Show me an example

Wednesday, June 15, 2011

शर्मा जी का डिब्बा


@mishrashiv I'm reading: शर्मा जी का डिब्बाTweet this (ट्वीट करें)!

आपने पी पी पी के बारे में सुना ही होगा. अरे, वो टीवी पर पी की आवाज़ करने वाला शंख नहीं जो टीवी चैनल वाले कई बार रियलिटी शो में दी गई गालियों को ढांपने के काम में लेते हैं. इन तीन पी का मतलब है पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप जिसको प्रमोट करने के लिए उद्योगपति श्री राहुल बजाज ने अपने पूरे दिन का कम से कम दो घंटा तो पक्का दे रक्खा है. तो जैसे पी पी पी वैसे ही बी बी पी. बी बी पी का मतलब है ब्लॉगर ब्लॉगर पार्टनरशिप. तो यह ब्लॉग पोस्ट बी बी पी से उपजी है जिसे मैंने और मेरे मित्र विकास गोयल ने लिखा है. विकास just THOUGHT no PROCESS नामक अंग्रेजी ब्लॉग लिखते हैं.

आप पोस्ट बांचिये.

.................................................................

एक वीक-डेज वाली दोपहर. आफिस के दो बज रहे थे. आप कह सकते हैं; "किसी आफिस का बारह बजते सुना है लेकिन दो बजते हुए तो नहीं सुना."

तो मेरा कहना यह है कि; - अब देखिये सुना तो मैंने भी नहीं. हाँ, देखा ज़रूर है. कि दो बजे का समय बहुत महत्वपूर्ण होता है. कि दो बजते ही तमाम लोग़ कसमसाने लगते हैं. कि दो बजते ही एक-दूसरे को अपनी भूख का हिसाब देते हैं जिसका मतलब यह होता है कि बड़े जोरों की भूख लगी है. कि दो बजते ही आफिस के प्यून मन ही मन बुदबुदाने लगते हैं कि साहेब लोग़ अब बुलाएँगे. किचेन से प्लेट और चम्मच लाने को कहेंगे. कि फ्रिज से ठंडा पानी लाने के लिए कहेंगे. कि चार रोटी और सब्जी क्या खायेंगे पूरे घंटे भर सतायेंगे.

उधर प्लेट और चम्मच के जोड़े भी धुल जाने के बाद सुबह से ही सोचने लगते हैं कि पता नहीं आज किसके हत्थे चढ़ेंगे? दोनों की ज्वाइंट आकांक्षा यह रहती है कि "कितना अच्छा हो अगर आज हमदोनों मिस्टर मेहता के हाथ लगें. वे हमें कितने प्यार से पकड़ते हैं. सब्जी खाने के बाद चम्मच को ऐसे देखते हैं जैसे उससे सहानुभूति दिखाते हुए पूछ रहे हों कि दो सेकंड के लिए तुम सब्जी लादे हुए मेरे मुँह में गए थे, तुम्हें तकलीफ तो नहीं हुई? हे भगवान, आज हमें गौतम साहेब के हत्थे मत चढ़ाना. लंच के समय जब भी हमदोनों उनके हाथ में पहुँचते हैं, वे खाने से पहले कम से कम पाँच मिनट तक हमदोनों को साथ बजाते हुए "कजरारे कजरारे" गाते हैं."

कई बार तो चम्मच के मन में यह भी आया कि वह किसी बहाने गौतम जी का हाथ छुड़ाकर उछले और सीधा उनकी नाक पर एक किक जमा दे. लेकिन बेचारा उनकी मैनेजरी का लिहाज करता हुआ चुप ही रहता है.

उधर टिफिन में ठूंसकर भरी गई रोटियां पिछले चार घंटों से टिफिन से निकलने के लिए ठीक वैसे ही तड़प रही होती हैं जैसे तिहाड़ से निकलने के लिए कनिमोई. नौ बजे मिसेज शर्मा ने उन्हें सूखे आलू की सब्जी के साथ पतली वाली टिफिन में ठूंसा नहीं कि रोटियां कसमसाने हुए अपनी किस्मत को रोने लगती हैं कि अब न चाहते हुए भी चार घंटे इस आलू की सब्जी के साथ रहना पड़ेगा. दो बजे से पहले इससे डायवोर्स के चांस नहीं हैं. सूखे आलू की सब्जी उधर अपने साथ चेंप दिए गए एक फांक आम के अचार से पीड़ित है. आम का अचार आलू की सब्जी की आँख में घुसकर उसे पूरे साढ़े पाँच घंटे रुलाता है. आम के कई फांक तो अपने साथ इतना मसाला लिए हुए चलते हैं जितना उस आलू की सब्जी की आँख में घुसकर उसे तीन दिनों तक रुलाने के लिए काफी है. आलू की सब्जी की त्रासदी यह कि वह रोने के अलावा और कुछ नहीं कर सकती.

वैसे भी हमारी संस्कृति में उसको ज्यादा कुछ करने की इजाजत नहीं है.

ऐसे में सब्जी यह सोचते हुए चुप रहती है कि; 'अगर मैं सब्जी न बनी होती तो मैं आलू होती. होती तो क्या, कहना चाहिए कि आलू होता. तब देखता कि मिसेज शर्मा मुझे टिफिन में कैसे रखतीं? अगर कोशिश भी करती तो मैं टिफिन के ढक्कन को ऊपर फेंकते हुए किचेन से लुढ़कते हुए सीधा ड्राइंग रूम में जाकर सोफे से टकराकर केवल इसलिए रुकता क्योंकि सोफा मेरे सामने सीमा पर खड़े हुए फौजी जैसा अड़ा रहता. लेकिन ऐसी किस्मत कहाँ कि मैं सब्जी बनूँ ही नहीं और सिर्फ आलू बनकर इधर-उधर ढुलकता फिरूं. एक बार सब्जी बनी और मैं था से थी हुई नहीं कि फिर कोई भी मेरे साथ कुछ भी कर सकता है.'

सब्जी को पता है कि अब उसको इस कैद से छुड़ाने का काम मिस्टर शर्मा दो बजे ही करेंगे. लिहाजा वह गुलज़ार साहब की ग़ज़ल की लाइन; "दफ्न करदो मुझे कि सांस मिले, नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है" दोहराते हुए दो बजने का इंतजार करती रहती है.

उधर जब दो बजे शर्मा जी इन रोटियों की रिहाई का महान काम अपने हाथ में लेते हैं तब इन रोटियों को उसी तरह की फीलिंग होती है जैसी कई वर्षों तक जेल में रहने के बाद छोड़ दिए जाने पर नेल्सन मंडेला को हुई होगी.

रोज लंच के समय टिफिन खोलते हुए शर्मा जी मिसेज शर्मा के स्पेस यूटीलाइजेशन स्किल्स की दाद मन ही मन बड़ी लाउडली देते हैं. मुंबई में रहते हुए मिसेज शर्मा ने दो खानों वाली पतली सी टिफिन में रोटियां, सब्जी, अचार और कभी-कभी दो फांक प्याज ठूंसने में महारत हासिल कर ली है. वह तो शर्मा जी ने सिले हुए पापड़ खाने से मना कर दिया है वरना मिसेज शर्मा तो उसी टिफिन में पापड़ भी रख सकती हैं. अपनी टिफिन खोलकर रोटियां निकालते हुए शर्मा जी के मन में यह बात ज़रूर आती है कि इस तरह की स्किल्स में एक्सेलेंस अचीव करने में श्रीमती जी को कितन समय लगा होगा? क्या इतनी बढ़िया स्टोरिंग वह पहले दिन से ही करने लगी होगी? या फिर रिफाइनमेंट में समय लगा होगा? कई बार तो शर्मा जी मन ही मन यह भी सोचते हैं कि श्रीमती जी अगर किसी लोजिस्टिक्स कंपनी में नौकरी करती तो हर साल उन्हें बेस्ट एम्प्लोयी का अवार्ड मिलता. या फिर मिसेज शर्मा अगर किसी पब्लिक सेक्टर कंपनी की फैक्ट्री में स्टोरकीपर होती तो कंपनी हर साल छब्बीस जनवरी के अवसर पर उनका नाम प्रेसिडेंट गोल्ड मेडल के लिए पक्का भिजवाती.

