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Friday, February 12, 2010

वसन्त, विद्यापति, नायिका और परसाई


@mishrashiv I'm reading: वसन्त, विद्यापति, नायिका और परसाईTweet this (ट्वीट करें)!

ये झोंपड़ी झंझावात में न उड़े, इस लिये मैं नायिका ला रहा हूं - वाया वसन्त, विद्यापति और परसाई जी के।

सारा मसाला परसाई जी के लेखन का है और भुवनेश शर्मा जी की पोस्ट  और विकीसोर्स से कबाड़ा है।


कल बसन्तोत्सव था। कवि बसन्त के आगमन की सूचना पा रहा था--

प्रिय, फिर आया मादक बसन्त' ।

मैंने सोचा, जिसे बसन्त के आने का बोध भी अपनी तरफ से काराना पड़े, उस प्रिय से तो शत्रु अच्छा। ऐसे नासमझ को प्रकृति - विज्ञान पढ़ायेंगे या उससे प्यार करेंगे। मगर कवि को न जाने क्यों ऐसा बेवकूफ पसन्द आता है ।

कवि मग्न होकर गा रहा था –

'प्रिय, फिर आया मादक बसन्त !'

पहली पंक्ति सुनते ही मैं समझ गया कि इस कविता का अन्त ‘हा हन्त’ से होगा, और हुआ। अन्त, सन्त, दिगन्त आदि के बाद सिवा 'हा हन्त' के कौन पद पूरा करता ? तुक की यही मजबूरी है। लीक के छोर पर यही गहरा गढ़ा होता है। तुक की गुलामी करोगे तो आरम्भ चाहे 'बसन्त ' से कर लो, अन्त जरूर ' हा हन्त ' से होगा। सिर्फ कवि ऐसा नहीं करता। और लोग भी, सयाने लोग भी , इस चक्कर में होते है। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में तुक पर तुक बिठाते चलते है। और 'वसन्त ' से शुरू करके 'हा हन्त' पर पहुंचते हैं। तुकें बराबर फ़िट बैठती हैं , पर जीवन का आवेग निकल भागता है। तुकें हमारा पीछा छोड़ ही नहीं रही हैं। हाल ही में हमारी समाजवादी सरकार के अर्थमन्त्री ने दबा सोना निकालने की जो अपील की , उसकी तुक शुध्द सर्वोदय से मिलायी -- 'सोना दबाने वालो , देश के लिए स्वेच्छा से सोना दे दो।' तुक उत्ताम प्रकार की थी; साँप तक का दिल नहीं दुखा। पर सोना चार हाथ और नीचे चला गया। आखिर कब हम तुक को तिलांजलि देंगे ? कब बेतुका चलने की हिम्मत करेंगे ?

कवि ने कविता समाप्त कर दी थी। उसका 'हा हन्त' आ गया था। मैंने कहा, 'धत्तोरे की !' 7 तुकों में ही टें बोल गया। राष्ट्रकवि इस पर कम -कम-कम 51 तुकें बॉधते। 9 तुकें तो उन्होंने 'चक्र' पर बांधी हैं। ( देखो 'यशोधरा ' पृष्ठ 13 ) पर तू मुझे क्या बतायेगा कि बसन्त आ गया। मुझे तो सुबह से ही मालूम है। सबेरे वसन्त ने मेरा दरवाजा भी खटखटाया था। मैं रजाई ओढ़े सो रहा था। मैंने पूछा – “कौन?” जवाब आया-- मैं वसन्त। मैं घबड़ा उठा। जिस दूकान से सामान उधार लेता हूँ, उसके नौकर का नाम भी वसन्तलाल है। वह उधारी वसूल करने आया था। कैसा नाम है, और कैसा काम करना पड़ता है इसे ! इसका नाम पतझड़दास या तुषारपात होना था। वसन्त अगर उधारी वसूल करता फिरता है, तो किसी दिन आनन्दकर थानेदार मुझे गिरफ्तार करके ले जायेगा और अमृतलाल जल्लाद फॉसी पर टांग देगा !

वसन्तलाल ने मेरा मुहूर्त बिगाड़ दिया। इधर से कहीं ऋतुराज वसन्त निकलता होगा, तो वह सोचेगा कि ऐसे के पास क्या जाना जिसके दरवाजे पर सबेरे से उधारीवाले खड़े रहते हैं ! इस वसन्तलाल ने मेरा मौसम ही खराब कर दिया।

मैंने उसे टाला और फिर ओढ़कर सो गया। ऑखें झंप गयीं । मुझे लगा, दरवाजे पर फिर दस्तक हुई। मैंने पूछा --कौन? जवाब आया—“मैं वसन्त !” मैं खीझ उठा - कह तो दिया कि फिर आना। उधर से जवाब आया—“मै। बार-बार कब तक आता रहूंगा ? मैं। किसी बनिये का नौकर नहीं हूं ; ऋतुराज वसन्त हूं। आज तुम्हारे द्वार पर फिर आया हूं और तुम फिर सोते मिले हो। अलाल , अभागे, उठकर बाहर तो देख। ठूंठों ने भी नव पल्लव पहिन रखे हैं। तुम्हारे सामने की प्रौढ़ा नीम तक नवोढ़ा से हाव -भाव कर रही है -- और बहुत भद्दी लग रही है।

मैने मुंह उधाड़कर कहा-, भई, माफ़ करना , मैंने तुम्हें पहचाना नहीं। अपनी यही विडम्बना है कि ऋतुराज वसन्त भी आये, तो लगता है , उधारी के तगादेवाला आया। उमंगें तो मेरे मन में भी हैं, पर यार, ठण्ड बहुत लगती है। वह जाने के लिए मुड़ा। मैंने कहा, जाते -जाते एक छोटा-सा काम मेरा करते जाना। सुना है तुम ऊबड़ -खाबड़ चेहरों को चिकना कर देते हो ; 'फेसलिफ्टिंग' के अच्छे कारीगर हो तुम। तो जरा यार, मेरी सीढ़ी ठीक करते जाना, उखड़ गयी है।

उसे बुरा लगा। बुरा लगने की बात है। जो सुन्दरियों के चेहरे सुधारने का कारीगर है, उससे मैंने सीढ़ी सुधारने के लिए कहा। वह चला गया।

मैं उठा और शाल लपेटकर बाहर बरामदे में आया। हज़ारों सालों के संचित संस्कार मेरे मन पर लदे हैं ; टनों कवि - कल्पनाएं जमी हैं। सोचा, वसन्त है तो कोयल होगी ही । पर न कहीं कोयल दिखी न उसकी कूक सुनायी दी। सामने की हवेली के कंगूरे पर बैठा कौआ 'कांव-कांव' कर उठा। काला, कुरूप, कर्कश कौटा-- मेरी सौदर्य-भावना को ठेस लगी। मैंने उसे भगाने के लिए कंकड़ उठाया। तभी खयाल आया कि एक परम्परा ने कौढ को भी प्रतिष्ठा दे दी है। यह विरहणी को प्रियतम के आगमन का सन्देसा देने वाला माना जाता है। सोचा , कहीं यह आसपास की किसी विरहणी को प्रिय के आने का सगुन न बता रहा हो। मै। विरहणियों के रास्ते में कभी नहीं आता ; पतिव्रताओं से तो बहुत डरता हूं। मैंने कंकड़ डाल दिया। कौआ फिर बोला। नायिका ने सोने से उसकी चोंच मढ़ाने का वायदा कर दिया होगा।

शाम की गाड़ी से अगर नायक दौरे से वापिस आ गया , तो कल नायिका बाजार से आनेवाले सामान की जो सूची उसके हाथ में देगी, उसमें दो तोले सोना भी लिखा होगा। नायक पूछेगा , प्रिये, सोना तो अब काला बाजार में मिलता है। लेकिन अब तुम सोने का करोगी क्या? नायिका लजाकर कहेगी , उस कौए की चोंच मढ़ाना है, जो कल सेबेरे तुम्हारे आने का सगुन बता गया था। तब नायक कहेगा, प्रिय, तुम बहुत भोली हो। मेरे दौरे का कार्यक्रम यह कौआ थेड़े ही बनाता है; वह कौआ बनाता है जिसे हम 'बड़ा साहब' कहते हैं।

इस कलूटे की चोंच सोने से क्यों मढ़ाती हो? हमारी दुर्दशा का यही तो कारण है कि तमाम कौए सोने से चोंच मढ़ाये हैं, और इधर हमारे पास हथियार खरीदने को सोना नहीं हैं। हमें तो कौओं की चोंच से सोना खरोंच लेना है। जो आनाकानी करेंगे, उनकी चोंच काटकर सोना निकाल लेंगे। प्रिये, वही बड़ी ग़लत परम्परा है, जिसमें हंस और मोर की चोंच तो नंगी रहे, पर कौए की चोंच सुन्दरी खुद सोना मढ़े। नायिका चुप हो जायेगी। 


स्वर्ण - नियन्त्रण कानून से सबसे ज्यादा नुकसान कौओं और विरहणियों का हुआ है। अगर कौए ने 14 केरेट के सोने से चोंच मढ़ाना स्वीकार नहीं किया, तो विरहणी को प्रिय के आगमन की सूचना कौन देगा? कौआ फिर बोला। मैं इससे युगों से घृणा करता हूं ; तब से, जब इसने सीता के पांव में चोंच मारी थी। राम ने अपने हाथ से फूल चुनकर, उनके आभूषण बनाकर सीता को पहनाये। इसी समय इन्द्र का बिगडै़ल बेटा जयन्त आवारागर्दी करता वहां आया और कौआ बनकर सीता के पांव में चोंच मारने लगा। ये बड़े आदमी के बिगडैल लड़के हमेशा दूसरों का प्रेम बिगाड़ते हैं। यह कौआ भी मुझसे नाराज हैं , क्योंकि मैंने अपने घर के झरोखों में गौरैयों को घोंसले बना लेने दिये हैं। पर इस मौसम में कोयल कहां है ? वह अमराई में होगी। कोयल से अमराई छूटती नहीं है, इसलिए इस वसन्त में कौए की बन आयी है। वह तो मौक़ापरस्त है ; घुसने के लिए पोल ढूंढता है। कोयल ने उसे जगह दे दी है। वह अमराई की छाया में आराम से बैठी है। और इधर हर ऊंचाई पर कौआ बैठा 'कॉव-कॉव' कर रहा है।

मुझे कोयल के पक्ष में उदास पुरातन प्रेमियों की आह भी सुनायी देती है, ' हाय, अब वे अमराइयां यहां कहां है कि कोयलें बोलें। यहां तो ये शहर बस गये हैं, और कारखाने बन गये है।' मैं कहता हूं कि सर्वत्र अमराइयां नहीं है, तो ठीक ही नहीं हैं। आखिर हम कब तक जंगली बने रहते? मगर अमराई और कुंज और बगीचे भी हमें प्यारे हैं। हम कारखाने को अमराई से घेर देंगे और हर मुहल्ले में बगीचा लगा देंगे। अभी थोड़ी देर है। पर कोयल को धीरज के साथ हमारा साथ तो देना था। कुछ दिन धूप तो हमारे साथ सहना था। जिसने धूप में साथ नही दिया , वह छाया कैसे बंटायेगी ? जब हम अमराई बना लेंगे , तब क्या वह उसमें रह सकेगी? नहीं, तब तक तो कौए अमराई पर क़ब्जा कर लेंगे। कोयल को अभी आना चाहिए। अभी जब हम मिट्टी खोदें , पानी सींचे और खाद दें, तभी से उसे गाना चाहिए। मैं बाहर निकल पड़ता हूं। चौराहे पर पहली बसन्ती साड़ी दिखी। मैं उसे जानता हूं। यौवन की एड़ी दिख रही है -- वह जा रहा है -- वह जा रहा है। अभी कुछ महीने पहले ही शादी हुई है। मैं तो कहता आ रहा था कि चाहे कभी ले, 'रूखी री यह डाल वसन वासन्ती लेगी' - (निराला )। उसने वसन वासन्ती ले लिया। कुछ हजार में उसे यह बूढ़ा हो रहा पति मिल गया। वह भी उसके साथ है। वसन्त का अन्तिम चरण और पतझड़ साथ जा रहे हैं। उसने मांग में बहुत -सा सिन्दूर चुपड़ रखा है। जिसकी जितनी मुश्किल से शादी होती है, वह बेचारी उतनी ही बड़ी मांग भरती है। उसने बड़े अभिमान से मेरी तरफ देखा। फिर पति को देखा। उसकी नजर में ठसक और ताना है, जैसे अंगूठा दिखा रही है कि ले, मुझे तो यह मिल ही गया। मगर यह क्या? वह ठण्ड से कांप रही है और 'सीसी' कर रहीं है। वसन्त में वासन्ती साड़ी को कंपकंपी छूट रही है।

यह कैसा वसन्त है जो शीत के डर से कांप रहा है? क्या कहा था विद्यापति ने-- ' सरस वसन्त समय भल पाओलि दछिन पवन बहु धीरे ! नहीं मेरे कवि, दक्षिण से मलय पवन नहीं बह रहा। यह उत्तार से बर्फ़ीली हवा आ रही है। हिमालय के उस पार से आकर इस बर्फ़ीली हवा ने हमारे वसन्त का गला दबा दिया है। हिमालय के पार बहुत- सा बर्फ बनाया जा रहा है जिसमें सारी मनुष्य जाति को मछली की तरह जमा कर रखा जायेगा। यह बड़ी भारी साजिश है बर्फ की साजिश ! इसी बर्फ क़ी हवा ने हमारे आते वसन्त को दबा रखा है। यों हमें विश्वास है कि वसन्त आयेगा। शेली ने कहा है, 'अगर शीत आ गयी है, तो क्या वसन्त बहुत पीछे होगा? वसन्त तो शीत के पीछे लगा हुआ ही आ रहा है। पर उसके पीछे गरमी भी तो लगी है। अभी उत्तर से शीत -लहर आ रही है तो फिर पश्चिम से लू भी तो चल सकती है। बर्फ और आग के बीच में हमारा वसन्त फॅसा है। इधर शीत उसे दबा रही है और उधर से गरमी। और वसन्त सिकुड़ता जा रहा है।

मौसम की मेहरबानी पर भरोसा करेंगे, तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी। मौसम के इन्तजार से कुछ नहीं होगा। वसन्त अपने आप नहीं आता ; उसे लाया जाता है। सहज आनेवाला तो पतझड़ होता है, वसन्त नहीं। अपने आप तो पत्ते झड़ते हैं। नये पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं। वसन्त यों नहीं आता। शीत और गरमी के बीच से जो जितना वसन्त निकाल सके, निकाल लें। दो पाटों के बीच में फंसा है, देश का वसन्त। पाट और आगे खिसक रहे हैं। वसन्त को बचाना है तो ज़ोर लगाकर इन दोनों पाटों को पीछे ढकेलो - इधर शीत को, उधर गरमी को। तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसन्त।

मैं सोचता था कि इससे पहले पण्डित शिवकुमार मिश्र ठेलें, मैं ही ठेल दूं नायिका और विद्यापति को इस चिर्कुटर्बिया में!

13 comments:

  1. अब तो कन्फर्म हो गया कि बसन्त आ गया है.

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  2. यह वाकई आपका उपालम्भ है ? टीन छप्पर उड़े कैसे जब ज्ञान हनुमान खुद यहाँ विराजे हैं! कोई ब्लॉग कर्ण भी क्या डिगा पायेगा इस कृष्ण -अर्जुन /शिव ज्ञान रूपी जोड़ी को .....बम भोले ....

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  3. जी समझ गए वसंत आ गया है.
    खिड़की से झाँका, बाहरी वातावरण में अंतर नहीं दिखा. कोंक्रिट के जंगल में रहने का यही फायदा है. वसंत प्रुफ होता है. वसंत आए-जाए हमारी बला से. वियाग्रा का विज्ञापन देख मादकता का अनुभव होता है, जब चाहो मादक हो लो. साल भर.

    टिप्पणी को लेख की तोहिन न समझा जाय. हमारे स्वतंत्र विचार है, रख दिये.

    लेख पसन्द आया. लम्बाई थोड़ी ज्यादा लगी. बोल्ड लाइने पसन्द आई. वाकई बॉल्ड है! :)

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  4. अभी एकदम निःशब्दता की स्थिति में हूँ...कुछ भी नहीं आ रहा दिमाग में सिवाय इसके कि ..." क्या लिखते थे ये लोग भी...उफ्फ्फ !!!ऐसा व्यंग्य जो हंसा हंसकर रुला दे...गंभीर चिंतन को विवश कर दे..."

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  5. बहुत अच्छी रचना।
    इसे 13.02.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह ०६ बजे) में शामिल किया गया है।
    http://chitthacharcha.blogspot.com/

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  6. Posted by ज्ञानदत्त पाण्डेय Gyandutt Pandey at 1:10 PM

    इस बाईलाइन के बावजूद हम इस धाँसू आलेख की क्रेडिट शिवकुमार जी को ही देंगे। गुरुदेव ने उत्प्रेरक का कार्य भले ही किया हो।:)

    बेहतरीन लिखा है आपने हमेशा की तरह। आप का टीन टप्पर अब लिण्टर हो गया।:) बहुत बधाई।

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  7. 9-10 की हिंदी की पुस्तक में ये व्यंग्य था.. तभ भी बहुत पसंद था और आज भी....

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  8. बहुत आनन्द आया। व्यंग्य - चिकोटी काटता और गुदगुदाता हुआ भी।

    परसाई जी की बात ही अलग है।
    कहीं कहीं वर्तनी की त्रुटियाँ रह गई हैं - सुधार लीजिए न !

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  9. इस ठेलमठेल के लिए शुक्रिया.

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  10. बसंत पर अद्भुत पोस्ट है बंधू...हम तो पढ़ते पढ़ते ही पीत वर्ण को प्राप्त हो गए...पत्नी घबराई, समझ न पायी, डाक्टर के पास ले गयी, डाक्टर बोला इन्हें पीलिया हुआ है ...हम बोले रे मूर्ख डाक्टर पीलिया नहीं हुआ रे ये उस पोस्ट का असर है जो शिव ने परसाई जी की बसंत पर लिखी पढवाई है,और क्या तू अभी अँधा हुआ है? वो बोला क्यूँ? हम बोले बसंत के अंधे को पीला ही पीला दिखाई देता है...डाक्टर नाराज़ हो गया...हमने उसे आपकी पोस्ट की कापी दे दी जिसे पढ़ कर वो भी पीतवर्ण को प्राप्त हो गया...अब उसकी पत्नी भी घबरा कर उसे किसी दूसरे डाक्टर के पास ले गयी है...लगता है ये श्रृंखला अब सब डाक्टरों के पीतवर्ण प्राप्त करने के बाद ही रुकेगी...जय हो...वीरों का कैसा हो बसंत?
    नीरज

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  11. आप बसंत की चपेट में हालाकान हुए कि परसाई जी की..जो भी हो, परसाई जी को कभी पढ़ा जा सकता है संपूर्ण आनन्द की स्थिति में सो ही आपको. :)

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  12. जाते हुए बसन्त की विदाई है क्या ये? शानदार तो है ही.

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टिप्पणी के लिये अग्रिम धन्यवाद। --- शिवकुमार मिश्र-ज्ञानदत्त पाण्डेय