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Saturday, September 15, 2007

हिंदी ब्लागिंग का इतिहास (साल २००७)- भाग ३


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(सं)वैधानिक अपील: ब्लॉगर मित्रों से अनुरोध है कि इस अगड़म-बगड़म पोस्ट को केवल मनोरंजन की दृष्टि से देखें.
साल २००७ के अगस्त महीने में इलाहबाद में घटी एक सड़क दुर्घटना को केन्द्र में रखकर नवोदित चिट्ठाकार श्री ज्ञान दत्त पाण्डेय के 'उच्च-मध्य वर्ग की अभद्र रुक्षता' शीर्षक से प्रकाशित लेख ने समाजिक वर्गीकरण के अलावा वित्त मुद्दों और आयकर के ऊपर नए सिरे से बहस का दरवाजा खोल दिया। श्री पाण्डेय के लेख के अन्तिम भाग में पाठकों के लिए सुझाए गए 'निम्नलिखित' 'तत्त्व-ज्ञान' का सबसे बड़ा उपयोग भारत सरकार के वित्त मंत्रालय ने किया.
तत्त्व-ज्ञान - आप झाम में फंसें तो वार्ता को असम्बद्ध विषय (मसलन पैन नम्बर, आईटीसीसी) की तरफ ले जायें। वार्ता स्टीफेंस वाली (अवधी-भोजपुरी उच्चारण वाली नहीं) अंग्रेजी में कर सकें तो अत्युत्तम! उससे उच्च-मध्य वर्ग पर आपके अभिजात्य वाला प्रभाव पड़ता है.
इस तत्त्व-ज्ञान को आधार बनाकर वित्त मंत्रालय ने नागरिकों से कर वसूलने का नया रास्ता निकाला। वित्त मंत्रालय ने कुल २६ आयकर आधिकारियों को ट्रैफिक सिपाही के वेश में इलाहबाद की सडकों पर ट्रैफिक नियंत्रण के आड़ में कर वसूलने के काम पर लगा दिया. ये आयकर अधिकारी कार वालों से पैन कार्ड की डिमांड करते थे. पैन कार्ड न मिलने पर ये अधिकारी वहीँ पर कार की साईज के हिसाब से कर निर्धारण करके कर वसूल लेते थे. शुरू-शुरू में इन अधिकारियों को अवधी और भोजपुरी उच्चारण वाली अंग्रेजी बोलने की वजह से कुछ दिक्कत हुई लेकिन बाद में इन अधिकारियों को रैपीडेक्स अंग्रेजी कोर्स में भर्ती कर दिया गया जिससे इनकी अंग्रेजी में वांछित बदलाव आ गया. वित्त मंत्रालय के इस तरीके से सरकार ने एक साल में ही क़रीब ३०० करोड़ रुपये वसूल किए. बाद में मंत्रालय ने अपने इस प्लान को इन्दौर में भी लागू किया जहाँ ॥(आगे का पन्ना गायब है..)

(नोट: कुछ पाठकों ने श्री पाण्डेय द्वारा इस्तेमाल किए शब्द जैसे उच्च वर्ग, उच्च-मध्य वर्ग या फिर निचले तबके जैसे शब्दों पर आपत्ति जताई। इन पाठकों का मानना था कि 'भारतवर्ष में वर्गीकरण लगभग सौ साल पहले ही ख़त्म हो गया था. इसलिए श्री पाण्डेय को ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था.')

इसी साल के अगस्त महीने में प्रसिद्ध चिट्ठा-व्यंगकार और शिक्षक श्री आलोक पुराणिक ने एक ऐसा निबंध लिखा जिसने साहित्य के साथ-साथ व्यापार और सरकार को भी प्रभावित किया। श्री पुराणिक का 'पूरी छानना और लेखन एक जैसे हैं' शीर्षक से छपे निबंध ने पूरे देश के हलवाईयों को साहित्य सृजन के लिए प्रेरित किया. दिल्ली के प्रगति मैदान में देश भर के हलावाईयों की एक सभा में श्री पुराणिक का सार्वजनिक अभिनन्दन हुआ. उन्हें धन्यवाद देते हुए 'अखिल भारतीय हलवाई संघ' के अध्यक्ष ने बताया; 'हमें धन्यवाद देना चाहिए पुराणिक जी का, जिन्होंने पूरी छानने और लेखन में न केवल समानता स्थापित की, अपितु पूरे देश के हलावाईयों में ये विश्वास स्थापित किया की वे भी लेखन कर सकते हैं.'

इस सभा में २५००० हलवाईयों ने सितंबर महीने से लेखन की शुरुआत करने की शपथ ली। हलवाईयो के इस शपथ ने सरकार को सकते में डाल दिया. सरकार की 'मंहगाई रोक कमेटी' ने सरकार को रिपोर्ट सौपते हुए जानकारी दी कि; 'हलवाईयो के ऐसे कदम से देश में मिठाईयों के दाम में वृद्धि सरकार को नुकसान पहुँचा सकती है. सरकार की नीतियों से फैलती कटुता को जनता मिठाई खाकर दूर करती है. लेकिन हलवाईयो के लेखन में कदम रखने से न सिर्फ़ मिठाईयों की कीमतें बढेगी बल्कि जनता के बीच कटुता का प्रवाह बढ़ जायेगा. ऐसी स्थिति में सरकार चुनाव भी हार सकती है.'

'मंहगाई रोक कमेटी' की इस रिपोर्ट को गम्भीरता से लेते हुए सरकार ने हलावाईयों से इतने बड़े पैमाने पर लेखन के क्षेत्र में न उतरने की अपील की। बाद में 'अखिल भारतीय हलवाई संघ' और सरकार के बीच हुई बैठक में इस बात पर समझौता हो गया कि हलावाईयों की तरफ़ से कलकत्ते निवासी विश्व प्रसिद्ध हलवाई मुन्ना महाराज ही लेखन करेंगे. मुन्ना महाराज ने केवल दो महीनों में ही निम्नलिखित छह उपन्यास लिखे:
  1. तौलत मांगे ख़ून
  2. बिका हुआ इंसान
  3. आत्मा की गवाही
  4. एक कटोरा खून
  5. लूट की दौलत
  6. लंगडा कानून
इतने कम समय में इतनी बड़ी मात्रा में उपन्यास लिखकर उन्होंने एक कीर्तिमान स्थापित किया। इतने अल्प समय में छह उपन्यास लिखने का राज बताते हुए मुन्ना महाराज ने जानकारी दी थी कि; 'हमने नियम बना लिया था - एक दिन में जितनी पूरी छानेगे, उतने पन्ने रोज लिखेंगे.'

(नोट: व्यापारी वर्ग द्वारा लेखन के क्षेत्र में उतरने का ये पहला मौका था। वैसे कुछ इतिहासकार मानते हैं कि ऐसा पहले भी हो चुका था. ऐसे इतिहासकारों का कहना है कि जॉर्ज बर्नाड शा के नाटक आर्म्स एंड द मैन से प्रेरित होकर सन १९०५ में अमेरिका के १६७५ हथियार व्यापारियों ने हथियारों का धंधा छोड़कर लेखन के क्षेत्र में उतरने का फैसला एक सम्मेलन में किया था. बाद में अमेरिकी सरकार के आग्रह पर ये व्यापारी अपने फैसले से पीछे हट गए. अमेरिकी सरकार का मानना था कि व्यापारियों के लेखन में कदम रखने से सरकार का वो सपना टूट जाता जिसके तहत 'अमेरिका पूरे विश्व को हथियार बेचना चाहता था!')

हिन्दी चिट्ठाकारिता की वजह से लेखन में सत्याग्रह, इतिहास में पहली बार देखने को मिला। इसी साल ६ सितंबर के दिन प्रसिद्ध चिट्ठाकार-दल महाशक्ति ने इलाहबाद में कृष्ण भक्तों पर पुलिस द्वारा लाठीचार्ज का विरोध करते हुए एक दिन 'लेखन कार्य रोको' प्रस्ताव पारित किया और पूरे दिन अपने किसी भी चिट्ठे पर लेख प्रकाशित नहीं किया. साहित्य और लेखन के इतिहास में इससे पहले ऐसा उदाहरण नहीं मिलता. उनके इस कदम ने न सिर्फ़ विरोध का नया रास्ता दिखाया बल्कि लेखकों और सरकार के बीच नए समीकरणों की उत्पत्ति की. कुछ इतिहासकार मानते हैं कि; 'इससे पहले सरकारें और राजनीतिज्ञ तब डर जाते थे, जब कोई लेखक सरकार की नीतियों का विरोध करते हुए लिखता था'. उनके इस निर्णय की वजह से उत्तर प्रदेश में सत्ता के गलियारों में हलचल मच गई. स्थिति तब और बिगड़ गई जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को महाशक्ति के चिट्ठे पर लिखी 'पंच लाईन' का पता चला. इस चिट्ठाकार दल के नारे, 'हमसे जो टकराएगा, चूर-चूर हो जायेगा' की वजह से पूरी सरकार सकते में आ गई. मुख्यमंत्री ने गृह सचिव, सूचना मंत्रालय के सचिव और सांस्कृतिक विभाग के मुख्य सचिव का एक दल बनाया और इस दल को तत्काल इलाहाबाद रवाना करके इन चिट्ठाकारों को लेखन कार्य पुनः शुरू करने का आग्रह किया. सरकारी दस्तावेजों से इस बात की पुष्टि होती है कि गृह सचिव ने महाशक्ति के लेखन-शाला जाकर उनके कंप्यूटर को चालू कर उन्हें लिखने का अनुरोध किया. इस घटना के बाद राज्य सरकार ने एक कमेटी बनाई जिसका काम केवल ये देखना था कि चिट्ठाकार बराबर लिखते रहें और॥(आगे का पन्ना गायब है..)

साल २००७ के अगस्त महीने में विख्यात हिन्दी चिट्ठाकार श्री अनूप शुक्ला के 'अपने-अपने यूरेका' शीर्षक वाले लेख ने विश्व भर में वैज्ञानिकों को न्यूटन और उनके द्वारा परिकल्पित भौतिक शास्त्र के सिद्धांतों पर नए सिरे से सोचने के लिए विवश कर दिया। प्रसिद्ध वैज्ञानिक आर्किमीडीज द्वारा उत्प्लावन बल के बारे में दी गई परिकल्पना के बारे में लिखते हुए श्री शुक्ल ने लिखा:
'सेव को गिरता देखकर न्यूटन गुरुत्व के नियम खोज लिये। आज कोई कृषि वैज्ञानिक/आर्थशास्त्री साबित कर सकता है कि यह जो लोन की प्रथा है वह पेडो़-पौधों में प्रचलित है। सेव का पेड़ धरती से तमाम पोषण तत्व उधार लेता है। फ़सल हो जाती है तब चुका देता है। पहले जब बिचौलिये न थे तब सीधे धरती को दे देता था। सेव नीचे गिर कर टूट जाता था। अब सब काम ठेके पर दे दिया। अब तो जो पेड़ उधार नहीं चुका पाते उनकी लकड़ी बेंचकर उधारी की रकम बसूल कर ली जाती है। जैसे कि बैंक वाले करते हैं।'
श्री शुक्ल के इस निबंध का अंग्रेजी रूपांतरण 'अमेरिकन जर्नल ऑफ़ साईंस' में प्रकाशित हुआ। प्रकाशन के बाद वैज्ञानिकों में इस बात को लेकर संदेह पैदा हो गया कि न्यूटन एक वैज्ञानिक थे, जैसा वे अब तक मानते आए थे, या फिर एक अर्थशास्त्री. कुछ लोगों ने न्यूटन को कृषि वैज्ञानिक मान लिया. सात देशों के वैज्ञानिकों के एक दल ने न्यूटन और उनके गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पर पुनः खोज करना शुरू किया.

श्री शुक्ल की इस परिकल्पना के उपयोग को मानते हुए भारतीय सरकार ने त्वरित कदम उठाने का फैसला किया। सेब और पृथ्वी के बीच में बिचौलिए नहीं होने के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बिचौलियों को पूरी तरह निकाल फेंकने का फैसला किया. इस पर काम करने के लिए और वितरण प्रणाली को मजबूत बनाने के लिए सरकार ने एक कमेटी बनाई लेकिन इस कमेटी द्वारा दी गयी रिपोर्ट किसी बिचौलिए ने .....(आगे का पन्ना गायब है)

(अब बस किया जाये?....)

11 comments:

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  2. ऐ ऐडे, भाइ बोलरेलेरा हू..ये तेरे पन्ने हमेरी पोस्ट का जिक्र आने से पेले बहुत गायब होरेले है..समझारेला हू..अगली पोस्ट मे अगर अपुन नही तो पन्नो की तरह तू भी ..हा समझारेला हू अपना फ़र्ज था..फ़िर नही बोलने का भाइ ने बोलेरा नही था..क्या..?

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  3. बहुत अच्छा लिखा है
    धन्यवाद.

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  4. @ अरुण भाई

    अरे क्या भाई...सब्बेरे सब्बेरे आप अपुन को हूल दे रयेले हैं भाई...भाई रुष्ट नहीं होने का भाई...रुष्ट बोले तो एंग्री भाई... है भाई है...बोले तो अपुन का भाई के ऊपर तो पूरा का पूरा अध्याय है भाई....अध्याय बोले तो चैप्टर भाई...लिखेगा न भाई...अपुन पक्का लिक्खेगा...ऐसा होईच नहीं सकता कि अपुन का भाई के ऊपर हिन्दी बिलोगिंग हिस्ट्री में चैप्टर नहीं हो...कोई ऐसा डेयरिन्ग होईच नहीं सकता भाई जो आपका ऊपर चैप्टर नहीं लिखे...आपसे कौन पंगा लेगा भाई.. अपुन इतना हठेला नहीं है भाई जैसा आप अपुन को समझा भाई...:)

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  5. भई बढ़िया है, क्या कहने। ब्लागिंग इतिहास में जाने का रास्ता पूड़ियों से होकर जाता है। यह बात स्थापित कर दी आपने।
    आज ज्ञानजी के स्टैंड अलोन खोमचे का शटर बिना सूचना के डाऊन क्यों है जी।
    यह बात भी ब्लागिंग के इतिहास में दर्ज किया जाये कि आलोक पुराणिक जैसे ब्लाग संडे शटर डाऊन का नोटिस देने के बावजूद आधा शटर खोलते थे संडे को और ज्ञानदत्तजी बिना नोटिस के ही शटर डाऊन कर देते थे।
    फौरन से इस तथ्य को इतिहास में दर्ज कर लिया जाये।

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  6. आलोक जी से मैं भी सहमत हूँ. ऐसे थोड़े ही चलेगा कि ज्ञान जी भारतीय-रेल की कार्य-प्रणाली चिट्ठाकारी में लागू कर दें. इसे भी इतिहास में दर्ज़ कीजिये और इस पर हमारे विरोध को भी. (इतिहास में नाम तो हो ही जायेगा,इसी बहाने सही!)

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  7. भाईजी,
    मैं जो कहने जा रही हूँ,सुनकर आपको बुरा लगेगा,आप आहत होंगे जानती हूँ,इस से बचने की चेष्टा भी करना चाहती थी,पर पता नही कौन सी शक्ति बारम्बार प्रेरित कर रही है की आपसे यह बात कही जाए.नही जब किसी की प्रेरणा से बात कह रही हूँ तो इसे मेरी बात न मानियेगा और न हंस कर उड़ा दीजियेगा ना बहुत दुखी हो कर बैठ जयियेगा.बस एक बार सोचियेगा और जो सही लगे वही कीजियेगा.
    इश्वर ने आवश्यकता से अधिक यह दुनियां भर रखी है मनुष्यों से पर संवेदंसील मन जो अपने आस पास के हर अच्छे बुरे को देख सके और उस से बढ़कर,अभिव्यक्ति/रचनाशीलता का सामर्थ्य विरले ही लोगों को प्रदान करते हैं.यह कितनी बड़ी शक्ति होती है यह आपको मुझे बताने की आवश्यकता नही ,आप इस से अवगत हैं.तो इस शक्ति का उपयोग जितना सार्थक ढंग से किया जा सके उतना आप उस इश्वर ने जो आपको शक्ति दी है,उसके प्रति आभार प्रकट करना है.इसलिए जहाँ तक हो सके रचना काल मे विषय के प्रति सतर्क रहें तो उत्तम होगा.

    आपकी abhiruchi व्यंग्य lekhan मे है,जानती हूँ.पर अपने आस पास विषयों की कमी थोड़े ना है,जिसमे से व्यंग्य न निकाला जा सके.बहुत समय से आपके ब्लाग पर आती हूँ,पर पिछले कुछ रचनाओं को पढ़कर लग रहा है,कुछ भी लिख डालने वाली मानसिकता से तो ग्रसित नही हो रहे आप?कृपया एक बार मेरे कथन पर विचार कीजियेगा.आप लोग बहुत अच्छा लिख सकते हैं और सचमुच ही sudhdh haas से itihaas rach सकते हैं.यह मेरा विश्वास hai....

    shubhakankshi..........

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  8. बहुत खूब शिवकुमार जी,


    हमारे चिट्ठे को शामिल करने के लिये धन्‍यवाद
    हमारी बधाई स्‍वीकार करें और आपनी कड़ी जारी रखें।

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  9. (अब बस किया जाये?....)

    नहीं जी, जारी रखें। (अभी हमारे चिट्ठा जो इतिहास में दर्ज नहीं हुआ)

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  10. आलोक जी इसका मतलब नही समझ में आया, सायद मैं ही नही समझ पा रहा हूँ
    "तत्त्व-ज्ञान - आप झाम में फंसें तो वार्ता को असम्बद्ध विषय (मसलन पैन नम्बर, आईटीसीसी) की तरफ ले जायें। वार्ता स्टीफेंस वाली (अवधी-भोजपुरी उच्चारण वाली नहीं) अंग्रेजी में कर सकें तो अत्युत्तम! उससे उच्च-मध्य वर्ग पर आपके अभिजात्य वाला प्रभाव पड़ता है."
    पर अच्छा लिखा है आपने .

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  11. देर से आये, क्षमापार्थी हूँ. मजा भी लिया. गायब पन्नों पर विचार भी दौड़ाया. फिर टिप्पणियां भी पढ़ीं-पढ़ते पढ़ते आखिर में कुछ कहने से हिम्मत जबाब दे गई. :) तो अब जा रहे हैं, फिर आयेंगे. आप संभालो!!

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय