेंहदी से कहा कि गुलाम अली साहब से माफी मांग लें. पहले तो दलेर मेंहदी ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया लेकिन वे बाद में मान गए और उन्होंने गुलाम अली से माफी मांग ली.

ज्ञात हो कि "रब्ब राखां पुत्तर. चक दे फटे" नामक लाइन दलेर मेहंदी के साथ वैसे ही चिपक गई है जैसे देवर्षि नारद के साथ "नारायण नारायण". यह भी ज्ञात हो कि इंटरनेशनल रिअलिटी शोज जजेज युनियन ने दलेर मेहंदी की इस लाइन को वर्ष २०१० की सर्वश्रेष्ठ लाइन घोषित किया है.

कार्यक्रम आगे बढ़ा और सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था. कुछ ही देर बाद महान गायक मीका और महान संगीतकार साजिद में इस बात को लेकर कहा-सुनी हो गई कि हर किसी को सन-ग्लास पहनने का अधिकार नहीं है. जहाँ मीका ज़ी का कहना था कि सन-ग्लास पहनने का अधिकार बप्पी लाहिड़ी ज़ी के अलावा सिर्फ उन्हें है, वहीँ साजिद का मानना था कि वे भी अब इस एक्सक्लूसिव क्लब के मेंबर बन गए हैं. बात हाथ-पाई तक पहुँचती इससे पहले ही कुछ लोगों ने मध्यस्थता करके मामले को सुलझा लिया.

कार्यक्रम के अंत में स्टेज पर उदित नारायण और सुरेश वाडकर को बुलाया गया. वे स्टेज पर आये और उन्हें विनर का नाम बताने का जिम्मा सौंपा गया. बाद में जब एंकर ने यह कहा कि "अब वह घड़ी आ गई है" तभी से उदित नारायण ज़ी ने स्टेज के चारों तरफ देखना शुरू किया. सब यह सोच रहे थे कि वे शायद किसी को खोज रहे हैं. बाद में जब एंकर ने चौथी बार कहा कि "अब वह घड़ी आ गई है" तब उदित नारायण ज़ी से रहा नहीं गया और उन्होंने एंकर को गाली देना शुरू कर दिया.

जब उनसे इसका कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा; "चार बार यह सुनने के बाद भी कि अब वह घड़ी आ गई है, मुझे जब स्टेज पर कोई घड़ी दिखाई नहीं दी तो मुझे गुस्सा आ गया."

बाद में लोगों ने उन्हें समझाया कि एंकर जिस घड़ी की बात कर रहा था वह घड़ी कुछ और ही थी.

अंत में विनर का नाम अनाऊँस किया गया. मगर जैसे ही एंकर ने कहा; "और दुनियाँ के पहले सिंगिंग सुपर स्टार हैं जमाल खान" तभी करीब सत्रह अट्ठारह लोगों ने स्टेज पर धावा बोल दिया. उनका कहना था कि दुनियाँ के पहले सिंगिंग सुपर स्टार कुमार सानू हैं. ऐसे में किसी और को दुनियाँ का पहला सिंगिंग सुपर स्टार कैसे कहा जा सकता है? काफी खोजबीन के बाद पता चला कि ये लोग़ महान गायक कुमार सानू के फैन्स थे और यह मानने के लिए तैयार नहीं थे कि
कुमार सानू के जीते ज़ी कोई और सिंगिंग सुपर स्टार हो सकता है.

कुल मिलाकर कार्यक्रम हंगामाखेज रहा. चैनल 'जीहाँ' की तरफ से लोगों से यह वादा किया गया कि अगले वर्ष ऐसी घटनाएं न हों, चैनल इसका ख़याल रखेगा.


नोट: यह पोस्ट मैंने कल न्यूज दैट मैटर्स नॉट के लिए लिखी थी.

Saturday, December 25, 2010

बापी दास का क्रिसमस




यह निबंध नहीं बल्कि कलकत्ते में रहने वाले एक युवा, बापी दास का पत्र है जो उसने इंग्लैंड में रहने वाली अपने एक नेट-फ्रेंड को लिखा था. इंटरनेट सिक्यूरिटी में हुई गफलत के कारण यह पत्र लीक हो गया. ठीक वैसे ही जैसे सत्ता में बैठी पार्टी किसी विरोधी नेता का पत्र लीक करवा देती है. आप पत्र पढ़ सकते हैं क्योंकि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे 'प्राइवेट' समझा जा सके.

दिसम्बर २००७ में लिखा था. फिर से पब्लिश कर दे रहा हूँ. जिन्होंने नहीं पढ़ा होगा वे पढ़ लेंगे:-)

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प्रिय मित्र नेटाली,

पहले तो मैं बता दूँ कि तुम्हारा नाम नेटाली, हमारे कलकत्ते में पाये जाने वाले कई नामों जैसे शेफाली, मिताली और चैताली से मिलता जुलता है. मुझे पूरा विश्वास है कि अगर नाम मिल सकता है तो फिर देखने-सुनने में तुम भी हमारे शहर में पाई जाने वाली अन्य लड़कियों की तरह ही होगी.

तुमने अपने देश में मनाये जानेवाले त्यौहार क्रिसमस और उसके साथ नए साल के जश्न के बारे में लिखते हुए ये जानना चाहा था कि हम अपने शहर में क्रिसमस और नया साल कैसे मनाते हैं. सो ध्यान देकर सुनो. सॉरी, पढो.

तुमलोगों की तरह हम भी क्रिसमस बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं. थोडा अन्तर जरूर है. जैसा कि तुमने लिखा था, क्रिसमस तुम्हारे शहर में धूम-धाम के साथ मनाया जाता है, लेकिन हम हमारे शहर में घूम-घाम के साथ मनाते हैं. मेरे जैसे नौजवान छोकरे बाईक पर घूमने निकलते हैं और सड़क पर चलने वाली लड़कियों को छेड़ कर क्रिसमस मनाते हैं. हमारा मानना है कि हमारे शहर में अगर लड़कियों से छेड़-छाड़ न की जाय, तो यीशु नाराज हो जाते हैं. हम छोकरे अपने माँ-बाप को नाराज कर सकते हैं, लेकिन यीशु को कभी नाराज नहीं करते.

क्रिसमस का महत्व केक के चलते बहुत बढ़ जाता है. हमें इस बात पर पूरा विश्वास है कि केक नहीं तो क्रिसमस नहीं. यही कारण है कि हमारे शहर में क्रिसमस के दस दिन पहले से ही केक की दुकानों की संख्या बढ़ जाती है. ठीक वैसे ही जैसे बरसात के मौसम में नदियों का पानी खतरे के निशान से ऊपर चला जाता है.

क्रिसमस के दिनों में हम केवल केक खाते हैं. बाकी कुछ खाना पाप माना जाता है. शहर की दुकानों पर केक खरीदने के लिए जो लाइन लगती है उसे देखकर हमें विश्वास हो जाता है दिसम्बर के महीने में केक के धंधे से बढ़िया धंधा और कुछ भी नहीं. मैंने ख़ुद प्लान किया है कि आगे चलकर मैं केक का धंधा करूंगा. साल के ग्यारह महीने मस्टर्ड केक का और एक महीने क्रिसमस के केक का.

केक के अलावा एक चीज और है जिसके बिना हम क्रिसमस नहीं मनाते. वो है शराब. हमारी मित्र मंडली (फ्रेंड सर्कल) में अगर कोई शराब नहीं पीता तो हम उसे क्रिसमस मनाने लायक नहीं समझते. वैसे तो मैं ख़ुद क्रिश्चियन नहीं हूँ, लेकिन मुझे इस बात की समझ है कि क्रिसमस केवल केक खाकर नहीं मनाया जा सकता. उसके लिए शराब पीना भी अति आवश्यक है.

मैंने सुना है कि कुछ लोग क्रिसमस के दिन चर्च भी जाते हैं और यीशु से प्रार्थना वगैरह भी करते हैं. तुम्हें बता दूँ कि मेरी और मेरे दोस्तों की दिलचस्पी इन फालतू बातों में कभी नहीं रही. इससे समय ख़राब होता है.

अब आ जाते हैं नए साल को मनाने की गतिविधियों पर. यहाँ एक बात बता दूँ कि जैसे तुम्हारे देश में नया साल एक जनवरी से शुरू होता है वैसे ही हमारे देश में भी नया साल एक जनवरी से ही शुरू होता है. ग्लोबलाईजेशन का यही तो फायदा है कि सब जगह सब कुछ एक जैसा रहे.

नए साल की पूर्व संध्या पर हम अपने दोस्तों के साथ शहर की सबसे बिजी सड़क पार्क स्ट्रीट चले जाते हैं. है न पूरा अंग्रेजी नाम, पार्क स्ट्रीट? मुझे विश्वास है कि ये अंग्रेजी नाम सुनकर तुम्हें बहुत खुशी होगी. हाँ, तो हम शाम से ही वहाँ चले जाते हैं और भीड़ में घुसकर लड़कियों के साथ छेड़-खानी करते हैं.

हमारा मानना है कि नए साल को मनाने का इससे अच्छा तरीका और कुछ नहीं होगा. सबसे मजे की बात ये है कि मेरे जैसे यंग लड़के तो वहां जाते ही हैं, ४५-५० साल के अंकल टाइप लोग, जो जींस की जैकेट पहनकर यंग दिखने की कोशिश करते हैं, वे भी जाते हैं. भीड़ में अगर कोई उन्हें यंग नहीं समझता तो ये लोग बच्चों के जैसी अजीब-अजीब हरकतें करते हैं जिससे लोग उन्हें यंग समझें.

तीन-चार साल पहले तक पार्क स्ट्रीट पर लड़कियों को छेड़ने का कार्यक्रम आराम से चल जाता था. लेकिन पिछले कुछ सालों से पुलिस वालों ने हमारे इस कार्यक्रम में रुकावटें डालनी शुरू कर दी हैं. पहले ऐसा ऐसा नहीं होता था. हुआ यूँ कि दो साल पहले यहाँ के चीफ मिनिस्टर की बेटी को मेरे जैसे किसी यंग लडके ने छेड़ दिया. बस, फिर क्या था. उसी साल से पुलिस वहाँ भीड़ में सादे ड्रेस में रहती है और छेड़-खानी करने वालों को अरेस्ट कर लेती है.

मुझे तो उस यंग लडके पर बड़ा गुस्सा आता है जिसने चीफ मिनिस्टर की बेटी को छेड़ा था. उस बेवकूफ को वही एक लड़की मिली छेड़ने के लिए. पिछले साल तो मैं भी छेड़-खानी के चलते पिटते-पिटते बचा था.

नए साल पर हम लोग कोई काम-धंधा नहीं करते. वैसे तो पूरे साल कोई काम नहीं करते, लेकिन नए साल में कुछ भी नहीं करते. हम अपने दोस्तों के साथ ट्रक में बैठकर पिकनिक मनाने जरूर जाते हैं. वैसे मैं तुम्हें बता दूँ कि पिकनिक मनाने में मेरी कोई बहुत दिलचस्पी नहीं रहती. लेकिन चूंकि वहाँ जाने से शराब पीने में सुभीता रहता है सो हम खुशी-खुशी चले जाते हैं. एक ही प्रॉब्लम होती है. पिकनिक मनाकर लौटते समय एक्सीडेंट बहुत होते हैं क्योंकि गाड़ी चलाने वाला ड्राईवर भी नशे में रहता है.

नेटाली, क्रिसमस और नए साल को हम ऐसे ही मनाते हैं. तुम्हें और किसी चीज के बारे में जानकारी चाहिए, तो जरूर लिखना. मैं तुम्हें पत्र लिखकर पूरी जानकारी दूँगा. अगली बार अपना एक फोटो जरूर भेजना.

तुम्हारा,
बापी

पुनश्च: अगर हो सके तो अपने पत्र में मुझे यीशु के बारे में बताना. मुझे यीशु के बारे में जानने की बड़ी इच्छा है, जैसे, ये कौन थे?, क्या करते थे? ये क्रिसमस कैसे मनाते थे?

Tuesday, December 21, 2010

प्याज का बस्ता कहीं आज अगर उतरता है...




पेश हैं कुछ पियाजी अशआर. बांचिये.


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खुश रहे न कभी, उदास रहे
दाम देखा औ बदहवाश रहे
आज सत्तर में बिक रही देखो,
कल गनीमत गर सौ के पास रहे

आज उतनी भी मयस्सर न किचेन-खाने में
जितनी झोले से गिरा करती थी आने-जाने में

काबा किस मुँह से जाओगे ग़ालिब
घर में जब पाव भर पियाज नहीं

वो पूछते हैं हमसे कब सस्ती होगी
कोई हमें बतलाये हम बतलायें क्या

मिले जो प्याज देखने को औ छाये रंगत
वे सोचते हैं मिडिल क्लास का हाल अच्छा है

आदतन दाम बढ़ गया उसका
आदतन हमने खाना छोड़ दिया

दिल पे रखा हैं प्याज-ओ-खिश्त, कोई उसे गिराए क्यों
रो रहे हैं हम बिना छीले, कोई भला छिलवाए क्यों

प्याज का बस्ता कहीं आज अगर उतरता है
मन हो बेचैन उसे देखने से डरता है

दर्द सीने से उठा आँख से आँसू निकले
प्याज का दाम सुना था कहाँ छीला उसको

पूछिए मिडिल क्लास से लुफ्त-ए-प्याज
ये मज़ा हाई-क्लास क्या जानें

घर में आज एक भी पियाज नहीं
कहीं कोई मेहमां न आज आ धमके

आ जाए किचेन में अगर फ़रहत ही मिलेगी
फेहरिस्त में अब प्याज इक हीरे की तरह है

(फरहत = ख़ुशी)

Wednesday, December 15, 2010

हाँ, याद आया....




तमाम घटनाएं किसी न किसी काल-खंड का हिस्सा बन कर रह जाती हैं. यह जो महीना चल रहा है इसके भाग्य में लिखा था कि इसी समय पूरा देश शीला के जवान होने की बात पर अपनी प्रतिक्रिया दे. परन्तु शीला की जवानी के अलावा और भी बातें हैं जिनपर इस काल-खंड का अधिकार है.

विकिलीक्स को ही ले लीजिये. विकिलीक्स ने भी साल २०१० के इस महीने को महत्वपूर्ण बना दिया है. उधर लीक्स होते जा रहे हैं और इधर यह महीना महत्वपूर्ण होता जा रहा है. विकिलीक्स के महत्व का इस बात से पता लगता है कि कुछ लोगों ने इसे यू एस ओपन भी कहना शुरू कर दिया है. हर वर्ष अगस्त महीने में होने वाला यू एस ओपन इस साल दिसम्बर में भी हो रहा है. वहीँ ये लीक्स पहले होने वाले क्रिकेट सीरीज केबिल एंड वायरलेस सीरीज की भी याद दिला गए.

वैसे मुझे एक बात से ही शिकायत है. विकिलीक्स वालों ने जब अमेरिकी दूतावासों के दस्तावेज लीक करने शुरू किये तो उन्हें हर लीक के साथ यह चेतावनी भी लिख देनी चाहिए थी कि नक्कालों से सावधान. या फिर हमारी कोई शाखा नहीं है. ऐसा नहीं करने से गड़बड़ हो गई न. पाकिस्तान के कुछ अखबारों ने नकली दस्तावेज लीक कर दिए जिसके अनुसार दिल्ली मिष्ठान्न भण्डार ने वित्तवर्ष २००९-१० के लिए जितनी मिठाई बनाने का दावा किया था उससे करीब ढाई किलो मिठाई कम बनाई. बाद में ब्रिटेन के एक अखबार ने यह बताया कि पाकिस्तानी अखबारों का यह दावा बिलकुल गलत है और दिल्ली मिष्ठान्न भण्डार के बारे में अमेरिकी दूतावासों से कोई भी टिप्पणी नहीं हुई थी.

वहीँ दूसरी तरफ ब्रिटेन के अखबार न्यूज ऑफ द वर्ल्ड ने एक स्टिंग ऑपरेशन करके बताया कि इन नकली दस्तावेजों के पीछे मजीद मज़हर और सलमान बट्ट का हाथ है.

हाथ से याद आया कि पिछले बीस दिनों में पूरे देश में इस बात पर चर्चा हो रही है कि टेलिकॉम मिनिस्टर 'ये' राजा ने अपनी ईमानदारी का दावा करने के बावजूद इस्तीफ़ा क्यों दिया? इसके पीछे किसका हाथ है? तमाम अटकलें चल ही रही थीं कि विकिलीक्स से लीक हुए एक केबिल के अनुसार राजा के इस्तीफे के पीछे करूणानिधि का हाथ है. इस केबिल के अनुसार हालाँकि पहले तो करूणानिधि तैयार नहीं थे लेकिन जब उन्हें मनाने के लिए दिल्ली से कांग्रेसी नेता करीब डेढ़ दर्जन शॉल लेकर चेन्नई पहुंचे तब करूणानिधि जी राजा बाबू के इस्तीफे के लिए राज़ी हो गए.

अमेरिकी दूतावास की एक महत्वपूर्ण सूचना के अनुसार शॉल की खेप चेन्नई पहुँचने के बाद स्वयं सोनिया गाँधी जी ने चेन्नई जाकर श्री करूणानिधि को शॉल लपेट दिया और उसके बाद वे राजा के इस्तीफे के लिए राज़ी हो गए. एक अनुमान के अनुसार श्री करूणानिधि के पास अब करीब सत्तावन हज़ार दो सौ शॉलें हैं.

