मासूम गज़ियाबादी साहब की यह ग़ज़ल पढ़िए. यह ग़ज़ल उन्होंने कल शाम को नहीं लिखी.
निगेहबाँ कुछ, निजामे-गुलसिताँ कुछ और कहता है
परिंदा कुछ, शज़र कुछ, आशियाँ कुछ और कहता है
है दावा राहबर का शर्तिया मंज़िल पै पहुँचूँगा
मगर हमदम गुबारे-कारवाँ कुछ और कहता है
तेरी बस्ती में सब महफूज़ हैं, मैं मान तो लेता
मगर दर-दर पै आतिश का निशाँ कुछ और कहता है
तेरी जुल्फें भी सुलझाना ज़रूरी हैं मेरे हमदम
तकाज़ा भूख का लेकिन यहाँ कुछ और कहता है
सबा से ताज़गी, गुंचों से रौनक, गुल से बू गायब
चमन का हाल कुछ है बागबाँ कुछ और कहता है
मैं मस्जिद की बता या मैकदे की बात सच मानूँ
ऐ वाइज़, तू यहाँ कुछ और वहाँ कुछ और कहता है
मेरा हमदम बड़ा 'मासूम' है जो देखता कुछ है
सुनाता है तो नादाँ दास्ताँ कुछ और कहता है
Thursday, June 30, 2011
चमन का हाल कुछ है बागबाँ कुछ और कहता है
@mishrashiv I'm reading: चमन का हाल कुछ है बागबाँ कुछ और कहता हैTweet this (ट्वीट करें)!
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तेरी जुल्फें भी सुलझाना ज़रूरी हैं मेरे हमदम
ReplyDeleteतकाज़ा भूख का लेकिन यहाँ कुछ और कहता है
gaaziyabadi ko is jaipuriyabadi ka salaam kahiyega
सामयिक! समय नहीं बदला या नज़रिया, या दोनों?
ReplyDeleteकायर नहीं, बहादूर हूँ मैं, तेरा ये कहना मान भी लेता.
ReplyDeleteमगर गीला होना तेरी पेंट का, कुछ और ही कहता है!
तेरी जुल्फें भी सुलझाना ज़रूरी हैं मेरे हमदम
ReplyDeleteतकाज़ा भूख का लेकिन यहाँ कुछ और कहता है
सबा से ताज़गी, गुंचों से रौनक, गुल से बू गायब
चमन का हाल कुछ है बागबाँ कुछ और कहता है
मैं मस्जिद की बता या मैकदे की बात सच मानूँ
ऐ वाइज़, तू यहाँ कुछ और वहाँ कुछ और कहता है
सच कहूँ मासूम साहब का कलाम इस से पहले कभी पढने में नहीं आया आज आया है तो बस इस एक ग़ज़ल की वजह से मैं उनका फैन हो गया हूँ..हर शेर बहुत करीने से गढ़ा गया है. मेरी दाद अगर हो सके तो उनतक पहुंचाए. ऊपर वाले का शुक्र है के उन्होंने ये ग़ज़ल कल शाम को नहीं लिखी अगर लिखती तो क़यामत बरपा हो जाती...
नीरज
कहते सुनते बातों ही बातों में 2014 आ जायेगा!!
ReplyDelete"मासूम गज़ियाबादी साहब की यह ग़ज़ल पढ़िए. यह ग़ज़ल उन्होंने कल शाम को नहीं लिखी."
ReplyDeleteया इलाही ये माज़रा क्या है ...??
बहरहाल मासूम साहब को इस बढ़िया ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद दीजियेगा !
गाज़ी भी आजकल मासूम गज़ल लिखने लगे, जानकर प्रसन्नता हुई :)
ReplyDeleteमेरा हमदम बड़ा 'मासूम' है जो देखता कुछ है
ReplyDeleteसुनाता है तो नादाँ दास्ताँ कुछ और कहता है
आखिर कल क्यों नहीं लिखी?
तेरी जुल्फें भी सुलझाना ज़रूरी हैं मेरे हमदम
ReplyDeleteतकाज़ा भूख का लेकिन यहाँ कुछ और कहता है
बहुत अच्छा लगा।
सबा से ताज़गी, गुंचों से रौनक, गुल से बू गायब
ReplyDeleteचमन का हाल कुछ है बागबाँ कुछ और कहता है...
kya chalan aa gaya hai.......
pranam
वाह क्या गज़ल है हर शेर कमाल का है। धन्यवाद इसे पढवाने के लिये।
ReplyDeleteohh god! thats really awesome!!!!
ReplyDeleteएक एक शेर दिल को छूकर कुछ और भारी कर गया...
ReplyDeleteसच है,समय नहीं बदला...और बदलने के आसार भी नहीं...
आँखों के आगे तो बस अँधेरा नचा करता है...
बहरहाल, नायाब ग़ज़ल पढवाने के लिए दिल से आभार...
गज़ल तो वाकई बहुत शानदार है, लेकिन गुजरी शाम से इसका लिंक नहीं भिड़ा पाया। कुछ तो है जरूर..। अनियमित रहने की कुछ तो सजा मिलनी भी चाहिये मुझे, अब सोचता रहूंगा उस शाम के बारे में..।
ReplyDeletesundar gajal hai
ReplyDeleteनिगेहबाँ कुछ, निजामे-गुलसिताँ कुछ और कहता है
ReplyDeleteपरिंदा कुछ, शज़र कुछ, आशियाँ कुछ और कहता है
क्या बात है ......
ऐसे ख्याल भी बिरलों को ही आते हैं ......!!
तेरी बस्ती में सब महफूज़ हैं, मैं मान तो लेता
ReplyDeleteमगर दर-दर पै आतिश का निशाँ कुछ और कहता है
कितना सामयिक और सटीक भी ।
लिखे से अब तक कितनी ही बार पढ़ चुके हैं.
ReplyDeleteपूरी ग़ज़ल, एक-एक शेर ने इतना इन्स्पायर किया.
ऐसी बढ़िया ग़ज़लें ढूँढ के पढवाते रहें.
धन्यवाद!