मेलबॉक्स खोला तो चिट्ठाजगत से, हमसब के प्यारे चिट्ठाजगत से एक मेल पढ़ने को मिला. लिखा था;
आदरणीय
एक ज़माना था जब लोग बाघ से बचते थे, और आज का ज़माना है जब लोग बाघ को बचाते हैं। क्या से क्या हो गया, और क्यों, आपका क्या सोचना है?
भाग लीजिए चिट्ठाजगत.इन द्वारा प्रायोजित एक और लेखन प्रतियोगिता, इसमें आप अपने निबंध, कविताएँ, व्यंग्य, कार्टून, तस्वीरें और वीडियो अपने चिट्ठे पर चढ़ा कर, शीर्षक में १४११ (या 1411) लिख दें।
प्रतियोगिता की अंतिम तिथि 28-फरवरी-2010 है, प्रतियोगिता क्या लिखने का एक और बहाना है, वही तो हम सब खोजते हैं न?
इनाम इस प्रकार हैं -
१. 1001/-
२. 501/-
३. 251/-
समझ नहीं आ रहा कि शुरू कैसे करें? तो कुछ जानकारी यहाँ से पाएँ ..........
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पुरस्कार भी है!
आजकल जिधर देखिये उधर पुरस्कार. उधर सम्मान. दो ही काम हो रहे हैं आजकल, पुरस्कार देना और सम्मानित करना. जो औकात वाले हैं वे पुरस्कार तो देते ही हैं, साथ-साथ सम्मानित भी कर देते हैं. हालात ऐसे हो गए हैं कि सुबह-शाम उठते-बैठते यही चिंता रहती है कि कहीं पकड़कर कोई पुरस्कार न दे दे. देखेंगे, न लेते बनेगा और न ही रिजेक्ट करते.
अब बाघों को बचाने के लिए भी पुरस्कार!!!
लेकिन बाघों को लेखन के जरिये बचाया जा सकता है, यह नहीं सोचा कभी. आज इस नई खोज के बारे में सोचता हूँ तो लगता कि सरकार ने पहले ही क्यों नहीं एक कमीशन बैठाकर पता लगवा लिया कि बाघों को बचाने का सबसे बेहतर तरीका लेखन है. मैं कहता हूँ कोई रिटायर्ड जस्टिस नहीं मिला तो सी बी आई वालों से जांच करवा लेती. सरकार का बड़ा सारा पैसा वगैरह बच जाता.
अब इस प्रपोजीशन पर सोचते हैं तो लगता है कि क्या समय आ गया है? बाघ को बचाने की जिम्मेदारी लेखक पर आन पड़ी है. सरकार के पास अफसर हैं, बन्दूक है, कानून है. इतनी सारी चीजों से लैस सरकार बाघों को नहीं बचा पाई. अब इस काम की जिम्मेदारी लेखक संभाले? वो भी लेखन के जरिये.
उल्टी चाल है सरकार की भी. जिन नक्सलियों से देश को सबसे ज्यादा खतरा था, उनके ऊपर पहले लेखन, सेमिनार और आह्वान ट्राई किया गया. अब हालात खाराब हो गए है तो अब जाकर बन्दूक उठाने की बात हो रही है. ठीक इसके विपरीत जिन बाघों से कोई खतरा नहीं था, उनके लिए पहले कानून, बंदूक, अफसर का प्रावधान किया गया. अब वे ख़तम होने के कगार पर हैं तो लेखन को ट्राई किया जा रहा है.
धन्य है सरकार!
लेकिन कविता, व्यंग, लेख, कार्टून से बाघ बच पायेगा? मुझे तो लगता है कि चिट्ठाजगत ने बाघों को बचाने का यह प्लान बाघों से पूछकर नहीं बनाया. अगर बनाया होता तो शायद बाघ लेखन के जरिये खुद को बचाने के पक्ष में नहीं होते. लेखन के जरिये उन्हें बचाने के प्लान पर तुरंत हड़ताल पर चले जाते. चिट्ठाजगत वालों को मना भी कर देते. शायद सवाल तक कर देते कि; "काहे हमारे पीछे पड़े हो? अब केवल १४११ बचे हैं. तुम्हें वह भी नहीं सोहाता? तुमलोग ब्लॉग जगत से लेख, व्यंग और कविता लिखवा कर हमें मारना चाहते हो क्या? क्या चाहते हो आखिर?"
सोचिये बाघों पर कविता लिखी जायेगी तो क्या होगा? कवि अपने की-बोर्ड से कविता की पहली दो लाइन निकालेगा;
बाघ तेरी अजब कहानी
सुनकर आँखों में भर आया पानी
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कवि जब देश पर, समाज पर कविता लिखता है तो छापने से पहले उस कविता को वह इंसानों पर ट्राई करता है. मेरा मतलब इस खोज में रहता है कि कोई इंसान मिले तो उसे सुना दे. वैसे ही कवि अगर बाघों पर कविता लिखेगा तो उसके हृदय में लहर उठेगी कि वह सबसे पहले अपनी कविता किसी बाघ को सुना दे.
आपने अगर न सुना हो तो मैं लगे हाथ आपको बता दूँ कि; "कवि बहुत भावुक होता है. उसके आह से गान उपजता है."
लेकिन ऐसी शुरुआत वाली कविता का समाज और बाघों पर क्या असर होगा, इस पर कौन विचार करेगा? पता चला खोजते-खोजते कवि को एक बाघ मिल गया और उसने बाघ को अपनी कविता सुना दी. देखेंगे बाघ वहीँ ढेर. १४११ से एक निकल लिया और बचे सिर्फ १४१०. टीवी पर विज्ञापन चलाने वालों को अपने विज्ञापन में चेंज लाना पड़ेगा.
निबंध लिखने का आह्वान भी है. मेरी समझ में नहीं आता कि बाघ पर कैसे कोई लिखेगा निबंध? स्कूल में अपना गाँव, गाय, भैंस, किसान वगैरह पर निबंध लिखना सिखाया गया. अब तो 'मेरे पापा' पर निबंध लिखना सिखाया जाता है बच्चों को. लेकिन आज तक का रिकार्ड है कि किसी स्कूल में बच्चों को बाघ पर निबंध लिखना नहीं सिखाया गया. जिस पेज पर बाघ की तस्वीर होती थी, उसे स्कूली बच्चा खोलता ही नहीं होगा. अगर कभी हवा चली और वही पेज खुल गया तो बच्चा किताब छोड़ वहां से भाग खड़ा होता है. उसे सिखाया गया है कि बाघ बच्चों को खा जाता है. अब ऐसे में बच्चा बड़ा भी हो जाएगा तो बाघ तो क्या उसके बच्चे को भी देख कर भागेगा, निबंध लिखना तो दूर की बात है.
बड़ी बमचक मची है टीवी पर भी. किसी चैनल पर चले जाइए वहां से आवाज़ आती है; "केवल १४११ बचे हैं. पहले चालीस हज़ार थे. अब १४११ को बचने के लिए आवाज़ उठाएं. ब्लॉग लिखें. एस एम एस भेजें."
क्या बात कर रहे हो? चालीस हज़ार से जब उनतालीस हज़ार हुए थे तभी काहे नहीं बखेड़ा खड़ा किया? तभी लेखन करवाना चाहिए था. तभी उपन्यास लिखवाना चाहिए था. अब १४११ हो गए हैं तब तुम नींद से जागे हो?
और मैं एस एम एस किसको भेजूँ. संसार चंद को भेज दूँ जिससे मेरा एसएमएस देखकर उसका हृदय परिवर्तन हो जाए और बाघों को मारना बंद कर दे? प्रधानमंत्री को भेज दूँ जिससे वे चिंता व्यक्त करके अपना पल्ला झाड़ लें. या फिर बाल ठाकरे को भेज दूँ? खैर, उन्हें भेजकर होगा भी क्या? उन्होंने तो खुद अपनी पार्टी के झंडे पर रायल बंगाल टाइगर छपवा रखा है. बड़ा मोटा-ताजा टाइगर. देख कर लगता है असली बाघ है जिसे मारकर झंडे पर चिपका दिया गया है. मेरे एक मित्र ने उनकी पार्टी का झंडा देखकर सवाल किया; " ये किसी मराठी जानवर का चित्र अपने झंडे पर क्यों नहीं लगाते?"
किसे फुर्सत है मेरा ब्लॉग पढ़ने की. जो पढ़ते हैं उन्हें मालूम है कि बाघों को नहीं मारा जाना चाहिए. मेरे ब्लॉग लिखने से अगर बाघ बच जाते तो फिर बात ही क्या थी. सबकुछ छोड़कर केवल बाघों पर पोस्ट लिखते. संसार चंद पढ़ते और हमसे प्रभावित होकर उनका हृदय परिवर्तन हो जाता. वे बाघों को मारना छोड़कर बाघों की खेती करने लगते.
वैसे सुना है कि कल काजीरंगा में एक बाघ मारा हुआ पाया गया. अब तो केवल १४१० बचे हैं. अब चूंकि बाघ की मृत्यु कल हुई है इसलिए यह मत कहियेगा कि मेरा लेख बर्दाश्त नहीं कर पाया और मर गया.
राष्ट्रीय जानवर है. सुना है गंगा भी राष्ट्रीय नदी है.
Friday, February 19, 2010
पहले ही उपन्यास लिखवा लेते?
@mishrashiv I'm reading: पहले ही उपन्यास लिखवा लेते?Tweet this (ट्वीट करें)!
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शिवजी,
ReplyDeleteआपको पढ़ने का अपना ही सुख है। बहुत जानदार मगर शानदार तरीके से अपनी बात को रखते हैं। अब उन बेचारे बाघों को भी क्या मालूम होगा कि हम इंसाननुमा बाघ ब्लॉग लिखकर उन्हें बचाने का प्रयास कर रहे हैं।
सुनने में आया था कि १४००० ब्लॉग है हिंदी में.. पर मुझे गिनती के १४११ ब्लॉग ही नज़र आते है.. कोई ब्लोगों को बचाने का भी अभियान है क्या?
ReplyDeleteसोच रहा हूँ आपको राष्ट्रीय ब्लोगर बना दू.. गंगा नदी की तरह.. कम से कम ज्ञान जी तो आप पर लिखेंगे.. :)
:) :-) :-D
ReplyDeleteझकास पोस्ट है।
ReplyDeleteसोचता हूं कहीं कविता वगैरह सुन कर कोई बाघ प्रेमरस में डूबा अन्हरीया बारी के झुरमुटों में जनसंख्या बढाने की ओर अग्रसर न हो जाय ।
यदि यही इच्छा है, तो ऐसे कवियो को प्रोत्साहित करना मैं उचित मानता हूं। रही बात बाघ को कविता सुनाने की तो बाघ को अच्छे से खिला पिला कर पिंजरे के बाहर कवि जी को सुरक्षित दूरी पर बैठा कर पूरे सुरक्षा इंतजामों के साथ बाघ को कविता सुनानी चाहिये :)
बाघ मेरे... बाघ मेरे....
ब्लॉग लिखने से कुछ नहीं होने वाला. सब मिलकर संसारचंद को ब्लोगर बनाने के लिए प्रेरित करें. जब ब्लॉग बना ले तो उसकी पहली ही पोस्ट की खूब झूठी झूठी तारीफ करके उसे बड़ा ब्लोगर बना दें. फिर वो अपना सब का-काज छोड़कर जब फुलटाइम ब्लोग्गर बन जायेगा. हमारा उद्देश्य बाघ बचाना है इसलिए हमें मन मसोस कर इसे इनकरेज करना होगा. ताकि ये संसारचंद ब्लोगिंग से विमुख होकर पुनः बघिंग शुरू ना कर दे. जो एक बार ब्लॉग लिखने का कीड़ा काटा ये पूरा समय पोस्ट लिखने, टिप्पणिया करने और अपनी टिप्पणियां गिनने में निकाल देगा.
ReplyDeleteकमाल की पोस्ट है!!
ReplyDeletepost achchi lagii NICE
ReplyDeleteमिश्र जी-सरकारी क्षेत्र के संसारचन्द निजी क्षेत्र के संसारचन्द से अधिक खतरनाक हैं. एक बार एक जंगल में जाना हुआ. बाहर से बहुत घना था. अन्दर बिल्कुल साफ
ReplyDeleteअभी क्या करेंगे जी. शायद यह कोई टोटका है जिससे बाघ बच जाने की उम्मीद है. जब सारे इलाज फैल हो जाते है तब कहा जाता है, विश्वास तो नहीं मगर कर के देख लो, अगर काम कर जाए....
ReplyDeleteकम से कम तस्सली तो रहेगी बाघ को मारने में हाथ नहीं था. बाघ के उत्पाद नहीं खरीदे और अपनी असहमति भी दर्शायी थी.
बाकि आपके कहे से मना नहीं है. अपनी बात व्यंग्य में कह लेते है, हमसे नहीं होता इसका मलाल है. कविता की दो पंक्यियाँ ही लिखी, अच्छा लिया वरना एक ब्लॉगर आज कम हो जाता :) :)
कवि जब देश पर, समाज पर कविता लिखता है तो छापने से पहले वह इंसानों पर ट्राई करता है.
ReplyDeleteजबर्दस्त व्यंग्य है...
आपका ई पोस्ट पढ़ के आपके ई पोस्ट से भी लम्बा विचार मन में आया है...केतना कहें केतना छोड़ें समझ नहीं पा रहे हैं...
ReplyDeleteसबसे पहले तो आपको बहुत बहुत बधाई.....ई कोई छोटा बात है का कि आपके लेखनी को इतना समर्थ समझा गया "बाघ बचावक संस्थान " द्वारा .....कि आप लिखे नहीं कि बाघ बच गया...माने बाघ और उसे मारने वाले से भी ताकतवर आपका कलम....हम इससे पूरा सहमत हैं...
और बाकी का लिखे हैं आप....वाह....एकदम से मन जीत लिए....तारीफ को शब्द खोज खोज के रह गए,लेकिन नहीं मिला...तब अचानक से ध्यान आया ... ओह १४११ में से १४१० शब्द तो आप यूज कर लिए...इसीलिए न हमको ढूंढें नहीं मिल रहा है....
बहुत बहुत लाजवाब पोस्ट....बहुत बहुत लाजवाब !!!
वाइल्ड लाइफ पर लिखना बच्चों का खेल नहीं है। मेरा सुझाव है कि आप ऐसे गम्भीर विषय पर लेखन की बजाय व्यंग लेखन ट्राई करें। वहां आप के सफल होने की सम्भावनायें बनती हैं।
ReplyDeleteआप ने जितना शोध कार्य किया है, उसके लिये आप धन्यवाद के पात्र हैं। एक और साधुवाद एडवांस में समीर लाल "समीर" की तरफ से भी!
बाकी व्यस्त होने के कारण विषद टिप्पणी नहीं कर पा रहा! :(
गलती से ईनाम मिल जाये तो २५% मेरा हिस्सा है!
ReplyDeleteपोस्ट बड़ी दमदार लिखी है .
ReplyDeleteलाजवाब व्यंग्य!
ReplyDeleteबाघ पर निबंध इस साल के बोर्ड का इम्पोर्टेन्ट सवाल है :)
ReplyDeleteबाघ अगर पढ़ते इसको तो कहते कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दो! हम बचे रहेंगे।
ReplyDeleteज्ञानजी को कम से कम कमेंट में तो मौलिक रहना चाहिये! इधर-उधर किये कमेंट टीप देते हैं आपके यहां आकर। कहीं ऐसा होता आपस में? :)
जब से बाघ बचाओ टाइप अभियान शुरु किये गये हैं तब से इन बचे-खुचे बाघों के पास इन्सानी आमद और निगरानी इतनी बढ गई है कि बेचारे बाघ प्रायवेसी ढूंढ रहे. सांस लेना मुश्किल हो रहा उनके लिये. हर दिन कोई नई मशीन उनकी गर्दन में फिट की जाती है. कैसे बर्दाश्त करेंगे वे मशीनी-इन्सानी हमले?
ReplyDeleteबंधूवर, हम शुद्ध शाका हारी हैं घास फूस खाते हैं हम मांसाहारी प्राणी के रहने न रहने पर क्यूँ टिपियाये...हाँ अगर गईया मईया का सवाल होता तो राम कसम खून खच्चर कर डालते, किसका ये बाद में सोचते..उसको बचाने की खातिर कृष्ण की तरह बंसी हाथ में लिए गली गली डोलते लेकिन मामला बाघ का है सो चुप हैं...उनकी संख्या कम हो रही है तो हम क्या करें? हम पैदा करें क्या बाघ? ये उनका ही काम है वो ही करें...हम क्यूँ बाघ के फटे में पाँव फंसायें...आप को भी येही राय देते हैं बंधू इस विषय से कट लो...आप भी तो घास फूस वाले ही हैं ना...
ReplyDeleteनीरज
बहुत बढ़िया लेखन...पर जब जागे तब ही सवेरा...पर लेख लिखने से तो कोई बचाव होने वाला नहीं....
ReplyDeleteदिल तो हमारा भी किया कि चलो १७५३ रुपये का धन्धा करले काहे कि हम लिखते तो तीनो पुरुस्कार हमारे अलावा और कौन ले जा सकता था . पर यहा आपने हमने पहले इस जानवर पर लिख डाला . साथ मे धमकी भी © इस ब्लॉग की सभी पोस्ट, चित्र, ऑडियो, वीडियो या कोई अन्य सामग्री शिव कुमार मिश्रा और ज्ञानदत्त पाण्डेय की सम्पत्ति है और बिना पूर्व स्वीकृति के उसका पुन: प्रयोग या कॉपी करना वर्जित है।
ReplyDeleteसो हम अगर इस जानवर का नाम नही लिख सकते वो क्या है ना हम जग मे केवल सम्मन भेजने वाले से ही डरते है
लेकिन हम अब जल्द ही जब सरकार कशमीर मे बचे ९६५ कशमीरी पंडितो के उपर ब्लोग और एस एम एस मगवायेगी तब लिखेगे. क्योकि अभी तो कशमीरी पंडितो को मार भगाने वालो को माफ़ी देकर
बुलाने वालो पर ही लिखने का फ़ैशन चल रहा है
हमारा राष्ट्रीय ब्लॉगर कौन है जी जरा इस पर भी विवाद हो ही जाए.. फिर देखिये वो कैसे विलीन होता है..
ReplyDeleteआपका व्यंग्य तो हमेशा की तरह बढ़िया था ही, पंगेबाज जी भी बढ़िया लिख गए हैं.. हम तो आज से ही इस का आह्वान एस एम् एस पर करने का सोच रहे हैं..
मास्टर पीस और कमैंटस भी मजेदार्। अब हमें इंतजार है राष्ट्रीय ब्लोगर अभियान का, क्या अभी से ये प्रजाति लुप्त हो गयी?
ReplyDeleteराष्ट्रीय जानवर है. सुना है गंगा भी राष्ट्रीय नदी है.
ReplyDeleteहाॅकी भी तो राष्ट्रीय खेल है । भारत में अगर किसी की ऐसी तैसी करनी हो तो उसके आगे राष्ट्रीय जोड़ दो उसके बाद तो मैयत उठनी ही है बेचारे की ।