गृहमंत्री परेशान हैं. नक्सलियों ने बड़ा हड़कंप मचा रखा है. जब चाहते हैं किसी को मार देते हैं. पुलिस से वही हथियार छीन लेते हैं जो पुलिस को आत्मरक्षा और जनता की सुरक्षा के लिए मिला है. रेल लाइन उड़ा देते हैं. रेलवे स्टेशन जला देते हैं. इतना सब करने से मन नहीं भरता तो इलाके में बंद भी कर डालते हैं.
मंत्री जी ने कई बार इन नक्सलियों को बताया; "तुम हमारे अपने ही तो हो. मुख्यधारा में लौट आओ. तुमको केवल इसी बात की शिकायत है न कि हमने तुम्हारे लिए कुछ नहीं किया? चलो एक काम करते हैं. हम और तुम मिलकर राष्ट्र-निर्माण का कार्यक्रम चलायेंगे. दोनों के चलाने से कार्यक्रम की सफलता पर कोई संदेह नहीं रहेगा."
नक्सली जी को लगता है मंत्री जी की बात में दम तो है लेकिन अगर वे भी सरकार में बैठ जायेंगे तो उनके बाकी कर्मों और कमिटमेंट का क्या होगा? इसलिए वे मंत्री जी की बात पर ज्यादा ध्यान नहीं देते. उल्टे दूसरे दिन ही दो-चार और घटनाएं कर डालते हैं. मंत्री जी परेशान हैं. पिछले दो-तीन सालों में बड़ी मेहनत की लेकिन नक्सली जी के ऊपर कोई असर नहीं हुआ.
तमाम जुगत लगाई गई लेकिन सब फेल हो गईं. टीवी पर पैनल डिस्कशन कराये गए, देश के महानगरों में सेमिनार कराये गए, गाँधी जयंती पर अपील की गई लेकिन मामला जमा नहीं.
आजकल मंत्री जी की परेशानी का सबब प्रधानमंत्री का बयान है. दो महीने पहले प्रधानमंत्री ने एक कार्यक्रम में नक्सली हिंसा पर चिंता जाहिर करते हुए कह डाला; "हम नक्सली हिंसा को काबू में नहीं कर पा रहे."
अब प्रधानमंत्री ऐसा कहेंगे तो मंत्री जी तो परेशान होंगे ही. आज परेशानी इतनी बढ़ गई कि सचिव से रपट मंगा ली है. सचिव जी ढेर सारी फाईलें लिए खड़े हैं.
"माननीय प्रधानमंत्री ने जब से कहा है कि हम नक्सली हिंसा रोकने में कामयाब नहीं हुए हैं, तब से नक्सली हिंसा रोकने के लिए क्या-क्या हुआ है, उसकी पूरी जानकारी दीजिये. सबसे पहले मुझे महानगरों में आयोजित सेमिनारों का डिटेल दीजिये"; मंत्री जी ने सचिव जी से कहा.
"जी सर. देखिये सर, कलकत्ते में मार्च महीने में सेमिनार आयोजित किया गया था. मोशन का शीर्षक था, " नक्सली समस्या का कारण समुचित विकास का न होना है."
सर इसमें गृह राज्यमंत्री ने भी अपने विचार व्यक्त किए थे. सर उनके अलावा विपक्ष के एक नेता थे. अखबारों के तीन सम्पादक थे जिसमें से दो कलकत्ते के और एक चेन्नई के थे. इनके अलावा एक रिटायर्ड अफसर थे जो कभी गृह सचिव रह चुके हैं. हाँ सर, इस सेमिनार में विज्ञापन जगत की एक मशहूर हस्ती और नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाले एक कवि भी थे"; सचिव ने जानकारी दी.
"कलकत्ते में सेमिनार के अलावा और कहाँ-कहाँ सेमिनार आयोजित हुए?"; मंत्री जी ने जानना चाहा.