जैसा कि विदित ही है कि राजा के ऊपर बहुत बड़ी धनराशि के हेर-फेर का आरोप है.

धनराशि से याद आया कि हाल ही में कौन बनेगा करोड़पति में अपनी आदत के अनुसार प्रश्न पूछने वाले श्री अमिताभ बच्चन ने श्री राजा से पूछा; "क्या करना चाहेंगे आप इस धनराशि से?" जिसके जवाब में श्री राजा ने उन्हें बताया कि; "दिस्स यिज्ज याल ल्लीडार्स मणी."

उनके इस जवाब से करूणानिधि ने राहत की साँस ली.

मणी से याद आया कि मणिशंकर ऐय्यर पिछले करीब एक महीने से इस बात से नाराज़ हैं कि तमाम और स्कैम के आ जाने से कॉमनवेल्थ स्कैम कहीं खो गया और उसकी वजह से उन्हें पैनल डिस्कशन के लिए किसी टीवी चैनल से निमंत्रण नहीं आ रहा है. पिछले करीब डेढ़ महीने से कोई स्टेटमेंट न दे सकने के कारण श्री ऐय्यर का हाजमा खराब होने के चांस बढ़ गए हैं. तीन दिन पहले ही उन्होंने बताया कि वे तो कारावास में बंद चीन के नेता लिऊ जिअयाबो को नोबेल दिए जाने पर भी स्टेटमेंट दने के लिए तैयार हैं लेकिन कोई चैनल उनकी बाईट ले ही नहीं रहा.

चीन के इस विद्रोही नेता को शांति का नोबेल देने की बात पर याद आया कि चीन ने तमाम देशों को यह कहते हुए चेतावनी दी कि जो भी देश इस समरोह में जाएगा उसके साथ चीन के सम्बन्ध बिगड़ सकते हैं. यह चेतावनी भारत के लिए भी थी. चीन की इस बात पर भारत ने यह कहते हुए कान नहीं दिए कि; "कश्मीर का मुद्दा ही केवल बाइ-लैटरल है. जहाँ तक नोबेल समारोह की बात है तो वह एक अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा है और भारत यह समारोह अटेंड करेगा."

नोबेल समारोह में भारत की शिरकत के बाद चीन ने भारत से कहा कि; "हम अपना यह अपमान नहीं भूलेंगे. भविष्य में जब भी अरुंधती राय को 'भूगोल' के लिए और आसिफ अली जरदारी को 'फिजिक्स' के लिए नोबेल पुरस्कार मिलेगा तो चीन भी वह समारोह अटेंड करके बदला ले लेगा."

भारत सरकार ने चीन के इस वक्तव्य की जांच सीबीआई को सौंप दी है.

सी बी आई से याद आया कि टेलिकॉम घोटाले की जांच कर रही सी बी आई ने अपनी एक गुप्त रिपोर्ट में नीरा राडिया की तारीफ़ की है. सी बी आई का मानना है कि नीरा ज़ी की वजह से ही देश में चल रहे दलाली के लेटेस्ट रेट्स सामने आये हैं. अखिल भारतीय दलाल महासंघ ने भी एक धन्यवाद प्रस्ताव पारित कर नीरा राडिया के प्रति आभार व्यक्त किया है. दलाल संघ के सदस्यों का मानना है कि पिछले सात सालों से वे एवरेज रेट्स ग्यारह परसेंट पर काम कर रहे थे लेकिन थैंक्स टू नीरा ज़ी अब यह रेट पंद्रह परसेंट हो जाएगा.

ज्ञात हो कि नीरा राडिया ज़ी पीआर फर्म वैष्णवी कम्यूनिकेशंस की मालकिन हैं.

मालकिन से याद आया कि बिहार के मोतिहारी जिले के डुगडुगा गाँव की रेनू कुमारी ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि वे सूर्य की असली मालकिन हैं. सूर्य की रजिस्ट्री के दस्तावेज दिखाते हुए रेनू ज़ी बताया कि उन्होंने सन १९७८ में ही सूरज की रजिस्ट्री अपने नाम करवा ली थी. रेनू ज़ी के इस क्लेम की वजह से स्पेन की महिला अन्जेल्स डुरान के क्लेम को गहरा झटका लगा है. ज्ञात हो कि मिस डुरान ने पूरी दुनिया को यह कहते हुए चौंका दिया था कि उन्होंने सूर्य की रजिस्ट्री अपने नाम करवा ली है और अब से सूर्य उनकी प्रापर्टी है.

मिस डुरान और रेनू ज़ी के अलावा दुनिया भर के तमाम लोग समय-समय पर यह दावा करते आये हैं कि वे सूर्य, चन्द्रमा, वृहस्पति, मंगल और ऐसे ही तमाम ग्रहों के मालिक हैं. हाल ही में येल यूनिवर्सिटी ने ऐसे क्लेम पर पी एचडी करने के लिए अपने स्टुडेंट्स को प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया.

वैसे भारतीय समाचार चैनलों में इस बात के कयास लगाये जा रहे हैं कि सूरज के असली मालिक अरिंदम चौधरी हो सकते हैं.

अरिंदम चौधरी से याद आया कि.....

नोट: मैंने यह पोस्ट न्यूज दैट मैटर्स नॉट के लिए लिखी थी.न्यूज दैट मैटर्स नॉट बहुत बढ़िया फेक न्यूज साईट है. इसके एडिटर तनय सुकुमार डेलही कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग (दिल्ली प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय) के छात्र हैं. तनय का अपना ब्लॉग भी है और मैंने उनका लिखा हुआ जितना भी पढ़ा है, उसको देखते हुए कह सकता हूँ कि मुझे वे एक बहुत परिपक्व लेखक लगे.

न्यूज दैट मैटर्स नॉट पर कंट्रीब्यूट करने वाले ज्यादातर लेखक इंजीनीयरिंग स्टुडेंट्स हैं. न्यूज दैट मैटर्स नॉट फेक न्यूज और सटायर के ऊपर भारतवर्ष की दूसरी सबसे पॉपुलर साईट है.

Monday, December 13, 2010

चंदू-राडिया संवाद




लगता है टेप्स बनानेवाली कोई कंपनी जल्द ही नीरा राडिया को अपना ब्रांड एम्बेसेडर नियुक्त कर लेगी. दरअसल नीरा ज़ी केवल टेप बनानेवाली ही नहीं बल्कि किसी टेलिकॉम कंपनी द्वारा भी चुनी जा सकती हैं. वैसे कहीं आप यह तो नहीं सोच रहे कि एक पी आर वाली ने अपने पी आर का काम मुझे तो नहीं सौंप दिया? खैर, इससे पहले कि आप ऐसा सोचें, मैं खुद ही बता देता हूँ कि ऐसी बात नहीं है. नीरा ज़ी के आठ सौ और टेप्स के बाहर आने की वजह से मैं ऐसा कह रहा था. वैसे इसका एक और कारण है.

कल अपना चंदू यानि चंदू चौरसिया मेरे पास आया. आकर कुछ देर खड़ा रहा. जब उसने कुछ नहीं कहा तो मुझे ही बात शुरू करनी पड़ी. मैंने कहा; "क्या बात है? कुछ कहना चाहते हो क्या?"

चंदू बोला; "हाँ, लेकिन हिम्मत नहीं हो रही."

मैंने कहा; "मेरे सामने कुछ कहने के लिए हिम्मत की क्या ज़रुरत? जो भी मन में है, बस कह डालो."

वो बोला; "तो सुनिए. इससे पहले कि आपको दूसरों से पता चले मैं खुद ही बता देता हूँ कि नीरा राडिया ज़ी से मेरी भी बात हुई है. ऐसा नहीं है कि केवल वीर, बरखा, इंदरजीत और प्रभु चावला के साथ ही उन्होंने बात की है. दरअसल नए टेप्स में जो बासठ नंबर टेप है और जिसके बारे में आऊटलुक ने यह कहा है कि नीरा के साथ दूसरी तरफ से कौन बात कर रहा है, यह आवाज़ कोई नहीं पहचान सका, दरअसल वह मैं ही हूँ."

मैंने कहा; "क्या बात कर रहे हो? वैसे क्या बातचीत हुई है तुम्हारी नीरा राडिया के साथ?"

वो बोला; "अब ये रहा लिंक. आप खुद ही सुन लीजिये."

मैंने क्लिक करके नीरा और चंदू की बातचीत सुनी. मैं अपने ब्लॉग पर वह बातचीत छाप रहा हूँ. आपलोग़ भी बांचिये.

....................................................................................

किर्र किर्र किर्र किर्र किर्र किर्र किर्र

नीरा : हाय.

चंदू : नमस्ते मैडम.

नीरा : ये हमस्ते हैडम क्यों कह रहे हो?

चंदू : नहीं-नहीं मैंने वह नहीं कहा. मैंने कहा नमस्ते मैडम.

नीरा : हाँ, अब तुम्हारी आवाज़ ठीक से आ रही है.

चंदू : वो आपका फ़ोन आया तो मैं दाल-भात खा रहा है. मुँह में खाना था इसलिए आपको हमस्ते हैडम सुनाई दिया होगा.

नीरा : ही ही ही ..वैसे मैंने बीस मिनट पहले भी फ़ोन किया था. कितनी घंटी बजी लेकिन तुमने उठाया ही नहीं.

चंदू : वो मैडम क्या है कि उस समय चूल्हे पर दाल पक रही थी. उसकी आवाज़ में टेलीफोन की घन्टी सुनाई नहीं दी होगी.

नीरा : क्या बात कर रहे हो? तुम खुद खाना बनाते हो?

चंदू : अरे मैडम मैं ठहरा हिंदी का पत्रकार. मैं वीर भाई की तरह थोड़े न हूँ कि दिल्ली के फाइव स्टार रेस्टोरेंट में घूम घूम कर खाना खाऊं और छ महीने बाद किसी सन्डे को चालीस पेज का एक सप्लिमेंटरी एडिशन निकाल कर उन रेस्टोरेंट की रैंकिंग कर दूँ. खाना का खाना और हाई क्वालिटी जर्नलिज्म अलग से.

नीरा : लेकिन वो भी तो जर्नलिज्म ही है.

चंदू : अब वो कैसा जर्नलिज्म है मैडम, उसपर मेरा मुँह मत खुलवाइये.

नीरा : खैर, मैंने तुमको यह बताने के लिए फ़ोन किया था कि कल रात ढाई बजे मेरी एम एम से बात हुई.

चंदू : क्या मैडम? ये ढाई बजे टाइम है किसी के साथ बात करने का? आपलोग सोते कब हैं?

नीरा : वो सब छोड़ो, और जो मैं कह रही हूँ उसको सुनो. एम एम तुमसे नाराज़ हैं.

चंदू : क्यों नाराज़ हैं मैडम?

नीरा : अरे नाराज़ नहीं होंगे तो क्या होंगे? ये तुमने क्या स्टोरी लिखी है? और स्टोरी का टाइटिल भी कितना गन्दा; "ये गैस किसकी है?" एम एम ने कहा कि द होल स्टोरी वाज स्टिंकिंग..."

चंदू : अब मैडम गैस की बात है स्टोरी में इसलिए उनको स्टिंकिंग लग रही होगी. वैसे वे किस बात से नाराज़ हैं?

नीरा : अरे नाराज़ होनेवाली बात ही है. तुमने लिखा कि..एक मिनट मेरे सामने ही है वो पेज. मैं पढ़कर सुनाती हूँ..हाँ, तुमने लिखा है; "बड़ा भाई इस बात से स्योर था कि गैस उसकी है लेकिन छोटा भाई अचानक दावा करने लगा है कि गैस उसकी है. अब यह गैस किसकी है, यह तो सुप्रीम कोर्ट ही बता पायेगा. लेकिन जिस गैस पर बड़े भाई का अधिकार है उसी गैस पर छोटा भई अपना अधिकार कैसे बता सकता है? अब यहाँ तो बड़ा भाई कह ही सकता है कि छोटा भाई अपनी गैस खुद खोज ले. मेरी समझ में यह नहीं आता कि छोटा भाई अपनी गैस खुद प्रोड्यूस न करके बड़े भाई की गैस के पीछे क्यों पड़ा है?..." और ये क्या है? ये क्या है? जिस तरह से तुमने स्टोरी ख़त्म की है..ये क्या लिखा है तुमने कि; "युद्ध के मैदान में सेनायें आमने-सामने हैं. अब देखनेवाली बात यह है कि युद्ध का शंख बजता है या शांति की मुरली?'' क्या है ये?

चंदू : इसमें गड़बड़ क्या है मैडम?

नीरा : एम एम इस बात से नाराज़ हैं कि तुम अपनी स्टोरी में पेट्रोलियम मिनिस्टर का नाम क्यों ले आये?

चंदू : पेट्रोलियम मिनिस्टर? मैंने तो अपनी स्टोरी में उनका नाम ही नहीं लिया?

नीरा : तो वो क्या है? वो मुरली?

चंदू : अरे मैडम वो मुरली की बात पर कन्फ्यूज मत होइए. वो तो उपमा अलंकार का प्रयोग है रिपोर्टिंग में.

नीरा : ये उपमा अलंकार क्या लफड़ा है?

चंदू : अब मैडम हम हिन्दी वालों की यही समस्या है. हम कैरीड-अवे हो कर पत्रकारिता में भी साहित्य रचने लगते हैं. दरअसल मैडम हिंदी का लेखक हो या पत्रकार वो बेसिकली फिलोस्फर होता है. न्यूज आर्टिकिल लिखते-लिखते कब उसके कलम से दर्शनशास्त्र का झरना फूट पड़े कोई कह नहीं सकता. खैर, यह सब जाने दीजिये. आप कहें तो मैं कल ही एक क्लेरिफिकेशन पब्लिश कर दूंगा कि मुरली शब्द का इस्तेमाल पेट्रोलियम मिनिस्टर के लिए नहीं है. आगे बोलिए.

नीरा : आगे क्या बोलूँ? वो मैंने तुमसे कहा था टूज़ी पर एक स्टोरी लिखने के लिए. उसमें भी तुमने ये क्या कर डाला? मैंने तुमसे टूजी पर लिखने को कहा और तुमने टाइटिल दे डाली "टु ज़ी विद लव" और उसमें दिल्ली यूनिवसिटी की उन स्टुडेंट्स का स्टेटमेंट्स छाप दिया जिन्हें राहुल गाँधी और उनके डिम्पल क्यूट लगते हैं और जो उनके साथ शादी करने का सपना देखती हैं. मैंने तुमसे क्या करने को कहा और तुमने क्या कर दिया.

चंदू : अरे ये तो भारी ब्लंडर हो गया. मैंने सोचा कि टूज़ी का मतलब आप चाहती हैं कि मैं बारी-बारी से दोनों गाँधी पर एक-एक स्टोरी कर दूँ. इसीलिए मैंने पहले राहुल गाँधी पर की और सोचा कि मैडम के उप्पर...

नीरा : तुमको पता है न कि उन लोगों का पी आर अकाउंट मैं मैनेज नहीं करती. फिर भी इतनी बड़ी बेवकूफी कर दी तुमने. और हाँ, वो मैंने कहा था कि दादरी पॉवर प्लांट पर स्टोरी लिखो कि वहाँ के किसान अपनी ज़मीन वापस चाहते हैं. ये पॉवर प्लांट नहीं आ सकता अब. और तुमने अभी तक वो स्टोरी नहीं की...

चंदू : अरे मैडम वो स्टोरी मैं कैसे करता? मैं दादरी गया तो वहाँ मैंने देखा कि वहाँ किसान मस्त हैं. उन्हें ज़मीन की कीमत जो मिली है उससे वे मस्त हैं और वही पैसा कमोडिटी मार्केट में लगा रहे हैं और लॉस जनरेट कर रहे हैं. ऊपर से कई किसान कह रहे थे कि अगर प्लांट वाले और ज़मीन ले लेते तो...

नीरा : किसने तुमसे कहा दादरी जाने के लिए? दिल्ली में रहकर स्टोरी लिखी जाती है कि दादरी जाकर? कैसे पत्रकार हो तुम? दिल्ली में रहकर स्टोरी किखने लायक नहीं हो तो जर्नलिज्म में तुम्हारा फ्यूचर कुछ नहीं है.

चंदू : छोड़िये मैडम. हमारी आपकी नहीं पट सकती. वैसे भी अब मैं प्रिंट मीडिया छोड़कर वेब मीडिया में जा रहा हूँ. मेरी एक ब्लॉगर से बात हो गई है. मैं उसको ज्वाइन कर रहा हूँ. ये दलाली करें लायक नहीं हूँ मैं.

नीरा : अरे सुनो तो....

पी पी पी की आवाज़ आ रही थी. टेलीफोन कट हो चुका था.

चंदू ने मेरी तरफ देखा और कुछ नहीं कहा. तुरंत वहाँ से उठ और चल दिया. कह कर गया है कि....



नोट: टेप नंबर सतहत्तर में भी इन्ही दोनों की बातचीत है. उसे छापने पर भी विचार किया जा रहा है:-)

Wednesday, December 8, 2010

स्कैम गाथा




बहुत दिनों के बाद तुकबंदी इकठ्ठा करने बैठा तो ये डेढ़ सौ ग्राम अशुद्ध तुकबंदी इकठ्ठा हो गई. आप बांचिये.



