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Wednesday, May 21, 2008

सुमू दा


@mishrashiv I'm reading: सुमू दाTweet this (ट्वीट करें)!

उम्र पचास-बावन के आस-पास होगी. सिर पर ढेर सारे कच्चे-पक्के बाल. बुद्धिजीवियों वाली दाढ़ी के मालिक. कुर्ता खद्दर वाला. कुर्ते के साथ ज्यादातर जींस धारण करते हैं. कुर्ते और जींस में देखकर लगता है जैसे समाज को याद दिला रहे हों; "मैं ऐसा ही हूँ. स्थापित मान्याताओं को पूरी तरह से ध्वंस करने वाला. फिर वो चाहे कपड़े धारण करने की विशेष प्रक्रिया से हो या फिर दाढ़ी रखने से". सुमन नाम है. इनके 'लड़के' इन्हें सुमू दा कहकर पुकारते हैं. करीब डेढ़ सौ 'लड़को' की फौज है इनकी. लोग बताते हैं कि सत्तर के दशक में फुलटाइम नक्सली थे. पुलिस इनकी तलाश में रहती थी. उन दिनों राज्य के मुख्यमंत्री इनसे डरते थे. उन दिनों लाकअप में धुनाई के किस्से मुहल्ले के क्लब द्वारा प्रकाशित की जाने वाली पत्रिका में अभी भी लिखते हैं. शायद अपने 'लड़कों' को प्रेरणा देने के लिए.

खूब पढ़ाई की है. सेमिनार वगैरह आयोजित करने का का काम बखूबी जानते हैं. सेमिनार के मोशन के लिए हेडलाइन लिखने में महारत हासिल है. इलाके की दीवारों पर नारे लिखकर साम्राज्यवाद का नाश इन्ही की देख-रेख में होता है. बात करते हैं तो लगता है कविता कह रहे हों. क्लब क्या होता है और उसके सहारे साम्यवाद कैसे लाया जाता है, इलाके के लोगों को इन्होने ही बताया. ज्यादातर क्लब में बैठे रहते हैं और वहाँ रखे कैरमबोर्ड से बतियाते रहते हैं. नारे लिखने में माहिर. लोग बताते हैं इनके लिखे नारे सोवियत रूस तक पढ़े जाते थे. विश्व साहित्य पर बड़ी जोरदार पकड़ है. जब क्रांतिकारी साहित्य की बात करते हैं तो लगता है जैसे तमाम क्रांतिकारी लेखकों और कवियों लिखा हुआ इन्होने डायरेक्ट पाण्डुलिपि से पढ़ लिया था. तकरीरों में भाषा के इस्तेमाल को लेकर घंटो बहस कर सकते हैं. लेनिन ने २१ अक्टूबर, १९२० को चार बजकर बीस मिनट पर किससे क्या कहा था, इन्हें जुबानी याद है. कुल मिलाकर युवा क्रांतिकारियों को कंट्रोल करने वाले 'अनुभवी' क्रांतिकारी.

लेकिन उनका ये चेहरा दिखाने के लिए है. डराने के लिए एक और चेहरा है इनके पास. अपने दिखाने वाले चेहरे का मुखौटा अक्सर बायीं जेब में रखते हैं. जरूरत पड़ने पर निकाल कर पहन लेते हैं. ऐसा नहीं है की जरूरत कभी-कभी पड़ती है. चुनाव न भी हों तो भी पाड़ा (मोहल्ला) में 'गरीबों' के उत्थान के लिए या फिर दुर्गा पूजा के लिए चंदा इकठ्ठा करते हुए कई बार इनके डराने वाले चेहरे को देखा जा सकता है. साथ में आम आदमी के डरे हुए चेहरे को भी. जो इन्हें जानते हैं वे इनसे डरते हैं. सबको इस बात की चिंता रहती है कि बात करते-करते पता नहीं कब मुंह से कविता की सप्लाई बंद हो जाए और गाली की सप्लाई शुरू हो जाए. नुक्कड़ सभाओं में कई बार विपक्षियों की आलोचना करते-करते थक जाते हैं तो गाली-फक्कड़ शुरू कर देते हैं. जानकार बताते हैं कि पाँच-सात साल में एमएलए पद के उम्मीदवार साबित हो सकते हैं.

आज सुबह मिल गए. मैंने पूछा; "सुमन दा, कैसे हैं? पिछले दस दिनों से दिखाई नहीं दिए. क्लब में भी नहीं दिखे. कहीं गए थे क्या?"

बोले; "हाँ हाँ. पंचायत इलेक्शन था न. हमारा ड्यूटी इस बार बहरमपुर में था. हम अपना लड़का लोगों के साथ उधर ही था. इसलिए दिखाई नहीं दिया. तुम कैसा है?"

मैंने कहा; "मैं ठीक हूँ."

इतना कहकर मैं चल दिया. उनकी बात सुनकर मुझे याद आया कि रविवार को बहरमपुर में पंचायत चुनावों के दौरान हुई हिंसा में बीस लोग मारे गए.

चलते-चलते

ऐसा बहुत कम होता है कि मंत्री और नेता दुखी हो जाएँ. और ऐसे मंत्री जिनकी पार्टी तीस सालों से शासन में दही की तरह जम जाए, उसके दुखी होने का क्या कारण हो सकता है? लेकिन हमारे प्रदेश की सरकार के एक मंत्री श्री क्षिति गोस्वामी हाल में ही बहुत दुखी दिखाई दिए. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अपने दुःख के बारे में बताया. गोस्वामी जी इस बात से दुखी थे कि उनकी पार्टी, आर एस पी के कार्यकर्ताओं के पास पंचायत चुनावों में इस्तेमाल के लिए केवल हाथ से बनाए गए बम हैं. जब कि सरकार में सबसे बड़ी पार्टी सी पी आई (एम) के कार्यकर्ताओं के पास लाईट मशीनगन, पिस्तौल, रिवाल्वर वगैरह हैं. उनकी इस बात को सुनकर मेरा क्या मानना है वो मैं आपको बताता चलूँ.

मुझे लगा तीस साल तक शासन में रहकर ये साम्यवादी जब चुनावों के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले हथियारों के मामले में साम्यवाद नहीं ला सके तो समाज में साम्यवाद कैसे ले आयेंगे? दिल्ली दूर लग रही है. नहीं?

आज से ठीक एक साल पहले मैंने अपने ब्लॉग पर पहली पोस्ट लिखी थी. एक साल हो गए जब मैंने ये सोचकर लिखना शुरू किया था कि देवनागरी कंप्यूटर पर लिखना कठिन है तो क्या हुआ, मैं रोमनागरी में ही लिखूंगा. लिखते-लिखते एक साल बीत गया. एक साल तक मुझे झेलने के लिए सभी मित्रों को नमन.

13 comments:

  1. सालगिरह मुबारक हो ! सुमु दा ने चाय पीने-पिलाने की जिद करी या नही ? सौ लडके वाले फ्री चाय पावक की श्रेणी मे आते हैं .वैसे आपकी ये पंक्ति सूमो दा है
    "इलाके की दीवारों पर नारे लिखकर साम्राज्यवाद का नाश इन्ही की देख-रेख में होता है. "

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  2. ब्लॉग की वर्षगाँठ मुबारक हो। क्या सीपीएम अब भी वामपंथी है?

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  3. मुबारकां, अगर इसे झेलना ही कहेंगे तो हम आपको और झेलते रहने के लिए तैयार हैं।

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  4. सालगिरह मुबारक यूं तो वामपंथियों से बहुत ज्यादा प्रभावित नही रहा हूँ....पर आपके ये शख्स दिलचस्प आदमी लगते है....

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  5. की बोलबो ! सुमू दा'र स्केच टा दारुण भाबे रियलिस्टिक आछे . चमत्कार लिखेछेन !

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  6. एक साल! बहुत यादें हैं मेरी भी। और अब ब्लॉग विशुद्ध "शिवकुमार मिश्र का ब्लॉग" कर दिया जाये?

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  7. वाह! वाह! वाह!
    ऐसा कमाल का लिखेंगे तो कैसे ना पढ़े जायेंगे सबसे ज्यादा?

    वैसे सुमु दा के लिए बुरी ख़बर है. ग्राम पंचायत चुनावों में उनकी पार्टी नंदीग्राम और सिंगूर में बुरी तरह हारी है. ग्रामीणों को उनकी स्टायल का साम्यवाद पसंद नहीं आया.

    वर्षगाँठ की शुभकामनाएं. इसे ही धूम मचाये रहिये. कृपया!

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  8. वाह जी पहली वर्षगांठ की बहुत बहुत बधाई. ऐसे ही छाये रहिये, अनेकों शुभकामनाऐं.

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  9. वाह जी पहली वर्षगांठ की बहुत बहुत बधाई. ऐसे ही छाये रहिये, अनेकों शुभकामनाऐं.

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  10. एक साल पूरा करने पर बधाई । चरैवति चरैवती के तर्ज पर कहती हूँ लिखते रहिये लिखते रहिये । तभी तो पढे जायेंगे ।

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  11. वर्षगांठ की शुभकामनाएं .......
    वैसे आपके सुमुदा की प्रजाति के लोग अमूमन हर प्रदेश में पाए जाते हैं.
    लेकिन ये साम्यवाद वाली बात सचमुच सोचने वाली है कि - "तीस साल तक शासन में रहकर ये साम्यवादी जब चुनावों के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले हथियारों के मामले में साम्यवाद नहीं ला सके तो समाज में साम्यवाद कैसे ले आयेंगे?"..... :D

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  12. तुम्हें ब्लॉग लिखते केवल एक साल हुआ अभी.
    सन्डे को जब घर आऊँगा तो सुमू दा को बता दूँगा
    तुमने जो भी लिखा है उनके बारे में.

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  13. बंधू
    क्या बात है? एक साल हो गया आप को ब्लॉग पर..कमाल है लगता है जैसे कल की ही बात हो...एक साल में आपने जो हासिल किया है वो किसी के लिए भी इर्षा का विषय हो सकता है (किसी से मेरा मतलब और किसी से नहीं ख़ुद से है).सोचा था भाई मेरा एक आध पोस्ट लिख कर सटक लेगा लेकिन आप तो अंगद के पाँव की तरह ऐसा जमें है की हिलने का नाम ही नहीं लेते...हम भी रावण की तरह अब हार मान बैठे हैं. आप को पढ़ना अपनी नियति मान बैठे हैं...और नियति को भला कौन टाल सका है?
    सुमु दा को प्रणाम. कभी जयपुर का भी रास्ता दिखईये न उनको.
    नीरज

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय