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Thursday, July 2, 2009

सौ दिन शासन के...




पहले वर्षों की बात होती थी. शायद इसलिए कि तब पंचवर्षीय योजनाओं का बोलबाला था. अब नहीं है. आम जनता के बीच पंचवर्षीय योजनाओं की भद्द पिट गई. वैसे तब के और अब के भारत देश में अंतर बहुत बढ़ गया है. पहले नेता जी लोग एक बार सरकार बना लेते थे तो प्लान हमेशा पांच वर्ष के महत्वपूर्ण समय पर केन्द्रित रहता था. बाद में समय बदला तो पता चला कि बनी हुई सरकार पांच वर्षों से पहले भी विदा हो सकती है.

जब यह सीक्रेट लीक हुआ तो पंचवर्षीय का मतलब पूरी तरह से बदल गया. तब पंचवर्षीय का मतलब यह निकाला जाने लगा कि सपोर्ट देने वाले दल एक वर्ष में सरकार को कितना पंच मारते हैं.

सपोर्ट देने वाले दलों के 'पंच' का असर यह हुआ कि सरकार बनानेवाले दल अब वर्षों की बात नहीं करते. अब वर्षों की बात करने का कोई फायदा भी नहीं है. अब तो सरकार न बनानेवाले भी चुनावों में कहते फिरते हैं; "अगर हमारी सरकार बन गयी तो विदेशी बैंकों में जमा किये गए काले धन को सौ दिन के अन्दर देश में ला पटकेंगे."

ऐसे में जो सरकार बनाएगा वो तो बोलेगा ही कि देश की सारी समस्याओं का हल सौ दिन के भित्तर कर डालेंगे. जनता भले ही कहे कि; "हे आलमपनाह, हमने आप को पूरे पांच साल के लिए चुन लिया है. ऐसे में आप समस्याओं का हल पांच साल में ही निकालिए. सौ दिन में सारी समस्याएं साल्व करने की कोई जल्दी नहीं है. लेकिन हल निकालिएगा ज़रूर."

लेकिन सरकार है कि जिद पर अड़ी है कि; "नहीं, हम तो सौ दिन में सारी समस्याओं को साल्व कर देंगे. तुमको अगर हमारी बात बुरी लगती है तो हम इसके बारे में कुछ नहीं कर सकते. तुम चाहो तो किसी और देश में जाकर बस जाओ. हम तो सारी समस्याओं का खात्मा सौ दिन में ही करेंगे."

बेचारी जनता कर भी क्या सकती है? कहाँ जाकर बसेगी? ऑस्ट्रेलिया में अपने देश वालों की कुटाई चल रही है. बाकी दुनियाँ में और जगह बची कहाँ है जो वहां जाकर बस जाए? ऐसे में और कोई चारा नहीं है. सिवाय इसके कि सरकारी भलमनसाहत को झेले. इसलिए यह सोचकर संतोष कर रही है कि; "जब तुम सौ दिन में ही सबकुछ करने पर उतारू हो तो हम कर ही क्या सकते हैं? वैसे भी जनता की सुनते ही कब हो?"

इस सौ दिन के कार्यक्रम का जायजा भी लिया जाता होगा. पिछले दिनों में मंत्रियों ने जिस तरह से काम करना शुरू किया है उसे देखकर लगता है कि शायद ऐसा कुछ होता होगा;

एकदिन प्रधानमंत्री ने अपने निजी सचिव से पूछा; "भाई, सौ दिनों में सारी समस्याओं का हल निकालने की दिशा में क्या-क्या हुआ है, इसकी जानकारी के लिए मंत्रीगणों की एक मीटिंग बुलाई जाय."

उनकी बात सुनकर सचिव जी बोले; "ठीक कह रहे हैं सर. मार्च महीने के बाद से एक भी मीटिंग नहीं हुई है. सब बहुत उदास हैं. मीटिंग-वीटिंग होती रहती हैं तो मन लगा रहता है."

प्रधानमंत्री जी ने कहा; "तो कल ही एक मीटिंग बुलवाइए. देखें तो कि मंत्रीगण क्या कर रहे हैं सौ दिवसीय कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए."

मीटिंग बुलाई गई. सारे मंत्रीगण आये.

प्रधानमंत्री ने सबसे पहले मानव संसाधन विकास मंत्री से पूछा; "और क्या हाल है जी? सौ दिवसीय कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए आपने क्या किया?"

मंत्री जी बोले; "मिस्टर प्राइममिनिस्टर सर, मैंने घोषणा कर दी है कि हम दसवीं की परीक्षा स्क्रैप करने के बारे में गंभीरता से विचार कर रहे हैं. हमारा मंत्रालय काम कर रहा है इसे साबित करने के लिए इससे बढ़िया और क्या हो सकता है?"

प्रधानमंत्री जी बोले; "सही है. लेकिन आपकी इस घोषणा के ऊपर रिएक्शन कैसा रहा?"

वे बोले; "लगभग सारे न्यूज चैनल पर हंगामा हो गया. सभी चैनल ने पैनल डिस्कशन का आयोजन किया. हमने तो सारे कार्यक्रम की सीडी देखी. मुझे बहुत अच्छा लगा."

प्रधानमंत्री बोले; "आपके मंत्रालय पर हमें नाज है. सौ दिनों में इससे बढ़िया काम और कुछ हो भी नहीं सकता."

उसके बाद वे पेट्रोलियम मिनिस्टर से मुखातिब हुए. बोले; " और जी, क्या हाल हैं? आपके मंत्रालय में क्या हुआ?"

पेट्रोलियम मिनिस्टर बोले; "हाल बढ़िया है सर. हम युद्ध स्तर पर काम कर रहे हैं."

प्रधानमंत्री ने पूछा; "क्या-क्या किया आपके मंत्रालय ने?"

पेट्रोलियम मिन्स्टर बोले; "हमने तो एक दिन कह दिया कि हम पेट्रोलियम प्राइस को डी-रेगुलेट कर देंगे."

प्रधानमंत्री बोले; "एक दिन कुछ कह देने से क्या होगा?"

पेट्रोलियम मिनिस्टर बोले; "पूरी बात तो सुनिए सर. हम दूसरे दिन ही बोल दिए कि हम प्राइस डी-रेगुलेट नहीं कर सकते."

उनकी बात सुनकर प्रधानमंत्री बहुत प्रभावित हुए. बोले; "यह होता है परफॉर्मेंस. सीखिए आपलोग. पेट्रोलियम मिनिस्टर
से सीखिए कुछ. और क्या-क्या करने का सोचा है आपने?"

पेट्रोलियम मिनिस्टर अब तक खुश हो लिए थे. बोले; "अब केवल एक ही काम बाकी रह गया है सर. डीजल और पेट्रोल का दाम बढ़ाना."

प्रधानमंत्री बोले; "अरे तो बाकी क्यों छोड़ना? शुभ कार्य में देरी कैसी?"

पेट्रोलियम मिनिस्टर बोले ; "बस, अब मीटिंग से जाते ही एक प्रेस कांफ्रेंस करता हूँ और दाम बढा देता हूँ."

पेट्रोलियम मिनिस्टर से नज़र हटी तो होम मिनिस्टर दिखाई दिए. प्रधानमंत्री उन्हें देखकर खुश हो गए. खुश होने का कारण था कि होम मिनिस्टर अब फाइनेंस मिनिस्टर नहीं हैं. प्रधानमंत्री ने उनसे पूछा; "और जी होम मिनिस्टर साहब, क्या हाल हैं आपके डिपार्टमेंट के? कैसा चल रहा है सबकुछ?"

होम मिनिस्टर बोले; " हमारी पूरी एनर्जी सौ दिवसीय कार्यक्रम पर लगी है सर. हम अभी उद्घाटन में बिजी हैं. एन एस जी की यूनिटें खोल रहे हैं. मुंबई में उद्घाटन कर चुके है. चेन्नई जाना है. फिर बाकी की जगहें."

प्रधानमन्त्री जी बोले; "लेकिन केवल उद्घाटन करने से क्या होगा? और भी कुछ कीजिये."

होम मिनिस्टर बोले; "और भी तो कर ही रहा हूँ न सर. जहाँ भी उद्घाटन करता हूँ वहीँ पर प्रेस कांफ्रेंस करके तुंरत बता डालता हूँ कि आई बी की रिपोर्ट है कि देश के शहरों पर हमले हो सकते हैं."

उनकी बात सुनकर प्रधानमंत्री बहुत खुश हुए. उनके मन में आया कि इन्हें उसी समय भारत रत्न पुरस्कार दे दें लेकिन वहां पर पुरस्कार देने का माहौल सही नहीं था. प्रोटोकाल गड़बड़ा जाता इसलिए वे मन मारकर रह गए. इधर-उधर देखा तो हेल्थ मिनिस्टर दिखाई दिए. प्रधानमंत्री ने उनसे पूछा; "और जी, आपके मिनिस्ट्री के क्या हाल हैं?"

हेल्थ मिनिस्टर खुश हो गए. उन्होंने कहा; "हम भी वार लेवल पर काम कर रहे हैं."

प्रधानमंत्री ने हेल्थ मिनिस्टर की ख़ुशी का जवाब खुश होकर दिया. उन्होंने खुश होते हुए पूछा; "आपने भी कुछ बयान वगैरह दिया या नहीं अभी तक?"

हेल्थ मिनिस्टर को लगा कि अपने कर्मों का हिसाब तुंरत दिया जाय. वे बोले; "मैंने भी बयान दे दिया है सर."

प्रधानमन्त्री ने पूछा; "क्या बयान दिया आपने?"

हेल्थ मिनिस्टर बोले; "हमने तो कह दिया कि सिनेमा के परदे पर सिगरेट पीते हुए सीन बंद करना ही है तो सबसे पहले बलात्कार के सीन बंद किये जाएँ."

प्रधानमंत्री को लगा कि अब सिनेमा का पर्दा स्वच्छ होकर रहेगा. वे बोले; "वैरी वेल डन. कीप इट अप. हमें अपना पूरा ध्यान सौ दिवसीय कार्यक्रम पर रखना है. हमें दिशाहीन नहीं होना है."

प्रधानमंत्री और हेल्थ मिनिस्टर की बात को दो वेटर सुन नहीं पा रहे थे. एक ने दूसरे से पूछा; "प्राइम मिनिस्टर साहब क्या कह रहे होंगे हेल्थ मिनिस्टर से?"

दूसरा बोला; "अरे हेल्थ मिनिस्टर से और क्या कहेंगे? पूछ रहे होंगे कि नकली दवाईयों की बिक्री कैसे रोकी जा सकती है."

दोनों वेटर ने एक-दूसरे को देखा और हंसने लगे.

उसके बाद रेलमंत्री, खेलमंत्री, शिक्षा मंत्री, सड़क मंत्री, कृषि मंत्री वगैरह मिले. अब तक पूरा वातावरण बन चुका था. प्रधानमंत्री जी के सामने अंतिम पेशी हुई पर्यावरण मंत्री की. प्रधानमंत्री ने उनसे पूछा; "और जी, क्या हाल हैं पर्यावरण के? आपने क्या किया इस प्रोग्राम को सफल बनाने के लिए?"

पर्यावरण मंत्री बोले; "सर, मैंने नॉएडा में बनने वाले मायावती जी के स्टेच्यू प्रोजेक्ट पर नोटिस भेज दिया है."

प्रधानमंत्री जी बोले; "लेकिन अब नोटिस क्यों भेजा गया? ये प्रोजेक्ट तो काफी समय से चल रहा है."

पर्यावरण मंत्री बोले; "वो तो मुझे देखना पड़ेगा सर कि नोटिस अभी क्यों भेजा गया. लेकिन मुझे लग रहा है कि पहले नोटिस इसलिए नहीं भेजा गया क्योंकि जब प्रोजेक्ट शुरू हुआ था, उनदिनों मायावती जी सरकार को समर्थन दे रही थीं."

प्रधानमंत्री बोले; "छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी. अब नोटिस भेजकर प्रोजेक्ट रोकवा दीजिये. अब तो हमारे पास बहुमत है."

मीटिंग ख़तम हो गई. जब सारे मंत्री वगैरह चले गए तो वही दो वेटर मीटिंग को लेकर बातें करने लगे. एक बोला; "अच्छा, मंहगाई को लेकर क्या बात हुई? प्राइम मिनिस्टर साहब ने किसी से कुछ पूछा या नहीं?"

दूसरा बोला; "किससे बात करते? अभी तक मंहगाई मंत्री कौन होगा, यह तय नहीं हुआ है."

नकली दवाइयों की बिक्री और मंहगाई को रोकने का काम भी जल्द ही होना चाहिए. शायद अगली मीटिंग में कुछ फैसला हो जाए.

Tuesday, June 30, 2009

भेज रहा हूँ नेह-निमंत्रण प्रियवर तुम्हें पढ़ाने को




ब्लागिंग करते हैं. एक जगह बैठे-बैठे लिख लेते हैं. वहीँ बैठे-बैठे छाप देते हैं. न तो प्रकाशक के आफिस के चक्कर लगाने की ज़रुरत है और न ही लेख के वापस लौट आने की आशंका. झमेला केवल पाठक ढूढ़ने का है. वो भी करने के लिए कहीं जाने की ज़रुरत नहीं है. मेल में ढेर सारा नाम भरा और सेंड नामक बटन क्लिकिया दिया. कुछ-कुछ वैसा कि;

भेज रहा हूँ नेह-निमंत्रण प्रियवर तुम्हें पढ़ाने को
हे मानस के राजहंस तुम आ जाना टिपियाने को

लेकिन कई महीने से चल रहा मेरा यह प्लान आज सुबह-सुबह मुझे भारी पड़ गया. आज बड़े दिनों बाद लालमुकुंद पधारे. आफिस में आये तो मैं धन्य हो लिया. पाठक अगर ब्लॉगर से मिलने खुद आये तो ब्लॉगर धन्य-गति को प्राप्त होगा ही. मैं भी प्राप्त हुआ. उनके बैठते ही पानी मंगवाया. साथ ही कोल्डड्रिंक्स लाने की व्यवस्था में जुट गया. लेकिन एक बात का आभास हो रहा था. लालमुकुंद मेरी इस व्यवस्था से खीझे जा रहे थे.

कुछ समय के लिए तो उन्होंने खुद को संभाला लेकिन अचानक ज्वालामुखी की तरह फट पड़े. बोले; "तुम कैसे आदमी हो? ठीक है, ब्लागिंग करते हो लेकिन जितनी बार पोस्ट लिखते हो, पढने के लिए मेल क्यों ठेल देते हो?"

उनकी बात सुनकर मुझे कुछ अजीब सा लगा. पता नहीं क्यों लग रहा था कि वे कुछ नाराज हैं. सामने वाला अगर नाराज हो जाए तो तुंरत गंभीर हो जाना श्रेयस्कर रहता रहता है. लिहाजा मैंने भी गंभीरता की मोटी चादर से मुख को ढांपते हुए कहा; " वो तो देखो, एक एक्सरसाइज टाइप है. मुझे लगता है कि तुम मेरे लेखों को बड़ी गंभीरता से पढ़ते हो. टिप्पणी नहीं देते वो एक अलग बात है लेकिन मुझे भरोसा है कि तुम मुझे सुझाव दोगे कि लेख में क्या कमी है. इसी बात के चलते मैं तुम्हें मेल भेज देता हूँ."

यह कहते हुए मेरे मुख पर हल्की सी मुस्कान आ गई. बस, वे तो और बिफर पड़े. बोले; "मैं मजाक के मूड में नहीं हूँ. आज इस तरफ आया था तो सोचा कि तुमसे मिलूँ और इस मुद्दे पर बात करूं. तुम्हें मालूम है, अपनी पोस्ट पढ़वाने के लिए जो मेल भेजते हो, उसका क्या करता हूँ मैं?"

मैंने कहा; "जाहिर है, उस लिंक को क्लिक करके मेरे लेख पढ़ते होगे. आखिर मैं मेल इसीलिए भेजता हूँ कि तुम मेरे लेख पढ़ सको."

मेरी बात सुनकर और बिफर पड़े. बोले; "सीधा डिलीट करता हूँ मैं. तुंरत. पिछले न जाने कितने महीनों से तुमने परेशान करके रखा है मुझे. और केवल तुम्ही नहीं हो. न जाने और कितने भाई-बन्धु हैं तुम्हारे जो ऐसा करते हैं . तुमलोगों को क्या लगता है, तुम्हारे लेख इस तरह से लोग पढेंगे? अगर ऐसा ही है तो क्या ज़रुरत है ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत की?"

मैंने कहा; "ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत की अपनी भूमिका है. लेकिन मेल की भी अपनी भूमिका है. आज ज़रुरत है नेट पर हिंदी को आगे बढाने की. हम हिंदी की सेवा कर रहे हैं. सेवा बिना कष्ट के तो असंभव है."

मेरी बात सुनकर मन ही मन कुछ बुदबुदाए. लगा जैसे कह रहे हों; "हिंदी की सेवा! माय फुट."

मैंने कहा; "लेकिन मेरे लेख तो और लोग पढ़ते हैं. कुछ तो टिप्पणी भी देते हैं. बहुत लोग पसंद करते हैं. ब्लॉगवाणी पर मेरे लेख को ऊपर पहुंचा देते हैं."

मेरी बात सुनकर उन्होंने माथे पर हाथ रख लिया. बोले; "तुमको क्या लगता है? लोग तुम्हारे लेख पर टिप्पणियां देते हैं इसका मतलब क्या निकालते हो तुम?"

मैंने कहा; "इसका मतलब और क्या हो सकता है? लोग मेरे लेख, मेरी कवितायें बहुत पसंद करते हैं. और क्या मतलब हो सकता है इसका?"

वे बोले; "अरे मूढ़मति. दुनियाँ का कुछ पता भी तुम्हें? कौन क्या सोचता है तुम्हारे लेखों के बारे में? जो भी चैट पर मिलता है वो तुम्हारा नाम लेकर यही कहता है कि तुमने उन सब को कितना परेशान कर रखा है. अनूप जी परसों चैट पर मिल गए. बोले शिव कुमार मिश्र ने मेल भेज-भेज कर हालत खराब कर दी है. पोस्ट पब्लिश किये नहीं कि तुंरत मेल भेज दिया. पागल कर दिया है इन्होने."

मैंने कहा; "लेकिन उनकी टिप्पणियों से तो ऐसा नहीं लगता. मेरी एक पोस्ट पर तो उन्होंने "जय हो" भी लिखा था."

वे बोले; "हे भगवान. कुछ नहीं समझाया जा सकता इस आदमी को. तुम्हें मालूम है उन्होंने "जय हो" क्यों लिखा था? इसका कुछ आईडिया है तुम्हें?"

मैंने कहा; "इसका मतलब तो यही होता है कि उन्हें वो लेख बम्फाट लगा होगा."

बोले; "ऐसा कुछ नहीं है. वे तो चाहते थे कि वे "क्षय हो" लिख दें लेकिन "क्षय हो" लिखने लिए टाइम लगता इसलिए उन्होंने "जय हो" लिख डाला. "जय" टाइप करने के लिए केवल तीन 'की' यूज करने की ज़रुरत होती है. वहीँ "क्षय" टाइप करने के लिए पूरे पांच 'की' यूज करना पड़ता है. अब कौन झमेला करे. ऐसे में उन्होंने सोचा होगा कि "जय हो" लिख दो. इसका भी मन रह जाएगा. नहीं तो ऐसा न हो कि ये टंकी पर चढ़ जाए."

मैंने कहा; "लेकिन मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं हो रहा. मैं इसे सही नहीं मानता."

मेरी बात सुनकर बोले; "तुमको जो मानना है वो मानो. लेकिन सच तो यही है कि लोग तुमसे परेशान है. समीर जी से चैट पर बात हो रही थी. वे भी तुमसे परेशान हैं. कह रहे थे कि पता नहीं मुझे भी क्यों मेल भेज देते हैं. मैं तो बिना मेल मिले ही टिप्पणियां करता हूँ. फिर ऐसे में मेल भेजकर परेशान क्यों करते हैं?"

मैंने कहा; "लेकिन समीर भाई से तो मैं कलकत्ते में जब मिला तो उन्होंने तो मुझे इस बात की शिकायत नहीं की."

वे बोले; "ये उनका बड़प्पन है, जिसे तुम अपने लिए शाबासी मान रहे हो. कोई भला आदमी सबकुछ सामने कहकर तुम्हें लताड़े तब तुम्हें समझ में आएगा क्या?"

मैंने कहा; "तो क्या किया जाय? अब से मेल भेजना बंद कर दूँ क्या?"

मेरी बात सुनकर मुझे ऐसी नज़रों से देखा जैसे मेरे अन्दर की बेवकूफी को मीटर टेप लेकर नाप रहे हों. बोले; "तो क्या तब बंद करोगे जब लोग पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट लिखाना शुरू करेंगे? नहीं, बोलो तुम कब बंद करना चाहते हो? तुम्हें पता है, आजकल चिट्ठाकार कौन सा गाना गाते रहते हैं?"

मैंने कहा; "नहीं मालूम. कौन सा गाना गा रहे हैं आजकल चिट्ठाकारगण"

वे बोले; "सब तुम्हारे और तुम्हारे साथियों के मेल से इतना डरने लगे हैं कि सारे एक ही गाना गा रहे हैं; 'ज़रा सी आहट सी होती है तो दिल पूछता है, कहीं ये वो तो नहीं.' सब इतना डरे हुए हैं तुम्हारे मेल देखकर."

समझ में नहीं आया कि क्या कहूँ? मैं सोच ही रहा था कि कुछ कहूँ तब तक वे बोले पड़े; "और बाकी को तो जाने दो. ज्ञान जी ने एक दिन मुझसे कहा कि तुम उन्हें भी मेल भेज देते हो. जब उनका कमेन्ट ब्लाग पर नहीं मिलता तो एस एम एस देकर फिर से बताते हो ताकि वे तुंरत कमेन्ट करें. मुझसे कोई कह रहा था कि तुम ताऊ जी को भी फोन कर देते हो कि एक पोस्ट डाली है, देखिएगा. तुम्हें क्या लगता है? ताऊ जी भी स्टॉक मार्केट वाले हैं तो तुंरत आकर तुम्हें कमेन्ट देंगे? तंग रहते हैं वे भी तुमसे."

लालमुकुंद जी ने इतनी खरी-खोटी सुनाई कि क्या कहूँ? सबकुछ लिखने जाऊँगा तो पोस्ट पंद्रह पेज की हो जायेगी.

इसलिए, मेरी तरह मेल भेजकर पढ़वाने और टिपियाने की एक्सरसाइज करने वाले मित्रों, चलो आज से ही वचन लें कि हम किसी को अब से मेल लिखकर अपनी कविताओं और अपने लेख का लिंक नहीं देंगे. अगर हमारे भाग्य में लिखा ही होगा कि हम परसाई, अज्ञेय, गालिब और दिनकर बनें तो हमें ये सब बनने से कोई नहीं रोक पायेगा. हम बनकर रहेंगे. मेल भेजें या न भेजें.

Monday, June 29, 2009

बजटोत्सव पर निबंध




जैसा कि हम जानते हैं, ये बजट का मौसम है. टीवी न्यूज चैनलों ने अपनी-अपनी औकात के हिसाब से बजट पर आम आदमी, दाम आदमी, माल आदमी, हाल आदमी, बेहाल आदमी वगैरह की डिमांड और सुझाव वगैरह वित्तमंत्री तक पहुंचाने शुरू कर दिए हैं. कोई 'डीयर मिस्टर फाइनेंस मिनिस्टर' के नाम से प्रोग्राम चला रहा है, कोई 'डीयर प्रणब बाबू' तो कोई 'वित्तमंत्री हमारी भी सुनिए' नाम से.

मुझे याद आया, एक आर्थिक संस्था द्बारा साल २००८ में आयोजित किया गया एक कार्यक्रम. 'सिट एंड राइट' नामक इस कार्यक्रम में प्रतियोगियों को बजट के ऊपर निबंध लिखने के लिए उकसाया गया था. पेश है उसी प्रतियोगिता में भाग लेने वाले एक प्रतियोगी का निबंध. सूत्रों के अनुसार चूंकि इस आर्थिक संस्था को सरकारी ग्रांट वगैरह मिलती थी, लिहाजा इस प्रतियोगी के निबंध को रिजेक्ट कर दिया गया था. आप निबंध पढिये.

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बजट एक ऐसे दस्तावेज को कहते हैं, जो सरकार के न होनेवाले इनकम और ज़रुरत से ज्यादा होनेवाले खर्चे का लेखा-जोखा पेश करता है. इसके साथ-साथ बजट को सरकार के वादों की किताब भी माना जा सकता है. एक ऐसी किताब जिसमें लिखे गए वादे कभी पूरे नहीं होते. सरकार बजट इसलिए बनाती है जिससे उसे पता चल सके कि वह कौन-कौन से काम नहीं कर सकती. जब बजट पूरी तरह से तैयार हो जाता है तो सरकार अपनी उपलब्धि पर खुश होती है. इस उपलब्धि पर कि आनेवाले साल में बजट में लिखे गए काम छोड़कर बाकी सब कुछ किया जा सकता हैं.

सरकार का चलना और न चलना उसकी इसी उपलब्धि पर निर्भर करता है. कह सकते हैं कि सरकार है तो बजट है और बजट है तो सरकार है.

सरकार के तमाम कार्यक्रमों में बजट का सबसे ऊंचा स्थान है. बजट बनाना और बजटीय भाषण लिखना भारत सरकार का एक ऐसा कार्यक्रम है जो साल में सिर्फ़ एकबार होता है. सरकार के साथ-साथ जनता भी पूरे साल भर इंतजार करती है तब जाकर एक अदद बजट की प्राप्ति होती है. वित्तमंत्री फरवरी महीने के अन्तिम दिन बजट पेश करते हैं. वैसे जिस वर्ष संसदीय लोकतंत्र की मजबूती जांचने के लिए चुनाव होते हैं, उस वर्ष 'सम्पूर्ण बजट' का मौसम देर से आता है.

भारतीय बजट का इतिहास पढ़ने से हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि पहले बजट की पेशी शाम को पाँच बजे होती थी. बाद में बजट की पेशी का समय बदलकर सुबह के ११ बजे कर दिया गया. ऐसा करने के पीछे मूल कारण ये बताया गया कि अँग्रेजी सरकार पाँच बजे शाम को बजट पेश करती है लिहाजा भारतीय सरकार भी अगर शाम को पाँच बजे बजट पेश करे तो उसके इस कार्यक्रम से अँग्रेजी साम्राज्यवाद की बू आएगी.

कुछ लोगों का मानना है कि बजट सरकार का होता है. वैसे जानकार लोग यह बताते हैं कि बजट पूरी तरह से उसे पढ़ने वाले वित्तमंत्री का होता है. बजट लिखने से ज्यादा महत्वपूर्ण काम बजट में 'कोट' की जाने वाली कविता के सेलेक्शन का होता है. ऐसा इसलिए माना जाता है कि बजट पढ़ने पर तालियों के साथ-साथ कभी-कभी गालियों का महत्वपूर्ण राजनैतिक कार्यक्रम भी चलता है लेकिन बजटीय भाषण के दौरान जब मेहनत करके छांटी गई कविता पढ़ी जाती है तो केवल तालियाँ बजती हैं.

बजट में कोट की जाने वाली कविता किसकी होगी, ये वित्त मंत्री के ऊपर डिपेण्ड करता है. जैसे अगर वित्तमंत्री तमिलनाडु राज्य से होता है तो अक्सर कविता महान कवि थिरु वेल्लूर की होती है. अगर वित्तमंत्री पश्चिम बंगाल का हो तो फिर कविता कविगुरु रबिन्द्रनाथ टैगोर की होती है. लेकिन वित्तमंत्री अगर उत्तर भारत के किसी राज्य या तथाकथित 'काऊ बेल्ट' का होता है तो कविता या शेर किसी भी कवि या शायर से उधार लिया जा सकता है, जैसे दिनकर, गालिब वगैरह वगैरह.

नब्बे के दशक तक बजटीय भाषणों में सिगरेट, साबुन, चाय, माचिस, मिट्टी के तेल, पेट्रोल, डीजल, एक्साईज, सेल्स टैक्स, इन्कम टैक्स, सस्ता, मंहगा जैसे सामाजिक शब्द भारी मात्रा में पाये जाते थे. लेकिन नब्बे के दशक के बाद में पढ़े गए बजटीय भाषणों में आर्थिक सुधार, डॉलर, विदेशी पूँजी, एक्सपोर्ट्स, इम्पोर्ट्स, ऍफ़डीआई, ऍफ़आईआई, फिस्कल डिफीसिट, मुद्रास्फीति, आरबीआई, ऑटो सेक्टर, आईटी सेक्टर, इन्फ्लेशन, बेल-आउट, स्कैम जैसे आर्थिक शब्दों की भरमार रही. ऐसे नए शब्दों के इस्तेमाल करके विदेशियों और देश की जनता को विश्वास दिलाया जाता है कि भारत में बजट अब एक आर्थिक कार्यक्रम के रूप में स्थापित हो रहा है.

वैसे तो लोगों का मानना है कि बजट बनाने में पूरी की पूरी भूमिका वित्तमंत्री और उनके सलाहकारों की होती है लेकिन जानकारों का मानना है कि ये बात सच नहीं है. जानकार बताते हैं कि बजट के तीन-चार महीने पहले से ही औद्योगिक घराने और अलग-अलग उद्योगों के प्रतिनिधि 'गिरोह' बनाकर वित्तमंत्री से मिलते हैं जिससे उनपर दबाव बनाकर अपने हिसाब से बजट बनवाया जा सके.

जानकारों की इस बात में सच्चाई है, ऐसा कई बार बजटीय भाषण सुनने से और तमाम क्षेत्रों में भारी मात्रा में दी जाने वाली छूट और लूट वगैरह को देखकर पता चलता है. कुछ जानकारों का यह मानना भी है कि सरकार ने कई बार बजट निर्माण के कार्य का निजीकरण करने के बारे में भी विचार किया था लेकिन सरकार को समर्थन देनेवाली पार्टियों के विरोध पर सरकार ने ये विचार त्याग दिए.

बजट का भाषण कैसे लिखा जाए, यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि कौन से पंथ पर चलने वाले सरकार को समर्थन दे रहे हैं. जैसे अगर सरकार को वामपंथियों से समर्थन मिलता है तो निजीकरण, सुधार जैसे शब्द भारी मात्रा में नहीं पाए जाते. उस स्थिति में सुधार की जगह उधार जैसे शब्द ले लेते हैं. वहीँ, अगर सरकार को समर्थन की ज़रुरत न पड़े तो फिर वो जो चाहे, जहाँ चाहे वैसे शब्द सुविधानुसार लिख लेती है.

बजट के मौसम में सामाजिक और राजनैतिक बदलाव भारी मात्रा में परिलक्षित होते हैं. 'बजटोत्सव' के कुछ दिन पहले से ही वित्तमंत्री के पुतले की बिक्री बढ़ जाती है. ऐसे पुतले बजट प्रस्तुति के बाद जलाने के काम आते हैं. कुछ राज्यों में 'सरकार' के पुतले जलाने का कार्यक्रम भी होता है. पिछले सालों में सरकार के वित्त सलाहकारों ने इन पुतलों की मैन्यूफैक्चरिंग पर इक्साईज ड्यूटी बढ़ाने पर विचार भी किया था लेकिन मामले को यह कहकर टाल दिया गया कि इस सेक्टर में चूंकि छोटे उद्योग हैं तो उन्हें सरकारी छूट का लाभ मिलना अति आवश्यक है.

पुतले जलाने के अलावा कई राज्यों में बंद और रास्ता रोको का राजनैतिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होता है. बजट का उपयोग सरकार को समर्थन देने वाली राजनैतिक पार्टियों द्वारा समर्थन वापस लेने की धमकी देने में भी किया जाता है.

बजट प्रस्तुति के बाद पुतले जलाने, रास्ता रोकने और बंद करने के कार्यक्रमों के अलावा एक और कार्यक्रम होता है जिसे बजट के 'टीवीय विमर्श' के नाम से जाना जाता है. ऐसे विमर्श में टीवी पर बैठे पत्रकार और उद्योगपति बजट देखकर वित्तमंत्री को नम्बर देने का सांस्कृतिक कार्यक्रम चलाते हैं. देश में लोकतंत्र है, इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण बजट के दिन देखने को मिलता है. एक ही बजट पर तमाम उद्योगपति और जानकार वित्तमंत्री को दो से लेकर दस नम्बर तक देते हैं. लोकतंत्र पूरी तरह से मजबूत है, इस बात को दर्शाने के लिए ऐसे कार्यक्रमों में बीच-बीच में 'आम आदमी' का वक्तव्य भी दिखाया जाता है.

भारतीय सरकार के बजटोत्सव कार्यक्रम पर रिसर्च करने के बाद हाल ही में कुछ विदेशी विश्वविद्यालयों ने अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में भारतीय बजट के नाम से एक नया अध्याय जोड़ने पर विमर्श शुरू कर दिया है. कुछ विश्वविद्यालयों का मानना है; 'अगर भारत सरकार के बजट को पाठ्यक्रम में रखा जाय तो न सिर्फ अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों को लाभ मिलेगा अपितु राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थी भी लाभान्वित होंगे.'

आशा है भारतीय सरकार के बजट की पढ़ाई एकदिन पूरी दुनियाँ में कम्पलसरी हो जायेगी. भारतीय बजट दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की करेगा.

जय हिंद का बजट