सुदर्शन मेरे मित्र हैं. पढ़ाते हैं. जब पढ़ते थे तो लिखते भी थे. कल कह रहे थे; "जल्दी-जल्दी बुजुर्ग होने की चाहत कभी-कभी बचपना करवा देती थी." आजकल नहीं लिखते. समय न मिलने की शिकायत है. समय के अभाव की बात होती है तो एक शेर टांक देते हैं. कहते हैं;
आसमाँ गर्दिश में था तो पुरशुकूं थी ज़िन्दगी
जब से घूमी है ज़मीं, हर आदमी चक्कर में है
बुजुर्ग बनने की चाहत में उनका किया हुआ एक बचपना पढिये.
कि महफ़िल में कल जिक्र उनका जो आया
मैं लब को सिये था, न कुछ मैंने बोला
मगर सारी नज़रें थीं मेरी तरफ़ ही
कोई तो बताये ये है माज़रा क्या
तुम्हारा शहर तो बहुत ही अजब है
सभी कुछ यहाँ जगमगाता ही रहता
मगर हर कोई दौड़ता, भागता है
कोई तो बताये, ये हा माज़रा क्या
वो, कल जिसका चर्चा था सारे शहर में
मिला आज मुझको तो तनहा बहुत था
जो मशहूर है, वो अकेला भी है क्यूं
कोई तो बताये ये है माज़रा क्या
ये क्या हो गया है, जुबानें हैं खामोश
सभी पर हैं पहरे, सभी हैं डरे से
वो जब चाहें, जो चाहें, करके निकल लें
कोई तो बताये ये है माज़रा क्या
---सुदर्शन अग्रवाल
Friday, August 29, 2008
कोई तो बताये ये है माज़रा क्या....
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-जब पेडॊ पे फ़ुदकते थे,तो पुरशुकूं थी ज़िन्दगी
ReplyDeleteजब से कपडे पहने है. हर आदमी चक्कर में है
:) तो कविता फ़िर से ठेल दी है तुमने
चलो खुश रहो लो झेल ली है हमने
पर जब हर कोई पूछेगा मेरी प्रतिज्ञा को ?
शिव को कैसे छॊड दिया ?
या इलाही ये माजरा क्या ?
बोया तो चना था ?
उग गया बाजरा क्या ?
अच्छे भले थे ज्ञानी-शिव
ReplyDeleteकरते चिट्ठाकारी, लिखते व्यंग्य.
ठेल रहे अब कविता ओ'नज़्म
कोई बताए माजरा क्या है?
ये क्या हो गया है, जुबानें हैं खामोश
ReplyDeleteसभी पर हैं पहरे, सभी हैं डरे से
वो जब चाहें, जो चाहें, करके निकल लें
कोई तो बताये ये है माज़रा क्या
" good to read, liked it"
Regards
बंधू एक ठो प्रार्थना है...सुदर्शन से कहिये की वो अपना ब्लॉग न बनाये , क्यूंकि जब बालकिशन जी की कविताओं से ही हमारा इन्द्र के सिंहासन रुपी ब्लॉग डोलने लगता है तो सुदर्शन जी की विलक्षण प्रतिभा की आंधी के समक्ष तो वो किसी तिनके सा उड़ जाएगा...उनसे कहिये अपनी प्रतिभा का उपयोग हमें डराने के लिए ना करें...हम उनकी प्रतिभा को नमन करते हुए उन्हें अध्यापन के क्षेत्र में नई ऊचाईयां छूने की कामना करते हैं...
ReplyDeleteउनकी इन पंक्तियों:
वो, कल जिसका चर्चा था सारे शहर में
मिला आज मुझको तो तनहा बहुत था
जो मशहूर है, वो अकेला भी है क्यूं
कोई तो बताये ये है माज़रा क्या
से मिलता जुलता अपना एक अदना सा शेर प्रस्तुत करने की धृष्टता करते हैं:
आलमे तन्हाई(अकेले पन का) का दोज़ख(नर्क) है क्या
पूछ उससे जो बहुत मशहूर है
नीरज
व्यंग से कविता तक का सफर ....बढ़िया माजरा है पसंद आया :)
ReplyDeleteaap apni kavitaayen bhi padhvaiye
ReplyDeleteवाह..
ReplyDeleteमैं भी माजरा समझने की फिराक में हूं.
आता रहूंगां...
शेष शुभ..
.
ReplyDeleteअरे कोई मुझे भी तो बताओ,
यार माज़रा क्या है ?
जब म्हारे गुरुदेव कै ही माजरा पल्लै नही पड्या त म्हारे के पडैगा ?
ReplyDeleteफ़िर तैं बांच कै देखेन्गे , समझ आया त टिपणी की जुगाड़ भिडायेन्गे !
फिलहाल तो राम राम गुरुओं को !
आपकी तबीयत के बारे में समझा. मन खट्टा हो गया. जवान उम्र में ये बिमारी-खुदा न करे. पहले ही मन किया था कि बालमुकुन्द से दूर रहो. मगर जो सुनो, तब न!! अब भुगतो- इसका तो इलाज भी नहीं है.
ReplyDeleteफिर भी:
कोई तो बताये ये है माज़रा क्या!!
सुदर्शन नन्दीग्राम/सिंगूर की यात्रा से आये प्रतीत होते हैं।
ReplyDeleteहमेँ तो ये बहुत पसँद आई ~~~
ReplyDeleteसुरसती की जाई कविता,
उससे चिढते हर कोई,
क्यूँ ? अब कोई तो बताये.
...माजरा क्या है ?
सुदर्शन साहब को शुभकामनाएँ दीजियेगा जी -
- लावण्या
आसमाँ गर्दिश में था तो पुरशुकूं थी ज़िन्दगी
ReplyDeleteजब से घूमी है ज़मीं, हर आदमी चक्कर में है
आपके इस टंके शे'र को
हम तो टकटकी लगाए देखते रह गए.
बहुत खूब !
==========
चन्द्रकुमार
Sher aur najm dono pasand aaye. Thanks.
ReplyDeleteजब नहीं थी ब्लॉगरी तो पुरशुकूं थी ज़िन्दगी।
ReplyDeleteजबसे ठेलम-ठेल है, हर आदमीं चक्कर में है॥
आपने गाड़े यहाँ थे व्यंग के झण्डे बहुत,
ब्लॉगरी में आजमाए यूँ नये फण्डे बहुत,
फिर अचानक फिर गये अतुकान्त कविता की तरफ़
माजरा क्या है, बताएं बढ़ रही उलझन बहुत...
vaise pata nahin...aap ke liye comment karne ke main layak hoon ya nahin...par fir bhi himmat to karni hi padegi...
ReplyDeletekavita bahot hi gehri aur sochne par majboor karnve wali hain...
par ye sher....mashallah...kya kahoon...zabardast...
आसमाँ गर्दिश में था तो पुरशुकूं थी ज़िन्दगी
जब से घूमी है ज़मीं, हर आदमी चक्कर में है