नेता जी ने बाबाजी के पाँव छू लिए. बाबाजी ने भी छुआ लिए. छु-छुआ कर दोनों धन्य हुए. त्रेता टाइप युग की घटना होती तो देवता लोग़ ऊपर से पुष्पवर्षा वगैरह भी कर देते लेकिन यह तो ठहरा कलियुग. ऐसा युग जिसमें जमाना हमेशा से खराब ही रहा है. लिहाजा पुष्पवर्षा का चांस नहीं बना. बाबा और नेता, दोनों को केवल धन्य होकर संतोष करना पड़ा. अब इस जुग में देवता कहाँ से आयेंगे? हमें भी यही सोचकर संतोष करना चाहिए कि हमारे नेता और हमारे बाबा लोग़ ही इस युग के देवता हैं. ऐसे में होना यह चाहिए था कि बाबा जी के कुछ लोग़ और नेता जी के कुछ लोग़ लोग़ पुष्प वगैरह बाज़ार से खरीद कर रखते और जैसी ही छुआ-छूत कार्यक्रम हुआ वैसे ही ये लोग़ एक-दूसरे के ऊपर पुष्पवर्षा कर डालते. हमारी संस्कृति की रक्षा भी होती और दोनों देवता पुष्प से नहा भी लेते.
नेताजी जी ने तो वैसे भी पाँव छूने के बाद घोषणा कर दी थी कि वे भारतीय संस्कृति की रक्षा का जिम्मेदारी पूर्ण कार्य कर रहे थे.
भारतीय संस्कृति की रक्षा के तमाम महत्वपूर्ण कर्मों में बाबाओं के पाँव छू लेना सबसे महत्वपूर्ण कर्म है जिसकी जिम्मेदारी बाबा और उनके भक्तों ने अपने कन्धों पर लाद रखी है. मैंने ऐसी अफवाह भी सुनी है कि अगर किसी बाबा का पाँव दो घंटे से ज्यादा समय तक न छुआ जाय तो वह हलकान च परेशान होने लगता है. कुछ लोग़ तो यहाँ तक बताते हैं कि कि ऐसे बिकट समय में बाबा लोग़ अपने चेलो-चपाटों को इशारा कर देते हैं और वे उनके पाँव छू लेते हैं ताकि बाबाजी का ब्लड प्रेशर कंट्रोल में रहे. उधर चेलों ने पाँव छुआ और इधर बाबा की हलकानियत गई.
वैसे देखा जाय तो इस मामले में योगगुरु टाइप बाबा लोग़ बहुत लकी हैं. उन्हें कभी इसकी वजह से परेशानी नहीं उठानी पड़ती. वे योगशिविर में सुबह-शाम अपने पाँव खुद ही छूते रहते हैं.
बाबाओं के लिए पाँव छुआ लेना अपने आप में बड़ा एक्सपर्टात्मक कार्य है. ठीक वैसे ही जैसे पाँव छू लेना. इस कार्य में छूने और छुआने वाले, दोनों को हमेशा अलर्ट रहना पड़ता है. ठीक वैसे ही जैसे सीमा पर खड़ा सिपाही हमेशा अलर्ट रहता है. यह सोचते हुए कि उधर से कोई घुसने की कोशिश किया नहीं कि इधर से गोली दागनी है. कुल मिलाकर अब न चूक चौहान टाइप परिस्थिति हमेशा बनी रहती है. ऐसे में अगर पाँव छूने-छुआने की प्रैक्टिस होती न रहे तो मामला गड़बड़ा सकता है. जैसे अगर छूने वाले के मन में अचानक पाँव छूने की इच्छा जाग उठे तो छुआने वाले को चाहिए कि वह तुरंत अपना पाँव आगे कर दे. अगर वह इस क्षण में चूक जाता है तब कुछ भी हो सकता है. हो सकता है कि छूने वाले को लगे कि; "जब यही अपना पाँव छुआने में इंट्ररेस्ट ही नहीं दिखा रहा तो मुझे क्या ज़रुरत है आगे बढ़कर जबरदस्ती पाँव छूने की?" छूने वाले के मन में यह विचार भी आ सकता है कि; "हटाओ जाने दो. जो यह नहीं जानता कि पाँव कैसे छुवाया जाता है उसका पाँव छूकर भी क्या फायदा? दरअसल इसका पाँव छूने लायक ही नहीं है."
संस्कृति रक्षा के इस कर्म में बाबाजी लोग़ बड़े एक्सपर्ट होते हैं. कुछ बाबा तो बैठे-बैठे अपना पाँव फैलाकर आगे किये रहते हैं. एवर-अलर्ट टाइप. ऐसे बाबाओं को पाँव न छुए जाने का कष्ट कभी नहीं सताता. कोई न कोई उनका पाँव छूता ही रहता है. उन्होंने पाँव आगे कर दिया तो कर दिया. आनेवाले को झक मार के पाँव छूना ही पड़ेगा. अगर उसने ऐसा नहीं किया तो फिर बाबाजी से आगे की बात ही नहीं हो सकती. ऐसे बाबा से वार्तालाप भी पाँव छूने से ही शुरू होता है. कह सकते हैं कि छूने वाले के हाथ को ही वार्तालाप शुरू करना है और बाबा जी के पाँव को उस शुरुआत के लिए इशारा करना रहता है. पाँव का छुआ जाना या न छुआ जाना ही यह तय करता है कि वार्तालाप किस तरह का होगा? भक्त ने अगर पाँव छू लिए तो गारंटी है कि बाबा जी उसके बेटे चुन्नू और बेटी गुड़िया का कुशल-क्षेम और उनकी पढ़ाई के बारे में भी पूछेंगे लेकिन अगर पाँव छूने के मामले में भक्त चूक गया तो फिर कोई गारंटी नहीं कि बाबाजी उसके कुशल-क्षेम के बारे में भी पूछें.
लगातार विचरण करने वाले बाबा जी को अलग तरह से अलर्ट रहना पड़ता है. चलते समय वे अपना दाहिना पाँव आगे फेंकते हुए चलते हैं ताकि भक्त को उनका पाँव छूने में न तो कोई कष्ट हो और न ही असमंजस. बाबा जी का पाँव आगे है मतलब भक्त को छूने का सिग्नल मिल रहा है. ऐसा करने से भक्त को सुभीता रहता है. उसका सेवेंटी परसेंट असमंजस अपने आप चला जाता है. वह पहला मौका मिलते ही बाबा का पाँव छू लेता है. बाबा भी अपना हाथ भक्त के सिर पर रखकर उसके पाँव छूने का फल उसे तुरंत दे देते हैं. भक्त अगर पैसेवाला रहा तो उसे उठकर अपने हृदय से भी लगा सकते हैं. बाबा जी का यह कर्म निश्चित करता है कि दोनों के हृदय मिल जायें और एक बड़े हृदय की सृष्टि करें ताकि वह अपने अन्दर बहुत कुछ समो ले.
पाँव छूने के एवज में मिलनेवाले आशीर्वाद भी अलग-अलग तरह के होते हैं. जैसे बाबागीरी के धंधे में आया नया-नया बाबा हर भक्त के ऊपर हाथ रख देता है. वहीँ सीजंड बाबा उस पोज में केवल हाथ ऊपर कर देता है जिस पोज में हमारे देवतागण आशीर्वाद देते थे. बाबाजी अगर डबल-सीजंड हुए तो वह अपना हाथ भी नहीं उठाते. वे केवल मुस्कान में अपना आशीर्वाद मिक्स करके भक्त के लिए ठेल देते हैं और भक्त उसे रिसीव कर लेता है. ऐसे बाबाओं के भक्तों का रिसीवर हमेशा ऑन रहता है, यह सोचते हुए कि क्या पता बाबा कब मुस्कुरा दें? कुछ बाबा तो हमेशा मुस्कुराते रहते हैं. उन्हें देखकर लगता है कि चुटकुलों की रेडिओ तरंगें उनके कानों से हमेशा टकराती रहती हैं और उसके प्रभाव से बाबा मुस्कुराते रहते हैं. वैसे मैंने एक बाबा के बारे में यह सुना है कि वे आशीर्वाद स्वरुप भक्त के सिर पर अपना पाँव दे मारते थे. फिर भक्त चाहे प्रधानमंत्री ही क्यों न हो. एक और बाबा अपना आशीर्वाद देने के लिए अंडे की उल्टी करते थे. कड़ी मेहनत करके उल्टी करते और फिर जीवविज्ञान के तमाम सिद्धांतों को धता बताते हुए मुँह से अंडा निकालते और भक्त को दे देते थे. भक्त और बाबा दोनों धन्य हो लेते.
यह अलग बात है कि बाबा द्वारा इतना कठिन कार्य करने के बावजूद देवताओं ने कभी आकाश से पुष्पवर्षा नहीं की.
यह तो हुई बाबाओं की बात. लेकिन क्या हमारी संस्कृति में पाँव छूने का कार्यक्रम बाबाओं और भक्तों तक ही सीमित है? बिलकुल नहीं. गुरुओं और बड़े-बुजुर्गों के पाँव छूने की भी संस्कृति है हमारे यहाँ. यह अलग बात है कि पाँव छूते-छुआते हुए ज्यादातर बाबाओं और भक्तों को ही देखा जाता है. कई गुरु तो शिष्य द्वारा पाँव न छुए जाने पर समाजशास्त्र के पर्चे में शिष्य के नंबर तक काट लेते हैं. युवराज दुर्योधन ने खुद अपनी डायरी के एक पेज में इस बात का जिक्र किया था कि कैसे क्रीड़ास्थल पर पाँव न छुए जाने पर एकबार गुरु द्रोण उनसे नाराज़ हो गए थे.
बहुत कम गुरु ऐसे होते हैं जो सार्वजनिक स्थल पर शिष्य द्वारा पाँव छू लिए जाने पर नाराज़ हो जाते हैं. ऐसे में वे अपने शिष्यों को क्लास-रूम में हिदायत देकर रखते हैं कि; "बाहर मिलने पर मेरे पाँव कभी मत छूना." शायद गुरु को मालूम रहता है कि अगर शिष्य ने कहीं सड़क पर आते-जाते पाँव छू लिए तो दुनियाँ को पता चल जाएगा कि वे गुरु हैं. ऐसे में इस बात का चांस बनता है कि दुनियाँ वाले अगले साल अपने बेटे-बेटियों, पोते-पोतियों के एडमिशन के समय गुरु जी को स्कूल-कालेज में मिलकर परेशान करें. यह कहते हुए कि; "बॉबी का नंबर कम आया है इसलिए एडमिशन नहीं हो रहा. आप अगर कह देते तो एडमिशन कमिटी उसका केस कंसीडर कर लेती."
बुजुर्गों के पाँव छूने को लेकर भी तमाम बातें हैं. कई बुजुर्ग भी इस बात से परेशान रहते हैं कि फलाने की शादी में फलाने के बेटे ने उनका पाँव नहीं छुआ. कई बुजुर्ग तो बेटे के माँ-बाप से शिकायत तक कर देते हैं. यह कहते हुए कि; "देखो कैसा बिगड़ गया है. मुझे देखा और पहचान भी लिया लेकिन पाँव नहीं छुआ उसने." उधर बच्चे की हालत ख़राब है और उसे माँ-बाप के सामने झूठ बोलना पड़ता है, यह कहते हुए कि; 'मैंने नानाजी का पाँव छुआ था. इनको ही याद नहीं."
वैसे पाँव छूने की रश्म धीरे-धीरे बदलती रही है. पहले बच्चे अपने बुजुर्गों के दोनों पाँव छूते थे. कालांतर में जैसे-जैसे जमाना थोड़ा ख़राब हुआ, एक पाँव छूने लगे. जमाना थोड़ा और ख़राब हुआ तो बुजुर्ग के सामने केवल झुकने लगे. आज हालत यह है कि दाहिना हाथ आगे करके बुजुर्ग के घुटने तक ले जाते हैं और वही हाथ खींचकर छाती से लगा लेते हैं. एक नौजवान ने पाँव छूने की इस 'इश्टाइल' कि व्याख्या करते हुए मुझे बताया कि; "भइया, इस तरह से पाँव छूने का मतलब और ही होता है."
मैंने पूछा; "वह और ही मतलब क्या है?"
वह बोला; "नौजवान अपना हाथ बुजुर्ग के घुटने तक ले जाता है फिर उसे खींचकर अपने छाती से लगा लेता है जिसे देखकर यह लगता है जैसे वह बताना चाहता हो कि आपका घुटना टूटे तो मेरे दिल को ठंडक पहुंचे."
एक और केस होता है...खैर, जाने दीजिये.
Tuesday, June 5, 2012
बाबाओं को चरणस्पर्श
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अच्छा, नेताजी ने घुटना छुआ या पांव?
ReplyDeleteपैर छुला लेना चाहिये, नहीं तो छूने वाला बुरा मान सकता है।
ReplyDeleteभैया पांव लागी!
ReplyDeleteसमाज में पांव या घुटना छुने की परंपरा को जीवित रखने में बाबाओं, नेताओं, राजश्री प्रोडक्शन और यश राज फिल्मस का महान योगदान रहा है :)
मस्त!
ReplyDelete" नौजवान अपना हाथ बुजुर्ग के घुटने तक ले जाता है फिर उसे खींचकर अपने छाती से लगा लेता है जिसे देखकर यह लगता है जैसे वह बताना चाहता हो कि आपका घुटना टूटे तो मेरे दिल को ठंडक पहुंचे."
यह तो अल्टीमेट....
चलिये अच्छा हुआ जो यह पोस्ट ठेल दी... इतने दिनों से थर्मोमिटर खोज रहा था जो बता दे कि जमाना कितना खराब हुआ है, अब वह चरण-स्पर्श शक्ल में मिल गया है. :)
ReplyDeleteये अच्छा हुआ जो पोस्ट ठेल दी... इतने दिनों से थर्मोमिटर खोज रहा था जो बता दे कि जमाना कितना खराब हुआ है, अब वह चरण-स्पर्श शक्ल में मिल गया है. :)
ReplyDelete@ GYANDUTT PANDEY नेताओं के रिढ़ नहीं होती अतः घुटनों तक अटके नहीं और पाँव को छू गए...
ReplyDelete"आपका घुटना टूटे तो मेरे दिल को ठंडक पहुंचे."
ReplyDeleteप्रभु क्या ग़ज़ब का पोस्ट लिखें हैं आप...ब्लॉग जगत धन्य हो गया आप जैसों को अपने बीच पा कर...आप के चरण कहाँ हैं प्रभु...हाथ छूने को कुलबुला रहे हैं...जब तक छू नहीं लेंगे छाती में ठंडक नहीं पड़ेगी (वैसे भी जून महीने में ठंडक की कल्पना बेमानी है)
इस्टाइल की व्याख्या गजब है! :)
ReplyDelete..दौड़ कर पैर छोने वाले उत्तम-कोटि के होते हैं,यह हमारे मास्टरजी बताया करते थे.वो कहते थे कि उन्हें पैर छोने की स्टाइल से ही चेले का हाव-भाव पता चल जाता था !!
ReplyDelete...भाई मिसिरजी,कमाल का लिखे हो,गडकरी जी तो लहालोट हो जायेंगे और बाबा अंतर्ध्यान !
छोने=छूने
ReplyDeleteनेता और बाबा मिलकर भोली भली प्रजा को बेवक़ूफ़ बनाते हैं :-|
ReplyDelete"इश्टाइल" बहुत सही है. ध्यान रखना पड़ेगा पाँव छूते समय... हमारे पीछे भी ऐसे ना कहा जाता हो कहीं :)
ReplyDeleteखासी छुआछूत मचा दी आपने ।
ReplyDeleteपांव ना छुओ कोई बात नही पर घुटना टूटने की बददुआ तो ना दो ।
पाँव छूते-छूते पाँव घिस कर खतम न हो जायें, यह खतरा आसन्न है...
ReplyDeleteइसीलिए पाँव छूने वाले और छूलाने वाले, दोनों इससे बचना चाह रहे हैं।
घुटने टूटने से दिल को ठंडक..... क्या साम्यता स्थापित की है. आप दोनों की जुगलबंदी ब्लॉग जगत को नया आयाम मिले... यही शुभकामनाएं !!!!!
ReplyDeleteपैर छुवाने की शौकीन एक बड़ी नेता बड़े से हाल में एकमात्र कुर्सी पर पैर आगे बढ़ाकर बैठी थीं। सभी मुलाकाती आते और पैर छूकर जमीन पर बिछी दरी पर बैठते जाते। धीरे-धीरे हाल भरता गया। नेता जी की हनक ऐसी कि कोई भी कुछ बोल नहीं रहा था। तभी एक नया रंगरूट आया और घबराहट में ठीक से पैर नहीं छू सका। हाथ नीचे पाँव तक ले जाने के बजाय घुटने के आस-पास ही छू गया। फिर क्या था- “हरामी, तुम्हें नहीं पता पैर किधर है। देखो सिंह साहब, यह कहाँ से आया है। इसे बाहर निकाल दो। पार्टी से भी...।”
ReplyDeleteवह, मैंने कभी कल्पना भी न की थी कि पांव छूने, छुआने जैसे कार्यक्रम में एक बढ़िया सी पोस्ट छिपी बैठी थी. आप धन्य हैं. पढ़कर मैं धन्य हुई.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती