जब हम अपने बचपने को गाँव में रहकर गुजार रहे थे तब एक क्रिकेटर बनने के सपने देखने के अलावा लोगों के हाथ पर उनके नाम का गोदना देखते थे. क्या कहा? गोदना का मतलब नहीं मालूम? अरे भइया, मेरे कहने का मतलब है टैटू. टैटू देखते थे. हाँ, गोदना को ही हिंदी में अब टैटू कहते है. यह उन दिनों की बात है जब एक ग्रामवासी के जीवन में गोदना का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता था. लोग़ अपना नाम बायें या दायें हाथ पर गोदवा लेते थे. अक्सर हाथों पर हमें झिंगुरी, मंगरू, रामलोचन, पदारथ, रामरती, दुलारी जैसे नाम पढ़ने को मिलते थे और हम फ़ौरन समझ जाते थे कि इस व्यक्ति का नाम वही है जो इसके हाथ पर गोदा हुआ है. मेरे बचपन में तो गाँव में एक लोकगीत भी सुनने को मिलता था जिसके शुरू के बोल थे;
कान्हा धइ के रूप जननवा, गोदइ चले गोदनवा ना
इसका मतलब यह कि श्रीकृष्ण औरत का वेश बनाकर गोदना गोदने के लिए निकले हैं.
पता नहीं अब यह लोकगीत गाँव में गुनगुनाया जाता है या नहीं? यह भी पता नहीं कि गीत किसी को याद भी है या नहीं? पिछले नवम्बर में जब गाँव गया था उस समय यह बात याद आई होती तो लोगों से पूछ कर पता लगा लेता लेकिन ऐसा हो न सका और मैं अपना सवाल अब यहाँ टीप रहा हूँ. वैसे गाँव वालों के बीच इस गीत के अभी तक रहने और गाये जाने की बात पर शंका इसलिए भी है क्योंकि बचपन अब बचपन नहीं रहा. बचपन अब नर्सरी हो गया है. इसी बदलाव के साथ कम्पीटीशन करते हुए गाँव भी अब गाँव नहीं रहे. गाँव अब ग्रामप्रधानी की सियासतगाह और 'नरेगा' की ज़मीन हो गए हैं जहाँ सरकार गांववालों को अधिकार देने और अपने फैसले खुद लेने की प्रयोगशाला चलाती है.
खैर, देखा जाय तो लोकगीत भी अब लोकगीत कहाँ रहे?
हाँ तो मैं टैटू की बात कर रहा था. कई बार ऐसा भी देखने में आता था कि कोई-कोई कलाप्रेमी ग्रामवासी केवल अपना नाम लिखवा कर ही संतुष्ट नहीं होता था. वह अपने नाम के आस-पास फूल-पत्ती वगैरह भी गोदवा लेता था. कई बार तो फूल या पत्ती वाला टैटू उसके नाम के ऊपर बनाया हुआ बरामद होता जिसे देखकर लगता कि इस फूल का नाम ही झिंगुरी या मंगरू है. कुछ-कुछ वैसा जैसे गाँव के स्कूल में पढ़ने वाले सातवीं कक्षा के विद्यार्थी ने कला कुसुम की ड्राइंग बुक में गुलाब बनाकर नीचे मंगरू लिख दिया हो.
गुलाबों के शहरी विशेषज्ञ अगर वैसे टैटू देख लेते तो मार-पीट पर उतारू हो जाते.
यह उनदिनों की बात है जब टैटू पर गांववालों का एकाधिकार टाइप था. मुझे इस बात का विश्वास है कि तब शहरों में रहने वाले अपने हाथ पर टैटू बनवाने से इसलिए कतराते होंगे क्योंकि वे टैटू को पिछड़ेपन की निशानी मानते होंगे. बाद में जब गाँवों में प्रगति हुई और गाँव मॉडर्नगति को प्राप्त हुए तब गाँव वालों ने अपने हाथों पर टैटू बनवाना बंद कर दिया. इस स्थिति से निपटने और समाज को एक बैलेंस देने के लिए टैटू के मामले में शहरवासियों ने 'पिछड़ेपन' को अपना लिया. अब वे टैटू बनवाने लगे थे.
'पिछड़ापन' एक जगह से चलकर दूसरी जगह पहुँच गया.
यह बात अलग है कि टैटू की बात पर गाँव और शहर वालों के बीच मतभेद दिखाई देने लगा. जहाँ गाँव वाले अपने हाथ पर अपना नाम गोदावाते थे वहीँ शहर वाले अपने हाथ या बांह पर अपना नाम न गोदवा कर किसी और का नाम गोदवाते हैं. यह बात भारतीय टैटू की मूल भावना के खिलाफ है. कल्पना कीजिये कि तब क्या हो सकता है जब कोई पुरायट ग्रामवासी सैफ अली खान की बांह पर करीना लिखा हुआ देखेगा? उसके गश खाकर गिरने का चांस रहेगा. वह यह सोचकर दिन भर परेशान रहेगा कि; "अरे यही करीना है? हम तो सुने थे कि करीना किसी हीरोइन का नाम है लेकिन करीना तो हीरो निकला. बाकी बातों में तो धांधली होती ही थी अब शहर में नाम के मामले में भी धांधली होने लगी है?"
उन्हें क्या पता कि सैफ अली ज़ी ने अपने प्यार को सच्चा बताने के लिए अपनी बांह पर करीना लिखवाया है.
उधर विदेशी सेलेब्रिटी अपनी बांह, पीठ और पापी पेट पर संस्कृत और हिंदी में कुछ लिखवाते हैं. डेविड बेकहम ने लिखवाया था. उसके बाद तमाम सेलेब्रिटी ने लिखवाया. किसी ने गायत्री मन्त्र की प्रिंटिंग करवा ली. कल्पना कीजिए कि अगर गाँव गडौरा के माताचरण को कभी डेविड बेकहम के दर्शन हो जायें और उन्हें डेविड बाबू की बांह पर उनकी पत्नी का लिखा हुआ नाम दिखाई दे जाय तो क्या होगा? माताचरण बाबू सोचने में फुलटाइम लीन हो जायेंगे. यह सोचते हुए उनका दिन गुजर जाएगा कि; "बिक्टोरिया तो सुने थे किसी रानी का नाम है. तो क्या यह आदमी ही रानी विक्टोरिया है?"
कालांतर में जैसा होता है वैसा ही हुआ. टैटू के साथ प्रयोग होने लगे. कुछ टैटू देखकर तो लगता है जैसे टैटू के साथ प्रयोग नहीं बल्कि प्रयोग के साथ टैटू हो रहे हैं. एक से बढ़कर एक टैटू. पीठ पर, पेट पर, हाथ पर, बांह पर. टैटू ही टैटू. तरह-तरह के टैटू. धार्मिक टैटू का अलग ही महत्त्व. एक बांह देखी. उसपर युद्ध की बात पर आना-कानी कर रहे अर्जुन को श्रीकृष्ण पाठ पढ़ा रहे थे. देखकर एक बार के लिए लगा कि महाभारत का युद्ध इसी बांह पर लड़ा गया था. आते-जाते चट्टान से दीखने वाले एक एक्टर की होर्डिंग देखता हूँ. होर्डिंग पर वह एक स्टील कंपनी की सरिया का विज्ञापन कर रहा है. उसने स्टील की सरिया इस तरह से पकड़ रखी है जिससे 'डोल्ले-सोल्ले' वाली उसकी बांह के दर्शन होते हैं जहाँ बाबा भोलेनाथ मय त्रिशूल आसन जमाये ध्यानमग्न बैठे हैं. कुछ कुछ ऐसा लगता है जैसे भोलेनाथ को कैलाश पर्वत से तड़ीपार कर दिया गया है और वे अपनी जमा-पूंजी यानि मृगछाला, पालतू सांप, त्रिशूल और चन्द्रमा लिए इस एक्टर की बांह पर आ बिराजे हैं और अब वहीँ रहेंगे.
प्रयोग में टैटू का यह हाल है कि हाथ, बांह, कलाई, हथेली, पीठ, पेट वगैरह पर टैटू बनवाकर बोर हो चुके लोग़ अब दांत पर टैटू बनवा रहे हैं. गुलाब देखने में सुन्दर लगे तो दांत पर गुलाब बनवा लिया. कोई विशेष जायके का है और उसे अगर कैक्टस अच्छा लगे तो दांत पर कैक्टस उगा लिया. जो चाहे मर्जी बनवा लिया. जो चाहे मर्जी उगा लिया. दांत अपना काम तो कर ही रहा है साथ ही साथ कैनवास का रोल भी अदा कर दे रहा है. मल्टी टास्किंग की अद्भुत मिसाल.
वैसे देखा जाय तो एक तरह से अच्छा भी है. फ़र्ज़ कीजिये किसी ने अपनी पूरी बतीसी टैटू के हवाले कर दी. मतलब हर दांत पर एक टैटू. एक पर गुलाब, एक पर कमल, एक पर सूरजमुखी एक पर गेंदा फूल. सामने वाले दांत पर कैक्टस. अब अगर कभी भी उसके दांत में दर्द हो और उसे डॉक्टर के पास जाना पड़े तब क्या होगा? जाने पर डॉक्टर पूछेगा - किस दांत में दर्द है तो इधर से जवाब जाएगा - सर ये सूरजमुखी वाला दांत कल शाम से ही बहुत दर्द कर रहा है. उसके बगल में जो गुलाब वाला है उसमें समस्या नहीं है. उसमें दर्द भी नहीं है. जवाब में डॉक्टर साहब कहेंगे - भाई समस्या है कि नहीं ये आप कैसे डिसाइड करेंगे? यह तो हम डिसाइड करेंगे. और आपको यह बताते हुए हमें अफसोस हो रहा है कि आपका गुलाब सड़ गया है. अगर इसे अभी ठीक नहीं किया गया तो ये आपके कैक्टस को भी सड़ा देगा.
पहले जो गोदना गांववालों के लिए केवल महत्वपूर्ण हुआ करता था वही अब टैटू बनकर शहर वालों के लिए अति महत्वपूर्ण हो गया है. कई केस तो ऐसे सुनने में आये कि बेटी ने राजा भरथरी स्टाइल में अपने घर का त्याग केवल इसलिए कर दिया क्योंकि उसकी माँ नहीं चाहती थी कि वह अपनी पीठ पर टैटू बनवाये. एक जगह पढ़ा कि एक सुपुत्र ने अपने माँ-बाप को खुद से इसलिए बेदखल कर दिया क्योंकि वो टैटू मेकर बनना चाहता था और उसके माँ-बाप उसे इंजिनियर बनाने पर तुले हुए थे. घरेलू महाभारत के मामले में टैटू इतना महत्वपूर्ण पहले कभी नहीं रहा. अब टैटू बनवाने और उसे बनवाने से रोकने वालों की लड़ाईयां रोज हो रही हैं. माँ-बेटी ने और बाप-बेटे ने घरों को पानीपत और प्लासी के मैदान में कन्वर्ट कर दिया है.
मुझे तो पूरा विश्वास है कि आज से दो-ढाई सौ साल बाद जब भारतीय टैटू का इतिहास लिखा जाएगा तब इतिहासकार वर्तमान समय को ही भारतीय टैटू का स्वर्णकाल बताएगा.
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आज के टाइम्स ऑफ इंडिया में यह आर्टिकिल था. टैटू आख्यान लिखने की प्रेरणा यहीं से मिली.
Monday, May 9, 2011
टैटू गाथा
@mishrashiv I'm reading: टैटू गाथाTweet this (ट्वीट करें)!
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पुराने टैटू परमानेण्ट टाइप होते थे। जिन्दगी भर के।
ReplyDeleteआजकल के टट्टू गायब हो जाते हैं!
कार, शादी, टैट्टू औरफैशन की गारण्टी नहीं! :)
गोदना तो कष्टदायक होता था और ताउम्र हिंदुस्तानी पत्नी की तरह चिपक जाता पर टैटू तो शायद उतना कष्टदायक नहीं होता और से बदल्भ भी जाता है वेदेशी पत्नी की तरह :)
ReplyDeleteमैंने सुना है कि गोदना गोदाने के बाद नहाना जरूरी होता था, उसके बाद ही कुछ खा पी सकते थे। शहर वाले गोदना प्रेमी संभवत: गोदना गोदाने के बाद सीधे पिज्जा औऱ बर्गर की पार्टी करते हैं :)
ReplyDeleteमस्त पोस्ट।
गाँव में भांति भांति के गोदने देखे थे बचपन में..एक से बढ़कर एक ,शायद ही कोई नारी बिना गोदना के होती थी....उसमे भी जिस गरीब जनानी के पास जेवर का सबसे अधिक टोंटा रहता था ,उसके शरीर पर उठें अधिक सुन्दर सुन्दर जेवरों का डिजाइन गोदने के रूप में गोदाया रहता था...
ReplyDeleteशहर में यह सब हम देखते नहीं थे तो यह कौतुहल का विषय था हमारे लिए ... इसके बारे में तफसीस किये तो कई कारणों में से एक कारण यह सुनने को मिला कि यदि गोदना न रहे शरीर पर तो जमराज फरक कैसे कर पायेंगे कि यह जनानी है कि मरदाना,यह यह कौन है किसकी पत्नी किसकी माँ या बहु आदि आदि है...ऊपर जब सगे सम्बन्धियों के पास भेजा जायेगा तो इसी पहचान पत्र के जरिये न भेजा जाएगा..नहीं तो कन्फ्यूजन नहीं हो जायेगा...और फिर अगले जनम में सम्बन्धियों का साथ भी तो इसी पहचान पत्र के जरिये मिलेगा...
बड़ा सटीक व्यंग्य लिखा भाई...मन परसन्न कर दिया...
वाह आपने तो गजब कर दिया, छोटे से आर्टिकल को ऊंचा कर दिया,
ReplyDelete"पिछडेपन" को भी बना दिया विशिष्ट,बहुत ही उम्दा है आपका परिशिश्ष्ट,
आ गया मजा पढ़ कर टैटू की गाथा,आदरणीय नवा रहा हूँ आपको माथा,
बहुत बढ़िया......
बहुत सुन्दर पोस्ट (टैट).
ReplyDeleteसबै टैटू टैटू खेल रहे हैं।
ReplyDeleteअब देखना ये है कि ये टैटू दांत के बाद कहाँ की शोभा बढ़ाता है...वैसे अभी तक नाक पर किसी ने नहीं गुदवाया है! वैसे माथे पर भी तीसरी आंख बनवाई जा सकती है!
ReplyDeleteअरे वाह ! इतनी सामयिक, मस्त और उपयोगी पोस्ट मैंने नहीं पढ़ी आज तक !
ReplyDeleteदरअसल कल ही हमारे मित्र नें $१९० में गोदना गोदवाया है. एक वीक पहले से अप्वाइंटमेंट लिया था. इस महीने के अंत में भारत जाने वाले हैं और नाम भी किसी और का ही लिखवाया है भाषा भी हिंदी-अंग्रेजी की जगह तमिल.हमने कल पार्टी भी ली इस ख़ुशी में. अब पोस्ट फॉरवर्ड कर देता हूँ. :)
purana 'ganvaar' aur naya 'hep' me nose-ring aur anklet(payal) to hum dekhe the parantu tatoo tak kabhi nahi gaye!
ReplyDeleteAb yadi hum wo soch sakte, jo aap soche to chele kaise bante!!
Saif-kareena ke confusion bahut badiya laga. Sote-sote aur hasste-hasste neend khul gayi.
Jhakaas entertaining post ke liye Dhanyawaad!
Pranam!
आपको पता है कमसिन लड़कियां अपनी कमर पर गुलाब के फूल का टेटू बनवाती हैं और जब कमर कमरा हो जाती है तो वह इकलौता फूल बगीचा नज़र आता है!
ReplyDeleteमगर मैंने तो यही समझा कि जनाब द्वय को यह प्रेरणा अभी अभी कटरीना महाभागा के पृष्ठ भाग पर
ReplyDeleteखुदवाए गए अति कृष्ण बिच्छू से मिली है -बाकी तो टैट्टू और टट्टू कथा का काफी पुराना इतिहास पुराण हैं -
मैंने भी अपना पहला टट्टू काफी माडर्न खयालाती हो जाने के बाद इस पोस्ट के एक लेखक के पड़ोस में लगने वाले
शिवकुटी के मेले में खुदवाया था -मेरे दाहिने हाथ पर "संध्या -अरविन्द " और अंगूठे के पीछे कामदेव का धनुष आप जब भी
मिलें देखने से मत चूकिएगा -तनिक भी शर्मायियेगा नहीं !
सही है! अथ टैटू कथा।
ReplyDeleteकल को मान लीजिये ब्लागर अपने ब्लाग का नाम अपनी बांह पर गुदाने लगें। जिनके बहुत से ब्लाग हैं वे बहुत से टैटू खुदायेंगे फ़िर तो। :)
बहुत अच्छा व्यंग्य है, बधाई।
ReplyDeleteटैटू कथा पसंद आई ।
ReplyDeleteबेहतीन post सर | गिरिबाला मैडम की टिप्पणी तोह गज़ब थी |
ReplyDeleteतो हम भी चलते हैं ब्लाग का टैटू गुदवाने। स्वर्नय्ग मे अपना नाम लिखवाने का इस से अच्छा अवसर कौन सा होगा?। धन्यवाद।
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