सचिव को सवाल शायद ठीक नहीं लगा. शायद उन्हें लगा कि मंत्री जी के इस कवायद का कोई मतलब नहीं है. इसलिए उन्होंने मुंह विचकाते हुए एक और फाइल उठा ली. फाइल देखते हुए उन्होंने बोलना शुरू किया; "सर, मुम्बई में एक सेमिनार अप्रिल महीने के पहले सप्ताह में हुआ था. वहाँ से पब्लिश होने वाले एक अखबार के प्रकाशकों ने करवाया था. उसमें एक रिटायर्ड आईजी, विपक्ष के एक नेता, दो सम्पादक, एक फ़िल्म प्रोड्यूसर और वही कवि थे जो कलकत्ते के सेमिनार में भी थे. यहाँ मोशन का शीर्षक था, "नक्सलवाद सामाजिक अन्याय की परिणति है". इसके अलावा सर, एक सेमिनार हैदराबाद में, एक दिल्ली और एक पटना में आयोजित किया गया."
मंत्री जी सचिव की बात बहुत ध्यान से सुन रहे थे. उन्होंने सामने रखे पैड पर अपनी पेंसिल से कुछ लिखा. लिखने के बाद सचिव से फिर सवाल किया; "और टीवी पर पैनल डिस्कशन का क्या हाल है? कौन-कौन से चैनल पर पैनल डिस्कशन हुए? उसका डिटेल है आपके पास?"
"जी सर. पूरा डिटेल है हमारे पास. मैंने सारे पैनल डिस्कशन की वीडियो रेकॉर्डिंग भी रखी है. आप देखेंगे?"; सचिव ने अपनी कार्य कुशलता का परिचय देते हुए पूछा.
"नहीं नहीं, वो सब देखने का समय नहीं है. आप केवल ये बताईये कि कौन-कौन से चैनल पर क्या पैनल डिस्कशन हुआ"; मंत्री जी की बात से लगा जैसे सचिव की वीडियो रेकॉर्डिंग देखने वाली बात उन्हें ठीक नहीं लगी.
"सॉरी सर. देखिये सर, सीसी टीवी पर एक पैनल डिस्कशन हुआ सर. इस आयोजन में एंकर थे सर, प्रमोद मालपुआ. उनके अलावा सर फ़िल्म प्रोड्यूसर सुरेश भट्ट, यूपी के पूर्व आईजी विकास सिंह, ओवरलुक पत्रिका के सम्पादक मनोज मेहता थे. सर, इस डिस्कशन में नेपाल से भी एक माओवादी नेता ने भाग लिया था सर. इनके अलावा नुक्कड़ नाटक करने वाले एक अभिनेता थे सर. चैनल ने एसएमएस पोल भी करवाया था सर. सवाल था, "नक्सलवाद की समस्या को सरकार क्या गंभीरता से ले रही है?" सर आपको जानकर खुशी होगी कि इस बार सैंतीस प्रतिशत लोगों ने जवाब दिया कि सरकार समस्या को गंभीरता से ले रही है"; सचिव ने पूरी तरह से जानकारी देते हुए कहा.
"केवल सैंतीस प्रतिशत लोगों ने हमारी गंभीरता को समझा! और आप इसपर मुझे खुश होने के लिए कह रहे हैं?"; मंत्री जी ने खीज के साथ सवाल किया. शायद उन्हें सचिव द्वारा कही गई खुश होने की बात ठीक नहीं लगी.
"नहीं सर, बात वो नहीं है. मेरे कहने का मतलब है सर कि पिछली बार इसी तरह के एक सवाल पर केवल बत्तीस प्रतिशत लोगों ने सरकार के प्रयासों को गंभीर प्रयास बताया था"; सचिव ने सफाई देते हुए कहा.
"अच्छा अच्छा, कोई बात नहीं. और बताईये, और किस चैनल पर डिस्कशन हुआ?"; मंत्री जी ने और जानकारी चाही.
"सर इसके अलावा एक पैनल डिस्कशन सर्वश्रेष्ठ चैनल अभी तक पर, एक डिस्कशन हाईम्स नाऊ पर और एक डीएनएन बीएनएन पर हुआ. सर, लगभग सारे पैनल डिस्कशन में घूम-फिर कर वही सब ज्ञानी थे. लेकिन सर, एक बात कहना चाहूंगा. अगर आपकी इजाजत हो तो अर्ज करूं"; सचिव जी ने मंत्री से कहा.
"हाँ-हाँ बोलिए. जरूर बोलिए. आप भी तो सरकार का हिस्सा हैं. कोई सुझाव हो तो बोलिए"; मंत्री जी ने सचिव को लगभग आजादी देते हुए बताया.
मंत्री जी की बात से सचिव का उत्साह जग गया. उन्होंने बोलना शुरू किया; "देखिये सर, सेमिनार और पैनल डिस्कशन वाली बात तो अपनी जगह ठीक है. लेकिन सर, हमें प्रशासनिक स्तर पर भी कोई कार्यवाई करनी चाहिए. सर, लोगों का मानना है कि पुलिस की ट्रेनिंग और उनके लिए आधुनिक हथियार वगैरह मुहैया कराने से पुलिस अपने काम में और सक्षम होगी. हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए."
"देखिये, पुलिस को आधुनिक हथियार मुहैया कराने वाली बात मैं सालों से सुन रहा हूँ. लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसा करने से कोई फर्क पड़ेगा. देखिये, अगर हम पुलिस को आधुनिक हथियारों से लैस कर देंगे तो खून-खराबा बढ़ने के चांस हैं. गाँधी जी जैसे शान्ति के मसीहा के देश में इस तरह का खून-खराबा होगा तो पूरी दुनिया में हमारी साख गिरेगी. वैसे भी महात्मा के देश में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है"; मंत्री जी ने समझाते हुए कहा.
मंत्री जी की बात सुनकर सचिव जी को हँसी आ गई. लेकिन बहुत कोशिश करके उन्होंने अपनी हँसी रोक ली. उन्हें एक बार तो लगा कि मंत्री जी से कह दें कि; "सर दो मिनट का समय दे दें तो मैं बाहर जाकर हंस लूँ"; लेकिन मंत्री के सामने ऐसा करने की गुस्ताखी नहीं कर सके. उन्होंने एक मिनट की चुप्पी के बाद कहना शुरू किया; "सर, कुछ लोगों का मानना है कि नक्सली हिंसा की समस्या कानून-व्यवस्था की समस्या है."
"अरे ऐसे लोगों की बात पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है. मैंने कम से कम दो बार देश भर के बुद्धिजीवियों के साथ बैठक की है. सारे बुद्धिजीवी इस बात पर सहमत थे कि नक्सली समस्या कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक समस्या है"; मंत्री जी ने अपनी सोच का खुलासा करते हुए बताया.
"तब तो ठीक है सर. फिर तो कोई समस्या ही नहीं है. जब बुद्धिजीवियों ने इसे कानून-व्यवस्था की समस्या मानने से इनकार कर दिया है फिर आम जनता की बात सुनकर क्या आनी-जानी है. वैसे भी आम जनता के पास इतनी बुद्धि नहीं है कि वो इस तरह की जटिल समस्याओं के बारे ठीक से विचार कर सके"; सचिव ने मंत्री की हाँ से हाँ मिलाई.
"बिल्कुल ठीक कह रहे हैं आप. वैसे एक बात बताईये. ये नक्सली हिंसा की समस्या को लेकर और मंत्रालयों में क्या बात हो रही है? अरे भाई, आप भी तो बाकी मंत्रालयों के सचिव वगैरह से मिलते ही होंगे. मेरे कहने का मतलब है कि बाकी के मंत्री और सचिव क्या सोचते हैं हमारे मंत्रालय के बारे में?"; मंत्री जी ने सचिव के कान के पास धीरे से पूछा.
मंत्री जी की बात सुनकर सचिव जी मुस्कुराने लगे. उन्होंने इधर-उधर देखते हुए कहना शुरू किया; "सर, देखा जाय तो बाकी के मंत्रालय हमारे मंत्रालय के प्रयासों के बारे में कुछ अच्छा नहीं सोचते. वो परसों झारखंड में नक्सलियों ने रेलवे लाइन उड़ा डी न. उसी को लेकर कल कैंटीन में चर्चा हो रही थी. मैं, रक्षा मंत्रालय के सचिव और प्रधानमंत्री कार्यालय के सहायक सचिव थे. झारखण्ड वाली घटना पर रक्षा मंत्रालय के सचिव ने चुटकी लेते हुए कहा कि अगर यही हाल रहा तो अगले दो-तीन साल के अन्दर सेना को पाकिस्तान, बंगलादेश और चीन के बॉर्डर से हटाकर उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, आँध्रप्रदेश और बिहार के बॉर्डर पर लगाना पड़ेगा."
सचिव की बात सुनकर मंत्री जी को बहुत बुरा लगा. उन्हें पूरा विश्वास हो चला कि रक्षा सचिव के अलावा प्रधानमंत्री कार्यालय का सहायक सचिव भी था तो उसने भी जरूर कुछ न कुछ कहा ही होगा. यही सोचते-सोचते वे पूछ बैठे; "और वो माथुर साहब क्या कह रहे थे? पी एम कार्यालय के सचिव भी तो कुछ बोले होंगे."
मंत्री जी का सवाल ही ऐसा था कि सचिव ने तुरंत बोलना शुरू कर दिया; "सर, प्रधानमंत्री कार्यालय भी हमारे प्रयासों को ज्यादा तवज्जो नहीं देता. माथुर साहब कह रहे थे कि माननीय प्रधानमंत्री के चिंता जाहिर करने के बावजूद हमारे मंत्रालय की तरफ़ से कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया. उन्हें तो सर इस बात से भी शिकायत है कि पीएम साहब के बयान के बाद गृहमंत्री महोदय ने एक बार संवाददाता सम्मेलन बुलाकर चिंता तक नहीं जताई."
सचिव की बात सुनकर मंत्री महोदय चुप हो गए. चेहरे पर कठोर भाव उमड़ पड़े. सोचने लगे; "देखो. प्रधानमंत्री कार्यालय का सचिव भी ऐसी बात करता है. फिर भी प्रधानमंत्री कार्यालय की बात थी. सो कुछ सोचते हुए उन्होंने सचिव से कहा; "कल से हमें इस समस्या के बारे युद्ध स्तर पर काम शुरू करने की जरूरत है. आप एक काम कीजिये. कल ही एक संवाददाता सम्मेलन बुलाईये. मुझे नक्सली हिंसा की समस्या पर चिंता व्यक्त करनी है. आगे की कार्यवाई के बारे में आप सारी डिटेल इस प्रेस कांफ्रेंस के बाद दूँगा."
इतना कहकर मंत्री जी उठ खड़े हुए. उन्होंने अपनी शेरवानी की जेब से दो पन्नों का एक कागज़ निकाला और पढने लगे. उन्हें आज ही इंडिया हैबिटैट सेंटर में एक सेमिनार में कुछ बोलना था. सेमिनार में डिस्कशन का मुद्दा था; 'लोकतंत्र और हम'.
Wednesday, April 7, 2010
गोली मत चलाओ खून बह सकता है.
@mishrashiv I'm reading: गोली मत चलाओ खून बह सकता है.Tweet this (ट्वीट करें)!
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
देश के लिये ऐसा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि 100 के करीब सैनिक बिना युद्ध के शहीद हो गये, इस प्रकार की घटनाऍं देश की सरकार के मुँह पर तमाचा है।
ReplyDeleteराहुल गांधी उनके घर नहीं जाते क्या?
