Sunday, August 26, 2007
हरिशंकर सिंह जी की याद
@mishrashiv I'm reading: हरिशंकर सिंह जी की यादTweet this (ट्वीट करें)!
पिछले कई सालों में शायद ही कभी हुआ हो कि मुझे हरिशंकर सिंह जी की याद न आई हो। पढ़-लिख कर कर्म क्षेत्र में उतरने के बाद शिक्षकों की याद शायद कुछ ज्यादा आती है। कारण जो भी हो, मैं उन्हें बहुत याद करता हूँ। लेकिन आज उनकी याद आने का कुछ अलग ही कारण है। असल में आज मेरे एक मित्र ने फ़ोन किया। उसने बताया कि उसको एक एसोसिएशन द्वारा निकाली जानेवाली पत्रिका का एडिटर चुन लिया गया है। उसने मुझे बताया कि मैं 'अच्छी' अंग्रेजी लिखता हूँ और मैं उसके लिए एडिटोरियल की घोस्ट राईटिंग कर दूं। अब पता नहीं उसने कितना सही कहा मेरे बारे में, लेकिन मुझे तुरंत हरिशंकर सिंह जी की याद आ गई।
हरिशंकर सिंह मेरे शिक्षक थे, जब मैं गाँव के स्कूल में पढ़ता था। मुझे याद है, सन १९७८ में हमारे गाँव में पहली बार एक 'मिडिल स्कूल' की स्थापना हुई। उसके पहले गाँव में एक प्राईमरी स्कूल था। पांचवी तक पढ़ने के बाद गाँव के बच्चों को आगे की पढाई के लिए दूर जाना पड़ता था। कारण था आगे की पढाई के लिए गाँव में स्कूल का न होना। गाँव के लोगों ने चन्दा इकट्ठा करके एक स्कूल की स्थापना की। पहले साल केवल छठवीं कक्षा की पढाई की व्यवस्था हो सकी। स्कूल का अपना कोई भवन नहीं। गाँव वालों से जितना चन्दा इकठ्ठा हुआ, सारा टाट की पट्टी, ब्लैकबोर्ड और चाक पर खर्चा हो गया। हम लोग कुल मिलाकर छत्तीस विद्यार्थी। भवन के अभाव में महुआ के पेड के नीचे बैठकर पढते थे। स्कूल में कुल मिलाकर दो अध्यापक। उनमें से एक थे हरि शंकर सिंह जी और दूसरे थे पूर्णमासी 'पंकज'। साथ में एक चपरासी। नाम था कड़ेदीन। कड़ेदीन ने अपना एक छोटा सा घर स्कूल को दान कर दिया था। जब स्कूल दिन के अंत में बंद हो जाता था, तो स्कूल की जमा-पूंजी, याने तीन टाट की पट्टी, दो ब्लैकबोर्ड और कुछ चाक उस छोटे से घर में रखकर ताला लगा दिया जाता। दो अध्यापकों के इस स्कूल के हेडमास्टर थे हरि शंकर सिंह जी।
हरिशंकर सिंह जी के पास एम. ए., बी. एड. की डिग्री थी। नौकरी नहीं मिलने के कारण बेकार थे। गाँव में रहकर खेती-बारी का काम करते थे। उन्होंने एक बार बताया था कि; 'नौकरी करने के लिए एक बार कलकत्ते आए थे, लेकिन कुछ तबीयत खराब होने की वजह से और कुछ नौकरी न पसंद आने की वजह से उन्हें गाँव वापस जाना पड़ा था'। स्कूल खुलने पर उन्हें गाँव में अध्यापक की 'नौकरी' मिल गई। तनख्वाह भी मिलती थी। साठ रुपये महीना। बाद में हमारा स्कूल 'बड़ा' हो गया। आगामी साल गाँव वालों की मदद से और कुछ बाहर से चन्दा इकठ्ठा करके स्कूल के लिए दो कमरे बनाए गए। विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि हुई। अब स्कूल में दो और अध्यापक आ गए थे। अध्यापकों की तनख्वाह भी बढ़कर एक सौ बीस रुपये हो गई थी। पूरे सौ प्रतिशत की वृद्धि।
हरिशंकर सिंह जी अंग्रेजी पढाते थे। पढाने की शैली निहायत ही बढ़िया। हमलोग सुनते थे कि स्कूल आने से पहले खेती का सारा काम भी करते थे। गाँव के कुछ लोग उनका मजाक भी उडाते थे कि 'अभी तो खेतों में हल चलाकर लौटे और तुरंत स्कूल भी पहुंच गए'। हमारे कोर्स में कृषि विज्ञान की पढाई होती थी। वे हमलोगों को कृषि विज्ञान भी पढाते थे। उन्होंने कितनी मेहनत करके हमें पढ़ाया, इसका एहसास आज होता है। उन्हें मिलने वाली तनख्वाह से वे कितना खुश (या फिर दुखी) होते होंगे ये तो नहीं पता, लेकिन उन्होने मेहनत में कभी कोई कमी नहीं दिखाई। अच्छे संस्कार सिखाये। गाँव के माहौल में हमें अंग्रेजी बोलने और लिखने के लिए प्रेरित करते, बिना इस बात की परवाह किये कि कुछ लोग उनके प्रयासों का मजाक भी उडाते थे। हमें धर्मनिरपेक्षता की समझ उन्होंने बड़ी ईमानदारी से दी। गाँव में जातिवादी संस्कारों का पाया जाना उस समय एक आम बात होती थी। लेकिन उन्होंने हमें ऐसी शिक्षा और संस्कार सिखाये कि ऐसी बातों के लिए हमारे मन में कोई जगह नहीं रही।
संसाधनों की कमी और सरकारी अनुदान न मिलने के बावजूद उन्होंने अच्छे विद्यार्थी तैयार करने में कहीँ कोई कसर नहीं छोडी। कालांतर में स्कूल बड़ा हुआ। स्कूल के सभी कर्मचारी हर साल बात करते कि 'इस साल स्कूल को सरकारी मान्यता मिल जायेगी और उनकी की गई मेहनत का कुछ फल शायद उन्हें मिले। आजतक ऐसा नहीं हुआ। करीब उनतीस साल हो गए स्कूल की स्थापना हुए लेकिन सरकारी मान्यता ने आजतक स्कूल में कदम नहीं रखा। सरकारी मान्यता वाला गाँव का प्राईमरी स्कूल अब नहीं रहा। लेकिन हरिशंकर सिंह जी का शुरू किया हुआ स्कूल आज भी चल रहा है। हरिशंकर सिंह जी अभी भी उतने ही उत्साह के साथ स्कूल में पढाते हैं। अब शायद किसी सरकारी मान्यता की आशा के बिना ही।
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प्रणाम हरिशंकरजी।
ReplyDeleteहरिशंकर् जी जैसे लोग् सच् में स्मरणीय् हैं।
ReplyDeleteहरिशंकरजी एवं उनके जैसे अन्य अध्यापकों के प्रयासों को हम सादर नमन करते हैं ।
ReplyDeleteबंधुवर
ReplyDeleteसबसे पहले तो आपको साधुवाद की आप ऐसे साधारण कहे जाने वाले असाधारण व्यक्तियों को स्मरण करते हैं. जिस देश मॆं महान लोगों को भुलाना एक फैशन हो वहाँ अपने स्कूल के एक शिक्षक को याद करने वाला इंसान किसी अजूबे से कम नहीं है
श्री हरिशंकर जी के लिए मैं जितना नतमस्तक हूँ उससे अधिक कड़ेदीन जी के लिए हूँ जिसने अपना घर स्कूल को दान कर दिया. कोई मुझे समझाए के वे धदीच से किस मायने मॆं कम हैं? ये देश ऐसे हरिशंकरों और कड़ेदीन जैसे महानुभावों का सदा ऋणी रहेगा जिनकी वजह से इतनी विषम परिस्तिथियों के बीच भी हम अपना सर गर्व से उठा कर चलने मैं सक्षम हैं .
नीरज
कहते हैं कुछ लोग अपनी आदत से बाज़ नहीं आते हम भी उन मॆं से ही हैं.जहाँ मौका मिले अपनी रचना चिपका देते हैं . और तो कोई मौका देता नहीं आप शरीफ हैं चुप रहते हैं और इसका फायदा अगर हम न उठाएं तो कोई और उठाएगा ये सोचकर के ही आप का शोषण कर लेते हैं .तो बंधु सुनिये एक कविता ( इस बार हम ग़ज़ल को भूल गए हैं)
भइया सुनो पते की बात,
नेता जो बन ना चाहो तो
मार शरम को लात.
झूठ ,कपट,चोरी मक्कारी
हरदम ख़ूब चलाओ तुम
दीन धरम इमान की मिलकर
धज्जी ख़ूब उडाओ तुम
बेशर्मी से पहन ले रेशम पर खादी को कात
भइया सुनो पते की बात,
रख के तू ईमान ताक पे
खुशियाँ रोज मनाये जा
माल बाप का देश समझ के
जितना चाहे खाए जा
कहाँ कहाँ लूटा जा सकता इसपे रखना घात
भइया सुनो पते की बात,
लिख पढने में समय गवाना
तेरा काम नही है
चाक़ू डंडा छुरी चलाना
तेरे लिए सही है
गिर जा जहाँ तलक गिर सकता
पर मत खाना मात
भइया सुनो पते की बात,
इक दिन तेरे नाम की माला
देखो जिसे घुमायेगा
पाठ्य पुस्तकों तक में तेरा
चित्र छपाया जाएगा
पता अगर ना चलने देगा तू अपनी औकात
भइया सुनो पते की बात,
बंधु
ReplyDeleteहमसे ये कविता एक नटखट बच्ची ने जिद करके लिखवाई है. इसके लिए
हम उसके ऋणी हैं .अगर अच्छी लगे तो उसकी हकदार वो बच्ची ही है .
नीरज
कड़ेदीन जी व हरिशंकर जी का धन्यवाद करती हूँ जो ना जाने कितने अच्छे व्यक्तित्व के युवाओं का निर्माण करने में जुटे हुए हैं ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
नीरज जी कविता पढ़कर मजा आया ।
घुघूती बासूती
शिव, ये नीरज जी ("तो बंधु सुनिये एक कविता - इस बार हम ग़ज़ल को भूल गए हैं")
ReplyDeleteने तो टिप्पणी में पूरी पोस्ट ठेल दी! अगर ये चाहें तो हम ब्लॉग को विस्तार दे कर "शिव-नीरज-ज्ञान का ब्लॉग" बना लें? :)
इनका टिपाणियों में आना अच्छा लग रहा है.
हरिशंकर जी और कड़ेदीन के साथ साथ नीरज को भी नमन.. ऐसे मेहरबान लोग कहाँ मिलते हैं आजकल.. आप के पढ़ने वालों को एक कविता मुफ़्त में पढ़ा गए..
ReplyDeleteनमन है ऐसे सज्जनों को!
ReplyDeleteनीरज जी की कविता अच्छी लगी
अपने क्षात्र जीवन मे सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य की अनेक स्थानों पर भटकते हुए अपनी शिक्षा पूरी करने का अवसर मिला जिसमे हरिशंकर जी जैसे महान व्यक्तित्व का सम्पर्क भी मिला और आज के लगभग हर जगह पाये जाने वाले व्यवसायिक परम्परा का अनुसरण करने वाले महानुभावों का भी.परन्तु एक प्रश्न जो हरिशंकर जी जैसे व्यक्तित्व वाले सच्चे मनुष्यों,शिक्षकों के सम्पर्क मे और भी गहरे बैठा, वह यह कि बारम्बार कचोटता रहा कि जिस शिक्षा का प्रथम और वास्तविक उद्देश्य चरित्र निर्माण होना चाहिए ,उसकी क्या दशा हो रही है????आज हमारे आस पास से लेकर पूरी दुनियां मे नैतिक पतन से जो नित नए तांडव दिखाई पड़ रहे हैं,उसकी ज़द कहीँ वहीँ नही है,जहाँ से प्रत्येक प्राणी के शिक्षा ग्रहन करना आरम्भ करते समय चरित्र निर्माण कि नींव रखी जाती है.
ReplyDeleteशिक्षक ही व्यक्तित्व और समाज का निर्माता होता है पर अब कहाँ हैं वो शिक्षक और वह परम्परा.
आपका प्रयास अत्यन्त सराहनीय और प्रासंगिक है,आज के समय के लिए तो खाशकर जब शिक्षक विद्यार्थी और अभिभावक सब मिलकर नैतिक अधोपतन के नित नए आयाम उपस्थित करने मे जी जान से जुटे हुए हैं.
नीरज जी महान पुरूष हैं,उनकी रचना या व्यक्तित्व कि प्रशंशा करना दोपहर मे खुले मैदान को टौर्च दिखने जैसा है.