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Friday, January 28, 2011

हाय मंहगाई - मंहगाई के मारे पुरुरवा




डेढ़ वर्ष हो गए उर्वशी को गए हुए. आजतक वापस नहीं आई. अर्थव्यवस्था की मंदी तो चली गई लेकिन फिर उसे मंहगाई ने धर दबोचा. आज उर्वशी ने सोचा कि पुरुरवा से चैट पर ही पूछा जाय कि क्या हुआ? अब अर्थव्यवस्था की हालत क्या है? उसके महीलोक पर आने के चांसेज कैसे हैं?

उनके चैट बॉक्स की एक फोटो लगा रहा हूँ. आप भी पढ़िए कि क्या बातें हो रही हैं?

पुरुरवा

डेढ़ वर्ष हो गए छोड़ कर तुम जब चली गईं थी
तुम्हें देखने की अभिलाषा कुछ दिन नई-नई थी
किन्तु समय ज्यों बीता वह भी होती गई पुरानी
आज सोचकर लगता जैसे यह प्राचीन कहानी

समझ नहीं आता कि स्थित अब कैसे सुधरेगी

उर्वशी

सारी बातें कब बोलोगे जब उर्वशी कहेगी?

क्या-क्या बीता साथ तुम्हारे मुझको जरा सुनाओ
इतना भी क्या कठिन समय था आज मुझे बतलाओ
क्या कारण हो सकता है कि डेढ़ बरस के भीतर
एक बार भी मेल लिखा, ना भेजा कोई कबूतर

पुरुरवा

सच कहता हूँ एक नहीं है कारण कई हज़ार
तुमने छोड़ा महीलोक तो मन पर हुआ प्रहार
अर्थव्यवस्था की मंदी से जीवन था हलकान
जैसे बिन बरसात के तड़पे कोई दीन किसान
पहले मुद्रा की तंगी थी फिर क्रेडिट का लोचा
इक नरेश की यह हालत होगी ये कभी न सोचा
उधर गई तुम इधर मुझे फिर राज-काज ने घेरा
साथ तुम्हारे मौज में था फिर दुःख ने डाला डेरा
जीवन अब कैसे बीतेगा यह चिंता थी मन में
कई बार मैंने यह सोचा जा भटकूँ अब वन में

ऐसा उलझा राज-काज में कहाँ मिले आराम

उर्वशी

और तुम्हारे आमात्यों ने किया नहीं कुछ काम?

अगर नहीं कुछ किया अभी तक फिर क्यों टिके हुए हैं?
लगता है कि औरों के हाथों वे बिके हुए हैं.
उसका तो बस धर्म यही अपना कर्त्तव्य निभाये
प्रजा रहे खुश उनसे और बस भूपति के गुण गाये
किन्तु मुझे यह लगता है वे काम नहीं करते हैं
और मुझे होता प्रतीत वे तुमसे ना डरते हैं.

पुरुरवा

कौन डरेगा मुझसे जब अधिकार दे दिया उनको
दही सरीखे जमे रहें आधार दे दिया उनको
जिनका था कर्त्तव्य प्रजा को वे अनाज दिलवाएं
वही घूमते इधर-उधर और बस क्रिकेट खेलवायें
समय मिले जब खेल-कूद से रखें दृष्टि बस एक
ऐसा कुछ रच डालें कि बस हो मुद्रा अभिषेक
क्या-क्या बतलायें तुमको क्या उसने है कर डाला
हाल है यह सुनने को मिलता रोज एक घोटाला

प्याज बिकेगी सत्तर रूपये नहीं कभी सोचा था

उर्वशी

इससे अच्छा तो जीवन में मंदी का लोचा था

माना मैंने सब चीजों का बढ़ा हुआ है दाम
क्या प्रधान आमात्य ने किया नहीं कुछ काम?

सुना रखा था अर्थशास्त्र के विज्ञाता हैं आप
ऐसा तो है नहीं कि निकले वे भी झोलाछाप?

पुरुरवा

शायद तुमने सही कहा कि अर्थशास्त्र के ज्ञाता
भूल चुके हैं अर्थशास्त्र अब उन्हें नहीं कुछ आता
करने की तो बात दूर है वे चुप ही रहते हैं
उनको जो भी कहना वे मैडम से ही कहते हैं
लगती ठोकर उन्हें हो जैसे वे कोई फ़ुटबाल
मंत्री, संत्री, चेले, चमचे करते रोज बवाल
न्यायालय भी देती उनको रोज एक फटकार
घोटालों का रोज मनाते एक नया त्यौहार
जिन्हें भार सौंपा था मैंने देकर जिम्मेदारी
वही बनाकर खच्चर मुझको करते रोज सवारी
खाने-पीने पर ही इतना रोज खर्च हो जाता
अब तो बनिए ने भी मेरा बंद कर दिया खाता
मास चार हो गए मुझे मदिरा को हाथ लगाए
मदिरा सेवन के खातिर अब मुद्रा कहाँ से आये
सादा जीवन भी मुश्किल अब ऐसी है मंहगाई
कौन जनम का पाप ढो रहे जाने कहाँ से आई

मन में आती बात हमारे जा भटकूँ अब वन में

उर्वशी

तुमसे अच्छी मैं ही हूँ, विचरण कर रही गगन में

देवराज दरबार सजाते करते मदिरा पान
देवलोक में बन रहे रोज सभी पकवान

मर्त्यलोक की हालत पर मुझको होता है कष्ट
चंद निकम्मे आमात्यों ने कर डाला सब नष्ट
जो हालत है आज तुम्हारी वह कब अच्छी होगी
तुम्ही बताओ मिलेंगे कैसे अब विरहणी-वियोगी?

पुरुरवा

अब तो यह लगता है.....

पुरुरवा जवाब दे ही रहे थे कि कक्ष में उनकी पत्नी औशीनरी ने प्रवेश किया. उसे देखते ही पुरुरवा ने डर के मारे टू-ज़ी नेट कनेक्शन वाला अपना लैपटॉप बंद कर दिया.

Friday, January 21, 2011

मंदी के मारे उर्वशी और पुरुरवा




कुछ तुकबंदी फिर से इकठ्ठा हो सकती है. फिर ट्राई किया तो तुकबंदी इकठ्ठा हो गई. आप झेलिये.

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रात का समय. आकाश मार्ग से जाती हुई मेनका, रम्भा, सहजन्या और चित्रलेखा पृथ्वी को देखकर आश्चर्यचकित हैं. उन्हें आश्चर्य इस बात का है कि मुंबई के साथ-साथ और भी शहरों के शापिंग माल सूने पड़े हैं. मल्टीप्लेक्स में कोई रौनक नहीं है. दिल्ली में कई निवास पर कोई हो-हल्ला नहीं सुनाई दे रहा. लेट-नाईट पार्टियों का नाम-ओ-निशान नहीं है.

पिछले कई सालों से शापिंग माल और मल्टीप्लेक्स की रौनक देखने की आदी ये अप्सराएं हलकान च परेशान हो रही हैं.

सहजन्या

लोप हुआ है जाल रश्मि का, है अँधेरा छाया
रौनक सारी कहाँ खो गई, नहीं समझ में आया
शापिंग माल में लाईट-वाईट नहीं दीखती न्यारी
कार पार्किंग दिक्खे सूनी, सोती दुनिया सारी

तुझे पता है रम्भे, क्या इसका हो सकता कारण?

रम्भा

कैसा प्रश्न किया सहजन्ये, कैसे करूं निवारण?

हो सकता है इसका उत्तर दे उर्वशी बेचारी
पर अब महाराज पुरु की भी दिक्खे नहीं सवारी

सहजन्या

अरे सवारी कैसे दिक्खे, महाराज सोते हैं
मैंने सुना है, वे भी अब तो दिवस-रात्रि रोते हैं
पृथ्वी पर मंदी छाई है, ठप है अर्थ-व्यवस्था
नहीं पता था, हो जायेगी ऐसी विकट अवस्था

मेनका

अर्थ-व्यवस्था की मंदी तो, दुनियाँ ले डूबेगी

सहजन्या

अगर हुआ ऐसा तो फिर उर्वशी बहुत ऊबेगी

महाराज पुरु की चिंताएं उसे ज्ञात हो शायद
दिन उसके दूभर हो जाएँ स्याह रात हो शायद
मर्त्यलोक की सुन्दरता पर मिटी उर्वशी प्यारी
किसे पता था होगी दुनियाँ इस मंदी की मारी?