ReplyDeleteतो ऐसे ही भारत महाशक्ति बनेगा..?
""""...समस्या का समाधान खोजना है, तो आपको मूल में जाना होगा। पेट्रोल से आग नहीं बुझती, इस बात को समझिये। आग बुझाने के लिए निश्चित रूप से पानी लाना होगा। और आपको तो पता ही है कि ये आग मामूली नहीं, बल्कि जंगल की आग है....""""
ReplyDeleteजंगल की आग को जंगल में ही दफन करना होगा.
ReplyDelete"पेट्रोल से आग नहीं बुझती, इस बात को समझिये। आग बुझाने के लिए निश्चित रूप से पानी लाना होगा।"
ReplyDeleteकहाँ से पानी लायेंगे? अब तो गंगा माई भी शर्म के मारे सूख गईं हैं.
आम जनता के पास इतनी बुद्धि नहीं है कि वो इस तरह की जटिल समस्याओं के बारे ठीक से विचार कर सके...
ReplyDeleteसही कहा, वो कम्बख्त केवल ब्लॉग पर टें टें कर सकता है. आस्थावान जो ठहरा. देश-धर्म-समाज-कानून न जाने किस किस से आस्था जोड़े बैठा है. बुद्धिजीवि तो वो हैं जो आस्थाभंजक है.
जन कल्याण के लिए स्कूल उड़ाना, पूल उड़ाना, सड़क व रेलमार्ग ध्वस्त करना, अपनी ही सेना व देशवासियों को मारना, क्या आइडिया है सरजी.
afsos hotaa hai in naukarashaahon matriyon par
ReplyDeleteअब तो टीवी वाले भी सानिया-सोएब पर ज्यादा टाइम दे रहे हैं ! उस पर ज्यादा एसेमेस आते हैं.
ReplyDeleteबहुत सही शिव भैया.हो यही रहा है.वो लोग शोषण की बात करते हैं?और खुद जो कर रहे हैं वो?जंगल मे आग भी यंहा की नही है.सब पडोस की है.एक भी कमाण्डर लोकल नही है/एक गुरसा था जो बाद मे पता चला रेड्डी है.जब आंध्र मे कांग्रेस की सरकार नही थी और छ्त्तीसगढ मे कांग्रेस की सरकार थी तो नक्सली वारदात आंध्र मे होती थी.सरकार बदलते ही ऐरिया बदल गया.अब आंध्र मे कांग्रेस की सरकार है और यंहा कांग्रेस की सरकार नही है तो यंहा हमले हो रहे हैं,उडीसा मे होरहे हैं बस आंध्र मे नही हो रहे हैं.सब समझ मे आता है खेल किसका है.कांग्रेस हमेशा से सत्ता हथियाने के लिये ऐसे ही हथकण्डे अपनाती रही है जिसका खामियाजा उसे एक नही दो-दो नेताओं को खोकर भुगतना पडा है.आपने इस गंभीर समस्या पर लिखा आपका छत्तीसगढिया होने के नाते आभारी हूं.
ReplyDeleteजब आग फैल रही थी, सर तक कम्बल ढके सो रहे थे सब । अब जब घर तबाह होने लगे तो वही लोग फू फा में जुट गये । भान अब सबको हो गया है अब कि ताकत झोंकनी पड़ेगी और वह भी नक्सलवाद के आमूलचूल विनाश तक । भ्रम में तो कोई भी नहीं अब । दुख असह्य यह है कि 76 आत्माओं की आहुति यह ज्ञान जागृत करा पायी ।
ReplyDeleteहे भगवान प्रवीण पाण्डेय को बुद्धी दे जो समझते है 76 आत्माओं की आहुति मूर्दों में ज्ञान जागृत करा पायी. ऐसे ही जागृति आती तो हमारी नींद कब की उड़ चुकी होती. एक कड़ा बयान आ जाए, यही बहुत बड़ा कदम होगा. जै हिन्द!