पूरा भारतवर्ष स्कैम्स से हुआ है धन्य
.....................ऐसे में बस रोज इक स्कैम निकलवाइये
नया स्कैम जो निकले पुराने को ढांप लेवे
.....................अपनी सीबीआई लगवा कर जांच करवाइए
आपके नेतागणों का रोल अगर सामने हो
.....................विरोधी पार्टी के स्कैम्स याद दिलवाइये
विपक्ष अगर अड़ा हो जेपीसी पर तो अड़ने दें
.....................आप निर्लज्ज होकर मांग ठुकराइए


एक तरफ नीरा तो दूसरी तरफ बरखा हो
.....................एक तरफ वीर हों तो दूसरी तरफ राजा
अगर लाइन भटक कर और कहीं चली जाए
.....................तो भी वहाँ बजेगा स्कैम का ही बाजा
खाली एक पत्र लिख अपना हाथ साफ़ रखिये
.....................जिससे खड़ा रहे ईमानदारी का प्लाजा
जनता लाख गाली दे, आप साबित करते रहें
.....................टके सेर भाजी टके सेर खाजा


देश के अन्दर चाहे जैसी सिक्यूरिटी हो
.....................सिक्यूरिटी काऊंसिल में परमानेंट सीट चाहिए
अपने घर में चाहे मिले नहीं भूंजी भांग
.....................परन्तु जब बाहर रहें तो चिकेन-मीट चाहिए
ज़ी डी पी बढ़ेगी और घटेगा इन्फ्लेशन एकदिन
.....................यह ज्ञान देने हेतु मिनिस्टर ढीट चाहिए
आपके सरकार की सफलता बसी ज़ी डी पी में
.....................इसी संदेश का डेली रिपीट चाहिए


सी डब्ल्यू ज़ी के घोटाले की बात हो तो
.....................जेब में हाथ डाल आदर्श को निकालिए
आदर्श की बात अगर पब्लिक में जोर पकड़े
.....................उससे ध्यान हटाने को टू-ज़ी ले आइये
टू-ज़ी की बात पर विपक्ष अगर अड़ जाए
.....................टीवी चैनलों से फ़ूड स्कैम ठेलवाइये
उससे भी अगर ध्यान जनता का न हटे तो
.....................राजाबाबू के घर पर रेड करवाइए


विदेशी राष्ट्राध्यक्षों को देश में बुलाइए ताकि
.....................उनसे सुनने को मिले आप तो महान हैं
आफिशियल डिनर पर चेलो-चमचों के बीच सुनें
.....................आपकी ईमानदारी ही भारत की पहचान है
आपके मंत्री और संतरी सारा देश लूट खाएं
.....................आपकी इंटीग्रिटी पर सबको गुमान है
पी आर की नींव पर ही सरकारी बिल्डिंग खड़ी
.....................उसी की वजह से चलती आपकी दूकान है


जनता बेचारी तीन वर्षों से सोच रही
.....................उनके जीवन से मंहगाई कब जायेगी
आपके मंत्री-एडवाइजर रोज उससे यही कहें
.....................दो महीने रुको बस खुशहाली अब आएगी
मंत्रियों के वादे पर न जाने कितने महीने गए
.....................पता नहीं आँखें ऐसे दिन देख पाएगी
समय नहीं बचा है अब नारों और वादों का
.....................जल्द ही जनता अपने लात चलाएगी


आपके राज में स्कैम लगे दर्द जैसा
.....................और यही सोचे कि वो निकले किधर से
कभी फूट पड़ता है वो किसी बिल्डिंग से तो
.....................कभी तोड़ निकल आये खेल के उदर से
कभी वह निकल आये गेंहू और चावल से
.....................तो कभी फूट पड़ता है रेल के उधर से
दल और दलालों से देश भर गया है अब
.....................किन्तु कुछ नहीं निकले आपके अधर से

Tuesday, December 7, 2010

मनोहर भैया का समाजवाद




मनोहर भैया सोच में बैठे थे. मैंने पूछा; "क्या हुआ भैया? इतने चिंतित क्यों हैं?"

बोले; "लगता है बाबूजी का सपना सपना ही रह जायेगा शिव. क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा है."

उनकी बात सुनकर मैं भी सोचने लग गया.

पहले मनोहर भैया के बारे में बता दूँ. भैया का पूरा नाम राम मनोहर है. उनका यह नाम उनके बाबूजी ने रखा था. बाबूजी राम मनोहर लोहिया के अनन्य भक्त थे. अशोक मेहता, लोहिया जी और जयप्रकाश बाबू के बाद ख़ुद को भारत का सबसे बड़ा समाजवादी मानते थे. ये बात और है कि उनकी तरह की सोच रखने वाले हजारों, लाखों लोग थे. इन समाजवादियों में मुलायम सिंह जी भी थे.

बाबूजी जब तक रहे, समाजवाद लाने में जीवन गुजार दिया. लेकिन समाजवाद भी अपनी जिद पर अड़ा रहा. बहुत कोशिश की गई लेकिन आने की बात तो दूर, अपनी जगह से हिला भी नहीं कि भारत तक पहुँच सके.

नेहरू का विरोध, कांग्रेस का विरोध, सत्ता का विरोध, स्थापित मान्यताओं का विरोध, कोई विरोध छूटा नहीं. कविता का सहारा लिया गया. मंच बनाए गए. निराला हों या धूमिल, नागार्जुन हों या त्रिलोचन, सबकी कविताओं का सामूहिक पाठ चला. सेमिनार आयोजित किए गए. खद्दर के कुर्तों से ढंके नेता दिखते, लेकिन समाजवाद अपनी जिद पर अड़ा रहा.

सारी कोशिश करने के बाद भी जब नहीं आया तो बाबूजी दुखी रहने लगे. सत्तर के दशक में जय प्रकाशबाबू की कोशिशों से एक सरकार बनी भी तो उसे बड़े समाजवादियों की करतूतों की वजह से जाना पडा. सरकार की दुर्गति देखकर जयप्रकाश बाबू दुखी रहने लगे. उनकी देखा-देखी मनोहर भैया के बाबूजी ने भी दुःख का सहारा लिया. उन्हें शायद लगा कि पर्याप्त मात्रा में दुःख न होने की वजह से समाजवाद नहीं आ रहा.

बाद में बाबूजी नहीं रहे. जाते वक्त मनोहर भैया से वचन लिया. भैया ने भी बाबूजी को निराश नहीं किया. बताते हैं कि अन्तिम क्षणों में भैया ने बाबूजी को वचन दिया कि समाजवाद लाकर ही रहेंगे.

कालांतर में भैया ने समाजवाद लाने की कोशिश शुरू कर दी. खादी धारण कर लिया. सरकार के ख़िलाफ़ नारे लिखने लगे. काफी हाऊस में समय गुजारने लगे. बाज़ार में में चाय-पान की दुकानों पर दिखने लगे. महीने में एक बार दिल्ली का दौरा करते. सेमिनारों में तकरीरों की झड़ी लगाते. स्थानीय स्तर पर प्रकाशित होने वाली पत्रिका में लिखते. महीने में पन्द्रह दिन अखबारों में वक्तव्य देते कि विकास की बात बेमानी है. कोई विकास नहीं हो रहा है. सरकारी आंकडे ग़लत हैं. दोस्तों के साथ मिलकर प्रकाशकों की 'दुकानों' के चक्कर लगाते. लेकिन समाजवाद भी अपनी जिद पर अड़ा रहा. टस से मस नहीं हुआ. अपने नाम के आगे खोजकर एक उपनाम तक लगा लिया. लेकिन कुछ भी नहीं हुआ.

यही बात उन्हें खाए जा रही थी. यही कारण था कि चिंतित बैठे थे. मैंने कहा; "मनोहर भैया, बाबूजी का सपना आपको पूरा करना ही है. आख़िर आपने उन्हें वचन दिया था."

बोले; "हाँ, मैं भी तो वही सोच रहा हूँ. तुम्हें क्या लगता है? ऐसा क्या किया जाय कि बाबूजी का सपना पूरा कर सकूं."

मैंने कहा; "भैया, मैं क्या बताऊं. लेकिन आप चिंता न करें. मुझे पूरा विश्वास है कि आप जरूर कोई न कोई रास्ता जरूर निकाल लेंगे."

अचानक मनोहर भैया उछल पड़े. उनकी आंखों में रोशनी चमकी. बोले; "अच्छा, तुम्हारा तो अपना ब्लॉग है. मुझे एक बात बताओ अगर मैं एक ब्लॉग बना लूँ तो कैसा रहेगा?"

मैंने कहा; "भैया मैं क्या कह सकता हूँ. लेकिन एक बात जरूर कहूँगा कि इंटरनेट पर ब्लॉग खोलने से आप अपने विचार ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचा सकते हैं."

मनोहर भैया बोले; "तुम्हारा कहना एकदम ठीक है. मैं अपना एक ब्लॉग बनाऊँगा. मुझे लगता है कि समाजवाद अब ब्लॉग से ही आयेगा."

मैंने कहा; "लेकिन भैया, समाजवादी तो वैश्वीकरण का विरोध करते हैं. और ये इंटरनेट से वैश्वीकरण फैला है. ब्लॉग बनाना तो समाजवादी नीतियों के ख़िलाफ़ होगा."

मनोहर भैया ने कुछ देर सोचकर कहा; "मुझे अपने बाबूजी का सपना पूरा करना है. इसके लिए अगर वैश्वीकरण के टूल की मदद लेनी पड़े तो भी मुझे कोई ऐतराज नहीं है. मुझे समाजवाद लाना ही है चाहे वो इंटरनेट के जरिये से आए."

दूसरे दिन ही मनोहर भैया ने अपना एक ब्लॉग बनाया. ब्लॉग पोस्ट पर सबसे पहले उन्होंने अन्य ब्लॉगर की बुराई की. सबसे पहले ये बताया कि बाकी के ब्लॉगर जो कुछ भी लिखते हैं वो सब कचरा है. उनकी पहली पोस्ट देखकर मैंने कहा; "भैया, आपने तो समाजवाद लाने के लिए ब्लॉग शुरू किया था. लेकिन आपने तो बाकी के ब्लॉगर की बुराई शुरू कर दी."

मनोहर भैया ने मेरे कान के पास मुंह लाते हुए धीरे से कहा; "यही तो समाजवाद लाने की कवायद की शुरुआत है. समाजवाद लाने की कोशिश दूसरों की बुराई करने से शुरू होती है. और फिर ये भी तो देखो कि मेरी पोस्ट पर इतने सारे कमेंट आये हैं."

आनेवाले दिनों में पता चलेगा कि मनोहर भैया का समाजवाद ब्लागिंग से आता है या फिर भैया को कोई और रास्ता खोजने की जरूरत पड़ेगी.

Monday, December 6, 2010

ठेकेदार की कहानी




इलाके के बड़े ठेकेदार हैं अपनी कहानी सुना रहे थे. सफलता की कहानी. बोले; "सब भगवान की कृपा है चाचाजी. सब उन्ही का आशीर्वाद है. कभी नहीं सोचा था कि बी एच यू के सामने डेढ़ करोड़ में ज़मीन खरीदेंगे. स्कॉर्पियो में चलेंगे. और इस्कूल की ही बात ले लीजिये. सपने में भी नहीं सोचा था कि इतना बड़ा इस्कूल खोलेंगे. लेकिन सब भगवान का आशीर्वाद है. आज किसी चीज की कमी नहीं है. अब समझ लीजिये कि एक ठेका जो पचास लाख का होता है उसमें नेट प्रोफिट करीब चालीस का बैठता है. सब आपलोगों का आशीर्वाद है....."

लीजिये भगवान को अपनी सफलता का श्रेय कितनी बार देते? शायद यही सोचते हुए थोड़ा सा श्रेय लगे हाथ हमारे पिताजी के आशीर्वाद को भी दे डाला. सुनकर लगा जैसे कोई बड़ा पैसेवाला सेठ श्रेय बांटने निकला है और आज उसके रस्ते में जो भी आएगा, बच नहीं पायेगा. हर एक को ज्यादा नहीं तो ढाई सौ ग्राम श्रेय तो लेना ही पड़ेगा.

अपने विनय की बात ऐसे कर रहे थे कि पूछिए मत. बोले; "इतना सब होने के बावजूद आज भी न तो मेरे अन्दर और न ही छोटे भाई के अन्दर जरा भी घमंड है. आज भी चाचाजी, मंगलवार को इंडिया में कहीं भी रहूं लेकिन विन्ध्याचल की देवी के दरबार में ज़रूर पहुँचता हूँ. छोटे भी कुछ कम धार्मिक नहीं हैं. कम से कम तीन घंटा पूजा करते हैं. कुछ भी हो जाए...."

उनकी बात को कोरोबोरेट करने के लिए पास बैठे उनके दांयें बोल पड़े; "एकदम सही कह रहे हैं. रंजीत को आप देखेंगे तो लगेगा ही नहीं कि यही रंजीत हैं. जरा भी घमंड नहीं."

सुनकर अनुमान लगा सका कि इस आदमी के विनय का अहंकार कितना बड़ा है.

सफलता की कहानी बताते-बताते अपने बिजनेस मॉडल पर पहुंचे. बोले; "खर्चा निकाल कर इतना बच जाता है कि क्या कहें? सोनभद्र है भी तो नक्सली इलाका. अब समझ लीजिये कि एक करोड़ का ठेका है तो कम से कम सत्तर लाख तक का प्रोफिट है. साटिफिकेट ही तो लेना है."

यह बिजनेस का सरकारी मॉडल है. प्रोफिट मार्जिन इतनी कि बड़ी-बड़ी अमेरिकेन कंपनियों के सी ई ओ को शर्म आ जाए और वे तीन दिन तक यह सोचते हुए पेप्सी न पीयें कि; "पढाई-लिखाई करके हमने क्या किया?" कुछ सी ई ओ के तो डिप्रेशन में चले जाने का चांस बना रहेगा.

मैं तो कहता हूँ कि भारतीय ठेकेदारों के बिजनेस मॉडल को दुनियाँ भर की बड़ी कंपनियों के सी ई ओ को एक बार ज़रूर देखना चाहिए. उन्हें यह विचार करने की ज़रुरत है कि केलोग्स और एम आई टी में पढ़कर उन्होंने क्या किया? ऐसी पढाई करके क्या फायदा अगर वे भारतीय ठेकेदारों की एफिसिएंसी तक नहीं पंहुच सकते?

वे आगे बोले; "लेकिन बड़ी मेहनत भी की है चाचाजी."

मेहनत वाली उनकी बात सुनकर विचार मन में आया कि बन्दे ने इतना बड़ा बिजनेस खड़ा किया तो मेहनत तो किया ही होगा. लेकिन अगले ही क्षण जब उन्होंने अपनी मेहनत की कहानी सुनाई तो मेरा विचार धराशायी हो गया. वे बोले; "पास में पैसा नहीं था उस समय. किसी का क्रेडिट कार्ड लेकर, किसी से उधार लेकर, इधर से उधर से करके आठ लाख रुपया जुटाया. एक एक्जक्यूटिव इंजिनियर को दे दिया. बात यह हुई थी कि वह ठेका दिलवाएगा. पैसा लेकर स्साला बैठ गया. समझ में यही आया कि अब पीछे जाने का कोई रास्ता नहीं है. अब या तो हम मर जायेंगे या फिर वो मरेगा. एक दिन शाम को बाज़ार में निकला. पुलिसवाले साथ थे. छोटे भाई ने गोली चला कर वहीँ पर ढकेल दिया. (ढकेल दिया से उनका मतलब जान से मार दिया.)

आगे बोले; "तीसरे दिन छोटे ने कोर्ट में सलिंडर कर दिया. जेल में गए तो वहाँ नक्सली नेता गिरजा से मुलाकात हुई. वो बोला कि जितना काम करना हो करो. जितना ठेका लेना हो लो. बस दस परसेंट मुझे चाहिए. वो दिन है और आज का दिन है एक बार भी तकलीफ नहीं हुई. उसका हिस्सा उसके पास पहुँचा देते हैं.... बाद में जज को साधा गया. वो मुकदमा अभी भी चल रहा है लेकिन उसके बाद छोटे मर्डर के और किसी केस में नहीं फँसा. अब तो...."

मैंने कहा; "यह बढ़िया है. एक मर्डर कर दिया और धाक जमा ली."

बोले; "ऐसी बात नहीं है गुरूजी. ऐसा नहीं कि उसके बाद मर्डर नहीं किये. हाँ, लेकिन फंसे नहीं."

आगे बोले; "और अब पैसा भी तो दुसरे-दुसरे धंधे में लगा रहे हैं. एक इस्कूल खोल दिए हैं और अब दूसरे की तैयारी है. बड़ा पैसा है शिक्षा में......"

सफलता की उनकी कहानी सब बड़े ध्यान से सुन रहे थे. उनमें कुछ ऐसे भी थे जो न जाने कितनी बार सत्यनारायण भगवान की कथा की तरह वह कहानी सुन चुके होंगे लेकिन चेहरे पर भाव ऐसे कि पहली बार सुन रहे थे. ठेकेदार के श्रोता बने हुए हैं. समय बीतते उनमें कुछ और जुड़ जाते हैं. उनकी कहानी भी उनके बिजनेस की तरह चली जा रही है.

