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Monday, May 12, 2008

वे ज़माने का रंग देख रहे हैं


@mishrashiv I'm reading: वे ज़माने का रंग देख रहे हैंTweet this (ट्वीट करें)!

कल शाम को मिल गए. मैंने पूछा; "क्या कर रहे हैं?"

बोले; "ज़माने का रंग देख रहा हूँ."

मैंने पूछा; "कैसा लगा?"

बोले; "अभी तो देख रहा हूँ. अब देखना पूरा होवे तब बताएं कि कैसा लगा."

मैंने कहा; "पिछली बार भी मिले थे तो यही कहे थे कि ज़माने का रंग देख रहे हैं. इतना दिन हो गया, आपका देखना पूरा नहीं हुआ. इसका मतलब फालतू में लोग कहते हैं कि जमाना बदरंग हो गया."

बोले; " जो कहता है कि जमाना बदरंग हो गया वो चिरकुट है. कितना-कितना रंग फैला है ज़माने में."

मैंने पूछा; "कोई खास रंग पसंद आया?"

बोले; "लाल. वैसे तो सालों से पसंद है लेकिन गर्मी आ गई न इसलिए आंखों को लगता है. चौधिया देता है. लेकिन पुराना इश्क है लाल से, तो छोड़ने की इच्छा भी नहीं होती."

मैंने कहा; " जे बात भी ठीक है. पुराना इश्क कैसे छूटेगा?"

बोले; "नहीं ऐसी बात नहीं है. कभी मन हरा में लग भी जाए तो दिमाग चेता देता है कि पुराना इश्क अभी तक मन के किसी कोने में घर बनाये बैठा है."

मैंने कहा; "हाँ वो भी ठीक बात है. इश्क और वो भी पुराना, उसका मजा ही कुछ और है. नहीं?"

बोले; "तुमको इश्क में मजा दिख रहा है. इधर हम हैं कि उसी से परेशान है."

मैंने कहा; "अरे इसमें परेशानी किस बात की? थोड़ा-बहुत तो मजा देता ही है."

बोले; " क्या ख़ाक मजा देगा. अब वो जमाना चला गया जब इश्क मजा देता था. अब जमाने का रंग बदल रहा है. अब क्या चीज कब और कहाँ मजा दे दे, कोई नहीं जानता."

मैंने कहा; "अच्छा! ऐसा कुछ दिखा क्या?"

बोले; "हाँ दिखा न. समंदर. कल देख रहे थे. लाल से निगाह हटाकर समंदर देखा. देखने में अच्छा लगा, नीला. लेकिन देखते-देखते अचानक किसी ने समंदर में पत्थर मार दिया. उसी नीला में मिट्टी उभर कर आ गया."

"अरे, ये तो बुरा हुआ. वैसे थोड़ा इश्क तो आपको मिट्टी वाले रंग से भी है. नहीं?"; मैंने उनसे कहा.

बोले; "असल में मिट्टी से इश्क है. अब मिट्टी अपने रंग की हो या फिर लाल रंग की. इश्क तो मिट्टी से है."

मैंने पूछा; "पिछली बार मिट्टी के दर्शन कब हुए थे?"

बोले; "वही कल. वो समंदर में मिट्टी घुलते हुए देखा था न."

मैंने पूछा; "मैं उस मिट्टी की बात कर रहा हूँ, जिससे आपको इश्क है. वो असली वाली मिट्टी."

बोले; "याद नहीं है. लेकिन इतना पता है कि मिट्टी से अभी तक जुड़े हैं."

मैंने पूछा; "लेकिन आप तो बता रहे हैं कि याद नहीं है. फिर मिट्टी से जुड़े हुए हैं, इसका पता कैसे चलता है?"

बोले; "लोग बाग़ बता जाते हैं. बीच-बीच में ख़ुद का लिखा हुआ है, उसको पढ़ लेता हूँ."

मैंने कहा; "ओह, अच्छा-अच्छा. सही बात है. लिखने का फायदा तो है. कम से कम याद तो रहता है कि मिट्टी से जुड़े हुए हैं."

बोले; "इसीलिए तो कहता हूँ कि असली इश्क मिट्टी से करना है. मिट्टी लाल हो चाहे काली."

मैंने कहा; "एक दम ठीक कह रहे हैं. मैं भी मिट्टी से जुड़ने की कोशिश करता हूँ."

14 comments:

  1. sahi hai shiv jee!lekin lagta hai vyangya thoda kachcha rah gaya.

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  2. आप पिछ्ली चार पोस्टों से गजब ढा रहे हैं.हम पढ़ रहे हैं.

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  3. रंग सही जम रहा है. जमाये रहिये. थोड़ा और चटकीला हो तो और भी बढ़िया होगा.

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  4. आप पक्के साहित्यकार हो गये है, पता ही नहीं चलता तीर कहाँ कहाँ मार रहे है, बिना समझे वाह वाह करना पड़ेगा क्या? मूर्ख कौन कहलाये भाई.


    वर्मा को लपेटा है क्या?

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  5. आप ने तो ऐसा लिखा है कि जिस को चाहो लपेट लो। लगता है व्यंग भी छायावादी हो रहा है।

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  6. बंधू
    क्या है साहित्य आप ने भी पढ़ा है और हमने भी...लेकिन जहाँ आप ने दिनकर जी, निराला जी,महादेवी जी को पढ़ा वहीं हमने काका हाथरसी, हुल्लड़ मुरादाबादी और विश्वनाथ विमलेश से काम चलाया. याने हमने उनको पढ़ा जो रात को रात और दिन को दिन कहते थे. उनके द्वारा वर्णित रात को दिन नहीं समझा जा सकता था जबकि आप के लेखक जब रात लिखते तो पता नहीं चलता की वो दिन का pryaay वाची लिख रहे हैं या विलोम शब्द लिख रहे हैं या कुछ इसके बीच का लिख रहे हैं. इस से क्या हुआ की हम रेल की पटरियों की तरह सहियता के सफर में साथ भी हैं और अलग भी. छायावाद को आगे न बढाते हुए मेरा कहना ये है की आप जिस लाल रंग की बात कर रहे हैं उसे हम कम्युनिष्ट वाला लाल माने या राजेश खन्ना द्वारा गए "ये लाल राग कब हमें छोडेगा" वाला लाल माने?ऐसे ही हरा रंग हमें घास की याद दिलाता है और आप इसे किस से रिलेट कर रहे हें पता नही चलता, इसी तरह हम नीले रंग के इशारे को भी नहीं समझे...आप आकाश की बात कर रहे हैं या मायावती जी के हाथी की....जब तक आप साफ साफ नहीं लिखेंगे तब तक हमारी सीधी सरल बुद्धि उलझी ही रहेगी.
    क्षमा करें हमें अपनी अल्प बुद्धि पर तरस भी आता है और गर्व भी (छाया वादी बात है ये).
    नीरज

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  7. तरस तो मैं भी खा रहा हूँ नीरज बाबू की तरह अपनी बुद्धि पर. अगर नीचे एक लाईन का संदर्भ लिखा रहता तो शायद कुछ काम बनता. आपने लिखा है तो होगी तो कोई गजब बात ही. :)

    ———————————–
    आप हिन्दी में लिखते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है.
    एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.

    यह एक अभियान है.इस संदेश को अधिकाधिक प्रसार देकर आप भी इस अभियान का हिस्सा बनें.


    शुभकामनाऐं.
    समीर लाल
    (उड़न तश्तरी)

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  8. देखिए, लाल के आपके ऐसे हलाल से लोगों को कैसी तक़लीफ़ हो रही है. ऐसी ताली अच्‍छी है? लाल की लंगी में खुद की बेहाली? अच्‍छी?

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  9. Bhai,thodi hadbadi me likh gaye kya?kuch adhoora adhoora sa lag raha hai lekh.Ekdam theek theek puri baat palle nahi padi.Please ek baar lekh ka aashay spasht kar dete to bada achcha rahta.

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  10. बड़ी लाली है पोस्ट में. लेकिन समझ में नहीं आया कुछ.
    लेकिन हम वाह वाह किए जाते हैं नहीं तो बेवकूफ समझोगे मुझे.

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  11. तीन दिन से ये मिट्टी हमारे लैप-टाप पर पड़ी रही। आज निहार पाये कायदे से। सुन्दर रंग है। जुड़े रहें।

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  12. हम तो राजेश खाना वाले लाल या आसमान वाले नीले के साथ हैं - मिट्टी में खेलने के लिए हाफ पैंट नहीं है - गज़ब

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय