सं(वैधानिक) अपील: ब्लॉगर बंधुओं से आग्रह है कि इस अगड़म-बगड़म पोस्ट को फील न किया जाय.
कुछ मुद्दे इतने चिरकुट टाइप होते हैं और उनकी इतनी चर्चा होती है कि बड़े ब्लॉगर ऐसे मुद्दों पर कुछ लिखना नहीं चाहते. जैसे अमेरिका के साथ हुई न्यूक्लीयर डील को लेकर बड़ा बवाल मचा हुआ है. डील होनी चाहिए कि नहीं होनी चाहिए. कहीं ऐसा तो नहीं है कि ऐसी किसी डील से भारत एक बार फिर से पश्चिमी सभ्यता का गुलाम हो जायेगा. अमेरिका भारत को लूट कर कंगाल बना देगा. अब ऐसे सवालों पर नए आए ब्लॉगर तो खूब लिखते है लेकिन बड़े और अनुभवी ब्लॉगर कुछ नहीं लिख रहे. आज मुझे लगा कि अगर बड़े ब्लॉगर लिखते तो क्या लिखते. शायद कुछ ऐसा;
प्रमोद जी
अमीरी की ढील नहीं दिखाई देती?. जो मन जाकर अटक गया है न्यूक्लीयर डील पर..गिरिडीह माफिक किसी अभुलाहट जगह में दस बिस्सा के एक खेत के उत्तर दिशा वाले मेड़ पर सहेज कर रख आयेंगे कागज़...ताकते रहेंगे और आँख की कालिख मेड़ पर विचरेगी..सुख को निहारेगी जैसे सुख फूट पड़ेगा ससुर ढोल की आवाज लिए?...इस सोच के साथ कि डील के कागज़ से गेंहूं उपजेगा...चावल? लडिआहट का ये हाल है कि मन में अखरोट फूट रहे हैं..बाजा बज रहा है? जीवन-पर्जंत लात खाए गरीब अब डील का पेपर खाएँगे...टुटही छाता लिए बलेस्सर मेंड़ पर उकड़ू बैठे मन में बिरहा का तान छेड़ेंगे... अपेक्खा करेंगे धान का?...एक्सपेक्टिंग द अनएक्सपेक्टेड?...माई फुट.
दुनियाँ भर की अमीरी का चिथड़ा भीगा बह रहा है..सड़क पर जमे तीन फीट पानी के ऊपर, खड़गपुर के इंडा में... बच्चे पानी में खेलते इन चिथड़ों पर पाँव धरे नज़रूल गीत गा रहे हैं..मन में आता कि इन्ही चिथड़ों में यूरेनियम और थोरियम लपेट कर आग लगा देते.. लेकिन नई उम्मीदों के माप पर पानी उड़ेल कर आगे चलते बने...पगलाए लोग बंगलोर और दिल्ली में बैठे दीवारों के पीछे घर्र-घर्र बहस के स्वरों में डूबते-उतराते आलू का पराठा और सांभर में डुबोकर इडली खाने की मशक्कत कर रहे हैं.
ज्ञान भैया (ज्ञानदत्त पाण्डेय)
बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है. न्यूक्लीयर डील देश के लिए जरूरी है या नहीं? एक प्रश्न यह भी है कि त्वरित गति से चुकते जा रहे प्राकृतिक संसाधन आने वाले वर्षों में हमें कहाँ ले जाकर खड़ा करने वाले हैं? इन दोनों प्रश्नों को एक साथ सामने रखने से जवाब मिलने में शायद आसानी हो. अभी तक इस विषय पर जो कुछ भी कहा गया या फिर लिखा गया उसको देखते हुए हमें तो लगता है मित्रों कि प्रश्न यह नहीं है कि न्यूक्लीयर डील हो या नहीं हो? प्रश्न यह है कि न्यूक्लीयर डील अमेरिका के साथ हो या नहीं हो?
वैचारिक मतभेद से उपजी स्थिति क्या ऐसे महत्वपूर्ण विषय पर राष्ट्रीय बहस का वातावरण तैयार करने के रास्ते में रुकावट नहीं है? साम्यवादी अगर वर्तमान सरकार को दिया गया समर्थन यह समझ कर वापस लेते हैं कि वे इन्डिस्पेन्सेबेल हैं तो शायद ये उनकी भूल साबित हो. 'हिस्टोरिकल ब्लंडर' से भी बड़ी भूल. उर्जा के वर्तमान स्रोतों के दिनों- दिन होते ह्रास को देखते हुए नए स्रोत खोजना ही मानवीय गुणों की परिणति है. विज्ञान ने मनुष्य को जो भी दिया हो, लेकिन सबसे जरूरी चीज जो दी है, वह है सोच का रिफाईन्मेंट.
आपका क्या कहना है?
अनूप शुक्ला जी (फुरसतिया शुकुल)
पूछिए फुरसतिया से (एक चिरकुट चिंतन)
प्रश्न: कलकत्ते से बाल किशन ने पूछा है कि न्यूक्लीयर डील के बारे में मेरी क्या राय है?
अब देखिये, ऐसे गंभीर विषय पर मेरी क्या राय हो सकती है. हाँ, अगर कोई मौज लेने वाला विषय होता तो मैं अपनी राय पहले ही दे चुका होता. वैसे बाल किशन के सवाल से ये बात पक्की है कि वे एक जिज्ञासु ब्लॉगर (मैं प्राणी नहीं कहूँगा) हैं. बिरले लोग ही ऐसे आत्मजिज्ञासु और और ज्ञानपिपासु होते हैं.
और जहाँ तक न्यूक्लीयर डील पर मेरे विचार की बात है तो मेरा तो मानना है कि जो भी डील राष्ट्रहित में हो, सब अच्छी है. ठीक वैसे ही जैसे ब्लॉग जगत में टिपण्णी डील होती रहती है. हाँ अगर इस तरह की डील केवल अमेरिका के हित में हो और अपने देश के हित में न हो, तो आपत्ति होना स्वाभाविक है. ठीक वैसे ही जैसे कोई ब्लॉगर किसी को टिपण्णी दे लेकिन उसे टिप्पणियां वापस न मिलें. देश को परमाणु उर्जा की जरूरत है. ठीक वैसे ही जैसे किसी चिठेरे को टिपण्णी उर्जा की जरूरत होती है. जीतू जी ने कई बार कहा है किसी पोस्ट पर टिपण्णी ठीक वैसे ही लगती है जैसे सुहागिन के मांग में सिन्दूर.
वैसे तो मुझे पता नहीं है कि ऐसे डील के पेपर पर क्या लिखा जाता होगा, लेकिन मैं इतना जरूर कहूँगा कि लिखें चाहे जो भी लेकिन एग्रीमेंट के हर लाइन में कम से कम दो स्माईली जरूर लगाया जाना चाहिए. ये लाइन लिखते हुए अभी-अभी एक आईडिया दिमाग में 'मे आई कम इन' कह कर घुसा है. वो ये कि अमेरिका वालों ने और हमारी सरकार से शायद यही चूक हो गई. अगर वे न्यूक्लीयर डील के एग्रीमेंट में हर लाइन में दो स्माईली लगाते तो हमारे देश के वामपंथी हँसते-हँसते इस डील पर मुहर लगा देते.
मेरी पसंद
क्या दुःख है, समंदर को बता भी नहीं सकता
आंसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता
तू छोड़ रहा है, तो ख़ता इसमें तेरी क्या
हर शख्स मेरा साथ, निभा भी नहीं सकता
प्यासे रहे जाते हैं जमाने के सवालात
किसके लिए जिन्दा हूँ, बता भी नहीं सकता
घर ढूंढ रहे हैं मेरा, रातों के पुजारी
मैं हूँ कि चरागों को बुझा भी नहीं सकता
वैसे तो एक आंसू ही बहा के मुझे ले जाए
ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता
---वसीम बरेलवी
Friday, July 4, 2008
अमेरिका के साथ न्यूक्लीयर डील - एक ब्लॉगरीय दृष्टि
@mishrashiv I'm reading: अमेरिका के साथ न्यूक्लीयर डील - एक ब्लॉगरीय दृष्टिTweet this (ट्वीट करें)!
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ब्लागरी में मौज
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मजेदार.
ReplyDeleteव्यंग्य पढ़कर आनंद आया।
ReplyDeletebahut badhiya sir ji.. :)
ReplyDeleteहा हा हा मज़ा आ गया पढ़कर.. इस पोस्ट पर बहुत मेहनत की है आपने.. ज्ञान जी और आपकी जोड़ी का ही कमाल है की मुझे लगा जैसे मैं उन्हे ही पढ़ रहा हू.. बहुत उम्दा पोस्ट.. एक समीर जी का भी अंश आता तो मज़ा आ जाता..
ReplyDeleteदो तीन बार टिप्पणी दे चुका, आ ही नही रही आपकी ब्लॉग पर.. अब वर्ड प्रेस के id से दिया है
कुश
:-)
ReplyDeleteकभी सबने पकड़ लिया तो बहुत बुरी तरह पिटोगे ,तैयार रहना.तुम आदतन और स्वाभाविक रूप से व्यंगकार हो (और अव्वल दर्जे के नकलची भी).बहुत बढ़िया लिखा है.
ReplyDeleteहमारा वाला हिस्सा तो आसान है, पर शर्तिया, अजदक वाला तो उन्ही से लिखा कर मंगाया है? नही?
ReplyDeleteऔर फुरसतिया वाली कविता बहुत अच्छी थमाई है!
जानदार शानदारश्च पोस्ट!
मजेदार। सत्य को बहुत ही सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया है आपने। सादर आभार। सुंदरतम लेख।
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिए विशेष बधाई!
ReplyDeleteवाह वाह है जी।
ReplyDeleteआलोक पुराणिक
प्यासे रहे जाते हैं जमाने के सवालात
ReplyDeleteकिसके लिए जिन्दा हूँ, बता भी नहीं सकता.
बात पहले पैदा मेरे मन में ही हुई थी, पता नहीं वसीम बरेलवी की कलम पहले कैसे पहुंच गई.
मिश्रा जी आप भले आदमी है इसलिए इस डील के चक्कर मे न फंसे तो अच्छा है .दो चार ओर भले आदमियों को आपने लपेट लिया है ...बिल्कुल वैसे ही जैसे मुलायम ने कलाम को......बाकी आपकी मर्जी....
ReplyDeleteवाहजी, वाह। क्या खूब लिखते हैं प्रमोदजी, ज्ञानजी और अनूपजी। ऐसे ही लिखते रहें। वसीम बरेलवी की गजल बांचकर तो मजा आ गया। :)
ReplyDeleteभारत एक बार फिर से पश्चिमी सभ्यता का गुलाम हो जायेगा.
ReplyDeleteअमेरिका भारत को लूट कर कंगाल बना देगा.
यह सब तो शनैः शनैः बिना किसी डील के ही होता दिख रहा है,
यह चिरकुट चिंतन नहीं है जी, एक सार्थक चिंतन है तो बड़े नज़ाकत से आपने घुमा कर उठाया है । सही है, ब्लागर पर चल रहे चूतियापे के कई बहस से तो बेहतर ही है !
शिव भाई ,ये भी खूब रही -आपने सही नब्ज़ पकडी है सभी धुरँधर ब्लोगरोँ के लेखन की :)
ReplyDelete-लावण्या
अमेज़िंग! इसी अंदाज़ की एक जबरदस्त पोस्ट प्रतीक पाण्डे नें तकरीबन दो बरस पहले की थी .. आज भी याद है .. आप भी पढिये .. http://www.hindiblogs.com/hindiblog/2006/05/blog-post.html
ReplyDeleteबंधू
ReplyDeleteएक बात तो साफ़ हो गयी कम से कम ब्लॉग जगत में हम बुजुर्ग नहीं हैं(क्यूँ की हमारा तो कहीं बड़े ब्लोगरों में आपने जिक्र ही नहीं किया ना)...बच्चे हैं...ये एहसास ही गुदगुदाने वाला है. जिन तीन ब्लोगरों का आपने जिक्र किया है वे बड़े हैं और जीवट वाले हैं क्यूँ की बुद्धिजीवी हैं, ... जीवट वाले इसलिए कहा की आज के दौर में आप बुद्धि के सहारे जिन्दा नहीं रह सकते थोडी बहुत चतुराई और मूर्खता दोनों होनी चाहिए....लेकिन सोचिये कभी हम से मूर्ख इस विषय पर ब्लॉग लिखते तो क्या कहते....सोचिये सोचिये...सोचने में क्या जाता है??? लिखें ना लिखें आप की मर्जी.
वैसे हमारी गली के नुक्कड़ पर खड़े सब्जी के ठेले वाले "रामू" से मैंने जब पूछा की अमेरिका के साथ हमारी नयूक्लिअर डील पर उसका क्या विचार है? तो बोला बाउजी डील शील ने मारो गोली... काल के बी.जे. पी. के बंद से अपनी तो भिन्डी ख़राब होगी उसका के करूँ ये विचार कर रिया हूँ....
नीरज
पुनश्च:
ReplyDeleteबेचारे वसीम बरेलवी ने इस पोस्ट पे क्यूँ घसीट लिया वो तो गरीब ब्लोगर ना है...ग़ज़ल चिपकने का इतना ही शौक था तो हम क्या मर गए थे रे बबुआ? हमको सेवा का अवसर दिया होता.फ़िर भी हमारी फरक दिली देखो की एक नहीं दो दो कमेन्ट किए हैं...तेरा बरेलवी तो बरेली से हिला तक ना. भाई ब्लागरों का धयान रखोगे तभी बदले में कुछ पाओगे...साफ़ कहना और सुखी रहना.. अपना तो ये ही असूल है.
नीरज :)
waah ! :-)
ReplyDeletekamaal hai ji kamaal.
ReplyDeletekya jabardast likh maaraa hai.
aapko bahut bahut badhai.
डील जिन्दाबाद!
ReplyDeleteभारत जिन्दाबाद!!
अमेरिका जिन्दाबाद!!!
मुलायम देश के रक्षक हैं। देश उनका ऋणी रहेगा!
:-) :-) :-)
++++++++++++++++++++
--- कालिया, जो गोली खा के भी न मरा
Apki post deal par roachak ankhe khol dene vali hai. bahut badhiya
ReplyDeleteऔर जो हमसे लिखाय रहे उ का ससुरा रद्दी मे बेचबे के लिये रखो हो का , दुबारा कित्तै चिरोरी करो हम कतई ना लीख्बै :)
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