शिव कुमार मिश्र (पिछली पोस्ट में) हर इलेक्शन के समय पर होने वाले आम आदमी के यशोगान को अपने व्यंग का टार्गेट बना रहे हैं. वे यह इंगित भी कर रहे हैं कि आम आदमी न होता है; न ताकतवर होता है.जो भी ऐसी ताकत की अनुभूति करता हैं उसकी ताकत की केवल छ महीने में कलई उतर जाती है.
गोवर्धन पर्वत कृष्ण ने अपनी कनिष्ठिका पर उठा लिया था. पर सारे गोकुल वासी गुमान में रहे कि उनके हाथ लगाने से; उनके डण्डा अड़ाने से वह उठा है. कृष्ण काल का प्रतीक हैं. समय ने मायावती को जिता दिया. समय ने मुलायम को हरा दिया. पर हर डण्डा अड़ाने वाला “गोकुल वासी” मगन है कि उसने जीता चुनाव.
जनता पार्टी वाले प्रयोग के समय हम नासमझ थे. सन 1977 में रात भर जगे. श्रीमती गान्धी व उनके पुत्र के हारने का समाचार आकाशवाणी दे ही नहीं रहा था. हमें आम आदमी की जीत का एनाउंसमेण्ट सुनना था. हार कर सवेरे वह समाचार दिया. रेडियो जब मंगलाचरण गा रहा था तब हम मगन हो रहे थे कि जनता जीत गयी है. पर जो जीते; वो दूसरे ही थे. साल-डेढ़ साल में पूरी कलई खुल गयी. उन्होने आपसी खींचातान में जेपी की विचारधारा को ठिकाने लगा दिया. लोग सोचने लगे कि इससे तो श्रीमती गान्धी बेहतर थीं. आम आदमी वाला मिथक तब टूटा.
उत्तर प्रदेश में भी आम आदमी/बहुजन/सर्वजन का राज नहीं आया है.शिव कुमार मिश्र की मानें – और मानने में मुझे कोई हिचक नहीं है – तो 6 महीने के हनीमून में सब साफ हो जायेगा.
कभी-कभी तो लगता है कि नानी पालकीवाला सही कहते थे – वयस्क मताधिकार लागू कर भारत ने पिछली सदी की सबसे बड़ी भूल की थी. जब जनता मताधिकार के लिये परिपक्व है ही नहीं; तो “एक आदमी-एक वोट” का क्या मायने? और जनता अभी भी परिपक्व नहीं है.
फिर यह आम आदमी चीज क्या है? मुहल्ले वालों को पढ़ो तो आम आदमी कुछ और है; लोकमंच वालों के लिये कोई और है; मायावती के लिये कोई और है. मुलायम के लिये कोई और है. सिवाय लक्ष्मण के कार्टून में परिभाषित होने के, वह कोई मूर्त व्यक्ति नहीं है. मीड़िया अपनी दुकान चलाने को आम आदमी गढ़ता है. सैफोलोजिस्ट उसमें गणित और सांख्यिकी का चोला पहनाता है. फिर 6 महीने में आम आदमी का कैरीकेचर बदल जाता है. नेता का भी चित्र बदल जाता है।
आम आदमी/उसकी ताकत/उसका राज मिथक है. मिथक नहीं है तो वह है समय. समय कनिष्ठिका पर गोवर्धन उठाये है और तथाकथित आम आदमी अपना डंडा अड़ा, अपनी ताकत से मगन, अपने क्वासी-हिस्टिरिकल नशे में, आनन्दमार्गी नृत्य किये जा रहा है!!!
मीड़िया साइडलाइन में खड़ा, उसे जोश दिलाने को मृदंग/खरताल बजा रहा है!
पाण्डेयजी,
ReplyDeleteसबसे पहले तो धन्यवाद कि आपने "एकोऽहम" को अपना स्पर्श दिया ।
आप जब रतलाम में थे तो आपसे भेंट हुई थी । आपसे मिलना कठिन काम हुआ करता था इसलिए ज्यादा मुलाकातें नहीं हुई । खैर,
अब "मिसिरजी" की बात पर कुछ बात । कुछ उद्ध्रण केवल उद्रत करने के लिए ही होते हंै इसीलिए पालकीवाला की बात केवल कोट करने तक ही बहुत अच्छी है । आम आदमी को अपनी आैकात ही नहीं अपनी क्षमता का अनुमान भी भली प्रकार है । लेकिन बेचारे को दो जून की रोटी तलाशने से फुरसत मिले तब ना ? एेसे में जब हर पांचवे साल उसे मौका मिलता है वह अपनी ताकत दिखा ही देता है आैर इस तरह दिखाता है कि सबके अनुमान ताश के महल की तरह ढह जाते हंै । आज भी वोट न देने वालों में बुध्दिजीवी सबसे आगे हंै । बकौल परसाईजी, हमारे तमाम बुध्दिजीवी शेर हंै लेकिन वे सियारों की बारातों में बैण्ड बजाते हंै ।
आम आदमी अपने क्वासी हिस्टिरकिल नशे में आनन्दमार्गी नृत्य कर रहा है या नहीं लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि हमारे बुध्दिजीवी जरूर "निष्क्रीय सज्जन सक्रिय दुर्जन" वाली उक्ति को शब्दश: साकार कर रहे हंै । इन "सज्जनों" को "शब्दों की जुगाली" से मुक्त करवा कर मैदान में लाईए, नक्षा बदल जाएगा ।