मैं तो सरकारी जीव. मेरे तो कर्तव्यों में है स्वतंत्रता दिवस मनाना. सरकारी फंक्शन से लौटते हुये मैने शिवकुमार मिश्र को कलकत्ता फोन किया – पन्द्रह अगस्त मनाया?
उत्तर था, “नहीं भैया; कुछ भी नहीं किया.”
खालिस कलकत्तिया रिस्पॉंस! जो काम करने की बाध्यता सी हो और उसे कलकत्तावासी (पढ़ें बंगालवासी) न करे तो प्रसन्न रहता है. उसमें क्रांति की अनुभूति जो होती है!
अमुक जी को लें. उनका बच्चा मंथली टेस्ट में तीन विषयों में फेल है. मम्मीजी को स्कूल तलब किया गया है. मन मार कर दर्जा एक में स्कूल की ही मैथ्स की टीचर की कोचिंग लगानी पड़ रही है. नहीं तो टुन्नू का सत्रांत परीक्षा में फेल होना तय है. पर उसी टुन्नू जी का जन्मदिन अमुक दम्पति पूरे शौक (जबरन “शोक” न पढ़ें) से मनाते हैं. तब पन्द्रह अगस्त क्यों नहीं मनाया जाये?
ऐसा नहीं है कि देश की मार्क शीट में जीरो बटा सन्नाटा ही हो. एक समय था जब सब चीजों की किल्लत ही किल्लत थी. पीएल 480 को गायत्री मंत्र की तरह रटा जाता था. हर चीज में लाइन लगती थी और ब्लैक हुआ करती थी – चाहे रसोई गैस हो या वैस्पा स्कूटर. रेलवे का रिजर्वेशन का यह हाल था कि एक एक बर्थ पर तीन तीन दावेदार होते थे और यात्रा चौथा ही करता था. डायल वाले फोन पर डायल करते-करते उंगलियां टूट जाती थीं. नेट बैंकिंग और नेट ट्रेडिंग तो स्वप्न ही थे.
मोची का बेटा मोची ही होता था और रिक्शे वाले का रिक्शा ही खींचता था. अब थानेदार हो रहा है. कोई-कोई तो प्रशासनिक सेवा में भी आ जा रहा है.
आधा ग्लास खाली है जरूर; पर आधा भरा भी है. आधे भरे को देखा जाये.
जीरो बटा सन्नाटा? क्या शब्दावली है. मजा आ गया.
ReplyDeleteआधा भरा गिलास देखकर संतोष कर लेने से आधा खाली भर तो नहीं जाता.
भैया,
ReplyDeleteमैं गिलास को आधा नहीं, दो तिहाई भरा हुआ देखता हूं. पन्द्रह अगस्त कौन नहीं मनाना चाहेगा. मुझे तकलीफ दूसरों का पैसा चन्दे के रूप में इकट्ठा कर के पन्द्रह अगस्त ‘मनाने’ वालों से है. चन्दा इकट्ठा कर के बिरयानी खाने से अच्छा है, कि लोग अपने घर में रहकर अपनी समस्याओं का समाधान करें. अपने लिए कुछ अच्छा करना भी देश के लिए कुछ करने के बराबर है. हमारे देशभक्त बीच सडक पर झन्डा फहरायेंगे, बिना सोचे हुए कि आने-जाने वाले भी इसी देश के वासी हैं.
मुझे समस्या देशभक्ति से नहीं बल्कि देशभक्ति के ‘अर्थशास्त्र’ से है.हम अभी भी मनोज कुमार की स्टाईल वाली देशभक्ति को ही असली देशभक्ति मानकर चल रहे हैं और पन्द्रह अगस्त के आयोजनों में ‘ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आंख में भर लो पानी’, गाने पर डांस कर के देश के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करने का स्वांग कर रहे हैं.
@ शिव - बहुत बढ़िया. अपने ही ब्लॉग पर हम दोनो टिप्पणी भी कर लें!
ReplyDeleteबिल्कुल सही है मनाना, मनाना होना चाहिये; स्वांग नहीं. देशभक्ति फिल्मी स्टाइल की मोहताज नहीं होनी चाहिये.
विलाप चूंकि अब धंधा है। इसलिए नियमित जारी रहे, तो कोई हर्ज नहीं। कईयों को रोटी-रोजी वहीं से चलती है। बाकी विलाप वाले भी मोबाइल, इंटरनेट से मौज ले रहे हैं। क्रांति भी धीमे-धीमे इंटरनेटिया रही है।
ReplyDeleteगिलास अभी आधा भी नही भरा..आधा गिलास भरने मे अभी बहुत देर है। हाँ ,कुछ तो जरूर भरा है....कछुआ चाल से..
ReplyDeleteसहमत लेकिन जब तक आधे खाली गिलास को याद न रखा जाए उसे पूरा भरने की कोशिश कहां से होगी!!
ReplyDeleteशिवकुमार जी का कथन सत्य है!!
देख लिये सर जी मिसिर जी बंगालवासी नहीं न है बिलकुल सहीं बोले हैं । सरजू का पानी बोलेगा ही ना भईया ।
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