आजकल तरही गजल की बात खूब हो रही है. कई बार सोचा कि तरही कविता की बात क्यों नहीं होती. आज सोचा तरही कविता ट्राई की जाए. ट्राई किया तो ये पाव-किलो तुकबंदी इकट्ठी हो गई. आप झेलिये.
पाठक बन्धुवों को अगर बुरा लगे तो उसके लिए एडवांस में क्षमा प्रार्थी हूँ.
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ग्रोथ रुक गई जीडीपी की, मंदी ने मारा पाला
मील-फैक्टरी सूनी पड़ गई, उनपर लटक रहा ताला
लोन लिया था बैंकों से जो, एक्सपेंशन की खातिर वो
ब्याज जोड़कर डबल हो गया, मंदी लाई दिन काला
खूब कमाया डॉलर में, था फारेन ट्रैवेल का मतवाला
यू एस ए हो चाहे यूके, सबको ही सलटा डाला
आज हाल तो ये है, शिमला जाना भी दूभर है अब
लिमिट ख़तम है आज कार्ड का, मंदी लाई दिन काला
आर्डर बुक में जो आर्डर थे, तुरत-फुरत निपटा डाला
डॉलर आया घर में जब, बस शेयर में लगवा डाला
गिरा हुआ है शेयर प्राईस, आर्डर भी अब हाथ नहीं
कैसे खर्च चलेगा भगवन, मंदी लाई दिन काला
एक समय था मिनट-मिनट पर, मिलता था काफी प्याला
वीक-एंड की शामें, ले जाती थी सीधे मधुशाला
बंद हुई ये परिपाटी अब, सारी रौनक चली गई
नहीं मिले अब चाय-वाय भी, मंदी लाई दिन काला
शर्म-ग्रंथि सब जला चुकी हो, जिसके अंतर की ज्वाला
जिसका अंतर्मन ये बोले, दुनियाँ एक धरमशाला
जिसने चमड़ी मोटी कर ली, जो उधार ले जीता हो
वही टिकेगा इस दुनियाँ में, मंदी लाई दिन काला
मुसलमान हो चाहे हिन्दू, सबको घायल कर डाला
मंहगाई की राह पर चलकर, पाँव पड़ा दर्जन छाला
चावल चीनी एक भाव के, दाल की बातें कौन करे
आलू सोलह रूपये किलो, मंदी लाई दिन काला
मृदु भावों वाले जीवन में, कटुता भाव जगा डाला
मीठी स्मृतियों पर पड़ गया, तीखा सा मोटा जाला
ऐसे दिन भी आने थे ये ज्ञात नहीं था हे बंधु
रातों का कटना दूभर है, मंदी लाई दिन काला
बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ मिट गईं, कोई नहीं रोने वाला
बैंक-वैंक तो कितने डूबे, कोई नहीं गिनने वाला
दशकों लगे जिन्हें बनने में, घंटों में वे उखड़ गए
जो हैं बचे डरे जीते हैं, मंदी लाई दिन काला
अर्थ-व्यवस्था की मंदी ने, खेला चौपट कर डाला
बची-खुची थी राजनीति, उसपर भी अब छाया पाला
बन-ठन कर तैयार खड़े थे, शासन में जम जायेंगे
आज खड़े हैं चुप्पी साधे, मंदी लाई दिन काला
पीएम इन वेटिंग थे अब तक, नहीं पहन पाए माला
दांव आख़िरी काम न आया, उलट गया सत्ता प्याला
जीवन भर की सारी मंशा, पल भर में बस हवा हुई
गया रसों से स्वाद सभी अब, मंदी लाई दिन काला
Friday, May 29, 2009
तरही कविता ---मंदी लाई दिन काला
@mishrashiv I'm reading: तरही कविता ---मंदी लाई दिन कालाTweet this (ट्वीट करें)!
Labels:
अर्थशास्त्र,
कविता
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क्या कहुं.......जियो जियो !!!
ReplyDeleteलाजवाब ! एकदम लाजवाब !!
अरे कोई शब्द ही नहीं मिल रहा प्रशंशा को !!
आज अगर दिनकर जी होते तो तुम्हारी बलैयां ले रहे होते....आज कि मंहगाई पर शायद वो भी कुछ ऐसा ही लिखते...वाह !!
इस तरही कविता को पढ़कर मस्त हुआ मन मतवाला।
ReplyDeleteहाल देश का सिमट गया सब कविता में ही कह डाला।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
"नोचें अपने बाल कहें हम बंधू क्या ये लिख डाला
ReplyDeleteजिसको पढ़कर बच्चन जी को पीनी पड़ जाये हाला
देख छुपा है सुख का सूरज बर्बादी के बादल में
हाहाकर मचा कर यारों मंदी लायी दिल काला "
तुक बंदी में हम भी दखल रखते हैं ये ही प्रमाणित करने के लिए ऊपर दिया छंद लिखें हैं....बाकि आपजो लिखे हैं वो विलक्षण है बल्कि हम कहें की वो महान क्षण था जब आप ये विलक्षण रचना लिख रहे थे...उस क्षण को नमन...
नीरज
पहले तो भभ्ड़ मचती थी, जैसे ही कुछ लिख कर डाला
ReplyDeleteअब तो खुद ही टीप मारते, हाय!! ये कैसा रोग है पाला.
लिखना-पढ़ना किसकी खातिर, टिप्पणी की हसरत है यारा
डायरी के दिन फिर याद कराने , मंदी लाई दिन काला.
--तरही में ’मंदी लाई दिन काला’ का अनुसरण किया है, सर. ठीक है क्या?? :)
--बहुत बेहतरीन महफिल सजाई है. नीरज भाई के साथ उस क्षण को हमऊ नमन किये लेते हैं.
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteमन्द मन्द मुस्कुरा रहे होंगे हरिवंशराय ’बच्चन’ जी! आखिर स्वर्ग लोक में मन्दी का क्या असर?!
ReplyDeleteआपको तो तरही कुल गुरू सम्मान मिल जाना चाहिये। शानदार मंदी पुराण लिख मारा। बड़ी जोर की चोट लगी।
ReplyDeleteक्षमा ? मुझे तो कुछ नहीं कहना !
ReplyDeleteबस इतना पसंद आया कि 'हिंदी का शायद पहला ही आइटम है जिसे गूगल रीडर पर शेयर कर रहा हूँ.' वैसे मेरे शेयर्ड आइटम पढने वाले सबको हिंदी भी नहीं आती :)
are gurujee eeho gumatiye ke paan kaa asar hai kaa....mahangaai kaa gaan ek dam chakaaa chak raha....
ReplyDeleteअरे गजब लिख दिया पंडितजी आपने...
ReplyDeleteमधुशाला या मंदशाला!!!
पाव-किलो कहां है ये! मन भर है (मन जो भर गया है ना)
ReplyDeleteबेहद पसंद आयीं
मंदी के समय में फोकट में पाव किलो तुकबंदी मिल रही है, और क्या चाहिए :)
ReplyDeleteहै तो एकदम धड़कती फड़कती कविता.
ReplyDeleteवैसे कभी कभी गीत के साथ तर्ज लिखा होता है. यहाँ भी आप तर्ज मधूशाला लिख सकते है. माने उसी अंदाज में गाएं और आनन्द लें.
क्या लिख दिए हो भाई......... शब्दे नहीं है.
ReplyDeleteइस सामायिक मंदीशाला को तो बस अब बिग- बी या फिर बिग- बी जैसे का इंतजार है.
जो इसे पढ़े या आप ही पढ़ कर सुना दीजये , आप भी क्या कम हो.
एक यथार्थवादी कविता...निम्न पंक्तिया बेहद अच्छी लगीं।
ReplyDeleteमृदु भावों वाले जीवन में, कटुता भाव जगा डाला
मीठी स्मृतियों पर पड़ गया, तीखा सा मोटा जाला
ऐसे दिन भी आने थे ये ज्ञात नहीं था हे बंधु
रातों का कटना दूभर है, मंदी लाई दिन काला
अहा...इन किलो-सवा किलो तुकबंदियों पर कुर्बान हुये सर हम तो
ReplyDeleteपीएम इन वेटिंग थे अब तक, नहीं पहन पाए माला
ReplyDeleteदांव आख़िरी काम न आया, उलट गया सत्ता प्याला ..
काफी झोल्झाल वाली लाइनें है...आपकी तरही कविता तरह-तरह के रूप ले रही है..मंदीको भी पता नही था कि वह इतनी बडी बहरूपिया है