
कल शाम आफिस से घर जाते वक्त ट्रैफिक सिग्नल पर कुछ हाकर तिरंगा बेचते हुए मिल गए। एक ने हमारी कार के पास आकर तिरंगा खरीदने की अपील की। मुझे याद आया, यही आदमी तीन-चार दिन पहले तक फल बेचा करता था। मैंने उससे पूछा; "क्या हुआ, आज फल नहीं बेच रहे हो"? उसने अपनी व्यापारिक नीति का खुलासा करते हुए बताया; "देखिए आदमी को मौसम के हिसाब से व्यापार करना चाहिए। अब क्या करें, अभी आजादी का मौसम है, तो तिरंगा बेच रहे हैं"। मेरे तिरंगा नहीं खरीदने पर वो चला गया और थोड़ी दूर पर एक और हाकर से बात करने लगा। दोनो के हाव-भाव से लगा जैसे दोनो कह रहे थे; 'ये क्या खरीदेगा तिरंगा। देख नहीं रहे, ऐसे मौसम में भी कार में 'ऐ दिल-ए-नादान आरजू क्या है' बजा रहा है। ऐसे मौसम में, जब बाक़ी लोग अपनी कार में 'मेरे देश की धरती सोना उगले' बजा रहे हैं।
आज सुबह मोहल्ले के क्लब वाले आ धमके। आते ही बोले; "इस साल बड़ी धूम-धाम से स्वतंत्रता दिवस मनाएंगे। इस लिए इस बार बजट बहुत बड़ा है। यही कारण है कि इस साल काफी पहले से तैयारी शुरू कर दी है"। इतना कहते हुए उन्होने चंदे की स्लिप पकड़ा दी। मुझे चंदे की रकम ज्यादा लगी। मैंने उनसे कुछ कम करने के लिए कहा। उनमें से एक बोला; "आप खुद ही सोचिये, दस हज़ार तो केवल खाने-पीने में खर्च हो जाएगा। उसके बाद ऑर्केस्ट्रा वालों का खर्च अलग। कुर्सी, शामियाना, फूल-माला सब लेकर कितना बजट हो जाएगा आपको अंदाजा है"? मुझे उनकी डिमांड पूरी करनी ही पडी। चन्दा लेकर चले गए। उनकी कोशिश देखकर मन ग्लानि से भर गया। एक ये हैं जो देश के लिए इतनी मेहनत कर रहे हैं, और एक मैं हूँ जो आफिस जाने की तैयारी में जुटा हूँ। फिर ये सोचकर संतोष कर लिया कि चलो, मैं किसी क्लब का सदस्य तो हूँ नहीं, मैं कैसे स्वतंत्रता दिवस मना सकता हूँ। मैं कैसे देश के लिए कुछ कर सकता हूँ।
घर पर आये क्लब के सदस्यों की मेहनत देखकर मन में जो ग्लानि हुई, उसने सारा दिन मुझे परेशान किये रखा। आख़िर स्वतंत्रता दिवस कैसे मनाया जाय। ऐसा नहीं है कि ये विचार आज पहली बार मन में आया। इसके पहले हर पन्द्रह अगस्त पर यही बात सामने आती रही है। मुझे इस बात का डर रहता है कि लोग मुझे पता नहीं क्या-क्या कहते होंगे।

बहुत सारे तरीकों पर विचार करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे; 'एक दिन की छुट्टी मिलेगी। परिवार के साथ रहेंगे। सब एक दूसरे की बातें सुनेंगे। किसी को कोई समस्या रहेगी तो उसका समाधान करने की कोशिश की जायेगी। ऐसा पिछले कई सालों से होता आया है। इस बार भी सही'। इस बार भी पन्द्रह अगस्त नहीं 'मना' पायेंगे। अगले साल आज़ादी की एक और वर्षगांठ आएगी ही। फिर विचार करेंगे। निष्कर्ष चाहे जो भी निकले।
विचार ,बात सब ठीक है। लेकिन एक बार मना लेने में कोई बुराई नहीं है। अभी पांच दिन हैं। सोच लीजिये। न हो तो मना ही लीजिये। सिर्फ़ बदलाव के लिये ही सही। जस्ट फ़ार अ चेंज!
ReplyDeleteधांसू च फांसू
ReplyDeleteअरे, ऐसा न करें. इस साल तो हम कानस्लेट जर्नल के कवि सम्मेलन में बुक हैं मगर अगले साल आपके कवि सम्मेलन में पढ़ देंगे न!! इतनी मायूसी भी क्यूँ. एक दिन ही की तो बात है, मना लिजिये न!! क्या फरक पैंदा है.
ReplyDeleteवंदे मातरतम, मन में जजबा ही काफी है । कई कई विचारक टाईप लोग हैं जो इस दिन की छुटटी के लिए भी तरसते हैं ।
ReplyDelete“आरंभ” संजीव का हिन्दी चिट्ठा
भालो लिखेछेन .
ReplyDeleteभालो लिखेछेन .
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