आपको डॉक्टर चड्ढा याद हैं? अरे वही मुंशी प्रेमचंद की कहानी मंत्र के डॉक्टर चड्ढा. हाल ही में मुझे बहुत याद आए. जब कक्षा सात में पढता था, तब पहली बार यह कहानी पढ़ी थी. कोर्स में थी. दस साल की उम्र थी इसलिए उस समय कहानी पढ़कर एक बात मन में आई थी कि बूढे भगत ने डॉक्टर चड्ढा के बेटे को मंत्र के सहारे जिंदा तो कर दिया लेकिन वो डॉक्टर साहब से बिना मिले क्यों चला गया. थोडी देर के लिए रुका होता तो शायद डॉक्टर साहब से ईनाम मिलता. कुछ पैसे मिलते तो गरीब की मदद हो जाती.
बाद में कई बार कहानी पढ़ी. हर बार यही बात मन में आती कि डॉक्टर चड्ढा की मुलाक़ात अगर बूढे भगत से हो जाती तो वे क्या करते? कुछ भी कर सकते थे. हो सकता है डॉक्टर चड्ढा रोते हुए उस बूढे के पाँव पर गिर पड़ते. हो सकता है उसे कुछ दान वगैरह दे देते. या हो सकता है उसे सौ रूपये का ईनाम दे देते. सोचता हूँ तो लगता है शायद मुंशी प्रेमचंद को डॉक्टर चड्ढा पर भरोसा नहीं था. एक लेखक को शायद डॉक्टर साहब के ऊपर इतना भरोसा नहीं था कि वे पूरे विश्वास के साथ बता पाते कि बूढे भगत से मिलने के बाद डॉक्टर साहब क्या करते. अब सोचता हूँ तो लगता है जैसे मुंशी प्रेमचंद ने डॉक्टर साहब को उस बूढे भगत से न मिलाकर अच्छा ही किया. जो इंसान पेशे से एक डॉक्टर होते हुए भी किसी मरीज को इसलिए नहीं देखता क्योंकि उसके गोल्फ खेलने का समय हो चुका था, वो कुछ भी कर सकता था.
हाल ही में डॉक्टर चड्ढा की याद आने का एक कारण है. हुआ ऐसा कि करीब दस दिन पहले ही पता चला कि मेरे ससुर जी को लंग कैंसर हो गया है. उन्हें लेकर एक डॉक्टर के पास गया. डॉक्टर ने देखकर बताया कि उन्हें लंग कैंसर हो चुका है और तुरंत अस्पताल में भर्ती करना पड़ेगा. हमने उन्हें अस्पताल में भर्ती करने का फैसला कर लिया था लेकिन हम यह भी चाहते थे कि एक दूसरे डॉक्टर से भी सलाह ले लेनी चाहिए.ऐसा करने का कारण ये था कि जिस डॉक्टर ने हमें इस कैंसर स्पेशेलिस्ट के पास भेजा था उन्होंने बताया था कि ये डॉक्टर हैं तो बहुत अच्छे लेकिन लालची भी हैं. लिहाजा इलाज के दौरान कभी-कभी कुछ ऐसा भी कर जाते हैं जिसकी जरूरत नहीं रहती.
हम उन्हें लेकर एक और नामी डॉक्टर के पास गए. ये डॉक्टर मेरे ससुर जी की कालोनी में ही रहते हैं. उन्होंने कहा कि कलकत्ते में कैंसर के जो सबसे बड़े डॉक्टर हैं, उन्हें दिखाया जाय. उन्होंने इन सबसे बड़े डॉक्टर का नाम बताया. मैंने अप्वाईंटमेंट के लिए उन्हें फ़ोन किया. उन्होंने कहा; "देखिये आज तो मैं नहीं देख सकूंगा. आप उनका नाम लिखा दीजिये और कल चार बजे शाम को आ जाइये, मैं सबसे पहले उन्हें ही देख लूंगा." उनकी बात सुनकर मुझे लगा पेशेवर लोग हैं. इनके कहने के हिसाब से ही चलना पड़ेगा. दूसरे दिन हम इन डॉक्टर साहब के क्लिनिक पर चार बजे पहुँच गए. लेकिन इन डॉक्टर साहब के पेशेवर होने को लेकर मेरी सोच जाती रही. वहाँ जाकर पता चला कि उनके क्लिनिक में आने का समय है तो चार बजे लेकिन लगभग रोज ही छ बजे के बाद ही आते हैं. सात बजे तक हमने इंतजार किया, लेकिन डॉक्टर साहब नहीं आए. हमें उन्हें बिना दिखाए ही लौट आना पड़ा. हम डॉक्टर साहब के क्लिनिक से ही हॉस्पिटल चले गए और ससुर जी को भर्ती कर दिया.
अब एक और डॉक्टर साहब की बात सुन लीजिये. मैंने ससुर जी तमाम टेस्ट रिपोर्ट अपने छोटे भाई को मेल किया. ये पिछले रविवार की बात है. उसने बताया कि उसका एक दोस्त जो डॉक्टर है और भाई के शहर में ही रहता उसी दिन भारत पहुँचा है. भाई ने ये भी बताया कि वो उसी दिन अपने दोस्त को फ़ोन करके बोल देगा और चूंकि उसका दोस्त इसी मर्ज का स्पेशिलिस्ट है, इसलिए वो जाकर देख लेगा. भाई को दोस्त पर बड़ा भरोसा होगा. लेकिन समस्या ये हुई कि भाई के पास इस दोस्त का फ़ोन नंबर नहीं था इसलिए उसने एक मेल भेज दिया. शुक्रवार को भाई के इस दोस्त ने मुझे फ़ोन किया. बोला; "आप रिपोर्ट लेकर आ जाइये मैं देख लूंगा." मैंने बताया कि रिपोर्ट वगैरह तो अभी हॉस्पिटल में है. शनिवार को केमोथैरेपी के बाद जब उन्हें डिसचार्ज कर दिया जायेगा तो मैं रिपोर्ट लेकर आऊँगा. उन्होंने बताया कि वे घर में ही रहेंगे. शनिवार को मैं रिपोर्ट लेकर हॉस्पिटल से सीधा उसके घर जाने की तैयारी कर ली. उनके घर पर फ़ोन किया तो पता चला कि वे घर में नहीं हैं. आफिस फ़ोन किया तो उनसे बात हुई. मैंने उनसे कहा कि मैं आफिस ही चला जाता हूँ. आफिस तक जाने में मुझे दस मिनट से ज्यादा नहीं लगते. वे वहीं रिपोर्ट देख लें. लेकिन वे बोले कि उनके पास समय नहीं है. अगर मैं चाहूँ तो रात को आठ बजे के बाद उनके घर जाकर दिखा सकता हूँ. उनकी बात सुनकर मैंने उनके घर जाने से मना कर दिया. मजे की बात ये कि वे आफिस में काफ़ी देर तक रहे. भाई का फ़ोन आया. मैंने उससे कहा कि अपने दोस्त को बता देना कि मैं उसके घर नहीं जाऊंगा. भाई भी बड़ा दुखी था. मुझसे तुरंत तो कुछ नहीं बोला लेकिन उसे शर्मिंदगी जरूर हुई. उसने मुझे मेल लिखकर माफ़ी भी मागी.
इस घटना के बाद मुझे लगा कि किसी के पेशेवर होने का मतलब क्या यह है कि पेशेवर होना तब तक जरूरी है जब तक उनका पेशा केवल उन्हें लाभ पहुचाए. यहाँ देखने वाली बात ये है कि केवल कुछ पेशे ऐसे होते हैं जिनमें पेशेवर इंसान का काम सीधा-सीधा आम आदमी को प्रभावित करता है. जिसमें पेशेवर इंसान की डीलिंग सीधे-सीधे आम आदमी के साथ होती है. डॉक्टर, अध्यापक और वकील इनमें से प्रमुख हैं. और आज की तारीख में इन्ही पेशे में काम करने वाले लोगों से आम आदमी को सबसे ज्यादा शिकायत है. जहाँ तक बाकी के पेशेवरों की बात है, ज्यादातर लोगों को आम आदमी से सीधा-सीधा डील करने की जरूरत नहीं पड़ती. चार्टर्ड एकाउंटेंट, इन्जीनीयर्स वगैरह को ज्यादातर कार्पोरेट के साथ डील करना पड़ता है इसलिए वे डरते हैं क्योंकि कार्पोरेट मजबूत होता है.
वैसे एक प्रश्न मेरे मन में हमेशा उठता है. पेशेवर होना ठीक है लेकिन पेशेवर होने से अगर कहीं मानवता की रक्षा न हो तो फिर इस तरह से पेशेवर होना कहाँ तक जायज है. या फिर मानवता की बात आगे तब रखी जायेगी जब मानवता ख़ुद एक पेशा हो जाए.
चलिए, बेकल उत्साही के कुछ शेर पढिये...
समुन्दर पार से जब कोई विज्ञापन निकलता है
तो मेरे गाँव से घर बेचकर निर्धन निकलता है
जमीं कितनी भी हो फिर भी इरादा कम निकलता है
मकां कैसे बने बुनियाद में जब बम निकलता है
बीमार माँ के इलाज की स्कीम गाँव वाले बना रहे होंगे
माँ के आंसू ये सोचते होंगे, मेरे बेटे कमा रहे होंगे
डॉक्टर बन के चंद वर्षों से बेटा लंदन में काम करता है
बाप अपने वतन में टीबी से रोज जीता है, रोज मरता है
एक बीमार माँ के बेटे ने कपड़े भेजे हैं मानचेस्टर से
डाकिया लेकर पार्सल पहुँचा उठा न पाई मगर वो बिस्तर से
ये मेरा जिस्म है जो मैली, फटी चादर पे रक्खा है
वो मेरा खून पहरेदार के बिस्तर पे रक्खा है
मगन हैं गाँव वाले थोडी सी ठंडी हवा पाकर
मगर सूरज का मंसूबा अभी छप्पर पे रख्खा है
Sunday, June 1, 2008
आपको डॉक्टर चड्ढा याद हैं?..
@mishrashiv I'm reading: आपको डॉक्टर चड्ढा याद हैं?..Tweet this (ट्वीट करें)!
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
बहुत घूमा हूं विशेषज्ञ ड़ाक्टरों के चक्कर में और उनके देवत्व तथा पशुत्व के बहुत अनुभव हैं।
ReplyDeleteयह अवश्य है कि विशेषज्ञता की लम्बी खर्चीली प्रक्रिया सरल मानवीय स्वभाव कुन्द करने वाली होती है। फिर समाज भी बहुत पैम्पर करता है इन्हें।
sir
ReplyDeletei am suport you
ham bade hone ka bahana karke apne man mein base us bachche ko mar dete hai
jo kabhi bachpan main ham maein hota hai
www.scam24inhindi.blogspot.com
एक समय था डाक्टर को भगवान का दर्जा दिता जाता था.
ReplyDeleteपर इन जैसे डाक्टरों की बदौलत ही ये सम्मान डाक्टरों से छीनता जा रहा है.
और ये पेशा धीरे-धीरे एक हमाम बँटा जा रहा है. जंहा सब नंगे है.
मैं समझ सकता हूँ. भुक्त भोगी हूँ.
डा. चढ्ढा से ज्यादा बूढऊ भगत याद आ रहे हैं।
ReplyDeleteक्या खूब याद किया है डॉक्टर चढ्ढ़ा को. बुढऊ तो खैर क्या करते पैसे का- डॉ साहब की आँख खोल गये.
ReplyDeleteबहुत चक्कर लायें हैं इन डॉक्टरों के अपने भांजे की तबीयत को लेकर. शहर में खासी पहचान के बाद भी इनका गैर जिम्मेदाराना रवैय्या बहुत तकलीफ देता है. औरों के साथ होता व्यवहार देखकर दिल दुखी हो जाता था.
फिर भी कुछ डॉक्टरर्स प्रोफेशन की मर्यादा बनाये हुए हैं, जैसे भगवान अवतरित हो गये. विश्वास मत खोईये इन भटके हुए डॉक्टरों के चक्कर में. अच्छे डॉक्टर भी टकरायेंगे.
आशा करता हूँ ससूर साः की तबीयत में सुधार होगा. हमारी कामनाऐं उनके एवं आप सबके साथ हैं.
बेकल उत्साही जी के बड़े उम्दा शेर चुन कर लाये हैं.
शिवकुमार जी,
ReplyDeleteमैं आपके अनुभवों से स्वयं ही लज्जित हूँ ।
किंतु एक सीधा प्रश्न आपसे भी, कि सबसे बड़े डाक्टर होने को परिभाषित करें ?
क्यों इन्हें जबरन लार्ज़र दैन लाइफ़ बना दिया जाता है, व्यक्तिपूजा एवं अप्राप्य के पीछे भागने की पुरातन भारतीय प्रवृत्ति इसके मूल में कहीं निहित तो नहीं ?
कृतसंकल्पित होकर ऎसे डाक्टरों के ख़ुदा होने का ग़ुमान तो तोड़िये,
महाराज !
शिव भाई! ऐसी बीमारी किसी को न हो। मुझे डाक्टरों का अनुभव न्यूनतम है और अच्छा नहीं है। वकीलों का अनुभव मुझे है, मैं रोज ही इन हमपेशाओं से ठगे लोग देखता हूँ।
ReplyDeleteआप का साबका जिन लोगों से पड़ा उन में से कोई भी प्रोफेशनल नहीं था। वे केवल पैसा कमाने वाले व्यापारी हैं, तथा अपनी कला को रुपयों में बेचते हैं। प्रोफेशनल के पास एथिक्स होती है और वह उस के अनुसार काम करे तो जीने का साधन भरपूर मिलता है। लेकिन हर कोई यहाँ चान्द पर प्लाट खरीदने की इच्छा रखता है।
अभी कैसी तबियत है उनकी? भगवान से प्रार्थना है कि उन्हे जल्दी ही इससे मुक्ति मिले। यदि उचित समझे तो रपट की एक प्रति मेरे जीमेल एकाउंट मे भेज दे।
ReplyDeleteदिल पे मत ले यार ,मेर बहुत नजदीक के एक रिश्तेदार तहसील दार थे, उनके यहा नेरे एक दोस्त का बहुत छोटा सा काम अटका था, हम पहुच गये , उन्होने भी अच्छा स्वागत किया और कहा हो जायेगा, दोस्त चक्कर लगाता रहा , ना पैसे लिये ना काम हुआ, जैसे ही उनकी जगर्ह दूसरा आया दोस्त मे पैसे दिये अगले ही दिन काम हो गया.चाहे सरकारी अधिकारी हो, चाहे डाक्टर या वकील ये सारे आपको लूटने मे ही प्रोफ़ेशनल है जी
ReplyDeleteहमारी दुआये आपके ससुर साहब के साथ है उम्मीद है वो जल्द स्वस्थ होकर लौटेगे जी.
समाज में हर तरह के लोग होते है..
ReplyDeleteहम आपके ससुर जी के मंगल स्वास्थ्य की कामना करते है..
ये चड्ढा साहब तो उन बोफोर्स वाले विन चढ्ढा के लुटेरे खाऊ रिश्तेदार लगते हैं, जिनके बारे में शरद जोशी ने एक लेख में लिखा था, शरदजी के लेख का शीर्षक ही था-हम बिन चड्ढी, तुम विन चडढा।
ReplyDeleteआज यही हो रहा है आपसे सहमत हूँ बहुत बढ़िया धन्यवाद
ReplyDeleteबंधू
ReplyDeleteप्रेमचंद जी को हम भी पढ़ें है लेकिन ये डाक्टर चड्ढा वाली कहानी याद नहीं आ रही...आप तो जानते ही हैं सठियाने के कगार पर हैं और अपनी पत्नी को "नमस्कार बहिनजी " कह कर आगे बढ़ जाते हैं...इस हाल में किसी कहानी के पात्र को याद करना कितना मुश्किल काम है...सोचते हैं डाक्टर से परामर्श ले लें लेकिन वो सी . टी. स्कन से कम करवाएगा नहीं और करवाने के बाद कोई ऐसी बीमारी जिसका नाम लेने में ज़बान लड़खड़ाये बताने से घबराएगा नहीं सोच कर जैसे हैं वैसे ही पड़े हैं...जिस दिन भूल कर किसी के घर अपना घर समझ कर घुस जायेगे और लतियाये जायेंगे तब तक डाक्टर के पास नहीं जायेंगे...बता देते हैं ..हाँ. आप के स्वसुर साहेब शीघ्र स्वास्थ्य लाभ करें ये ही कामना है.
शेर जोरदार हैं...जोरदार इंसान के शेर तो ऐसे ही होते हैं....
नीरज
अभी अभी अरुण जी का बकलम-ख़ुद मे लेख पढ़ा फ़िर आपका....उन्होंने कहा दूसरी जिंदगी है....वे शायद डॉ के आभारी भी होंगे.....मैं बैंक के क्लर्को,पुलिस वालो,कचहरी के बाबु,नगर निगम के अफसरों ,पबिलिक स्कूल के टीचर ,फल बेचने वालो ,कपड़ा बेचने वालो .......ओर किस किस का नाम लिखु सताया हूँ....पर मैं सारी जमात को जिम्मेदार नही ठहराता,दरअसल डॉ कौन है ?हम आप के बेटे बेटिया,भाई बहन ....यानि समाज का एक हिस्सा .....तो पतन किसका है ?समाज का ?हमारा आपका ?मेरी आदत है की सब्जी फल वालो से मैं ज्यादा मोल भाव नही करता ये सोचकर की चलो इतनी धूप मे खड़ा है .....कुछ कमाई इसे भी करने दो .....लेकिन वही गंदे फल रात मे दे देते है ,कुछ लोग जो तौलते है बदल कर नीचे थैली मे से चलते वक़्त पकड़ा देत है इसका मतलब ये नही की मैं सारे गरीबो को बेईमान मन लूँ?भतीजे के स्कूल गया पता लगा फलां जगह से ही किताबे ओर ड्रेस मिलेगी ओर कही नही ? कौन बेईमान है ?आज से दो साल पहले मूवी देखने गया था ..मध्यांतर मे मेरा मोबाइल चोरी हो गया ....पुलिस वाले रिपोर्ट लिखने को तैयार नही थे ,जब मालूम चला डॉ हूँ तब जाकर एक कागज पर सिर्फ़ इसलिए लिखा गया ताकि मैं उसी नंबर को दुबारा चला सकूं ....फ़िर भी कुछ पुलिस वालो मे मेरा विश्वास कायम है क्यूंकि मैंने कुछ बहादुर ओर मदद करने वाले लोग भी देखे है......जब हाई- वे पर लोग एक्सीडेंट को नजर अंदाज करके गुजरते है तब उनका चोगा क्या होता है ?ऑफिस का सीईओ ,लेखक,बाबु ,या सॉफ्टवेयर एन्जियर...........तब एक ऐसी गाड़ी रुकी जिसमे बिना वर्दी का पुलिस वाला था... दूध वाला इंजेक्शन लगाकर या पानी मिलाकर देत है यानि की जिसका जहाँ बस चल रहा है वो घोटाला कर रहा है .......
ReplyDeleteकोई यंत्र काश होता जो हर आदमी मे इन्सयिनियत का पैमाना माप सकता ........हर पेशे मे अच्छे बुरे लोग होते है.....
बहुत शानदार पोस्ट है. निःसंदेह ऐसे अनुभवों से अधिकतर लोगों का सामना होता रहता है.
ReplyDeleteदुर्भाग्यपूर्ण और अफसोसजनक है कि पेशेगत विशेषताओं के चलते ड़ाक्टरों में सामजिक उच्चता का भाव तो दिखता है, इस बारे में काफ़ी प्रदर्शन-प्रिय भी रहते हैं, मगर दोष निकाले जाने पर उन्हीं घिसे पिटे तर्कों पर उतर आते हैं कि गिरावट तो पूरे समाज में आयी है, केवल हमें दोष देना उचित नहीं है. ड़ाक्टरों और बाकी धंधेबाजों में कहीं कोई फर्क तो होना चाहिए वरना जिस अतिरिक्त श्रद्धा के ये ख्वाहिशमंद होते हैं उसका भी लोभ छोड़ देना चाहिए.
@अनुराग जी,
ReplyDeleteइस पोस्ट के आखिरी पैराग्राफ में मैंने ख़ुद लिखा है;
"पेशेवर होना ठीक है लेकिन पेशेवर होने से अगर कहीं मानवता की रक्षा न हो तो फिर इस तरह से पेशेवर होना कहाँ तक जायज है. या फिर मानवता की बात आगे तब रखी जायेगी जब मानवता ख़ुद एक पेशा हो जाए."
मेरा मतलब केवल डाक्टरी के पेशे से नहीं है. न ही मैं पूरी जमात को दोषी ठहरा रहा हूँ. ये बात तो केवल इसलिए लिख बैठा क्योंकि हाल के दिनों में मेरे अनुभव डाक्टरी के पेशे को लेकर थे. हम भी आए दिन समाज में हर पेशे में कुछ बुरे लोगों द्वारा ही ठगे जाते हैं.
हो सकता है मेरी लिखी गई बातों से ऐसा आभास हुआ हो. अगर ऐसा है तो मैं माफ़ी मांगता हूँ.
aapne to ek nai MANTRA kahani likh dee. badhaai.
ReplyDeleteअब कैसे हैं वे? ईश्वर जल्द स्वस्थ करें उन्हें!
ReplyDeleteठहरो ठहरो,
ReplyDeleteइस गली से एक बार गुज़र चुका हूँ,
दुबारा ऎंवेंई ताक झाँक रहा था कि डा आर्या दिख गये !
? फ़क़त एक संवाद डा आर्या से
मेरे सम्मानित मित्रवर,
दूसरों में इंसानियत आने की प्रतीक्षा में
क्या कोई अपना इंसान होना भूल जाये ?
एक बार समाज को ढ़ूँढ़ने की जिद सवार हुई,
किसी पके हुये बुढ़ऊ ने बताया कि भई आप ही से तो समाज बनता है ।
तो मित्रवर, समाज की एक प्रबुद्ध इकाई के रूप में अपने को यदि ठीकठाक रखा जाये,
तो हमें दूसरे के हृदय परिवर्तन की प्रतीक्षा बहुत लंबे समय तक नहीं करनी पड़ेगी ।
क्षमा करना, यह मेरी सोच है, यहाँ कोई सुधार की मुहिम नहीं चल रही है ।
देरी से आने के लिए मुआफी ,सुबह कही उलझा हुआ था ....शिव जी आप शर्मिंदा न करे हम बस विचारो का आदान प्रदान कर रहे थे ...
ReplyDeleteडॉ अमर जी .....ऐसे मत रुका करिये ...अक्सर आते जाते रहिये ,ये गली आपको कई मोड़ दिखायेगी .......
हम यहाँ समाज की एक इकाई की बात नही कर रहे थे ,हम पूरे समाज की बात कर रहे थे ....ओर जहाँ तक इकाई की बात है उसकी चिंता न करे ......मेरी आखिरी पंक्ति कृपया दुबारा पढ़ ले......आप दूसरो का लिखा सुनाते है एक नजर हमारे लिखे पर भी डाल ले .....
जब कभी
तमाम जज्बो को
दरकिनार कर
कोई गरूर
मेरी पीठ पर सवार होता है
एक लम्हा
मेरे माझी का
मुझे अक्सर आइना दिखाता है...
सही कहा आपने - पेशेवर लोग जो सीधे आम-आदमी से डील करते हैं उनसे अच्छे मानव व्यवहार की अपेक्षा बढ़ जाती है.
ReplyDeleteकहते हैं अच्छा डोक्टर अपने व्यवहार से ही मरीज को आधा ठीक कर देता है. पर शायद उसके भी कुछ मापदंड होते हैं.
बस आशा है उनमे से कुछ लोग ये पढ़े और अपने भाई-बंधुओं को ये जाग्रति दे.
दूरदर्शन पे एक सरकारी अड आता था. जिसमे एक सरकारी केमिस्ट समय से पहले सेण्टर बंद कर देता है. जिससे एक शिक्षक अपने बेटे के लिए दवा नहीं ले पता. फिर वही केमिस्ट अपने बेटे के दाखिले के लिए उस शिक्षक के पास जाता है. और तब याद दिलाने पे उससे एहसास होता है की इस तरह का अमानवीय व्यवहार कोई भी कर सकता है. शायद इन् लोगो को इसी तरह के पाठ की ज़रूरत है.
पहले के लेखों में एक ताजगी हुआ करती थी और सार्थक कमेंट भी मिला करते थे. अब तो एक झुंड सा नजर आता है. एक गोल इस तरफ दूसरा उस तरफ और तीसरा इधर से उधर...
ReplyDeleteमुझे ऐसे झुंडों से कोई शिकायत नही है. बस इस लेख जैसी अपनी ही कोई बात लिखने से पहले विचार कौंधता है कि हम क्यों और किसके लिए लिख रहे हैं. चुपचाप लिख के हार्ड डिस्क में सेव ही क्यों न कर दें... दूसरे की बिना मतलब की वाह वाह से क्या फायदा?
अभी इस लेख के उपर मिले कमेंट्स भी पढ़ा. इसीबीच अनुराग जी का भी कमेंट देखने को मिला.
कितने स्वस्थ तरीके से विचारों का आदान प्रदान होता था. वाकई.. बेहतरीन.
अब तो जितने लाइन का कमेंट होता था उतने लाइन गिन के पोस्ट बना दी जाती है क्योंकि पाठक के पास समय नही है ढेर सारा पढ़ने को.. ऐसी मानसिकता के चलते लेखन कुंद होता जा रहा है. पाठक हमेशा पढ़ना चाहता है, जो वह पढ़ना चाहता है. उसे चंद लाइनों में निपटा देना तो सही नही लगता. वैसे भी अनुभव अनुभवी लोगों से मिलते हैं. अनुभव को विस्तार देना अच्छा होता है.
लेकिन समय ऐसी चीज है जो न पाठक के पास है और न लेखक के पास.. खैर.. जो भी हो.. पुराने ब्लॉग्स पढ़ने का अपना अलग मजा है..