हमारे मुहल्ले में परसों रात एक बेटी ने अपनी माँ को जला दिया. जलने से माँ की मृत्यु हो गई. मामला यह था कि इस माँ के पास एक तीन मंजिला इमारत थी. वैसे तो बेटी अकेली संतान थी और कानून के मुताबिक ये तीन मंजिला इमारत उसे ही मिलती लेकिन आजकल लोगों का कानून पर से विश्वास उठ गया है. लिहाजा बेटी ने कानून पर विश्वास न करते हुए मकान तुंरत अपने नाम करने के लिए माँ को जला डाला. मुहल्ले वाले बता रहे थे कि बेटी जब भी ससुराल से आती तो अपनी माँ के साथ माकन को लेकर झगडा जरूर करती.
मजुमदार साहबमुझे समझाते हुए कह रहे थे; "कलयुग है मिश्रा जी. इस कलयुग में सबकुछ सम्भव है."
उनकी बात सुनकर मुझे लगा कि ये तो बड़ा सरल है. कलयुग के नाम का सहारा लेकर हम कुछ भी कर सकते हैं. चोरी, डकैती ही नहीं कत्ल कर दीजिये और कह दीजिये कि; "मैं क्या करूं, कलयुग ने कत्ल करवा दिया मुझसे." माना कि रामचंद्र ने सिया से कहा था; "ऐसा कलयुग आएगा, हंस चुंगेगा दाना ...कौवा मोती खायेगा....लेकिन उनकी बात कौवा और हंस तक ही जाकर रुक गई थी. शायद इतनी भयावह स्थिति के बारे में स्वयं उन्होंने ने भी नहीं सोचा होगा. अगर सोचते तो कौवा और हंस से आगे की भी बात जरूर करते. आख़िर भगवान थे.
कुछ भी कर दीजिये और उसका जिम्मेदार किसी को खोजकर बना दीजिये. कल को ऐसा भी हो सकता है कि ये 'बेटी' कह दे, "मेरा दोष नहीं है. मैं तो कबीर जी के दोहे "काल करे सो आज कर, आज करे सो अब" का बड़ी तन्मयता से पाठ करती थी. इस पाठ करने का मेरे ऊपर उचित प्रभाव भी पड़ा. मुझे लगा कि पता नहीं ये मकान कब मेरे नाम होगा. चलो आज ही इस काम को कर डालते हैं."
कबीर और कलयुग को दोष देने से मन न भरे तो जमाने को दोष दे डालिए. कह सकते हैं; "क्या करें, ज़माना ही ऐसा है. खर्चा कितना बढ़ गया है. सब अपने बारे में सोचते हैं." अरे बाबा ज़माना तो हर जमाने में ख़राब था. आज से सौ साल पहले भी बाप अपने बेटे के रंग-ढंग देखकर कहता था; "बरखुरदार के रंग-ढंग ठीक नहीं दिखाई दे रहे." इतना कहकर जोड़ देता था; "वैसे क्या करोगे, ज़माना ही ख़राब आ गया है." आज भी बाप अपने बेटे के बारे में वही सबकुछ कहता है. लेकिन ज़माना क्या इतना ख़राब आ गया है कि बेटे-बेटी ही माँ-बाप की जान ले लें? वो भी जायदाद के लिए. अरे पहले पड़ोसी जायदाद वगैरह दखल कर लेते थे. अब तो इस तरह के पुण्य वाले काम पर से पड़ोसियों का कॉपीराईट जाता रहा.
अपने व्यक्तिगत दुर्गुणों को छिपाने के लिए हम चादर तलाश करते रहते हैं. इस तलाश में हमेशा कुछ न कुछ खोज भी लेते हैं. ठीक वैसे ही जैसे मजुमदार साहब ने कलयुग को खोज लिया. कहते हैं सामाजिक बदलाव आ रहा है. लेकिन सामाजिक बदलाव इस तरह का आएगा, इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती. पिछले साल ऐसी ही एक घटना मेरठ में हुई थी. जब पढ़े-लिखे और पैसे वाले व्यक्ति ने जायदाद के लिए ही अपनी माँ का कत्ल कर दिया था. अब ऐसा क्यों हुआ इसके बारे समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक अपना ज्ञान बहा सकते हैं लेकिन एक आम आदमी के लिए तो यही बात है कि इस तरह की घटनाएं धीरे-धीरे बढ़ती जा रही हैं.
चलिए आपको उदय प्रताप सिंह जी की एक गजल पढ़वाता हूँ. मुझे बहुत पसंद है.
पुरानी कश्ती को पार लेकर, फ़कत हमारा हुनर गया है
नए खेवैये कहीं न समझें, नदी का पानी उतर गया है
तुम होशमंदी के ऊंचे दावे, किसी मुनासिब जगह पे करते
ये मयकदा है, यहाँ से कोई कहीं गया, बेखबर गया है
न ख्वाब बाकी है मंजिलों के, न जानकारी है रहगुजर की
फकीर-मन तो बुलंदियों के शिखर पे जाकर ठहर गया है
हुआ तजुर्बा यही सफर में, वो रेल का हो या जिंदगी का
अगर मिला भी हसीन-मंजर, पलक झपकते गुजर गया है
उदास चेहरे की झुर्रियों को बरसती आँखें बता रही थीं
हमारे सपनों को सच बनाने जिगर का टुकड़ा शहर गया है
'उदय' के बारे में कुछ न पूछो, पुरानी मस्ती अभी जवां है
कि बज्म-ए-यारा में शब गुजारी, पता नहीं अब किधर गया है
Monday, July 14, 2008
रामचंद्र कह गए सिया से....
@mishrashiv I'm reading: रामचंद्र कह गए सिया से....Tweet this (ट्वीट करें)!
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दुखद है बंधू...बहुत दुखद...हम मूक दर्शक से बस पढ़ते हैं या देखते हैं ऐसी घटनाएँ...कलयुग के सर पर डाल कर अगली घटना का इंतज़ार करते हैं....ऐसा नहीं है इस प्रकार की अनहोनी अब शुरू हुई है...ऐसी घटनाएँ सदियों से घटती आ रही हैं...इतिहास उठा कर देखें....लेकिन उन में अब थोडी बढोतरी हो गयी है.
ReplyDeleteउदय जी ग़ज़ल का तो कहना ही क्या पढिये और बस पढ़ते ही जाईये....वाह.
नीरज
बंधु ये बहाने हर काल मे रहे है रहेगे.
ReplyDeleteअपने व्यक्तिगत दुर्गुणों को छिपाने के लिए हम चादर तलाश करते रहते हैं. इस तलाश में हमेशा कुछ न कुछ खोज भी लेते हैं. सही बात है।
ReplyDeleteउदय प्रताप जी की गजल अच्छी लगी।
जघन्यता और बर्बरता के लिये भी सिद्धान्त खोजे जा सकते हैं। पर लाख उन्हें जस्टीफाई करें, आत्मा नाम की चीज गवाही नहीं देती।
ReplyDelete-----
हसीन सपने अचानक वीभत्स हो जाते हैं। नुकीले दांतों से खून टपकाते हुये।
यह दुनियां जाने क्या कर रही है - वास्तविकता के साथ भी, सपनों के साथ भी। स्वार्थ की बर्बरता परेशान करने वाली है।
ऎसी ओलाद से वेओलाद ही अच्छे हे,यह सब पढ कर रोगंटे खडे हो जाते हे,
ReplyDeleteबेटे यह हरकत करते, तो नार्मल बात थी।
ReplyDeleteपर बेटियों का यह पतन।
हाय बेटियों तुम पतन में बेटों के स्तर पर क्यों उतर रही हो।
रामचंद्र कह गये सिया से ऐसा कलयुग आयेगा
ReplyDeleteहंस चुगेगा दाना कौया मोती खायेगा. .. हे सिये रे ....
आज ऐसा ही हो रहा है सच कह रहे कि आजकल इसी घटनाओं तेजी से बढ़ रही है .
पुरानी कश्ती को पार लेकर,फ़कत हमारा हुनर गया है
नए खेवैये कहीं न समझें,नदी का पानी उतर गया है
कविता अच्छी लगी.धन्यवाद्.जी
तुम होशमंदी के ऊंचे दावे, किसी मुनासिब जगह पे करते
ReplyDeleteये मयकदा है, यहाँ से कोई कहीं गया, बेखबर गया है
न ख्वाब बाकी है मंजिलों के, न जानकारी है रहगुजर की
फकीर-मन तो बुलंदियों के शिखर पे जाकर ठहर गया है
हुआ तजुर्बा यही सफर में, वो रेल का हो या जिंदगी का
अगर मिला भी हसीन-मंजर, पलक झपकते गुजर गया है
उदास चेहरे की झुर्रियों को बरसती आँखें बता रही थीं
हमारे सपनों को सच बनाने जिगर का टुकड़ा शहर गया है
kya kahun ek ek sher seedha dil me utar gaya hai..kalyug me aisi sachayi bhi bhali si lagti hai....
मुझे लगता है कि सम्पत्ति की लालच में अपने सगे संबन्धियों का खून बहा देना मनुष्य ने सभ्यता की शुरुआत से ही अपनी प्रवृत्ति बना लिया था। इतिहास में इसके उदाहरण भरे पड़े हैं।
ReplyDeleteसभ्यता के विकास के साथ इसमें कमीं आ जानी चाहिए थी लेकिन अफ़सोस है कि हम और जंगली होते जा रहे हैं। मैकियावेली की यह बात कदाचित सही है कि “अपनी सम्पत्ति छीनने वाले की अपेक्षा एक व्यक्ति अपने पिता के हत्यारे को अधिक सुगमता से क्षमा कर देता है।”(A man more readily forgives the murderer of his father than the confiscator of his property. –‘Prince’)
सोचते हैं कि कल पर क्यों टालें? आज ही आपका ब्लौग हैक कर लें.. कह देंगे जी कि कलयुग ने करवा दिया..
ReplyDeleteआप क्या कहते हैं?? :)
उदय प्रताप सिंह जी के बारे में और जानकारी कहाँ से मिल सकती है?
ReplyDeleteप्रस्तुत गजल तो क्लासिक अंदाज की कमाल की चीज है. बहुत आभार आपका.
Bilkul sahi farmaya...
ReplyDeleteAur Uday Prakash ji gazal ke to kya kahne. Vaah!!
हाँ, आप सही कह रहे हैं। तुलसी बाबा ने अपने जमाने को देख कलयुग का वर्णन राम सीता की वार्ता में कर दिया। हमारे जमाने के भी ऐसै ही करेंगे। लेकिन समाज को नयी दिशा कैसे दी जाए या व्यवस्था को बदल कर नई कैसे स्थापित की जाए क्या इस तरफ सोचने की जरूरत नहीं है?
ReplyDeletebada hi gambhir aur saamyik prashn uthaya aapne.
ReplyDeletepar saab ek baat kahana chahata hun ki galat to har haal me galat hai aap use bahane se sahi nahin kar sakte hain.
jaise isi gazal ki meri cd abhi tak aapne nahin lotayi ye bilkul galat hai.