खेलने के मैदान को स्कूल का हिस्सा न बनाए जाने के लिए राम अवतार जी ने जो तर्क दिया वो अकाट्य था. सही बात है. पैसे से क्या नहीं किया जा सकता? पैसे से स्कूल बनवाया जा सकता है. पैसे से स्कूल हटवाया जा सकता है. पैसे से स्कूल के लिए मैदान बनवाया जा सकता है और पैसे से ही स्कूल के लिए मैदान नहीं भी बनवाया जा सकता है. शायद इसीलिए राम अवतार जी की बात पर रमेश बाबू भी कुछ नहीं बोले.
वैसे भी उन्हें पता था ढेर सारी बातें होती हैं जिनपर क्लायंट का फैसला ही आखिरी फैसला होता है. लिहाजा वे चुप ही रहे.
बात आगे चली तो स्कूल के लिए तमाम और ज़रूरी बातों के बीच से होते हुए बात ह्यूमन रिसोर्स पर जाकर रुकी. स्कूल के लिए मास्टरों की भर्ती कैसे की जानी चाहिए? क्या जुगत लगाई जाय कि सस्ते और टिकाऊ मास्टर मिलें.
आम आदमी को अक्सर यह कहते हुए सुना जा सकता है कि; "सस्ता रोवे बार-बार, मंहगा रोवे एक बार." लेकिन राम अवतार जी कोई आम आदमी तो हैं नहीं. ऐसे में वे हर उस बात को नहीं मानते जिसे आम आदमी मानता है. अगर उनके अपने बिजनेस मॉडल को देखा जाय तो यही साबित होगा कि उनके हिसाब से सस्ती चीज ही अक्सर टिकाऊ होती है.
उनकी तेल-मिल या फिर दूकान पर काम करने वाले मजदूरों को अगर देखा जाय तो राम अवतार जी के इस सिद्धांत की पुष्टि होती है. उन्होंने नियम बना लिया है कि मुटिया-मजदूरों को मजदूरी जितनी कम दी जा सके, उतना ही अच्छा. इसके पीछे तर्क यह है कि अगर मजदूरों को मजदूरी कम मिले तो वे हमेशा हलकान-परेशान रहेंगे. परेशानी से सराबोर मजदूर आगे की सोच ही नहीं सकता. उसे ये सोचने की फुरसत ही नहीं रहेगी कि मजदूरी कम मिल रही है तो कहीं और देखा जाय.
राम अवतार जी को यह सिद्धांत रुपी जायदाद उनके पिताश्री से विरासत में मिली है. माडर्न बिजनेस प्रैक्टिस जिसमे ये माना जाता है कि न्यायपूर्ण मजदूरी किसी भी मजदूर को खुश रखती है इसलिए वह अच्छा काम करता है, के लिए राम अवतार जी के बिजनेस सिद्धांतों की लिस्ट में कोई जगह नहीं है.
खैर, बात जब सस्ते और टिकाऊ मास्टरों की हुई तो काफी बातचीत और ब्रेन स्टोर्मिंग के बाद रमेश बाबू और राम अवतार जी के बीच इस बात पर आम सहमति बनी कि प्राइवेट स्कूल में कम सैलरी पाने वाले अध्यापकों को थोड़ी ज्यादा सैलरी का लालच देकर फोड़ा जा सकता है.
ऐसे अध्यापक जिनका घर-परिवार ट्यूशन किये बिना नहीं चलता. जो प्राइवेट स्कूलों से मिलने वाली सैलरी बिना किसी ना-नुकर के इसलिए ले लेते हैं क्योंकि इन स्कूलों में पढाने से ही उन्हें ट्यूशन मिलते हैं. ये अध्यापक सुबह-शाम उस महापुरुष की आराधना करते हैं जिसने ट्यूशन नामक प्रोफेशन का आविष्कार किया था.
दोनों इस बात पर सहमत हो गए कि सस्ते और टिकाऊ अध्यापकों की खोज प्राइवेट स्कूलों तक जाकर ख़त्म होती है. वहां से आगे जाने की ज़रुरत ही नहीं.
अध्यापकों के बाद बारी आई चपरासियों की. किसी भी स्कूल के लिए अध्यापक के बाद महत्व के पैमाने पर चपरासी का नंबर आता है. चपरासी घंटा न बजाये तो पढाई की शुरुआत न हो. वहीँ चपरासी घंटा न बजाये तो पढाई बंद भी नहीं होगी. चपरासी के महत्व को आगे रखकर दोनों ने बड़ा गहन चिंतन किया.
बातचीत आगे चली तो रमेश बाबू ने सजेस्ट किया कि जैसे अध्यापकों को प्राइवेट स्कूल से खींचा जा सकता है वैसे ही क्यों न चपरासियों को भी वहीँ से खींच लिया जाय. रमेश बाबू के इस विचार को राम अवतार जी ने अपने विचारों की गुलेल चलाकर घायल कर दिया. रमेश बाबू का विचार वहीँ टेबल पर घायल पड़ा बिलबिलाने लगा.
साथ ही अपने विचारों की गुलेल से राम अवतार जी ने एक विचार और दागा. वे बोले; "अरे क्या ज़रुरत है चपरासी बाहर से लाने की? मैं आपको एक तरकीब बताता हूँ. हमारे यहाँ जो मुटिया लोग काम करते हैं, उन्ही में से सात-आठ को चपरासी बना डालते हैं."
उनकी बात सुनकर रमेश बाबू अचंभित. उन्हें समझ में नहीं आया कि राम अवतार जी ऐसा क्यों कह रहे हैं? एक बार के लिए उन्हें लगा कि ऐसा करने से तो राम अवतार जी की तेल-मिलों और दूकानों में काम का हर्ज़ होगा. यही सोचते हुए उन्होंने कहा; "लेकिन फिर आपका काम कैसे चलेगा?"
उनकी बात सुनकर राम अवतार जी मुस्कुरा दिए. बोले; "आप भी न. अरे, मैं इस बात पर ऐसा इसलिए कहा रहा हूँ कि पूरा का पूरा बिजनेस सेंस बनता है यहाँ. अब देखिये, अगर स्कूल के लिए नया चपरासी बाहर से लेने जायेंगे तो उसे चपरासी की सैलरी देनी पड़ेगी. और आप तो जानते ही है कि ऐसा करना कितना मंहगा साबित होगा. ऐसे में अगर दूकान से लाकर किसी मुटिया को चपरासी बना दिया जाय तो दो बातें होंगी. उसकी जगह जिसको भी लेंगे उसे मुटिया की सैलरी मिलेगी. और इसे चपरासी बना देंगे तो ये भी खुश हो जाएगा. एक तरह से इसका प्रमोशन हो जाएगा. मुटिया को अगर चपरासी का काम मिल जाए तो वो इतना खुश हो जाएगा कि सैलरी बढाने की बात करेगा ही नहीं. "
राम अवतार जी की बात सुनकर रमेश बाबू को लगा कि उनके हाथ में होता तो वे राम अवतार जी को चेंबर ऑफ़ कामर्स से गोल्ड मैडल विद सर्टिफिकेट दिला देते. और तो और इनके बिजनेस सिद्धांतों को आई आई एम के पाठ्यक्रम में डलवा देते.
आधे मन से राम अवतार जी को गरियाते और आधे मन से उनकी सराहना करते हुए उन्होंने कहा; " बढ़िया आईडिया दिया आपने."
अध्यापक और चपरासी के बारे फैसला लगभग ले लिया गया. उसके बाद नंबर आया हेडमास्टर साहब का. बात चली तो रमेश बाबू ने कहा; "हेड मास्टर के बारे में आपको चिंता करने की ज़रुरत ही नहीं है. हेड मास्टर तो अपने हाथ में हैं."
उनकी बात सुनकर राम अवतार जी को लगा कि शायद उन्होंने फ़ोन पर बात होने के बाद किसी हेड मास्टर साहब से प्लान के बारे में बात की होगी. यही सोचते हुए उन्होंने रमेश बाबू से पूछा; "आपने किसी हेड मास्टर से बात की है क्या?"
वे बोले; "अरे नहीं. बिना आपसे पूछे मैं किसी से भला कैसे बात कर सकता हूँ? वो तो मैं इसलिए कह रहा था कि अपने एक आरएनपी सर हैं. हायर सेकंडरी में मुझे ट्यूशन पढ़ाते थे. बहुत पुराना सम्बन्ध है अपना. उनका आईटी रिटर्न भी अपने यहीं से मैं ही डलवा देता हूँ. परमेश्वरी विद्यालय में पढ़ाते हैं. एक्सपेरिएंस भी है. काबिलियत भी. वे इस जॉब के लिए परफेक्ट रहेंगे."
अब अगर आपके मन में सवाल उठे कि आरएनपी सर कौन ठहरे तो फिर पढिये.
आरएनपी सर का पूरा नाम राम नारायण पाठक है. अंग्रेजी में एमए किया है. उसके बाद बीएड करके अध्यापन में उतर गए. पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के किसी गाँव के हैं. कलकत्ते में परमेश्वरी विद्यालय में पिछले पचीस साल से पढ़ाते हैं. इन्हें स्कूल से सैलरी उतनी ही मिलती है जितनी प्राइवेट स्कूलों में औरों को मिलती है. घर-परिवार ट्यूशन से चलता है. पाठक सर घर जाकर ट्यूशन पढ़ाते हैं.
पाठक सर की बड़ी तमन्ना थी कि वे किसी दिन परमेश्वरी विद्यालय के हेड मास्टर बनें. जब तक त्रिपाठी जी वहां के हेड मास्टर थे, तब तक पाठक सर को लगता था कि त्रिपाठी जी के बाद वही हेड मास्टर बनेंगे. इस आशा में इन्होने करेसपांडेंस के जरिये इतिहास विषय में भी एमए किया. इन्हें लगा कि डबल एमए करने हेड मास्टर पद के लिए इनकी दावेदारी और पुख्ता हो जायेगी. पाठक सर पूरी तैयारी किये बैठे थे कि त्रिपाठी जी के रिटायरमेंट के बाद यही हेड मास्टर बनेंगे. लेकिन हाय री किस्मत.
इस किस्मत ने इनका साथ छोड़ दिया. इन्हें नहीं पता था कि त्रिपाठी जी के रिटायरमेंट प्लान में एक चैप्टर यह भी था कि वे जब रिटायर होंगे तब अपने रिश्तेदार दूबे जी, जिनकी नौकरी उन्होंने इस स्कूल में लगवाई थी, उन्हें हेड मास्टर बनाकर जायेंगे.
दूबे जी भी हेडमास्टर केवल इसलिए नहीं बने थे कि वे त्रिपाठी जी के रिश्तेदार थे बल्कि इसलिए बन पाए थे कि वे स्कूल के हेड ट्रस्टी सोमानी जी के घर सुबह-शाम रामचरित मानस का सस्वर पाठ करते थे. रामचरित मानस का यह सस्वर पाठ ही उनके हेडमास्टर बनने में सहायक सिद्ध हुआ.
दूबे जी के हेडमास्टर बनने के बाद मानो पाठक जी का परमेश्वरी विद्यालय में अध्यापन से दिल ही उठ गया.
जारी रहेगा....
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२१ मई, २००७ को मैंने पहली पोस्ट लिखी थी. मजे की बात यह कि उसी दिन पब्लिश भी कर दी थी. इस लिहाज से देखें तो आज ब्लागिंग में दो साल पुराने हो लिए हम.
आपने क्या कहा? ये सब मैं क्यों बता रहा हूँ?
अजी साहब, बधाई तो बनती है न.
Thursday, May 21, 2009
सेंट मोला मेमोरियल - भाग ५
@mishrashiv I'm reading: सेंट मोला मेमोरियल - भाग ५Tweet this (ट्वीट करें)!
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पोस्ट तो बाद में पढ़कर टिपियायेंगे.
ReplyDeleteअभी तो बस बधाई ही बधाई.
देखते देखते कित्ते बड़े हो गये दो साल के. वाह!!
ऐसे ही बड़े होते चलो और खूऊऊऊउउउउउउउब बड़े हो जाओ!! शुभकामना!!
बधाई! बहुत बहुत बधाई! लल्ला से पहले दो बरस के भए। बधावा क्यों न गाएँ।
ReplyDeleteऔर आज का चैप्टर बहुत शानदार है।
बधाई हो भईया बधाई ।
ReplyDeleteइस दो बरस में इतना बडा लेखन संसार स्थापित किया है आपने, जिसकी प्रशंसा जितनी भी की जाए कम है।
चिट्ठा जगत में दो साल पूरे कर लेने की बहुत बहुत बधाई .. इसी तरह सफलतापूर्वक आप आगे बढते जाएं।
ReplyDeleteदो साल तक अनवरत हम जैसों का ज्ञान वर्धन और मनोरंजन करने के लिए आपका कोटिश धन्यवाद...धन्य है वो घडी जिस घडी आपने ब्लॉग खोलने की बात सोची....
ReplyDeleteसेंट मौला वाली कड़ी का पांचवा भाग चौथे से कम नहीं रहा और चौथा तो तीसरे से श्रेष्ठ था ही...तीसरे में आपने दूसरे भाग से आगे निकल कर अपनी बात कही थी और दूसरे भाग में जो पहले में कहा गया था उसकी स्वादिष्ट चटनी बना डाली थी...वो भाग अब इतिहास के हिस्से बन चुके हैं...अब छठे भाग में क्या होगा ये जानने की तीव्र इच्छा है...लगता है स्कूल जल्दी ही चालू हो जायेगा...
नीरज
ढेर ढेर ढेर ....... बधाई !!!!
ReplyDeleteबधाई सिर्फ इसकी नहीं कि तुम्हारे इतने पोस्ट हो गए....बधाई इसकी भी कि तुम जितने लोगों को इस ब्लॉग जगत में खींच लाये उनमे उनके शतकों और अर्ध शतकों का पूरा दारोमदार भी तुम्हारे सर ही है....
ऐसे ही सतत निरंतर लिखते रहो.....आठ दस सेंचुरी यूँ ही मार लो बिना सुस्ताये....
कहानी बहुत जबरदस्त चल रही है....बहुत ही मजेदार.....ऐसे ही जरी रखो...केवल ध्यान रहे,लम्बे अन्तराल मत रखना..
अनंत शुभकामनाये.
आज न जाने क्यूं, अरविन्द जी की समझाईश के बावजूद, रामचरित मानस का सस्वर पाठ करने का मन कर रहा है-कहीं इस ब्लॉग के जन्म दिन की वजह से तो नहीं या फिर हेडमास्टर बनने का रास्ता पता चल गया, इसलिये.
ReplyDeleteदो साल पूरा होने की बधाई पूरे दो साल के बाद। मतलब जब सब दिन जब बीट गये दो साल के तब। बाकी स्कूल का काम बड़ा धांसू चल रहा है। पुख्ता बनेगा। शानदार!
ReplyDeleteऐसे कैसे बधाई दे......??जन्मदिन तो मनाईये ....केक बांटिये ....स्कूल में एडमिशन की क्या फीस रखी है ?
ReplyDeleteपहले गोदाम और अब आरएनपी सर शुभ संकेत हैं सारे सफलता के. वैसे भी चलता तो भडकदार, सहतमोल और टिकाऊ ही है.
ReplyDeleteदो साल की बधाई. मिठाई उधार :)
उस दो साल पहले की पोस्ट में था:
ReplyDeleteजनता को असली ख़ुशी सत्ता में बैठे लोगों को हरा कर मिलती हैं.सत्ता में रहने वाली पार्टी को हराकर कई महीनो तक सीना तानकर चलती हैं. कुछ महीने बीतने के बाद उसे महसूस होता हैं की असल में जिसे वह अपनी जीत समझ रही थी, उसकी हार निकली.
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शायद यह आज भी सही हो! जनता सोच रही है कि विलक्षण मेण्डेट दिया है। उस विलक्षण मेण्डेट की कलई कुछ महीनों में खुल जायेगी?!
दो साल...? बाप रे!!!!
ReplyDeleteहार्दिक बधाई...
राम अवतार का इंतजार रहेगा
बधाई आपको और आर एन पी सर को शुभ कामनाएँ ।
ReplyDeleteवे हेडमास्टर बनें तो बच्चियों की एडमिशन का जुगाड़ हो ।