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Wednesday, July 30, 2008

गुरु संदीपनि का सिलिंडर संकट




गुरु संदीपनि परेशान थे. दोनों हाथ पीछे बांधे सर झुकाए टहल रहे थे. देखने से प्रतीत हो रहा था जैसे किसी का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे. गुरुआईन गाल पर हाथ धरे कुटिया की ज़मीन निहार रही थीं. बीती रात घर में खाना नहीं पक सका था. हुआ ऐसा कि जैसे ही गुरुआईन ने दाल का अदहन चूल्हे पर रखा, बर्नर से दो-तीन बार जोर की आंच निकली और चूल्हा बुझ गया. गुरुआईन को याद आया कि दो दिन से खाना बनाने के बर्तन काले होने शुरू हो गए थे. उन्हें डर लगने लगा कि कहीं गैस सिलिंडर खाली तो नहीं हो गया. अनिष्ट की आशंका मन में लिए उन्होंने एक बार फिर से चूल्हे के बर्नर पर लाईटर दाग दिया. लेकिन आग नहीं लगी. आख़िरी प्रयास के रूप में उन्होंने आखिरी अस्त्र चलाते हुए दो-तीन बार सिलिंडर को हिलाया-डुलाया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.

अब तक गुरुआईन स्योर हो गईं कि गैस सिलिंडर खाली हो चुका था. बीस दिन हो गए थे गैस की बुकिंग किए हुए लेकिन सिलिंडर की डिलीवरी अभी तक नहीं हुई थी. चूल्हे के साथ लगे सिलिंडर के खाली होने का भय गुरुआईन को दो-तीन दिनों से सता रहा था. लिहाजा कल दोपहर को गैस एजेन्सी फ़ोन कर नए सिलिंडर की डिलीवरी के बारे में इंक्वाईरी कर चुकी थीं. उधर से किसी ने ये बताते हुए फ़ोन काट दिया कि सप्लाई की प्रॉब्लम है. आज सुबह से गुरु जी को चाय तक नसीब नहीं हुई थी. रात को लाई और गट्टा खाकर दोनों सो गए थे. सबेरे उठते ही दोनों ने ख़ुद को भूख से पीड़ित पाया. वैसे दो मुट्ठी भिगोया चना और एक भेली गुड खाकर पानी पीने से पेट को थोडी थाह मिली थी.

दोपहर का खाना कैसे बनेगा इस बात के बारे में सोचकर गुरुदेव को पसीना आ जाता. उन्होंने मिटटी के उस चूल्हे की बड़ी खोज-बीन की, जिसपर उनके घर में पहले खाना पकता था. खोजते-खोजते थक गए लेकिन वो चूल्हा कहीं नहीं मिला. तब गुरुआईन ने बड़े धीमे स्वर में यह राज खोला कि वो चूल्हा तो उन्होंने काम करनेवाली बाई को दानकर अपना अगला जनम सुधारने का बंदोबस्त कर लिया था. हुआ ऐसा कि बड़ी मिन्नतों और दो सौ रूपये घूस देने के बाद जब गैस कनेक्शन मिल गया तो गुरुआईन ने मिटटी का चूल्हा और कोयले से जलने वाली एक सिगड़ी काम करने वाली बाई को दे दिया था. यह राज खुलने पर गुरु जी ने एक बार तो दांत पीसे लेकिन फिर यह सोच कर कि वैद्य जी ने उन्हें गुस्सा करने से मना किया था, चुप हो गए. एक बार तो गुस्से में यह भी कह गए कि इससे अच्छे तो वही दिन थे जब सुदामा और कृष्ण वगैरह को जंगल भेज देते थे सूखी लकडियाँ लाने के लिए. दोनों भले ही बरसात में फंस जाते लेकिन लकड़ी लेकर ही लौटते थे.

एक बार तो उन्होंने ने सोचा कि जब तक सिलिंडर नहीं आ जाता पिज्जा वगैरह मंगाकर खा लेंगे. उन्होंने विज्ञापन में पढ़ रक्खा था कि आजकल पिज्जा के साथ कोल्ड ड्रिंक फ्री में मिलता है. लेकिन फिर उन्हें वैद्य जी की बात याद आ गई. वैद्य जी ने उन्हें जंक फ़ूड खाने से मना कर रखा था.

गुरुदेव बार-बार कुटिया की किवाड़ तक जाते और बाहर देख कर लौट आते. सुदामा के आने की बाट जोह रहे थे. मार्निंग वाक के दौरान उनकी मुलाकात सुदामा के फादर से हुई थी. गुरु जी ने उनसे कहा था कि; "साढ़े आठ बजे तक सुदामा को घर पर भेज दीजियेगा. बहुत ज़रूरी काम है." लेकिन यह क्या? अब तक नौ बज चुके थे लेकिन सुदामा का अत-पता नहीं था. गुरुदेव परेशान दिखने लगे. उन्हें उनका प्लान चौपट होता दिखाई दे रहा था.

असल में गुरुदेव ने प्लान बना रक्खा था कि साढ़े आठ बजे तक अगर गैस एजेन्सी में सुदामा लाइन लगा दे तो आज सिलिंडर मिलने का चांस रहेगा. गुरु जी को मालूम था कि आजकल गैस सिलिंडर की कमी के चलते गैस एजेन्सी के सामने बहुत बड़ी लाइन लगती थी. इसीलिए उन्होंने सोच रक्खा था कि एक बार सुदामा लाइन लगा देगा तो ग्यारह बजे तक कृष्ण को भेजकर सुदामा को थोड़ी राहत दे देंगे. सुदामा गरीब था इसलिए गुरुदेव ने उसे पहले हाजिरी का हुकुम दिया था. वैसे भी अब तक कृष्ण बाबू कालिया मर्दन वगैरह करके करीब एक चौथाई 'भगवानत्व' का सबूत दे चुके थे. लिहाजा व्यावहारिकता का तकाजा यही था कि उन्हें इतना रिबेट तो मिलना ही था.

सुदामा की प्रतीक्षा करते-करते करीब पौने दस बज गए. खैर, थोड़ी देर में प्रतीक्षा की आखिरी घड़ी गई और गुरुदेव ने देखा कि जींस की जेब में हाथ डाले सुदामा सीटी बजाते आ पंहुचा. सुदामा को देखते ही गुरुदेव भड़क उठे. बोले; "ये कोई टाइम है आने का? तुम्हारे फादर को मैंने कहा था न कि तुम्हें साढ़े आठ बजे तक भेज दें. उन्होंने बताया नहीं तुमको?"

गुरुदेव की बात का सुदामा के ऊपर कोई ख़ास असर नहीं दिखाई दिया. उसने कंधे उचकाते हुए कहा; "पापा ने बताया था कि आपने साढ़े आठ बजे तक बुलाया है. लेकिन वो क्या है गुरुदेव कि मैं डब्लू डब्लू ऍफ़ स्मैकडाऊन देखने लगा. इसीलिए देर हो गई. वैसे पापा कह रहे थे कि आपका कोई ज़रूरी काम है."

सुदामा की बात सुनकर गुरुदेव ने मन ही मन ज़माने को कोसा. फिर गुस्से पर काबू करते हुए बोले; "अच्छा ठीक है. जो हुआ सो हुआ. एक काम करो. तुम गैस एजेन्सी चले जाओ. मेरी बुकिंग की हुई है. बीस दिन पहले. अभी तक सिलिंडर की डिलीवरी नहीं हुई. तुम जाकर लाइन लगा दो. गुरु माँ का मोबाइल ले जाओ. तुम लाइन में रहना. मैं बारह बजे तक कृष्ण को भेज दूँगा तुम्हारी मदद के लिए. कोई समस्या होने पर मिस्ड कॉल देना."

गुरुदेव की बात सुनकर सुदामा ने कहा; "गुरुदेव वो गैस एजेन्सी जाने से कोई फायदा नहीं होगा. आपका सिलिंडर नहीं मिलेगा."

"क्यों? क्यों नहीं मिलेगा?"; गुरुदेव ने जानना चाहा.

"छोडिये न गुरुदेव, मैं कह रहा हूँ नहीं मिलेगा तो नहीं मिलेगा"; सुदामा ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा.

"अरे वही तो मैं पूछ रहा हूँ. तुम कैसे कह सकते हो कि नहीं मिलेगा. मेरी बुकिंग की हुई है"; गुरुदेव ने थोड़ी कड़ाई के साथ जानना चाहा.

"अच्छा ठीक है. आप कहते हैं तो मैं बताता हूँ. देखिये, हुआ ऐसा गुरुदेव कि हमारे पड़ोस की भवानी चाची का सिलिंडर खाली हो गया था. उनके घर खाना बनाने की बड़ी दिक्कत हो रही थी. भवानी चाची ने मुझसे कह रखा था कि अगर कहीं से सिलिंडर ब्लैक में मिल जाए तो मैं उन्हें दिला दूँ. परसों आप का सिलिंडर डिलीवरी करने के लिए गैस एजेन्सी का आदमी आपके घर की तरफ़ आ रहा था. मैंने वही सिलिंडर ब्लैक में खरीद लिया कर भवानी चाची को दे दिया. मुझे पचीस रूपये कमीशन में भी मिले"; सुदामा एक साँस में पूरी बात बता गया.

सुदामा की बात सुनकर गुरुदेव को बहुत गुस्सा आया. उन्होंने गुस्से में आँखें लाल किए सुदामा से कहा; "तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई ऐसा करने की? सुदामा, मैं तुम्हें गुरुकुल से रस्टीकेट कर दूँगा."

गुरुदेव की मुख मुद्रा देखकर सुदामा खिस्स से हंस दिया. उसने कहा; "जाने दीजिये न गुरुदेव गुस्सा थूक दीजिये. जो हुआ सो हुआ."

"ऐसे कैसे जाने दूँगा? मैं तुम्हें छोडूंगा नहीं. मैं तुम्हें रस्टीकेट कर के गुरुकुल से निकाल दूँगा"; गुरुदेव का गुस्सा अभी तक शांत नहीं हुआ था.

सुदामा ने उनका गुस्सा देखा तो वो भी ताव में आ गया. बोला; "देखिये गुरुदेव, आप ऐसा नहीं कर सकते."

"क्यों नहीं कर सकता? क्यों? मैं गुरु हूँ तुम्हारा"; गुरुदेव को लगा कि उन्हें अपनी हैसियत एक बार फिर से सुदामा को बताने की ज़रूरत है.

सुदामा उनकी बात सुनकर मुस्कुरा दिया. बोला; "देखिये गुरुदेव, अगर आप ऐसा करेंगे तो मैं आपकी लिखित शिकायत उप कुलपति से कर दूँगा. और उसी लेटर की एक कॉपी लेबर कमिश्नर को भेज दूँगा. आपके ऊपर आरोप लगा दूँगा कि आप मुझे जंगल भेजते थे सूखी लकडियाँ इकठ्ठा करने के लिए. आपके ऊपर बाल मजदूरी का आरोप लगाकर सस्पेंड करवा दूँगा. याद रखिये मेरे पास गवाह के तौर पर कृष्ण भी है."

सुदामा की बात सुनकर गुरुदेव सहम गए. उन्हें विश्वास हो गया कि ज़माना उन दिनों से बहुत आगे निकल आया है जब सुदामा और कृष्ण जंगल में जाकर लकडियां बीन लाते थे. बिना इस बात की परवाह किए कि उन्हें बरसात में फंसकर भूख से बिलखना भी पड़ता था. गुरुदेव के कदम चुप-चाप गैस एजेन्सी की तरफ़ बढ़ गए. उन्हें वहां लाइन लगानी थी ताकि शाम को घर में खाना बन सके.

Monday, July 28, 2008

एक सीन 'उनके' घर का....




- जल्दी करो. पत्रकार आते ही होंगे.

- एक मिनट. अभी मैं शेरवानी चूज कर रहा हूँ.

- अरे, अभी कल ही तो बैंगलोर में विस्फोट हुआ था. नयी शेरवानी कल ही तो पहनी थी. उसी को पहन लो.

- नहीं-नहीं. वो ठीक नहीं रहेगी. उसका रंग थोड़ा डीप है. बैंगलोर में एक ही व्यक्ति मरा था, इसलिए चल गयी. अहमदाबाद में तो पचास मारे गए हैं. यहाँ वो शेरवानी नहीं चलेगी.

- तो कोई सफ़ेद शेरवानी धारण कर लो.

- हाँ, वही सोच रहा हूँ.

- लेकिन तुम्हारे बाल आज थोड़ा ज्यादा काले दिख रहे हैं.

- तीन दिन पहले ही कलर करवाया था.

- उसे थोड़ा सफ़ेद करने की ज़रूरत है. अहमदाबाद में ज्यादा लोग मरे हैं न.

- हाँ, मैं भी वही सोच रहा हूँ.

- लेकिन आज पत्रकारों के सामने क्या बोलोगे?

- क्या बोलना है. वही जो अब तक बोलते आया हूँ. अभी पांच मिनट में सीडी देख लूँगा कि जयपुर, हैदराबाद, मुम्बई, मालेगांव, बनारस वगैरह में क्या कहा था. उसी में कुछ जोड़ दूँगा.

- लेकिन देखना लोगों को शिकायत न हो कि एक ही बात बार-बार बोलते हो.

- वो मैं मैनेज कर लूँगा. और वैसे भी नया क्या बोलूँगा?

- नहीं, कुछ नया बोलने से इमेज ठीक-ठाक बनी रहती है.

- क्या नया बोलूँगा? और कर भी क्या सकता हूँ? आतंकवादियों को रोकने के लिए क्या हिमालय के ऊपर आठ हज़ार मीटर ऊंचा एक और पर्वत रखवा दूँ?

- नहीं वो तो पासिबिल नहीं है. लेकिन पुलिस तंत्र वगैरह को सुधारने के बारे में कुछ कह देने से बात बन जायेगी.

- उतना बताने की ज़रूरत नहीं है. मंत्री हूँ, उतना भी नहीं समझूंगा तो कैसे चलेगा.

- लेकिन कम से कम चार लाइन नया बोलने की कोशिश करना.

- वो मैं मैनेज कर लूँगा. तीन लाइन सौहार्द बनाये रखने के लिए, दो लाइन आतंकवादियों को चेतावनी, तीन लाइन खुफिया तंत्र को मज़बूत करने पर और दो लाइन मरे और घायल लोगों के परिवार के प्रति संवेदना प्रकट करने के लिए. बस इतने में काम हो जायेगा.

- लेकिन यही सब तो हर बार बोलते हो. कुछ लाइन ऐड करने के बारे में सोचना.

- हर विस्फोट के बाद अगर ऐसे ही लाइन ऐड करना शुरू कर दूँगा तो एक साल के अन्दर मीडिया के लिए मेरा बाईट ही पचास लाइन का हो जायेगा.

- फिर भी, एसटीऍफ़ को कार्यवाई सौंपने की बात और एक उच्चस्तरीय बैठक बुलाने के बारे में बोलने से अच्छा रहेगा.

- ठीक कहा. थैंक यू.

- अच्छा, जल्दी-जल्दी मत बोलना. धीरे-धीरे बोलना. इससे चेहरे पर गंभीरता कायम रहती है.

- ठीक कहा तुमने.

- शेरवानी पहन ली?

- हाँ.

- जेब में कंघी रख लिया?

- ठीक याद दिलाया तुमने. वो सफ़ेद वाली कंघी जरा भेजना.

- अच्छा, मैं तैयार हो गया. चलता हूँ अब.

- ओके. बेस्ट ऑफ़ लक.

- थैंक यू.

Sunday, July 27, 2008

बुद्धिजीवी जी की डायरी से कुछ....




आज अहमदाबाद में विस्फोट हो गए. ये बात ठीक नहीं हुई. अभी दो दिन पहले ही तो बैंगलोर में हुए थे. इन आतंकवादियों को चाहिए कि देशवासियों को थोड़ी सी राहत तो दें. एक बात बहुत बुरी लगी. विस्फोट के बाद आतंकवादियों ने हर बार की तरह जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली.

अहमदाबाद में विस्फोट हुआ था. जिम्मेदारी अपने ऊपर न लेते तो कुछ किया जा सकता था. व्हिस्पर कैम्पेन के जरिये बात फैलाई जा सकती थी कि इन विस्फोटों में मोदी का हाथ है. आख़िर गोधरा काण्ड के समय सफलता के साथ ये बात फैलाने में उतनी दिक्कत नहीं हुई थी कि वो काण्ड बी जे पी वालों ने करवाया था ताकि दंगा फैलाया जा सके.

आज मैंने बहुत दिनों बाद एक नया नारा लिखा. नारा है; "हमारी संस्कृति केवल गंगा-जमुनी संस्कृति नहीं है, बल्कि ये कृष्णा-गोदावरी संस्कृति भी है."

असल में दक्षिण भारत के बुद्धिजीवियों से ये डिमांड कई महीनों से आ रही थी. उनका कहना था कि जब उत्तर भारत में विस्फोट होते हैं तो गंगा-जमुनी संस्कृति का नारा दिया जाता है. और अब तो विस्फोट दक्षिण भारत में भी होने लगे हैं. ऐसे में कृष्णा-गोदावरी संस्कृति का नारा एक अच्छा नारा साबित होगा.

अहमदाबाद में हुए धमाकों को कैसे जस्टिफाई किया जाय? बी जे पी शासित राज्यों में कोई बड़ा दंगा भी नहीं हुआ. खैर, कल बुद्धिजीवियों की एक अर्जेंट मीटिंग बुलानी पड़ेगी. अहमदाबाद के विस्फोटों को जस्टिफाई करने का कोई न कोई रास्ता निकलना पड़ेगा.

मुझे लगता है थोड़ा अध्ययन करके हिंदू-हिंसा पर एक कुछ लेख लिखा जाना चाहिए. वैसे तो हाल ही में मैंने हिंदू हिंसा पर एक लेख लिखकर साबित कर दिया कि परसुराम बहुत हिंसक थे. अगर इसी तरह से राम, कृष्ण, वगैरह को हिंसक बताने के लिए कोई लेख बन जाए तो अच्छा रहेगा.

इन विस्फोटों की वजह से दो-चार दिन टीवी वगैरह में पोटा को वापस लाने की बात फिर से होगी. वैसे हम किसी हालत में ये साबित कर देंगे कि आतंकवादी विरोधी कानूनों का उलंघन होता है इसलिए आतंकवादी विरोधी कानून लाना बेवकूफी होगी.

कई दिनों से मुझे कुछ पुराने नारों की सफलता पर शंका होने लगी है. पिछले कई सालों से ये नारा कि "आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता" ने काफी काम किया. लेकिन अब हमें लग रहा है कि लोग ये नारा सुन-सुन कर पक गए हैं. कहीं ऐसा न होने लगे कि लोग कहना शुरू कर दें कि; "आतंकवादी का धर्म होता है."

कल सुबह ही मीडिया में ये ख़बर फैलानी पड़ेगी कि बांग्लादेशी नागरिकों के ऊपर गुजरात पुलिस के अत्याचार शुरू हो गए हैं. नरेन्द्र मोदी और उनकी पुलिस बांग्लादेशियों को जान-बूझ कर परेशान कर रही हैं.

वैसे तो आज अहमदाबाद में तीस्ता सीतलवाड़ राहुल बोस के साथ उतर चुकी हैं लेकिन कुछ और बुद्धिजीवियों को वहां भेजने से मामला जम जायेगा. मुझे लगता है अगर अरुंधती राय पंहुच जातीं तो अच्छा रहता.

कल दिल्ली में सहमत की एक मीटिंग करवाने का जुगाड़ हो जाता तो अच्छा रहता. ए के हंगल और जोहरा सहगल को मैदान में उतारने से मामला जम जायेगा.

इतना बड़ा विस्फोट होने के बाद भी नरेन्द्र मोदी ने कोई भड़काऊ बयान नहीं दिया. ये हमारे लिए चिंता का विषय है. वैसे तो पहले छोटी-छोटी बातों पर भड़क जाता था लेकिन अब पता नहीं क्या हुआ इसे?

कल सुबह तक कुछ नए नारे लिखने हैं. अच्छा होता अगर विनायक और निस्तेज को यहीं बुला लें. साथ उन्हें सिगरेट के पैकेट लाने के लिए भी कहना है.

Saturday, July 26, 2008

हम भारतीय भी 'कुछ कम रिस्की नहीं है'




कितने ही ज्ञानी टाइप लोग हैं, जो समाज की समझ का दावा करते हैं. उठते-बैठते बताते रहते हैं कि मनुष्य की नब्ज़ को टटोलकर मनुष्य को पढ़ चुके हैं. देश का नाम पढ़कर बता सकते हैं कि फला देश के लोग सीधे होते हैं और फलाने देश के टेढ़े. अभी हाल ही में याहू पर एक सर्वे का रिजल्ट देख रहा था. लिखा था भारतीय बड़े बदतमीज होते हैं. भारतीयों के जितना बदतमीज दुनियाँ में बहुत कम देशों के लोग हैं. ऐसे ही एक सर्वे के रिजल्ट में लिखा था कि भारतीय लोग रिस्क नहीं लेना चाहते. नाक की सीध में चलते जिंदगी गुजार देते हैं. वहीं पश्चिमी देशों के लोग रिस्क वगैरह लेना बखूबी जानते हैं.

पता नहीं किन लोगों ने इस तरह का सर्वे किया. पता नहीं कहाँ किया और कैसे किया. मुझे तो अपने देश के लोग बड़े रिस्की सॉरी, रिस्क लेने वाले लगते हैं. हाल ही में टीवी पर एक रिपोर्ट देख रहा था. रिपोर्ट थी एक पायलट बनाने वाले अमेरिकी संस्थान के बारे में. रिपोर्ट देखकर पता चला कि अमेरिका के एक शहर में यह संस्थान पायलट बनाने का काम करता है. इस संस्थान में ढेर सारे भारतीय छात्र फंसे बैठे हैं. कारण यह है कि संस्थान दिवालिया होते हुए बंद हो चुका है. बैंकों का लोन वगैरह बाकी है इस संस्थान के ऊपर. पायलट बनने का सपना संजोये जो छात्र फंसे बैठे हैं, उनके पास पैसा नहीं बचा है. माना कि संस्थान ने बड़ी रिस्क लेकर बैंक से लोन लिया होगा लेकिन हमारे देश के छात्रों ने भी कुछ कम रिस्क नहीं लिया.

टीवी पर इन छात्रों के माँ-बाप का इंटरव्यू देखा. देखकर कन्फर्म हो लिया कि इन छात्रों से ज्यादा बड़ा रिस्क तो इनके माँ-बाप ने लिया. लगभग सारे छात्र बंगलौर के हैं. माँ-बाप ने इन्हें पायलट बनाने के लिए कितना हिसाब बैठाया. कितने जुगाड़मेंट किए. किसी ने पीऍफ़ से लोन लिया है. किसी ने बैंक से लोन लिया है. किसी ने मकान गिरवी रख दिया है. पचास साल की उम्र वाले माँ-बाप इतना रिस्किया सकते हैं कि बेटे को पायलट बनाने के लिए अपना घर-बार गिरवी रख सकते हैं. ऊपर से इन सर्वे करने वालों की हिम्मत देखिये कि भारतीयों को रिस्क लेने वाला नहीं मानते.

एक और रिपोर्ट देख रहा था. न्यूजीलैंड में पंजाब के ढेर सारे लोग फंसे पड़े हैं. वहां पंहुचने के बाद वही पता चला जो हमेशा चलता है. ट्रेवल एजेंट ने बदमाशी कर दी है. वीसा नकली थमा दिया. न्यूजीलैंड की पुलिस ने इनलोगों को अरेस्ट कर रखा है. कुछ लोग भाग चुके हैं. पुलिस उन्हें खोज रही है. सालों से होता आया है कि ट्रेवल एजेंट ऐसे लोगों को बेवकूफ बनाते रहे हैं. लेकिन ये लोग भी हार मानने वाले नहीं हैं. लगता है जैसे कसम खाकर निकलते हैं कि "बेटा तू थक जायेगा हमें बेवकूफ बनाते-बनाते लेकिन हम नहीं थकेंगे बेवकूफ बनते. तुझे मेरी बात पर विश्वास न हो, तो ट्राई मार के देख ले."

कुछ साल पहले तक सुनने में आता था कि पंजाब के लोग अपनी जमीन बेंच देते थे ताकि गायकत्व को प्राप्त हो सकें. जी हाँ, मैंने कई बार टीवी में रिपोर्ट देखा कि लोग जमीन बेंच कर गायक बन रहे हैं और गायक बनकर अलबम निकाल रहे हैं. बताईये, ये रिस्क लेने की पराकाष्ठा है कि नहीं? जमीन बेंचकर गाने का अलबम निकाल रहे हैं. कोई माई का लाल अमेरिकन ऐसा करके दिखा दे तो मान जाऊं कि हम भारतीय रिस्क लेना नहीं जानते.

आए दिन सड़क पर हजारों भारतीयों को रिस्क लेते हुए देखा जा सकता है. रेलवे क्रॉसिंग की तो बात ही छोड़ दीजिये. रेलवे वाले लाऊडस्पीकर पर बता रहे हैं; "भइया ट्रेन आने वाली है. इसलिए हम आपके सामने लोहे का पाइप गिरा दे रहे हैं ताकि आप रुक जाइये." लेकिन क्या औकात घोषणा की और क्या औकात लोहे के टुच्चे पाइप की? पाइप को कोर्नीस बजाते हुए हम निकल लेते हैं. पाइप बेचारा रेलवे क्रॉसिंग के उस गार्ड को घूरते हुए पूछ रहा होता है; "काहे इतनी मेहनत करके मुझे उठाते-गिराते रहते हो? ये लोग रिस्क लेते हुए जब निकल लेते हैं तो मुझे लगता है जैसे मेरा जीवन ही व्यर्थ है."

इसके अलावा हम रिस्क लेने की हर उस विधा में हाथ आजमाने को तैयार हैं जिनपर अब तक विकसित देशों के लोगों का एकाधिकार था. जहाँ एक तरफ़ हम क्रेडिट कार्ड स्पेंडिंग के रिस्क का मज़ा लेना सीख रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ शेयर बाज़ार में निवेश की रिस्क से उपजने वाले रोमांच को महसूस करने का मौका भी हाथ से नहीं जाने देना चाहते. सामाजिकता में रिस्क लेने के नए-नए आयाम स्थापित होने शुरू हो ही गए हैं. मुझे तो पक्का विश्वास है कि आनेवाले दिनों में हम रिस्क लेने के नए क्षेत्रों की खोज करते हुए विकसित देशों के लोगों को इस बारे कुछ पाठ पढ़ाने की कूवत रखने लगेंगे.

लेकिन एक ही बात है. इतना सब कुछ करने से पहले एक बार हमें 'रिस्क मैनेजमेंट' का पाठ भी पढ़ लेना चाहिए.

एक चार लाइन वाली बात....

एक शाम रवि के प्रति दैन्य भाव जागा
कि; डूबने को चढ़ता है व्योम में अभागा
नभ बोला; "और क्या फल होगा उसका जो
पूरब में जन्म लेकर पश्चिम को भागा"

----श्री उदय प्रताप सिंह

Friday, July 25, 2008

स्पीकर बनने से उनका स्वास्थ और अच्छा हो गया था....




- सोमनाथ निकाल दिए गए.
- कहाँ से? घर से?
- अरे नहीं पार्टी से.
- पार्टी से? संसद में जीत की खुशी मनाने वाली पार्टी हो गई! कब?
- अरे नहीं उस पार्टी से नहीं. पार्टी मतलब दल से.
- ओह, मैंने समझा उस पार्टी से जिससे चार साल पहले अमर सिंह निकाले गए थे.
- नहीं-नहीं. पार्टी से मेरा मतलब दल से था.
- अपने देश में बुजुर्गों के प्रति अत्याचार बढ़ गया है. नहीं?
- अरे सोमनाथ जी बुजुर्ग थोड़े न हैं. वे तो नेता है.
- लेकिन दल से क्यों निकाले गए? पार्टी ह्विप के ख़िलाफ़ मतदान कर दिया था क्या?
- अरे नहीं. वे तो इसलिए निकाले गए क्योंकि मतदान नहीं करना चाहते थे.
- मतलब ये कि पार्लियामेन्ट से एब्सेंट होकर किसी को लाभ दे गए.
- अरे नहीं. वे तो स्पीकर हैं न. वे कैसे एब्सेंट रह सकते हैं.
- तो फिर क्यों निकाले गए?
- स्पीकर के पद की इज्ज़त रख रहे थे इसलिए निकाले गए.
- अच्छा, इज्ज़त रख पाये?
- लालू जी तो कह रहे थे कि इज्ज़त रख ली उन्होंने.
- अच्छा! लालू जी कह रहे थे? तब तो पक्का ही इज्ज़त रख ली होगी उन्होंने.
- लेकिन उनके दल वाले कह रहे थे कि अनुशासन तोड़ने की वजह से निकाले गए.
- हाँ, हो सकता है. उनका दल अनुशासन को बड़ी तवज्जो देता है.
- और क्या-क्या चीज को तवज्जो देता है उनका दल?
- अरे यार, राजनीति में तवज्जो देने के लिए और है ही क्या?
- लेकिन सोमनाथ जी अनुशासन तोड़ दिया था क्या?
- उनके दल वाले कह रहे थे.
- इसके अलावा और तो कोई बात नहीं है न. मेरा मतलब लेन-देन...
- न-न. संसद में लेन-देन की बात करना ठीक नहीं होगा.
- अरे, तुम क्यों चिंता करते हो? हम संसद में थोड़े न बैठे हैं.
- मेरा मतलब संसद के सदस्य लेन-देन में नहीं रहते.
- अच्छा-अच्छा. लेकिन तो क्या केवल अनुशासन की वजह से ही उन्हें निकाल दिया?
- कह तो यही रहे थे. लेकिन कुछ अफवाह भी है.
- अफवाह? कैसी अफवाह?
- सोमनाथ जी की पार्टी के नेता उनसे जलते थे.
- उनसे जलते थे! क्यों भला?
- कुछ लोग ऐसा कह रहे थे कि संसद में स्पीकर बनने से उनका स्वास्थ और अच्छा हो गया था.
- स्पीकर बनने से स्वास्थ अच्छा हो जाता है?
- अरे कुछ लोग कह रहे थे कि संसद में स्टैंडअप कॉमेडी देख-देखकर सोमनाथ जी ने अपना स्वास्थ अच्छा बना लिया था.
- मतलब?
- अरे बुद्धू, मतलब जो आदमी इतने घंटे संसद में रहेगा वो हंसेगा नहीं क्या?
- और हंसने से स्वास्थ अच्छा रहता है.
- अभी समझे.
- अच्छा. मतलब ये अनुशासन का तो सिर्फ़ बहाना है. असल बात ये है कि उनके ऊपर मज़ा लेने का आरोप है.
- हाँ. असल बात यही है.
- तो अब क्या उन्हें स्पीकर के पद से हटा दिया जायेगा?
- बातें तो हो रही हैं. लेकिन मुझे लगता है कि वे मज़ा लेने के चक्कर में दस महीने और स्पीकर बने रहेंगे.

Wednesday, July 23, 2008

अरुण भाई के डॉक्टर दोस्त के प्रेमपत्र का अनुवाद - डॉक्टर विद्यासागर बटबयाल द्बारा




आज अरुण भाई ने एक डॉक्टर साहब का प्रेमपत्र समझ में ना आने पर एक पोस्ट लिखी. उनकी पोस्ट पढ़ते हुए मुझे याद आया कि हमारे शहर में डॉक्टर विद्यासागर बटबयाल रहते हैं. डॉक्टर साहब करीब १०४ साल के हो गए हैं. अस्सी साल का होने पर उन्होंने डाक्टरी से संन्यास ले लिया और पिछले चौबीस सालों से वे डॉक्टरों के प्रेमपत्र का निशुल्क अनुवाद करके समाजसेवा कर रहे हैं. मैंने जब अरुण भाई की समस्या के बारे में डॉक्टर साहब को बताया तो उन्होंने तुंरत अरुण भाई के ब्लॉग पर जाकर कमेन्ट किया.

अरुण भाई ने उन्हें प्रेमपत्र स्कैन करके मेल में भेज दिया. डॉक्टर साहब ने तुंरत उसका अनुवाद करके अपने कम्पाऊन्डर के हाथों मेरे पास भेज दिया. उनके पास स्कैन करने की सुविधा नहीं है. और मेरे पास भी नहीं. मैं डॉक्टर साहब द्बारा किए गए अनुवाद को छाप रहा हूँ. आप भी पढिये.


प्रियतमे रजनी,

ये पत्र लिखने कुर्सी पर बैठा ही था कि पीठ में दर्द शुरू हो गया. तकलीफ इतनी बढ़ गई कि सहन नहीं हो रहा था. तब याद आया कि आज एक मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव आयोडेक्स की दस शीशी सैम्पल में थमा गया था. उठकर आलमारी से आयोडेक्स निकाला और पीठ पर मालिश की. फिर भी बैठा नहीं जा रहा है, इसलिए तुम्हें ये पत्र लेटे-लेटे लिख रहा हूँ. ऐसा हो सकता है कि तुम्हें लिखाई पूरी तरह से समझ में नहीं आए. अगर ऐसा हुआ (वैसे मुझे मालूम है कि ऐसा ही होगा. आख़िर तुमने मेरे साथ बगीचे में घूमने और आईसक्रीम खाने के सिवा किया ही क्या है? अपनी पढाई-लिखाई की वाट पहले ही लगा चुकी हो) तो फिर पहले ख़ुद से तीन-चार बार ट्राई मारना. उसके बाद भी समझ में न आए तो तुम्हारे मुहल्ले के दर्शन मेडिकल में चली जाना. वहां पप्पू सेल्समैन पत्र पढ़कर समझा देगा. लेकिन हाँ, उसके पास ज्यादा देर तक मत रहना. मतलब समझकर तुंरत घर वापस चली जाना.

आगे समाचार यह है कि पिताजी के दबाव में आकर मुझे ऍफ़आरसीएस करने अमेरिका जाना पड़ रहा है. लेकिन जब भी अमेरिका जाने की बात सोचता हूँ तो मुझे राजेन्द्र कुमार की फिल्में याद आ जाती हैं. वो फिल्में जिनमें राजेंद्र कुमार डाक्टरी की पढाई करने अमेरिका चले जाते थे और उनके जाने के बाद हिरोइन की शादी किसी और से हो जाती थी. उन फिल्मों की याद करके मेरे रोंगटे खड़े हो जा रहे हैं. अभी थोडी देर पहले ही रोंगटे खड़े हुए थे. तीन एस्प्रिन और चार डिस्प्रिन खाकर मैं नार्मल हुआ हूँ.

एक बार तो मन में बात आई कि पिताजी के आदेश का पालन न करूं. फिर सोचा वे ख़ुद भी डॉक्टर हैं और उन्होंने जब इतना बड़ा नर्सिंगहोम बना ही लिया है तो उसे चलाना वाला भी तो कोई चाहिए. तुम्हें तो मालूम है कि मैं उनका इकलौता पुत्र हूँ. ऐसे में उनके धंधे को आगे बढ़ाने का काम मुझे ही करना पड़ेगा. माँ भी कह रही थी कि मैं अमेरिका जाकर डाक्टरी की पढाई करूं. मुझे समझा रही थी कि अगर मैं बड़ा डॉक्टर बन जाऊँगा तो कुछ पैसा लगाकर और कुछ बैंक से फाइनेंस लेकर एक और नर्सिंगहोम खोल लेंगे. दो नर्सिंगहोम देखकर पिताजी कितने खुश होंगे.

वैसे तुम्हें निराश होने की ज़रूरत नहीं है. तुम हमेशा मेरी यादों में रहोगी. मैं तुम्हें रोज मेल लिखूंगा. वहां अमेरिका में अगर घूमने-फिरने और डिस्को में जाने से टाइम मिला तो हमदोनों नेट पर चैट भी कर सकते हैं. तुम्हें याद है, मेरे पिछले जन्मदिन पर तुमने मुझे एक आला और एक थर्मामीटर दिया था. मैं जब अमेरिका जाऊँगा तो उन दोनों को अपने साथ लेकर जाऊंगा. जब भी कोई लड़की हॉस्पिटल में मरीज बनकर आएगी और मैं उसका चेकअप करूंगा तो मुझे लगेगा कि मैं तुम्हारा ही टेम्परेचर माप रहा हूँ और तुम्हारे ह्रदय की धड़कने ही सुन रहा हूँ.

मुझे पता है कि मेरे जाने के बाद तुम उदास रहने लगोगी. मैं वहां परदेश में और तुम यहाँ. तुम्हें तो बिरहिणी नायिका की भूमिका अदा करनी ही पड़ेगी. जब तुम दुखी रहने लगोगी तब तुम्हारे घरवाले समझ जायेंगे कि तुम किसी के प्यार में पड़ गई हो. तुम्हें तो मालूम है; 'इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते.' ऐसे में तुम्हारे पिताजी तुम्हरी शादी करवाने की कोशिश करेंगे. लेकिन तुम शादी मत करना. मैं तुम्हें सजेस्ट करता हूँ कि तुम अभी से तरह-तरह के बहाने बनाने की प्रैक्टिस शुरू कर दो. जब पिताजी शादी के लिए कहेंगे तब ये बहाने काम में लाना.

मेरे जाने के बाद जब भी पिक्चर देखने की इच्छा हो तो अपनी सहेली पारो को साथ लेकर पिक्चर देख आना. एक बात का ध्यान रखना पारो के बॉयफ्रेंड रामदास को साथ लेकर मत जाना. वो बहुत काइयां किस्म का इंसान है. वो तुम्हें इम्प्रेश करने की कोशिश करेगा. और पिक्चर हाल में ज्यादा आईसक्रीम मत खाना. तुम्हें तो मालूम ही है, तुम्हें हर तीसरे दिन जुकाम हो जाता है. हाँ, अगर जुकाम हो जायेगा तो सिक्स एक्शन ४०० लेना मत भूलना. वैसे बुखार हो जाए तो मेरे फ्रेंड डॉक्टर चिराग के पास जाना. ज्यादा बटर पॉपकॉर्न भी मत खाना. तुम्हारा वजन पहले से ही काफी बढ़ा हुआ है.

बाकी क्या लिखूं? कुछ समझ में नहीं आ रहा है. वैसे लग रहा है कि कुछ और लिखना चाहिए लेकिन तय नहीं कर पा रहा हूँ कि क्या लिखूं. हाँ, अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना. हो सके तो एमए करने के बाद पी एचडी करने की कोशिश करना. ऐसे में शादी न करने का एक और बहाना मिल जायेगा. जब तक मैं नहीं आता, तबतक किसी और से शादी करने की सोचना भी मत. वैसे जब सारे बहाने फ़ेल हो जाएँ तो फिर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना. अपने पिताजी को ये बताना कि तुम जिससे प्यार करती हो, वो अपने माँ-बाप का इकलौता पुत्र है और उसके बाप के पास ढेर सारा पैसा है. मुझे विश्वास है कि वे यह सुनने के बाद फिर कभी तुम्हारी शादी की जिद नहीं करेंगे.

अभी तो मैं इतना ही लिख रहा हूँ. बाकी की बातें अमेरिका पहुँचकर मेल में लिखूंगा.

तुम्हारा

डॉक्टर सोमेश

पुनश्च:

अगर ये चिट्ठी समझ में न आए और पप्पू सेल्समैन के पास जाना ही पड़े तो चिट्ठी समझकर तुंरत घर वापस जाना.

Monday, July 21, 2008

लोकतंत्र का भविष्य अब एयरपोर्ट के हाथ में है.....




सचिव दौड़ते हुए आया. हाँफते-हाँफते मैडम से बोला; "मैडम, सब गड़बड़ हो गया. लखनऊ एयरपोर्ट का नाम बदल कर चौधरी साहेब के नाम पर रखने के बावजूद अजीत सिंह जी ने मायावती जी को सपोर्ट कर दिया. ऐसा तो सोचा नहीं था, मैडम. अब क्या होगा?"

"अरे! अजीत सिंह तो कल तक हमारे साथ थे. ऐसा कैसे किया उन्होंने? क्या कह रहे थे?"; मैडम ने पूछा.

सचिव ने अजीत सिंह की कही गयी बात सुना दी. बोला; "मैडम, वे कह रहे थे कि न्यूक्लीयर डील किसानों के हित में नहीं है. सरकार अगर ईरान से गैस की पाइपलाइन बैठाती तो वो किसानों के हित में रहती."

"ओफ्फो, ऐसा कहा उन्होंने? क्या हो रहा है? कोई कहता है न्यूक्लीयर डील मुसलमानों के ख़िलाफ़ है, कोई कहता है किसानों के ख़िलाफ़ है. ठीक है, वे कह ही सकते हैं. किसानों की समस्याओं पर उन्होंने पी एचडी की है"; मैडम ने झुझलाते हुए कहा.

मैडम की बात सुनकर सचिव बोला; "मैडम, वैसे तो छोटा मुंह और बड़ी बात होगी, लेकिन जब आपको मालूम था कि अजीत सिंह जी ने किसानों की समस्याओं पर पी एचडी की हुई है, तो आपको कोई और जुगत लगानी चाहिए थी. जैसे किसानों की किसी मंडी का नाम चौधरी चरण सिंह के नाम पर रख देना चाहिए था. या फिर गेंहूं या गन्ने की किसी प्रजाति का नाम चौधरी जी के नाम पर कर देना चाहिए था."

"अरे, इस बात के बारे में हमने सोचा था. फिर हमें लगा कि गेंहूं और धान जैसी छोटी चीज का नाम अपने पिताजी के नाम पर रखने से वे बिदक सकते थे. हमने सोचा, अजीत सिंह भले ही किसान हों, लेकिन यात्रा वगैरह तो प्लेन से ही करते हैं, तो चलो एयरपोर्ट का नाम ही उनके पिताजी के नाम से रख देते हैं"; मैडम ने अन्दर की बात बताते हुए कहा.

उनकी बात सुनकर सचिव को पक्का विश्वास हो चुका था कि मैडम का दिमाग बहुत तेज चलता है. खैर, कुछ देर सोचने के बाद उसने पूछा; "लेकिन मैडम, अब क्या किया जाय. एयरपोर्ट का नाम भी बदल गया और अजीत सिंह जी का वोट भी नहीं मिला."

सचिव की बात सुनकर मैडम ने कुछ देर सोचने का उपक्रम किया. उसके बाद बोलीं; "ठीक है - ठीक है. एक बार विश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग हो जाने दो. हम जीत जायेंगे. उसके बाद एयरपोर्ट का नाम फिर से बदल देंगे. अब की बार एयरपोर्ट का नाम मुलायम सिंह जी के पिताजी के नाम से रख देंगे."

उनकी बात सुनकर सचिव ने कुछ सोचा. उसके बाद बोला; "लेकिन मैडम, ये बात मुलायम सिंह जी को बुरी भी तो लग सकती है. वे ये भी तो कह सकते हैं कि एयरपोर्ट का नाम उनके पिताजी के नाम पर रखना ही था तो पहले रखना चाहिए था. मैडम, क्या होगा, अगर उन्होंने इस 'रिजेक्टेड एयरपोर्ट' का नाम अपने पिताजी के नाम पर रखने से इनकार कर दिया तो?"

"उसका हल मैंने पहले से सोच कर रखा है. तुम चिंता मत करो. हम आगरा में ताजमहल के सामने यमुना नदी पर एक बंदरगाह बनवा देंगे और उसका नाम मुलायम सिंह जी के पिताजी के नाम पर रख देंगे"; मैडम ने अपने प्लान की जानकारी देते हुए बताया.

"और इस एयरपोर्ट का नाम क्या होगा, मैडम?"; सचिव ने पूछा.

मैडम ने कुछ देर सोचा और बोलीं; "उस एयरपोर्ट का नाम हम ब्रजभूषण सरण सिंह के पिताजी के नाम पर रख देंगे."

मैडम की बात सुनकर सचिव निश्चिंत हो गया. हाथ में कागज़ और कलम लिए, वो वहां से चला गया. उसे ब्रजभूषण सरण सिंह जी के पिताजी का नाम पूछकर नोट करना था.


पुनश्च:

आज पत्नी जी ने बड़ा अच्छा सवाल किया. उन्होंने मुझसे पूछा; "अच्छा, ये पार्लियामेन्ट में जो वोटिंग होती है, उसमें क्या कभी ऐसा हुआ है कि कोई एमपी वोट देने गया हो और वहां उसे पता चला हो कि उसका वोट तो पहले ही किसी ने डाल दिया है."

मैंने कहा; "क्या बात कर रही हो, ऐसा कैसे हो सकता है? आजतक कभी नहीं हुआ ऐसा."

उनका जवाब था; " क्यों नहीं हो सकता? अरे बाबा वोट ही तो पड़ेंगे. हमारे साथ तो ऐसा दो बार हो चुका है कि बूथ में वोट देने गए और वहां जाकर पता चला कि किसी ने पहले ही मेरा वोट दे दिया है."

अब आप ही बताईये, भारत में ऐसा होने में कितने साल लग सकते हैं?

Friday, July 18, 2008

टिप्पणियों पर एक चिरकुट चिंतन




आज समीर भाई की पोस्ट पर टिप्पणी कर रहा था. टिप्पणी का बक्शा खोलते ही तमाम तरह के वाक्य ठीक वैसे ही कूदते हुए सामने आए, जैसे किसी आलसी व्यक्ति की आलमारी खोलने पर कपड़े एक-एक करके कूदते हुए गिरने शुरू हो जाते हैं. अजब-अजब से वाक्य प्रकट हुए. कुछ का तो मतलब ही नहीं समझ आ रहा था.

एक जगह लिखा था; "टिप्पणियों को संकुचित करें". दो बार पढने के बाद भी निश्चित नहीं कर पाया कि; 'ये निर्देश है या सलाह.' और निर्देश या सलाह है भी तो इसका मतलब क्या है? टिप्पणियों को संकुचित करने का मतलब कहीं यह तो नहीं कि 'छोटी टिप्पणी ही करें.' मतलब ये कि अगर टिप्पणी दो लाइन से बड़ी होगी तो ठीक नहीं होगा टाइप. या फिर यह कि; 'संकुचित विचारों वाली टिप्पणी दें.'

खैर, एक लाइन की 'संकुचित' टिप्पणी लिखकर पोस्ट कर दिया. पोस्ट करते ही संदेश निकलकर सामने आ खड़ा हुआ. लिखा था; "आपकी टिप्पणी सहेज दी गई है और ब्लॉग स्वामी की स्वीकृति के बाद दिखने लगेगा." पढ़कर हंसी आ गयी. टिप्पणियों का महत्व पहली बार पता चला. संदेश पढ़कर लगा जैसे इस मंहगाई के दौर में केवल आटा, चावल, दाल और तेल ही मंहगे नहीं हैं. इन चीजों के साथ टिप्पणी भी मंहगी हो गयी है. घर में चावल, दाल, तेल वगैरह सहेज कर रखे जाते हैं, और ब्लॉग पर टिप्पणियां. लगा कि कहीं ऐसा न हो कि सरकार अगले बजट में टिप्पणियों को भी इन्फ्लेशन नापने वाले होलसेल प्राईस इंडेक्स में बाकी के चीजों के साथ डाल दे.

और 'ब्लॉग स्वामी' शब्द भी बड़ा झकास टाइप लगा. पढ़कर लगा जैसे किसी चंद्रास्वामी या सुब्रामनियम स्वामी के भाई की बात हो रही है. खैर, इतना तो आईडिया लग चुका था कि ब्लॉग स्वामी का 'हिन्दी' पक्के तौर पर 'ब्लॉग ओनर' ही होगा. लेकिन एक बार ये विचार भी मन में आया कि; 'पुरूष ब्लॉगर के लिए ब्लॉग स्वामी शब्द का उपयोग होता है तो महिला ब्लॉगर के लिए ब्लॉग स्वामिनी लिखा जाता है या नहीं. खैर, ये बात तो आज किसी महिला ब्लॉगर का ब्लॉग देखकर ही पता चलेगा. वो भी कोई ऐसा ब्लॉग जहाँ 'टिप्पणी माडरेशन सक्षम किया हुआ हो.

फिर एक जगह लिखा था; 'आपकी टिप्पणियों से हमें लिखने की प्रेरणा मिलती है.' ये वाक्य पढ़कर लगा जैसे समीर भाई की सादगी के पहाड़ के नीचे दब गए. समीर भाई को आज भी प्रेरणा पाठकों की टिप्पणियों से मिलती है. हमारे बंगाल में इसे कहते हैं; विनोयेर ओहोंकार, मतलब 'विनय का अंहकार'. वैसे इसे पढ़कर मुझे अमिताभ बच्चन साहब के बोल याद आ गए. जब भी उन्हें इंटरव्यू में देखता हूँ, अक्सर ये कहते हुए सुने जाते हैं; "देखिये, हम तो मजदूर हैं. हम यहाँ आते हैं. कैमरे के सामने काम करते हैं और अपना पारिश्रमिक लेकर चले जाते हैं. हम कोई बड़े कलाकार नहीं हैं." ठीक समीर भाई की तरह, जिन्हें आज भी पाठकों की टिप्पणियों से प्रेरणा मिलती हैं.

आप कमेन्ट को टिप्पणियों के पर्यायवाची शब्द के रूप में जानते ही हैं. लेकिन इसका एक पर्यायवाची और है. सदुपदेश. जी हाँ, अभय जी के ब्लॉगपर टिप्पणियों को सदुपदेश कहा जाता है. हाल ही में पता चला कि हम ब्लॉगर टिपण्णी करते हुए लजाते भी हैं. प्रमोद जी ने साफ़-साफ़ कह दिया है; "लजाईये नहीं, टिपियाईये." ये अलग बात है कि लजाने के लिए मना करते हुए उन्होंने कमेन्ट माडरेशन लगा रखा है. अब ऐसे में टिप्पणी करने वाला तो यही सोचकर लजा उठेगा कि 'बिना लजाये की गई टिप्पणी को अगर 'ब्लॉग स्वामी' ने नहीं छापा तो? ये तो वैसी बात हो गई कि खाना सामने रख के किसी ने हाथ बाँध दिया हो. लेकिन कुछ बेनामी, अनामी, सुनामी जरा भी नहीं लजाते. टिपियाय देते हैं, जिसके कभी-कभी अद्भुत परिणाम होते हैं.

खैर, टिप्पणियों का किस्सा अनंत है. मैं पहला ब्लॉगर नहीं हूँ, जिसने टिप्पणियों के ऊपर चिंतन किया है. ऐसा पहले भी होता आया है और आगे भी होता रहेगा.

वैसे, टिप्पणियों पर इस चिरकुट चिंतन पर आप टिपण्णी जरूर दीजियेगा. प्लीज...

Thursday, July 17, 2008

ओलिम्पिकोत्सव का निमंत्रण पत्र - एक चिरकुट पोस्ट




चीन में ओलिम्पिक उत्सव के दिन नज़दीक आ गए हैं. तैयारी जोरों पर है. वैसे तो तैयारी पिछले चार सालों से चल रही है. बहुत सारा लोहा और सीमेंट खप चुका है. क्रूड आयल की तो पूछिए ही मत. जिन लोगों ने चीन को नज़दीक से देखा है वे ही बता सकते हैं कि किस तरह से तैयारी चल रही होगी. हाँ अगर लेकिन मुझे पूछेंगे तो शायद तैयारी का वर्णन कुछ इस तरह से हो;

कागजों की लाल-हरी, नीली-पीली पन्नियाँ सजाई जा रही होंगी. रस्सी में बंधे आम्रपत्रों ने लटकने की प्रैक्टिस शुरू कर दी होगी. घर-द्वार सजने शुरू हो गए होंगे. लाऊडस्पीकर पर "मैं तो रस्ते से जा रहा था" का चीनी संस्करण बज रहा होगा. नज़दीक के रिश्तेदार जैसे हांगकांग, सिंगापुर वगैरह के लोग अभी से आना शुरू हो गए होंगे. तिब्बतियों को ख़ास तौर पर इन कामों में लगाया गया होगा, जिससे पूरी दुनियाँ की मीडिया को पता चले कि तिब्बती भी खुश हैं. ठीक वैसे ही जैसे हम अपने यहाँ शादी-व्याह पर गाँव वालों को बुला लेते हैं. ये बताने के लिए कि पूरे गाँव में हमारे सम्बन्ध सबके साथ बहुत अच्छे हैं.

बहुत बड़े भट्ठे पर कडाहा चढ़ गया होगा और उस कडाहे में चाऊमीन उबल रहा होगा. एक दूसरे भट्ठे पर छोटा कडाहा चढ़ा दिया गया होगा और उसमें वेजीटेबल मंचूरियन या फिर चिली पनीर और चिली पोटैटो पकाया जा रहा होगा. हाँ, यह हो सकता है कि पनीर को स्क्वायर में नहीं काटा गया होगा. स्क्वायर शब्द से चीन वालों को डर लगता है. अभी तक स्कावर भूल नहीं पाये होंगे. नॉनवेजिटेरियन लोगों के लिए अलग से भंडारा होगा. जहाँ चिकेन मंचूरियन और चिली चिकेन बन रहा होगा. साथ में चिकेन फ्राईड राइस वगैरह भी.

ॐ ड्रैगनायह नमः लिखकर निमंत्रण पत्र भी भेजना शुरू हो गया है. "भेज रहा हूँ नेह-निमंत्रण प्रियवर तुम्हें बुलाने को, हे मानस के राजहंस तुम भूल न जाना आने को", नामक दोहा (या फिर जो भी हो, इसका निर्णय हिन्दी के डॉक्टर करेंगे), लिखते हुए चीन वालों ने सभी देशों के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों को निमंत्रण पत्र भेज दिया है. लेकिन यहाँ पंगा हो गया है. भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को निमंत्रण पत्र नहीं भेजा गया. भारत के लिए चीन वालों ने सोनिया गांधी जी को निमंत्रण भेज डाला. वे सोनिया जी को ही देश का सर्वे-सर्वा समझ रहे हैं. चीन के लिए सोनिया जी ही राष्ट्रपति और वही प्रधानमंत्री. लोग शिकायत करते हुए कयास लगा रहे हैं कि बाकी देशों के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को बुलाया गया लेकिन भारत के नहीं. भारत से सोनिया जी को बुलाया गया. अब इसे शिकायत समझें या खुशी के बोल?

लेकिन ऐसा क्यों हुआ कि सोनिया जी को निमंत्रण पत्र भेजा गया लेकिन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को नहीं? कारण चाहे जो भी हो, मुझे तो लगता है कि ये सोनिया जी के चीन दौरे की वजह से हुआ होगा. जब वे वहां गई थीं तो चीन वालों ने पूछा होगा; "आपके देश का राष्ट्रपति कौन है?"

डेलिगेशन में से कोई अतिविश्वासी प्राणी बोला होगा; "अरे आप राष्ट्रपति वगैरह पर ध्यान मत दीजिये. जो हैं, मैडम ही हैं. आप इन्ही के नाम निमंत्रण पत्र भेजिए. आप चाहे तो मैडम से ही उदघाटन भी करवा सकते हैं. आप उन्ही के नाम में भेजिए, मैडम अगर नहीं आ सकीं तो वे राष्ट्रपति को भेज देंगी."

बस चीन वालों ने भेज दिया होगा. बरुआ जी ने इंदिरा जी के लिए कहा था कि "इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इस इंदिरा." वैसे ही इस केस में भी किसी ने कह दिया होगा. ये अलग बात है कि अभी तक ये बात सामने नहीं आई है.

छोटे-छोटे प्रोटोकाल के टूट जाने से जो हाय-तौबा मचती है, इस बार नहीं मची. कैसे मचेगी, सब तो न्यूक्लीयर डील में बिजी हैं. मेरा एक मित्र कल कहा रहा था; "देखा कि नहीं? चीन वाले भी सोनिया जी को ही राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री मानते हैं."

मैंने कहा; "व्यवाहरिकता भी कोई चीज है भईए. जब हमारे देश में लोग मानते हैं तो चीन वालों ने मानकर कोई गुनाह कर दिया क्या?"

वैसे, आप क्या सोचते हैं, अगर ये चिरकुट पोस्ट पढ़ें, तो जरूर बताते जाईयेगा.

Tuesday, July 15, 2008

'हम बेशर्मी के स्वर्णकाल में जी रहे हैं.




अपने देश में दो तरह के नेता होते हैं. एक वे जो डिमांड में रहते हैं और दूसरे वे जो रिमांड में रहते हैं. जैसे अमर सिंह जी आजकल डिमांड में हैं. 'न्यू-क्लीयर डील' को पास कराने का बीड़ा उठाकर राष्ट्रहित में काम करने का जो साहस उन्होंने किया है वैसा बिरले ही कर पायेंगे. पिछले पन्द्रह दिनों से हर टीवी चैनल पर वही दिखाई दे रहे हैं. एक पत्रकार ने उनक इंटरव्यू लिया था लेकिन वो इंटरव्यू प्रसारित नहीं हो सका. प्रस्तुत है वही इंटरव्यू. टीवी पर नहीं प्रसारित हो सका तो क्या हुआ, ब्लॉग पर ही सही.

पत्रकार: "स्वागत है आपका अमर सिंह जी. हमारे कार्यक्रम में आपका बहुत-बहुत स्वागत है."

अमर सिंह: "देखिये, फालतू की बातों के लिए समय नहीं है हमारे पास. आप जल्दी से अपने सवाल पूछिए. हमें आधे घंटे बाद बीबीसी पर इंटरव्यू देना है. उसके बाद सीएनएन पर जाना है. उसके बाद हमें रेडियो अफ्रीका के लिए..."

पत्रकार: " नहीं-नहीं, ऐसा मत कहिये. ये तो हम तो औपचारिकता निभा रहे थे."

अमर सिंह: "आप पत्रकार भी क्या-क्या निभा जाते हैं. नेताओं से दोस्ती निभाने के लिए कहते हैं और ख़ुद केवल औपचारिकता निभाते हैं. खैर, कोई बात नहीं. आप सवाल दागिए."

पत्रकार: "सवाल दागना नहीं है. मैं तो सवाल पूछूंगा."

अमर सिंह: "वो तो देखिये ऐसे ही मुंह से निकल आया. जब से 'न्यू-क्लीयर' डील में उलझा हूँ, दागना, फोड़ना जैसे शब्द जबान पर आ ही जाते हैं. वैसे, आप सवाल पूछिए."

पत्रकार: "मेरा सवाल आपसे यह है कि आपने कैसे फ़ैसला किया कि न्यूक्लीयर डील राष्ट्रहित में है?"

अमर सिंह: "आप किस तरह के पत्रकार हैं? आपको पता नहीं है कि हमने सबसे पहले न्यूक्लीयर डील को लेकर डाऊट किया, तब जाकर जान पाये कि ये डील राष्ट्रहित में है."

पत्रकार: "अच्छा, अच्छा. हाँ, वो मैंने पढ़ा था. आपके डाऊट के बारे में. वैसे एक बात ये बताईये, आपके वामपंथी साथियों ने न्यूक्लीयर डील को राष्ट्रहित में क्यों नहीं माना?"

अमर सिंह: "डाऊट नहीं किया न. डाऊट किया होता तो उन्हें भी पता चलता कि ये डील राष्ट्रहित में है."

पत्रकार: "लेकिन उनके डाऊट नहीं करने के पीछे क्या कारण हो सकता है? मतलब, आपको क्या लगता है?"

अमर सिंह: "मैंने पूछा था. मैंने कामरेड करात से पूछा था. मैंने पूछा कि 'आपने डाऊट क्यों नहीं किया?' वे बोले 'हम तो साढ़े चार साल से डाऊट कर के राष्ट्रहित में काफी कुछ कर चुके हैं. अब आपको मौका देते हैं कि न्यूक्लीयर डील पर डाऊट करके आप भी राष्ट्रहित में कुछ कीजिये."

पत्रकार: "ओह, तो ये बात है. लेकिन आपने समझाया नहीं कि आपदोनों मिलकर भी तो राष्ट्रहित में कुछ कर सकते हैं?"

अमर सिंह: "हमने तो कहा था. हमने कहा कि आधा डाऊट हम कर लेते हैं, आधा आपलोग कर लीजिये. हम अपने डाऊट का समाधान डॉक्टर कलाम से करवा लेंगे. आपलोगों को डॉक्टर कलाम पसंद नहीं हैं तो आप ऐसा कीजिये कि अपने डाऊट का समाधान किसी चीन के वैज्ञानिक से करवा लीजियेगा."

पत्रकार: "क्या जवाब था उनका?"

अमर सिंह: "कुछ साफ़ नहीं पता चला. वे कुछ बुदबुदा रहे थे. मुझे लगा जैसे कह रहे थे 'चीन के कारण ही तो सारा झमेला है.'"

पत्रकार: "वैसे आप ये बताईये कि डॉक्टर कलाम से मिलने के बाद आपके सारे डाऊट क्लीयर हो गए?"

अमर सिंह: "बहुत अच्छी तरह से. उनसे मैंने और राम गोपाल यादव जी ने इतनी शिक्षा ले ली है कि हम दोनों न्यू-क्लीयरोलोजी में मास्टर बन गए हैं. अब तो हम भारत ही नहीं बल्कि ईरान, पाकिस्तान, उत्तरी कोरिया जैसे देशों का न्यूक्लीयर डील पास करवा सकते हैं."

पत्रकार: "माफ़ कीजियेगा, लेकिन न्यू-क्लीयरोलोजी नहीं बल्कि उस विषय को न्यूक्लीयर फिजिक्स कहते हैं."

अमर सिंह: "हा हा हा हा. वैसे आपकी गलती नहीं है. मैं साइंस की नहीं बल्कि आर्ट की बात कर रहा था. न्यू-क्लीयरोलोजी का मतलब वो कला जिसमें न्यू-क्लीयर डील पास कराने की पढाई होती है."

पत्रकार: "अच्छा, अब जरा इस डील से उपजी राजनैतिक परिस्थितियों पर बात हो जाए. अफवाह है कि आपने केन्द्र सरकार को इस मुद्दे पर समर्थन इस शर्त के साथ दिया है कि वो मायावती जी के ख़िलाफ़ सीबीआई से कार्यवाई करने को कहे. क्या यह सच है?"

अमर सिंह: "यह बात बिल्कुल ग़लत है. देखिये सुश्री मायावती के ख़िलाफ़ सीबीआई के पास सुबूत तो पिछले तीन सालों से थे. लेकिन सीबीआई के लिए काम करने वाले पंडितों और ज्योतिषियों ने सीबीआई को सुबूत अदालत में दाखिल करने से रोक रखा था. पंडितों ने कहा था कि अगर ये सुबूत साल २००८ के जुलाई महीने में अदालत को दिए जाय, तो ये सीबीआई के लिए शुभ होगा. पंडित लोग तो मनुवादी हैं न. वे तो शुरू से मायावती जी के पीछे पड़े हैं."

पत्रकार: "अच्छा, अच्छा. तो ये बात है. लेकिन अमर सिंह जी, आपको नहीं लगता कि अब आप उसी सरकार को समर्थन दे रहे हैं, जिस सरकार से आप लड़े."

अमर सिंह: "देखिये, हमारा ऐसा मानना है कि राजनीति में लड़ाई नहीं होती है. विरोध करना एक बात है और फिर उन्ही विरोधियों के साथ मिल जाना सर्वथा दूसरी. हम पहले विरोध करते हैं. जब देखते हैं कि विरोध से कुछ नहीं होनेवाला तो हम मिल जाते हैं. अभी हम और कांग्रेस मायावती जी के विरोध में हैं. लेकिन कल को मायावती जी केन्द्र में आ जायेंगी तो हम साथ भी हो सकते हैं."

पत्रकार: "लेकिन आप उनलोगों के साथ कैसे रह सकते हैं जिनसे आप झगड़ चुके हैं? आपने ख़ुद एक बार लालू जी को भांड कह दिया था."

अमर सिंह: "देखिये इस मामले में मुझे यही कहना है कि आई हैव बीन मिसकोटेड. भांड शब्द का मतलब यहाँ कुछ और ही था. देखिये मैं कलकत्ते में पला बढ़ा हूँ. और कलकत्ते में कुल्हड़ को भांड कहा जाता है. मैंने तो केवल ये कहा था कि लालू जी कितने प्यारे हैं. बिल्कुल कुल्हड़ की तरह. और दूसरी बात ये कि कुल्हड़ मिटटी से बनता है और लालू जी मिट्टी से जुड़े नेता हैं. मैंने तो उनकी तारीफ़ की थी."

पत्रकार: "तो आपको क्या लगता है, आप संसद में सरकार का बहुमत साबित कर पायेंगे?"

अमर सिंह: "बिल्कुल, पूरी तरह से. हमारे साथ ३०० सांसद हैं."

पत्रकार: "लेकिन अफवाह है कि सांसद खरीदे जा रहे हैं. कल बर्धन साहब ने कहा कि पच्चीस करोड़ में एक बिक रहा है."

अमर सिंह: "मैं इस पर कुछ कमेन्ट नहीं करना चाहता. बर्धन साहब का तो कोई सांसद बिका नहीं है. उन्हें कैसे पता क्या रेट चल रहा है."

पत्रकार: "अच्छा ये बताईये कि ये बात कहाँ तक जायज है कि आप अपने उद्योगपति मित्रों का एजेंडा राजनीति में ले आयें?"

अमर सिंह: "देखिये मैंने माननीय प्रधानमंत्री के सामने कुछ मांगे रखी हैं. लेकिन ये सभी मांगे राष्ट्रहित में हैं. हाँ, अब इन मांगों से अगर हमारे मित्रों का भला हो जाए, तो वो तो संयोग की बात है. हमारे मित्रो के लिए इस तरह का फायदा केवल एक बायप्रोडक्ट है. ठीक वैसे ही जैसे हम साम्प्रदायिकता की समस्या को दूर करने के लिए कांग्रेस के साथ आए हैं. अब ऐसे में अगर न्यूक्लीयर डील पास हो जाए, तो वो महज एक संयोग समझा जाय."

पत्रकार: "वैसे आपने प्रधानमंत्री से अम्बानी भाईयों के झगडे को सुलझाने की बात कही. क्या यह सच है?"

अमर सिंह: "हाँ. यह बात सच है. मैंने प्रधानमंत्री से कहा है कि दोनों भाईयों का झगडा अगर सुलझ जाता है तो वो राष्ट्रहित में होगा."

पत्रकार: "मतलब ये कि दोनों भाईयों का हित ही असली राष्ट्रहित है."

ये सवाल सुनकर अमर सिंह जी कुछ बुदबुदाए. लगा जैसे कह रहे थे, ' दोनों का झगडा सुलझ जाए तो मैं दोनों के नज़दीक रहूँगा. असल में तो मेरा हित होगा. मेरा हित मतलब राष्ट्रहित है.'

उनकी बुदबुदाहट बंद होने के बाद पत्रकार भी कुछ बुदबुदाया. मानो कहा रहा हो; 'हम बेशर्मी के स्वर्णकाल में जी रहे हैं.'

Monday, July 14, 2008

रामचंद्र कह गए सिया से....




हमारे मुहल्ले में परसों रात एक बेटी ने अपनी माँ को जला दिया. जलने से माँ की मृत्यु हो गई. मामला यह था कि इस माँ के पास एक तीन मंजिला इमारत थी. वैसे तो बेटी अकेली संतान थी और कानून के मुताबिक ये तीन मंजिला इमारत उसे ही मिलती लेकिन आजकल लोगों का कानून पर से विश्वास उठ गया है. लिहाजा बेटी ने कानून पर विश्वास न करते हुए मकान तुंरत अपने नाम करने के लिए माँ को जला डाला. मुहल्ले वाले बता रहे थे कि बेटी जब भी ससुराल से आती तो अपनी माँ के साथ माकन को लेकर झगडा जरूर करती.

मजुमदार साहबमुझे समझाते हुए कह रहे थे; "कलयुग है मिश्रा जी. इस कलयुग में सबकुछ सम्भव है."

उनकी बात सुनकर मुझे लगा कि ये तो बड़ा सरल है. कलयुग के नाम का सहारा लेकर हम कुछ भी कर सकते हैं. चोरी, डकैती ही नहीं कत्ल कर दीजिये और कह दीजिये कि; "मैं क्या करूं, कलयुग ने कत्ल करवा दिया मुझसे." माना कि रामचंद्र ने सिया से कहा था; "ऐसा कलयुग आएगा, हंस चुंगेगा दाना ...कौवा मोती खायेगा....लेकिन उनकी बात कौवा और हंस तक ही जाकर रुक गई थी. शायद इतनी भयावह स्थिति के बारे में स्वयं उन्होंने ने भी नहीं सोचा होगा. अगर सोचते तो कौवा और हंस से आगे की भी बात जरूर करते. आख़िर भगवान थे.

कुछ भी कर दीजिये और उसका जिम्मेदार किसी को खोजकर बना दीजिये. कल को ऐसा भी हो सकता है कि ये 'बेटी' कह दे, "मेरा दोष नहीं है. मैं तो कबीर जी के दोहे "काल करे सो आज कर, आज करे सो अब" का बड़ी तन्मयता से पाठ करती थी. इस पाठ करने का मेरे ऊपर उचित प्रभाव भी पड़ा. मुझे लगा कि पता नहीं ये मकान कब मेरे नाम होगा. चलो आज ही इस काम को कर डालते हैं."

कबीर और कलयुग को दोष देने से मन न भरे तो जमाने को दोष दे डालिए. कह सकते हैं; "क्या करें, ज़माना ही ऐसा है. खर्चा कितना बढ़ गया है. सब अपने बारे में सोचते हैं." अरे बाबा ज़माना तो हर जमाने में ख़राब था. आज से सौ साल पहले भी बाप अपने बेटे के रंग-ढंग देखकर कहता था; "बरखुरदार के रंग-ढंग ठीक नहीं दिखाई दे रहे." इतना कहकर जोड़ देता था; "वैसे क्या करोगे, ज़माना ही ख़राब आ गया है." आज भी बाप अपने बेटे के बारे में वही सबकुछ कहता है. लेकिन ज़माना क्या इतना ख़राब आ गया है कि बेटे-बेटी ही माँ-बाप की जान ले लें? वो भी जायदाद के लिए. अरे पहले पड़ोसी जायदाद वगैरह दखल कर लेते थे. अब तो इस तरह के पुण्य वाले काम पर से पड़ोसियों का कॉपीराईट जाता रहा.

अपने व्यक्तिगत दुर्गुणों को छिपाने के लिए हम चादर तलाश करते रहते हैं. इस तलाश में हमेशा कुछ न कुछ खोज भी लेते हैं. ठीक वैसे ही जैसे मजुमदार साहब ने कलयुग को खोज लिया. कहते हैं सामाजिक बदलाव आ रहा है. लेकिन सामाजिक बदलाव इस तरह का आएगा, इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती. पिछले साल ऐसी ही एक घटना मेरठ में हुई थी. जब पढ़े-लिखे और पैसे वाले व्यक्ति ने जायदाद के लिए ही अपनी माँ का कत्ल कर दिया था. अब ऐसा क्यों हुआ इसके बारे समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक अपना ज्ञान बहा सकते हैं लेकिन एक आम आदमी के लिए तो यही बात है कि इस तरह की घटनाएं धीरे-धीरे बढ़ती जा रही हैं.

चलिए आपको उदय प्रताप सिंह जी की एक गजल पढ़वाता हूँ. मुझे बहुत पसंद है.

पुरानी कश्ती को पार लेकर, फ़कत हमारा हुनर गया है
नए खेवैये कहीं न समझें, नदी का पानी उतर गया है

तुम होशमंदी के ऊंचे दावे, किसी मुनासिब जगह पे करते
ये मयकदा है, यहाँ से कोई कहीं गया, बेखबर गया है

न ख्वाब बाकी है मंजिलों के, न जानकारी है रहगुजर की
फकीर-मन तो बुलंदियों के शिखर पे जाकर ठहर गया है

हुआ तजुर्बा यही सफर में, वो रेल का हो या जिंदगी का
अगर मिला भी हसीन-मंजर, पलक झपकते गुजर गया है

उदास चेहरे की झुर्रियों को बरसती आँखें बता रही थीं
हमारे सपनों को सच बनाने जिगर का टुकड़ा शहर गया है

'उदय' के बारे में कुछ न पूछो, पुरानी मस्ती अभी जवां है
कि बज्म-ए-यारा में शब गुजारी, पता नहीं अब किधर गया है

Thursday, July 10, 2008

बिन लादेन की कविताई




जैसा कि मैंने अपनी एक पोस्ट में लिखा था, मनोरंजन के लिए मुझे सबसे ज्यादा भरोसा हिन्दी टीवी न्यूज़ चैनल पर है. थियेटर में जाकर सिनेमा देखना इस मंहगाई के जमाने में बड़ा कठिन काम है. शाम को घर पहुंचकर खाना खाते समय न्यूज़ चैनल देख लेता हूँ. मन में सोच लेता हूँ की सिनेमा हाल में बैठा पॉपकॉर्न खा रहा हूँ. टीवी न्यूज़ चैनल पर मनोरंजन भी सिनेमा से बेहतर ही मिलता है.

कल रात अवार्ड्स की हैट्रिक करने वाले सर्वश्रेष्ठ न्यूज़ चैनल, आजतक पर मनोरंजन कर रहा था. विशेष दिखाया जा रहा था. कार्यक्रम की भूमिका बाँधने वाला बड़े जोर-जोर से (करीब ३०० डेसिबल कैपसिटी में) आवाज लगा रहा था; "जी हाँ. उसने दे डाली है धमकी. कर देगा वो यूरोप और अमेरिका को तबाह. कौन है वो? जी हाँ, वो है ओसामा बिन लादेन का अट्ठारवां पुत्र, हमजा बिन लादेन. देखिये मासूम सा दिखने वाला सोलह साल का ये लड़का कितना खतरनाक है. जी हाँ, उसने लिख डाली है आतंकवाद पर एक खतरनाक कविता."

सुनकर लग रहा था जैसे हमजा बिन लादेन ने अपने विज्ञापन के लिए इस अनाऊंसर पर सबसे ज्यादा भरोसा किया होगा. शायद लोगों को आतंकित करने के लिए इससे बढ़िया रास्ता नहीं दिखा हो उसे. पूरा समाचार देखने के बाद पता चला कि ये विशेष कार्यक्रम हमजा बिन लादेन को लेकर हैं. ये ओसामा बिन लादेन जी के साहबजादे हैं. सोलह साल के हैं. तस्वीर में बहुत सुंदर दिख रहे थे. देख कर मन में बात आई कि ये बंबई में रहते तो अब तक किसी स्कूली प्रेम कहानी वाली फिलिम में हीरो बन चुके होते. लेकिन इस बात का भी डाऊट था कि ये हीरो बनने जैसा टुच्चा काम उन्हें भाता?

खैर, अनाऊंसर बहुत प्रभावित दिखा ओसामा के इन साहबजादे से. अनाऊंसर के अनुसार; "ये बिन लादेन कितना खतरनाक है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि केवल सोलह साल की उम्र में ही इसने लिख दी है एक खतरनाक कविता. जी हाँ, ये वही शख्स है जिससे बेनजीर भुट्टो ने अपनी जान को खतरा बताया था." सुनकर मुझे लगा; अच्छा हुआ कि ये कविता वाली बात अब जाकर पता चली नहीं तो पाकिस्तान सरकार बेनजीर के मरने को लेकर एक थ्योरी ये भी दे सकती थी कि; "ओसामा बिन लादेन के साहबजादे ने बेनजीर को कविता सुनाई जिससे बेनजीर की मौत हो गई."

आप उस खतरनाक कविता को पढ़ना चाहेंगे? ठीक है, मैं कविता यहाँ छाप रहा हूँ. लेकिन ऐसी खतरनाक कविता पढ़ने के बाद आपको कुछ हो जाए तो आप मुझे दोष न दें. इस 'कुछ होने' के जिम्मेदार हमजा साहब को ही मानें. ये रही वो खतरनाक कविता;

या खुदा मुस्लिम देश के नौजवानों को रास्ता दिखाओ
या खुदा जो जेहाद के रास्ते पर जाना चाहते हैं, उनकी मदद करो
या खुदा तालिबानियों को विजयी बनाओ
या खुदा उन्हें पकड़ने वालों को अँधा बना दो

कविता सुनकर मुझे लगा कि अब आतंकवादी भी आतंक फैलाने के लिए कविता का सहारा ले रहे हैं! लेकिन ऐसा क्या हो गया कि ओसामा के साहबजादे को कविताई की शरण लेनी पड़ी? क्या ये भी इस बात को मान चुके हैं कि एके ५६ और बम वगैरह फोड़कर जितना आतंक नहीं फैलाया जा सकता, उससे ज्यादा आतंक कविता लिखकर फैलाया जा सकता है? खैर, बहुत सोचने के बाद मुझे लगा कि शायद ऐसा कुछ हुआ हो;

एक दिन जब ओसामा जी अपनी खटिया पर लेटे बन्दूक, बम और गोलियों का हिसाब कर रहे थे तो ये साहबजादे दरवाजे पर पधारे. दरवाजे पर दस्तक देते हुए बोले; "अब्बा हुज़ूर हम अन्दर आ सकते हैं?"

उसे देखकर ओसामा जी खुश होते हुए बोले; "आओ आओ, बरखुरदार. आओ मेरे नज़र के नूर, मेरे लख्त-ए-जिगर. मेरे..."

"बस-बस. बस कीजिये अब्बा हुज़ूर. और नीचे मत जाइये"; हमजा ने कहा.

"क्यों बेटा? क्या हुआ? मैं तो तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ"; ओसामा जी ने बड़े प्यार से अपने साहबजादे को देखते हुए कहा.

उनकी बात सुनकर पुत्र ने मुंह बिचकाते हुए कहा; "प्यार-व्यार तो ठीक है. लेकिन मुझे डर था कि कहीं नज़र के नूर और लख्त-ए-जिगर कहने के बाद आप मुझे अपनी किडनी के टुकड़े न कह बैठें. इसीलिए मैंने आपको रोक दिया. आपकी किडनी ख़राब है न."

ओसामा जी को याद आया कि उनकी किडनी ख़राब है. खैर, पुत्र को देखते हुए बोले; "और कहो बेटा, कैसे आना हुआ?"

"अब्बा हुज़ूर, वैसे तो मुझे विश्वास है कि आपने मुझे सबकुछ सिखा ही दिया है लेकिन और कोई गुर है जो आप बताना भूल गए हैं? अगर ऐसा है तो आप बताएं"; हमजा जी ने अब्बा हुज़ूर से कहा.

ओसामा जी ने चेहरे पर सोच के भाव लाते हुए कहा; "क्या बाकी है...क्या बाकी है? हाँ, एक बात मैं बताना भूल गया तुमको. और वो बात है कविता लिखना. बेटा बहुत सी बातों को कविता के द्बारा सही ठहराया जा सकता है. ये बात मुझे भी पता नहीं थी लेकिन ,जब से हिंद में एक पुलिस अफसर ने अपनी कविता में मेरी बात कही मुझे कविता की ताकत का पता चला. तुम भी कविता लिखना सीख लो."

पुत्र ने आश्चर्य भाव से अब्बा हुज़ूर को देखा. बोले; "ये आप क्या कह रहे हैं? अरे बम फोड़ने के लिए कहते, दो-चार हज़ार लोगों को मारने के लिए कहते. ये सब काम मेरे बस का है. लेकिन कविता?"

"देखो, एक बार ट्राई मारो. अगर कविता लिखना सीख जाओगे तो एक ऐडेड एडवांटेज हो जायेगा"; ओसामा जी ने समझाते हए बताया.

बात आई-गई हो गई. एक दिन जब साहबजादे ने नमाज़ पढ़कर खुदा को अपना आप्लिकेशन थमाते हुए कहा; या खुदा मुस्लिम देश के नौजवानों को रास्ता दिखाओ..या खुदा जो जेहाद के रास्ते पर जाना चाहते हैं, उनकी मदद करो या खुदा तालिबानियों को विजयी बनाओ...या खुदा उन्हें पकड़ने वालों को अँधा बना दो"

उनके आस-पास बैठे चमचे बोल पड़े; " क्या कविता है. क्या भाव है."

साहबजादे के कान तक बात पहुँची तो उन्होंने पूछ लिया; "अरे किस बात का भाव बढ़ गया भाई? एके ५६ मंहगी हो गई या उसकी गोलियां?"

उनकी बात सुनकर चमचों को हंसी आ गई. ये सोचते हुए कि मृग को ही नहीं मालूम रहता कि उसके अन्दर ही कस्तूरी बसती है, उन्होंने कहा; "नहीं-नहीं जनाब, हम तो कह रहे थे कि क्या कविता पढी है आपने. वाह!"

"कविता? मैंने कब कविता पढ़ी?"; आश्चर्य से साहबजादे ने पूछा.

"अरे, यही जनाब, ये जो आपने अभी कहा. या खुदा वाली...ये कविता ही तो है"; चमचों ने समझाया.

"क्या बात कर रहे हो! ये कविता है? अरे इसमें न छंद हैं, न अलंकार है"; साहबजादे ने अपनी शंका दर्ज करवाई.

"यही तो असली कविता है जनाब. जो सीधे मन से निकले. वो छंद-वंद का ज़माना गया अब"; चमचों ने जानकारी देते हुए बताया.

"अरे, अगर ऐसा है तो कल से नमाज के बाद मैं खुदा को जो अर्जी लगाता हूँ, उसे नोट कर लिया करो. इस तरह से अगर चालीस दिन भी नोट कर लिए तो फिर काबुल के किसी प्रकाशक के यहाँ से काव्य-संग्रह छपवा सकते हैं"; ओसामा जूनियर खुश होते हुए बोले.

"और; आपकी इस पहली कविता का क्या करें, जनाब?"; चमचों ने पूछा.

कुछ सोचने के बाद ओसामा जूनियर बोले; "एक काम करो. ये कविता अल-ज़जीरा चैनल को भेज दो. उन्हें बता देना कि ये खतरनाक कविता है." वही कविता अल-ज़जीरा पर प्रसारित होने के बाद दुनिया भर के टीवी न्यूज़ चैनल पर धूम मचा रही है.

दूसरे दिन से चमचों ने नमाज के बाद हमजा साहेब की खुदा को दी जाने वाली अर्जी को नोट करना शुरू कर दिया. जब वे नोट करते हैं तो हमजा बिन लादेन साहेब बैठे हुए सोचते रहते हैं; "कोई कवि बन जाए, सहज संभाव्य है"

Monday, July 7, 2008

चुन्नू सिंह दलाल बनना चाहते हैं




जय प्रकाश सिंह जी मेरे मित्र हैं. पिछले तीन-चार दिनों से परेशान हैं. कारण है उनके पुत्र चुन्नू सिंह का पढ़ाई-लिखाई पर से विश्वास उठ जाना. चुन्नू सिंह जी ने अपने पिताश्री को अपना फैसला सुना दिया है कि वे इंजीनीयर नहीं बनना चाहते. चुन्नू सिंह जी ने अपने भविष्य के प्लान के बारे में सबको सूचना देते हुए साफ़ कर दिया है कि वे दलाल बनना चाहते हैं.

मैंने जब चुन्नू सिंह के फैसले के कारणों का पता करना चाहा तो जय प्रकाश जी ने मुझे एक निबंध थमा दिया. ये निबंध पुराणिक जी के उसी छात्र ने लिखा था, जिसकी अपनी एक निबंध लेखन की कंपनी है और जो विदेशी छात्रों और अध्यापकों को 'भारतीय मुद्दों' पर केपीओ की सर्विस देता है. आप निबंध पढ़े.


दलाल - एक निबंध

भारतीय समाज में दलालों और दलाली का बहुत बड़ा महत्व है. वैसे तो देश में दलाली के पेशे का महत्व आदिकाल से है लेकिन पिछले दो-तीन सौ सालों से इस पेशे की गिनती सबसे महत्वपूर्ण पेशे के रूप में की जाती है. दलाल शब्द मूलतः दो शब्दों के मिलने से बना है. दल और लाल. मतलब यह है कि जो भी व्यक्ति किसी दल के साथ जुड़कर लाल हो जाए, उसे दलाल कहते हैं. यहाँ मैं यह क्लीयर कर देना चाहता हूँ कि दल का मतलब केवल राजनैतिक दल से नहीं है. दलाल शब्द के बारे में मेरी जानकारी इतनी ही है. इस शब्द के व्युत्पत्ति और सफर के बारे में पूरी जानकारी के लिए पाठकों को अग्रिम अर्जी देने की जरूरत है ताकि प्रसिद्ध शब्द-शास्त्री श्री अजित वडनेरकर की सेवा ली जा सके. ऐसी सेवा की फीस एक्स्ट्रा ली जायेगी.

जब भारत पर अंग्रेजों की हुकूमत थी तब देश के कई राज्यों के शासक और उनके दाएं-बायें बैठने वाले लोग अंग्रेजों की दलाली का काम करते थे. ऐसी दलाली से इन शासकों को पैसा तो मिलता ही था, कभी-कभी कोई पदवी वगैरह भी मिल जाती थी. ऐसे दलालों के लिए ये पदवी बड़े काम की चीज होती थी क्योंकि इस तरह की पदवी कई बार पड़ोसी राज्य के शासकों और नागरिकों को डराने के काम आती थी. देश की आजादी के बाद दलाली के पेशे में अभूतपूर्व बदलाव देखने को मिला. जहाँ एक और अंग्रेजी हुकूमत में केवल राजाओं और शासकों को दलाल बनने का मौका मिलता था, वहीँ आज़ादी के बाद दलाली के पेशे को खोल दिया गया. चूंकि लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी थी, लिहाजा दलाल बनने का मौका देश के हर नागरिक को दिया गया.

साठ के दशक में देश में बहुत से आर्थिक फायदे के क्षेत्रों को दलालों के लिए खोल दिया गया. उद्योग धंधों के लाइसेंस और उनकी स्थापना से लेकर हथियारों की खरीद-फरोख्त, आयात-निर्यात के लाइसेंस और सरकारी नौकरियों जैसे क्षेत्रों को दलाली के लिए खोला गया. नतीजा यह हुआ कि दलालों की डिमांड बढ़ गई. इस दशक में अपनी मेहनत और पहुँच के बल पर कई लोग दलाल बने. नेताओं और अधिकारियों के मित्रों से लेकर उनके रिश्तेदारों ने अचानक आई दलालों की डिमांड का भरपूर फायदा उठाते हुए दलाली में नए-नए कीर्तिमान स्थापित किए. ये दशक देश के इतिहास में राजनैतिक विचारधारा को ढोने वाले दलालों के लिए भी याद किया जाता है. कई पार्टियों ने विदेशी राजनैतिक विचारधारा को देश में फैलाने की दलाली बड़ी तन्मयता के साथ की.

अस्सी के दशक में दलाली के तरीकों में कुछ महतवपूर्ण बदलाव देखने को मिले. इस दशक में सबसे ज्यादा दलाली उद्योग धंधों में दी जाने वाली छूट, उद्योग के लिए मुहैया कराई जाने वाली जमीन और हथियारों में खरीद-फरोख्त में दिखाई दी. जहाँ साठ और सत्तर के दशक में दलाली में लाखों रूपये का आदान-प्रदान होता था, वहीँ अस्सी के दशक में दलाली की मात्रा करोड़ों में पहुँच गई. हथियारों की खरीद-फरोख्त में कई मामले सामने आए, जिसमें करोड़ों रूपये दलाली में दिए और लिए गए. इस दशक में पहली बार भारतीय दलाल इंटरनेशनल हुआ.

नब्बे के दशक में जब आर्थिक सुधार किए गए और वैश्वीकरण को भारत ले आया गया तब अचानक लगने लगा कि उस समय तक देश में दलालों की संख्या आर्थिक सुधारों और वैश्वीकरण से पैदा होनेवाले मौकों के लिए काफी नहीं थी. लिहाजा विदेशों में रहने वाले प्रवासी भारतीय भी दलाली के धंधे में कूद पड़े. नतीजा ये हुआ कि दलालों की संख्या में अभूतपूर्व बढोतरी देखने को मिली. इस दशक में सरकार गिराने और उठाने का काम भी दलालों के हाथ में आ गया.

इक्कीसवीं सदी में भारत में दलाली उद्योग में सबसे बड़ा विकास देखने को मिला. दलाली में दी जाने वाली रकम भी अबतक करोड़ों से बढ़कर अरबों में पहुँच चुकी है. देश में कोई भी क्षेत्र नहीं बचा है जो बिना दलाली के चल सके. सरकार द्बारा किए गए सुधार की वजह से दलाली में नए-नए कीर्तिमान स्थापित हुए. नब्बे के दशक में दलाल के रूप में ख़ुद को स्थापित करने वाले कई लोग उभरे जिनका व्यक्तित्व और जीवन-दर्शन भविष्य के दलालों के लिए प्रेरणास्रोत बना. राजनीति से लेकर उद्योग तक और विदेशी व्यापार से लेकर क्लीयर और अनक्लीयर डील तक, दलाली के दायरे में आ चुके हैं. नब्बे के दशक में दलालों के लिए लायजनिंग आफिसर ओर डीलमेकर जैसे शब्दों का इस्तेमाल भी शुरू हुआ.

जहाँ एक ओर राशन कार्ड, पासपोर्ट और ड्राइविंग लाईसेंस बनवाने जैसे चिरकुट काम छोटे दलालों के हाथ में हैं, वहीँ जमीन दिलाना, हथियारों की डील फाईनल करना, विदेशी जासूसों के लिए सरकारी कागजात निकलना, सरकारों को बचाना और गिराना, विदेशी सप्लायर के लिए कांट्रेक्ट दिलाना जैसे बड़े ओर औकाती काम बड़े दलालों के हाथ में हैं. ये बड़े दलाल लगभग हर क्षेत्र में काम करनेवाले हैं. जैसे पत्रकारों से लेकर इवेंट मैनेजमेंट और उद्योगपति भी दलाली में अपना कैरिएर आजमाने लगे.

एक रिपोर्ट के अनुसार आनेवाले सालों में भारतीय लोकतंत्र पूरी तरह से दलालों की परफार्मेंस पर निर्भर करेगा. विशेषज्ञों का मानना है कि लोकतंत्र के स्टेटस को मेन्टेन करने के लिए कराये गए चुनाव में जनता ओर नेता का रोल केवल वोट देने ओर लेने तक सीमित रहेगा. वोटिंग के बाद का सारा काम जैसे सरकार बनाना ओर उसे गिराना, बिना दलालों के पूरा हो पाना असंभव रहेगा. एक अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्था द्बारा कराये गए सर्वेक्षण के अनुसार साल २०२० तक भारत में दलाली उद्योग का कारोबार करीब एक सौ सत्तर लाख करोड़ तक हो जाने की संभावना है.

कुछ विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि फोर्ब्स मैगजीन साल २०१० से अपनी तमाम लिस्ट में दलालों की रैकिंग और उनकी कमाई का व्यौरा भी छापने का प्लान बना रही है. वैसे कुछ विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि फोर्ब्स जैसी मैगजीन पहले से ही प्राइवेट सर्कुलेशन के लिए ऐसी लिस्ट कई सालों से छाप रही है. अफवाह तो यह भी है कि ऐसी लिस्ट में एक से लेकर पचास रैंक तक सभी नाम भारतीयों के हैं. दलाली उद्योग के भविष्य को देखते हुए कुछ शिक्षा संस्थानों ने अपने करीकुलम में दलाली की पढ़ाई को भी शामिल करने का फैसला कर लिया है. अफवाह है कि कुछ प्रसिद्द और औकाती दलालों ने विदेशी प्रकाशकों के लिए दलाली के ऊपर किताब लिखने के लिए हाँ कर दिया है. कुल मिलकर कहा जा सकता है कि भारतवर्ष में दलाली का भविष्य उज्जवल है.

नोट:

जय प्रकाश जी के द्बारा दिए गए इस निबंध को पढ़कर मुझे लगा कि चुन्नू सिंह ने बड़ा व्यावहारिक फैसला लिया है. आपका क्या कहना है?

Friday, July 4, 2008

अमेरिका के साथ न्यूक्लीयर डील - एक ब्लॉगरीय दृष्टि




सं(वैधानिक) अपील: ब्लॉगर बंधुओं से आग्रह है कि इस अगड़म-बगड़म पोस्ट को फील न किया जाय.

कुछ मुद्दे इतने चिरकुट टाइप होते हैं और उनकी इतनी चर्चा होती है कि बड़े ब्लॉगर ऐसे मुद्दों पर कुछ लिखना नहीं चाहते. जैसे अमेरिका के साथ हुई न्यूक्लीयर डील को लेकर बड़ा बवाल मचा हुआ है. डील होनी चाहिए कि नहीं होनी चाहिए. कहीं ऐसा तो नहीं है कि ऐसी किसी डील से भारत एक बार फिर से पश्चिमी सभ्यता का गुलाम हो जायेगा. अमेरिका भारत को लूट कर कंगाल बना देगा. अब ऐसे सवालों पर नए आए ब्लॉगर तो खूब लिखते है लेकिन बड़े और अनुभवी ब्लॉगर कुछ नहीं लिख रहे. आज मुझे लगा कि अगर बड़े ब्लॉगर लिखते तो क्या लिखते. शायद कुछ ऐसा;

प्रमोद जी

अमीरी की ढील नहीं दिखाई देती?. जो मन जाकर अटक गया है न्यूक्लीयर डील पर..गिरिडीह माफिक किसी अभुलाहट जगह में दस बिस्सा के एक खेत के उत्तर दिशा वाले मेड़ पर सहेज कर रख आयेंगे कागज़...ताकते रहेंगे और आँख की कालिख मेड़ पर विचरेगी..सुख को निहारेगी जैसे सुख फूट पड़ेगा ससुर ढोल की आवाज लिए?...इस सोच के साथ कि डील के कागज़ से गेंहूं उपजेगा...चावल? लडिआहट का ये हाल है कि मन में अखरोट फूट रहे हैं..बाजा बज रहा है? जीवन-पर्जंत लात खाए गरीब अब डील का पेपर खाएँगे...टुटही छाता लिए बलेस्सर मेंड़ पर उकड़ू बैठे मन में बिरहा का तान छेड़ेंगे... अपेक्खा करेंगे धान का?...एक्सपेक्टिंग द अनएक्सपेक्टेड?...माई फुट.

दुनियाँ भर की अमीरी का चिथड़ा भीगा बह रहा है..सड़क पर जमे तीन फीट पानी के ऊपर, खड़गपुर के इंडा में... बच्चे पानी में खेलते इन चिथड़ों पर पाँव धरे नज़रूल गीत गा रहे हैं..मन में आता कि इन्ही चिथड़ों में यूरेनियम और थोरियम लपेट कर आग लगा देते.. लेकिन नई उम्मीदों के माप पर पानी उड़ेल कर आगे चलते बने...पगलाए लोग बंगलोर और दिल्ली में बैठे दीवारों के पीछे घर्र-घर्र बहस के स्वरों में डूबते-उतराते आलू का पराठा और सांभर में डुबोकर इडली खाने की मशक्कत कर रहे हैं.

ज्ञान भैया (ज्ञानदत्त पाण्डेय)

बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है. न्यूक्लीयर डील देश के लिए जरूरी है या नहीं? एक प्रश्न यह भी है कि त्वरित गति से चुकते जा रहे प्राकृतिक संसाधन आने वाले वर्षों में हमें कहाँ ले जाकर खड़ा करने वाले हैं? इन दोनों प्रश्नों को एक साथ सामने रखने से जवाब मिलने में शायद आसानी हो. अभी तक इस विषय पर जो कुछ भी कहा गया या फिर लिखा गया उसको देखते हुए हमें तो लगता है मित्रों कि प्रश्न यह नहीं है कि न्यूक्लीयर डील हो या नहीं हो? प्रश्न यह है कि न्यूक्लीयर डील अमेरिका के साथ हो या नहीं हो?

वैचारिक मतभेद से उपजी स्थिति क्या ऐसे महत्वपूर्ण विषय पर राष्ट्रीय बहस का वातावरण तैयार करने के रास्ते में रुकावट नहीं है? साम्यवादी अगर वर्तमान सरकार को दिया गया समर्थन यह समझ कर वापस लेते हैं कि वे इन्डिस्पेन्सेबेल हैं तो शायद ये उनकी भूल साबित हो. 'हिस्टोरिकल ब्लंडर' से भी बड़ी भूल. उर्जा के वर्तमान स्रोतों के दिनों- दिन होते ह्रास को देखते हुए नए स्रोत खोजना ही मानवीय गुणों की परिणति है. विज्ञान ने मनुष्य को जो भी दिया हो, लेकिन सबसे जरूरी चीज जो दी है, वह है सोच का रिफाईन्मेंट.

आपका क्या कहना है?

अनूप शुक्ला जी (फुरसतिया शुकुल)

पूछिए फुरसतिया से (एक चिरकुट चिंतन)

प्रश्न: कलकत्ते से बाल किशन ने पूछा है कि न्यूक्लीयर डील के बारे में मेरी क्या राय है?

अब देखिये, ऐसे गंभीर विषय पर मेरी क्या राय हो सकती है. हाँ, अगर कोई मौज लेने वाला विषय होता तो मैं अपनी राय पहले ही दे चुका होता. वैसे बाल किशन के सवाल से ये बात पक्की है कि वे एक जिज्ञासु ब्लॉगर (मैं प्राणी नहीं कहूँगा) हैं. बिरले लोग ही ऐसे आत्मजिज्ञासु और और ज्ञानपिपासु होते हैं.

और जहाँ तक न्यूक्लीयर डील पर मेरे विचार की बात है तो मेरा तो मानना है कि जो भी डील राष्ट्रहित में हो, सब अच्छी है. ठीक वैसे ही जैसे ब्लॉग जगत में टिपण्णी डील होती रहती है. हाँ अगर इस तरह की डील केवल अमेरिका के हित में हो और अपने देश के हित में न हो, तो आपत्ति होना स्वाभाविक है. ठीक वैसे ही जैसे कोई ब्लॉगर किसी को टिपण्णी दे लेकिन उसे टिप्पणियां वापस न मिलें. देश को परमाणु उर्जा की जरूरत है. ठीक वैसे ही जैसे किसी चिठेरे को टिपण्णी उर्जा की जरूरत होती है. जीतू जी ने कई बार कहा है किसी पोस्ट पर टिपण्णी ठीक वैसे ही लगती है जैसे सुहागिन के मांग में सिन्दूर.

वैसे तो मुझे पता नहीं है कि ऐसे डील के पेपर पर क्या लिखा जाता होगा, लेकिन मैं इतना जरूर कहूँगा कि लिखें चाहे जो भी लेकिन एग्रीमेंट के हर लाइन में कम से कम दो स्माईली जरूर लगाया जाना चाहिए. ये लाइन लिखते हुए अभी-अभी एक आईडिया दिमाग में 'मे आई कम इन' कह कर घुसा है. वो ये कि अमेरिका वालों ने और हमारी सरकार से शायद यही चूक हो गई. अगर वे न्यूक्लीयर डील के एग्रीमेंट में हर लाइन में दो स्माईली लगाते तो हमारे देश के वामपंथी हँसते-हँसते इस डील पर मुहर लगा देते.

मेरी पसंद

क्या दुःख है, समंदर को बता भी नहीं सकता
आंसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता

तू छोड़ रहा है, तो ख़ता इसमें तेरी क्या
हर शख्स मेरा साथ, निभा भी नहीं सकता

प्यासे रहे जाते हैं जमाने के सवालात
किसके लिए जिन्दा हूँ, बता भी नहीं सकता

घर ढूंढ रहे हैं मेरा, रातों के पुजारी
मैं हूँ कि चरागों को बुझा भी नहीं सकता

वैसे तो एक आंसू ही बहा के मुझे ले जाए
ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता

---वसीम बरेलवी