Tuesday, November 30, 2010

टेप-टेप में




टेप्स सार्वजनिक हो गए. कुछ लोगों ने संविधान के हवाले से बताया कि यह किसी इंडिविजुअल की प्राइवेसी पर हमला है. दूसरी तरफ से आवाज़ आई कि इंडिविजुअल अगर देश और उसकी जनता के बारे में बात करे तो वह पब्लिक हो जाता है. टेप्स से ही हमें पता चला कि जिन्हें हम पत्रकार समझते थे वे दरअसल कुछ और ही हैं. क्या हैं, यह सब अपने-अपने हिसाब से तय कर सकते है. जो लोग़ टेप्स में कविता पाठ करते सुने गए हैं वे सफाई दे रहे हैं. कुछ नहीं भी दे रहे.

हमारा काम है कि हम अपने ब्लॉग पत्रकार को भेजकर लोगों की प्रतिक्रिया जानें. यही कारण था कि हमारे ब्लॉग पत्रकार चंदू चौरसिया ज़ी ने लोगों से उनकी प्रतिक्रिया मांगी. आप बांचिये कि लोगों ने क्या कहा;

रॉबर्ट गिब्स, प्रेस सेक्रेटरी ह्वाईट हाउस : "वी आर ऑफ द ओपिनियन दैट इट टेक्स स्पेशल टैलेंट टू सेल समथिंग ऐट थ्री परसेंट ऑफ इट्स रीयल वैल्यू एंड इंडिया हैव डन वैरी वेल ऑन दैट काउंट. हाउ-एवर, वी स्टिल बिलीव दैट इन-स्पाईट ऑफ आल इट्स टैलेंट ऐज विजिबिल इन स्कैम्स, इंडिया हैज अ लॉन्ग वे टु गो टु क्लेम अ पर्मानेंट सीट इन यूनाईटेड नेशंस सिक्यूरिटी काउंसिल. वी ऑल्सो री-टरेट दैट आल दो इंडिया कुड मैनेज टु सेल इट्स नेशनल असेट्स ऐट थ्रो-अवे प्राइसेज, स्टिल पाकिस्तान इज आर नेचुरल अलाई व्हेन इट कम्स टु फाईट टेरोरिज्म. वी आर फार्मुलेटिंग अ न्यू टेरर पालिसी एंड सी इंडिया ऐज अ प्रोमिनेंट प्लेयर....."

अरिंदम चौधरी, डायरेक्टर आई आई पी एम : "राजा शुड हैव काऊँटेड हिज चिकेन्स...सॉरी स्पेकट्रंम्स बिफोर इट्स सेल. बट नाऊ दैट इट्स विजिबिल ही डिड नॉट, आई स्टिल होप दैट ही वुड थिंक बियोंड टूज़ी. मुझे ये लगता है कि अगर राजा एक प्रुडेंट मिनिस्टर की तरह काम करते तो उन्हें टूज़ी के लिए बिड करनेवालों को बीएसएनएल का एक-एक सेल फोन देना चाहिए था. तब झमेला केवल इस बात पर होता कि उसने बिडर्स को सेलफोन क्यों दिया? तब झमेला रेवेन्यू लॉस का न होकर.....बॉस, मैंने इंडिया में पहली बार हर एडमिशन पर एक लैपटॉप देना शुरू किया. वी आर पायनियर इन दिस फील्ड..."

राम बिलास पासवान ज़ी, दलित लीडर : "ई जो टेप आया है, उसको सुनने के बाद एक बार फिर से साबित हो गया कि जे देश में दलित, पिछड़ा, ओ बी सी, आदिवासी और माइनॉरिटी कमुनिटी का कहीं भी सुनवाई नहीं है. एतना टेप जो है रिलीज हुआ लेकिन एक में भी कोई दलित का आवाज़ नहीं है. ई जो है का दर्शाता है? सरकार जो है ऊ खाली पैसावाला सब के लिए......"

अरनब गोस्वामी, मॉडर्न डे रिवोल्यूशनरी : "दोज वेरी पीपुल हू हैड थ्रीटेंड टू स्यू योर चैनल, आर रनिंग फॉर फोर हंड्रेड मीटर्स हरडेल्स...सॉरी सॉरी...इट ऐपीयर्स दैट आई सेड समथिंग इर्रिलिवेंट...यस, ह्वाट आई वांटेड टू से इज दैट आई एम वेरी डिस्अप्वाइंटेड ऐज नन ऑफ दीज टेप्स फीचर्स सुरेश कलमाडी....बट आई वुड लाइक टू अस्योर आल आर व्यूअर्स दैट योर चैनल विल लीव नो स्टोन अनटर्न्ड टिल इट गेट्स टू रूट ऑफ द कॉजेज ऐज टू ह्वाट ट्रांस्पायर्ड नॉन इनक्लूजन ऑफ कलमाडी....."

वॉरेन बफेट, इन्वेस्टर, कैश-होर्डर, फिलेनथ्रोपिस्ट एंड ऐन आलटाइम विनर : "दीज टूज़ी टेप्स ब्रिंग ऐन एंटाइरली न्यू बिजनेस ऐंड इन्वेस्टमेंट आप्च्यूनिटी इन द फील्ड ऑफ कन्वर्शेसन रिकार्डिंग क्विपमेंट्स इन इंडिया...लुकिंग ऐट द नंबर ऑफ स्कैम्स एंड लेवल ऑफ करप्शन, आई एम स्योर इंडिया विल प्रूव टू बी अ ह्यूज मार्केट फ़ॉर दीज इक्विपमेंट्स...अमेरिकन कंपनीज हैव अ ग्रेट आप्च्यूनिटी ऐंड दे शुड स्टार्ट मैन्यूफैक्चरिंग मोर एडवांस्ड इक्विपमेंट्स टू कैटर टू द फ्यूचर डिमांड्स ह्विच मे स्टार्ट पोरिंग इन वंस रिकार्डिंग्स टू प्रॉब थ्रीज़ी टेलिकॉम लाइसेंस....देन फोरज़ी..देन..."

बिनोद शर्मा, डी-फैक्टो स्पोक्सपरसन, कांग्रेस पार्टी एंड पार्ट-टाइम एडिटर हिन्दुस्तान टाइम्स : "जो भी टेप्स अभी तक सामने आये हैं, उनको सुनकर तो यही लगता है कि इन टेप्स की वजह से नरेन्द्र मोदी की ईमेज को गहरा झटका लगा है. कुल एक सौ चार टेप्स में नरेन्द्र मोदी का नाम एक बार भी सुनाई नहीं दिया. जो बीजेपी मोदी को नेशनल लीडर के तौर पर प्रोजेक्ट करना चाहती थी अब वह क्या करेगी? गुजरात दंगों का भूत मोदी का पीछा नहीं छोड़ेगा. मेरा ऐसा मानना है कि कल अगर इस बात पर नीतीश कुमार बीजेपी से अपना पीछा छुड़ा लें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी. इन टेप्स ने मोदी को उनकी औकात बता दी है...."

शनि महाराज, पार्ट-टाइम ज्योतिषी ऐंड फुल-टाइम मनी लांडरिंग कंसल्टेंट : "जब टेप रिकार्ड किये गए तब शनि मंगल के गृह में बैठा था. और वृहस्पति के ऊपर चन्द्रमा का साया मंडरा रहा था. इसलिए लोगों का फोन टेप हो गया. मेरे पास इसका उपाय है. अगर काली सरसों के सात दाने और लालमिर्च के तीन दाने मिलाकर शनिवार के दिन उसे नमक के पानी में धोकर और उसके बाद उसको पीसकर उस लेप को सेलफोन पर लगा दिया जाय तो फिर बातचीत को कोई टेप नहीं कर सकेगा...."

बरखा दत्त, 'जनरलिस्ट' : "टेप्स से यह बात प्रूव होती है कि जर्नलिज्म बिलकुल आसान काम नहीं है. एक न्यूज के लिए एक जर्नलिस्ट को क्या-क्या नहीं करना पड़ता. यहाँ तक कि पीआर एजेंसी चलानेवाली के साथ फालतू की बकबक करनी पड़ती है. आई टेल यू चंदू, दिस इज नॉट ईजी."

श्री राकेश झुनझुनवाला, इन्वेन्टर ऑफ ट्विटर एंड ओनर ऑफ द बिलियन डॉलर रवींद्र जडेजा फैन्स क्लब : "मुझे लगता है कि अभी तक पूरे टेप्स सामने नहीं आये हैं. सरकार कुछ छिपा रही है. मैंने बहुत खोज की लेकिन मुझे वो टेप नहीं मिला जिसमें अजित अगरकर ने टी-ट्वेंटी वर्ल्डकप से पहले रवींद्र जडेजा को क्रिकेट की कोचिंग दी है. यहाँ तक कि वह टेप भी नहीं मिला जिसमें उदय चोपड़ा और हरमन बवेजा एक कान्फरेन्स लाइन पर डीनो मोरिया को एक्टिंग लेशंस दे रहे हैं. आई टेल यू, देयर आर मोर टू दीज टेप्स देन ह्वाट हैज बीन इन पब्लिक डोमेन सो फार....."

श्री भूरेलाल, डी एस पी, तेजपुर बिहार : "ई तो स्साला होना ही था."

हलकान 'विद्रोही', ग्रेटेस्ट हिंदी ब्लॉगर : "आज समय आ गया है कि देश से भ्रष्टाचार को उखाड़ कर फेंक दिया जाय. यह देश पूरी तरह से देशद्रोहियों के हाथ में चला गया है जो गरीब जनता के हिस्से की रोटी भी खा रहे हैं. आज ज़रुरत है कि हम रोज पोस्ट और कमेन्ट लिखकर इन देशद्रोहियों का असली चेहरा सबसे सामने लायें. अब समाज को एक ही चीज दिशा दे सकती है और वह हिंदी ब्लागिंग. आज मैं पूरे हिंदी ब्लॉग समाज से यह आह्वान करता हूँ कि इतनी पोस्ट लिखी जाए कि बस पोस्ट की गूँज सुनाई दे और भ्रष्टाचार इस देश को छोड़कर हमेशा के लिए चला जाय.

भारतमाता की जय!

दीपांकर गुप्ता, समाजशास्त्री : "आज समय आ गया है कि हम इन टेप्स को सोसियो-पोलिटिकल-एकॉनोमिकल ऐंगेल से देखें. जितने भी टेप्स बाहर आये हैं उनमें से एक को भी सुनकर नहीं लगता कि हमारा समाज अभी भी पूरी तरह से इन्क्लूसिव ग्रोथ वाला समाज बन सका है. इन टेप्स में 'वीकर सेक्शन ऑफ द सोसाइटी' का रिप्रजेंटेशन नहीं है. हालाँकि प्रजेंट डे गवर्नमेंट ने काफी कोशिश की है जिससे इन्क्ल्यूसिव ग्रोथ को बढ़ावा दिया है जैसे नरेगा और लोन माफी कार्यक्रम चलाकर इस सरकार ने यह इन्स्योर किया कि पैसे का डिस्ट्रीब्यूशन कहीं न कहीं एमपी और एमएलए के अलावा रुरल लेवल पर ठेकेदारों तक भी पहुंचे. इसके अलावा सरकार ने और भी बहुत कुछ किया है लेकिन वह काफी नहीं है. इन्क्ल्यूसिव ग्रोथ का जो आईडिया है उसे और आगे ले जाने की ज़रुरत है. मेरा ऐसा माना है कि......"

जगन मोहन रेड्डी, राइजिंग सन एंड वाईजिंग पोलिटिसियन : "देयर वेयर येस्पेक्कुलेसन दैट याफ्टर दीज टेप्स यार आउट, अई वुड नॉट रिजाइन. आई हैव प्रूव्ड येवेरीबडी रॉंग येंड जस्ट रिजइन्ड ."

चंदू ज़ी ने तो और लोगों के बयान इकट्ठे किये थे लेकिन टाइप करते-करते हाथ दुःख रहे हैं. आप इतना बांचिये. जैसे सरकार ने और भी टेप्स को सार्वजनिक करने का वादा किया है वैसे ही मैं भी बाकी के बयान बाद में छाप दूंगा.

अगर पब्लिक डिमांड हुई तो.

Friday, November 26, 2010

टेपहरण काण्ड




जब सीडी चलन में नहीं आया था और कई लोग़ उसे शक की निगाह से देखते हुए यह सोचते थे कि अद्भुत दिखने वाली इस चीज को ही यूएफओ कहते हैं, तब अल्ताफ रज़ा और अताउल्लाह खान ज़ी के फैन्स उनके कालजयी गाने सुनने के लिए कैसेट खरीदते थे. खरीदने के बाद उस कैसेट को इतना चलाया जाता था कि जब कभी तुम तो ठहरे परदेसी साथ क्या निभाओगे नामक महान गीत बजता तो आने-जाने वाले लोग़ यही सोचते कि परदेसी कहकर उन्हें ही संबोधित किया जा रहा है. और जब कैसा सिला दिया तूने मेरे प्यार का जैसा प्रोटेस्ट-सूचक, पीड़ा-प्रेषक गीत बजता तो आने-जाने वाली लड़कियां टेपरेकॉर्डर बजानेवाले को आश्चर्य से देखती और मन ही मन सोचती कि; "यह चिरकुट भी मुझे प्यार करता था? मैंने तो केवल रमेश, पप्पू और राजू का नाम सुना था.

उन दिनों फी कैसेट चालीस रूपये खर्च करने वाला कैसेट स्वामी इन गानों को इतना बजाता कि लोगों के मन में संदेह पैदा होने लगता कि इन गानों का कॉपीराइट्स इसी महापुरुष के पास है और अगले घंटे से ही यह पूरे मोहल्ले से पेटेंट फी की वसूली शुरू कर देगा. ये गाने इतना बजते कि कैसेट करीब साढ़े सत्रह दिन के भित्तर ही शहीद हो जाता और उनका स्वामी बड़े दुःख के साथ अलविदा दोस्त कहते हुए उन्हें आते-जाते खूबसूरत आवारा सड़कों पर फेंक आता. लेकिन कैसेट स्वामी के इस कर्म से कैसेट की मौत नहीं होती थी. दरअसल कैसेट थ्रो नामक जिस खेल में वह बिना किसी गोल्ड मेडल की आकांक्षा के उत्कृष्ट प्रदर्शन करता, उसी खेल से कैसेट को एक नया जीवन मिल जाता था और नया जीवन पाकर कैसेट यह कहते हुए धन्य हो लेता था कि बड़े भाग कैसेट तन पावा.

अपने नए जीवन के पहले चरण में ये वह कैसेट मोहल्ले के किसी कैसेट-प्रेमी बच्चे के हाथों में अठखेलियाँ करते नहीं थकता था. बच्चा उस कैसेट को हाथ में लेता और एक आँख बंद करके दूसरी से उसके आर-पार देखने की कोशिश करता. जब कुछ दिखाई न देने के कारण बोर हो जाता तो बड़े प्यार से उँगलियों के समूह से तर्जनी नामक उंगली का सेलेक्शन कर उसे कैसेट की चकरी में घुसेड़ देता और उसे इस तरह से घुमाता जैसे महाभारत सीरियल में श्रीकृष्ण बने नितीश भारद्वाज तथाकथित सुदर्शन चक्र घुमाया करते थे.

कुछ बच्चे तो इस कला में इतने माहिर होते थे कि अगर एशियन गेम्स में इस प्रतियोगिता को शामिल कर लिया जाता तो नोवी कपाडिया को इस बात की चिंता न सताती कि गोल्ड मेडल्स की टैली को दो अंकों में पंहुचाने के लिए किस प्रतियोगिता पर डिपेंड किया जाय. शर्त लगाकर कह सकता हूँ कि नाइन आउट ऑफ टेन बार गोल्ड मेडल भारत की झोली में होता और भारत की गोल्ड मेडल टैली डबल डिजिट में पहुँच जाती.

अपना नया सुदर्शन चक्र घुमाकर भगवान, (मेरी बात पर नाराज़ मत होइएगा, बच्चे भगवान का रूप होते हैं.इधर आप नाराज़ हुए और उधर आपको पाप लगा), जब बोर हो जाता तब वह कैसेट को आधे में चीर डालता और उसके भीतर के टेप को खींच डालता. बच्चे का यह कर्म कुछ समय के लिए उसे दुशासन के रूप में प्रस्तुत करता. अंतर केवल इतना रहता कि अटेंडेंस रजिस्टर में सुदर्शनचक्र धारी भगवान श्रीकृष्ण के नाम के आगे कैपिटल ए लिखा रहता. इसका परिणाम यह होता कि अगल-बगल खड़े लोग़ इस टेप-हरण काण्ड का जम कर लुफ्त उठाते. बाद में टेप को उड़ाया जाता. फैलाया जाता. लपेटा जाता. टांगा जाता. कहीं बांधकर लाँघा जाता. बच्चों के ये कर्म उन्हें और साथ में खड़े तमाम लोगों को अद्भुत आनंद वाले रोलरकोस्टर राइड्स पर ले जाते. उन्हें लगता कि टेप हरण में ही जीवन का लुत्फ़ छिपा हुआ है. कुछ दिनों बाद जब वे बोर हो जाते तो नए कैसेट की तलाश में निकल पड़ते. मोहल्ले में कैसेटों की कमी भी नहीं थी. लगभग हर दिन किसी न किसी घिसे-पिटे कैसेट को नया जीवन मिल ही जाता.

यह बात अलग थी कि कुछ टैलेंटेड बच्चे यह सोचते हुए समाज को गाली देते थे कि सभी कैसेट ही फेंकते हैं. स्साला कभी कोई टेप रेकॉर्डर नहीं फेंकता.

धत्त तेरे की. मैंने सोचा था कि आज बहुत दिनों बाद चर्चा में चल रहे टेप्स के बारे में कुछ लिखूंगा और शुरू किया तो घिसे-पिटे कैसेट के बारे में लिख दिया. खैर, अब लिख दिया है तो पब्लिश कर ही देता हूँ. टेप्स के बारे में फिर कभी लिखूँगा.

Friday, November 12, 2010

सिंथेटिक प्रगति




दिवाली आई और चली गई. साल भर जिस त्यौहार का इंतज़ार रहता है उसके आने में तो देर लगती है लेकिन जाने में बिलकुल नहीं. अब दिवाली के चले जाने से हम वैसे ही हलकान हैं जैसे कुछ लोग इस बात से हलकान हुए जा रहे हैं कि श्री बराक ओबामा ने मुंबई में भाषण तो झाड़ा लेकिन वे अपने भाषण में पाकिस्तान नामक शब्द डलवाना भूल गए. यह तो वैसा ही हो गया कि सब्जी तो बहुत बढ़िया बनी बस समस्या एक रह गई कि मास्टर शेफ अमेरिका नमक डालना भूल गए.

ओह, दिवाली की बात हो रही थी और कहाँ हम फिसल कर ओबामा पर जा पहुंचे.

हाँ तो मैं कह रहा था कि दिवाली आई और चली गई. दीये जले. लक्ष्मी और गणेश ज़ी का पूजन हुआ. एस एम एस लेन-देन का कार्यक्रम हुआ. इनोवेटिव एस एम एस लिखने के कीर्तिमान स्थापित हुए. जो नहीं हो सका वह था मिठाई भक्षण कार्यक्रम. मिठाई भक्षण की बात पर हम इस बार निरीह साबित हुए. कारण था, मिठाई टेस्ट करने के लिए हम घर में प्रयोगशाला नहीं बना सके. मिठाई की दूकान के आस-पास हमें परखनली और टिंक्चर आयोडीन की दूकान नहीं मिली लिहाजा हम ये चीजें नहीं ला सके. ऐसे में मिठाई परीक्षण नहीं हो सका. अब चूंकि सरकार हमको बार-बार बता रही थी कि जागो ग्राहक जागो और मिठाई टेस्ट करके खाओ, हमें बिना परीक्षण वाली मिठाई खाने में शर्म महसूस हुई. नतीजा यह हुआ कि हमने मिठाई नहीं खाई.

इससे पहले कि आप पूछें कि परखनली क्या लफड़ा है, हम आपको बता देते हैं कि परखनली भारतवर्ष में टेस्ट-ट्यूब के नाम से विख्यात हैं.

प्रगति में लिप्त देश के पास तमाम बातों के लिए आप्शन कम हो जाते हैं और वह निरीह हो जाता है. अब देखिये न, हम जब केवल चार प्रतिशत से ग्रो कर रहे थे तब जमकर मिठाई खाते थे. बाद में पता चला कि भारतवर्ष की कुंडली में प्रगति लिखी हुई है. अब जिसकी कुंडली में प्रगति लिखी हुई है उसे प्रगति करने से कौन रोक सकता है? ऐसे में प्रगति योग का असर यह हुआ कि हम नौ-दस परतिशत से ग्रो करने लगे. अब इतनी तेजी से ग्रो करेंगे तो सबकुछ अद्भुत ही होगा न.

और सबकुछ अद्भुत ही हो रहा है.

एक ज़माना था जब सिंथेटिक शब्द की बात होती थी तो उसके साथ केवल एक शब्द जुडा होता था और वह था साड़ी. लगता था जैसे सिंथेटिक शब्द साड़ी शब्द के साथ फेविकोल लगाकर चिपका हुआ था. बाद में हम प्रगति के ऐसे शिकार हुए कि हमने तमाम और चीजों से सिंथेटिक को जोड़ डाला जिनमें सिंथेटिक मावा, सिंथेटिक मैदा, सिंथेटिक दूध, सिंथेटिक दही. अब तो कई बार तो लोग़ सिंथेटिक शुभकामनाओं के साथ बरामद होते हैं.

बस अब केवल सिंथेटिक प्रगति का हल्ला होना बाकी है.

जब मैं छोटा था तब मिठाई में इस्तेमाल होनेवाले मावे और खोये में आलू की मिलावट होती थी. दूध में मूंगफली की. प्रगति के साथ-साथ इक्वेशन चेंज हो गया. अब मावे में सफ़ेद पेंट और टॉयलेट पेपर की मिलावट होती है और दूध में यूरिया की. टॉयलेट पेपर वाली जानकारी मेरे लिए ताज़ा है और परसों ही एक टीवी चैनल ने दी है. पत्रकार बता रहा था कि टॉयलेट पेपर मिलाने से मावा असली लगता है. इस जानकारी के बाद मुझे लगा कि पिछले चार-पाँच महीनों में देश में टॉयलेट पेपर को अभूतपूर्व इज्ज़त मिली है. ऐसी इज्ज़त जो इस पेपर को शायद ही किसी और देश में मिले.

एक मित्र से बात हो रही थी. मैंने कहा; "ये भी कोई बात है? हम मिठाई खरीदने बाज़ार जायें तो साथ में टेस्ट-ट्यूब और केमिकल भी ले आयें ताकि उसे टेस्ट कर सकें?"

मित्र बोले; "अरे ये सब ढकोसला है. मुझे तो लगता है किसी मंत्री के दूर के रिश्तेदार जैसे सास-ससुर या फिर साले-सालियों ने टेस्ट-ट्यूब और मिठाई टेस्टिंग केमिकल्स का धंधा कर लिया है. इसीलिए सरकार ने इतना बड़ा विज्ञापन अभियान चला रखा है."

आगे बोले; "और मैं पूछता हूँ कि क्या गारंटी है कि जिस केमिकल से टेस्ट होना है वह मिलावटी नहीं होगा? उसे टेस्ट करने के लिए क्या एक और चीज खरीदनी पड़ेगी?"

मेरे पास कोई जवाब नहीं था.

आज बैठे-बैठे सोच रहा था कि आनेवाले दिनों में क्या-क्या दिखाई पड़ेगा? मुझे लगा कि हो सकता है पेंट बनानेवाली कोई कंपनी इस बात का प्रचार करे कि प्रसिद्द मिठाई निर्माता अपनी मिठाइयों में हमारी कंपनी के पेंट का इस्तेमाल करते हैं. मिठाई बनानेवाले सेठ ज़ी इस विज्ञापन के लिए मॉडलिंग करेंगे. कोई फर्टीलाइजर कंपनी अपने विज्ञापन में इस बात को बड़े गर्व के साथ प्रचारित करेगी कि दूध बेचने वाली फलाने कंपनी दूध सफ़ेद बनाने के लिए हमारी कंपनी के यूरिया का इस्तेमाल करती है. टॉयलेट पेपर बनानेवाली कंपनी बड़े ताम-झाम के साथ विज्ञापन बनाये कि; "ज़ी हाँ, बहनों और भाइयों, कॉमनवेल्थ गेम्स में अपार सफलता के बाद अब हमारी कंपनी के टॉयलेट पेपर का इस्तेमाल प्रसिद्द मिठाई निर्माता सखाराम सूरजमल अपनी मिठाई के मावे में करते हैं.....

नकली मावे की फैक्टरी में छापा मारने वाले फ़ूड इंस्पेक्टर टीवी चैनल वालों को लेकर जाते हैं ताकि उनकी सफलता से भारतवर्ष में फ़ूड इंस्पेक्शन का इतिहास लिखा जा सके. कल कहीं ऐसा न हो कि मिठाई टेस्ट करने के लिए केमिकल्स बनानेवाली कम्पनियाँ डिमांड पूरा करने के लिए नकली केमिकल्स बनना शुरू कर दें और इन्ही इंस्पेक्टर ज़ी लोगों को उनकी फैक्टरी पर छापा मारना पड़े.......



नोट: मेरी यह पोस्ट पहले न्यूज दैट मैटर्स नॉट पर प्रकाशित हो चुकी है.

Monday, November 8, 2010

बराक ओबामा इन एक्सक्लूसिव चैट विद चंदू चौरसिया




पत्रकारिता मेहनत का काम है. ईमानदारी का काम है. अब देखिये न, बड़े-बड़े पत्रकार अपने टीवी स्टूडियो में बैठे-बैठे ही एनालिसिस करते रह गए लेकिन असली पत्रकार राष्ट्रपति ओबामा से मिलकर उनका इंटरव्यू निकाल लाया. ज़ी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ हमारे ब्लॉग पत्रकार चंदू चौरसिया की.

चंदू ने मुझे एक महीना पहले ही भरोसा दिलाया था कि चाहे जो हो जाए, वह बराक ओबामा ज़ी का इंटरव्यू लेकर रहेगा. मेहनती इतना कि पाँच तारीख से ही आगरा में डेरा जमाये था. सुबह से ही ताजमहल के सामने वाले दरवाजे पर पेन और पेपर लेकर बैठ गया. जब शाम तक ओबामा ज़ी नहीं निकले तो उसने सोचा कि कोई न कोई लफड़ा है. पूछताछ करने पर पता चला कि ओबामा ज़ी छ तारीख को आयेंगे और आगरा वाले ताजमहल में नहीं बल्कि मुंबई वाले ताजमहल में रहेंगे.
यह भी पता चला कि वे मुंबई से सीधा दिल्ली आयेंगे तो चंदू ने निश्चय किया कि वह अब दिल्ली में ही इंटरव्यू लेगा. मुंबई नहीं गया. नहीं जाने का एक कारण और भी था, उसे डर था कि मुंबई जाने के बाद उसके मन में कहीं हीरो बनने का लालच न आ जाए. उसने अपना जीवन पत्रकारिता को समर्पित कर दिया है इसलिए अब हीरो बनने में उसे शर्म आती है.

आज सुबह ही दिल्ली से कोलकाता पहुँचा. मैं इंटरव्यू टाइप कर दे रहा हूँ. आप बांचिये.

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चंदू: गुड ईविनिंग सर. वेलकम तो आवर इंटरव्यू, सर.

ओबामा: चंदू ज़ी, अंग्रेजी में बात क्यों कर रहे हैं? अरे भाई मुझे हिंदी आती है.

चंदू: सर! ये तो चमत्कार हो गया. आपको हिंदी आती है? कहाँ सीखी, सर?

ओबामा: हाँ भाई, मुझे हिंदी आती है. मैं अमेरिका का प्रेसिडेंट हूँ. और आपको बता दूँ कि अमेरिका का प्रेसिडेंट कुछ भी कर सकता है. यहाँ तक कि हिंदी भी सीख सकता है. भाई व्यापार करने निकला हूँ भाषा का ज्ञान नहीं रहेगा तो व्यापार कैसे होगा? वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि मैंने हिंदी सीखने के लिए टेली-शॉपिंग का महागुरु हिंदी स्पीकिंग कोर्स खरीदा और हिंदी सीख ली.

चंदू: अरे सर, आपने तो हमारी मुँह की बात छीन ली. बहुत बढ़िया कोर्स है सर.

ओबामा: अच्छा, क्या आपने भी हिंदी वहीँ से सीखी है?

चंदू: नहीं सर. हमने तो महागुरु के कोर्स से अंग्रेजी सीखी है. वैसे सर, यह बताइए कि आपने हिंदी कब और क्यों सीखी?

ओबामा: जब मैं प्रेसिडेंट बना तभी मैंने निश्चय किया कि मुझे हिंदी सीखनी है. साल २००८ में मैंने आपके तत्कालीन विदेशमंत्री द्वारा अंग्रेजी में दिया गया भाषण सुना. भाषण ख़त्म होने के बाद मैंने उसी अंग्रेजी भाषण का अंग्रेजी ट्रांसलेशन माँगा. उसे पढ़ने के बाद मैंने अपने अफसरों के साथ मीटिंग की और यह तय किया हिंदी सीखकर झमेला ख़तम किया जाय और भारतीय नेताओं के साथ हिंदी में ही बात कर ली जाय.

चंदू: सर, यह बताइए कि आप अभी अपने देश का मध्यावधि चुनाव हार गए हैं. क्या आप अपने पद से इस्तीफ़ा देंगे?

ओबामा: पद से इस्तीफ़ा? क्यों? मैं मिड-टर्म इलेक्शन हारा हूँ, उसके लिए इस्तीफ़ा क्यों दूँ?

चंदू: दरअसल सर, आपको इस्तीफ़ा देने की ज़रुरत नहीं है. मैंने यह सवाल तो पत्रकार धर्म का पालन करने के लिए पूछा है. हमारे देश में जब कोई सरकार मिड-टर्म इलेक्शन हारती है तो विपक्ष और पत्रकार दोनों उसके इस्तीफे की बात करते हैं. यह अलग बात है कि सरकार इस्तीफ़ा नहीं देती.

ओबामा: अच्छा यह बात है? आपके देश के पत्रकार तो बहुत अच्छे हैं.

चंदू: हाँ सर. एक से बढ़कर एक हैं. वैसे मेरा आपसे अगला सवाल है कि आप भारत क्यों आये? आपके आने का उद्देश्य मेरे लिए जानना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि कुछ लोग़ कह रहे हैं कि इतने सारे लोगों को भारत लेकर आये हैं इतने बड़े-बड़े व्यापार समझौते किये आपने जिसे देखकर लगता है जैसे आप साल २०१२ के लिए अपना चुनाव प्रचार मुंबई से शुरू कर रहे हैं.

ओबामा: नहीं-नहीं यह सच नहीं है. मैं यहाँ चुनाव प्रचार करने नहीं आया हूँ. दरअसल मैं यहाँ कुछ और अजेंडा लेकर आया हूँ.

चंदू: मैं आपकी बात मान गया सर. वैसे भी अगर आप चुनाव प्रचार करते तो आपके साथ हमारी फिल्म इंडस्ट्री का कोई न कोई हीरो अवश्य होता. वैसे आपका अजेंडा क्या है सर?

ओबामा: देखिये ऐसा है कि अमेरिका में तो मैं गाँधी ज़ी को कई बार महान बता चुका हूँ. अपने देश में भाषण देते हुए मैं कई बार भारत को इकॉनोमिक पावरहाउस बता चुका हूँ. कई बार आपके प्रधानमंत्री को मैं महान बता चुका हूँ. मैंने सोचा कि क्यों न यही बातें भारत में की जाएँ. उससे मेरी ईमेज भी बढ़िया होगी और आपके प्रधानमंत्री की ईमेज में भी चार चाँद लग जायेंगे.

चंदू: वैसे सर, मेरा अगला सवाल यह है कि आप पाकिस्तान को मदद पर मदद दिए जा रहे हैं. जिस पाकिस्तान में आपको सैनिक झोंकने चाहिए उसमें आप डालर झोंके जा रहे हैं. ऐसा क्यों?

ओबामा: मुझे पता था कि आप कभी न कभी यह सवाल पूछेंगे. देखिये पाकिस्तान पूरे विश्व के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. अमेरिका भी पूरे विश्व के लिए महत्वपूर्ण है. ऐसे में एक महत्वपूर्ण देश का धर्म बनता है कि वह दूसरे महत्वपूर्ण देश के लिए कुछ करे...... भारत एक उभरता हुआ इकॉनोमिक पॉवर हाउस है. दक्षिणी पूर्वी एशिया में ही नहीं भारत का विश्व के मंच पर एक अपना रोल है. भारत आनेवाले समय में पूरी दुनियाँ को विकास का रास्ता दिखा सकता है. आज के विश्व में भारत का जो स्थान है वह उसे मिलना चाहिए. मैं जब प्रधानमंत्री श्री सिंह से पहली बार मिला था तभी मैंने उन्हें बताया था कि मैं उनका बहुत बड़ा फैन हूँ. मुंबई में रहकर मैंने जो महसूस किया वह यह है कि आनेवाले समय में भारतीय युवा अपन रोल बखूबी समझता है. देखने वाली बात यह है कि......

चंदू: सर, आप मेरे सवाल का जवाब नहीं दे रहे हैं.

ओबामा: आपके सवाल का उचित जवाब यही है जो मैंने दिया है. अगर आपको कोई और जवाब सुनना है तो फिर मैं सच बता देता हूँ. देखिये हमारे देश में डालर प्रिंट करने वाले प्रेस अभी ओवरटाइम काम कर रहे हैं. जब हम टार्गेट से ज्यादा डालर प्रिंट कर लेते हैं तो उसमें से कुछ पाकिस्तान को दे देते हैं. हमारे यहाँ रखने की भी दिक्कत होती है न.

चंदू: अच्छा सर यह बताइए कि आप इतने बड़े-बड़े सीईओ को लेकर आये हैं. व्यापार समझौते के अलावा और किन मुद्दों पर पर समझौता करना चाहेंगे?

ओबामा: बहुत सारे और क्षेत्र हैं जिनमें भारत और अमेरिका को एक साथ आने की ज़रुरत है. मैं प्रधानमंत्री श्री सिंह से कहूँगा कि व्यापार के अलावा सांस्कृतिक क्षेत्र में भी समझौते हों. जैसे कि ढेर सारे अमेरिकी टीवी प्रोग्राम की नक़ल करके आपके देश में प्रोग्राम चल रहे हैं. मेरा मानना है कि हमारे देश की टीवी इंटरटेनमेंट को और ज्यादा से ज्यादा भारत में दिखाया जा सके तो बढ़िया रहेगा. आपके हिंदी न्यूज चैनल जिस तरह से कानपुर, मेरठ, दिल्ली, सहारनपुर जैसी जगहों के आपराधिक मामले दिखाते हैं वैसे ही अब वे न्यूयार्क, लास वेगास और लास एंजेलिस के आपराधिक मामले दिखा सकते हैं. जैसे वे रामपुर, बदलापुर, नजफगढ़ जैसी जगहों के भूत-प्रेत, चुड़ैल, जिन्न आदि की कहानियां दिखाते हैं वैसे ही वे अमीरीक भूत-प्रेत, चुड़ैल वगैरह........जैसे वे राखी सावंत, सम्भावना सेठ और डाली बिंद्रा के किस्सों वाले प्रोग्राम्स दिखाते हैं वैसे ही वे अब ब्रिटनी स्पीयर, पेरिस हिल्टन वगैरह के प्रोग्राम्स दिखायें.

चंदू: अरे सर, आप राखी सावंत और डाली बिंद्रा को भी जानते हैं?

ओबामा: उन्हें कौन नहीं जानता? ह्वाईट हाउस का मेरा स्टाफ बिग बॉस और राखी का इन्साफ जैसे प्रोग्राम का बहुत बड़ा फैन है.

चंदू: दोनों देशों के बीच और किस तरह के सांस्कृतिक आदान-प्रदान हो सकते हैं सर?

ओबामा: मेरा मानना है कि एक क्षेत्र और है जिसमें सांस्कृतिक आदान-प्रदान की अद्भुत सम्भावना है. मुझे लगता है कि अगर भारतीय ज्योतिषाचार्य लोग़ अमेरिका में अपनी सर्विस दें तो यह अमेरिका के लिए बहुत अच्छा रहेगा. मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि हमारे देशवासियों का अब हमारे इकॉनोमिस्ट में विश्वास नहीं रहा. ऐसे में हम देश की आर्थिक समस्याओं को सॉल्व करने के लिए ज्योतिष का सहारा ले सकते हैं. दरअसल ऐसा है कि अब हमारे देश के इकॉनोमिस्ट इकॉनोमी के बारे में सही भविष्यवाणी नहीं कर पा रहे हैं. आपके देश के ज्योतिषी लोग़ हमारे बहुत काम आ सकते हैं. मुंबई में ताजमहल होटल में मैंने कुछ न्यूजपेपर देखे जिनमें आपके ज्योतिषी लोगों की भविष्यवाणियाँ पढ़ने को मिलीं जिनमें बताया गया था कि चन्द्र, सूर्य, राहु-केतु वगैरह का देश के शेयर बाज़ार पर क्या असर पड़ता है? खासकर मेटल ट्रेडिंग पर ग्रहों के प्रभाव के बार में जानकार मुझे बहुत अच्छा लगा. मैंने अपने सलाहकारों से बात कर ली है और आशा करता हूँ कि जल्द ही आपके ज्योतिषी हमारे देश के गोल्डमैन सैक्श और मेरिल लिंच को अपनी सर्विस देंगे. वैसे भी हमारे इन्वेस्टमेंट बैंकर आपके ज्योतिषियों के आगे नहीं ठहरते. मेरा....

चंदू: सर, भारतीय पत्रकारिता का आपका अनुभव कैसा रहा?

ओबामा: बहुत बढ़िया रहा. आपके पत्रकारों ने मुझे जो इज्ज़त दी, उतनी तो मैं भी खुद को नहीं देता. मैं सोच रहा था कि आपके देश से कुछ पत्रकारों को मैं अपने साथ अमेरिका ले जाऊं. पिछले कुछ न्यूज प्रोग्राम देखकर मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि अगर आपके अंग्रेजी पत्रकार हमारे देश में होते तो ग्राउंड जीरो पर मस्जिद बनने में मुझे कोई दिक्कत नहीं आती. मैं बरखा दत्त ज़ी से बहुत प्रभावित हूँ. और अरनब....मुझे आपका राष्ट्रीय चैनल इंडिया टीवी देखकर बहुत ख़ुशी हुई.

चंदू: अच्छा सर, यह बताएं कि आपकी अफगानिस्तान नीति अब क्या होगी? खासकर तब जब आप मिड-टर्म इलेक्शन हार गये हैं?

ओबामा: देखिये अफगानिस्तान में हम सफल रहे हैं. दो साल पहले तक जिस देश में गुड तालिबान और बैड तालिबान थे वहाँ अब केवल तालिबान है. ऐसे में कहा जा सकता है हम सफल रहे हैं. हम तालिबान से बात कर रहे हैं. हाँ, अब हमें यह तय करने में दिक्कत आ रही है कि असली तालिबान कौन है? हामिद करजई या हक्कानी? लेकिन सी आई ए ने केस हाथ में ले लिया है. हम जल्द ही पता लगा लेंगे कि....

चंदू: सर, मेरा एक सवाल और है कि...

ओबामा: बस-बस चंदू ज़ी बस. बाहर आपके सरकारी राष्ट्रीय चैनल इंडिया टीवी के पत्रकार भी इंतजार कर रहे हैं. उन्हें भी तो मौका मिलना चाहिए.

चंदू: अरे, सर, आप नाम पर न जाएँ. इंडिया टीवी का मतलब सरकारी टीवी नहीं है....

ओबामा: लेकिन नाम तो...

चंदू: अरे सर, नाम से धोखा हो जाता है. अब देखिये न पकिस्तान के एक नेता हैं नवाज़ शरीफ...शराफत नाम में भी है लेकिन क्या वे...

ओबामा: हा हा हा...

चंदू: अच्छा सर, नमस्कार. आपने इतना समय दिया. उसके लिए आपको धन्यवाद.

ओबामा: धन्यवाद.

Monday, November 1, 2010

दुर्योधन की डायरी - पेज २९६२




जब से स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स और हॉस्टल तोड़कर अपनी प्रतिमा लगवाई है, उसका फायदा दिखाई दे रहा है.

पिछले सप्ताह मामाश्री के सुझाव पर दो दिन की पदयात्रा पर निकल गया था. प्रजा के बीच जाकर लगा जैसे ईमेज कुछ ठीक हो रही है. लेकिन मुझे बहुत फूंक-फूंक कर कदम रखने की जरूरत है. मामाश्री कह रहे थे मुझे सबसे ज्यादा जरूरत इस बात पर ध्यान देने की है कि संवाददाता सम्मेलनों में मुंह से कुछ उलटा-पुल्टा न निकल आए.

पिछले महीने एक सभा में भाषण देते-देते जोश में गलती कर बैठा. कुछ पुरानी परियोजनाएं जो महाराज भरत के जमाने से चल रही हैं, उन्हें पिताश्री के द्वारा शुरू की गई परियोजनाएं बताने की गलती कर बैठा. अखबारों के सम्पादकों ने इस बात पर मेरी बहुत खिल्ली उडाई थी.

मामाश्री की कृपा से हस्तिनापुर का युवा वर्ग मुझमे अपना भविष्य देखने लगा हैं. हुआ ऐसा कि पदयात्रा के दौरान मामाश्री ने अपने 'लड़कों' की एक टोली अचानक भेज दी. एक गाँव में मेरे पहुँचने से पहले ही उनके लड़के पहुँच चुके थे. और मेरे पंहुचने के साथ-साथ इन लोगों ने नारा लगना शुरू कर दिया;

जब तक सूरज चाँद रहेगा, सुयोधन तेरा नाम रहेगा

सुयोधन तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं

हस्तिनापुर का राजा कैसा हो, सुयोधन के जैसा हो

नारे लगाते इन लड़कों को देखकर प्रजा के बीच से भी कुछ नौजवान आगे आए और उन्होंने भी नारे लगाने में मामाश्री द्वारा भेजे गए लड़कों का हाथ बटाया. बड़ी सुखद अनुभूति थी. वैसे संघर्ष करने की बात वाले नारे पर मुझे एक बार के लिए हंसी आ गई थी. मेरे मन में आया कि मैं ठहरा राजकुमार. मुझे किससे संघर्ष करने की जरूरत पड़ गई भला? फिर मामाश्री की बात याद आई.

एक बार राजनीति का पाठ पढ़ाते हुए उन्होंने कहा था; "एक बात हमेशा याद रखना वत्स दुर्योधन, राजनीति में सफल होना है तो नारों का सहारा कभी न छोड़ना. नारों का कोई मतलब निकले या न निकले. नारों में मतलब ढूढना बेवकूफ राजनीतिज्ञ की निशानी होती है."

कुछ नौजवानों से वार्तालाप करके पता चला कि वे हस्तिनापुर में नेतृत्व परिवर्तन चाहते हैं. कहते हैं राज-काज देखने वाले लोग बूढ़े हो गए हैं. वैसे ज्यादातर नौजवान यही मानते हैं कि राज-काज देखने वाले लोग, जैसे पितामह, विदुर चाचा, गुरु द्रोण वगैरह बहुत सक्षम हैं. मुझे ऐसे नौजवान अच्छे नहीं लगे.

जब मैंने ये बात मामाश्री को बताई तो उन्होंने बड़ा अच्छा सुझाव दिया. उन्होंने बताया कि मैं अपने गुप्तचरों द्वारा ये व्हिस्पर कैपेन चला दूँ कि पितामह आजकल बीमार रहते हैं. बैठे-बैठे सो जाते हैं. मामाश्री ने तो यहाँ तक कहा कि इस बात को भी फैला देना चाहिए कि विदुर चाचा पिछले महीने पन्द्रह दिन के लिए अस्पताल में भर्ती थे और उन दिनों राज-काज का सारा काम मैं देखता था. मैंने फैसला कर लिया है, मामाश्री के सुझावों का तुरंत पालन करूंगा.

मामाश्री ने एक सुझाव और दिया है. कह रहे थे कि कुछ छंटे हुए नौजवानों का एक प्रतिनिधिमंडल लेकर विदुर चाचा से मिलूं और पूरे हस्तिनापुर के नौजवानों के कल्याण के लिए कुछ योजनायें चलाने का सुझाव दूँ. ऐसे में नौजवानों के बीच मेरी छवि और अच्छी होगी. नौजवानों को लगेगा कि मैं उनके बारे में सोचता हूँ.

मुझे मामाश्री के इस प्लान पर शक हो रहा था. मुझे डर था कि कहीं ऐसा न हो कि विदुर चाचा मेरी मांग ठुकरा दें. बाद में मैंने माताश्री से इस योजना के बारे में बात की तो उन्होंने आश्वासन दिया कि वे विदुर चाचा को समझा देंगी.

प्लान ये है कि जब मैं प्रतिनिधिमंडल लेकर विदुर चाचा से मिलूंगा तो वे पत्रकारों के सामने ही मेरे प्लान की बहुत सराहना करेंगे और मेरा प्लान तुरंत मानते हुए नौजवानों के लिए सुझाई गई परियोजाओं के लिए धन मुहैया कराने का वादा कर देंगे.

मामाश्री ने और भी होमवर्क दे दिया है. कह रहे थे कि अगले सप्ताह से मुझे न केवल प्रजा के बीच जाना पड़ेगा अपितु सार्वजनिक तांगों, इक्कों और बैलगाड़ियों पर जनता के साथ यात्रा करनी पड़ेगी. ऐसा करने से जनता के बीच में मेरी ईमेज और पुख्ता होगी. कह रहे थे कि कल शाम को ही मैं संवाददाता सम्मलेन बुलाऊं और उसमें पत्रकारों को बताऊँ कि मैं अगले सप्ताह से कॉमन सवारियों पर यात्रा करूँगा जिससे आम आदमी की पीड़ा को समझ सकूँ. वैसे तो यह अपने आप में बड़ा पीड़ादायक काम है लेकिन मैं इसलिए तैयार हो गया क्योंकि मामाश्री ने मुझे अश्योर किया कि इन सार्वजनिक सवारियों के पीछे खाली पालकी और मेरा रथ चलेगा ताकि जहाँ भी मैं जनता के लोगों के बीच बैठने से बोर हो जाऊं तो फट से अपने रथ पर या फिर पालकी पर चढ़ जाऊं.

मामाश्री पर मुझे पूरा भरोसा है. वे मेरी ईमेज बनाकर ही दम लेंगे.

अब मैं सोने जा रहा हूँ. कल सुबह-सुबह ऋषि पराशर के आश्रम में उनके शिष्यों के सामने मुझे भाषण देना है. उनके कुछ शिष्य मुझसे राज-काज में मेरे रोल पर चर्चा करना चाहते हैं. इस चर्चा के लिए शिष्यों के चयन का काम पूरा हो चुका है. मामाश्री ने उन्हें प्रश्न लिख कर पहले ही दे दिय है जिससे वे छात्र सही तरीके से अपना प्रश्न दाग सकें.

नोट: यह एक पुरानी पोस्ट है.

Thursday, October 28, 2010

भारतीय चुनाव - एक निबंध




हम लाख शिकायत करें, लेकिन एक विषय के तौर पर हिंदी पढ़ने का फायदा भी है. अब इस छात्र को ही ले लीजिये. स्कूल के दिनों में निबंध लिखने की ऐसी आदत पड़ी कि पोस्टमैन, रेलयात्रा, गाँव की सैर और मेरा प्रिय खेल जैसे विषयों पर निबंध लिखते-लिखते इसने अपनी इस आदत को अपना प्रोफेशन बना लिया. आजकल यह छात्र निबंध-लेखन की एक कम्पनी चला रहा है और यूरोपीय तथा अमेरिकी देशों में रहने वाले शिक्षकों और छात्रों के लिए भारतीय मुद्दों पर निबंध-लेखन की केपीओ (नॉलेज प्रॉसेस आउटसोर्सिंग) सर्विस देता है.

एक दिन मेरी नज़र इस छात्र द्वारा लिखे गए निबंध पर पड़ी जो भारतीय चुनावों के बारे में था. बिहार में लोग़ आजकल चुनावी दिन काट रहे हैं. ऐसे में मैंने सोचा कि यह निबंध अपने ब्लॉग पर पब्लिश करूं. आप निबंध बांचिये.

मैंने कंपनी चलाने वाले इस निबंध लेखक से परमीशन ले ली है.


भारत चुनावों का देश है. पहले यह किसानों का देश भी हुआ करता था लेकिन परिवर्तन सृष्टि का नियम है, इस सिद्धांत पर चलकर भारतवर्ष वाया नेताओं का देश होते हुए चुनावों का देश बन बैठा. जिन्हें चुनाव शब्द के बारे में नहीं पता, उनकी जानकारी के लिए बताया जाता है कि चुनाव शब्द दो शब्दों को मिलाकर बनाया गया है, चुन और नाव. चुनाव की प्रक्रिया के तहत जनता एक ऐसे नेता रुपी नाव को चुनती है जो जनता को विकास की वैतरणी पार करा सके.

(चुनाव शब्द के बारे में मेरा ज्ञान इतना ही है. इस शब्द के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए पाठकों को अग्रिम अर्जी देने की जरूरत है जिससे प्रसिद्ध शब्द-शास्त्री श्री अजित वडनेरकर की सेवा ली जा सके. ऐसी सेवा की फीस एक्स्ट्रा ली जायेगी.)

भारत में चुनावों का इतिहास पुराना है. वैसे तो हर चीज का इतिहास पुराना ही होता है लेकिन चुनावों का इतिहास ज़रुरत से ज्यादा पुराना है. देश में पहले जब राजाओं और सम्राटों का राज था, उस समय भी चुनाव होते थे. राजा और सम्राट लोग भावी शासक के रूप में अपने पुत्रों का चुनाव कर डालते थे. उदाहरण के तौर पर राजा दशरथ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र श्री राम का चुनाव किया था जिससे वे गद्दी पर बैठ सकें. यह बात अलग है कि कुछ लोचा होने के कारण श्री राम गद्दी पर नहीं बैठ सके.

राजाओं और सम्राटों द्वारा ऐसी चुनावी प्रक्रिया में जनता का कोई रोल नहीं होता था.

देश को जब आजादी नहीं मिली थी और भारत में अंग्रेजी शासन का झोलझाल था, उनदिनों भी चुनाव होते थे. तत्कालीन नेता अपने कर्मों से अपना चुनाव ख़ुद ही कर लेते थे. बाद में देश को आजादी मिलने का परिणाम यह हुआ कि जनता को भी चुनावी प्रक्रिया में हिस्सेदारी का मौका मिलने लगा. नेता और जनता, दोनों आजाद हो गए. जनता को वोट देने की आजादी मिली और नेता को वोट लेने की. वोट लेन-देन की इसी प्रक्रिया का नाम चुनाव है जो लोकतंत्र के स्टेटस को मेंटेन करने के काम आता है.

परिवर्तन होता है इस बात को साबित करने के लिए सन् १९५० से शुरू हुआ ये राजनैतिक कार्यक्रम कालांतर में सांस्कृतिक कार्यक्रम के रूप में स्थापित हुआ.

सत्तर के दशक के मध्य तक भारत में चुनाव हर पाँच साल पर होते थे. ये ऐसे दिन थे जब जनता को चुनावों का बेसब्री से इंतजार करते देखा जाता था. बेसब्री से इंतज़ार के बाद जनता को एक अदद चुनाव के दर्शन होते थे. पाँच साल के अंतराल पर हुए चुनाव जब ख़त्म हो जाते थे तब जनता दुखी हो जाती थी. जैसे-जैसे समय बीता, जनता के इस दुःख से दुखी रहने वाले नेताओं को लगा कि पाँच साल में केवल एक बार चुनाव न तो देश के हित में थे और न ही जनता के हित में. ऐसे में पाँच साल में केवल एक बार वोट देकर दुखी होने वाली जनता को सुख देने का एक ही तरीका था कि चुनावों की फ्रीक्वेंसी बढ़ा दी जाय.

नेताओं की ऐसी सोच का नतीजा यह हुआ कि नेताओं ने प्लान करके सरकारों को गिराना शुरू किया जिससे चुनाव बिना रोक-टोक होते रहें. नतीजतन जनता को न सिर्फ़ केन्द्र में बल्कि प्रदेशों में भी गिरी हुई सरकारों के दर्शन हुए.

नब्बे के दशक तक जनता अपने वोट से केवल नेताओं का चुनाव करती थी जिससे उन्हें शासक बनाया जा सके. तब तक
चुनाव का खेल केवल सरकारों और नेताओं को बनाने और बिगाड़ने के लिए खेला जाता रहा. वोट देने और भाषण सुनने में बिजी जनता को इस बात का भान नहीं था कि वोट देने की उनकी क्षमता में आए निखार के साथ-साथ टैक्स और मंहगाई की मार सहने की उसकी बढ़ती क्षमता पर टीवी सीरियल बनाने वालों की भी नज़र थी. नतीजा यह हुआ कि इन लोगों ने जनता को इंडियन आइडल, स्टार वायस ऑफ़ इंडिया और नन्हें उस्तादों के चुनाव का भी भार दे डाला.

जिस जनता का वोट पाने के लिए नेता ज़ी लोग पैसे, शराब और बार-बालाओं के नाच वगैरह का लालच देते थे, उसी जनता को ऐसे प्रोग्राम बनाने वालों ने उन्ही का पैसा खर्चकर वोट देने को मजबूर कर दिया. वोट देकर और पैसे खर्च कर जनता खुश रहने लगी.

कुछ चुनावी विशेषज्ञ यह मानते हैं कि इतिहास अपने आपको दोहराता है, इस सिद्धांत का मान रखते हुए चुनाव की प्रक्रिया का वृत्तचित्र अब पूरा हो गया है. ऐसे विशेषज्ञों के कहने का मतलब यह है कि आज के नेतागण पुराने समय के राजाओं जैसे हो गए हैं और अपने पुत्र-पुत्रियों को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर लेते हैं. वैसे इस विचार के विरोधी विशेषज्ञ मानते हैं कि नेताओं के पुत्र-पुत्रियों को जिताने के लिए चूंकि जनता वोट कर देती है इसलिए आजकल के नेताओं को पुराने समय के राजाओं और सम्राटों जैसा मानना लोकतंत्र की तौहीन होगी.

अब तक भारतीय चुनावों को देश-विदेशों में भी काफी ख्यात-प्राप्ति हो चुकी है. लोकतंत्र और राजनीति के कुछ देशी विशेषज्ञों का मानना है कि देश की मजबूती के लिए चुनाव होते रहने चाहिए. हाल ही में कुछ मौसम-शास्त्रियों ने गर्मी, वर्षा, और सर्दी के साथ-साथ चुनावों के मौसम को एक नए मौसम के रूप में स्वीकार कर लिया है. टीवी न्यूज़ चैनल वालों ने चुनावों को जंग और संग्राम के पर्यायवाची शब्द के रूप में स्वीकार कर लिया है. कुछ न्यूज़ चैनलों ने चुनावों को महासंग्राम तक कहना शुरू कर दिया है. स्वीडेन में नाव बनाने वाली एक कंपनी ने 'भारतीय चुनाव' ब्रांड से एक नई नाव बाज़ार में उतारा है.

चुनावों की लोकप्रियता और बढ़ते बाज़ार को देखते हुए देश के बड़े औद्योगिक घरानों ने 'चुनावी विशेषज्ञ' बनाने के लिए एस ई जेड खोलने का प्रस्ताव रखा है. पगली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी ने अपने जालंधर कैम्पस में चुनावी विशेषज्ञ बनाने के लिए एक नया डिपार्टमेंट खोल लिया है जहाँ लोकसभा के कुछ सांसद लेक्चर भी डेलिवर करते हैं. आई आई सी एम को चुनाव की पढ़ाई के लिए एक नया इंस्टीच्यूट खोलने के लिए हाल ही में सरकार पचास एकड़ ज़मीन अलाट की है. कुछ आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि साल २०११-१२ से सरकार चुनावी शिक्षा में फ़ारेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट की सीमा बढ़कर साठ प्रतिशत करने वाली है...........

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारतीय चुनाव दुनियाँ का सर्वश्रेष्ठ चुनाव है.

Tuesday, October 26, 2010

हिंदी ब्लॉग जगत के लिए मेरा सबसे बड़ा योगदान





विजयादशमी के अवसर पर कोलकाता में नहीं था. कुछ कारणों से गुडगाँव में था. न तो किसी से मुलाकात हो सकी और न ही इस शुभ अवसर पर किसी को बधाई दे सका. वापस आया तो पता चला कि दशमी के दिन हलकान भाई घर पर आये थे. मुझे न पाकर काफी दुखी हुए.

मैंने सोचा कि देर से ही सही उनसे मिल लूँ. यही कारण था कि रविवार को उनसे मिलने गया. मैंने सोचा कि उन्हें दशमी की बधाई दे डालूँ और साथ ही ब्लागिंग पर कुछ चर्चा वगैरह करके एक पोस्ट लिख मारूं और हिंदी ब्लागिंग के प्रति अपने कर्त्तव्य का निर्वाह कर डालूँ.

शाम को उनके घर पर पहुँचा. घर के भीतर कुछ शोर सुनाई दे रहा था. एक बार के लिए समझ में नहीं आया कि क्या कारण हो सकता है?

डोर-बेल बजाया. थोड़ी ही देर में हलकान भाई आये. देखकर लगा कुछ क्रोधित थे. हिम्मत नहीं हुई कि उन्हें तुरंत विजयादशमी की शुभकामनाएं दे डालूँ. फिर मन में आया कि कहीं पूछ न लें कि; "तुम मेरे घर किस लिए आये हो?"

मैंने उनसे धीरे से कहा; "विजयादशमी की शुभकामनाएं, हलकान भाई."

मेरी तरफ देखते हुए बोले; "काहे की शुभकामनाएं? विजयादशमी शुभ कहाँ रही इसबार?"

मैंने कहा; "ऐसा क्यों कह रहे हैं हलकान भाई? विजयादशमी तो हमेशा शुभ ही होती है."

वे बोले; "क्या शुभ होगी? इन जाहिलों के साथ रहकर विजयादशमी मेरे लिए कैसे शुभ होगी?"

मैंने कहा; "कुछ समस्या हो गई क्या हलकान भाई?"

वे बोले; "अरे, अब क्या कहूँ तुमसे? ऐसा जाहिल परिवार मिला है कि समस्या हुई नहीं है, समस्या मेरे घर में बिछौना बिछाकर बैठ गई है."

मैंने कहा; "ऐसा क्यों कह रहे हैं हलकान भाई? लगता है कुछ गंभीर बात हो गई घर वालों से?"

वे बोले; "अब तुमसे क्या बताएं? जब घरवालों का यह हाल है तो बाहर वालों के बारे में क्या कहें?"

मैंने कहा; "पहेलियाँ न बुझायें हलकान भाई. बताएं तो सही कि हुआ क्या?"

अभी मैंने अपनी बात कही ही थी कि भाभी ज़ी आ गईं. बोली; "हमसे सुनो. हम बता रहे हैं. सब मामला ऊ कबिता की बजह से हुआ है."

मैंने कहा; "कौन कविता?"

वे बोलीं; "अरे कौन कबिता क्या? ओही कबिता जो ई अपने ब्लॉग पर लिखते हैं."

मैंने कहा; "क्या हुआ हलकान भई? ऐसा तो नहीं हुआ कि आपने कविता लिखी थी और किसी की गलती से वह डिलीट हो गई?"

हलकान भाई को शायद लगा कि उन्हें पूरी बात बता देनी चाहिए. वे बोले; "अब क्या कहें तुमसे? पिछले सप्ताह मैंने एक कविता अपने ब्लॉग पर पब्लिश की थी. अपने ब्लॉगर भाई-बंधु ने उसे बहुत बढ़िया कविता बताया और उसकी सराहना की. सराहना के कुल छत्तीस कमेन्ट मिले थे. सबकुछ ठीक चल रहा था तबतक मेरी माता ज़ी ने अपना कमेन्ट देकर उस कविता को घटिया बता दिया. मैं कहता हूँ, जब बाकी लोग़ उसे बढ़िया बता रहे हैं तो क्या ज़रुरत थी इनको घटिया बताने की? इनकी देखा-देखी तीन-चार लोग़ और उस कविता को घटिया बता गए. अब तुम्ही बताओ इन जाहिलों के ऊपर गुस्सा नहीं आएगा? ऊपर से माताजी की देखा-देखी हमारे भाई साहब ने भी कमेन्ट कर डाला कि माँ का कहना सही है. कविता घटिया है. ये मेरे परिवार वाले हैं कि मेरे दुश्मन हैं?"

उनकी बात सुनकर भाभी ज़ी ने कहा; "अरे त एही बास्ते कोई अपनी माँ से झगड़ता है? कोई अपना भाई से झगड़ता है? हम कहते हैं ऐसा कबिता लिखना ही काहे जो घर में झगड़ा करवा दे?"

भाभी ज़ी की बात सुनकर हलकान भाई बोले; "आपको कुछ पता नहीं है चीजों के बारे में. आप कुछ मत बोलिए. चुप रहिये. ब्लागिंग में एक एड्भर्स कमेन्ट का मतलब बुझाता है आपको?"

उनकी बात सुनकर भाभी ज़ी बोलीं; "का होगा? पहाड़ टूट जाएगा? कौन सा कैरियर ख़राब हो जाएगा आपका? ब्लागिंग ही पेट भरता है का आपका?"

उनकी बात सुनकर हलकान भाई बोले; "आपसे त बात करना ही अपराध है. आप जाइए चाह बनाइये."

भाभी ज़ी वहाँ से चली गईं.

मैंने कहा; "जाने दीजिये हलकान भाई. जो हो गया सो हो गया. ऐसा हो ही जाता है कभी-कभी."

वे बोले; "अब क्या कहें तुमसे? आजतक कभी भी हमको कविता पर एक भी एड्भर्स कमेन्ट नहीं मिला था लेकिन ई घर वालों की वजह से पहली बार दाग लग गया. ऊपर से नंबर ऑफ कमेन्ट गिरकर सत्तासी से सीधा बयालीस. इसके पहले वाली पोस्ट पर मुझे सत्तासी कमेन्ट मिले थे. और इस पोस्ट पर केवल बयालीस. क्या बताऊँ शिव तुमको? इच्छा तो हो रही है कि ब्लागिंग ही छोड़ दूँ."

मैंने कहा; "ऐसी बात न कहें हलकान भाई. एक छोटी सी बात के लिए ब्लागिंग छोड़ने की क्या ज़रुरत है? आप यह देखिये न कि बच्चन, निराला और दिनकर ज़ी की तरह आपकी सभी कवितायें बहुत बढ़िया हैं. बस इतनी सी बात है कि उन महान कवियों की तरह ही आपकी भी कुछ कवितायें केवल बढ़िया है. कवियों को उनकी बहुत बढ़िया कविताओं के लिए याद किया जाता है. बढ़िया कविताओं के लिए नहीं. आप ब्लागिंग छोड़ने का अपना ख्याल दिल से निकाल दें. ऐसी उंच-नीच हो ही जाती है."

मेरी बात सुनकर बोले; "अब क्या कहें तुमसे? हम तो पोस्ट भी लिख लिए थे कि अब और ब्लागिंग नहीं करेंगे. बाकी तुम कहते हो तो ठीक है. वो पोस्ट पब्लिश करने के लिए शिड्यूल में डाल दिया था...."

मैंने कहा; "आप उस पोस्ट को डिलीट कर दीजिये हलकान भाई. आपसे बहुत उम्मीद है ब्लॉग जगत को. हिंदी ब्लागिंग को ऊपर पहुँचाने में आपकी भूमिका अविस्मरणीय है. आज हिंदी ब्लागिंग जहाँ पर है अगर वहाँ पर आप छोड़ देंगे तो उसे जिस जम्प की ज़रुरत है वह उसे नहीं मिलेगी........"

मैंने बहुत मनाया तो वे मान गए. दोनों ने चाय पी. मैं उनसे विदा लेकर अपने घर आ गया.

हलकान भाई ने ब्लागिंग छोड़ने का अपना फैसला वापस ले लिया. मेरे कहने से उन्होंने ऐसा किया. आशा है हिंदी ब्लॉग जगत मेरे इस प्रयास को स्वर्णाक्षरों में लिखेगा. हिंदी ब्लॉग जगत के लिए मेरा यह सबसे बड़ा योगदान है.

आप बताइए, मेरा यह योगदान याद रखेंगे तो?

Monday, October 25, 2010

टैलेंट की नदी खतरे के निशान से ऊपर बह रही है




टैलेंट का बांध टूट गया सा प्रतीत होता है. अगर ऐसा नहीं भी है तो यह ज़रूर कहा जा सकता है कि पूरे देश में टैलेंट की नदी खतरे के निशान से ऊपर बह रही है. जब भी टीवी देखता हूँ, लगता है जैसे टैलेंट टीवी स्क्रीन फोड़कर बाहर निकलने के लिए बेताब है. बाज़ार में आने-जाने वालों पर नज़र पड़ती है तो फट से मन में बात आती हैं कि इस लड़के को या इस लड़की को शायद किसी टैलेंट शो में या रीयलिटी शो में देखा है?

हाल यह है कि किसी नए व्यक्ति से मुलाकात होती है तो लगता है कि अरे इन्हें तो शायद सिंगिंग कम्पीटीशन में देखा था. ज़ी करता है कि लगे हाथ पूछ ही डालूं कि; "भाई साहब आपको देखकर लगता है जैसे पहले भी कहीं देखा है. क्या आप वही हैं जो सा रे ग मा पा के सेमीफाइनल में पहुँच गए थे?"

क्या करूं? वैसे भी अब टैलेंट नाचने-गाने वाले कार्यक्रमों से आगे बढ़ गया है. अब तो रोज नए तरह के टैलेंट की खोज शुरू हो चुकी है.

एक प्रोग्राम देखा. नाम है गर्ल्स नाइट आउट - फटेगी.


अद्भुत नाम है. इस प्रोग्राम में तीन टैलेंटेड लड़कियाँ एक रात किसी ऐसी जगह पर बिताती हैं जहाँ भूत-प्रेत रहते हैं. भूत-प्रेतों के बीच रात भर रहती हैं. उनकी बातें सुनती हैं. डरती हैं. रोती हैं. और फिर अगले स्टेज में पहुँच जाती हैं. मन में आया कि ये लड़कियाँ कभी मिलें तो पूछ लूँ कि; "बहन ज़ी, भारत अब केवल कच्चे मकानों का देश नहीं रहा. अब हमारे शहरों में चालीस-चालीस करोड़ के फ़्लैट बनने लगे हैं. मुकेश अम्बानी ने अपना मकान चार हज़ार करोड़ खर्च करके बनवाया है. रीयल-इस्टेट के मामले में हम इतना आगे बढ़ चुके हैं कि हमारे देश में रीयल इस्टेट बबल पहले ही एक बार फूट चुका है. इतना सब होने बावजूद आप जंगल में भूतों और चुड़ैलों के साथ रात गुजरना चाहती हैं? मैं कहता हूँ अगर आपको डुप्लेक्स पसंद न हो तो ट्रिप्लेक्स में रह लो लेकिन भूतों के बीच? यह बात समझ नहीं आई. घरों और फ्लैटों की इतनी सुविधा के बावजूद अपना घर-बार छोड़कर भूतों के बीच क्यों रहना?"

तमाम शो हैं जहाँ कंटेस्टेंट दांत के नीचे रस्सी दबाकर भरी बसें खींच ले रहे हैं. देखकर अजीब लगता है. मन में आता है कि आधा लीटर डीजल का करीब बीस-इक्कीस रुपया लगता है. आधा लीटर डीजल से बस उससे भी ज्यादा दूर तक चली जायेगी जितनी दूर तक आप दांत से खींच लेते हैं. दूसरी बात यह है कि अपने देश में डीजल से बस चलाने पर न ही इन्डियन पीनल कोड में और न ही क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में मनाही है. फिर ये इक्कीस रुपया बचाने के लिए काहे इक्कीस दाँतों को खतरे में डालना?

जो लोग़ रस्सी से बालों को बांधकर भरी बस खींच रहे हैं उनसे मेरा सवाल है कि "हे भाई साहब ज़ी लोग़ और हे बहन ज़ी लोग़, बाल बहुत कीमती होते हैं. जिनके पास नहीं है उनसे पूछो कि कितने कीमती होते हैं? और आप हैं कि आधा लीटर डीजल बचाने के लिए बालों के बलिदान पर उतारू हैं? क्यों?"

कहीं किसी प्रोग्राम में बाइक चलाने वाले जाबांज टाइप लोग तरह-तरह के करतब दिखा रहे हैं. कहीं बाइक को केवल एक पहिये पर चला रहे हैं तो कहीं उसे उठाकर उफान पर बह रही नदी क्रॉस कर रहे हैं. मजे की बात यह की नदी के पास से ही सड़क गुजरती है और उसी नदी पर पुल भी है.

मैं कहता हूँ;"हे जांबाजों जब बाइक में दो पहिये हैं और आपने दो पहियों की कीमत दे करके बाइक खरीदी है तो फिर क्या ज़रुरत है एक पहिये पर चलाने की? कहीं आप एक पहिये पर बाइक चलाकर टायर को घिसने से तो नहीं बचाना चाहते? और फिर क्या ज़रुरत है बाइक उठाकर नदी पार करने की? आप जहाँ से नदी पार कर रहे हैं वहां तो ट्रैफिक कांस्टेबल भी नहीं खड़ा है जो आपका चालान काटने पर अड़ा हो.काहे अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं?"

कई प्रोग्राम्स में देखा कि अचानक देश के तमाम कोनों में कुछ ऐसे लोग़ उभरे हैं जो आँखों पर पट्टी बांधकर हाथ में तलवार लेकर स्टेज पर आते हैं और सामने लेटे व्यक्ति के अगल-बगल या फिर हाथों में रखे सब्जियों को जैसे खीरा, लौकी, बैंगन इत्यादि को काट डालते हैं. न जाने कितनी बार मैंने देखा. कई टन सब्जियां ये लोग़ काटकर बर्बाद कर दे रहे हैं. ऊपर से जितनी सब्जियां ये लोग़ परफार्मेंस में बर्बाद करते हैं उससे कहीं ज्यादा रिहर्सल में करते होंगे.

मैं कहता हूँ कि भाई ज़ी लोग़, अपने कल्चर में अभी तक किचेन वाले चाकू से खीरा, बैंगन और लौकी वगैरह काटते हैं. वो भी खुली आँखों से. ऊपर से केद्रीय कृषि और खाद्यान्न आपूर्ति मंत्रालय ने ऐसा कोई कानून नहीं बनाया जिसके तहत आँखों पर पट्टी बांधकर तलवार से सब्जियां नहीं काटने पर सजा का प्रावधान है. फिर क्या ज़रुरत है आँखों पर पट्टी बांधकर तलवार से सब्जियां काटने की?

ऊपर से मुझे तो लगता है कि पिछले दो-ढाई वर्षों में देश में सब्जियों की जो कीमतें बढ़ी हैं, उसके पीछे इन्ही लोगों का हाथ है. टनों सब्जियां टैलेंट दिखाने के चक्कर में बर्बाद हो जाती होंगी. पता नहीं क्यों सरकार का ध्यान इस बात पर नहीं जा रहा है? इन्फ्लेशन रोकने के लिए सरकार इंटेरेस्ट रेट्स बढ़ाने के अलावा कुछ जानती ही नहीं. मैं कहता हूँ कि मंहगाई रोकने के लिए बने ज़ी ओ एम ने अपना काम ठीक से किया होता तो पहले इन टैलेंटेड लोगों को तलवार चलाकर सब्जियां बरबाद करने से रोकता.

वैसे मेरा मानना है कि अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है. जस्टिस लिब्रहान की अध्यक्षता में एक कमीशन बना देना चाहिए जो इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपनी रिपोर्ट दे. भले ही दस साल लग जाएँ.

अब समय आ गया है कि सरकार कुछ न कुछ करे. समय रहते अगर कुछ नहीं किया गया तो टैलेंट की इस बाढ़ में देश की लुटिया डूब जायेगी. ऊपर से अगर सारा टैलेंट सब्जी काटने, बस खीचने और भूत-प्रेतों के बीच रहने चला जाएगा तो फिर देश के लिए बहुत बड़ा खतरा पैदा हो जाएगा. कहाँ मिलेंगे हमें डॉक्टर? इंजिनियर? आईएएस अफसर? और तो और कहाँ मिलेंगे हमें नेता? सोचिये अगर टैलेंट के इस उफान को नहीं रोका गया तो देश न सिर्फ नेता विहीन हो जाएगा बल्कि साथ ही साथ देश के घोटाला विहीन हो जाने का चांस रहेगा.

सोचिये कि बिना नेता और उनके घोटालों के देश कैसा लगेगा?

Thursday, October 21, 2010

कश्मीर समस्या महत्वपूर्ण है...




यह युग कलियुग होने के साथ-साथ पैनल डिस्कशन का युग है. समस्याओं को सुलझाने की नई योजना के अनुसार भारत की हर समस्या को आजकल टीवी पर पैनल डिस्कशन करके सुलझाने का प्रयास किया जाता है. सबसे बड़ी बात यह है कि ये डिस्कशन कोई भी कर सकता है. हम बाबा रामदेव को अयोध्या मुद्दे पर डिस्कशन करते देख सकते हैं. स्वामी अग्निवेश को नक्सलवाद के मुद्दे पर बात करते पाते हैं. मैंने देखा तो नहीं लेकिन किसी ने मुझे बताया कि हाल ही में प्रभु चावला ज़ी ने राखी सावंत ज़ी के साथ गिरते हुए डालर और बढ़ते हुए रूपये पर एक चर्चा की जिसमें राखी ज़ी का मानना था कि डॉलर गिर रहा है और रुपया बढ़ रहा है.

इसी से प्रेरित होकर हमरे ब्लॉग पत्रकार चंदू चौरसिया ने हमें सुझाव दिया कि क्यों न वे भी एक पैनल डिस्कशन करवाएं.

मैंने कहा; "किस मुद्दे पर पैनल डिस्कशन करवाना चाहते हो?"

चंदू ने कहा; "सरकार की तरह कश्मीर मुद्दे को मैं भी बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा मानता हूँ. ऐसे में क्यों न इस मुद्दे पर एक डिस्कशन आयोजित किया जाय."

मैंने पूछा; "पैनल पर कौन-कौन होंगे? कोई नाम है दिमाग में?"

चंदू ने कहा; "सोच रहा था कि नौ-दस लोगों को बुला लूँ."

मैंने कहा; "नौ-दस लोग़? इतने लोगों का क्या करोगे? कैसे संभालोगे इतने लोगों को?"

चंदू ने कहा; "क्यों? अरनब गोस्वामी भी तो कम से कम ८ लोगों को एक ही मुद्दे का डिस्कशन के लिए बुलाते हैं. टीवी पर जितने विंडो बन सकते हैं और जितने चेहरे घुस सकते हैं उतने लोगों को बुलाते हैं."

मैंने कहा; "तुम ऐसा मत करो. दो-तीन लोगों को बुलाओ जिससे सबको बोलने का मौका मिले. अरनब के शो में बहुत सारे पैनेलिस्ट को बोलने का चांस ही नहीं मिलता."

चंदू बोला; "तो फिर तीन लोगों को बुलाते हैं. राखी सावंत, खली और अब्बास काज़मी कैसे रहेंगे?"

मैंने कहा; "पाकिस्तान से भी तो किसी को लाना चाहिए."

काफी बातचीत करके जिस नाम पर सहमति हुई वह था वीना मलिक. पिछले कई वर्षों में वीना ज़ी सबसे फेमस पाकिस्तानी महिला के रूप में उभरी हैं.

तो आप बांचिये कि चंदू चौरसिया द्वारा मॉडरेट किये गए पैनल डिस्कशन में क्या-क्या कहा गया और क्या-क्या सुना गया?

"नमस्कार, मैं हूँ चंदू चौरसिया. आज हम एक ऐसे मुद्दे पर बात करेंगे जिसे सरकार के साथ-साथ लगभग पूरा देश महत्वपूर्ण मानता है. और सब की देखा-देखी मैं भी उसे महत्वपूर्ण ही मानता हूँ. यह मुद्दा आज से नहीं बल्कि पिछले ६३ वर्षों से महत्वपूर्ण है. आपको लगे हाथ यह भी बता दूँ कि मैं यानि चंदू चौरसिया खानदानी पैनल डिस्कशन मॉडरेटर हूँ. मेरा खानदान इस मुद्दे पर कई पैनल डिस्कशन करवा चुका है. मेरे दादा रमाकांत चौरसिया ने सन १९६३ में श्री कृष्णा मेनन और सर्वपल्ली राधाकृष्णन के साथ इस मुद्दे पर पैनल डिस्कशन करवाया था. तब सारे पैनेलिस्ट इस बात पर सहमत थे कि १३ साल पुराने मुद्दे को सॉल्व करने के लिए सरकारों को कुछ समय तो देना ही पड़ेगा. मेरे पिताज़ी श्री रतिराम चौरसिया ज़ी ने १९९३ से लेकर २००५ तक शोकसभा टीवी पर करीब सत्ताईस पैनल डिस्कशन मॉडरेट किया. तब भी पैनेलिस्ट इस बात पर सहमत थे कि करीब पचास साल पुराना मुद्दा सॉल्व करना आसान नहीं है. आज जब हम इस मुद्दे को देखते हैं तो आसानी से कहा जा सकता है कि तिरसठ साल पुराना मुद्दा सॉल्व करने के लिए सरकारों को कुछ समय देना ज़रूरी है.

चलिए आज देखते हैं कि हमारे आज के पैनेलिस्ट क्या कहते हैं? कश्मीर की समस्या का एक सामजिक समस्या है? या फिर यह एक आर्थिक समस्या है? कुछ लोग़ इसे राजनीतिक समस्या मानते हैं तो कुछ इसे अंतर्राष्ट्रीय समस्या मानते हैं. लेकिन मुझे लगता है मामला कहीं इनके बीच है.

इस मुद्दे पर बात करने के लिए हमारे साथ हैं पिछले दशक की सबसे प्रसिद्द भारतीय हस्तियों में से एक और अपने इन्साफ के लिए मशहूर राखी सावंत ज़ी. और साथ ही हैं नूराकुश्ती के लिए मशहूर महाबली खली ज़ी. पाकिस्तानी नज़रिए को रखने के लिए हमारे साथ हैं पाकिस्तानी राखी सावंत के नाम से मशहूर वीना मलिक ज़ी....."

चंदू की बात पर रखी सावंत ज़ी ने ऐतराज जताया. बोलीं; "मेको स्ट्रोंग ऑब्जेक्शन है. हर किसी को आप राखी सावंत नहीं कह सकते. हिंदुस्तान का हो या पाकिस्तान, राखी एक ही है. हर किसी ऐरे-गेरे को राखी सावंत मत कहिये. प्लीज."

राखी की बात सुनकर चंदू सकपका गया. बोले; "चलिए मैं अपनी बात वापस लेता हूँ. वैसे राखी ज़ी यह बताएं कि कश्मीर की समस्या को आप कैसे देखती हैं? क्या मानती हैं इसे? क्या आप इसे सामजिक समस्या मानती हैं?"

"देखिये चंदू ज़ी, मैं कोई पोलीटिशीयन नहीं हूँ. मैं एक कलाकार हूँ. मैं जो कहती हूँ दिल से कहती हूँ. मेको लगता है कश्मीर की प्रॉब्लम एक आर्थिक प्रॉब्लम है"; राखी ज़ी ने बताया.

चंदू: "कश्मीर समस्या को देखने का एक नया नजरिया पेश किया आपने. वैसे यह समस्या आपको आर्थिक क्यों लगती है?"

राखी: "देखिये मैं मानती हूँ कि कश्मीर की समस्या चाहे जैसी हो लेकिन इसको दिल से ही सॉल्व किया जा सकता है. हम कलाकारों के ऊपर छोड़ दीजिये. हम सॉल्व कर देंगे. अभी रखी का इन्साफ में कल के एपिसोड में मैंने सकीना और महमूद का केस कैसे सॉल्व किया आपने देखा ही होगा. राखी जो करती है वह दिल से करती है."

वीना मलिक: "मेरा मानना है कि दोनों देशों के प्राइम मिन्स्टर टेलीफोन अपर बातचीत कर रहे हैं. कश्मीर प्रॉब्लम का कुछ न कुछ होकर रहेगा."

चंदू: "लेकिन आपको कैसे पता कि दोनों देश के प्राइम मिनिस्टर टेलीफोन पर बातचीत कर रहे हैं? उनलोगों ने कहीं कुछ कहा नहीं?"

वीना मलिक: "मेरे को मालूम है. मेरे पास टेलीफोन काल्स के रेकॉर्ड्स हैं. ये जो पेपर देख रहे हैं वो मैंने खुद निकलवाया है. इसमें रेकॉर्ड्स है कि पाकिस्तानी प्राइम मिन्स्टर ने इंडियन प्राइम मिन्स्टर को सोलह बार फोन किया. तेरह बार मेसेज किया है. ये रेकॉर्ड्स है मेरे पास."

चंदू: "वैसे क्या लगता है आपको? यह समस्या इतने सालों से क्यों चल रही है? क्या रीजन हो सकता है इसका?"

वीना मलिक: "मैंने अपनी कजिन से बात की थी इस बारे में. मेरे को तो पहले से ही लगता था उसको भी यही लगता है कि ये सारी प्रॉब्लम सेब की वजह से हुई है."

चंदू: "सेब की वजह से?"

वीना मलिक: "हाँ, सेब की वजह से. कश्मीर के सेब सबसे अच्छे होते हैं. दोनों मुल्क कश्मीरी सेब पर कब्ज़े के लिए इस प्रॉब्लम को चला रहे हैं."

चंदू: "वैसे खली ज़ी, आपका क्या मानना है? कश्मीर समस्या सीरियस समस्या है?"

खली: "हाँ. कश्मीर समस्या सीरियस है."

चंदू: "क्या आपको भी लगता है कि इसे सॉल्व करना मुश्किल है?"

खली: "हाँ, इसे सॉल्व करना मुश्किल है."

राखी: "कुछ मुश्किल नहीं है. दोनों देश अगर राखी का इन्साफ में ये प्रॉब्लम लेकर आयें तो राखी सावंत इन्साफ कर देगी."

चंदू: "राखी जी, आपको लगता है कि इतना ईजी है कश्मीर की प्रॉब्लम सॉल्व करना?"

राखी: "दिल से कोई भी काम किया जाय तो वो होगा ही. जीजस कहते हैं एक-दूसरे से प्यार करो. एक-दूसरे से दिल लगाकर रहो."

चंदू: "लेकिन राखी ज़ी, अगर ऐसा ही है तो आपने राखी के स्वयंवर में किसी पाकिस्तानी को क्यों नहीं बुलाया?"

राखी: "मैंने रोका थोड़े न था. कोई भी कहीं से भी आ सकता था. खुद कश्मीर से एक कंटेस्टेंट आया था. लेकिन कोई बात नहीं. अगले साल जब मैं स्वयंवर करूंगी तो ट्राई करूंगी कि कोई पाकिस्तान से भी आये."

चंदू: "वीना ज़ी, अगर राखी के स्वयंवर में मोहम्मद आसिफ आने चाहें तो आप उन्हें रोकेंगी?"

वीना मलिक: "मैं कौन होती हूँ रोकने वाली. आसिफ स्पॉट पर क्या करेगा उससे मुझे क्या? मैंने तो उसे छोड़ दिया है."

चंदू: "खली ज़ी, आपको भी लगता है कि आसिफ को राखी के स्वयंवर में आना चाहिए."

खली: "हाँ, आसिफ को राखी के स्वयंवर में आना चाहिए."

चंदू: "क्या ऐसे में दोनों देशों के सम्बन्ध मधुर होंगे?"

खली: "हाँ, इससे दोनों देशों के सम्बन्ध मधुर होंगे."

राखी: "मैं तो आसिफ और वीना मलिक के झगड़े में भी इन्साफ करने के लिए राजी हूँ."

चंदू: "लेकिन राखी ज़ी, कहीं आसिफ ने स्पॉट पर फिक्सिंग कर दी तो?"

राखी: "मेरे शो में कोई कुछ नहीं कर सकता. मेरे शो में राखी बॉस है. राखी सावंत नाम है मेरा."

चंदू: "लेकिन वीना जी, आप ये जो रिकॉर्ड दिखा रही हैं उससे लोगों का मानना है कि आप ये सब पब्लिसिटी के लिए कर रही हैं."

वीना मलिक: "मुझे पब्लिसिटी की ज़रुरत नहीं है. मैं खुद पाकिस्तान की नंबर वन हीरोइन हूँ. नंबर वन मॉडल हूँ."

चंदू: "लेकिन आपको महेश भट्ट ने तो किसी फिल्म में काम नहीं दिया."

वीना मलिक: "महेश ज़ी मुझे लॉन्च करना चाहते हैं. इमरान हाशमी के अपोजिट एक फिल्म की बात चल रही है."

चंदू: "तो आप काम करेंगी हिंदी फिल्म में?"

वीना मलिक: "महेश ज़ी तो नवाजिश बेगम से भी बात कर रहे हैं. वे उन्हें भी लॉन्च कर सकते हैं. पाकिस्तानी आर्टिस्ट की कितनी इज्ज़त करते हैं वे."

राखी: "चंदू ज़ी, मेको लगता है कि हम लोग़ टोपिक से अलग हो गए हैं."

खली: "हाँ, हमलोग टोपिक से अलग हो गए हैं."

चंदू: "चलिए कोई बात नहीं. हर पैनल डिस्कशन टॉपिक से भटक ही जाता है. वैसे आशा है कि एक दिन आपलोग कश्मीर की समस्या सॉल्व करने में दोनों देशों को हेल्प करेंगे. वैसे इतनी पुरानी समस्या का हल निकलना ईजी नहीं है. हमें सरकार को कुछ समय तो देना ही पड़ेगा...हम अपना डिस्कशन यहीं ख़त्म करते हैं..."