वैराग्य धारण नहीं किये. धारण हो गया. काहे हुआ, नहीं पता. पता तो अर्जुन जी को भी नहीं था. उनके मन में भी भरम पैदा हो गया था कि; 'जिनको भी मारूंगा, सब अपने ही हैं.' बस एही भरम के वास्ते धर दिए रहे धनुख-बान. बोले लड़बे नहीं करेंगे.
ऊ तो बाद में किशन भगवान सिचुयेशन संभाल लिए. नहीं संभालते तो कंडीशन बड़ा खराब हो जाता. महाभारते नहीं होता. सोचिये केतना लॉस हो जाता. पता नहीं केतना लोग मरने से बच जाता सब. और लोग बच जाते तो इतिहासे का निर्माण नहीं हो पाता. आखिर हमरी संस्कृति में इतिहास का निर्माण मरे हुए लोग करते हैं.
निर्माण नहीं होता ऊपर से इतिहास गरीब भी देखाई देता.
अर्जुन जी के पास किशन भगवान थे, सो ऊ ज्ञान-वान देकर सिचुयेशन संभाल लिए. बोले; "तुम यह न सोचो कि सामने वालों को तुम मार रहे हो. ऊ सब तो पहले ही मरे हुए हैं. ई देखो हमरे मुंह में समाये हुए हैं सब के सब."
अर्जुन बाबू सीन देखकर दंग. बोले; "केशव, अच्छा हुआ जो आप हमको पाप करने से बचा लिए. हम इन लोगों को नहीं मारते तो पापे न होता?
इतना कहते हुए फिर धनुख-बान उठा लिए. सबको सलटा डाले. ओही ज्ञान बाद में गीता का ज्ञान बन गया.
इतिहास को तोड़-मरोड़ कर के पेश करने का तो रिवाजे है हमारे यहाँ. किशन भगवान का ज्ञान था, पता नहीं किसने उसे गीता का ज्ञान करार दे दिया. गीता जी का उल्लेख महाभारत में कहिंयो नहीं है. लगता है बाद में पैदा होने वाली कोई लेखिका होंगी.
अर्जुन बाबू को तो किशन भगवान मिल गए तो वे पाप करने से बच गए.लेकिन हमें कहाँ से मिलें कोई किशन भगवान जी?
हम एही सोच रहे थे. कोई तो उभरे किशन भगवान बनकर. कोई तो इस स्थिति के बारे में बताये. ऐसा काहे हुआ कि कुछ लिखने का मन नहीं कर रहा है? कहीं टिप्पणी करने का मन नहीं कर रहा है.
लेकिन कोई नहीं उभरा. बाद में याद आया कि ई तो कलयुग चल रहा है. इसमें किशन भगवान कहाँ मिलेंगे? ऊ तो द्वापर में ही पृथ्वीलोक पर अपना कोटा समाप्त कर लिए रहे.
लेकिन दू दिन पहले लगा कि; 'का द्वापर और का कलयुग, बिना भगवान के नहीं चलेगा.'
आप क्वेश्चन रेज करें, ऊका पाहिले ही हम बताय देते हैं.
दू दिन पहिले अनूप जी फ़ोन पर उभरे. हमें बूड़ने से बचाने के लिए. बोले; "क्या हाल बना रखा है? कुछ लिखते क्यों नहीं?"
हम बोले; "भैया बड़ा आफत आ गया है. कुछ भी लिखने का मन नहीं कर रहा. पता नहीं ऐसा काहे हुआ?"
हमरी बात सुनकर बोले; "ऐसा है, कि ब्लॉग-धर्म के पालन के दौरान ऐसी स्थिति आती है जब सबकुछ ख़तम लगता है. कुछ लिखने का मन नहीं करता. कुछ पढने का मन नहीं करता. कहीं टिप्पणी करने का मन नहीं करता. इस सन्दर्भ में आदिकालीन ब्लॉगर, श्री जीतेन्द्र चौधरी उर्फ़ जीतू जी का लेख पढ़ा जा सकता है. इस मनःस्तिथि को ब्लॉग-वैराग्य कहते हैं."
हम बोले; "लेकिन भैया, अभी त हमको दू साल भी नहीं हुआ, ब्लॉग लिखते हुए."
वे बोले; "तुम थेंथर हो तो दो साल टिक गए. टैलेंटेड ब्लॉगर तो दो महीने में ही ब्लॉग-वैराग्य को अचीव कर लेते हैं.कितने तो एक बार अचीव कर लेते हैं तो उसमें से निकल ही नहीं पाते. तुम्हारा तो निकल आने का चांस अभी भी है."
अनुभव बोल रहा था. हम सुन रहे थे.
ब्लॉग-वैराग्य शब्द सुनकर लगा केतना धाँसू च फांसू शब्द है. पूरा तरह से फांसने का काबिलियत रखता है शब्दवा. फिर हम सोचे कि; 'इसका मतलब हम वैरागी हो गए? ई सिचुयेशन तो हमरे ब्लॉग-कुंडली में थी ही नहीं.'
जैसे ही यह बात मन में आई, दिनकर जी का लिखा हुआ याद आ गया. ऊ लिखे हैं;
ज्वलित देख पान्चाग्नि जगत से निकल भागता योगी
धुनी बनाकर उसे तापता अनाशक्त रसभोगी
दिनकर जी का लिखा हुआ तो याद आया ही, साथ-साथ एक कुछ और याद आ गया. आप सोच रहे होंगे कि और का याद आ सकता है? तो हम बता दें कि याद आनेवाली बात थी आदिकालीन ब्लॉग-साहित्य में दर्ज ई कविता. कविता में लिखा है;
जब रोवे ब्लॉगर अज्ञानी
आँखों से बरसावे पानी
तब-तब बड़का ब्लॉगर आवे
ज्ञान-वान दे औ समझावे
जिस स्थिति में तुम हो भाई
तुम्हें देख आँखें भर आई
हमें पता है तुम्हरी पीड़ा
हमरे भी त फटी बेवाई
कहते इसे ब्लॉग वैराग्य
समझो है तुम्हरा सौभाग्य
जो हम तुमको हैं समझाते
कौन बताता हम न आते?
इस स्थिति से निकलो जल्दी
लगे फिटकरी चाहे हल्दी
चिरकुट सा ही कुछ लिख डालो
ब्लॉग-पेज को तुम भर डालो
एक बार वैराग्य जो छूटे
माया आकर तुमको लूटे
माया भी तो तरह-तरह की
कहीं पहेली कहीं जिरह की
अद्भुत माया टिप्पणियों की
ब्लॉग पोस्ट की औ कड़ियों की
कैसे इससे बच पाओगे ?
ब्लॉग-वाग को रच पाओगे?
बस, इतना साहित्य काफी था, ब्लॉग-वैराग्य दूर करने के लिए. जैसे ही कविता याद आई,
वैराग्य ढेर हो गया
पूरा अंधेर हो गया
मन चंगा हो गया
ह्रदय में दंगा हो गया
चिरकुटई करने लौटे आये
जेब में ढेर सारे मुखौटे लाये
फिर से ब्लॉग रंग डालेंगे
ठंडाई में भंग डालेंगे
धन्य है कविता और साहित्य. समीर भाई, कविताओं पर साधुवाद और बधाई ऐसी ही नहीं लुटाते. आज पता चला कि कविता कुछ भी करवा सकती है.
ब्लॉगर को वैराग्य-विमुख भी कर सकती है.
Tuesday, April 7, 2009
धन्य है कविता....धन्य है साहित्य
@mishrashiv I'm reading: धन्य है कविता....धन्य है साहित्यTweet this (ट्वीट करें)!
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कविता,
ब्लागरी में मौज
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वैराग्य विमुखता मुबारक हो!
ReplyDeleteकविता को धन्यवाद!
जे कौन ससुरा बोला कि लिखो . लालू राबडी की तरह गरियाओ बस लीक तो ससुरे पत्रकार लेगे जी :)
ReplyDeleteवो तो अच्छा है हर काल में ज्ञान मारने किसनजी आ जाते है, वरना एक अनमोल ब्लॉगर तो वैराग्य ही ले लेता. जै हो गीता मैया की. कम्प्युटर चला, की-बोर्ड टकटका...एक ब्लॉगर का धर्म निभा. कुछ न सुझे तो तेरी वाह वाह...मेरी वाह वाह कर...जै हो.
ReplyDeleteबहुते सही लिखो हो बाबू...
घणी जबरदस्त बात लिखी जी. आखिर तो एक दिन ये सबके साथ होना ही है.:)
ReplyDeleteरामराम.
वाह, वाह! अब इसे कौन से अखबार में छापने के लिये सरकाऊं मैं - इसकी ई-मेल भेजी नहीं अब तक?! :)
ReplyDeleteकविता के बहाने ही सही, वैराग्य तो टूटा:) सही बात लिखी है।
ReplyDeleteमन इतना भावुक हो गया है मिश्रा जी ....कि कविता लिखने का चित बन रहा है.......
ReplyDeleteलगता है वैराग्य नहीं,ध्यान व्यान में बैठे थे.......क्या प्वाइंट खोजकर निकला......"""किशन ज्ञान""" को गीता ज्ञान किसने बना दिया....माथा खजुआ के सोच रहे हैं.....
ReplyDeleteपढ़कर आनंद आ गया..वा!!!
बचुआ दूसरों को आनंद रस बांटने में बड़ा पुन्न मिलता है....पुन्न कमाओ....किशन ज्ञान है यह भी...
भाग्यशाली हैं आप कि इस युग में भी किशन भगवान ज्ञाब दे गये आप को, नहीं तो बहुत से ब्लोगर वैराग्य लिए बैठे हैं या टंकी पर चढ़े बैठें हैं, कौन मिस कर रहा है।
ReplyDeleteबढ़िया पोस्ट और बढ़िया कविता
चलिए भइया जी, आपका ब्लॉगर जीवन का एक और सोपान पूरा भया। लगता है हम अभी थेंथर वाले दौर में चल रहे हैं। कोई मुझे भी आगे बढ़ाओ रे...।
ReplyDelete"पता नहीं केतना लोग मरने से बच जाता सब..." हौर पापुलेसन एक्सप्लोसन हो जाता! :)
ReplyDeleteकिशन कनैया का साथ मिले तब बेडा पार हुई जावे येही गीता सार है आपकी पोस्ट आई वैराग्य नाश हुआ ये अच्छा हुआ शिव भाई अन्यथा शिव गीता कौन लिखता हुम्म ? :)
ReplyDeleteचलिए आप लौटे तो सही।
ReplyDeleteअब खबरदार कलम (कीबोर्ड) रुका न तो पंगा हो जाएगा ;)
क्या बात है!!!! संगत का इतना गहरा असर कि चुटियाई गये भाया!!
ReplyDeleteगज़ब!!
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ReplyDelete@ श्री महेंद्र मिश्र जी,
ReplyDeleteमिश्र जी, आपकी टिप्पणी बहुत ही वाहियात भाषा लिए हुए है. कृपया इस तरह की भाषा का प्रयोग करने से बचें.
मैं आपकी बेहूदी टिप्पणी हटा रहा हूँ.
ReplyDeleteआज मेलबाक्स में आपके पोस्ट की सूचना...
साश्चर्य आनन्दम !
बस यही है कि..
आपको पढ़ने की यंत्रणा फिर झेलनी पड़ेगी, शिव भाई ?
चलो, अपनों के सितम सिर आँखों पर..
बंधू बहुत दिनों के वैराग्य के बाद आपने बहुत ही धाँसू पोस्ट लिखी है....उपवास के बाद जैसे खाने की ललक बढ़ जाती है वैसे ही अब वैराग्य के बाद लगता है आप एक के बाद एक पोस्ट अब ठेलने वालें हैं...हम इस घात को सहने को मानसिक रूप से तैयार कर रहा हूँ आप कौनो चिंता मत करो और पोस्ट पे पोस्ट की बरसात आने दो....
ReplyDeleteजीवन में ये सब तो चलता ही रहता है...ये कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं है....आप इस से जल्द ही उबार गए वर्ना लोग हमेशा के लिए गायब हो जाते हैं....
पोस्ट ग़ज़ब की लिखें हैं इसमें दो राय नहीं है....
नीरज
केंकरा देखे हैं? देखवे किये होंगे, मगर उनको कभी बाजार में टोकरी में देखिये.
ReplyDeleteअकेले अकेले उसको कहीं रख दीजिये तो कहीं भी चला जायेगा, जमीन में घुस जायेगा, समंदर पार कर लेवेगा. पर उसका किस्मत बड़ा ख़राब हो जाता है जब उसको झुंड में और भी बहुत से केंकरा के साथ एक टोकरी में रख दिया जाता है. जहाँ निकलने का कोशिश किया की तबाक से दूसरा टांग पकड़ लिया और लटकलहा के पीछे दूसरा केंकरा. केंकरा पर केंकरा लटकल रहेगा. फिर कैसे निकलिहें ऊ टोकरी से.
आपका हालत ऊहे है.
कौतुक
http://paricharcha.wordpress.com
अरे जा, स्वागत करना भूल गए. पुनरागमन पर स्वागत है.
ReplyDeleteब्लाग लिखना फ़िर से शुरू करने के बधाई। आपका ब्लाग जगत में स्वागत है। एक गड़बड़ी आप कर दिये कि आप वर्ड वेरीफ़िकेशन नहीं लगाये हैं तो हम क्या हटाने के लिये आपसे कहें? ठीक न होगा कहना। है न!
ReplyDeleteऔर जो आप महेन्द्र मिश्र जी के कमेंट वाली बात आपनी लिखी उससे थोड़ा ताज्जुब हो रहा है। महेन्द्रजी संस्कारधानी जबलपुर के निवासी हैं। वे क्यों वाहियात भाषा प्रयोग करेंगे और क्यों बेहूदी टिप्पणी करेंगे? कहीं ऐसा तो नहीं कि आपसे समझनें में कोई चूक हो गयी हो और उन्होंने कोई संस्कारी बात ही कही हो जिसे आपने वाहियात समझ लिया हो!
या फ़िर ऐसा भी हो सकता है कि उन्होंने कोई व्यंग्य लिखने का प्रयास अपनी टिप्पणी में किया हो जिसे आप बेहूदी समझ बैठे हों। लेकिन आपको उनकी टिप्पणी हटानी नहीं चाहिये थी। हम भी देखते कि संस्कारवान लोग व्यंग्य कैसे लिखते हैं?
केतना अच्छा लिखबे हो बाबू..
ReplyDeleteवईसे अर्जुन बाबु की वाट तो उनके बड्डे भैया युधिश्ठर बाबू ने ही लगवा दी थी.. ना ना ज्ञान भैया तो ऐसा नहीं करेंगे.. :) :)
ग़ज़ब भाई. हमारे मन में कई बार सवाल आया, पर चूंकि हम इस स्थिति यानी ब्लॉग वैराग्य को अकसर ही उपलब्ध होते रहते हैं, लिहाजा हमने आपको डिस्टरब करना नीक बात नईं समझा. हम कहे कि अब आप अपने घर पे ताला-ओला लगा के गए हैं त हम काहें आपको बार-बार तगदिया के परसान करें. लेकिन कबो-कबो ई हो जाना चाहिए. एसे बड़ी ऊर्जा मिलती है.
ReplyDeleteशिवजी,
ReplyDeleteतुसी दिल खुश कर दित्ता। क्या लिख दिया आपने? आप पहले ब्लागर हैं जिसकी कोई पोस्ट मैने दूसरी बार पढ़ी हो। भाषा, शैली, सरसता, रंजकता, कथ्य, शैली, विषय-सम्बद्धता कितने गुण गिनाऊं जो इस पोस्ट में है। वाकई, व्यंग्य आपसे सधा हुआ है। सातत्य चाहिए। और हां...ब्लाग जगत पर खिलंदड़ी कलम जब मन हो चलाएं, पर अक्सर उस समाज पर लिखें जिसमें हम गुजर-बसर कर रहे हैं। हालांकि आप लिखते भी रहे हैं। ब्लागसंसार तो बहुत छोटा है। यह सिर्फ माध्यम भर है, विषय या कथ्य नहीं। यहां कई लोग सिर्फ ब्लागीय चर्चाएं करते हैं, मगर उन्हें कोई याद नहीं दिलाता कि वे और भी कुछ अच्छा लिख सकते हैं।
उम्मीद है मेरी बात को कतई अन्यथा नहीं लेंगे और अगर लेंगे तो तो उसे भुला देंगे।
जै जै
शुभकामनाओं के साथ
अजित
ताला लगा था इधर ? अरे भैया इ का गजब हो गया था... ! कलकत्ते की हड़ताल इतनी असरदार होती है... हमें तो लगता था की रोज होने वाली चीज की आदत पड़ जाती है और ध्यान में ही नहीं आती.
ReplyDeleteवैराग्य ढेर हो गया
ReplyDeleteपूरा अंधेर हो गया
मन चंगा हो गया
ह्रदय में दंगा हो गया