ये नज्म जनाब राही शाहबी ने लिखी है. एक मुशायरे में उन्होंने ये नज्म सुनाई थी. मैंने अक्सर इसे सुनता हूँ. आज आप भी पढ़िये. आशा है आपको पढ़कर अच्छा लगेगा.
हम कई बार ये सुनते हैं कि हमें जीवन का हर एक क्षण भरपूर जीना चाहिए. क्यों जीना चाहिए? इस बात का जवाब हमें अक्सर नहीं सूझता. कारण शायद यह है कि हम एक क्षण या फिर एक घंटे में केवल ख़ुद को रखकर देखते हैं. नतीजा यह होता है कि हमें हमेशा लगता हैं कि "अरे, इस एक क्षण का क्या महत्व है? कुछ भी तो नहीं." लेकिन अगर हम इस एक क्षण को सारी दुनियाँ में इसके महत्व के हिसाब से देखें, तो हमें शायद आश्चर्य हो. मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? आप ख़ुद ही देखिये
और इस नज्म में 'भारी' लगने वाले उर्दू शब्दों का मतलब समझाने के लिए हमारे मीत साहब को धन्यवाद. आप भी उन्ही को धन्यवाद दीजियेगा.
ये एक लम्हा, ये लम्हा अभी जो गुजरा है
बस एक लम्हे में भूला हुआ फ़साना है
ये लौट कर न कभी आएगा क़यामत तक
हर एक लम्हा इसे दूर होते जाना है
ये लम्हा वक्त के बहते हुए समंदर में
बहुत ही छोटे से कतरे की शकल रखता है
मगर ये कतरा तलातुम की बेपनाही में
हर एक मौज की मानिंद दखल रखता है
ये लम्हा दामन-ए-सेहरा-ए-जिंदगानी में
हजारों ज़र्रों की मानिंद एक ज़र्रा है
मगर जो गौर से देखा तो ये हुआ साबित
हर एक आंधी में इसका भी एक हिस्सा है
ये लम्हा तह्र के पुरनूर आसमानों पर
बहुत हकीर सा, नन्हा सा इक सितारा है
मगर निजाम-ए-महोक-ए-शान-ओ- अंजुम को
इसी हकीर सितारे ने ही संवारा है
मैं सोचता हूँ, ये लम्हा अभी जो गुजरा है
इस एक लम्हे में क्या-क्या न हो गया होगा
पुराने कितने दरख्तों को सरनगूं करके
ये लम्हा कितने नए बीज बो गया होगा
किसी की बज्म-ए-तमन्ना उजड़ गई होगी
किसी का दामन-ए-उम्मीद छुट गया होगा
किसी के हाथ से कंगन उतर गए होंगे
किसी की मांग का सिन्दूर लुट गया होगा
किसी से आके मिला होगा कोई बिछड़ा हुआ
किसी से मिल के कोई फिर बिछड़ गया होगा
किसी की किस्मत-ए-बरहम संवर गई होगी
किसी का बन के मुकद्दर बिगड़ गया होगा
किसी के जौक-ए-अमल को कुचल कर दुनियाँ ने
हर एक अज्म को नाकाम कर दिया होगा
किसी गरीब ने तंग आकर अपनी गैरत को
ख़ुद अपने हाथों से नीलाम कर दिया होगा
इस एक लम्हे में दुनियाँ के गोशे-गोशे में
चराग कितने जले होंगे और बुझे होंगे
बरातें कितनी इसी लम्हे में चढ़ी होंगी
जनाजे कितने इसी लम्हे में उठे होंगे
दिलों से छीन के खुशियाँ इस एक लम्हे ने
दिलों में ग़म के समंदर समो दिए होंगे
वो लोग फूलों पर चलने की जिनको आदत थी
उन्ही के पाँव में कांटे चुभो दिए होंगे
बरज के बस इसी लम्हे को मू-नजर क्या है
करोड़ों ऐसे तो लम्हे गुजर चुके अब तक
गिरे जो वक्त के दामन से मिस्ले लाल-ओ-गोहर
वो लम्हे दामन-ए-तारीख बन चुके अब तक
मेरी नज़र में है इस वक्त हर वो इक लम्हा
कि जिसने जलवा-ए-तारीख को निखारा है
दिलों को कितनी ही अलवा-ए-अमल अता की है
हयात को नए अंदाज़ से संवारा है
वो एक लम्हा कि सारे जहाँ ने जब देखा
के जर, न जाह, न इकबाल उसके साथ गया
वो जिसने सारे जहाँ को रौंद डाला था
गया सिकंदर-ए-आज़म तो खाली हाथ गया
वो एक लम्हा के जब खाक-ओ-खूं में लिपटे हुए
ज़फर के बेटों के सर उसके रूबरू आए
कहा ज़फर ने बड़े फख्र से कि मर के भी
हमारे सामने आए तो सुर्खुरू आए
वो एक लम्हा कि अशफाक ने माँ को लिखा
किसे ख़बर है, जवानी रहे-रहे, न रहे
वतन पे जान लुटाऊंगा नौजवानी में
कि फ़िर लहू में रवानी रहे-रहे, न रहे
तलातुम = बाढ़
बेपनाही = जिस से रक्षा न हो सके
मानिंद = की तरह, जैसे
दखल रखना = असर रखना
दामन-ए-सहरा-ए-ज़िन्दगानी = ज़िंदगी के जंगल के दामन में
ज़र्रा = कण, अणु, बहुत ही छोटा, तुच्छ
दह्र = काल, समय, युग
हकी़र = छोटा, तुच्छ
सरनगूं = सर झुकाना
बज़्म = महफ़िल, सभा
बरहम = तितर-बितर
ज़ौक-ए-अमल = इरादा, तमन्ना कुछ करने का
अज्म = श्रेष्टता, बड़प्पन, बुज़ुर्गी
गै़रत = स्वाभिमान, इज्ज़त
गोशे गोशे में = कोने कोने में
मिस्ले लाल-ओ-गुहर = हीरे मोती की तरह
दामन-ए-तारीख = इतिहास का हिस्सा
जलवा-ए-तारीख = इतिहास की सुन्दरता
अलवा-ए-अमल = जीने का तरीका
ज़र = सोना
जाह = जगह
इकबाल = तेज, प्रताप
खाक-ओ-खूं = मिटटी और खून
सुर्खरू = सम्मानित
Thursday, April 10, 2008
ये एक लम्हा
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बहुत शानदार गजल पढवाने का धन्यवाद
ReplyDeleteएक शेर मुझे भी याद आ रहा है झेलियेगा
"वो लम्हे वो बाते
कोई ना जाने
थाने मे ,कैसे कटे दिन
कैसे राते
कोई ना जाने"
शायर याद नही जी आपको याद आये तो खतो किव्वत करियेगा
:)
ReplyDeleteलगाना भूल गया था
बहुत अच्छी और गंभीर गजल थी माहौल हलका कर रहा हू..:)
बहुत खूब. आप सुन भी रहे हैं और केवल पढा रहे हैं. अरे भी इसका आडियो भी लगा दिया होता!
ReplyDeleteपरमाणु में ब्रह्माण्ड की परिकल्पना!
ReplyDeleteशून्य में पूर्ण और पूर्ण में शून्य; जीरो से इंफिनिटी और माइनस इंफीनिटी से प्लस इंइंफिनिटी इत्यादि के एब्सट्रैक्ट सिद्धांत यह पोस्ट पढ़ कर मन में आ रहे हैं।
कणाद अगर वैज्ञानिक न होते तो शायर होते।
पूरी नज्म लाजवाब है ओर सारी बाते खरी है ,शुक्रिया इस नज्म को बाँटने के लिए......
ReplyDeleteमेरी नज़र में है इस वक्त हर वो इक लम्हा
ReplyDeleteकि जिसने जलवा-ए-तारीख को निखारा है
बहुत बढ़िया इरशाद
भाई अच्छे शब्द हैं...आनन्द आया....
ReplyDeleteबंधू
ReplyDeleteबेहतरीन नज्म थी ये राही शहाबी साहेब की. जानकारी के लिए बता दूँ की जनाब जयपुर से ताल्लुक रखते थे और वहीं के बाशिंदे थे. बचपन से उनको कई बार मुशायरों में सुना और हर बार उन्हें अपनी ये नज्म सुनानी ही पढ़ती थी, बाद में जब वो लता हया जी के गुरु बने तो उनसे मेल मुलाकात भी बढ़ी..मूड में कहा करते थे की कमबख्त एक ही नज्म पूरी ज़िंदगी सुनानी पढ़ रही है दूसरा कुछ लोग गोया सुनना ही नहीं चाहते..." उनकी इस बात में तल्खी और खुशी दोनों नज़र आती थी.
मुश्किल लफ्जों का मतलब बता कर मीत साहेब ने मेरे मिर्जा ग़ालिब बनने की राह कितनी आसन कर दी है वो नहीं जानते...जब मिर्जा बनूगा तब उनका रूबरू शुक्रिया करने कलकत्ता आऊंगा.
नीरज
बहुत ही सुन्दर नजम हे,आप का धन्यवाद इसे हम तक पहुचाने का
ReplyDeleteLambe arse baad blog par aayi aur dil khush ho gaya.Bahut hi sundar nazm hai bhai.mujhe umeed hai ye poori nazm bhi tumhe kanthast hogi(conform karna).Lagta hai ek baar jaipur jakar wahan ki mitti sar par laga kar aanaa padega.Nahi? dekho na kaise kaise ratn bhare pade hain wahan.
ReplyDeleteवाह - शुक्रिया - वो गाने का टुकडा भी याद आया "एक पल की पलक पे है, ठहरी हुई ये दुनिया, एक पल के झपकने तक हर खेल सुहाना है .... " - मनीष
ReplyDeleteकमाल की नज्म है । मेरा तो ये लम्हा कायनात का मजा़ दे गया ।
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