पता नहीं किस हालत में उर्वशी वहां पर होगी

मेनका

सच कहती है सहजन्ये वो जाने कहाँ पर होगी

सहजन्या

वह तो होगी वहीँ, जहाँ पर महाराज होते हैं
दिन में विचरण करते हैं, और रात्रि पहर सोते हैं
पिछली बार गए थे दोनों, गिरि गंधमादन पर
हो सकता है अब जाएँ वे, किसी धर्म-साधन पर
लेकिन उनका आना-जाना, अब दुर्लभ हो शायद
मंदी के कारण न उनको, अर्थ सुलभ हो शायद

चित्रलेखा

अरी कहाँ तू भी सहजन्ये मंदी-मंदी गाती
महाराज को कैसी मंदी, दुनियाँ उनसे पाती

मेनका

पाने की बातें करके, ये अच्छी याद दिलाई
सखी उर्वशी को क्या मिलता, उत्सुकता जग आई
तुझे याद हो शायद, उसका कल ही जन्मदिवस है

सहजन्या

महाराज क्या देंगे उसको, मंदी भरी उमस है.

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महाराज पुरुरवा के साथ उर्वशी उद्यान में विचरण कर रही है. कल उसका जन्मदिवस है. महाराज चिंतित हैं. उसे इस बार क्या उपहार दें? पिछले बार इक्यावन तोले का नौलखा हार दिया था. पाश्चात्य देशों से मंगाया गया बढ़िया परफ्यूम और चेन्नई से मंगाई गई नेल्ली चेट्टी की साडियां दी थी.

लेकिन इस बार छाई मंदी की वजह से प्रजा से भी धन वगैरह की प्राप्ति नहीं हुई है. खजाने में केवल एक सप्ताह के आयात के लिए ही फॉरेन एक्सचेंज बचा है. ऐसे में इम्पोर्टेड चीजें मंगाकर उपहार स्वरुप उर्वशी को देना संभव नहीं है. महाराज सोच रहे हैं कि उर्वशी कुछ मांग न बैठे. इसलिए वे आज के लिए उर्वशी से विदा होना चाहते हैं.....

पुरुरवा

चिर-कृतज्ञ हूँ, साथ तुम्हारा मन को करता विह्वल
जब से हम-तुम मिले, लगे ये धरा हो गई उज्जवल
मन के हर कोने में, बस तुम ही तुम हो हे नारी
लेकिन हमको करनी है, अब चलने की तैयारी

उर्वशी

चलने की तैयारी! लेकिन क्योंकर कर ऐसी बातें?
चाहें क्या अब महाराज, हो छोटी ही मुलाकातें?
शायद हो स्मरण कि मेरा जन्मदिवस है आया
एक वर्ष के बाद हमारे लिए, ख़ुशी है लाया
पिछले बरस मिला था मुझको हार नौलखा,साड़ी
मैं तो चाहूँ मिले इस बरस, बी एम डब्ल्यू गाड़ी


पुरुरवा

गाड़ी दूं उपहार में कैसे, मंदी बड़ी है छाई
ज्ञात तुम्हें हो अर्थ-व्यवस्था, है सकते में आई
खाली हुआ खजाना मेरा, समय कठिन है भारी
अब तो हमको करनी है, बस चलने की तैयारी

उर्वशी

फिर-फिर से क्यों बातें करते हमें छोड़ जाने की?
जाना ही था कहाँ ज़रुरत थी वापस आने की?
या फिर देख डिमांड गिफ्ट का छूटे तुम्हें पसीना
समझो नहीं मामूली नारी, मैं हूँ एक नगीना

समझो भाग्यवान तुम खुद को, मिली उर्वशी तुमको

पुरुरवा

नाहक ही तुम रूठ रही हो, थोड़ा समझो मुझको

पैसे की है कमी और अब लिमिट कार्ड का कम है
धैर्यवती हो सुनो अगर, तो बात में मेरी दम है
मुद्रा की कीमत भी कम है, ऊपर से यह मंदी
क्रेडिट क्रंच साथ ले आई, पैसे की यह तंगी

उर्वशी

ओके, समझी बात तुम्हारी, मैं भी अब चलती हूँ
वापस जाकर देवलोक में, सखियों से मिलती हूँ
जब तक मर्त्यलोक में मंदी, यहाँ नहीं आऊँगी
देवलोक में रहकर, सारी सुविधा मैं पाऊँगी
थोड़ा धीरज रखो, शायद अर्थ-व्यवस्था सुधरे
हो सुधार गर मर्त्यलोक में, और अवस्था सुधरे
अगर तुम्हें ये लगे, कि सारी सुविधा मैं पाऊँगी
एक मेल कर देना मुझको, वापस आ जाऊंगी


इतना कहकर उर्वशी आकाश में उड़ गई. पुरुरवा केवल उसे देखते रहे.

अब पृथ्वी पर अर्थ-व्यवस्था में सुधार की राह देख रहे हैं. कोई कह रहा था कि अर्थ-व्यवस्था जल्द ही सुधरने वाली है


यह पोस्ट साल २००९ के मई महीने में पब्लिश की थी. आज फिर से इसलिए पब्लिश कर रहा हूँ ताकि यह मेरी अगली पोस्ट का कर्टेन-रेजर साबित हो:-)

Monday, January 17, 2011

अब महंगाई रुकेगी




कभी-कभी यह तय करने में मुश्किल होती है कि अपने देश में समस्याएं हैं या समस्याओं में अपना देश है. वैसे विद्वानों की मानें तो देश है तो समस्या है. समस्या है तो बहस है. बहस है तो ऑप्शंस हैं. ऑप्शंस हैं तो फैसला है. फैसला है तो गलती है...अरे मैं यह क्या लेकर बैठ गया. नए-नवेले ब्लॉगर की यही समस्या है. चांस मिला नहीं कि निकल पड़ा किसी शायर की नक़ल करने.

हाँ, तो मैं कह रहा था कि देश में समस्याएं हैं. आज सबसे बड़ी समस्या है महंगाई की. इतनी बड़ी कि सब्जियों तक को समझ नहीं आता कि कहाँ तक बढें क्योंकि ऊपर जाने के लिए जगह ही जगह है. लोग सुझाव दे रहे हैं. लोग सुझाव ले रहे हैं. कभी लगता है कारण खोज लिए गए हैं तो दूसरे ही दिन लगता है कि कारणों का पता ही नहीं है. किताबी अर्थशास्त्री हैं तो दूसरी तरफ व्यावहारिक व्यवसायी है. ऐसे में जितने मुँह उतनी बातें. हमारे संवाददाता ने देश में घूमकर तमाम लोगों से मंहगाई के कारणों और उसे रोकने के उपायों पर बात की. पढ़िए कि लोगों ने क्या कहा:

कौशिक बसु, चीफ इकॉनोमिक एडवाइजर टू इकॉनोमिस्ट प्राइम मिनिस्टर: "वी हैव टू लुक इन टू द प्रॉब्लम टू फाइंड द रीजन ऑफ दिस प्राइस राइज. महंगाई के कई कारण होते हैं. महंगाई बढ़ने का सबसे बड़ा कारण होता है डिमांड और सप्लाई. जब चीजों की डिमांड उसकी सप्लाई से बढ़ जाती है तो महंगाई आ जाती है. सी, अकार्डिंग टू द ला ऑफ सप्लाई, सप्लाई एंड प्राइस आर प्रपोर्स्नल...द हायर ऐन आइटम्स प्राइस, द मोर विल बी द सप्लाई....डिमांड इज इन्वार्सली प्रोपर्स्नल टू......"

प्रणब मुखर्जी, फिनांस मिनिस्टर, ट्रबल शूटर एंड परसेंटेज रीडर: "देयार आर सोम कोंसोर्न ओभार द प्राइस राइज. उइ आर लूकिंग इनटू द प्रोब्लोम एंड उइ थींक दैट रोबी क्रोप उविल ब्रिंग द प्राइसेज डाउन इन द मांथ ऑफ मार्च....उइ थींक दैट पीपूल शूड बे हैपी वीथ द एट प्वाइंट फाइव पारसेंट जी डी पी ग्रोथ..."