मिसेज शर्मा ने टिफिन में खाना रखने की यह स्किल मुंबई की लोकल ट्रेन में ठुंसे हुए पैसेंजर्स को देखकर सीखी या फिर मुंबई के लोकल ट्रेन चलानेवालों ने शर्मा जी के खाने की टिफिन देखकर लोकल ट्रेन के डिब्बों में पैसेंजर ठूंसकर ट्रेन चलाने का आईडिया निकाला, यह एक शोध का विषय है. आने वाले दिनों में इस विषय पर कोई छात्र पी एचडी कर सकता है, साहित्यकार कहानी लिख सकता है, कवि कविता ठेल सकता है या फिर आई आई टी में पी एचडी की डिग्री की खोज में पहुँचा कोई इंजिनीयर अपनी अपनी थीसिस लिख सकता है. दुनियाँ भर की लोजिस्टिक्स कम्पनियाँ मिसेज शर्मा से स्पेस यूटिलाइजेशन पर कंसल्टेंसी ले सकती हैं. मिस्टर शर्मा को तो यह विश्वास भी है कि मिसेज शर्मा कंसल्टेंसी दे भी सकती हैं.

रोज दो बजे दोपहर में शर्मा जी टिफिन में कैद रोटियों को आज़ाद करवाते हैं. जब वे आलू की सूखी सब्जी को प्लेट में डालते हैं तब उसे लगता है जैसे किसी ने उसे फाँसी के तख्ते से उतार कर इसलिए नीचे रख दिया क्योंकि पिछले चार घंटे से राष्ट्रपति के दरबार में इंतजार कर रही माफी की उसकी अर्जी को राष्ट्रपति ने मंजूर कर दी. अचार के फांक को आलू की सब्जी की आँखों से निकाल कर जब शर्मा जी प्लेट में रखते हैं, तब आलू की सब्जी के मन में आता है कि वह उन्हें आशीर्वाद या वरदान टाइप कुछ दे डाले लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाती क्योंकि उसे तुरंत याद आता है कि अगले दस मिनट में शर्मा जी उसे चट कर जायेंगे.

मिस्टर शर्मा, मिसेज शर्मा, रोटियां, सब्जी, अचार और डिब्बे की यह कहानी यूं ही चलती रहती है. सभी को एक-दूसरे से शिकायत हो सकती है लेकिन कोई किसी को छोड़कर जाना नहीं चाहता.

20 comments:

  1. बहोत बढ़िया मजा आ गया...ऐसा लग रहा था जैसे की शर्मा जी की कहानी का जीवंत उदहारण देख रहा हू.

    ReplyDelete
  2. बहोत बढ़िया मजा आ गया...ऐसा लग रहा था जैसे की शर्मा जी की कहानी का जीवंत उदहारण देख रहा हू.

    ReplyDelete
  3. ओह....जबरदस्त मानवीयकरण किया है...सटीक उदहारण चिपकाएँ हैं हर जगह...

    ReplyDelete
  4. बंधू आपका ये लेख हिंदी व्यंग लेखन के इतिहास में मील का पत्थर साबित होगा ये हमसे आप चाहे जहाँ लिखवा लो. कोई टिफिन बाक्स की पैकिंग उसमें रखी सब्जी रोटी अचार पर भी लिख सकता है और वो भी ऐसा विलक्षण यकीन नहीं होता. आप हिंदी व्यंग लेखन की उस पीढ़ी के नेता बनने जा रहे हैं जो ज्ञान चतुर्वेदी जी से आगे की है. इस लेख को पढ़ कर हम धन्य हुए.

    नीरज

    ReplyDelete
  5. इससे ज्यादा स्किल्स मेरी पत्नीजी दिखाती हैं जब वे मेरे ब्रीफकेस नुमा सूटकेस में तीन दिन की यात्रा का सामान संजोती हैं। रोटी तो तुड़ मुड़ जाती है सब्जी और अचार के साथ। पर मेरी पैण्ट-बुश शर्ट कभी ऐसी नहीं लगी कि हंडिया में से निकाली हो!

    पत्नियों को तो इतने नोबल पुरस्कार देने होंगे कि नोबल फाउण्डेशन कंगाल हो जाये! :)

    ReplyDelete
  6. मेनेजमेंट के गुरु है शारू रागणेकर ( हो सकता है कि नाम लिखने में कुछ गलती हो) उन्‍होंने एक पुस्‍तक लिखी है पत्‍नी से प्रबंधन सीखो। उनका एक लेक्‍चर मैंने भी सुना था, उन्‍होंने विस्‍तार से बताया था कि किस प्रकार पत्नियां प्रबंधन में कुशल होती हैं और उनसे ही बारीकियां सीखनी चाहिए।

    ReplyDelete
  7. बहुत खूब! गजब का मानवीकरण है!

    मजे आ गये बांचकर! जय हो!

    ReplyDelete
  8. Ha ha very funny! वैसे मेरे पतिदेव भी मेरा टिफिन बहुत उम्दा तरीके से पेक करते हैं!!

    ReplyDelete
  9. पीपीपी.... ओह हम समझे ये कोई पाकिस्तान की आतंकवादी पार्टी होगी जो ओसामा की तरह कह रही है-
    "दफ्न करदो मुझे कि सांस मिले, नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है"

    ReplyDelete
  10. एक दूसरे से जूझते रहने में ही यहआं जीवन को निर्वाण मिलता है।

    ReplyDelete
  11. पत्नी जी का योगदान मुझे तो अमूल्य लगता है. प्रारम्भ में कैद सी लगती थी और पत्नी जेलर सरीखी लेकिन अब लगता है कि पत्नी बिना भी कोई जिन्दगी होती है.

    ReplyDelete
  12. लिहाजा रोज टिफिन देने वाली पत्नी को समर्पित करता हूं इस पोस्ट का पढ़ना और मेरा इस पर टिप्प्णी करना.

    ReplyDelete
  13. सब्जियां भी शिकायत करती हैं? एक टिफिन के सिवा कौन समझा उनका दर्द.
    आप टिफिन ही है न?

    ReplyDelete
  14. उधर टिफिन में ठूंसकर भरी गई रोटियां पिछले चार घंटों से टिफिन से निकलने के लिए ठीक वैसे ही तड़प रही होती हैं जैसे तिहाड़ से निकलने के लिए कनिमोई.Superb
    Girish

    ReplyDelete
  15. आदरणीय, बहुत कम कहा गया आपके लेख के बारे में, मै आदरणीय "नीरज गोस्वामी जी" के कथन से पूर्ण सहमति व्यक्त करता हूँ, कल्पनातीत लेखन है आपका...

    ReplyDelete
  16. आने वाले दिनों में इस विषय पर कोई छात्र पी एचडी कर सकता है, साहित्यकार कहानी लिख सकता है, कवि कविता ठेल सकता है या फिर आई आई टी में पी एचडी की डिग्री की खोज में पहुँचा कोई इंजिनीयर अपनी अपनी थीसिस लिख सकता है.
    ---
    अरे ये तो भूल ही गए कि इससे प्रेरणा लेकर कोई ब्लोगर पोस्ट लिख सकता है :)
    बहुत मजेदार पोस्ट...टिफिन बॉक्स का आँखों देखा हाल देख कर आँख में पानी आ गया. :)

    ReplyDelete
  17. काफ़ी सोच-विचार के बाद सूचना समृद्ध होकर लिखी गई है. यह सब्जियों-रोटियों और यहां तक कि बर्तनों के भी प्रति आपकी सहानुभूति का उत्कट उदाहरण है.

    ReplyDelete
  18. यह तो है कि सब्जी बिना रोटी सूखी लगती है,मिस्टर शर्मा जानते हैं तभी मिसेज शर्मा को दाद मन ही मन बड़ी लाउडली देते हैं और जो नहीं देते वो मिसेज शर्मा के स्किल्स आपकी इस पोस्ट से जान चुके होंगे.. मेहता जी को प्यार जताना आता है तभी प्लेट और चम्मच उनके हाथ लगना चाहते हैं..कौन गौतम साहेब के हत्थे चढ़ाना चाहेगा जो कजरारे कजरारे गाकर पहले उनकी बजाते हैं जिनसे बाद में खाते हैं..उत्कृष्ट पोस्ट :)

    ReplyDelete

टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय