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Friday, January 28, 2011

हाय मंहगाई - मंहगाई के मारे पुरुरवा


@mishrashiv I'm reading: हाय मंहगाई - मंहगाई के मारे पुरुरवाTweet this (ट्वीट करें)!

डेढ़ वर्ष हो गए उर्वशी को गए हुए. आजतक वापस नहीं आई. अर्थव्यवस्था की मंदी तो चली गई लेकिन फिर उसे मंहगाई ने धर दबोचा. आज उर्वशी ने सोचा कि पुरुरवा से चैट पर ही पूछा जाय कि क्या हुआ? अब अर्थव्यवस्था की हालत क्या है? उसके महीलोक पर आने के चांसेज कैसे हैं?

उनके चैट बॉक्स की एक फोटो लगा रहा हूँ. आप भी पढ़िए कि क्या बातें हो रही हैं?

पुरुरवा

डेढ़ वर्ष हो गए छोड़ कर तुम जब चली गईं थी
तुम्हें देखने की अभिलाषा कुछ दिन नई-नई थी
किन्तु समय ज्यों बीता वह भी होती गई पुरानी
आज सोचकर लगता जैसे यह प्राचीन कहानी

समझ नहीं आता कि स्थित अब कैसे सुधरेगी

उर्वशी

सारी बातें कब बोलोगे जब उर्वशी कहेगी?

क्या-क्या बीता साथ तुम्हारे मुझको जरा सुनाओ
इतना भी क्या कठिन समय था आज मुझे बतलाओ
क्या कारण हो सकता है कि डेढ़ बरस के भीतर
एक बार भी मेल लिखा, ना भेजा कोई कबूतर

पुरुरवा

सच कहता हूँ एक नहीं है कारण कई हज़ार
तुमने छोड़ा महीलोक तो मन पर हुआ प्रहार
अर्थव्यवस्था की मंदी से जीवन था हलकान
जैसे बिन बरसात के तड़पे कोई दीन किसान
पहले मुद्रा की तंगी थी फिर क्रेडिट का लोचा
इक नरेश की यह हालत होगी ये कभी न सोचा
उधर गई तुम इधर मुझे फिर राज-काज ने घेरा
साथ तुम्हारे मौज में था फिर दुःख ने डाला डेरा
जीवन अब कैसे बीतेगा यह चिंता थी मन में
कई बार मैंने यह सोचा जा भटकूँ अब वन में

ऐसा उलझा राज-काज में कहाँ मिले आराम

उर्वशी

और तुम्हारे आमात्यों ने किया नहीं कुछ काम?

अगर नहीं कुछ किया अभी तक फिर क्यों टिके हुए हैं?
लगता है कि औरों के हाथों वे बिके हुए हैं.
उसका तो बस धर्म यही अपना कर्त्तव्य निभाये
प्रजा रहे खुश उनसे और बस भूपति के गुण गाये
किन्तु मुझे यह लगता है वे काम नहीं करते हैं
और मुझे होता प्रतीत वे तुमसे ना डरते हैं.

पुरुरवा

कौन डरेगा मुझसे जब अधिकार दे दिया उनको
दही सरीखे जमे रहें आधार दे दिया उनको
जिनका था कर्त्तव्य प्रजा को वे अनाज दिलवाएं
वही घूमते इधर-उधर और बस क्रिकेट खेलवायें
समय मिले जब खेल-कूद से रखें दृष्टि बस एक
ऐसा कुछ रच डालें कि बस हो मुद्रा अभिषेक
क्या-क्या बतलायें तुमको क्या उसने है कर डाला
हाल है यह सुनने को मिलता रोज एक घोटाला

प्याज बिकेगी सत्तर रूपये नहीं कभी सोचा था

उर्वशी

इससे अच्छा तो जीवन में मंदी का लोचा था

माना मैंने सब चीजों का बढ़ा हुआ है दाम
क्या प्रधान आमात्य ने किया नहीं कुछ काम?

सुना रखा था अर्थशास्त्र के विज्ञाता हैं आप
ऐसा तो है नहीं कि निकले वे भी झोलाछाप?

पुरुरवा

शायद तुमने सही कहा कि अर्थशास्त्र के ज्ञाता
भूल चुके हैं अर्थशास्त्र अब उन्हें नहीं कुछ आता
करने की तो बात दूर है वे चुप ही रहते हैं
उनको जो भी कहना वे मैडम से ही कहते हैं
लगती ठोकर उन्हें हो जैसे वे कोई फ़ुटबाल
मंत्री, संत्री, चेले, चमचे करते रोज बवाल
न्यायालय भी देती उनको रोज एक फटकार
घोटालों का रोज मनाते एक नया त्यौहार
जिन्हें भार सौंपा था मैंने देकर जिम्मेदारी
वही बनाकर खच्चर मुझको करते रोज सवारी
खाने-पीने पर ही इतना रोज खर्च हो जाता
अब तो बनिए ने भी मेरा बंद कर दिया खाता
मास चार हो गए मुझे मदिरा को हाथ लगाए
मदिरा सेवन के खातिर अब मुद्रा कहाँ से आये
सादा जीवन भी मुश्किल अब ऐसी है मंहगाई
कौन जनम का पाप ढो रहे जाने कहाँ से आई

मन में आती बात हमारे जा भटकूँ अब वन में

उर्वशी

तुमसे अच्छी मैं ही हूँ, विचरण कर रही गगन में

देवराज दरबार सजाते करते मदिरा पान
देवलोक में बन रहे रोज सभी पकवान

मर्त्यलोक की हालत पर मुझको होता है कष्ट
चंद निकम्मे आमात्यों ने कर डाला सब नष्ट
जो हालत है आज तुम्हारी वह कब अच्छी होगी
तुम्ही बताओ मिलेंगे कैसे अब विरहणी-वियोगी?

पुरुरवा

अब तो यह लगता है.....

पुरुरवा जवाब दे ही रहे थे कि कक्ष में उनकी पत्नी औशीनरी ने प्रवेश किया. उसे देखते ही पुरुरवा ने डर के मारे टू-ज़ी नेट कनेक्शन वाला अपना लैपटॉप बंद कर दिया.

11 comments:

  1. घोर निःशब्दता की स्थिति है भाई...क्या कहूँ...

    रुको, कुछ सामान्य होकर आती हूँ,दिमाग चलाती हूँ और सोचती हूँ कि क्या कहा जा सकता है इस अद्वितीय कृति पर...

    जियो...

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  2. @ शिव शर्मा ,
    ऐसा लग रहा है कि आप खुद पिछले जन्म में पुरुरवा थे और सारी बातें इस जन्म में भी याद रह गयीं :-) , खूब आनंद लो गुरु ... !
    गज़ब की कल्पना शक्ति के लिए बधाई स्वीकार करें !

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  3. अरे!!! मेरे चैटबाक्स पर तो पुरुरवा यह मेसेज दिखा:

    छॊड गए बालम, मुझे हाय अकेला छॊड गए :)

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  4. अरे, पुरुरवा ने कोई आदर्श नहीं खाया?

    (ओह, गलत टाइप हो गया! कोई आदर्श नहीं दिखाया!)

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  5. यह प्रबंध काव्य कब पूरा होगा.

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  6. उर्वशी और पुरुरवा की शाश्वत नोंकझोंक।
    पर समुन्दर के किनारे, हृदय में जो जल रही, उस विरह को उस वेदना को जानता हूँ।

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  7. मन बहुत प्रसन्न हुआ. खुशी में सोच रहा हूँ आधा किलो प्याज भिजवा दूं आपके यहाँ. ऑनलाइन मिलता है क्या? :)

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  8. patni ke hote 'premika' se sambandh
    ...... sari arth-vyavstha ko hilane ke liye kafi hai........jai ho, dev.

    pranam

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  9. बहुत खूब शिव जी, आप इस फन के माहिर खिलाड़ी हैं। बेहतरीन!

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  10. "पुरुरवा जवाब दे ही रहे थे कि कक्ष में उनकी पत्नी औशीनरी ने प्रवेश किया"

    देख रहा हूँ के आदि काल से ही ये पत्नी रुपी प्राणी हमेशा गलत समय पर ही एंट्री लेता है...पतियों की आज़ादी सदा एक ख़्वाब थी और एक ख़्वाब ही रहेगी...हम सब के पास एक अदद औशीनरी है जिन्होंने उर्वशी जैसी देवियों की सेवाओं के अवसर को हम पुरुरवा जैसे मर्दों को दूर रखा हुआ है....पुरुरवा के हाल को देख कर मैं घोर निराशा के अथाह सागर में डुबकी लगता रहा हूँ और इस पोस्ट पर अभी और कुछ कहने की स्तिथि में नहीं हूँ..मुझे क्षमा करें...औशीनरी प्रकरण ने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया है...

    नीरज
    पुनश्च: आपका कविता लेखन रामधारी सिंह दिनकर जी से किस तरह उन्नीस कहा जा सकता है ये शोध का विषय है...इक्कीस के लिए शोध की आवशयकता नहीं है...

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  11. नयी शैली और नयी तकनीक से महंगाई को लहू-लुहान करने के लिए बधाई.
    मुश्किल ये है कि महंगाई भी हमीं झेल रहे हैं और उस पर की गयी पिटाई भी...कुछ ऐसी जुगत बनाओ जिससे इसके जन्मदाताओं पर असर पड़े !

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय