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Saturday, December 15, 2007

भारतीय चुनाव = चुन+नाव


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नोट: यह निबंध एक ऐसे छात्र ने लिखा है, जो पहले केवल अलोक पुराणिक जी के लिए निबंध लिखता था लेकिन बाद में इस छात्र ने निबंध-लेखन की अपनी ख़ुद की कम्पनी खोली और अब यूरोप और अमेरिका में रहने वाले शिक्षकों और छात्रों के लिए भारतीय मुद्दों पर निबंध-लेखन की केपीओ (नॉलेज प्रॉसेस आउटसोर्सिंग) सर्विस देता है. आप निबंध पढ़ें:

भारत चुनावों का देश है. पहले ये किसानों का देश भी था लेकिन कालांतर में परिवर्तन हुआ और ये पूरी तरह से नेताओं का देश होते हुए चुनावों का देश बन बैठा. जिन्हें चुनाव शब्द के बारे में नहीं पता, उनकी जानकारी के लिए बताया जाता है कि चुनाव शब्द दो शब्दों को मिलाकर बना है, चुन और नाव. चुनाव की प्रक्रिया के तहत जनता एक ऐसे नेता रुपी नाव को चुनती है जो जनता को वैतरणी पार करा सके. (चुनाव शब्द के बारे में मेरा ज्ञान इतना ही है. इस शब्द के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए पाठकों को अग्रिम अर्जी देने की जरूरत है जिससे प्रसिद्ध शब्द-शास्त्री श्री अजित वडनेकर की सेवा ली जा सके. ऐसी सेवा की फीस एक्स्ट्रा ली जायेगी.)


नब्बे के दशक तक जनता केवल नेताओं का चुनाव करती थी जिससे उन्हें शासक बनाया जा सके. लेकिन जनता को इस बात का भान भी नहीं था कि वोट देने की उनकी क्षमता में आए निखार के साथ-साथ टैक्स और मंहगाई की मार सहने की उसकी बढ़ती क्षमता पर टीवी सीरियल बनाने वालों की भी नज़र थी.


भारत में चुनावों का इतिहास पुराना है. वैसे तो हर चीज का इतिहास पुराना ही होता है लेकिन चुनावों के बारे में बिल्कुल ही पुराना है. देश में पहले जब राजाओं और सम्राटों का राज था, उस समय भी चुनाव होते थे. राजा और सम्राट लोग शासक के रूप में अपने पुत्रों का चुनाव कर डालते थे. ऐसी चुनावी प्रक्रिया में जनता का कोई रोल नहीं होता था. देश को जब आजादी नहीं मिली थी और अंग्रेजी शासन था, उस समय भी चुनाव होते थे. तत्कालीन नेता अपने कर्मों से अपना चुनाव ख़ुद ही कर लेते थे. देश को आजादी मिलने का परिणाम ये हुआ कि जनता को भी चुनावी प्रक्रिया में हिस्सेदारी का मौका मिलने लगा. नेता और जनता, दोनों आजाद हो गए. जनता को वोट देने की आजादी मिली और नेता को वोट लेने की. वोट लेने और देने की इसी प्रक्रिया का नाम चुनाव है जो लोकतंत्र के स्टेटस को मेंटेन करने के काम आता है. सन् १९५० से शुरू हुआ ये राजनैतिक कार्यक्रम कालांतर में सांस्कृतिक कार्यक्रम के रूप में स्थापित हुआ.

सत्तर के दशक के मध्य तक भारत में चुनाव हर पाँच साल पर होते थे. उस समय जनता को चुनावों का बेसब्री से इंतजार करते देखा जाता था. पाँच साल के बाद हुए चुनाव जब ख़त्म हो जाते थे तब जनता दुखी हो जाती थी. कालांतर में नेताओं को लगा कि पाँच साल में एक बार चुनाव न तो देश के हित में थे और न ही जनता के हित में. पाँच साल में केवल एक बार वोट देकर दुखी होने वाली जनता को सुख देने का एक ही तरीका था कि चुनावों की फ्रीक्वेंसी बढ़ा दी जाय. ऐसी सोच का नतीजा ये हुआ कि नेताओं ने प्लान करके सरकारों को गिराना शुरू किया जिससे चुनाव बिना रोक-टोक होते रहें. नतीजतन जनता को न सिर्फ़ केन्द्र में बल्कि प्रदेशों में भी गिरी हुई सरकारों के दर्शन हुए.

नब्बे के दशक तक जनता केवल नेताओं का चुनाव करती थी जिससे उन्हें शासक बनाया जा सके. लेकिन जनता को इस बात का भान भी नहीं था कि वोट देने की उनकी क्षमता में आए निखार के साथ-साथ टैक्स और मंहगाई की मार सहने की उसकी बढ़ती क्षमता पर टीवी सीरियल बनाने वालों की भी नज़र थी. इन लोगों ने जनता को इंडियन आइडल, स्टार वायस ऑफ़ इंडिया और नन्हें उस्तादों के चुनाव का भी भार दे डाला. नतीजा ये हुआ कि जिस जनता का वोट पाने के लिए नेता लोग पैसे, शराब और बार-बालाओं के नाच वगैरह का लालच देते थे, उसी जनता को ऐसे प्रोग्राम बनाने वालों ने उन्ही का पैसा खर्चकर वोट देने को मजबूर कर दिया. नतीजतन जनता वोट देकर और पैसे खर्च कर खुश रहने लगी.

भारतीय चुनावों को देश और विदेशों में भी काफी ख्यात-प्राप्ति हो चुकी है. लोकतंत्र और राजनीति के कुछ देशी विशेषज्ञों का मानना है कि देश की मजबूती के लिए चुनाव होते रहने चाहिए. हाल ही में कुछ मौसम-शास्त्रियों ने गर्मी, वर्षा, और सर्दी के साथ-साथ चुनावों के मौसम को एक नए मौसम के रूप में स्वीकार कर लिया है. टीवी न्यूज़ चैनल वालों ने चुनावों को जंग और संग्राम के पर्यायवाची शब्द के रूप में स्वीकार कर लिया है. कुछ न्यूज़ चैनलों ने चुनावों को महासंग्राम तक कहना शुरू कर दिया है. स्वीडेन में नाव बनाने वाली एक कंपनी ने 'भारतीय चुनाव' ब्रांड से एक नई नाव बाज़ार में उतारा है. चुनावों की लोकप्रियता और बढ़ते बाज़ार को देखते हुए देश के बड़े औद्योगिक घरानों ने 'चुनावी विशेषज्ञ' बनाने के लिए एस ई जेड खोलने का प्रस्ताव रखा है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारतीय चुनाव दुनियाँ का सर्वश्रेष्ठ चुनाव है.

17 comments:

  1. चुनावी विशेषज्ञ के लिये आप अप्लाई कर दें न!

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  2. बहुत खूब ! वाह शिव भईया आपने एक सिद्धस्‍थ व्‍यंगकार की तरह लिखा है । सचमुच मजा आ गया । मैं हल्‍के फुल्‍के में नही ले रहा हूं इसे, वाकई आपने बहुत बढिया लिखा है ।

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  3. अद्भुत व्यंग्य है. तुम्हारी लेखनी तो दिनों दिन सशक्त हो रही है.
    खास बात ये है कि हर लेख अपने आप मे एक ताजगी और नयापन लिए रहता है.
    बहुत बहुत बधाई.
    शुक्ल जी का प्रस्ताव विचारनीय है.

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  4. घांसू है जी।
    ये हमारा बच्चा कहां है, फौरन बताया जाये
    हम उसकू अपनी कंपनी में वापस लायेंगेजी।
    ऐसे ऐसे काबिल छात्र छ़ो़ड़कर चले गये, तो अगड़म बगड़म कंपनी फेल हो जायेगी।
    लौटती ईमेल से हमरे छात्र का पता प्रेषित करें।

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  5. नही गुरूजी मैने शिवकुमार जी को कोई लेखलिख कर नही दिया..ये तो बिना इजाजत मेरी प्रसिद्धी को प्रयोग कर रहे है..

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  6. मारू च काटू टाइप है जी यह तो. मजा आ गया.

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  7. बड़ा कातिल टाइप का कुछ है. हासू-फँसू-वाँसू च तमाम वाहू वाहू वाला है. कुल मिला कर कमाल लिखा है.

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  8. जबरजस्त!!
    बहुत बढ़िया लिखा है!!
    बधाई!

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  9. भारतीय जनता है - इस नाव से उस नाव पर चढ़ने को चुनने में टाइम खोटा करती रहती है। यह बहुत सशक्तता से प्रकटित कर दिया - आपने और टीवी वालों ने। दोनो ही आभार के पात्र हैं!

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  10. आपकी चुनावी पोस्ट को हम अपनी आज की पसंद में चुनते हैं....उस बच्चे को आलोक जी से बचाइए....और खूब लिखवाइए....

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  11. अद्भुत है साहेब । आप सिद्धहस्त व्यंग्यकार हैं। आपके बालक को पुराणिक जी की दोबारा हवा न लगने देना क्यों कि पुराणिक जी छायावादी व्यंग्य लेखन में उलझे हुए हैं जो दुरूह विधा मानी जाती है। आपका बच्चा उनकी छाया से हटकर बिंदास लिखने लगा है।
    उसने तो अपनी कंपनी खोल ली और आपने हमारी फीस भी तय कर दी ? हमें खबर ही नहीं..... खैर प्यार मुहब्बत में जो आप देंगे , सब कुबूल है।

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  12. चुनाव जनता और नेता की वह नाव है जिनमें दोनो को काफी मजा आता है।

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  13. वाह शिव भाई…आप की कलम दिन दूनी रात चौगुनी पैनी होती जा रही है। आलोक जी का सिहांसन डोल रहा है। आलोक जी जल्दी से उस बच्चे को वापस अपने खेमे में ले लिजिए जी नहीं तो कलकत्ता के व्यंग की दुनिया की राजधानी बनने के आसार नजर आ रहे हैं।

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  14. बहुत अच्छा लिखा है बंधू...अच्छा क्या कमाल का लिखा है जनाब. अब जनता नेता रुपी नाव में बैठ तो जाती है लेकिन नाव चलेगी किसमें? पानी तो न नदी में है और ना ही आँख में. इसलिए नेता बैठे बैठे चप्पू चलाने का नाटक करते रहते हैं और जनता जहाँ हैं वहीं बैठी रह जाती है....
    नीरज

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  15. भाई बाकि सब तो ठीक है.. लेकिन अलोक पुराणिक जी के साथ ऐसा नही होना चाहिए. उनके साथ हमको पुरी सहानुभूति है.
    व्यंग्य वाकई में कमाल का है शिव जी ...

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  16. बहुत बढिया लिखा है भाई. मजा आ गया. वैसे एक बताऊँ, अगर इतिहास लिखने वालों पर भरोसा किया जा सके तो सच यह है कि लोकतंत्र की शुरुआत भारत में ही हुई है. इस तरह से तो यह भी मानना पड़ेगा कि चुनावों की शुरुआत भी यहीं से हुई है.

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  17. भाईयो इस बच्चे को सम्भाल कर रखे, अलोक पुराणिक जी से, इतना कीमती हीरा, कहते हे ना **होन हार विरवान के होत हे चिकने काज** भाई पहले लेख ने ही धुम मचा दी, सच मे हमे भी इस चुनाव का अर्थ मालुम हो गया. धन्यवाद

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय