हम ब्लॉगर लोग आम आदमी हैं इसलिए ब्लॉग लिखते हैं. आते-जाते जो कुछ भी देखते हैं, ब्लॉग पर टांक देते हैं. ई ससुर गूगल ने सर्वर क्या दिया हमारी तो खिल गईं. अरे मैं बाँछों की बात कर रहा हूँ. खिल गईं. एक आईडी क्रियेट किया और शुरू हो गए.
क्या-क्या नहीं लिख डाला?
आज हमको रास्ते में यह दिखा. कल शाम को वह दिखा था. ई राजनीति बहुत गंदी हो गई है. आतंकवाद बहुत बढ़ गया है. मंहगाई बढ़ गई है. अंग्रेजी बढ़ गई है. हिंदी कम गई है. अंग्रेजी को बढावा देना गुलामी की निशानी है. आतंकवादी से सख्ती से निबटना होगा. कसाब को डायरेक्ट फांसी काहे नहीं दे देती सरकार? अफ़ज़ल गुरु की फांसी में इतना दिन काहे लग रहा है? वर्ण व्यवस्था कब ख़तम होगी? किसान काहे आत्महत्या कर रहा है? महिला आरक्षण को लेकर इतना हंगामा क्यों है? कसाब अपना बयान काहे बदल दिया? हम सेकुलर हैं, तो तुम कम्यूनल काहे हो? साध्वी प्रज्ञा के साथ इतनी बदसलूकी काहे हो रही है? हिन्दू आतंकवाद शब्द काहे इस्तेमाल किया जा रहा है? कम्यूनिष्ट इतनी बुरी तरह से काहे हारे? क्या दुनियाँ से कम्यूनिज्म के ख़तम होने की शुरुआत हो गई है? उड़ीसा में चर्च पर काहे हमला हो रहा है? मुतालिक जैसों की धुलाई काहें नहीं होनी चाहिए?
भारतीय भुजंग काट लेगा तो क्या होगा? वेद में व्यवस्था को लेकर ई कहा गया है. जंगल की आग से छुटकारा कैसे पाया जा सकता है? पर्यावरण खराब क्यों हो रहा है? हबीब तनवीर को श्रद्धांजलि. आदित्य जी को श्रद्धांजलि. गत्यात्मक ज्योतिष खराब है. फलित ज्योतिष अच्छा है. जलित ज्योतिष उससे भी अच्छा है. हम ऐसा मानते हैं तुम क्या कर लोगे? हिन्दू कौन थे? हिंदी भाषा किधर जा रही है? किस रफ़्तार से जा रही है? परसों तक कहाँ पहुँच जायेगी? कविता क्या है? कविता इंसान को जगाती है या फिर गौरैया के लिए लिखी जाती है?
काहे? काहे? काहे?
मतलब यह है कि आम आदमी हैं तो यही सब लिखेंगे न. ख़ास होते तो किसी मैगजीन में लिख रहे होते. केंचुकी फ्रायड चिकेन और मैकडोनाल्ड की वजह से एक ख़ास समाज किस दिशा में जा रहा है उसका विश्लेषण कर रहे होते. तब अगर कसाब के मुक़दमे की बात करते तो इस बात को ध्यान में रखकर करते कि अंतर्राष्ट्रीय कूटिनीति का इस मुक़दमे पर क्या असर पड़ता है. अमेरिका का मीडिया क्या चाहता है? एमनेस्टी इंटरनेशल के लोग इस मुद्दे पर क्या विचार रखते हैं? अफ़ज़ल गुरु को फांसी देने की बात करते तो यह ध्यान में रखते कि यूरोपियन यूनियन भारत से क्या चाहता है? मैकडोनाल्ड की किसी खास वर्ग के लोगों पर पड़े प्रभाव को देखते तो उससे उपजने वाली आर्थिक नीतियों का अध्ययन करते हुए लिखते.
लेकिन भैया, हम तो आम आदमी हैं. ऐसे में जो कुछ लिखेंगे वह सब आम आदमी की भाषा में ही होगा. हम तो यह सुनकर लिखना शुरू किये थे कि; "ब्लॉग अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है."
किसी ब्लॉग विशेषज्ञ ने यह लाइन गढी होगी. लेकिन हमें तो मरवाने पर उतारू दीखता है यह ब्लॉग विशेषज्ञ. यह वाक्य सुनकर हम तो उड़ने लगे. जो मन में आया, लिख डाला. ऊपर से संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी वाला सर्टिफिकेट दिया है. अब इस सर्टिफिकेट और कुछ टूटे-फूटे विचारों से लैस हम निकल लिए ब्लॉग लिखने. आम आदमी छोटे-छोटे काम कर के महान होने के सपने देखता रहता है. वही बात हम ब्लॉगर लोगों के साथ है. सोचते हैं;"चलो ब्लॉग लिखकर महान हो लेते हैं."
अब ऐसे में अगर कोई आकर यह कहे कि ऐसा करने से फंस जाओगे तो? हमें तो लगेगा न कि यहाँ हम ब्लॉग लिखकर महान हुए जा रहे थे और आप आ गए बीच में हमारी महानता पर ताला लगाने? महान होने का हमारा प्लान चौपट करने? आम आदमी को महान होने का हक़ नहीं है क्या?
हम ब्लॉग लिखेंगे तो आम आदमी की तरह. इसलिए जब अफ़ज़ल गुरु की बात करते हैं तब केवल यह याद रहता है कि उसे फांसी की सज़ा हो गई है. यह भी याद रहता है कि कुछ नेताओं ने और कुछ मानवाधिकार वालों उसे बचाने की मुहिम छेड़ रखी है. हमें इस बात से क्या लेना-देना कि यूरोपियन यूनियन अफ़ज़ल गुरु के मामले में भारत पर क्या दबाव डाल रहा है?
ऐसे में हम क्या लिखें?
हम जब किसानों की आत्महत्या की बात करेंगे तो यही न लिखेंगे कि सरकार की नीतियों की वजह से किसान मारा जा रहा है? हमें नहीं मालूम कि विदर्भ और बुंदेलखंड की आर्थिक दशा क्या है? किसान किस फसल की खेती करता है? वहां उपलब्ध साधन क्या हैं? हम तो जी आम आदमी की तरह यही सोचते मरे जा रहे हैं कि न जाने कितने लोग अपना जीवन ख़त्म कर ले रहे हैं.
हम जब न्याय-व्यवस्था पर लिखेंगे तो एक आम आदमी की धारणा लिए लिखेंगे. हमें तो केवल इतना पता है कि अदालतें न जाने कितने वर्षों से चल रहे न जाने कितने मुकदमें निबटा नहीं पा रही. क्यों नहीं निबटा पा रही, उसपर दिया जलाकर रौशनी दिखाना ख़ास लोगों का काम है. हमें केवल इतना जानते हैं कि वकील अपने दांव-पेंच कैसे चलाते हैं. हमें केवल इतना पता है कि इसकी वजह से मुकदमें कैसे खिंचते हैं.
हमें क्या पता कि आम आदमी की सोच लिए हम अगर कुछ लिख देंगे तो उससे अदालत की अवमानना होगी? हमें तो बस इतना मालूम है कि नेता टाइप लोग न जाने कितनी बार उच्चतम न्यायालय तक की अवमानना करते नहीं अघाते. लेकिन उनके खिलाफ कुछ नहीं होता. हमें तो बस इतना पता है कि आये दिन न्याय पालिका में भ्रष्टाचार की बातें होती रहती हैं.
इन मुद्दों के फ़ाइनर पॉइंट्स पर प्रकाश डालने का काम किसी प्रशांत भूषण, किसी फली नारीमन या किसी सोली सोराबजी के जिम्मे है.
ऐसे में हम और क्या लिखेंगे? ब्लॉग लिखने से बदलाव होता है, ऐसा कोई गुमान नहीं पाल रक्खा है हमने. हमें तो यही समझ में आता है कि टीवी के पैनल डिस्कशन या फिर सेमिनार आयोजित करने से अगर बदलाव नहीं आ पाया तो फिर शायद ब्लॉग का नंबर आये..:-)
लेकिन अब क्या अनिवार्य हो जाएगा कि ब्लॉग लिखने से पहले भारतीय अचार संहिता की धाराएं रट लो? साइबर कानूनों को घोंट डालो. हमारे लेख से किस-किस को नाराजगी होगी उसकी एक लिस्ट बना लो. इतना सबकुछ कर लो उसके बाद लिखना. चार साल लग जायेंगे सारी तैयारी करने में. हो सकता है उसके बाद जब लिखने की बारी आये तो पता चले कि गूगल जी ने फ्री की सुविधा हटा ली. ऐसे में हमारा ब्लॉग कैरियर तो शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो जाएगा.
अभिव्यक्ति का माध्यम क्या केवल ब्लॉग ही है?
यह तो अभी आया है. हाल ही में. इससे पहले जो लोग व्यंग वगैरह लिख डालते थे उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं थी? क्या होता अगर कोई अधिकारी, कोई मास्टर, कोई नेता, कोई राजनीतिक पार्टी, कोई डॉक्टर, कोई वकील, कोई थानेदार, कोई गवर्नर, कोई मुख्यमंत्री किसी परसाई जी, किसी शरद जोशी जी या किसी श्रीलाल शुक्ल जी से नाराज़ हो जाता तो?
समाज में न जाने किन-किन विसंगतियों पर इन लोगों ने लिखा. किसी को छोड़ा नहीं. लेकिन मैंने तो नहीं सुना कि किसी ने इन्हें अदालत में घसीट लिया हो. ऐसा होता तो क्या-क्या हो सकता था?
देखते कि सन पचहत्तर से ही परसाई जी केवल अदालतों के चक्कर काट रहे हैं. किसी दिन जबलपुर में मुक़दमे की सुनवाई रहती तो यह कहते सुने जाते कि;"क्या कहें, वकालत में व्याप्त विसंगतियों के बारे में लिख दिया था. गवाह कैसे तोडे जाते हैं. तारीख कैसी ली जाती है. जबलपुर बार असोसिएशन ने मुकदमा ठोक दिया. अब तो झेलना पड़ेगा ही. मेरी भी मति मारी गई थी. काहे व्यंग लिखने गए?"
कोई कहता कि; " कोई बात नहीं. ऐसा होता रहता है. सब ठीक हो जाएगा."
इस बात पर शायद बोलते; "अरे क्या ख़ाक ठीक हो जाएगा? अभी कल ग्वालियर में मुक़दमे की सुनवाई है. रानी नागफनी की कहानी में डॉक्टर भाई लोगों के बारे में लिख दिया था कि कैसे जब मार्केट में कोई दवाई भारी मात्रा में आ जाती है डॉक्टर लोग हर रोग में मरीज को वही दवाई प्रिस्क्राईब कर देते हैं. कल की तारीख निबट जाए तो अगले मंगलवार को हैदराबाद जाना है. राजनीति पर लिखे गए एक लेख में चेन्ना रेड्डी को खींच लिए थे. भाई ने आंध्रप्रदेश हाई कोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया है."
देखते कि सन पचहत्तर के बाद उन्होंने कुछ लिखा ही नहीं. तब से सन पंचानवे तक बेचारे मुकदमों में उलझे-उलझे इस असार संसार से कूच कर जाते.
कैसा लगता अगर ऐसा कुछ हो जाता तो?
संजय गांधी की खिंचाई न जाने कितनी बार की होगी उन्होंने. अशोक मेहता से लेकर राम मनोहर लोहिया, और जय प्रकाश नारायण से लेकर राज नारायण तक किसी को नहीं छोड़ा. लेकिन क्या इन लोगों ने उनको मुकदमों में फंसाकर जोत डालने की कसम खाई?
या फिर उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कुछ और मायने थे? या कहीं ऐसा तो नहीं कि परसाई जी अपने समय के बाहुबली थे जिनसे सब डरते थे इसलिए किसी ने डर के मारे मुकदमा नहीं दायर किया?
आखिर एक आम आदमी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कीमत क्या है? जेलयात्रा?
Tuesday, April 26, 2011
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कीमत
@mishrashiv I'm reading: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कीमतTweet this (ट्वीट करें)!
Labels:
सोशल मीडिया
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
बात तो बिलकुल सही है, एक आम आदमी कुछ भी कह सुन सकता है. अब आम आदमी ही नहीं कहेगा तो और कौन कहेगा?
ReplyDeleteभ्रष्ट नेता? या भ्रष्ट सरकारी कर्मचारी .. पुलीस? वगेरह वगेरह ..
पर यदि व्यंग-रोष का लक्ष्य नाज़ुक मिजाज़ का है तो परेशानी बढ़ सकती है.
और यदि वो नहीं, तो उसके चेले चमचे परेशानी बढा सकते हैं.
इसके बाद कुछ अवसरवादी भी एक-आध हाथ (ब्लॉग पोस्ट) साफ़ कर लेते हैं.
तो आपकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा का ये सब फायदा उठाते हैं
और आप, आपकी स्वतंत्रा, अभिव्यक्ति, ब्लॉग पोस्ट, ट्वीट सब शहीद हो जाते हैं!
बाकी आप लिखते रहिये आपके हम सब आपके fans हैं.
वो आपके पीछे हैं तो हम उनके !
खुले मन से सबको खींचे और बढ़िया व्यंग-पान कराते रहें !
प्रणाम!
अरे आप को भी कुछ और नहीं मिला था लिखने को. लिख बैठे आम आदमी पर. जिसके लिये संविधान ने इतना सब कुछ दिया है. व्यक्ति की गरिमा, बन्धुता, समानता, स्वतन्त्रता और भी पता नहीं क्या क्या. लेकिन देखा है चौराहे पर जब एक सिपाही डंडा मारता है और इस सब को नीचे झाड़ देता है. देखा है पुलिस वाले को जो उठा के चार गोली दाग देता है सीधे छाती पर. देखा है नौकरशाहों को जो आम जनता के हक पर डाका डाले बैठे रहते हैं. देखा है उन अफसरों को जो गांधी जी के बन्दरों की भांति आंख, मुंह और कान बन्द कर बैठे रहते हैं. अरे किसे चिन्ता है आम आदमी की, और आदमी तो उसे कहिये जिसके पास हो पीने के लिये पानी और शौच करने के लिये एक आड़. आदमी नहीं पैदा होते वोट पैदा होते हैं यहां अब.
ReplyDeleteEnjoyed reading it!! Beware of the bigg boss!! Those who encourage you here won't come to bail you out :-)
ReplyDeleteI found out that in US satire is a protected speech. Therefore the comedians go great to length in making fun of the deserving people, events, and the norms of the society.
.
ReplyDeleteआपकी चिन्ता नाज़ायज़ है और मुझे लगता है कि यह सम्पूर्ण स्थिति को ओवेर-इस्टीमेट कर रहा है । अमर्यादित, उच्छँखृल भाषा और तथ्यों को तोड़ने मरोड़ने की ज़वाबदेही तो बनती है.... ताकि लिक्खाड़ को यह इल्म रहे कि उसका लिखा एक एक शब्द सामाजिक ज़वाबदेही का वायस बन सकता है ।
जिस व्यवस्था में एफ़.आई.आर. दर्ज़ करने के बाद धारायें तय की जाती हों, वहाँ किसी भी बात पर कभी भी और कुछ भी सँभव है..[ कहिये तो मैं ही आपको रायबरेली बुला लूँ... बात दीगर है कि आपके आते ही आउट ऑफ़ कोर्ट निपटारे का मसौदा पेश कर दूँ, और हँसी खुशी चाय वाय पीकर एक दूसरे से गले लग कर विदा लें लिया जाये:)]
हमारा कानून अभिव्यक्ति की स्वतँत्रता के मुद्दे पर स्वयँ ही दिग्भ्रमित है, पर इसके मायने यह नहीं हैं, कि लेखक लिखना ही छोड़ दे, उसकी जिम्मेदारी सामाजिक सचेतक की भी है, किसी की तरफ़ ऊँगली उठा कर उसकी विसँगतियों पर उसे सहमा देना लेखक की सफलता है । आदरणीय परसाई जी के मुकदमों का मुझे ज्ञान है, बल्कि अभिमान है.... ऎसी लेखकीय अभिव्यक्ति ही सराहनीय है, जो प्रतिक्रिया उत्पन्न करने में सक्षम हो ! वह लेखन ही क्या जो पाठक को मुस्कुराने, हँसने, रोने, करूणा-विलगित, सोचने या तिलमिलाने को बाध्य न करे ( मेरा यह कथन ब्लॉगर पर प्रतिक्रिया पैदा करने के हथकँडो पर लागू नहीं है क्योंकि यदि आप ब्लॉगर पर हैं, तो यहाँ कोफ़्त होने या सिर धुनने का भाव तक जोड़ा जा सकता है.. जहाँ प्रतिक्रिया विभिन्न हथकँडों से भी उपजायी जा सकती है )
शीब भाई, आप निश्चिन्त रहें.... कलम की अपनी विशिष्ट ताकत है, जो सदैव बनी रहेगी, अलबत्ता कलम का रूप डिज़िटल हो जाये वह अलग बात है ।
( यदि मेरे कथन में कुछ अनधिकृत हो, तो आप अपने को अपवाद स्वरूप मान कर मॉडरेट कर दें, यह अग्रिम राजीनामा है )
कौन धमकाया आपको! जरा नाम तो बताइये। वैसे जेल में आजकल आम लोगों के लिये जगह कहां बची है। सब घपले वाले वीआईपी से ठंसी पड़ी हैं जेलें।
ReplyDelete"कौन धमकाया आपको! जरा नाम तो बताइये।"
ReplyDeleteअब यही बात है तो लिख-लिख कर ढेर कर दो बड़े-बड़े शेरों को, लिखने से काहे को डरना...
ReplyDeleteजेलयात्रा? अगर परसाई जी परेसान थे तो आम आदमी तो आसान ही होगा (आसानी से परेसान होगा.)
ReplyDeleteMany a times I regret having put my thoughts in a post or in a comment. It more so happens when I am charged.
ReplyDeleteFor instance, the comment on your post on CDs made me think that way.
We have to be a more harsh editor for our own writing than being critical of others.
And I agree with Giribala above, in full.
ReplyDeleteस्वतंत्रता किसे प्यारी नहीं....... मगर शर्तें थोपा जाना वाकई कष्टकर है......!!!!! संवेदनशील पोस्ट के लिए बधाई.
ReplyDeleteभारतीय भुजंग काट लेगा तो क्या होगा?
ReplyDeleteक्यों याद दिलाई आपने ? सुख शांति चैन से बैठने भी नहीं दे सकते ? :)
जिसकी लाठी उसकी भैंस..
ReplyDeleteभैंस दूध देना भी बंद नहीं कर सकती
`क्या-क्या नहीं लिख डाला? '
ReplyDeleteतभी तो, तभी तो... आम ब्लागर आप से जलते हैं.... लो जी, बात कोरट कचोरी तक पहुंच गई :)
यही तो मैं कह रहा था कि दयानन्द सरस्वती जी ने उस समय तो सत्यार्थ प्रकाश लिख दिया और प्रकाशक ने छाप दिया. आज का युग होता तो धार्मिक भावनायें भड़काने के इल्जाम में मुकदमा भुगतते...
ReplyDeleteअजी निश्चिन्त रहिये । आम आदमी होने का यही तो फायदा है । हम कोई अण्णा हजारे या विनायक सेन थोडे ही हैं जो सरकार हमारे पीछे पडेगी । आपके लिखने से कितने चेहरों पर मुस्कान आती है यह भी तो सोचिये ।
ReplyDeleteगिरीबालाजी और पाण्डेजी की चिंता जायज है। वास्तव में लेखन अगर बहुत अधिक भोथरा और दोधारी होगा तो वह आपको खुद को भी समस्या में डाल सकता है।
ReplyDeleteमैं संपादन विषय का विद्यार्थी हूं... सो जानता हूं कि एक बात सीधे लिखने के बजाय कई तरीकों से घुमाकर लिखी जा सकती है।
इसके साथ ही छद्म नामों और छद्म उद्यरणों का सहारा भी लिया जा सकता है। आपका खुद का छद्म नाम नहीं बल्कि आपके लेख में घटनाओं और व्यक्तियों का।
किसी की छाती में चाकू घोपेंगे तो उसे दर्द भी होगा और वह अपना बचाव करने का प्रयास भी करेगा।
मेरी समझ कहती है कि मार इतनी दूरी और सावधानी से हो कि पूरी कटार आर-पार निकल जाए और शिकार केवल तिलमिलाता रह जाए। इसी में लेखन और उसके संपादन की सफलता है।
भावनाएं सभी में एक जैसी हैं, लेकिन उसे अभिव्यक्त करने के तरीके पर तो मेहनत करनी ही होगी। मैंने आपके कई लेख पढ़े हैं। व्यंग्य की रौ में मुस्कुराता हूं। लेकिन साथ ही सोचता हूं कि सरकारी सिस्टम का एक बंदा कैसे राजतंत्र के बड़े खिलाडि़यों को सीधे चुनौती दे सकता है।
आज उसका असर दिखाई दे रहा है...
गंभीर बात कही...
ReplyDeleteलिखे रहा जाये, जब विषय नहीं रहेंगे तब इसी विषय पर लिख दिया जायेगा कि विषय नहीं हैं।
ReplyDelete