राम निवाश मिश्रा, 'फार्मर', सकरपुरा, सहरसा, बिहार: "बस अब बहुत हो गया. ई लोग अगर महंगाई नहीं रोक पा रहा है त मिलिट्री को काहे नहीं बुलाता? हमारे देश में बाढ़ आता है त मिलिट्री को बुलाया जाता है. प्रिंस कुआं में फंस जाता है त मिलिट्री ही निकलता है. ऐसे में ई मंहगाई एतना बढ़ रहा है त सरकार उसको रोकने के लिए भी मिलिट्री को काहे नहीं बुलाता? हमसे पूछते हैं त हम तो एही कहेंगे कि एक ही सलूशन है ई समस्या का. मिलिट्री."

सनल एडमरुकू, प्रेसिडेंट, इन्डियन रेशनेलिस्ट एशोसियेशन एंड ग्रेट बिलीवर इन पॉवर ऑफ साइंस: "अमारा कहना ये कि गवर्नमेंट महंगाई की प्रॉब्लम को सॉल्व करने के लिए यिनडियन यिस्पेस रिसर्च यार्गेनाइजेशन से कहे. देको इस कंट्री की हर प्रॉब्लम का सलूशन साइंस के पास है. अबी मंहगाई ईतनी ऊपर चला गया है कि यिसरो ही बता सकता है कि केतना ऊपर है और उसको उतना ऊपर से लाने के लिए क्या करना है...."

तुषार जी महाराज, जैन धर्म के ज्ञानी: "प्याज का दाम बढ़ना एक तरह से स्वामी महावीर जी का पूरी दुनिया को यह बताने का तरीका है कि प्याज एक तामसिक आहार है और उसे खाने से मानव सभ्याता का विनाश निश्चित है. यह इशारा है कि ...."

अरनब गोस्वामी, मॉडर्न डे रिवोलुश्यनरी एंड ओनली प्रोटेक्टर ऑफ इंडियन नेशन: "सिक्स मंथ बैक, व्हेन योर चैनल केम अप विद द प्रूफ दैट दिस स्काई राकेटिंग इन्फ्लेशन वाज रिजल्ट ऑफ मिस-डीड्स ऑफ मिस्टर सुरेश कलमाडी, मिस्टर कलमाडी हैड थ्रीटंड टू स्यु योर चैनल...नाऊ, योर चैनल हैज कम अक्रॉस न्यू एविडेंस ह्विच क्लीयरली शोज दैट मिस्टर कलमाडी.....टू नाईट आई वुड लाइक टू अस्योर आर व्यूअर्स वंस अगेन दैट योर चैनल विल सी टू इट दैट दोज हू आर रिस्पोंसिबिल फोर कॉजिंग एन्ग्जाइटी टू अ नेशन ऑफ अ वन बिलियन आर ब्राट तो जस्टिस...."

इंडिया टीवी, कस्टोडियन ऑफ थ्रिल, हॉरर, माइथोलॉजी, कल्चर.....एंड इन्वेन्टर ऑफ द टर्म, ब्रेकिंग न्यूज: "जी हाँ, आज हम आपको बतायेंगे कि कैसे सरसों, दूध और काली गाय की सहायता से महंगाई को कम किया जा सकता है. यह उपाय ऋगवेद से लिया गया है. जी हाँ, आज हमारे स्टूडियो में हैं स्वामी मुद्रानन्द जी महाराज जो आपको उस मंत्र के बारे में बतायेंगे जिसके जाप से मंहगाई कम होगी...जी हाँ, पहली बार महंगाई को काबू में करने वाला मन्त्र...."

बेजान दारूवाला, मेसेंजर ऑफ गणेशा: "मेरी जान, ये साल में क्या होगा? महंगाई बढ़ेगी अभी और बढ़ेगी. ये साल में कौन भारी है? ये साल में चन्द्रमा सबसे भारी है. जुपिटर से भी भारी अभी चन्द्रमा हो गया है. औउर उसका क्या असर होता है? उसका असर होता है कि आर्टिकल का दाम बढ़ता है...लेकिन जुलाई से, हाँ जुलाई से मेरी जान, चीजों का दाम कम होगा. वईसे अगर तुम लेफ्ट हैण्ड का मिडिल फिंगर में नीलम पहनेगा तो महंगाई कम हो सकता है....."

शरद पवार, एग्रीकल्चर मिनिस्टर एंड विनर ऑफ क्रिकेट ऐडमिनिस्ट्रेटिव बॉडी: "मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ लेकिन महंगाई तीन महीने में कम हो जायेगी..."

बाबा रामदेव, ब्रीदिंग एक्सपर्ट एंड ऑनटरप्रेन्योर: "हे हे हे हे..लोग मुझसे पूछते हैं, बाबाजी महंगाई क्यों बढ़ रही है? मैं कहता हूँ क्यों नहीं बढ़ेगी महंगाई? आज हम अपनी संस्कृति भूल गए हैं. कलियुग में महंगाई रोकने का एक ही उपाय है, योग. अगर हम योग का सहारा लें तो महंगाई को रोका जा सकता है. द्वापर में महंगाई क्यों नहीं रहती थी? .....हे हे हे..हाँ, करो बेटा करो. हमारे बीच हैं सोनीपत से आये हैं भाई राजेश. अनुलोम विलोम और कपालभाति से इन्हें बहुत लाभ हुआ है. हाँ, क्या समस्या थी बेटा तुम्हारी? क्या? गर्लफ्रेंड नहीं मिल रही थी? अच्छा, कितने दिन किया कपालभाति? चार महीने?.... और अब गर्लफ्रेंड मिल गई? हे हे हे...कोई भी समस्या का समाधान हो सकता है योग से..."

हमारे संवाददाता ने ए राजा, कपिल सिबल और राहुल गाँधी से भी सुझाव मांगे थे लेकिन उनलोगों ने कहा कि उन्हें करीब पंद्रह दिन का समय चाहिए . वहीँ राम जेठमलानी ने कहा कि वे महंगाई के बारे में तब तक कुछ नहीं कहेंगे जब तक वे महंगाई के ऊपर हाईकोर्ट का फैसला नहीं पढ़ लेते.

Saturday, January 15, 2011

दुर्योधन की डायरी - पेज २३१६




आज पढ़िए युवराज दुर्योधन की डायरी का वह पेज जिसमे उन्होंने अपनी किड-सिस्टर दुशाला ज़ी के जन्मदिन मनाने के बारे में लिखा है. न न, यह मत कहियेगा कि जन्मदिन मनाने की प्रथा पश्चिम के देशों से आई है. कुछ पश्चिम से नहीं आया. सब यहीं था और हजारों वर्षों से यहीं था:-)

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आज राजमहल में एक बार फिर से ख़ुशी का माहौल है. राजमहल बना ही है ख़ुशी के लिए. मुझे तो कभी-कभी लगता है कि राजमहल न हो तो ख़ुशी कहीं दिखाई ही न दे. जब ख़ुशी नामक अनुभूति की खोज की गई होगी साथ-साथ राजमहल का निर्माण भी कर दिया गया होगा ताकि ख़ुशी बड़ी जगह पर जाकर बैठ सके.

वैसे आज की ख़ुशी किसी पार्टी की वजह से नहीं है. दरअसल आज दुशाला का जन्मदिन है. आज वह बहुत खुश थी. साथ में हम भाई लोग भी. देखा जाय तो हमें खुश होने के अलावा काम ही क्या है? हमारे लिए तो खुश दिखना अपने आप में बहुत बड़ा काम है. एक बात जरूर है. जन्मदिन की खुशी बाकी सभी खुशियों से अलग होती है. शादी-व्याह पर उतनी खुशी नहीं होती जितनी जन्मदिन पर होती है. शादी-व्याह पर भी खुशी होती ही है लेकिन रूपये-पैसे खर्च होने की वजह से कुछ-कुछ सैडनेश अपने आप क्रीप-इन कर जाती है. वहीँ जन्मदिन की खुशी में किसी सैडनेश की मिलावट का चांस बिल्कुल नहीं रहता. और दुशाला के जन्मदिन पर तो बिलकुल ही नहीं. आख़िर उसके जन्मदिन पर भारी मात्रा में रुपया-पैसा वसूल कर लिया जाता है. ऐसे में सैडनेश दिखाई भी देती है तो उनके चेहरों पर जिनसे वसूली की जाती है.

मुझे याद है जब पहली बार दुशाला ने सार्वजनिक तौर पर अपना जन्मदिवस मनाया था. उसने उसे 'स्वाभिमान दिवस' के रूप नाम दिया था. अपने जन्मदिवस को स्वाभिमान दिवस के रूप में मनाने का लॉजिक भी बड़ा मजेदार दिया था उसने. वह चाहती थी कि उसके जन्मदिन पर वह और पूरा खानदान इतना अभिमान करे कि उसे देखकर द्रौपदी जल-भुन जाए. उसका कहना था कि द्रौपदी का अपना कोई स्वाभिमान तो बचा नहीं था ऐसे में दुशाला के जन्मदिन को स्वाभिमान दिवस के रूप में मनाने से द्रौपदी का जल-भुन जाना पक्का था.

पिछले तीन महीने से तैयारियां चल रही थीं. द्वार बनाये गए. पोस्टर छपाए गए. निमंत्रण पत्र छापे गए. तरह-तरह की कलाओं से हस्तिनापुर को सजाया गया. बाहर के राज्यों से कारीगरों और हलवाइयों की टोलियाँ आयीं. प्रजा के लोगों की संख्या देखते हुए बहुत बड़ी जगह चाहिए थी. यह तो अच्छा हुआ कि दुशासन के सुझाव पर नगर के बीचों-बीच एक चिल्ड्रेन पार्क पर कब्जा कर लिया गया नहीं तो बड़ी तकलीफ हो जाती. जितने गेस्ट आये थे उन्हें तो खड़े होने की जगह ही नहीं मिलती. वैसे भी सौ भाइयों की दुलारी बहन के लिए जितना भी किया जाता कम ही होता.

दुशाला की इच्छा है कि वह इसी चिल्ड्रेन पार्क में प्रजा के बीच अपने जन्मदिवस पर खीर खाने का शुभ कार्य करे. वैसे भी मेरा मानना है कि केवल खीर खाने का क्यों, उसे तो कुछ भी खाने का अधिकार है. सुयोधन की बहन चाहे तो हम उसे पूरा हस्तिनापुर खाने के लिए दे दें. सौ भाईयों की एक बहन होना साधारण बात तो नहीं.

और हम भाई ऐसा करें भी न क्यों? दुशाला का जन्मदिवस अच्छे दिन और अच्छे पैसे लेकर आता है. तरह-तरह की सौगात. तरह-तरह के गिफ्ट. कहीं कोई मोतियों का हार ले आता है तो कहीं कोई मुद्रा का. फूलों और मुद्रा के हार इतने वजनी कि बिना चार-पाँच लोगों के हाथ लगाए उठते भी नहीं. हमने भी तैयारी में कोई कसर नहीं छोड़ते. तैयारियों के तहत सबसे पहले राज्य के व्यापारियों से पैसा वसूला गया. बाद में व्यापरियों से टैक्स के रूप में पैसा वसूलने वाले सेल्स टैक्स अफसरों से पैसे की वसूली कर ली गई है. सड़क निर्माण के लिए काम करने वाले अभियंताओं से पैसा खींचा गया है. मामाश्री ने सुझाव दिया था कि मदिरा के ठेकेदारों से वसूल की जाने वाली रकम इसबार बढ़ा दी जाए. उनके सुझाव की वजह से इसबार भारी मात्रा में वसूली की गई है. आने-जाने वाले वाहनों से वसूली करने का काम तो वैसे भी जन्मदिवस के एक महीने बाद तक चलता ही रहेगा.

मुझे याद है. पहली बार जब दुशाला द्बारा सार्वजनिक तौर पर जन्मदिवस मनाया गया था, उस वर्ष भी मामाश्री के कहने पर दुशासन और जयद्रथ ने पैसा वसूली का महत्वपूर्ण कार्य किया था. वो तो बाद में कर अधिकारियों ने दुशाला से उसके जन्मदिवस के उपलक्ष में वसूल किए गए पैसों का हिसाब मांगकर थोड़ा लफड़ा खड़ा करने की कोशिश की थी लेकिन मामाश्री ने साबित कर दिया कि ज़बरन वसूली की कोई घटना नहीं हुई थी. ये तो प्रजा के लोगों ने प्यार से अपनी राजकुमारी को धन भेंट किया था.

प्रजा द्बारा धन भेंट करने की वजह से ही उसके बाद हमलोग उसका जन्मदिवस आर्थिक सहयोग दिवस के रूप में मनाते हैं. मुझे याद है, दुशासन ने हँसते हुए कहा था कि आर्थिक सहयोग दिवस के रूप में जन्मदिवस मनाने से प्रजा के बीच संदेश जाता है कि अगर वो आर्थिक सहयोग में हिस्सा नहीं लेगी तो दुशासन प्रजा के ख़िलाफ़ असहयोग पर उतर आएगा. और अगर ऐसा हो गया तो फिर प्रजा को सहयोग देने वाला कोई दिखाई नहीं देगा.

दुशाला के जन्मदिवस के उपलक्ष में जब मैंने उसे उपहार स्वरुप कुछ देने की मंशा जताई तो उसने कहा कि अगर मैं कुछ देना ही चाहता हूँ तो उसी जगह पर दुशाला की प्रतिमा स्थापित करवा दूँ जहाँ पिताश्री की प्रतिमा है. मैंने उसे वचन दिया है कि मैं अलग से वसूली का कार्यक्रम चलाकर नगर के बीचों-बीच किसी पार्क में दुशाला की प्रतिमा स्थापित करवाऊंगा.

परसों ही कपड़े का एक व्यापारी जन्मदिवस के उपलक्ष में दुशाला के लिए एक नया ड्रेस देकर गया है. इसबार वो बिल्कुल नए तरह का ड्रेस पहनना चाहती थी. उसे किसी इमेज डेवेलपमेंट एजेन्सी ने बताया है कि प्रजा के बीच अपनी इमेज को और लोकप्रिय बनने के लिए उसे नए तरह के कपड़े पहनने की ज़रूरत है.

अज शाम को जन्मदिवस के उपलक्ष में वह इक्कीस सौ लोगों को कम्बल बांटना चाहती है. हँसते हुए बता रही थी कि कम्बल बांटने जैसा महत्वपूर्ण राजकीय कार्य अगर जन्मदिवस पर किया जाय तो इसके दूरगामी परिणाम देखने को मिलते हैं. दुशासन ने किसी व्यापारी की दूकान से कल शाम को ही कम्बल उठवा लिया था.

जन्मदिवस की ये बहार ऐसे ही चलती रही. जन्मदिवस ऐसा ही मनाया जाता रहे. प्रजा ऐसे ही धन भेंट करती रहे. और क्या चाहिए...?

Monday, January 10, 2011

तेलंगाना समाचार, १० जनवरी २०१८.




नए राज्य बनाने की कवायद ने हाल के वर्षों में एक उद्योग का रूप ले लिया है. प्लान और बजट बनाकर अभियान चलाये जा रहे हैं. मीडिया में पब्लिक ओपिनियन बनाई जा रही है. भूख हड़ताल की जा रही है. गाँधी जी के रास्ते पर चलने का दावा करते हुए मारपीट भी की जा रही है. यह एक तरह से अच्छा भी है. सरकार अगर किसी राज्य को अच्छी तरह से गवर्न नहीं कर सके तो नया राज्य बना देना अच्छी नीति है. पेश है तेलंगाना राज्य के सन्दर्भ में साल २०१८ की एक न्यूजपेपर रिपोर्ट;

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आज पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चन्द्रशेखर राव के बीच कटुता ने तब एक नया रूप ले लिया जब श्री राव ने रमेश को यह कहते हुए लताड़ दिया कि; "रमेश को अब शाहजहाँ के परिवार वालों को यह कहते हुए नोटिस भेज देना चाहिए कि उन्होंने ताजमहल बनवाने से पहले पर्यावरण मंत्रालय से क्लीयरेंस नहीं लिया था. साथ ही ताजमहल को गिराने का ऑर्डर भी पास कर देना चाहिए."

ज्ञात हो कि तीन दिन पहले श्री जयराम रमेश ने यह कहकर सबको चौंका दिया था कि तेलंगाना राज्य बनाने के लिए न ही केंद्र सरकार ने और न ही आंध्र प्रदेश सरकार ने साल २०११ में पर्यावरण मंत्रालय से क्लीयरेंस लिया. एक राज्य बनाने के आठ वर्ष बाद श्री रमेश के इस तरह के बयान को राजनीतिक हलकों में बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है. जानकारों का मानना है कि पर्यावरण मंत्रालय जल्द ही सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल कर तेलंगाना राज्य पर स्टे ले लेगा और तब पूरा तेलंगाना ही ठप हो जाएगा.

श्री रमेश के तेलंगाना राज्य बनाने के समय इनवायर्नमेंट क्लीयरेंस न लेने के बयान के बाद तेलंगाना का मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय स्तर बहुत महत्वपूर्ण हो गया है. कल शाम भूतपूर्व अमेरिकी उपराष्ट्रपति अल गोर ने भारतीय सरकार की यह कहते हुए आलोचना की है कि; "बिना इनवायर्नमेंट क्लीयरेंस लिए एक राज्य बना देना एक ऐसी बात है जो आने वाले वर्षों में विश्व पर्यावरण के लिए खतरा साबित होगी."

श्री अल गोर की इस बात का समर्थन करते हुए नोबल पुरस्कार विजेता श्री आर के पचौरी ने कहा कि वे श्री रमेश और श्री गोर के साथ हैं और जल्द ही तेलंगाना के मुद्दे पर एक बड़ा आन्दोलन शुरू करेंगे. ज्ञात हो कि पिछले महीने ही श्री पचौरी ने यह घोषणा करते हुए विवाद खड़ा कर दिया था कि पूरे तेलंगाना के ग्लेसियर अगले तीन महीने में ही ख़त्म ही जायेंगे. जब लोगों ने उन्हें याद दिलाया कि तेलंगाना में ग्लेसियर नहीं हैं तब उन्होंने कहा था कि अगर ग्लेसियर नहीं हैं तो पानी ख़त्म हो जाएगा.

श्री पचौरी का मानना है कि पर्यावरण के हिसाब से तेलंगाना अन्टार्कटिका जितना महत्वपूर्ण है.

उधर तेलंगाना के मुख्यमंत्री श्री राव और गृहमंत्री श्री कपिल सिबल में उस समय झगड़ा हो गिया जब श्री सिबल ने अपने एक अद्भुत फ़ॉर्मूले का इस्तेमाल करते हुए यह साबित कर दिया कि तेलंगाना राज्य में अब केवल सत्रह गाँव हैं इसलिए इस राज्य को केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली सहायता राशि और करों की अदायगी उसी के अनुसार होनी चाहिए. ज्ञात हो कि पिछले सप्ताह तक तेलंगाना में कुल सत्ताईस हज़ार गाँव थे.

विद्वानों का मानना है कि श्री सिबल ने राज्य के गाँवों की संख्या बताने के लिए उसी फ़ॉर्मूले का इस्तेमाल किया है जिसका इस्तेमाल करके साल २०११ में उन्होंने साबित कर दिया था कि टू-ज़ी स्पेक्ट्रम घोटाला एक लाख सतहत्तर हज़ार करोड़ की जगह शून्य रूपये का था. वैसे कुछ विद्वान यह मानते हैं कि श्री सिबल से फ़ॉर्मूला इस्तेमाल करने में कोई भूल हुई है नहीं तो तेलंगाना में गावों की संख्या सत्रह की जगह शून्य होती. कुछ पत्रकार मानते हैं कि आज रात श्री सिबल अपना असली फ़ॉर्मूला इस्तेमाल कर सकते हैं.

सूत्रों का मानना है कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच यह झगड़ा एक नया रूप ले सकता है. ऐसे कयास लगाये जा रहे हैं प्रधानमंत्री श्री सिंह इस बात से नाराज़ हैं कि जहाँ देश के बाकी राज्यों में प्याज तीन सौ रूपये किलो बिक रही है वहीँ तेलंगाना में दो सौ नब्बे रूपये किलो बिक रही है. उनका मानना है कि प्याज की दरों में इतना बड़ा अंतर उन्हें बर्दाश्त नहीं है.

केंद्र और राज्य सरकारों के बीच इस झगड़े को सुलझाने के लिए कल प्रधानमंत्री ने जस्टिस श्री कृष्णा के नेतृत्व में एक कमीशन का गठन किया है जो यह सुझाव देगा कि झगड़े को सुलझाने के कितने रास्ते हैं? लोगों का अनुमान है कि झगड़े को सुलझाने के लिए जस्टिस श्री कृष्णा करीब अट्ठारह रास्ते निकालेंगे. उसके बाद सरकारों पर निर्भर करेगा कि वे एक रास्ते पर चलकर झगड़ा सुलझाएं या फिर सारे अट्ठारह रास्तों पर चलकर. ज्ञात हो कि तेलंगाना राज्य के गठन पर जस्टिस श्री कृष्णा ने कुल छ सुझाव दिए थे उन सारे सुझावों पर चलकर तेलंगाना का गठन किया गया था.

Saturday, January 8, 2011

प्लेयर + वैट + सेल्स टैक्स + टर्नओवर टैक्स + एडुकेशन सेस = ?




यह पोस्ट आई पी एल फर्स्ट के ऑक्शन पर लिखी थी. आज फिर से ऑक्शन हो रहा है तो सोचा कि फिर से छाप दूँ. पहले नहीं बांचा हो तो बांचिये:-)
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कल रतीराम की पान दुकान पर गया था. जाते ही मैंने कहा; "एक पान दीजिये."

मैंने उनसे पान लगाने को कहा लेकिन देख रहा हूँ कि वे अखबार पढने में व्यस्त हैं. पूरी तन्मयता के साथ लीन. मैंने फिर से कहा; "रतीराम भइया, एक ठो पान दीजिये."

मेरी तरफ़ देखे बिना ही बोले; "तनी रुकिए, लगा रहे हैं." ये कहकर अखबार पढ़ने में फिर से लग गए.

मैंने कहा; "अरे ऐसा क्या छप गया है जो पढ़ने में इतना व्यस्त हैं."

बोले; "अरे ओही, खिलाड़ी सब केतने-केतने में बिका, वोही देख रहे हैं." तब मेरी समझ में आया कि क्या पढ़ रहे हैं.

मैंने कहा; "अब पढ़ने से क्या मिलेगा. टीम तो आप खरीद नहीं सके."

बोले; "हाँ लेकिन हम देखना चाहता हूँ कि ई लोग का केतना दाम लगा."

मैंने कहा; "बहुत पैसा मिला है सबको. देखिये न धोनी ही छ करोड़ में बिके. तेंदुलकर चार करोड़ में. ऐसा पहली बार हुआ कि खिलाड़ी भी बिक गए."

मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "अरे आप भी बड़े भोले हैं. ई लोग का पहला बार बिक रहा है. का पहले नहीं बिका है. काहे, भूल गए अजहरुद्दीन को, जडेजा को."

उनकी बात सुनकर मैं चुप हो गया. क्या करता, कोई जवाब भी तो नहीं था. फिर सोचते हुए मैंने कहा; "बहुत ख़बर रखते हैं क्रिकेट की."

अब तक वे अखबार छोड़ चुके थे. उन्होंने मेरी तरफ़ देखते हुए कहा; "अरे ई जो लोग टीम खरीदा है न, उनसे तो ज्यादा ही जानकारी रखते हैं. आपको का लगता है, मुकेश अम्बानी अपना काम करते-करते क्रिकेट देखते होंगे का? ऊ दारू वाले, का नाम है उनका, हाँ माल्या जी, ऊ देखते होंगे का. हम तो काम करते-करते कमेंट्री सुनते हैं. पूरा-पूरा जानकारी रखते हैं क्रिकेट का."

मैंने कहा; "ये बात तो है. ऐसे में एक टीम आपको जरूर मिलनी चाहिए थी."

बोले; "जाने दीजिये, अब का मिलेगा उसपर बात कर के. ओईसे एक बात बताईये, छ करोड़ में तो धोनी बिक गए लेकिन सेल टैक्स, भैट-वैट मिलकर केतना दाम पडा होगा, इनका?"

उनकी बात सुनकर मुझे हंसी आ गई. मैंने कहा; "अरे महाराज आप भी गजबे बात करते हैं. ये लोग आदमी हैं, कोई सामान नहीं कि इनके ऊपर भी सेल्स टैक्स लगे."

मेरी बात से कन्विंस नहीं हुए. बोले; "आदमी हैं तो फिर आलू-गोभी का माफिक काहे बिक रहा है ई सब?"

मैंने कहा; "आलू-गोभी की माफिक नहीं बोलिए हीरा-जवाहरात की तरह. बोली लगाकर खरीदे गए हैं."

मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "बोली लगाकर बिके हैं, इतना त हमहू जानते हैं. सुनने से कैसा लगता है न. ऊ जो फिलिम में देखाता है कि कौनो सेठ का सबकुछ बरबाद हो गया और ऊ कर्जा में डूब जाता है तब उसका घर-दुआर जैसे हथौड़ा मार के बिकता है. ओईसे ही तो?"

मैंने कहा; "एक दम ठीक पहचाने. वैसे ही बिके हैं सब."

बोले; "एक बात बाकी गजबे होई गवा."

मैंने पूछा; "क्या?"

बोले; "विदेशी तेल, साबुन, शेम्पू वगैरह तो ठीक लगता है. ऊ का वास्ते हमरे देश का लोग सब बहुत पैसा पेमेंट कर देता है लेकिन विदेशी खेलाड़ी सब तो बहुत सस्ता में खरीद लिया सब. खिलाडी लोगों का वास्ते ज्यादा पईसा नहीं दिया कोई भी. सुने कि पार्थिव पटेल भी पोंटिंग से जादा दाम में बिक गए."

मैंने कहा; "ऐसा होता है. किस खिलाड़ी का कितना महत्व है, वो तो टीम वाले ही बता सकते हैं. वो लोग जिन्होंने टीम खरीदे है."

मेरी बात सुनकर उन्होंने मेरी तरफ़ कुछ ऐसे देखा जैसे मुझे बेवकूफ साबित करने पर तुले हैं. फिर बोले; "हम पाहिले ही बोले रहे न, आप बहुते भोले हैं. अरे ई सब चाल है टीम का मालिक लोगों का. नहीं तो आप ही कहिये, पार्थिव पटेल का इतना दाम. लगा जईसे बँगला पान खरीद रहा है लोग ऊ भी बनारसी पान का दाम देकर."

उनकी बात सुनकर मुझे लगा एक पान खाने आए थे और इतनी देर लग गई. बात खिलाड़ियों की बिक्री से होते हुए कहाँ-कहाँ से आखिर पान तक आ रुकी. मुझे लगा रतीराम जी से बात करते रहेंगे तो पता नहीं और कहाँ-कहाँ से होकर गुजरना पड़े. उनकी पार्थिव पटेल और बँगला पान वाली बात पर मैंने झट से कहाँ; "एक दम ठीक बोले हैं. इसी बात पर एक ठो बनारसी पान लगा दीजिये."

सुनकर हंस दिए. बोले; "ये लीजिये, अभिये लगा देते हैं."

चलते-चलते

सुनने में आया है कि अर्थशास्त्रियों के एक दल ने भारत सरकार के वित्त मंत्रालय और भारतीय रिज़र्व बैंक को एक ज्ञापन दिया है. इस ज्ञापन में इन्फ्लेशन के लिए बनाए गए होलसेल प्राईस इंडेक्स में बाकी चीजों के साथ-साथ क्रिकेट खिलाड़ियों को भी शामिल करने का आग्रह किया गया है. जब कुछ जानकारों ने क्रिकेट खिलाड़ियों के शामिल करने का विरोध यह कहकर किया कि; आख़िर आम जनता तो क्रिकेट खिलाड़ी खरीदती नहीं. ऐसे में उन्हें होलसेल प्राईस इंडेक्स में शामिल करने का औचित्य क्या है तो अर्थशास्त्रियों का जवाब था; "जिन लोगों ने टीम और खिलाडी खरीदे हैं, उन्हें इन्कम तो आम जनता की जेब से ही आनी है. ऐसे में पूरा भार जनता के ऊपर ही तो पड़ेगा."

आप का इस ज्ञापन के बारे में क्या विचार है?

Friday, January 7, 2011

दुर्योधन की डायरी - पेज २८८९




मंहगाई को लेकर बड़ी हडकंप मची है. सब हलकान हो रहे हैं. टीवी न्यूज चैनल पर पैनल डिस्कशन करके मंहगाई को रोकने की कोशिश की जा रही है लेकिन मंहगाई है कि रूकती नहीं. ठीक वैसे ही जैसे दिल है कि मानता नहीं. कुछ लोगों ने तो मंहगाई से बोर होकर कहना शुरू कर दिया है कि इससे अच्छा तो अंग्रेजों का राज था. जमाखोरी तो नहीं होती. वैसे मेरा कहना है कि क्या ऐसा पहली बार हुआ है कि मंहगाई बढ़ गई है? ऐसा तो हर युग में होता आया है. विश्वास नहीं होता तो द्वापर युग में लिखी युवराज दुर्योधन की डायरी पढ़िए. मेरी बात आपको सच लगेगी:-)

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दुर्योधन की डायरी - पेज २८८९

कल शाम को पार्टी में पता चला कि मंहगाई बढ़ गई है. कई बार लगता है जैसे अगर पार्टी का आयोजन न हो तो पता ही न चले कि दुनियाँ में क्या हो रहा है? कौन घट रहा है? कौन बढ़ रहा है? कौन अटका पड़ा है? किसको कौन सा पुरस्कार मिलने वाला है? किसके खिलाफ मीडिया के हाथ सबूत आ गए हैं? ये सारी बातें पार्टी में ही तो पता चलती हैं. लेकिन मंहगाई की बात और वह भी पार्टी में?

मंहगाई बढ़ने का ब्रेकिंग न्यूज अगर पार्टी में सुनने को मिले तो अजीब हालत हो जाती है. कल भी वही हुआ. बीयर का स्वाद जो ख़राब हुआ तो फिर ठीक होने में बड़ा समय लगा. ऐसा ख़राब हुआ कि कबाब से भी नहीं सुधरा. हुआ ये कि पार्टी में खाना बनाने के लिए जिस कैटरर को बुलाया गया था उसने पार्टीबाज मेहमानों के खाने का दाम प्रति प्लेट बढ़ा दिया. अब बढ़ा दिया तो बढ़ा दिया. हमें क्या फरक पड़ता है? हमें कौन सा बैंक से लोन लेकर पार्टी करनी है? लेकिन दु:शासन ने नादानी कर दी. उसने कैटरर से झगड़ा कर लिया. अड़ गया कि जिस रेट में ठेका दिया था उससे एक पैसा ज्यादा नहीं मिलेगा. वैसे कैटरर की भी क्या गलती है? बेचारा मंहगाई की मार कितनी सहेगा?

खैर, मैंने दु:शासन को समझाया. तब जाकर मामला शांत हुआ. उसे अलग तरीके से समझाना पडा. अब है तो नादान ही. एक बार भी उसने नहीं सोचा कि अगर ये बात बाहर चली गई कि हम राजघराने के लोग भी मंहगाई से पीड़ित हैं तो लोग़ क्या कहेंगे? न्यूज चैनल वाले सुबह-शाम ब्रेकिंग न्यूज चलाएंगे और राजमहल से वक्तव्य मांगेंगे.

मामाश्री से मंहगाई का कारण पूछा तो पता चला कि स्वर्णमुद्रा की कीमत कम हो गई है. लेकिन यहाँ थोड़ा कन्फ्यूजन है. जहाँ एक तरफ़ तो स्वर्ण की कीमतें बढ़ गई हैं वहीं दूसरी तरफ़ मुद्रा की कीमत घट गई है. मामला कुछ समझ में नहीं आ रहा. वैसे मेरी समझ में क्या आएगा जब अर्थशास्त्रियों की समझ से बाहर है. इतनी-इतनी तनख्वाह मिलती है इन अर्थशास्त्रियों को लेकिन ये अपना काम ठीक से नहीं कर सकते. ये अर्थव्यवस्था के बारे में जो भी बोलते हैं, उसका उलटा होता है. इससे अच्छा होता कि मौसम वैज्ञानिकों के हाथ में ही अर्थव्यवस्था दे दी जाती. मौसम विज्ञानी भी मौसम के बारे में जो कुछ भी बोलते हैं, वो भी कभी नहीं होता. सोचता हूँ कुछ दिनों के लिए अर्थशास्त्रियों को मौसम विभाग में और मौसम वैज्ञानिकों को अर्थ विभाग में शिफ्ट कर दूँ. आख़िर बात तो एक ही है. अगले साल विदुर चचा से कहकर ऐसा ही करवा दूँगा.

मंहगाई बढ़ने के कारणों के बारे में जितने मुँह उतनी बात. खैर, कल अर्थशास्त्रियों की बैठक है. देखता हूँ क्या होता है.


दुर्योधन की डायरी - पेज २८९०

अभी-अभी अर्थशास्त्रियों की बैठक से आया हूँ. मंहगाई की समस्या तो वाकई बहुत बड़ी समस्या का रूप ले चुकी है. लेकिन इससे भी बड़ी समस्या है अर्थशास्त्रियों को समझना. जितने अर्थशास्त्री आए थे सब मंहगाई का अलग-अलग कारण बता रहे थे. कुछ कह रहे थे कि ब्याज दरों के कम होने से ऐसा हो रहा है क्योंकि प्रजा के हाथ में बहुत ज्यादा पैसा आ गया है और वे मनमाने ढंग से चीजों के दाम दे रहे हैं. कुछ का कहना है कि ये समस्या केवल हस्तिनापुर की समस्या नहीं है. पड़ोसी राज्यों में भी ये समस्या है. कुछ कह रहे थे कि पड़ोसी राज्यों में तो क्या सारे ब्रह्माण्ड में यही समस्या है.

मेरी समझ में यह नहीं आता कि प्रजा के हाथ में ज्यादा पैसा आ गया है से क्या मतलब? क्या प्रजा बैंक से लोन लेकर सब्जी, चावल, दाल वगैरह खरीद रही है?

मीटिंग में एक अर्थशास्त्री जो कभी-कभी गुप्तचर भी बन जाता है, तो यहाँ तक कह रहा था कि केशव ने भी आजकल दूध का सेवन बंद कर दिया है क्योंकि दूध बहुत मंहगा हो गया है. कुछ का कहना था कि भगवान शिव ने भी आजकल फल खाना कम कर दिया है. पहले जब भगवान् शिव को चीजें मंहगी लगती थीं तो वे बीजिंग से सस्ती चीजें इंपोर्ट कर लेते थे लेकिन अब वहां भी चीजें सस्ती नहीं रही. लिहाजा भगवान शिव ने भी आजकल बीजिंग से चीजें मंगानी बंद कर दी हैं.

मीटिंग तो क्या थी, सारे अर्थशास्त्री हंसने का उपक्रम कर रहे थे और बढ़िया खुशबू वाली दार्जीलिंग चाय का मज़ा ले रहे थे.

एक अर्थशास्त्री, जिसका चश्मा बहुत मोटे ग्लास का था, और जिसे देखने से लग रहा था कि उसने काफ़ी अध्ययन किया है, उसने बताया कि समस्या और कहीं है. चूंकि उसकी बातें ज्यादा नहीं सुनी जाती इसलिए उसकी बात पर किसी ने कुछ ख़ास ध्यान नहीं दिया. लेकिन मुझे लगा कि शायद इसके पास कोई ठोस कारण है, सो मैंने उससे पूछ लिया कि असली समस्या क्या है?

उसने बताया कि खाने के समान सही समय पर सही जगह नहीं पहुँच रहे हैं. सड़कों की हालत ठीक नहीं है. जो ट्रक खाने का समान लेकर अपने गंतव्य स्थल पर दो दिन में पहुंचता था उसी ट्रक को अब चार दिन लग रहे हैं. उसका कहना था कि बुनियादी सेवाओं को सुधारने के लिए राजमहल ने कुछ नहीं किया. पथ परिवहन मंत्री ने वादे तो बहुत बड़े-बड़े किये थे लेकिन काम के नाम पर कुछ नहीं किया.

कुछ अर्थशास्त्रियों का अनुमान था कि अनाज और खाने के सामानों की भारी मात्रा में जमाखोरी हुई है. अब जमाखोरों के ख़िलाफ़ कार्यवाई भी तो नहीं कर सकते. मेरे ही कहने पर दु:शासन और जयद्रथ ने इन जमाखोर व्यापारियों से काफी मात्रा में पैसा वसूल कर रखा है. अब ऐसे में जमाखोर व्यापारियों के ख़िलाफ़ कार्यवाई करना तो ठीक नहीं होगा. उधर मंहगाई की मार से परेशान जनता रो रही है.

वैसे हमें मालूम है कि कुछ नहीं किया जा सकता लेकिन जनता को दिखाना तो पड़ेगा ही कि हम मंहगाई रोकने के लिए सबकुछ कर रहे हैं.

इसलिए मैंने तीन कदम उठाने का फैसला किया है.पहला, व्याज दरों में बढोतरी कर दी जायेगी. दूसरा प्रजा को सस्ते अनाज उपलब्ध कराने के तरीकों की खोज के बारे में सुझाव देने के लिए एक कमिटी का गठन किया जायेगा. तीसरा; कुछ जमाखोर व्यापारियों पर छापे की नौटंकी खेलनी पड़ेगी. छापे मारने का काम सबसे अंत में होगा. और तब तक नहीं होगा, जब तक इन व्यापारियों के पास ख़बर नहीं पहुँच जाती कि उनके गोदामों पर छापा पड़ने वाला है.

देखते हैं, मंहगाई रोकने के हमारे 'प्रयासों' का क्या होता है?

Monday, January 3, 2011

एक अधूरा इंटरव्यू




डॉक्टर विनायक सेन की सजा पर टीवी पैनल डिस्कशन किये जा रहे हैं. इनपर कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को बोलते हुए देखकर मुझे नरोत्तम कालसखा ज़ी याद आ गए. उनका इंटरव्यू फिर से प्रकाशित कर देता हूँ. आपने अगर पहले नहीं बांचा है तो बांचिये.

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नरोत्तम कालसखा बहुत बड़े मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. बड़े से मेरा मतलब काफी लम्बे हैं. कह सकते हैं ये मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के शिरोमणि हैं. वैसे तो ये और भी काम करते हैं लेकिन इनका जो सबसे प्रिय काम है वो है इन्टरव्यू देना और पैनल डिस्कशन में भागीदार बनना. इन्टरव्यू देने में तो इन्होने हाल ही में विश्व रिकॉर्ड बनाया हैं.

प्रस्तुत है उनका एक इन्टरव्यू.

पत्रकार: नमस्कार कालसखा जी. धन्यवाद जो आपने अपना बहुमूल्य समय इन्टरव्यू के लिए निकाला.

नरोत्तम जी: धन्यवाद किस बात का? हमें इन्टरव्यू देने के अलावा काम ही क्या है? हमें तो इन्टरव्यू देना ही है. आपको पता है कि नहीं, मैंने हाल ही में इन्टरव्यू देने का विश्व रिकॉर्ड बनाया है?

पत्रकार: हाँ हाँ. वो तो पता है मुझे. इसीलिए मैंने सोचा कि जब तक मैं आपका इन्टरव्यू नहीं लूँगा मेरा पत्रकार जीवन धन्य नहीं होगा.

नरोत्तम जी: ठीक है. ठीक है. आप इन्टरव्यू शुरू करें. मुझे इन्टरव्यू ख़त्म करके अपने कॉलेज में एक भाषण देने जाना है.

पत्रकार: ज़रूर-ज़रूर. तो चलिए, पहला सवाल इसी से शुरू करते हैं कि कौन से कॉलेज में थे आप?

नरोत्तम जी: मैं सेंट स्टीफेंस में था.

पत्रकार: वाह! वाह! ये तो बढ़िया बात है. दिल्ली में सेंट स्टीफेंस वाले छाये हुए हैं. वैसे एक बात बताइए. आप सेंट स्टीफेंस के हैं उसके बावजूद आप न तो सरकार में हैं और न ही पत्रकार. ऐसा क्यों?

नरोत्तम जी: हा हा...गुड क्वेश्चन. ऐसा तो मेरी सबसे अलग सोच के कारण हुआ. मैंने सोचा कि सेंट स्टीफेंस वाले सभी सरकार में जाते हैं या फिर पत्रकार बन जाते हैं. मुझे अगर सबसे अलग दिखना है तो मैं मानवाधिकार में चला जाता हूँ. वैसे भी मानवाधिकार वाला सबके ऊपर भारी पड़ता है. सरकार के ऊपर भी और पत्रकार के ऊपर भी. वैसे आप भी तो पत्रकार हैं. आप भी क्या सेंट स्टीफेंस के....

पत्रकार: नहीं साहब नहीं. मैं तो माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय की पैदाइस हूँ.

नरोत्तम जी: वही तो. मैं भूल ही गया कि आप हिंदी के पत्रकार हैं. ऐसे में सेंट स्टीफेंस के...

पत्रकार: हा हा हा..सही कहा आपने. वैसे ये बताइए कि आपसे लोगों को यह शिकायत क्यों रहती है कि आप केवल आतंकवादियों, नक्सलियों या फिर अपराधियों का पक्ष लेते हैं? जब किसी निरीह आम आदमी की हत्या होती है, आप उस समय कुछ नहीं कहते. कहीं दिखाई नहीं देते?

नरोत्तम जी: देखिये भारत में सत्तर प्रतिशत से ज्यादा लोगों की प्रति दिन आय नौ रुपया अड़तालीस पैसा से ज्यादा नहीं है. साढ़े सत्ताईस करोड़ लोग प्रतिदिन केवल एक वक्त का खाना खा पाते हैं. आजादी से लेकर अब तक कुल सात करोड़ चौसठ लाख तेरह हज़ार पॉँच सौ सत्ताईस लोग सरकारी जुर्म का शिकार हुए हैं. आंकड़े बताते हैं कि.....

बोलते-बोलते अचानक नरोत्तम जी जोर-जोर से बोलने लगे. बोले; "पहले मेरी बात सुनिए आप. मुझे बोलने दीजिये पहले. मेरी बात नहीं सुननी तो मुझे बुलाया ही क्यों?"

पत्रकार भौचक्का. उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि नरोत्तम जी को अचानक यह क्या हो गया? घबराते हुए वह बोला; "सर, आप ही तो बोल रहे हैं. मैंने तो आपको बोलने से बीच में रोका नहीं."

अचानक नरोत्तम जी को याद आया कि वे पैनल डिस्कशन में नहीं बल्कि इंटरव्यू के लिए बैठे हैं. लजाने की एक्टिंग करते हुए बोले; "माफ़ कीजियेगा, मैं भूल गया कि मैं पैनल डिस्कशन में नहीं बल्कि इंटरव्यू के लिए बैठा हूँ."

पत्रकार: चलिए कोई बात नहीं. लेकिन आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया. मेरा सवाल यह था कि लोगों को शिकायत रहती हैं कि....

नरोत्तम जी: मैं आपके सवाल का ही जवाब दे रहा था.डब्लू एच ओ की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले चार साल आठ महीने और सात दिन में कुल सात लाख पचहत्तर हज़ार चार सौ नौ लोग सरकारी आतंकवाद का शिकार हुए हैं. नए आंकड़ों के अनुसार....

पत्रकार: डब्लू एच वो? आपके कहने का मतलब वर्ल्ड हैल्थ आरगेनाइजेशन?

नरोत्तम जी: नहीं-नहीं. डब्लू एच ओ से मेरा मतलब था वुडमंड ह्युमनराइट्स आरगेनाइजेशन. आपको इसके बारे में नहीं पता? यह अमेरिका का सबसे बड़ा ह्यूमन राइट्स आरगेनाइजेशन है.

पत्रकार: लेकिन आपको लगता है कि अमेरिका का कोई आरगेनाइजेशन भारत में होने वाली घटनाओं पर इतनी बारीक नज़र रख पायेगा? खैर, जाने दीजिये. आप ने अभी भी मेरे मूल सवाल का जवाब नहीं दिया.

नरोत्तम जी: मैं वही तो कर रहा था..... मैं ये कह रहा था कि सरकारी आतंकवाद को रोकने के लिए हम प्रतिबद्ध है. हमारा जीवन इसी रोक-थाम के लिए समर्पित है.

पत्रकार: लेकिन आप उनको क्या कहेंगे जो पुलिस वालों को मारते हैं? जो आम आदमी को आतंकित करके रखते हैं? क्या वे आतंकवादी नहीं हैं?

नरोत्तम जी: देखिये, आतंकवाद को परिभाषित करना पड़ेगा. आतंकवाद क्या है? ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार टेरोरिज्म इज अ कंडीशन व्हिच...

पत्रकार: सर, आप क्या आतंकवाद की परिभाषा अब डिक्शनरी से देना चाहते हैं?

नरोत्तम जी: हमारे पास सारे तथ्य पूरे प्रूफ़ के साथ रहते हैं. आप अगर सुनना नहीं चाहते हैं तो फिर हमें बुलाया क्यों?

पत्रकार: अच्छा कोई बात नहीं. आप यह बताइए कि सरकार के कदम के खिलाफ ही क्यों बोलते हैं आप?

नरोत्तम जी: सरकार के कदम इसी लायक होते हैं. साठ साल हो गए देश को आजाद हुए. लेकिन सरकार ने केवल निरीह लोगों के ऊपर अत्याचार किया है. विकास के कार्य को हाथ नहीं लगाया. विकास के सरकारी आंकड़े फर्जी हैं. शिक्षा का कोई विकास नहीं हुआ. उद्योगों के विकास के आंकड़े पूरी तरह से फर्जी हैं...आज नक्सल आन्दोलन को निरीह और पूअरेस्ट ऑफ़ द पूअर का समर्थन क्यों मिल रहा है?

पत्रकार: लेकिन नक्सल आन्दोलन को क्या केवल निरीह लोगों का ही समर्थन मिल रहा है? वैसे एक बात बताइए, इन निरीहों के पास ऐसे अत्याधुनिक हथियार कहाँ से आते हैं?

नरोत्तम जी: सब बकवास है. सब सरकारी प्रोपेगैंडा है. नक्सल आन्दोलन में शरीक लोग आदिवासी हैं. इनके पास हथियारों के नाम केवल धनुष-वाण और किसी-किसी के पास कटार है. इससे ज्यादा कुछ नहीं. आधुनिक हथियारों की बात झूठी है. सरकार की फैलाई हुई.

पत्रकार: आपके हिसाब से अत्याधुनिक हथियारों की बात सरकार ने एक प्रोपेगैंडा के तहत फैलाया है?

नरोत्तम जी: बिलकुल. आप अपना दिमाग लगायें और सोचें कि जिन गरीबों के पास खाने को रोटी नहीं है वे ऑटोमेटिक राइफल कहाँ से खरीदेंगे? कोई बैंक लोन देता है क्या इसके लिए?

पत्रकार: चलिए मान लेता हूँ कि ये हथियार नहीं हैं उनके पास. लेकिन कई बार देखा गया है कि ये लोग पुलिस वालों को बेरहमी से कत्ल कर देते हैं. कल रांची में नक्सलियों द्बारा एक इंसपेक्टर की हत्या कर दी गई. आप क्या इसे आतंकवाद नहीं मानते?

नरोत्तम जी: आपके पास क्या सुबूत है कि उस इंसपेक्टर की हत्या नक्सलियों ने की है? सब सरकार का फैलाया गया प्रोपेगैंडा है. देखिये आज से पंद्रह साल पहले तक अट्ठाईस हज़ार चार सौ पैंतीस लोगों से कुल सात हज़ार नौ सौ तेरह एकड़ जमीन छीन ली गई थी जिसपर कुल तिरालीस हज़ार आठ सौ पंद्रह क्विंटल अनाज पैदा होता था. इसमें से बारह हज़ार तीन सौ उन्नीस क्विंटल अनाज खाने के काम आता था और बाकी.....एक अनुमान के हिसाब से सरकार ने कुल उनतालीस हज़ार छ सौ सत्ताईस एकड़ जमीन तेरह उद्योगपतियों के हवाले किया जिसकी वजह से चौबीस हज़ार लोग अपनी ज़मीन से हाथ धो बैठे...हाल ही में प्रकाशित हुए नए आंकडों के अनुसार....

नरोत्तम जी बोलते जा रहे थे. कोई सुनने वाला नहीं था. पत्रकार बेहोश हो चुका था.

(हाल ही में खबर आई है कि पत्रकारों के एक दल ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सूचना और प्रसारण तथा गृहमंत्री को एक ज्ञापन दिया है जिसमें मांग की गई है कि पत्रकारिता विश्वविद्यालय से निकले नए-नए स्नातकों को ऐसे लोगों का इंटरव्यू लेने के लिए बाध्य न किया जाय. ऐसा करना नए पत्रकारों के मानवधिकारों का हनन है.)