Tuesday, August 21, 2007
उदय प्रताप सिंह जी को 'सुनिये' -भाग 2
@mishrashiv I'm reading: उदय प्रताप सिंह जी को 'सुनिये' -भाग 2Tweet this (ट्वीट करें)!
उदय प्रताप सिंह जी ने ये कविता कलकत्ते में उसी कवि सम्मेलन में सुनाई थी, जिसका जिक्र मैंने अपनी पिछली पोस्ट में किया था। मैं ये कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ। प्रासंगिकता शायद इसलिये और बढ़ जाती है, कि हमने हाल में ही आजादी की वर्षगांठ मनाई है।
कोई खुशबू, न कोई फूल, न कोई रौनक
उसपर कांटों की जहालत नहीं देखी जाती
हमने खोली थीं इसी बाग में अपनी आंखें
हमसे इस बाग की हालत नहीं देखी जाती
बुलबुलें खुश थीं उम्मीदों के तराने गाये; कि
लेकर पतझड से बहारों को चमन सौंप दिया
अब तो मासूम गुलाबों की ये घायल खुशबू
शीश धुनाती कि खारों को चमन सौंप दिया
रात बस रात जो होती तो कोई बात न थी
उसका आकार मगर दूना नजर आता है
कितने चमकीले सितारे थे, कहां डूब गये
सारा आकाश बहुत सूना नजर आता है
कवि की आवाज बगावत पर उतर आई है
दल के दलदल से हमें कोई सरोकार नहीं
तुमने इस देश की तस्वीर बिगाडी ऐसे
जैसे इस देश की मिट्टी से तुम्हें प्यार नहीं
तुमने क्या काम किया ऐसे अभागों के लिए
जिनकी मेहनत से तुम्हें ताज मिला, तख्त मिला
उनके सपनों के जनाजों में तो शामिल होते
तुमको शतरंज की चालों से नहीं वक्त मिला
तुमने देखे ही नहीं भूख से मरते इन्सान
सिलसिले मौत के जो बन्द नहीं होते हैं
इनके पैबन्द लगे चिथडे ये गवाही देते; कि
इनके किरदार में पैबन्द नहीं होते हैं
जिस जगह बूंद पसीने की गिरा देते हैं
ठौर सोने के उसी ठौर निकल आते हैं
किंतु बलिहारी व्यवस्था की है जिसमे बहुधा
मुंह में बच्चों के दिये कौर निकल आते हैं
पूछता हूं मैं बता दो ऐ सियासत वालों
आदमी अपने ही ईमान का दुश्मन क्यों है
एक ईश्वर है पिता उसपर सगी दो बहनें
आरती और नमांजों में ये अनबन क्यों है
इनकी आदत में नहीं खून से कपडे रंगना
कोई मजबूरी रही होगी यंकीदा तो नहीं
अपने दामन में जरा झांक कर तुम ही कह दो
अपने मतलब के लिये तुमने खरीदा तो नहीं
बात करने को उसूलों की सभी करते हैं
वोट लेने का ये नाटक हैं इसे खत्म करो
ऐसी आजादी, गुलामी से बहुत बदतर है
ये वो चिंतन है, जो घातक है, इसे खत्म करो
वर्ना अंजाम वही होगा, जो पहले भी हुआ
कुर्सी तो कुर्सी, निगाहों से उतर जाओगे
मौत जब आयेगी तब आयेगी तुम्हारी खातिर
वक्त से पहले, बहुत पहले ही मर जाओगे।
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आपने कहा 'सुनिये' हम आ गये और झटके बाजी हो गई. कहना चाहिये था कि पढ़िये...हम कतई अ आते. अब आ ही गये हैं तो टिपियाये देते हैं कि मजा आ गया. आभार.
ReplyDeleteसमीर जी,
ReplyDeleteआप आए, बहुत अच्छा लगा. असल में 'सुनिये' लिखा हुआ था. पिछली बार भी 'सुनिये' लिखा था, तो मैंने सोचा उसी को जारी रखा जाय.
वाह ही वाह
ReplyDelete"पूछता हूं मैं बता दो ऐ सियासत वालों
ReplyDeleteआदमी अपने ही ईमान का दुश्मन क्यों है
एक ईश्वर है पिता उसपर सगी दो बहनें
आरती और नमांजों में ये अनबन क्यों है"
उक्त पंक्तियों के विषय में मैं जो कहना चाहता हूं, वह बतौर ब्लॉग-पोस्ट कह सकता था. पर शायद बात एक पोस्ट से छोटी और टिप्पणी से ज्यादा है.
पहले पहल द्वन्द्व कबीले और कबीले में हुये. फिर एक ही कबीले में होने लगे - शायद वही बात आरती और नमाज में ऊपर की लाइनों में है. पर अब तो मानव और परिष्क़ृत हो गया है. अब द्वन्द्व एक व्यक्ति के अंतर्मन में होने लगे हैं. मेरे मन का आस्तिक मेरे मन के नास्तिक से द्वन्द्व करने लगा है. मन में फलाना वादी, ढ़िमाके वादी से जूझने लगा है. शायद इन्ही द्वन्द्वों की परिणिति मानसिक रोगों, पागलपन और आत्महत्याओं में होने लगी है.
कवि की अंतिम पंक्तियों को जरा अंतर्मन के द्वन्द्व पर तोलें -
"वर्ना अंजाम वही होगा, जो पहले भी हुआ
कुर्सी तो कुर्सी, निगाहों से उतर जाओगे
मौत जब आयेगी तब आयेगी तुम्हारी खातिर
वक्त से पहले, बहुत पहले ही मर जाओगे।"
क्या अपने में ही हम वक्त से पहले नहीं जड़ हो जा रहे! शिव, जब मैं रोज आपसे आदान-प्रदान करता हूं तो इसी जड़ता से लड़ने का प्रयास करता हूं.
फिर तो ठीक है. :) हा हा!!!
ReplyDeleteshiv ji....achi kavitaon ko share kar ke aapne kavita may ruchi rakhne walon ko prassann kiya hai..dher saari shubh kamnaon ke saath...
ReplyDeletechaand
Bandhu
ReplyDeleteAti sunder aur sarahniya prayaas hai.Wo aap hi to hain jisne hamain Uday Ji ki kavita se rubaru karvaya.Hum jab tab uss CD ko laga ke dhayan se baith jaate hain aur Uday Ji ke saath saath aap ke bhi gun gaate hain.
Itni samsaamyik kavita sab ke saath share karne ke liye kotish dhaanyavaad.
Neeraj