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Monday, November 26, 2007

बाज़ार वाकई 'बिग' है


@mishrashiv I'm reading: बाज़ार वाकई 'बिग' हैTweet this (ट्वीट करें)!

कल सुबह चंदन दा मिल गए. बाज़ार में फर्नीचर की दुकान से निकल रहे थे. दुआ-सलाम के बाद बातें हुई. बोले; "एक टीवी ट्राली खरीदने आया था. लेकिन बहुत पैसा मांग रहा है. छोटी सी ट्राली का तेरह सौ रुपये मांग रहा है."


मैंने कहा; "अचानक ट्राली बदलने की जरूरत कैसे पड़ गई?"

बोले; "असल में छोटा घर है. जगह कम है. मैंने सोचा छोटी ट्राली लेने से जगह भी बचेगी और काम भी चल जायेगा. अब सोच रहा हूँ, 'बिग बाज़ार' से खरीद लूंगा. मिसेज बता रही थी कि नया वाला बिग बाज़ार काफ़ी बड़ा है. वहाँ फर्नीचर सस्ते मिलते हैं."

शाम को 'बिग बाज़ार' से डेलिवरी वैन आई. चंदन दा के घर के सामने खड़ी हुई. मैंने देखा उसमें से सैमसंग की दीवार पर टांगने वाली एलसीडी टीवी उतर रही है. सामने चंदन दा खड़े थे. मैंने पूछा; "टीवी ट्राली के साथ-साथ ने टीवी भी खरीद ली आपने?"

बोले; "असल में बिग बाज़ार में टीवी ट्राली खरीदने गया था. फिर वहाँ ये टीवी देखा. मैंने सोचा इसे ही खरीद लेते हैं, ट्राली खरीदने की जरूरत नहीं पड़ेगी."

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. मैंने सोचा जिस आदमी को तेरह सौ रुपये की टीवी ट्राली मंहगी लग रही थी, उसी ने बिग बाज़ार से तैंतीस हज़ार रुपये की टीवी खरीद ली. मैंने पूछा; "आपने इन्सटालमेंट पर टीवी खरीदी क्या?"

बोले; "नहीं क्रेडिट कार्ड से पेमेंट किया. मुझे अच्छी लगी टीवी तो मैंने खरीद लिया. एक बार खरीद ही लिया है तो पेमेंट भी धीरे-धीरे हो जायेगा."

मुझे सालों पहले पढ़ा एक चुटकुला याद आ गया. चुटकुला कुछ यूं था;

एक बड़े डिपार्टमेन्टल स्टोर्स में एक नए सेल्समैन की नौकरी लगी. उसकी पहले दिन की ड्यूटी ख़त्म होने के बाद स्टोर्स के मैनेजर ने उससे जानना चाहा की उसका पहले दिन का काम कैसा रहा. सेल्समैन ने मैनेजर को बताया; "मैंने एक ट्राली वाली कार, एक फिशिंग बोट, एक फिशिंग राड, और एक पत्ता एनासीन एक कस्टमर को बेंचा."

मैनेजर इस सेल्समैन से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका. उसने सेल्समैन से पूछा; "तुमने एक ही कस्टमर को इतना सारा सामान कैसे बेंचा?"

"असल में ये कस्टमर अपनी पत्नी के सिर दर्द के लिए एनासिन खरीदने आया था. मैंने उससे कहा कि चूंकि उसकी पत्नी को सिर दर्द है, इसलिए उसका शनिवार और रविवार तो बरबाद हो जायेगा. तो क्यों नहीं वो फिशिंग करने चला जाता. उसने मुझे बताया कि उसके पास फिशिंग राड नहीं है. तो मैंने उसे एक फिशिंग राड बेंच दिया. फिर उसने बताया कि केवल फिशिंग राड से क्या होगा, उसके पास फिशिंग बोट नहीं है, तो मैंने उसे फिशिंग बोट बेंच दिया. फिर उसने बताया कि फिशिंग बोट को लेक तक ले जाने के लिए उसके पास ट्राली वाली कार नहीं है तो मैंने उसे ट्राली वाली कार बेंच डाला."

9 comments:

  1. फिर उसने बताया कि फिशिंग बोट को लेक तक ले जाने के लिए ---- उसे ट्राली वाली कार बेंच डाला
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    वाह देखते-देखते खरीददार बिक गया! :-)

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  2. हर बंदा खरीदार है, दुनिया एक बाजार है। हम में से हर व्यक्ति अपने हिस्से का खरीदकर निकल लेता है। बाजार बिग नहीं है जी, बाजार ही बाजार है अब तो। सिर्फ बाजार है अब तो।

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  3. बहुत बढ़िया लिखा है आपने.. पढ़ कर बस मजा आ गया जी.. :)
    मेरे घर के बगल में एक बिग बाजार है, पर वहाँ की भीड़-भाड़ से मुझे घुटन होती है..

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  4. वाह सर आपकी पोस्ट पढ़कर मज़ा आगया. लेकिन ये एक हकीकत बन चुकी है आज के समय मे. पूरी दुनिया एक बाज़ार बन गई है. लेकिन इन बिग बजार्स की तो बात ही निराली है. मेरे साथ भी ऐसा घट चुका कि खरीदने कुछ जाओ और लौटो कुछ और खरीद कर. जैसे वो कहा गया है कि " गए थे नमाज माफ़ करवाने और रोजा गले पड़ गए."

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  5. ये बड़े बजार इसी तरह चलते है, एक ही जगह ढ़ेर सारा सामान देख लालच आ जाता है, क्रेडिटकार्ड से खरीदना आसान लगता है, फिर ब्याज के भंवर जाल में अपनी जेब खाली करता रहता है.

    विवेक का अंकुश अनिवार्य है.

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  6. सही!!
    यही तो इनकी नीति है, इसीलिए तो एक ही छत के नीचे सब कुछ उपलब्ध रखने की बात ये लोग कहते हैं ताकि आदमी आए एक चीज लेने और लेकर निकले कई चीजें!!

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  7. संजीत जी ने सही कहा. ग्राहक होता नहीं कोई, बनाया जाता है. जब तक लड़को की फेयार्नेस क्रीम थी ही नही, तो उन्हें पता ही नहीं था, पर जब से आने लगी तो वो लगाने लगे. कोई बताये तो सही की ऐसा भी होता है, लोग पीछे पीछे आने को तैयार हैं. तिस पर प्लास्टिक मानी आदमी को सोचने का वक्त वैसे भी नहीं देती है जरा भी. इससे पहले की आपका मन बदले, और बेचारे सेल्समेन की मेहनत पानी में जाए, वो कैसे भी करके आपका कार्ड आपकी जेब से निकलवा ही लेता है.

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  8. सचमुच.. ऐसा मेरे साथ भी कई बार हो चुका, जब बाजार में सब्जी खरीदने जाते थे, पचास सौ रुपये में काम हो जाता था, अब फ्रेश पास में खुला है, जब भी जाते हैं डेढ- दौ सौ से नीचे बिल ही नहीं बनता। कई बार ऐसी चीजें भी खरीद ली जाती है जिनके बिना भी काम चल सकता था।

    कल ही एक किलो आँवले खरीदने गया जो सिर्फ बारह रुपये के होते हैं... जब बाहर निकला बिल बना एक सौ छ: रुपये का।
    :(

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  9. बढ़िया है। बंबई में तो ये भाव उपजते ही नहीं है। बिग बाजार जाना और ज्यादा खरीदारी कर लेना सामान्य सा लगता है। लेकिन, मैं कुछ महीने पहले घर (इलाहाबाद) के बिग बाजार में गया तो, कुछ ऐसे भाव नजर आए।
    http://batangad.blogspot.com/2007/08/blog-post_30.html

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय