सप्ताह में दो-तीन दिन ऐसे होते हैं, जब मैं सुबह के आठ बजने से पहले ही आफिस पहुंच जाता हूँ। सुबह-सुबह आफिस जाना एक अच्छा अनुभव रहता है। स्कूल जाते बच्चे, मार्निंग वाक करते बुजुर्ग, चाय की दुकानों पर बैठे अखबार पढ़ते लोग; कुल मिलाकर बड़ा अच्छा माहौल दिखाई देता है।
आज की सुबह भी ऎसी ही थी। आफिस आते हुए मेरी नज़र ब्रेड सप्लाई करने वाले एक ठेले पर पडी। ठेले पर रखे बॉक्स पर बेकरी का नाम लिखा था; 'द ग्रेट बंगाल बेकारी'। ऐसा कई बार होता है कि पश्चिम बंगाल में रहने वाले स्थानीय लोग हिंदी लिखते या बोलते हैं तो लिखे या बोले गए शब्दों से कुछ अलग ही अर्थ निकलता है। इस केस में भी ऐसा ही था। एक क्षण को लगा जैसे किसी ने पश्चिम बंगाल की पिछले दो दशकों की समस्या पर निबंध लिखा है जिसका शीर्षक है 'द ग्रेट बंगाल बेकारी'।
बेकारी की समस्या केवल पश्चिम बंगाल मैं है, ऎसी बात नहीं। देश के बाकी राज्यों में भी ये समस्या है। लेकिन देश के अन्य राज्यों की तुलना अगर पश्चिम बंगाल से करें तो एक अंतर स्पष्ट दिखेगा। यहाँ के बेकार लोगों में बहुत सारे ऐसे हैं जो पिछले दशकों में कारखानों के बंद होने से बेकार हो गए हैं। जिनके पास पहले काम था लेकिन अब नहीं है। कारखाने बंद करने में किसका हाथ है, ये बहस का मुद्दा नहीं रहा अब। ऊपरी तौर पर सबसे बड़ा हाथ मजदूर संगठनों का था। कुछ अदूरदर्शी उद्योगपति, उद्योग के प्रति सरकार की नीति, और बुनियादी सुविधाओं की कमी वगैरह का नंबर बाद में आता है। सभी पक्षों से गलतियाँ हुईं, क्योंकि सभी अपना-अपना एजेंडा लेकर चल रहे थे और एक दूसरे के विरुद्ध काम करने पर आमादा थे। सरकार का एक ही एजेंडा था; किसी भी तरह से सत्ता में बने रहना। मजदूर संगठनों का एजेंडा था, अपनी ताक़त दिखाना और सपने देखना कि मजदूर एक दिन सारी दुनिया पर राज करेगा। उद्योगपतियों का एजेंडा कारखाने बंद कर देना, वित्तीय संस्थानों से लिया गया कर्ज़ हज़म कर जाना और कहीँ और जाकर वहाँ मिल रही सरकारी छूट की लूट का उपभोग करना था।
गलतियों को सुधारा जा सकता था। लेकिन सुधार की प्रक्रिया में पहला कदम तब उठता जब सारे पक्ष अपनी-अपनी गलतियों को मानते। समस्या है, अगर इस बात को पूरी तरह खारिज कर दिया जाय, तो फिर समाधान खोजने की पहल हो ही नहीं सकती। नतीजा ये हुआ कि कारखाने बंद होते गए और बेकारी बढती गई।
कारखाने बनाने का काम कोई छोटा काम नहीं होता। बड़ी मेहनत होती है, बहुत सारे लोगों की कोशिश होती है, बहुत सारा समय और पैसा लगता है। तब जाकर कारखाने तैयार होते हैं। लेकिन बनने के बाद उन्ही कारखानों का ख़त्म हो जाना, वो भी कुछ लोगों के गैरजिम्मेदाराना रवैये के चलते, बड़ा दुखद रहा। किताबों में लिखी गई बातों पर लकीर के फकीर की तरह अमल, अपने 'सिद्धांतों' के आगे और कुछ नहीं देखने की जिद और कुछ नारों ने व्यावहारिकता को दबा दिया।
नतीजा? 'द ग्रेट बंगाल बेकारी'।
Saturday, June 30, 2007
द ग्रेट बंगाल बेकारी
Friday, June 29, 2007
एक सशक्त ब्लॉग लेखन पर फुटकर विचार
शिव कुमार मिश्र अपने फील्ड में अत्यंत सफल हैं. जिस फील्ड में वे हैं – उसमें सफलता जिन प्रकार के गुणों से मिलती है वे ब्लॉगरी में सफल होने के लिये सहायक हो सकते हैं; पर उनसे सफलता सुनिश्चित हो; यह कतई जरूरी नहीं (सन्दर्भ- इसी ब्लॉग में उनकी पिछली पोस्ट - 'बाल किशन के सुझाव और ब्लॉग में बदलाव'). शिव इसको भली प्रकार जानते भी हैं. मेरे विचार में कोई व्यक्ति कलकत्ते में रहने वाला हो, साम्यवादी न हो पर सफल हो तो उसमे जबरदस्त कॉमनसेंस (जो अन-कॉमन होती है) होना अनिवार्य है. शिव में वह है.
शिव मुझसे छोटे हैं उम्र में – सो सीधे-सीधे तो नही कहेंगे कि भैया इस तरह प्रवचन देने के लिये आप अथॉरिटी कैसे हो गये. पर इस बात की कसमसाहट उनमें जरूर उठ सकती है. इसपर मैं अपना अनुभव बताता हूं कि बतौर ब्लॉगर किस मानसिक प्रक्रिया से मैं गुजर चुका हूं.
आपको किसी भी आकस्मिक व्यवहार के लिये तैयार होना चाहिये:
शुरू-शुरू में यह चिठेरों की दुनिया मुझे अजीब सी लगती थी.
ब्लॉगरी में सीनियारिटी/सामाजिक हैसियत/अभिजात्यता/आपका सोर्सफुल होना आदि कोई मायने नहीं रखता. आप ज्यादा ऐंठ में रहेंगे तो कोई इतना ही लिहाज करेगा – नाम से नहीं, बेनाम आपके ब्लॉग पर टिपेरकर “दिव्य निपटान” कर जायेगा! चाहे आप सद्दम हुसैन हों या जार्ज बुश, या क्वीन विक्टोरिया; “काशी के अस्सी” की तरह यहां भी अभिवादन में हर-हर-महादेव के साथ “%ं&*$ का” कोई कभी भी बोल देगा – यह उत्तरोत्तर समझ में आता गया है तथा पिछले महीने की हिन्दी ब्लॉगरी में हुई जूतमपैजार के बाद ज्यादा ही समझ में आ गया है.
अपने अहम को जान बूझ कर छोटा बनायें:
आपको सतत: सशक्त ब्लॉगर होने के लिये अपने कार्यक्षेत्र के अहम को पीछे रख कर ब्लॉगरी की दुनिया में अलग प्रकार से साख बनानी पड़ सकती है. नहीं-नहीं – सकती है नहीं – पड़ेगी. यह एक तथ्य है जिसे मैं बार-बार यत्न कर अपने संज्ञान में रखने का यत्न करता हूं.
अगर आप यह प्री-कण्डीशन सेटिस्फाई कर देते हैं तो शेष जो जरूरतें हैं, उनमें धीरे-धीरे परिमार्जन करते हुये आप आगे बढ़ सकते हैं.
मैं कुछ गुण लिस्ट करना चाहूंगा –
- व्यक्तित्व में पारदर्शिता. आप छ्द्म के सहारे चल नहीं सकते. और ब्लॉगरी में तो बिल्कुल नहीं.
- हमेशा सीखने को तैयार. आप को पढ़ने और परख कर जानने की क्षमता में सतत शोधन करना ही पड़ेगा.
- नेटवर्किग. आपको सम्पर्क बनाने ही पड़ेंगे चाहे आप कितने भी अंतर्मुखी जीव हों.
- परोसने का गुण. भोजन कैसा भी स्वादिष्ट बना हो; अगर सर्विस बेकार तो सब बेकार.
- निरंतरता. आप फिट-एण्ड-स्टार्ट के तरीके से ब्लॉगरी नहीं कर सकते. लोग आपके ब्लॉग से अपेक्षा करने लगते हैं. आपकी दुकान बंद रहे तो वह अपेक्षा पूरी नहीं होती.
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फुट नोट - जब ज्वाइण्ट ब्लॉग की बात कर ली है तो मैं रोल माडल की बात भी कर लूं. मेरे सामने द बेकर-पोस्नर ब्लॉग का आदर्श है. यह ब्लॉग बहुत ज्यादा पढ़ा जाता है. गैरी बेकर जो शिकागो विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं और रिचर्ड पोस्नर जो कोर्ट-ऑफ-अपील में जज हैं; इस ब्लॉग में लिखते हैं. आप कृपया उनका ब्लॉग देखें.
Wednesday, June 27, 2007
बाल किशन के सुझाव और ब्लॉग में बदलाव
बाल किशन जी मित्र हैं मेरे। साहित्य प्रेमी हैं। अच्छी कवितायें लिखते हैं। बहुत सारी अच्छी बातों में रूचि है उनकी। उनकी अच्छी रुचियों में इजाफा हुआ। २-३ महीनों से उन्होने हिंदी ब्लॉग पढ़ना शुरू किया है। रोज पढ़ते हैं। अब तक अपने आपको एक अच्छे पाठक के रुप में स्थापित कर चुके हैं। मुझे उनकी इस रूचि का पता चला तो मैंने उन्हें अपने ब्लॉग के बारे में बताया। साथ में आग्रह भी कर डाला कि मेरा ब्लॉग भी देखें।
मुझे लगा काश कि मैं टीवी चैनल चला रहा होता। दर्शकों को एस एम् एस भेजने का निमंत्रण दे डालता। पैसे तो मिलते ही, साथ में ब्लॉग के लिए एक अच्छा सा नाम मिल जाता। लेकिन मन को समझाया कि अपने केस में ऐसा नहीं हो सकता। मेरी उत्सुकता बढ़ गई। मैंने सोचा पारखी आदमी है। ब्लॉग पढ़ने का अच्छा अनुभव है। इससे और कुछ जानकारी ले सकता हूँ। आख़िर ब्लॉग में और भी तो कमियाँ हो सकती हैं।
Sunday, June 10, 2007
स्टिंग ऑपरेशन से दिशा नहीं मिलती
स्टिंग ऑपरेशन तेजी से अपनी स्टिंग ब्लंट कर बैठे हैं. तहलका एक्स्पोजे के समय लगा था कि उन्होने बड़ी मुर्गी पकड़ ली है और राजनीति की दशा-दिशा बदल जायेगी. पर सब कुछ वैसा ही रहा. दो बार दो लॉट में सांसद निकाले गये. किसी को यह नही लगता था कि मीडिया ने कुछ नया बताया है. और भी कई स्टिंग ऑपरेशन हुये पर सबकी सनसनी कुछ दिन की रही. सबके समय एकबारगी लगा कि अब देश चमक जायेगा. पर देश वही धूसर बदरंग बना रहा.
अब यह स्टिंग ऑपरेशन, शिव कुमार मिश्र जिसकी चर्चा अपनी पोस्ट में कर रहे हैं, वकीलों को लेकर हुआ है. बढ़िया किया कि मीडिया ने उनपर हाथ डाला. पर मेरे दफ्तर के पास हाई कोर्ट है. उसके आस-पास सतरंगी दृष्य दीखते हैं. गिद्ध तो मरे को नोचते हैं (वैसे भी बेचारे खतम हो रहे हैं) पर यहां जिन्दा को नोचना देखा जा सकता है. किसी स्टिंग ऑपरेशन की जरूरत नहीं है. गवाह के मोल-तोल, उनके कोर्ट के सामने बयान से पल्टी मारने के रोज इतने मामले होते हैं कि इस स्टिंग ऑपरेशन का सरप्राइज एलीमेंट नजर ही नहीं आता. आप ही देख लें – कहां है स्टिंग और कहां है सनसनी?
शिव कुमार मिश्र ने बड़ा सटीक ऑब्जरवेशन किया है. वकील अपने धतकरम को जायज बताने को तर्क गढ़ लेते हैं. वे व्यवस्था को बदलने की पहल नहीं करते क्योकि वे व्यवस्था में हैं. शिव का ऑब्जर्वेशन बहुत से अन्य क्षेत्रों मे भी आसानी से देखा जा सकता है. व्यवस्था से बन्धे होने की मजबूरी को अन्य क्षेत्रों में भी लोग मैनीप्युलेट करते हैं.
थानेदार के सामने से अपराधी भागता है पर वह कुछ नहीं करता – उसके लिये वह तब तक नहीं कर सकता, जब तक कोई एफ.आई.आर. न लिखादे. डाक्टर सरकारी अस्पताल में काम न कर प्राइवेट प्रेक्टिस करता है. क्या करे सरकरी अस्पताल में न दवाइयां हैं न उपकरण. सो मजबूरी है कि प्राइवेट प्रेक्टिस करे. दवाई और उपकरण कहां जाते है – पता नहीं. क्लर्क घूस लेता है – क्या करे अफसर भ्रस्ट है – उसतक हिस्सा पंहुचाना है. जैसे कि अफसर अगर भ्रस्ट न होता तो क्या जरूरत थी कि वह घूस लेता. स्कूल मास्टर कक्षा में न पढ़ाकर कोचिंग करता है – क्या करे बच्चे स्कूल में पढ़ते ही नही! वही बच्चे कोचिंग क्लास में पढ़ते हैं.
लोग व्यवस्था में हैं, पर व्यवस्था के लिये उत्तरदाई नहीं है. दुनियां में हैं, दुनियां के तलबगार नहीं हैं.
और महत्वपूर्ण यह है कि जो उदाहरण दिये गये हैं – या अनेक और देखे जा सकते हैं – उनको जानने के लिये किसी स्टिंग ऑपरेशन या किसी तेज चैनल की जरूरत नहीं है.
हां मीडिया खुद किस तरह खबर बनाता या मरोड़ता है – उसपर अगर स्टिंग ऑपरेशन हो तो मजा आये.
Friday, June 8, 2007
न्याय हम होने नहीं देंगे, क्योंकि व्यवस्था हमारे हाथ में है।
करीब एक सप्ताह हो गया, देश की जनता का इस देश की न्याय व्यवस्था पर से विश्वास उठ गया है। वो भी इसलिये कि, देश के दो विख्यात वकील एक 'स्टिंग ऑपरेशन' में कुछ ऐसा करते दिखे जो न्याय व्यवस्था के हिसाब से ठीक नहीं माना जाता। टीवी चैनल ने इन वकीलों की करतूत दिखाने के साथ-साथ जनता के सामने एक सवाल भी दाग दिया। 'इस स्टिंग ऑपरेशन को देखने के बाद आपका विश्वास क्या देश कि न्याय व्यवस्था से उठा गया है?' टीवी चैनल जब भी ऐसे सवाल करते हैं, जनता फूली नहीं समाती। जनता को लगता है कि देश के लिए कुछ करने का असली मौका आज हाथ लगा है। अगर उसने संदेश नहीं भेजे तो देश रसातल में चला जाएगा। नतीजा ये हुआ कि जनता ने संदेशों कि झड़ी लगा दी। टीवी चैनल को बताया कि 'आपने ये दिखाकर हमारी आंखें खोल दीं। कमाल कर दिया आपने। हमारा विश्वास सचमुच ऐसी न्याय व्यवस्था से उठ गया। ' मानो कह रहे हो कि आज सुबह तक हम अपने देश कि कानून व्यवस्था को दुनिया में सबसे अच्छा मानते थे। लेकिन आज हमने ऐसा मानने से इनकार करना शुरू कर दिया है। टीवी चैनल भी कुछ ऐसा बर्ताव करता है कि 'देखा। अगर हम नहीं दिखाते तो तुम्हें क्या पता चलता कि हमारे देश में क्या हो रहा है?'
आख़िर न्याय व्यवस्था उनके हाथों में है - वे व्यवस्था से पीड़ित नही है!