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Thursday, January 3, 2008

रीढ़हीन समाज निकम्मी सरकार और उससे भी निकम्मी पुलिस डिजर्व करता है


@mishrashiv I'm reading: रीढ़हीन समाज निकम्मी सरकार और उससे भी निकम्मी पुलिस डिजर्व करता हैTweet this (ट्वीट करें)!

मुम्बई.

दो टीवी पत्रकार आपस में बात कर रहे हैं. "बहुत बुरा हाल है कानून-व्यवस्था का. औरतें सुरक्षित नहीं रही इस शहर में भी. तुम्हें क्या लगता है?"; पहले पत्रकार ने पूछा.

"मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है. लेकिन हमें कोई निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए. थोडी देर में ही कमिश्नर आयेंगे. उन्ही से पूछ लेते हैं कि कानून-व्यवस्था की स्थिति क्या सचमुच ख़राब है. औरतें क्या सुरक्षित नहीं हैं. अगर वे बोल देंगे, तभी समझना कि औरतें सुरक्षित नहीं हैं"; दूसरे ने कहा.

दूसरे का वक्तव्य ठीक उसी तर्ज पर था जैसे किसी जिले में महीनों से पानी नहीं बरसा. फसल नष्ट हो चुकी है. लोगों को पीने का पानी उपलब्ध नहीं है. लेकिन जब तक सरकार उस जिले को सूखाग्रस्त नहीं घोषित करेगी, तब तक यह नहीं माना जा सकता कि जिले में सूखा पडा है.

कमिश्नर साहब आए. पत्रकार ने उनसे सवाल किया "आपको क्या लगता है, मुम्बई शहर में महिलाएं क्या सुरक्षित नहीं हैं?"

"पूरी तरह से सुरक्षित हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो आप अपनी पत्नी को घर में छोड़कर यहाँ नहीं होते"; कमिश्नर साहब ने जवाब दे डाला.

लीजिये, टीवी वालों को 'बाईट' चाहिए थी और कमिश्नर साहब ने अपने जवाब से पत्रकारों को 'काट' खाया. अब साहब की यही 'बाईट' बार-बार टीवी पर दिखाकर उन्हें कोसा जा रहा है. समस्याओं को सुलझाने का काम पिछले कई सालों से टीवी के पैनल डिस्कशन और सेमिनारों के द्वारा किया जा रहा है.

देखकर लगता है जैसे सरकार इन टीवी वालों से विनती करती है कि आप हमारा काम कर दीजिये न. कहीं पर नक्सली हमला करते हैं तो सरकार इनसे कहती होगी; "ये नक्सलियों का आतंक बढ़ गया है, आप कुछ कीजिये न."

टीवी वाले पूछते होंगे; "हम क्या कर सकते हैं? ये तो कानून-व्यवस्था की समस्या है."

सरकार कहती होगी; "आप एक पैनल डिस्कशन आयोजित कीजिये अपने चैनल पर. समस्या ख़त्म हो जायेगी." और टीवी वाले बेचारे लग जाते हैं पैनल डिस्कशन के आयोजन पर. जनता से एसएम्एस लेकर समस्या का समाधान खोजते हैं. नक्सलियों की समस्या के इतिहास और भूगोल पर बात शुरू हो जाती है. दो दिन तक ऐसे ही चलता है. तब तक कोई और समस्या आ जाती है. अब नक्सलियों की समस्या का नंबर एक महीने बाद आएगा जब कोई नया हमला होगा.

कल बारी थी नए साल के मौके पर मुम्बई में दो महिलाओं के साथ हुई हिंसा की. पैनल डिस्कशन में तीन-चार लोग थे. एक थे अलीक पद्म्सी. ये साहब भारतवर्ष की दो-तिहाई समस्याओं के अकेले विशेषज्ञ हैं. इन्होने आधे घंटे के अन्दर वात्सायन, कामसूत्र, मुग़ल और अंग्रेजों का इतिहास बता डाला. सबकुछ बताकर इन्होने नेताओं को दोष दे डाला. हो सकता है इनको पता हो कि सत्तर-अस्सी लोगों की भीड़ को किसी नेता ने उकसाया था.

पहले भीड़ इकट्ठी होती थी तो ट्रक, बस और ट्रेन वगैरह जलाने के काम आती थी. बाद में दंगे करवाने के काम आने लगी. अब हालत ये है कि औरतों के ख़िलाफ़ हिंसा भी समूह कर रहा है. ऐसे समूह से बनने वाला रीढ़हीन समाज निकम्मी सरकार और उससे भी निकम्मी पुलिस डिजर्व करता है. उससे ज्यादा कुछ नहीं.

18 comments:

  1. सत्य वचन कहा है जी।

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  2. चारो तरफ खराब, यहां और भी खराब

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  3. पता नही हम लोग किस और जा रहे है।

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  4. एक पाकिस्तानी गायक का एक गाना जो मुझे बहुत पसंद है।

    " हम किस गली जा रहे हैं………अपना कोई ठिकाना नही…………"

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  5. शिव जी,आपकी लेख का अन्तिम पारा पढ़ कर लगा जैसे अपने अन्दर खौल रहे भावों को शब्द मिल गया.एक दम सही लिखा.किसी भी एक को पूरा दोष नही दे सकते.वो लड़कियां जो अधनंगी सी इन स्थानों पर इस तरह जाती हैं ,वो पुरूष वर्ग जो इस तरह के मौकों के तलाश मे तरसती भटकती है ,वो पुलिस जो रीढ़ विहीन और वर्दीधारी डाकू हैं और वो मिडिया जो बिकाऊ ख़बरों के दूकान चलने के सिवाय अपना कोई उत्तरदायित्व नही मानती.ऐसे समाज मी किस से क्या अपेक्षा की जा सकती है.बस रेलवे वाली उस चेतावनी 'यात्री अपने समान की सुरक्षा स्वयं करें' की तर्ज पर ''व्यक्ति अपने धर्म,कर्म,जान और माल की सुरक्षा स्वयं करें'' धरना को मानते हुए भगवान् का नाम लिए जिए जायें,यही कर सकते हैं.

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  6. डेमोक्रेसी अब मॉबोक्रेसी में तब्दील हो रही है। ज्यादा प्रॉबलम माने ज्यादा चैनल और ज्यादा पैनल उनपर डिस्कशन के लिये।
    आवश्यकता रीढ़ की नहीं, ज्यादा चैनल/पैनल/डिस्कशन की है। आप इसपर स्ट्रेस करिये और सतत दबाव बनाये रखिये। देश का भला ज्यादा बड़ा मीडिया और ज्यादा तेज पत्रकार ही कर सकते हैं।

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  7. बंधू
    "एक थे अलीक पद्म्सी."
    ग़लत लिखा आपने लिखिए एक हैं "अलीक पद्म्सी". इनका चेहरा मोहरा और बातचीत का अंदाज़ देखें तो लगता है जो काम भीड़ नहीं कर पाती वो ये हजरत अकेले ही करने में सक्षम हैं. बाकि आप की पोस्ट पे जो रंजना जी कमेंट कर गयी हैं उसको पढने के बाद कुछ भी लिखना शब्दों का दुरुपयोग करने जैसा है. वो शत प्रतिशत या उस से भी कुछ अधिक ठीक लिख गयी हैं.
    नीरज

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  8. बहुत ही विचलित करती हैं ऐसी बातें।

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  9. वाह रंजना जी ! मुझे आश्चर्य है कि अब तक आप जैसे सोच वालों ने ऐसे कानून क्यों न बनवा डाले कि अमुक वस्त्र पहनने या न पहनने वाली स्त्रियों लड़कियों का बलात्कार करना मैन्डेटरी है । वैसे शायद आप यह नहीं जानती कि जो वस्त्र हम बड़े गर्व से हमारी संस्कृति का हिस्सा मान पहनते हैं , उसमें जो पेट पीठ दिखता है वह बहुत से समाजों में नग्नता ही माना जाता है । क्यों न हमारे साथ भी वही किया जाए जो इन स्त्रियों के साथ किया गया ?
    घुघूती बासूती

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  10. अच्छा मुद्दा उठाया है आपने यहाँ --
    भारतीय अस्मिता की कोरी बातोँ से क्या होगा ? जब तक हर इन्सान , दूसरे के प्रति सम्मान देना नहीँ सीखेगा तब तक,
    बम्बई या अन्य शहरी गुँडे, ऐसे ही कारनामोँ से अपने आप को "भारतीयता" के गुणोँ + नाम को सर्मसार करते रहेँगेँ --

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  11. घुघुतीजी

    आपने वह कह दिया जो मै कहना चाहती थी । रंजना का अपना कोई अस्तित्व नहीं है इसलिये ब्लोग नहीं दिखता जब उनका नाम क्लिक करो । औरत हो कर औरत को अधनंगी कहने वाली महिलाओ कि वज़ह से ही पुरुषो को शह मिलती हैं ।

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  12. घूघूती जी ने बिल्कुल सही कहा
    सबसे पहली बात तो यह है कि तस्वीरों से यह पता नहीं चलता कि वे लड़कियाँ ऐसे-वैसे कपड़े पहनी थी, और मा्निये अगर पहनी भी थी तो पुरूष को यह अधिकार किसने दे दिया कि आप ऐसे वैसे कपड़े पहनने वाली लड़कियों के कपड़े फाड़ डाले??

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  14. घुघुती जी और सागर भाई,

    मेरा विचार है कि रंजना जी के कमेंट को सामान्य तौर पर लेना चाहिए. एक सामान्य सोच है कि ऐसी घटनाओं के लिए बहुत सारे लोगों को जिम्मेदार मान लिया जाता है. उनका कमेंट शायद इसी बात को दर्शाता है. आख़िर हमें ये मानकर चलना चाहिए कि जो कुछ भी लिखा जाता है या बोला जाता है वह हमेशा सही हो, ये ज़रूरी नहीं है. आख़िर, हमसब साधारण इंसान हैं, हम कभी भी एक समाजशास्त्री की जगह नहीं ले सकते.

    @रचना जी,

    मैंने ऊपर जो भी लिखा कि जो कुछ लिखा जाय या फिर बोला जाय, वह हमेशा सही हो, आपके कमेंट में झलकता है. आपने बड़ी आसानी से लिख दिया कि रंजना का अपना कोई अस्तित्व नहीं है. क्या ब्लॉग और प्रोफाईल रहने से ही किसी का अस्तित्व होता है?

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  16. क्षमाप्रार्थी हूँ उन समस्त सुधि जानो से जिन्हें भी मेरे वाक्यांश से कष्ट पहुँचा भले प्रतिक्रिया दी हो या न दी हो.मेरा परम कर्तब्य बनता है कि मैं स्पष्टीकरण दूँ.
    वर्तमान समय मी अधिकांश खबरी चैनल जिस तरह के और जिस तरह से खबरें परोसते हैं,अक्सर ही हिम्मत नही पड़ती मुख्य समाचार को विस्तार मे देखने की.सो उक्त घटना भी चलते फिरते कानो मे इसी रूप मे आई कि '' ३१ दिसम्बर की रात........... मनचलों द्वारा सामूहिक चेद्खानी की सनसनी दास्तान........'' इसके आगे न कुछ सुनने जानने की जरुरात समझी न ही इस और कोई उपक्रम किया.प्रतिक्रिया भी किसी घटना या लेख विशेष पर नही किया.नाम से जाहिर है,एक स्त्री हूँ और सचमुच नही मानती कि बलात्कार और दुर्व्यवहार केवल उन्ही स्त्रियों के साथ होता है जो कम वस्त्रों से सुस्सज्जित होने मे विश्वास रखती हैं या इन घटनाओं कि जिम्मेदार स्त्रियाँ होती हैं.यह टू नारी का वह दुर्भाग्य है जो युगों से सीता द्रौपदी से लेकर स्त्री शरीर होने भर से किसी न किसी रूप मे हर स्त्री को ढोनी और भोगनी पड़ती है. किंचित यह पीड़ा,विक्षोभ,असमर्थता ही उस रूप मे फ़ुट पड़ती है जब स्त्री स्वयं को ही कोसने लगती है कि जब तुम्हारे शरीर मे वह बल नही कि अपने बल पर अपनी शील और मर्यादा कि रक्षा करने मे यथेष्ट सक्षम हो सको तो उस पुरूष समाज से क्या अपेक्षा कर सकती हो जो कभी आततायी बनकर तुम्हे अपमानित करता है,कभी दूर खड़ा तमाशबीन बना उसका आनंद लेता है और कभी निर्विकार भाव से यह मानते हुए कि पीड़ित उसका सगा नही और रक्षा करने को उद्धत होना उसका कर्तब्य नही मान लेता है.उनके बारे मे मुझे कुछ नही कहना जो रिश्तेदार होते हुए भी स्वयं को हर प्रकार से मर्यदामुक्त मानता है.इस समाज का ही हिस्सा,उसकी इकाई अपराधी,मूक दर्शक और रक्षक तीनो है.
    एक अत्यन्त साधारण साहित्यप्रेमी और पाठक भर हूँ,पर कहना चाहूंगी कि यदि किसी के नाम का परचम ब्लॉग जगत मे ,साहित्य जगत मे या समाज मे रूप ,गुन,धन ,मान,ऐश्वर्यशाली व्यक्ति के रूप मे नही फहरा रहा है तो इसका यह मतलब नही हुआ कि समाज समुदाय मे व्याप्त अव्यवस्था,विसंगति या विभत्सता को देख वह विचलित नही होता होगा,उसका खून नही खौलता होगा.एक साधारण मनुष्य और लंबे अनुभवों को देख भोग चुकी स्त्री हूँ.संवेदनाएं भी रखती हूँ और समझ भी.
    भेद तो इश्वर ने संरचना से लेकर सामर्थ्य तक मे कर दिया है.स्त्री को मन धैर्य ममत्व कि असीमित गुणों से सम्रिध्ध कर और पुरुषों को भी अन्य गुणों के साथ शारीरिक बल देकर.मेरे हिसाब से स्त्री इस धरा पर असीमित सामर्थ्य से विभूषित इश्वर कि सर्वश्रेष्ठ रचना है.नादुनियाँ कि समस्त स्त्रियाँ सच्चारित्र होती हैं न सभी पुरूष दुशचरित्र.. पर अन्तर यह है कि कुसंस्कार और अंहकार से ग्रसित पुरूष जब स्त्री को भोग कि वस्तु मान अपमानित करने को उद्धत हो जाता है तो बहुत कम स्त्रियाँ अपने शील और मर्यादा कि रक्षा मे सफल हो पाती हैं.हर व्यक्ति यदि अपनी मर्यादा और कर्तब्य का पालन ही करने लगे तो फ़िर समस्या ही क्या रह जायेगी.पर हम इसकी कामना और प्राथना भर कर सकते हैं.तबतक अपनी रक्षा के लिए यह मानकर चलना पड़ेगा कि सभ्य सुसंस्कृत सक्षम और प्रगतिशील दिखने कि होड़ हम विचार और कर्म क्षेत्र मे आगे बढ़कर तो कर सकती हैं पर जिस किसी भी परिधान और व्यवहार से उनकी पाशविक वृत्ति उभर सकती है,हमे केवल भोग्य रूप मे देखने को उत्सुक हो सकती है ,उस से परहेज करने मे कोई बुराई नही है.
    क्या आप नही मानते कि हम मे से ही अधिकांश युवा और आकर्षक दिखने कि होड़ मे फंसी नारी ख़ुद को '' हाट '' और ''सेक्सी'' कहलाने मे गर्व का अनुभव करती हैं.आर्थिक स्वतंत्रता,पारिवारिक उत्तरदायित्व से मुक्ति से लेकर पुरूष समाज मे व्याप्त मद्यपान,धूम्रपान या इस तरह के बहुत सारे बुराइयों को अपनाना ही पुरुषों कि बराबरी करने का पर्याय मानती हैं.ये स्त्रियाँ समाज और संस्कृति को किस दिशा मे लिए जा रही हैं??किसी भी जाति,धर्म ,देश,भाषा,काल और संस्कृति की अच्छी बातें अपना कर सम्रिध्ध और प्रगतिशील नही रह सकती हम?? .चाहे पृथ्वी हो प्रकृति हो या नारी हो दोहन सदैव से ही स्त्री का होता आया है और होता रहेगा,क्योंकि देने का जो सामर्थ्य इसके पास है उसका दोहन हर कोई करना चाहता है,मौका गंवाना नही चाहता.पर इसी के मध्य पहले स्वयं को समझना,पहचानना और इसी समाज मे सबके बीच रह, अपनी अस्मिता की रक्षा का मार्ग हमे ख़ुद ही निकालना पड़ेगा.व्यक्ति या व्यवस्था को गलियां दे कोस कर जी हल्का किया जा सकता है पर उन सवालों से नही बचा जा सकता जो स्त्रियों को स्वयं से पूछना है.

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  17. “क्या आप नही मानते कि हम मे से ही अधिकांश युवा और आकर्षक दिखने कि होड़ मे फंसी नारी ख़ुद को ” हाट ” और ”सेक्सी” कहलाने मे गर्व का अनुभव करती हैं।आर्थिक स्वतंत्रता,पारिवारिक उत्तरदायित्व से मुक्ति से लेकर पुरूष समाज मे व्याप्त मद्यपान,धूम्रपान या इस तरह के बहुत सारे बुराइयों को अपनाना ही पुरुषों कि बराबरी करने का पर्याय मानती हैं.ये स्त्रियाँ समाज और संस्कृति को किस दिशा मे लिए जा रही हैं??”

    रंजना शायद उसी धारा को मानती है जहाँ सारे मोरल नारी के लिये हैं । जब रेप और मोलेस्टेशन होता है तो कोई जरुरी नहीं है कि महिला ” हाट ” और ”सेक्सी” हो । अगर आप कि यादाश्त सही हो तो अरुणा Shanbaug को याद करे जिसका बलात्कार १९७३ मे हुआ था । उस समय ना तो आप के हिसाब से वो महिला ” हाट ” और ”सेक्सी” थी ऑउर ना उस समय पुरुषो कि बराबरी हो रही थी । आप को ना याद आया हो तो ये लिंक देखे http://www.tribuneindia.com/2002/20020531/nation.htm#8

    आप का ब्लोग लिंक नहीं खुलता है , आप के नाम पर क्लिक्क करो तो प्रोफाइल नहीं दिखता है तो आप अपने अस्तित्व को बचा कर लिखना चाहती है और यही नारी की सबसे बढ़ी कमजोरी हैं की वह दबी ढकी रहना चाहती है , पर मेरा आप के इस निर्णय से कोई विरोध नहीं है क्योंकी ये आप कि जिन्दगी है , उसी प्रकार आप जब दूसरी नारी के रहन सहन पर कमेन्ट करे तो ध्यान रखे समाज के पतन के लिये नारी के कपडे नहीं जिमेदार है ।
    नारी की मानसिकता जिमेदार है । हेर गलत चीज़ को स्वीकार करना नारी कि आदत होगई है और पुरुषो से पाना उसकी नियती ।
    हमर ब्लोगेर समाज मै भी अगर नारी को पुरूस्कार दिया गया है तो इस लिये क्योंकी वह नारी है और उसे प्रोत्साहन मिलना चाहिये । http://mypoemsmyemotions.blogspot.com/2008/01/blog-post_12.html अगर हम equality का दावा करते है तो हमे किसी भी चीज़ को केवल इसलिये नहीं स्वीकार करना चाहेयाए क्योंकी वह हमे हमारे नारी होने कि वज़ह से मील रही है । मै इसे मानसिक परतंत्रता समझती हूँ
    आर्थिक स्वंत्रता से कोई फायदा नहीं है अगर आप मानसिक रूप से परतंत्र हैं ।
    हर माँ को अपने पुत्र को वही समझाना होगा जो वह अपनी पुत्री को समझाती है ताकि समाज मे बराबरी रहें ।
    बुरी हमारी सोच मे है कि हम रेप और मोलेस्टेशन मे भी ये देखते है कि नारी के कपडे कैसे थे !!!!!!!!!!!
    माफ़ करे रंजना मे आप कि राय से बिल्कुल इतेफाक नहीं रखती और मै नारी के प्रती कही भी गलत लिखा देखती ह तो विरोध करती हूँ ताकि आगे आने वाली नारियों को उतनी लड़ाईया ना लड़नी पड़े ।

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  18. सटीक विश्लेषण प्रस्तुत किया आपने. निश्चय ही सोचने पर मज़बूर करते है आपके विचार.
    ( पता नहीं,कहां से लिंक होते होते आपके ब्लोग पर पहुंचा ).
    फ़िर रंजना जी एवं रचना जी की बहस भी पढी.
    विचारोत्तेजक .

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय