आज अहमदाबाद में विस्फोट हो गए. ये बात ठीक नहीं हुई. अभी दो दिन पहले ही तो बैंगलोर में हुए थे. इन आतंकवादियों को चाहिए कि देशवासियों को थोड़ी सी राहत तो दें. एक बात बहुत बुरी लगी. विस्फोट के बाद आतंकवादियों ने हर बार की तरह जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली.
अहमदाबाद में विस्फोट हुआ था. जिम्मेदारी अपने ऊपर न लेते तो कुछ किया जा सकता था. व्हिस्पर कैम्पेन के जरिये बात फैलाई जा सकती थी कि इन विस्फोटों में मोदी का हाथ है. आख़िर गोधरा काण्ड के समय सफलता के साथ ये बात फैलाने में उतनी दिक्कत नहीं हुई थी कि वो काण्ड बी जे पी वालों ने करवाया था ताकि दंगा फैलाया जा सके.
आज मैंने बहुत दिनों बाद एक नया नारा लिखा. नारा है; "हमारी संस्कृति केवल गंगा-जमुनी संस्कृति नहीं है, बल्कि ये कृष्णा-गोदावरी संस्कृति भी है."
असल में दक्षिण भारत के बुद्धिजीवियों से ये डिमांड कई महीनों से आ रही थी. उनका कहना था कि जब उत्तर भारत में विस्फोट होते हैं तो गंगा-जमुनी संस्कृति का नारा दिया जाता है. और अब तो विस्फोट दक्षिण भारत में भी होने लगे हैं. ऐसे में कृष्णा-गोदावरी संस्कृति का नारा एक अच्छा नारा साबित होगा.
अहमदाबाद में हुए धमाकों को कैसे जस्टिफाई किया जाय? बी जे पी शासित राज्यों में कोई बड़ा दंगा भी नहीं हुआ. खैर, कल बुद्धिजीवियों की एक अर्जेंट मीटिंग बुलानी पड़ेगी. अहमदाबाद के विस्फोटों को जस्टिफाई करने का कोई न कोई रास्ता निकलना पड़ेगा.
मुझे लगता है थोड़ा अध्ययन करके हिंदू-हिंसा पर एक कुछ लेख लिखा जाना चाहिए. वैसे तो हाल ही में मैंने हिंदू हिंसा पर एक लेख लिखकर साबित कर दिया कि परसुराम बहुत हिंसक थे. अगर इसी तरह से राम, कृष्ण, वगैरह को हिंसक बताने के लिए कोई लेख बन जाए तो अच्छा रहेगा.
इन विस्फोटों की वजह से दो-चार दिन टीवी वगैरह में पोटा को वापस लाने की बात फिर से होगी. वैसे हम किसी हालत में ये साबित कर देंगे कि आतंकवादी विरोधी कानूनों का उलंघन होता है इसलिए आतंकवादी विरोधी कानून लाना बेवकूफी होगी.
कई दिनों से मुझे कुछ पुराने नारों की सफलता पर शंका होने लगी है. पिछले कई सालों से ये नारा कि "आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता" ने काफी काम किया. लेकिन अब हमें लग रहा है कि लोग ये नारा सुन-सुन कर पक गए हैं. कहीं ऐसा न होने लगे कि लोग कहना शुरू कर दें कि; "आतंकवादी का धर्म होता है."
कल सुबह ही मीडिया में ये ख़बर फैलानी पड़ेगी कि बांग्लादेशी नागरिकों के ऊपर गुजरात पुलिस के अत्याचार शुरू हो गए हैं. नरेन्द्र मोदी और उनकी पुलिस बांग्लादेशियों को जान-बूझ कर परेशान कर रही हैं.
वैसे तो आज अहमदाबाद में तीस्ता सीतलवाड़ राहुल बोस के साथ उतर चुकी हैं लेकिन कुछ और बुद्धिजीवियों को वहां भेजने से मामला जम जायेगा. मुझे लगता है अगर अरुंधती राय पंहुच जातीं तो अच्छा रहता.
कल दिल्ली में सहमत की एक मीटिंग करवाने का जुगाड़ हो जाता तो अच्छा रहता. ए के हंगल और जोहरा सहगल को मैदान में उतारने से मामला जम जायेगा.
इतना बड़ा विस्फोट होने के बाद भी नरेन्द्र मोदी ने कोई भड़काऊ बयान नहीं दिया. ये हमारे लिए चिंता का विषय है. वैसे तो पहले छोटी-छोटी बातों पर भड़क जाता था लेकिन अब पता नहीं क्या हुआ इसे?
कल सुबह तक कुछ नए नारे लिखने हैं. अच्छा होता अगर विनायक और निस्तेज को यहीं बुला लें. साथ उन्हें सिगरेट के पैकेट लाने के लिए भी कहना है.
Sunday, July 27, 2008
बुद्धिजीवी जी की डायरी से कुछ....
@mishrashiv I'm reading: बुद्धिजीवी जी की डायरी से कुछ....Tweet this (ट्वीट करें)!
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अच्छा व्यंग्य है। व्यंग्य बाण काफी तीखे है।
ReplyDeleteमै आज भी यही कहूँगा कि देश की सबसे बड़ी समस्या घुसपैठिए बाँग्लादेशी ही साबित होंगे। ये हमारे देश के छोटे छोटे शहरों मे दीमक की तरह घुसे हुए है, देश को चट कर जाने मे इनको ज्यादा समय नही लगेगा। इनका ईमान सिर्फ़ पैसा है।
मिश्रा जी आपको पढ़ना अच्छा लगता है लेकिन जब भी कोई खास विचारधारा की ओर झुकता है और वो भी तब जब गलती वहा भी हो तो मुझे अच्छा नही लगता. कुछ इस पोस्ट के साथ भी है..... कम से कम विस्फोट जैसे मामले में तो एकदम अच्छा नही है..... मुझे लगता है यह बात भी समझते होंगे...
ReplyDeleteपोटा कानून का मैं विरोधी तो नही हू लेकिन जब इसमे झारखण्ड के आम लोग भी फस जाते हैं तो यह दुखद है.... झारखण्ड का निवासी हू इसलिए इसे ज्यादा नजदीक से समझता हू.....
मेरा कहना इतना है कि जुर्म होता क्यों है, आतंकी घटनाये होती क्यों है... इसके जड़ में जाए न कि इसके होने के बाद कि घटना पर ज्यादा जोर डाले..... केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, खुफिया विभाग, और सबसे ऊपर हमारे समाज को एक जुट होना होगा......
मेरा ऐसा मानना है.... बाकि ऐसे व्यंग कई लिखे जाते रहेंगे जो एक को सही तो दुसरे को ग़लत ठहराएंगे दूसरा भी ऐसा ही करेगा अपने को सही और आपको ग़लत ठहरा देगा.... थोडी रोशनाई ही तो खत्म होगी!!
मिश्रा जी बहुत अच्छी बात कह गये,धन्यवाद
ReplyDeleteदेखिये वैसे तो हम रविवार को ऐसा कोई काम नहीं करते जिसका बुद्धि से कोई लेना देना हो...सारे मनोरंजन के काम जैसे ब्लॉग देखना लिखना पढ़ना आदि भी हम रविवार को नहीं करते, (ये सब भी अगर रविवार को करने लगें तो ऑफिस में क्या करेंगे? मिटटी के माधो जैसे जैसे थोडेही बैठे रहेंगे सारा हफ्ता ).रविवार को दोपहर में सोने का कार्यक्रम रहता है लेकिन आज खोपोली में जोर की बरसात हो रही है जिसकी आवाज सोने नहीं दे रही..टी.वी. पर आपकी पोस्ट पर लिखी सामग्री पर चर्चा परिचर्चा हो रही है...हमारे यहाँ जब सब कुछ हो जाता है तब चर्चा परिचर्चा होती है...ये परम्परा है जिसका निर्वाह हो रहा है. ऊहापोह में नेट खोला तो देखा आप ब्लॉग पर बिराजमान हैं. शायद आपको भी नींद ना आ रही हो. जिस देश में पता नहीं कब क्या हो जाए... नींद आ भी कैसे सकती है...
ReplyDeleteमुझे दुःख इस बात से अधिक है की मरने वाले हमेशा बिचारे वो लोग होते हैं जिनके जिन्दा रहने से किसी को कोई फर्क ही नहीं पड़ता...जिनके जिन्दा रहने से फर्क नहीं पड़ता उनको क्यूँ मारा जाता है????
नीरज
राजेश जी, जब भी किसी भी मुद्दे पर कोई कुछ लिखेगा या बोलेगा तो उसे किसी न किसी विचारधारा से जोड़ दिया जायेगा. पोटा कानून की वजह से आपके राज्य में निरीह लोगों को सताया जाता है तो ये कानून की गलती नहीं है. कुछ लोग कहते हैं कि चूंकि कानून रहने के बावजूद आतंकवाद पर काबू नहीं पाया जा सका इसलिए ऐसे कानून की कोई ज़रूरत नहीं है. बलात्कार और हत्या के ख़िलाफ़ कानून है. लेकिन बलात्कार और हत्या देश में रुक गया हो, ऐसा नहीं है. तो क्या उन कानून को रद्द कर दिया जाय. समस्या कानून की वजह से नहीं है. समस्या है उस कानून को लागू करने की.
ReplyDeleteआतंकी घटनाएं होती क्यों हैं? आप इस बात की तह में जाने के लिए कहते हैं. सालों से लोग इस तह में कई बार जाकर आए हैं. क्या निष्कर्ष निकला? आपको पता हो तो जरा मुझे भी बताएं. आतंकवाद की घटनाएं होने के बाद हर बार हम तह तक जाकर लौट आते हैं. आजतक नहीं पता चला कि तह में मिला क्या? दार्शनिकता की चादर ओढे हम भारत में फैले आतंकवाद को गरीबी, बेरोजगारी, बोस्निया, चेचेन्या, कश्मीर, अफगानिस्तान, और न जाने कहाँ-कहाँ से जोड़ते रहते हैं. अपनी सुविधा के अनुसार.
जहाँ तक मेरे किसी विचारधारा से जुड़ने की बात है तो उसपर मैं क्या कहूं? आप दिल पर हाथ रख कर कह सकते हैं कि आतंकवाद को लेकर हमारे बुद्धिजीवी जो कुछ भी करते हैं, वह ठीक है? पोटा को लेकर हमारे महान बुद्धिजीवियों ने ये बात फैला राखी है कि अगर यह कानून लाया गया तो देश की तथाकथिक सेकुलर फैब्रिक तार-तार हो जायेगी. मैं पूछ सकता हूँ, ऐसा क्यों होगा? क्या पोटा में ऐसा लिखा हुआ है कि यह कानून किसी एक धर्म को माननेवालों के ऊपर लागू होगा? अगर ऐसा लिखा हुआ है तो मैं मानता हूँ कि 'सेकुलर फैब्रिक' तार-तार हो जायेगी. आपके राज्य झारखंड में निरीह लोग पोटा के अंतर्गत बंद कर दिए गए होंगे. ऐसा बहुत जगह हुआ है. लेकिन ये कानून की वजह से नहीं हुआ है. ये हुआ पुलिस की वजह से. पन्द्रह साल से ज्यादा हो गए. पुलिस रिफार्म्स को लेकर प्रकाश सिंह की एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल है. हमारी सरकारें अभी तक हलफनामा नहीं दाखिल कर सकी हैं. आप तो पत्रकारिता में हैं. आप इस बात पर बहस करवाईये न.
जब जयपुर में विस्फोट हुआ था तो हमारे केन्द्रीय मंत्री ने रिकॉर्ड पर कहा था कि राज्य सरकार बंग्लादेशियों को परेशां कर रही है. जरा सा सोचिये. भारत देश का गृहमंत्री कैमरे के सामने स्वीकार करता है कि भारत में बंग्लादेशी घुसपैठिये हैं. एक धमाका कहीं भी होता है तो हमसे कहा जाता है कि साम्प्रदायिक सौहार्द बनाये रखने की ज़रूरत है. एक तरफ़ तो हमारे कर्णधार हमें बताते रहते हैं कि आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता. हम मानते हैं इस बात को. लेकिन उसके बाद ये कहने की ज़रूरत कहाँ है कि हमें साम्प्रदायिक सौहार्द बनाये रखने की ज़रूरत है. आपको इतना भरोसा नहीं है अपनी जनता पर? और वो भी तब जब आप ख़ुद ही कह रहे हैं कि हमारा देश गंगा-जमुनी संस्कृति की वजह से जाना जाता है.
अब आप ही बताईये, क्या-क्या लिखूं? खैर, कभी पोस्ट में लिखूंगा.
मुझे नही पता कि आप बुद्धिजीवी से किनको इंगित कर रहे हैं, अगर यह बुद्धिजीवी हमारे नेता हैं तो माफ़ कीजियेगा मैं इनके लिए अपने दिल पर हाथ नही रख सकता..... घिन्न आती है इन नेताओ के नाम सुनकर.... हत्या अपराध है ...चाहे मैं करू, या फ़िर कोई और करे... वह अपराध है.... गुजरात दंगो में भी यह अपराध हुआ.... आप दिल पर हाथ रख कर कहिये कि दंगो में निर्दोष लोग नही मारे गए.....
ReplyDeleteमंटो की कहानी याद आ जाती है.....
एक मुसलमान घर आता है, देखता है कि दंगाइयो ने उसकी पत्नी की हत्या कर दी, उसकी नाबालिग़ बेटी को हवस का शिकार बनाया... देख कर सर पर पागलो सा गुर्राया, घर से गंडासा निकाल कर हिंदू मोहल्ले की तरफ़ भागा, एक घर में जाकर पहले एक औरत को गंडासे से मारता है. फ़िर एक मासूम को अपने हवस का शिकार बनाता है. जब उसकी हत्या कर देता है और वह से जाने को होता है तो उसके कपड़े से उलझ जाता है. वैसा ही हरा कपड़ा वह अपनी बेटी के लिए भी तो लेकर आया था. लड़की का चेहरा देखता है तो उसे अपनी बेटी का चेहरा नजर आता है... और वह वहा रोने लगता है.........
यह कहानी बहुत कुछ कहती है.... आँख के बदले आँख...सारा शहर अँधा हो जाएगा......
सही कहा! आतंक पर नकेल कसो तो ये मानवाधिकार वादी पांय-पांय करने लगते हैं। भारत एक सॉफ्ट स्टेट है। यहां आतंक झेलना और मुंह भी न खोलना नियति है।
ReplyDeleteराजेश रोशन जी,
ReplyDeleteदंगों में निर्दोष लोग ही मारे जाते हैं. इसमे दिल पर हाथ रखने की बात कहाँ से आ गई? और अगर रखना ज़रूरी है तो मैं रख लेता हूँ. जहाँ तक मंटो की कहानी की बात है तो मंटो को यह कहानी लिखने की ज़रूरत क्यों पड़ी? इसकी तह में जाने की ज़रूरत नहीं महसूस होती? वैसे भी मामला आतंकवाद से शुरू होकर मंटो की कहानी तक क्यों पहुँच रहा है?
और हाँ, बुद्धिजीवियों से मेरा मतलब उनलोगों से है जिन्हें इस देश में ओपिनियन मेकर बना दिया गया है. ये बुद्धिजीवी किसी भी पेशे से हो सकता है. लेखक से लेकर पत्रकार और पेंटर से लेकर ऐक्टर तक. आँख के बदले आँख वाली बात तथाकथित जेहादी आतंकवाद और नक्सली घटनाओं पर इस्तेमाल करने की ज़रूरत मुझे समझ में नहीं आती. आपको आती हो तो ज़रूर बताईयेगा. आप क्या चाहते हैं? आतंकवादी आक्रमण कर दे और जब उनके ख़िलाफ़ कार्यवाई की बात हो तो हम 'पूरे शहर के अंधे होने के भय' से ऐसी कार्यवाई को रोकने खड़े हो जाएँ.
भाई साब हमारे ऊपर हमले ऐसे ही होते रहेंगे. महीने में कम से कम दो तो पक्के.
ReplyDeleteचलता रहेगा ऐसे ही. हमलोग शायद यही झेलने के लिए जिन्दा हैं. बस यही बात कहनी है कि दुर्योधन तक तो ठीक था लेकिन बुद्धिजीवी की डायरी छापकर तुमने दिखा दिया कि बड़े निर्लज्ज किस्म के ब्लॉगर हो.
bahut kuchh kah diya bahut achhe tarike se
ReplyDeleteबात वहाँ जा पहुँची है जहाँ सोच-सोचकर दिमाग को घुन लगने लगता है। क्या किया जाए? vicious circle जैसा हो जाता है सारा चिंतन और किस-किस पर गुस्सा निकाला जाए? कुछ बातें सोचकर मन होता है नैतिकता को ताक पर रखकर कुछ किया जाए।
ReplyDeleteअभी एक अखबार ने अहमदाबाद विस्फोटों के अगले दिन उत्तर प्रदेश के कई शहरों में पुलिस सतर्कता और सावधानी व नागरिकों की जागरूकता का जायजा लेने के लिए नकली बम साइकिलों में लटकाकर अनेक सार्वजनिक स्थलों पर खड़े कराए। ये साइकिलें घण्टों लावारिस खड़ी रहीं लेकिन न तो किसी पुलिस वाले ने इसकी सुधि ली और न ही किसी आम नागरिक की निगाह उनपर गयी। यह उस दिन हुआ जिस दिन आतंकवादियॊं के अगले हमले की आशंका सबको थी।
ReplyDeleteजब हम इतने लापरवाह हो सकते हैं तो हमारी vulnerability में कोई संदेह कैसा?
ये कितना घटिया काम किया आपने ?इस महान बुद्धीजीवी की डायरी उठा ली ,सारा ब्लोग गंदा हो गया इसे तुरंत सुच्च कराईये कुछ मानवधिकार कार्यकरताओ से शुद्ध कराईये , मोदी गुजरात हिंदुओ को ११ पोस्टो तक गरियाईये,अल्प संख्यक और वो भी बंगाल से इम्पोर्ट के फ़ेवर मे ११ पोस्टे लिखिये, मंटो की कहानी को कम से कम ११००० फ़ोटो कापी कराकर गुजरात मे बटवाईये, तभी आपका उद्वार संभव है ,वरना आपको मानवाधिकारियो और धर्म निर्पेक्ष नेताओ की हाय लगेगी.:)
ReplyDeleteरोज रोज की इन घटनाओं ने मन इतना आहत कर दिया है कि शब्दों ने पूरी तरह साथ छोड़ दिया है.क्या कहूँ??
ReplyDeleteआपको अपनी बात पर सफाई देने की जरूरत क्यों पड़ रही है, आपका ब्लॉग है जो आप देखते सोचते है वही लिखेंगे ना. बहुत खरी खरी सही बाते लिखी है.
ReplyDeleteऔर हाँ इन धमाको के लिए स्थानिय कॉंग़्रेस ने मोदी के भड़काऊ भाषणो को जिम्मेदार ठहराया है. पता नहीं जयपुर बेंगलोर में किसने मोदीनुमा भाषण दिये थे.
मासूम आतंकियों के लिए तिस्ता मासी तो आ गई है..देखें और कितने लोग आते है/ लिखते है.
@ संजय जी,
ReplyDeleteसंजय मैंने कोई सफाई नहीं दी है. मैंने अपनी बात को केवल आगे बढ़ा दिया है. मैं केवल इतना देखना चाहता था कि बात आगे बढ़ने से कितने तर्क सामने आते हैं. लेकिन तर्क की जगह मंटो जी की कहानी मिली पढ़ने को.
इसी विचार पर कुछ लिखना चाहता था.. चलो अच्छा है आपने लिख दिया.. और बहुत खूब लिखा है..
ReplyDeleteदेर से आने का फायदा हुआ-बुद्धिजीवी की डायरी बांची. टिप्पणियाँ बांची. मंटो की कहानी फिर से पढ़ी. वाह जी. एक पोस्ट और ढ़ेरों मेटेरियल. नायाब.
ReplyDeleteज्ञानजी ने लिखा है कि 'आतंक पर नकेल कसो तो ये मानवाधिकारवादी पांय-पांय करने लगते हैं।'
ReplyDeleteअरे महाराज ! इसी पांय-पांय से तो उनका रोजी-रुजगार चलता है . कई कार्यकर्ता-नेता-सुधारक तो विस्फ़ोट-दंगों-महामारी-बाढ़-सूखा आदि आपदाओं के लिए बकोध्यानम की मुद्रा में रहते हैं. पी. साईनाथ बाबू का किताब नाहीं पढे़ हैं का ?
बहुत सही बातें लिखी हैं आपने, पर आप एक बात भूल गए की आपको केवल वह सच बोलना है जो हमारे प्रगतिशील भाइयों को अच्छा लगे. बंगलादेशी हमारे भाई हैं और भारत की भूमि पर उनका हमसे ज़्यादा अधिकार है. पाकिस्तानी भी हमारे भाई हैं और दिल्ली की गद्दी पर उनका मनमोहन सिंह से ज़्यादा अधिकार है और हाँ भारत के मुसलमान केवल वोट बैंक हैं और हिंदू केवल चोट बैंक.
ReplyDeleteशत्रुओं को ढूँढ पाना खेल नहीं है,
उनकी कुटिलता का मेल नहीं है,
चेहरे पर चेहरा लगाए हुए हैं,
देश की रगों में जो समाए हुए हैं,
उनके सफल उपचार के लिए,
असुरों के पूर्ण संहार के लिए,
आग बरसाता मानसून चाहिए,
आत्मा को थोड़ा सा सुकून चाहिए.