ReplyDeleteबुद्धिजीवी मतलब बुद्धि बेच कर जीने वाला...
ReplyDeleteपूरे देश में नक्सल वाद फैलने वाला है और देश गृहयुद्ध की भट्टी में जलने वाला है..
शोषण, पक्षपात, अन्याय, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, नेताओं का देश को विध्वंस करने का रवैया
अफसरों का राजाओं जैसा व्यवहार
कानून को पंगु बनाने वाले लोग...
माननीय बहुत जल्द यह पूरे देश में फैलेगा बस चेहरे अलग होंगे..
एक गंभीर मामला ....कुछ तो करना ही होगा
ReplyDeleteजी इतना दुखी है ,क्षुब्ध है,क्रोधित है.... खून ऐसे खौल रहा है कि इसने सारे शब्दों को लील लिया है....क्या कहूँ...
ReplyDeleteडा. अमर कुमार की भिगो कर की गई ई-मेल से टिप्पणी (सनद रहे कि उनकी टिप्पणियां मिटाई नहीं जातीं!) -
ReplyDeleteतबियत खुशकैट होय गयी, खूब भिगो के मारा है ।
पर एक अफ़सोस है कि इतना उत्तम कटाक्ष गैंडे की खाल पर च्यूँटी काटने से अधिक कुछ और नहीं ।
दुनिया का सबसे बड़ा नक्सली हमला। एक बार फिर हाई-एलर्ट, आपत बैठक, समीक्षा, मुआवज़ा तक ही सिमट कर रह जायेगा सब कुछ या और भी कुछ किया जयेगा। समय की मांग है कि उनका सफाया किया जाए जो सिर्फ़ हथियारों की भाषा समझते हैं।
ReplyDeleteइस घटना ने दिल दहला दिया है...मैं मनोज जी के सुझाव से सहमत हूँ....जब तक दर पैदा नहीं किया जायेगा तब तक ये हादसे होते रहेंगे..
ReplyDeleteमाओवादीयों की समझ जो है, उनका जिस तरह का एक्सपोजर है, जैसी शिक्षा है, और वृहत्तर दुनिया जहान से जो उनका विलगाव है, उसको समझते हुये, कोई भी समझदार इंसान, कोई वामपंथी भी उन्हें इस लायक नहीं समझता कि वों लोकतंत्र का विकल्प हो सकते है.
ReplyDeleteजनतंत्र है, और उसपर भरोशा रखने वालों का काम उसे बेहद मजबूत बनाना होता है. जनतंत्र की मजबूती दमन की ताकत तय नहीं करती, वों उसे कमजोर करती है. जनतंत्र की मजबूती होती है, कई विपरीत विचारों के बीच संवाद की गुंजाईश. और जनतांत्रिक प्रक्रिया के ज़रिये
बहुसंख्यक लोक के लिए समाधानों की तरफ जाना उनको इमानदारी से लागू करना करना.
इस पैमाने पर हमारा ६० साल का बच्चा लोकतंत्र बहुत कमजोर है, उसकी आजमाईश कभी पूरी तरह से हुयी नहीं है. जब जब भी हुयी है, उसे लोकतंत्र ने बेहद निरंकुश तरीके से कुचला है. चाहे आपातकाल हो, अलग राज्यों का आन्दोलन हो, नर्मदा घाटी का अहिंसक आन्दोलन हो, नोर्थ ईस्ट या फिर कुछ भी. राज्य के दमन का जो इतिहास है, उसकी माओवादियों और अतिपंथियों के उदय में जो सीधी भूमिका रही है, उससे इनकार नहीं किया जा सकता.
अगर सीधे संवाद की गुंजाईश होती तो अतिपंथ की ज़रुरत ख़त्म हो जायेगी. इस संवाद को जारी रखने के लिए मीडीया और सचेत नागरिक सरकार पर दबाब बना सकते है. दमन की बजाय जनतांत्रिक प्रक्रिया को आगे बढाने और इसके ज़रिये समाधान खोजने की दिशा में धकेल सकते है. ये एक राजनैतिक समस्या है, इसका समाधान भी राजनैतिक ही होगा.
दुर्भाग्य है उसका रोना बरसों से हम भी रो रहे हैं लेकिन सब कुछ भगवान भरोसे ही चल रहा है। सभी को सत्ता चाहिए बस इससे अधिक कुछ भी नहीं। इस देश का यही दुर्भाग्य है कि यहाँ के लोग सत्ता के लालची है। सारा समाज ही इस से पीड़ित है एक वर्ग की क्या बात करें?
ReplyDeleteआगे की बात:-
ReplyDeleteसेमीनार में डिस्कशन वैसा ही हुआ जैसा होता है...कुछ लोग बोलते रहे और कुछ ऊंघते रहे...बल्कि ये कहना सही होगा की कम लोग बोले और अधिक ऊंघते रहे...याने नतीजा, जैसा की सबको पहले से ही मालूम था, सिफ़र ही रहा...प्रधान मंत्री गहरी सोच में डूब गए...कोलेस्ट्रोल हाई होने के बावजूद उन्होंने घी में तले आलू के तीन परोंठे और दो अण्डों का आमलेट खाया...सचिव ने गौर से सुना तो पाया की वो गुनगुना भी रहे थे..."जब दिल ही टूट गया, हम जी के क्या करेंगे..." बात गंभीर थी...प्रधान मंत्री के स्वास्थ्य के साथ साथ देश संकट में था...
सचिव ने सोचना शुरू किया, ये काम वो कभी करते नहीं थे...सरकारी इंसान भी क्या कभी सोचता है जो वो सोचते? खैर...उन्होंने सोचा और सोचा और सोचते ही रहे...यहाँ तक की घर पर भी सोचते रहे...पत्नी ने देखा और हैरान हुई...आप कुछ सोच रहे हैं? सचिव हडबडाये जैसे कोई चोरी पकड़ी गयी हो....नहीं...नहीं...नहीं...हाँ हाँ हाँ...आखिर हथियार डालते हुए उन्होंने पत्नी को बता ही दिया की समझ में नहीं आ रहा नक्सलियों को कैसे समझाएं...
पत्नी हंसी...अक्सर पत्नियाँ अपने पति की बेवकूफी पर हंसती हैं...हँसते हुए बोले इसमें क्या है ये काम बहुत आसान है...आप ऐसा करें, हंसी के फटके कार्यक्रम में राजू श्रीवास्तव, सुनील पाल, जग्गी, पहचान कौन वाले नवीन आदि को इकठ्ठा करके उनसे कामेडी करते हुए नक्सलियों के लिए मेसेज दिलवा दें...सारा देश देखेगा हंसेगा नक्सली भी देखेंगे और हंसेगे और काम बन जायेगा...इस के अलावा आप " मेरे घर आना लाडो-शाडो ", "उतरन-फुतरण" , अगले जनम मुझे बिटिया-शिटिया ही कीजो, पवित्र रिश्ता-विश्ता , जैसे धाँसू सीरियल में सास , बहु, जेठानी देवरानी, नौकरानी , पति, देवर , प्रेमिका, कुलटा, धोबी, ड्राइवर, चौकीदार, भाई, बहिन, ससुर, पिता, माँ , चाचा, ताऊ, मामा, मामी, फूफा, फूफी, सहेली, आदि आदि के मुंह से तीन चार एपिसोड में लगातार नक्सलियों के लिए सन्देश करवा दो...बल्कि चार चार एपिसोड नक्सली स्पेशल के नाम से प्रचारित करवा दो...फिर देखना देश में ऐसी हवा बनेगी की नक्सली बंदूकें छोड़ टी.वी. चिपक जायेंगे...देश में अमन शांति कयाम हो जाएगी.
सचिव को जीवन में पहली बार शादी करने पर मलाल नहीं हुआ...पत्नी की बात को गाँठ बांधा और प्रधान मंत्री जी को जा सुनाया...बात सुन कर प्रधान मंत्री जी के चेहरे पर दो इंच लम्बी मुस्कान तैर गयी...जिसकी फोटो खींच कर सब अखबार वालों को भेज दी गयी...अगले दिन लोग उन्हें इतना मुस्कुराते देख कर संतुष्ट हो गए....त्वरित कार्यवाही की गयी...विचार अमल में लाया गया, समस्या का समाधान मिल गया था. जय हिंद.
""""...समस्या का समाधान खोजना है, तो आपको मूल में जाना होगा। पेट्रोल से आग नहीं बुझती, इस बात को समझिये। आग बुझाने के लिए निश्चित रूप से पानी लाना होगा। और आपको तो पता ही है कि ये आग मामूली नहीं, बल्कि जंगल की आग है....""""
ReplyDeletebilkul sahi kaha hai ji...
or aapka lekh to hai hrdyasparshi.......
kunwar ji,
बातें,बातें और बस बातें....कितनी बार टी.वी. पर चेहरा दिखा और कितनी बार अखबार में छपा....बस इसकी ही चिंता है,इन मंत्रियों को ....समस्या के मूल तक जाने की फुर्सत किसी को नहीं...जब देखने की ही फुर्सत नहीं...तो जड़ से मिटाने की कोशिश कहाँ से होगी...
ReplyDeleteजैसा कि हर खबर के साथ होता है...ये खबर भी तीन दिन बाद बासी हो जाएगी! सारी योजनायें भी और सारे वादे भी! पर हाँ...लोकतंत्र जिंदा रहेगा! माफ़ कीजिये दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र!
ReplyDeleteअपने बज़ से ज्ञान जी का कुछ लिखा चेप रहा हू.. कटु सत्य है ये..
ReplyDeletePankaj Upadhyay - मन व्यथित है.. क्षुब्ध है.. ये जो जवान मारे गए हैं, इनका हिसाब कौन देगा? क्या इसे भी पाकिस्तान के सर मड दिया जाएगा..
कब हम अपने ही इंसानों की इज्ज़त करना सीखेंगे... कब हम ऐसी भीडो को सबक सिखाने के लायक होंगे..
Do We need a military rule in India? Are our politicians just a bunch of shit..Delete
Gyan Dutt Pandey - कुछ लोग नेता और नौकरशाही को गरियायेंगे। कुछ मीडिया के दोगले पन को कोसेंगे। बाकी झाड़ पोंछ कर मानवाधिकार वालों की लत्तेरे-धत्तेरे करेंगे।
बस्तर का गरीब जस का तस रहेगा। दंतेवाड़ा की पोस्टिंग से पुलिस वाला धूजेगा। मॉल्स की बिक्री बढ़ती रहेगी। सुधीजन राइट टू एजुकेशन से पैसा बनाने की जुगत लगाने में मशगूल हो जायेंगे!
ओह, मैं एस्ट्रॉलॉजर सा लग रहा हूं!Apr 7
पल्लवी से सौ प्रतिशत सहमत..
http://www.google.com/buzz/mr.p.upadhyay/KCS1KkQWvoH/%E0%A4%AE%E0%A4%A8-%E0%A4%B5-%E0%A4%AF%E0%A4%A5-%E0%A4%A4-%E0%A4%B9-%E0%A4%95-%E0%A4%B7-%E0%A4%AC-%E0%A4%A7
ReplyDeleteसरकार वाकई में मेहनत कर रही है । 50-60 साल में जरूर नक्सल समस्या अपने आप ही समाप्त हो जायेगी जब पूरे भारत पर नक्सलियों का राज होगा ।
ReplyDelete