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Thursday, October 8, 2009

एक अधूरा इंटरव्यू


@mishrashiv I'm reading: एक अधूरा इंटरव्यूTweet this (ट्वीट करें)!

नरोत्तम कालसखा बहुत बड़े मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. बड़े से मेरा मतलब काफी लम्बे हैं. कह सकते हैं ये मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के शिरोमणि हैं. वैसे तो ये और भी काम करते हैं लेकिन इनका जो सबसे प्रिय काम है वो है इन्टरव्यू देना और पैनल डिस्कशन में भागीदार बनना. इन्टरव्यू देने में तो इन्होने हाल ही में विश्व रिकॉर्ड बनाया हैं.

प्रस्तुत है उनका एक इन्टरव्यू.

पत्रकार: नमस्कार कालसखा जी. धन्यवाद जो आपने अपना बहुमूल्य समय इन्टरव्यू के लिए निकाला.

नरोत्तम जी: धन्यवाद किस बात का? हमें इन्टरव्यू देने के अलावा काम ही क्या है? हमें तो इन्टरव्यू देना ही है. आपको पता है कि नहीं, मैंने हाल ही में इन्टरव्यू देने का विश्व रिकॉर्ड बनाया है?

पत्रकार: हाँ हाँ. वो तो पता है मुझे. इसीलिए मैंने सोचा कि जब तक मैं आपका इन्टरव्यू नहीं लूँगा मेरा पत्रकार जीवन धन्य नहीं होगा.

नरोत्तम जी: ठीक है. ठीक है. आप इन्टरव्यू शुरू करें. मुझे इन्टरव्यू ख़त्म करके अपने कॉलेज में एक भाषण देने जाना है.

पत्रकार: ज़रूर-ज़रूर. तो चलिए, पहला सवाल इसी से शुरू करते हैं कि कौन से कॉलेज में थे आप?

नरोत्तम जी: मैं सेंट स्टीफेंस में था.

पत्रकार: वाह! वाह! ये तो बढ़िया बात है. दिल्ली में सेंट स्टीफेंस वाले छाये हुए हैं. वैसे एक बात बताइए. आप सेंट स्टीफेंस के हैं उसके बावजूद आप न तो सरकार में हैं और न ही पत्रकार. ऐसा क्यों?

नरोत्तम जी: हा हा...गुड क्वेश्चन. ऐसा तो मेरी सबसे अलग सोच के कारण हुआ. मैंने सोचा कि सेंट स्टीफेंस वाले सभी सरकार में जाते हैं या फिर पत्रकार बन जाते हैं. मुझे अगर सबसे अलग दिखना है तो मैं मानवाधिकार में चला जाता हूँ. वैसे भी मानवाधिकार वाला सबके ऊपर भारी पड़ता है. सरकार के ऊपर भी और पत्रकार के ऊपर भी. वैसे आप भी तो पत्रकार हैं. आप भी क्या सेंट स्टीफेंस के....

पत्रकार: नहीं साहब नहीं. मैं तो माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय की पैदाइस हूँ.

नरोत्तम जी: वही तो. मैं भूल ही गया कि आप हिंदी के पत्रकार हैं. ऐसे में सेंट स्टीफेंस के...

पत्रकार: हा हा हा..सही कहा आपने. वैसे ये बताइए कि आपसे लोगों को यह शिकायत क्यों रहती है कि आप केवल आतंकवादियों, नक्सलियों या फिर अपराधियों का पक्ष लेते हैं? जब किसी निरीह आम आदमी की हत्या होती है, आप उस समय कुछ नहीं कहते. कहीं दिखाई नहीं देते?

नरोत्तम जी: देखिये भारत में सत्तर प्रतिशत से ज्यादा लोगों की प्रति दिन आय नौ रुपया अड़तालीस पैसा से ज्यादा नहीं है. साढ़े सत्ताईस करोड़ लोग प्रतिदिन केवल एक वक्त का खाना खा पाते हैं. आजादी से लेकर अब तक कुल सात करोड़ चौसठ लाख तेरह हज़ार पॉँच सौ सत्ताईस लोग सरकारी जुर्म का शिकार हुए हैं. आंकड़े बताते हैं कि.....

बोलते-बोलते अचानक नरोत्तम जी जोर-जोर से बोलने लगे. बोले; "पहले मेरी बात सुनिए आप. मुझे बोलने दीजिये पहले. मेरी बात नहीं सुननी तो मुझे बुलाया ही क्यों?"

पत्रकार भौचक्का. उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि नरोत्तम जी को अचानक यह क्या हो गया? घबराते हुए वह बोला; "सर, आप ही तो बोल रहे हैं. मैंने तो आपको बोलने से बीच में रोका नहीं."

अचानक नरोत्तम जी को याद आया कि वे पैनल डिस्कशन में नहीं बल्कि इंटरव्यू के लिए बैठे हैं. लजाने की एक्टिंग करते हुए बोले; "माफ़ कीजियेगा, मैं भूल गया कि मैं पैनल डिस्कशन में नहीं बल्कि इंटरव्यू के लिए बैठा हूँ."

पत्रकार: चलिए कोई बात नहीं. लेकिन आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया. मेरा सवाल यह था कि लोगों को शिकायत रहती हैं कि....

नरोत्तम जी: मैं आपके सवाल का ही जवाब दे रहा था.डब्लू एच ओ की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले चार साल आठ महीने और सात दिन में कुल सात लाख पचहत्तर हज़ार चार सौ नौ लोग सरकारी आतंकवाद का शिकार हुए हैं. नए आंकड़ों के अनुसार....

पत्रकार: डब्लू एच वो? आपके कहने का मतलब वर्ल्ड हैल्थ आरगेनाइजेशन?

नरोत्तम जी: नहीं-नहीं. डब्लू एच ओ से मेरा मतलब था वुडमंड ह्युमनराइट्स आरगेनाइजेशन. आपको इसके बारे में नहीं पता? यह अमेरिका का सबसे बड़ा ह्यूमन राइट्स आरगेनाइजेशन है.

पत्रकार: लेकिन आपको लगता है कि अमेरिका का कोई आरगेनाइजेशन भारत में होने वाली घटनाओं पर इतनी बारीक नज़र रख पायेगा? खैर, जाने दीजिये. आप ने अभी भी मेरे मूल सवाल का जवाब नहीं दिया.

नरोत्तम जी: मैं वही तो कर रहा था..... मैं ये कह रहा था कि सरकारी आतंकवाद को रोकने के लिए हम प्रतिबद्ध है. हमारा जीवन इसी रोक-थाम के लिए समर्पित है.

पत्रकार: लेकिन आप उनको क्या कहेंगे जो पुलिस वालों को मारते हैं? जो आम आदमी को आतंकित करके रखते हैं? क्या वे आतंकवादी नहीं हैं?

नरोत्तम जी: देखिये, आतंकवाद को परिभाषित करना पड़ेगा. आतंकवाद क्या है? ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार टेरोरिज्म इज अ कंडीशन व्हिच...

पत्रकार: सर, आप क्या आतंकवाद की परिभाषा अब डिक्शनरी से देना चाहते हैं?

नरोत्तम जी: हमारे पास सारे तथ्य पूरे प्रूफ़ के साथ रहते हैं. आप अगर सुनना नहीं चाहते हैं तो फिर हमें बुलाया क्यों?

पत्रकार: अच्छा कोई बात नहीं. आप यह बताइए कि सरकार के कदम के खिलाफ ही क्यों बोलते हैं आप?

नरोत्तम जी: सरकार के कदम इसी लायक होते हैं. साठ साल हो गए देश को आजाद हुए. लेकिन सरकार ने केवल निरीह लोगों के ऊपर अत्याचार किया है. विकास के कार्य को हाथ नहीं लगाया. विकास के सरकारी आंकड़े फर्जी हैं. शिक्षा का कोई विकास नहीं हुआ. उद्योगों के विकास के आंकड़े पूरी तरह से फर्जी हैं...आज नक्सल आन्दोलन को निरीह और पूअरेस्ट ऑफ़ द पूअर का समर्थन क्यों मिल रहा है?

पत्रकार: लेकिन नक्सल आन्दोलन को क्या केवल निरीह लोगों का ही समर्थन मिल रहा है? वैसे एक बात बताइए, इन निरीहों के पास ऐसे अत्याधुनिक हथियार कहाँ से आते हैं?

नरोत्तम जी: सब बकवास है. सब सरकारी प्रोपेगैंडा है. नक्सल आन्दोलन में शरीक लोग आदिवासी हैं. इनके पास हथियारों के नाम केवल धनुष-वाण और किसी-किसी के पास कटार है. इससे ज्यादा कुछ नहीं. आधुनिक हथियारों की बात झूठी है. सरकार की फैलाई हुई.

पत्रकार: आपके हिसाब से अत्याधुनिक हथियारों की बात सरकार ने एक प्रोपेगैंडा के तहत फैलाया है?

नरोत्तम जी: बिलकुल. आप अपना दिमाग लगायें और सोचें कि जिन गरीबों के पास खाने को रोटी नहीं है वे ऑटोमेटिक राइफल कहाँ से खरीदेंगे? कोई बैंक लोन देता है क्या इसके लिए?

पत्रकार: चलिए मान लेता हूँ कि ये हथियार नहीं हैं उनके पास. लेकिन कई बार देखा गया है कि ये लोग पुलिस वालों को बेरहमी से कत्ल कर देते हैं. कल रांची में नक्सलियों द्बारा एक इंसपेक्टर की हत्या कर दी गई. आप क्या इसे आतंकवाद नहीं मानते?

नरोत्तम जी: आपके पास क्या सुबूत है कि उस इंसपेक्टर की हत्या नक्सलियों ने की है? सब सरकार का फैलाया गया प्रोपेगैंडा है. देखिये आज से पंद्रह साल पहले तक अट्ठाईस हज़ार चार सौ पैंतीस लोगों से कुल सात हज़ार नौ सौ तेरह एकड़ जमीन छीन ली गई थी जिसपर कुल तिरालीस हज़ार आठ सौ पंद्रह क्विंटल अनाज पैदा होता था. इसमें से बारह हज़ार तीन सौ उन्नीस क्विंटल अनाज खाने के काम आता था और बाकी.....एक अनुमान के हिसाब से सरकार ने कुल उनतालीस हज़ार छ सौ सत्ताईस एकड़ जमीन तेरह उद्योगपतियों के हवाले किया जिसकी वजह से चौबीस हज़ार लोग अपनी ज़मीन से हाथ धो बैठे...हाल ही में प्रकाशित हुए नए आंकडों के अनुसार....

नरोत्तम जी बोलते जा रहे थे. कोई सुनने वाला नहीं था. पत्रकार बेहोश हो चुका था.

(हाल ही में खबर आई है कि पत्रकारों के एक दल ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सूचना और प्रसारण तथा गृहमंत्री को एक ज्ञापन दिया है जिसमें मांग की गई है कि पत्रकारिता विश्वविद्यालय से निकले नए-नए स्नातकों को ऐसे लोगों का इंटरव्यू लेने के लिए बाध्य न किया जाय. ऐसा करना नए पत्रकारों के मानवधिकारों का हनन है.)

24 comments:

  1. भईया इन नराधम का इटरव्यू तो अच्छा लगा. इनके मुंह से जो झाग वाग निकल रहे थे उनका क्या किया?

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  2. नरोत्तम दास जी पेनल डिस्कशन और इन्टरव्यू में बड़ी जल्दी कन्फ्यूज हो जाते हैं...इसी बात से उनके हृदय की संवेदनशीलता का अनुमान लगाया जा सकता है. अब ये मत पूछना कैसे: हमारे पास सारे तथ्य पूरे प्रूफ़ के साथ रहते हैं.


    बकिया तो इन्टरव्यू चटक मटक ऑफ सेंट स्टीफन्स लिए हुए जबरदस्त रहा.

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  3. क्या कहूँ? बस मुग्ध हूँ।

    सादर
    श्यामल सुमन
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  4. अच्छा, मैं प्योर इन्नोसेण्टात्मक सवाल कर रहा हूं। मैं सेण्ट स्टीफन नहीं; चूहामल झाऊमल डिग्रीकालेज, शिवपालगंज का पढ़ा हूं। मुझे मानवाधिकार पर इण्टरव्यू देने के लिये क्या करना चाहिये?

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  5. "पहले मेरी बात सुनिए आप. मुझे बोलने दीजिये पहले. मेरी बात नहीं सुननी तो मुझे बुलाया ही क्यों?" हा हा.. ये तो सटीक चित्रण हुआ !

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  6. आजकल तो पैनल डिस्कसनों में मानवाधिकार के हनन के सबसे अधिक मामले सामने आ रहे हैं । अपनी बात रखना मानव का अधिकार है और बुलाकर भी उसे उस अधिकार से वंचित किया जा रहा है ।

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  7. अहिंसक तरीके से किसी की खाल उधेड़ना इसे कहते है. अरे भई अगले के मानवाधिकार है कि नहीं? :)

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  8. अपुन को बड़ा कोम्प्लेक्स होता है जी......सेण्ट स्टीफन नहीं गए न कभी...

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  9. संजय बेंगानी जी के बातों से पूर्ण सहमती है.....

    इसे कहते हैं अहिंसक चमड़ी उधेड़अन कला...
    बहुतै बहुतै बढ़िया...

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  10. इसे कहते है.. बिना हाथ उठाये लप्पड़ मारना..
    लगता है किसी दिन चूहामल झाऊमल डिग्रीकालेज, शिवपालगंज के किसी नए पत्रकार को आपसे भिडाना पड़ेगा.. कमल का इंटरव्यू रहेगा..

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  11. अजी बस मार डाला आपने..यह अधूरा इन्टरव्यू पढ़ा कर..भगवान उस पत्रकार की आत्मा को शान्ति दे..
    थोड़ी सी समस्या यह है कि जिनको यह पोस्ट पढ़ना जरूरी था..वो बेचारे अभी पैनल डिस्कशन और इन्टरव्यूज्‌ मे व्यस्त हैं..

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  12. सरकार, पत्रकार, मानवाधिकार...........सब बेकार क्योंकि इन्टरव्यू अधूरा ही रह गया और पत्रकार का कागज़ कोरा ही रह गया:)

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  13. मुझे आपका लेख पढ़ कर दुःख हुआ, आप का सेंस आफ टाईमिंग सही नहीं है....पूछिए क्यूँ? वो इसलिए की इसे आपने देर से लिखा...फिर पूछिए की देर से मतलब?...देर से इसलिए क्यूँ की तब तक चिडिया खेत चुग चुकी थी...अब पूछिए की कौनसा खेत? अरे भाई शेखर सुमन की टेढी बात वाला खेत...वो कार्यक्रम अब बंद हो चुका है अगर चल रहा होता तो अगला एपिसोड शेखर इसी पर बनाते ...क्या धाँसू इंटरव्यू है...पत्रकार उर्फ़ गुरपाल सच में बेहोश हो जाते...

    बाकि तो सब ठीक है लेकिन आप का सेंस आफ टाईमिंग कब ठीक होगा बंधू?

    नीरज

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  14. अद्भुत भाई! ग़जब लिखा है आपने. आप को इस अत्युत्तम लेखन के लिए दाद-दिनाई-खाज-खुजली सब इकट्ठे. और हां, ज्ञान भैया मानवाधिकार पर इंटरव्यू देना चाहते हैं. काहे नई उनको कुछ सवाल-वोवाल पोस्टिया देते हैं? हम लोग अगोरेंगे कि आप भैया का इंटरव्यू कब छाप रहे हैं मानवाधिक्कार पर.

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  15. Shiv,

    This is brilliant.I am going to tweet this if you don't mind.

    http://twitter.com/jhunjhunwala

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  16. लाजवाब !!! एक जूता तो आपने इसे मानवाधिकार वाले को मारा है.दूसरा बचा होगा वो इस पत्रकार को सुन्घाइए ताकि बचा हुआ आगे का इन्टरव्यू पूरा हो सके :D

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  17. अब बेहोश होने की बारी हमारी है ।

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  18. स्टीफ़ेन्स वाला ही ऐसा इंटरव्यू दे सकता है। तीन दिन से पेंडिंग में पड़ी पोस्ट हमने आखिर बांच ही ली। लेकिन अभी तक माखनलाल वाला होश में नहीं आया है।

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  19. दीपावली की आपको और आपके परिवाजनों को हार्दिक बधाई.

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  20. ये पढते ही हँसते हँसते पेट में दर्द होने लगा :) ... "बोलते-बोलते अचानक नरोत्तम जी जोर-जोर से बोलने लगे. बोले; "पहले मेरी बात सुनिए आप. मुझे बोलने दीजिये पहले. मेरी बात नहीं सुननी तो मुझे बुलाया ही क्यों?"

    वाह भैया ... काल सखा जी को हमारा प्रणाम कहियेगा :)

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  21. नरोत्तम कल्सखा इस नामकरण में ही बहुत बड़ा व्यंग्य है। व्यग्यकारों की फेहरिश्त में मिश्राजी सरमौड़ हैं।

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  22. दुखद समाज ऐसे शिरोमणियों से पटा पड़ा है

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय