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Tuesday, June 30, 2009

भेज रहा हूँ नेह-निमंत्रण प्रियवर तुम्हें पढ़ाने को




ब्लागिंग करते हैं. एक जगह बैठे-बैठे लिख लेते हैं. वहीँ बैठे-बैठे छाप देते हैं. न तो प्रकाशक के आफिस के चक्कर लगाने की ज़रुरत है और न ही लेख के वापस लौट आने की आशंका. झमेला केवल पाठक ढूढ़ने का है. वो भी करने के लिए कहीं जाने की ज़रुरत नहीं है. मेल में ढेर सारा नाम भरा और सेंड नामक बटन क्लिकिया दिया. कुछ-कुछ वैसा कि;

भेज रहा हूँ नेह-निमंत्रण प्रियवर तुम्हें पढ़ाने को
हे मानस के राजहंस तुम आ जाना टिपियाने को

लेकिन कई महीने से चल रहा मेरा यह प्लान आज सुबह-सुबह मुझे भारी पड़ गया. आज बड़े दिनों बाद लालमुकुंद पधारे. आफिस में आये तो मैं धन्य हो लिया. पाठक अगर ब्लॉगर से मिलने खुद आये तो ब्लॉगर धन्य-गति को प्राप्त होगा ही. मैं भी प्राप्त हुआ. उनके बैठते ही पानी मंगवाया. साथ ही कोल्डड्रिंक्स लाने की व्यवस्था में जुट गया. लेकिन एक बात का आभास हो रहा था. लालमुकुंद मेरी इस व्यवस्था से खीझे जा रहे थे.

कुछ समय के लिए तो उन्होंने खुद को संभाला लेकिन अचानक ज्वालामुखी की तरह फट पड़े. बोले; "तुम कैसे आदमी हो? ठीक है, ब्लागिंग करते हो लेकिन जितनी बार पोस्ट लिखते हो, पढने के लिए मेल क्यों ठेल देते हो?"

उनकी बात सुनकर मुझे कुछ अजीब सा लगा. पता नहीं क्यों लग रहा था कि वे कुछ नाराज हैं. सामने वाला अगर नाराज हो जाए तो तुंरत गंभीर हो जाना श्रेयस्कर रहता रहता है. लिहाजा मैंने भी गंभीरता की मोटी चादर से मुख को ढांपते हुए कहा; " वो तो देखो, एक एक्सरसाइज टाइप है. मुझे लगता है कि तुम मेरे लेखों को बड़ी गंभीरता से पढ़ते हो. टिप्पणी नहीं देते वो एक अलग बात है लेकिन मुझे भरोसा है कि तुम मुझे सुझाव दोगे कि लेख में क्या कमी है. इसी बात के चलते मैं तुम्हें मेल भेज देता हूँ."

यह कहते हुए मेरे मुख पर हल्की सी मुस्कान आ गई. बस, वे तो और बिफर पड़े. बोले; "मैं मजाक के मूड में नहीं हूँ. आज इस तरफ आया था तो सोचा कि तुमसे मिलूँ और इस मुद्दे पर बात करूं. तुम्हें मालूम है, अपनी पोस्ट पढ़वाने के लिए जो मेल भेजते हो, उसका क्या करता हूँ मैं?"

मैंने कहा; "जाहिर है, उस लिंक को क्लिक करके मेरे लेख पढ़ते होगे. आखिर मैं मेल इसीलिए भेजता हूँ कि तुम मेरे लेख पढ़ सको."

मेरी बात सुनकर और बिफर पड़े. बोले; "सीधा डिलीट करता हूँ मैं. तुंरत. पिछले न जाने कितने महीनों से तुमने परेशान करके रखा है मुझे. और केवल तुम्ही नहीं हो. न जाने और कितने भाई-बन्धु हैं तुम्हारे जो ऐसा करते हैं . तुमलोगों को क्या लगता है, तुम्हारे लेख इस तरह से लोग पढेंगे? अगर ऐसा ही है तो क्या ज़रुरत है ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत की?"

मैंने कहा; "ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत की अपनी भूमिका है. लेकिन मेल की भी अपनी भूमिका है. आज ज़रुरत है नेट पर हिंदी को आगे बढाने की. हम हिंदी की सेवा कर रहे हैं. सेवा बिना कष्ट के तो असंभव है."

मेरी बात सुनकर मन ही मन कुछ बुदबुदाए. लगा जैसे कह रहे हों; "हिंदी की सेवा! माय फुट."

मैंने कहा; "लेकिन मेरे लेख तो और लोग पढ़ते हैं. कुछ तो टिप्पणी भी देते हैं. बहुत लोग पसंद करते हैं. ब्लॉगवाणी पर मेरे लेख को ऊपर पहुंचा देते हैं."

मेरी बात सुनकर उन्होंने माथे पर हाथ रख लिया. बोले; "तुमको क्या लगता है? लोग तुम्हारे लेख पर टिप्पणियां देते हैं इसका मतलब क्या निकालते हो तुम?"

मैंने कहा; "इसका मतलब और क्या हो सकता है? लोग मेरे लेख, मेरी कवितायें बहुत पसंद करते हैं. और क्या मतलब हो सकता है इसका?"

वे बोले; "अरे मूढ़मति. दुनियाँ का कुछ पता भी तुम्हें? कौन क्या सोचता है तुम्हारे लेखों के बारे में? जो भी चैट पर मिलता है वो तुम्हारा नाम लेकर यही कहता है कि तुमने उन सब को कितना परेशान कर रखा है. अनूप जी परसों चैट पर मिल गए. बोले शिव कुमार मिश्र ने मेल भेज-भेज कर हालत खराब कर दी है. पोस्ट पब्लिश किये नहीं कि तुंरत मेल भेज दिया. पागल कर दिया है इन्होने."

मैंने कहा; "लेकिन उनकी टिप्पणियों से तो ऐसा नहीं लगता. मेरी एक पोस्ट पर तो उन्होंने "जय हो" भी लिखा था."

वे बोले; "हे भगवान. कुछ नहीं समझाया जा सकता इस आदमी को. तुम्हें मालूम है उन्होंने "जय हो" क्यों लिखा था? इसका कुछ आईडिया है तुम्हें?"

मैंने कहा; "इसका मतलब तो यही होता है कि उन्हें वो लेख बम्फाट लगा होगा."

बोले; "ऐसा कुछ नहीं है. वे तो चाहते थे कि वे "क्षय हो" लिख दें लेकिन "क्षय हो" लिखने लिए टाइम लगता इसलिए उन्होंने "जय हो" लिख डाला. "जय" टाइप करने के लिए केवल तीन 'की' यूज करने की ज़रुरत होती है. वहीँ "क्षय" टाइप करने के लिए पूरे पांच 'की' यूज करना पड़ता है. अब कौन झमेला करे. ऐसे में उन्होंने सोचा होगा कि "जय हो" लिख दो. इसका भी मन रह जाएगा. नहीं तो ऐसा न हो कि ये टंकी पर चढ़ जाए."

मैंने कहा; "लेकिन मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं हो रहा. मैं इसे सही नहीं मानता."

मेरी बात सुनकर बोले; "तुमको जो मानना है वो मानो. लेकिन सच तो यही है कि लोग तुमसे परेशान है. समीर जी से चैट पर बात हो रही थी. वे भी तुमसे परेशान हैं. कह रहे थे कि पता नहीं मुझे भी क्यों मेल भेज देते हैं. मैं तो बिना मेल मिले ही टिप्पणियां करता हूँ. फिर ऐसे में मेल भेजकर परेशान क्यों करते हैं?"

मैंने कहा; "लेकिन समीर भाई से तो मैं कलकत्ते में जब मिला तो उन्होंने तो मुझे इस बात की शिकायत नहीं की."

वे बोले; "ये उनका बड़प्पन है, जिसे तुम अपने लिए शाबासी मान रहे हो. कोई भला आदमी सबकुछ सामने कहकर तुम्हें लताड़े तब तुम्हें समझ में आएगा क्या?"

मैंने कहा; "तो क्या किया जाय? अब से मेल भेजना बंद कर दूँ क्या?"

मेरी बात सुनकर मुझे ऐसी नज़रों से देखा जैसे मेरे अन्दर की बेवकूफी को मीटर टेप लेकर नाप रहे हों. बोले; "तो क्या तब बंद करोगे जब लोग पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट लिखाना शुरू करेंगे? नहीं, बोलो तुम कब बंद करना चाहते हो? तुम्हें पता है, आजकल चिट्ठाकार कौन सा गाना गाते रहते हैं?"

मैंने कहा; "नहीं मालूम. कौन सा गाना गा रहे हैं आजकल चिट्ठाकारगण"

वे बोले; "सब तुम्हारे और तुम्हारे साथियों के मेल से इतना डरने लगे हैं कि सारे एक ही गाना गा रहे हैं; 'ज़रा सी आहट सी होती है तो दिल पूछता है, कहीं ये वो तो नहीं.' सब इतना डरे हुए हैं तुम्हारे मेल देखकर."

समझ में नहीं आया कि क्या कहूँ? मैं सोच ही रहा था कि कुछ कहूँ तब तक वे बोले पड़े; "और बाकी को तो जाने दो. ज्ञान जी ने एक दिन मुझसे कहा कि तुम उन्हें भी मेल भेज देते हो. जब उनका कमेन्ट ब्लाग पर नहीं मिलता तो एस एम एस देकर फिर से बताते हो ताकि वे तुंरत कमेन्ट करें. मुझसे कोई कह रहा था कि तुम ताऊ जी को भी फोन कर देते हो कि एक पोस्ट डाली है, देखिएगा. तुम्हें क्या लगता है? ताऊ जी भी स्टॉक मार्केट वाले हैं तो तुंरत आकर तुम्हें कमेन्ट देंगे? तंग रहते हैं वे भी तुमसे."

लालमुकुंद जी ने इतनी खरी-खोटी सुनाई कि क्या कहूँ? सबकुछ लिखने जाऊँगा तो पोस्ट पंद्रह पेज की हो जायेगी.

इसलिए, मेरी तरह मेल भेजकर पढ़वाने और टिपियाने की एक्सरसाइज करने वाले मित्रों, चलो आज से ही वचन लें कि हम किसी को अब से मेल लिखकर अपनी कविताओं और अपने लेख का लिंक नहीं देंगे. अगर हमारे भाग्य में लिखा ही होगा कि हम परसाई, अज्ञेय, गालिब और दिनकर बनें तो हमें ये सब बनने से कोई नहीं रोक पायेगा. हम बनकर रहेंगे. मेल भेजें या न भेजें.

Monday, June 29, 2009

बजटोत्सव पर निबंध




जैसा कि हम जानते हैं, ये बजट का मौसम है. टीवी न्यूज चैनलों ने अपनी-अपनी औकात के हिसाब से बजट पर आम आदमी, दाम आदमी, माल आदमी, हाल आदमी, बेहाल आदमी वगैरह की डिमांड और सुझाव वगैरह वित्तमंत्री तक पहुंचाने शुरू कर दिए हैं. कोई 'डीयर मिस्टर फाइनेंस मिनिस्टर' के नाम से प्रोग्राम चला रहा है, कोई 'डीयर प्रणब बाबू' तो कोई 'वित्तमंत्री हमारी भी सुनिए' नाम से.

मुझे याद आया, एक आर्थिक संस्था द्बारा साल २००८ में आयोजित किया गया एक कार्यक्रम. 'सिट एंड राइट' नामक इस कार्यक्रम में प्रतियोगियों को बजट के ऊपर निबंध लिखने के लिए उकसाया गया था. पेश है उसी प्रतियोगिता में भाग लेने वाले एक प्रतियोगी का निबंध. सूत्रों के अनुसार चूंकि इस आर्थिक संस्था को सरकारी ग्रांट वगैरह मिलती थी, लिहाजा इस प्रतियोगी के निबंध को रिजेक्ट कर दिया गया था. आप निबंध पढिये.

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बजट एक ऐसे दस्तावेज को कहते हैं, जो सरकार के न होनेवाले इनकम और ज़रुरत से ज्यादा होनेवाले खर्चे का लेखा-जोखा पेश करता है. इसके साथ-साथ बजट को सरकार के वादों की किताब भी माना जा सकता है. एक ऐसी किताब जिसमें लिखे गए वादे कभी पूरे नहीं होते. सरकार बजट इसलिए बनाती है जिससे उसे पता चल सके कि वह कौन-कौन से काम नहीं कर सकती. जब बजट पूरी तरह से तैयार हो जाता है तो सरकार अपनी उपलब्धि पर खुश होती है. इस उपलब्धि पर कि आनेवाले साल में बजट में लिखे गए काम छोड़कर बाकी सब कुछ किया जा सकता हैं.

सरकार का चलना और न चलना उसकी इसी उपलब्धि पर निर्भर करता है. कह सकते हैं कि सरकार है तो बजट है और बजट है तो सरकार है.

सरकार के तमाम कार्यक्रमों में बजट का सबसे ऊंचा स्थान है. बजट बनाना और बजटीय भाषण लिखना भारत सरकार का एक ऐसा कार्यक्रम है जो साल में सिर्फ़ एकबार होता है. सरकार के साथ-साथ जनता भी पूरे साल भर इंतजार करती है तब जाकर एक अदद बजट की प्राप्ति होती है. वित्तमंत्री फरवरी महीने के अन्तिम दिन बजट पेश करते हैं. वैसे जिस वर्ष संसदीय लोकतंत्र की मजबूती जांचने के लिए चुनाव होते हैं, उस वर्ष 'सम्पूर्ण बजट' का मौसम देर से आता है.

भारतीय बजट का इतिहास पढ़ने से हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि पहले बजट की पेशी शाम को पाँच बजे होती थी. बाद में बजट की पेशी का समय बदलकर सुबह के ११ बजे कर दिया गया. ऐसा करने के पीछे मूल कारण ये बताया गया कि अँग्रेजी सरकार पाँच बजे शाम को बजट पेश करती है लिहाजा भारतीय सरकार भी अगर शाम को पाँच बजे बजट पेश करे तो उसके इस कार्यक्रम से अँग्रेजी साम्राज्यवाद की बू आएगी.

कुछ लोगों का मानना है कि बजट सरकार का होता है. वैसे जानकार लोग यह बताते हैं कि बजट पूरी तरह से उसे पढ़ने वाले वित्तमंत्री का होता है. बजट लिखने से ज्यादा महत्वपूर्ण काम बजट में 'कोट' की जाने वाली कविता के सेलेक्शन का होता है. ऐसा इसलिए माना जाता है कि बजट पढ़ने पर तालियों के साथ-साथ कभी-कभी गालियों का महत्वपूर्ण राजनैतिक कार्यक्रम भी चलता है लेकिन बजटीय भाषण के दौरान जब मेहनत करके छांटी गई कविता पढ़ी जाती है तो केवल तालियाँ बजती हैं.

बजट में कोट की जाने वाली कविता किसकी होगी, ये वित्त मंत्री के ऊपर डिपेण्ड करता है. जैसे अगर वित्तमंत्री तमिलनाडु राज्य से होता है तो अक्सर कविता महान कवि थिरु वेल्लूर की होती है. अगर वित्तमंत्री पश्चिम बंगाल का हो तो फिर कविता कविगुरु रबिन्द्रनाथ टैगोर की होती है. लेकिन वित्तमंत्री अगर उत्तर भारत के किसी राज्य या तथाकथित 'काऊ बेल्ट' का होता है तो कविता या शेर किसी भी कवि या शायर से उधार लिया जा सकता है, जैसे दिनकर, गालिब वगैरह वगैरह.

नब्बे के दशक तक बजटीय भाषणों में सिगरेट, साबुन, चाय, माचिस, मिट्टी के तेल, पेट्रोल, डीजल, एक्साईज, सेल्स टैक्स, इन्कम टैक्स, सस्ता, मंहगा जैसे सामाजिक शब्द भारी मात्रा में पाये जाते थे. लेकिन नब्बे के दशक के बाद में पढ़े गए बजटीय भाषणों में आर्थिक सुधार, डॉलर, विदेशी पूँजी, एक्सपोर्ट्स, इम्पोर्ट्स, ऍफ़डीआई, ऍफ़आईआई, फिस्कल डिफीसिट, मुद्रास्फीति, आरबीआई, ऑटो सेक्टर, आईटी सेक्टर, इन्फ्लेशन, बेल-आउट, स्कैम जैसे आर्थिक शब्दों की भरमार रही. ऐसे नए शब्दों के इस्तेमाल करके विदेशियों और देश की जनता को विश्वास दिलाया जाता है कि भारत में बजट अब एक आर्थिक कार्यक्रम के रूप में स्थापित हो रहा है.

वैसे तो लोगों का मानना है कि बजट बनाने में पूरी की पूरी भूमिका वित्तमंत्री और उनके सलाहकारों की होती है लेकिन जानकारों का मानना है कि ये बात सच नहीं है. जानकार बताते हैं कि बजट के तीन-चार महीने पहले से ही औद्योगिक घराने और अलग-अलग उद्योगों के प्रतिनिधि 'गिरोह' बनाकर वित्तमंत्री से मिलते हैं जिससे उनपर दबाव बनाकर अपने हिसाब से बजट बनवाया जा सके.

जानकारों की इस बात में सच्चाई है, ऐसा कई बार बजटीय भाषण सुनने से और तमाम क्षेत्रों में भारी मात्रा में दी जाने वाली छूट और लूट वगैरह को देखकर पता चलता है. कुछ जानकारों का यह मानना भी है कि सरकार ने कई बार बजट निर्माण के कार्य का निजीकरण करने के बारे में भी विचार किया था लेकिन सरकार को समर्थन देनेवाली पार्टियों के विरोध पर सरकार ने ये विचार त्याग दिए.

बजट का भाषण कैसे लिखा जाए, यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि कौन से पंथ पर चलने वाले सरकार को समर्थन दे रहे हैं. जैसे अगर सरकार को वामपंथियों से समर्थन मिलता है तो निजीकरण, सुधार जैसे शब्द भारी मात्रा में नहीं पाए जाते. उस स्थिति में सुधार की जगह उधार जैसे शब्द ले लेते हैं. वहीँ, अगर सरकार को समर्थन की ज़रुरत न पड़े तो फिर वो जो चाहे, जहाँ चाहे वैसे शब्द सुविधानुसार लिख लेती है.

बजट के मौसम में सामाजिक और राजनैतिक बदलाव भारी मात्रा में परिलक्षित होते हैं. 'बजटोत्सव' के कुछ दिन पहले से ही वित्तमंत्री के पुतले की बिक्री बढ़ जाती है. ऐसे पुतले बजट प्रस्तुति के बाद जलाने के काम आते हैं. कुछ राज्यों में 'सरकार' के पुतले जलाने का कार्यक्रम भी होता है. पिछले सालों में सरकार के वित्त सलाहकारों ने इन पुतलों की मैन्यूफैक्चरिंग पर इक्साईज ड्यूटी बढ़ाने पर विचार भी किया था लेकिन मामले को यह कहकर टाल दिया गया कि इस सेक्टर में चूंकि छोटे उद्योग हैं तो उन्हें सरकारी छूट का लाभ मिलना अति आवश्यक है.

पुतले जलाने के अलावा कई राज्यों में बंद और रास्ता रोको का राजनैतिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होता है. बजट का उपयोग सरकार को समर्थन देने वाली राजनैतिक पार्टियों द्वारा समर्थन वापस लेने की धमकी देने में भी किया जाता है.

बजट प्रस्तुति के बाद पुतले जलाने, रास्ता रोकने और बंद करने के कार्यक्रमों के अलावा एक और कार्यक्रम होता है जिसे बजट के 'टीवीय विमर्श' के नाम से जाना जाता है. ऐसे विमर्श में टीवी पर बैठे पत्रकार और उद्योगपति बजट देखकर वित्तमंत्री को नम्बर देने का सांस्कृतिक कार्यक्रम चलाते हैं. देश में लोकतंत्र है, इस बात का सबसे अच्छा उदाहरण बजट के दिन देखने को मिलता है. एक ही बजट पर तमाम उद्योगपति और जानकार वित्तमंत्री को दो से लेकर दस नम्बर तक देते हैं. लोकतंत्र पूरी तरह से मजबूत है, इस बात को दर्शाने के लिए ऐसे कार्यक्रमों में बीच-बीच में 'आम आदमी' का वक्तव्य भी दिखाया जाता है.

भारतीय सरकार के बजटोत्सव कार्यक्रम पर रिसर्च करने के बाद हाल ही में कुछ विदेशी विश्वविद्यालयों ने अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में भारतीय बजट के नाम से एक नया अध्याय जोड़ने पर विमर्श शुरू कर दिया है. कुछ विश्वविद्यालयों का मानना है; 'अगर भारत सरकार के बजट को पाठ्यक्रम में रखा जाय तो न सिर्फ अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों को लाभ मिलेगा अपितु राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थी भी लाभान्वित होंगे.'

आशा है भारतीय सरकार के बजट की पढ़ाई एकदिन पूरी दुनियाँ में कम्पलसरी हो जायेगी. भारतीय बजट दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की करेगा.

जय हिंद का बजट

Saturday, June 27, 2009

जिज्ञासु अभिषेक और क्लाइमेक्स वाले युधिष्ठिर




पिछली पोस्ट पर अपनी टिप्पणी में अभिषेक ने पूछा; "ई क्लाइमेक्स में युधिष्ठिर जी क्या कर रहे हैं?"

अभिषेक जिज्ञासु ब्लॉगर हैं. बाकी के लोग नहीं हैं. इसलिए मैंने सोचा कि अभिषेक की जिज्ञासा का समाधान करना चाहिए. मेरे मन में आया कि; 'कहीं ऐसा न हो कि अभिषेक की जिज्ञासा का समाधान न करने पर एक टिप्पणीकार नाराज़ हो जाए और भविष्य में लिखी जाने वाली पोस्ट पर टिप्पणी ही न करे. ऐसे में हमें तो एक टिप्पणी का नुकशान हो जाएगा न. (इस बात पर स्माईली नहीं लगाऊँगा. यह बहुत गंभीर बात है.)

तो यह रहा अभिषेक की जिज्ञासा का उत्तर.

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युधिष्ठिर के हवाले से हम जानते हैं कि मन सबसे तेज भागता है. क्या कहा? युधिष्ठिर के हवाले से कैसे जानते हैं? अरे, मेरे कहने का मतलब उन यक्ष जी के सवालों को याद कीजिये जो उन्होंने युधिष्ठिर जी के भाइयों से पूछा था. तालाब के किनारे. जहाँ युधिष्ठिर के भाई प्यास बुझाने गए और सवालों का जवाब न जानने के कारण उन्हें मरना पड़ा.

अजीब बात है. जो ज्ञानी नहीं हैं, उनको इस दुनियाँ में जीने का अधिकार नहीं है क्या? लेकिन सवाल तो अपनी जगह हैं. आखिर ऐसा क्यों कि उनके भाइयों को यक्ष द्बारा पूछे गए सवालों के जवाब नहीं मालूम थे? क्या युधिष्ठिर चाहते थे कि उनके पास जितना ज्ञान था, सबकुछ भाइयों को नहीं देना है?

और भी सवाल हैं. आखिर सबकुछ घटने के बाद युधिष्ठिर जी सीन में क्यों आये? वही सबसे पहले पानी लाने क्यों नहीं गए? अगर सबसे पहले वही पानी लाते जाते और ये बखेड़ा ही नहीं होता.

आप अगर यह सोच रहे हैं कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ तो मेरा जवाब है कि मेरे पास भी तो मन है. मन तेज भागा तो यह साब बातें मन में आईं.

आश्चर्य की बात है न? बाकी भाईयों के मन में यह बात नहीं आई लेकिन युधिष्ठिर के मन में ही क्यों आई?

शायद इसलिए की अज्ञातवास के दौरान बाकी के भाई तो काम-वाम करते थे. जंगल से लकड़ी इकठ्ठा करके लाते थे. खाना बनाते थे. झाडू वगैरह देते थे और युधिष्ठिर आराम से बैठे रहते थे. भीम से पाँव दबवाते थे सो अलग. जो आदमी कोई काम न करे उसके भीतर अध्यात्म कूट-कूट के भर जाता है. तब वह सरल टाइप कुछ सोचता ही नहीं. जब भी सोचता है, गूढ़ ही सोचता है. उसके लिए भोजन और भाषण के अलावा आध्यात्म का सहारा रहता है.

लेकिन मन के तेज भागने वाली बात युधिष्ठिर को किसी ने बताई थी या फिर उन्होंने खुद से जान लिया था? अगर किसी ने बताई होगी तब तो ठीक. लेकिन अगर उन्होंने खुद ही पता लगाई होगी तो कैसे?

शायद ऐसा कुछ हुआ हो.

एक दिन आराम करते-करते युधिष्ठिर थक गए होंगे. थक गए तो उठकर बैठ गए होंगे. बैठे-बैठे बोर हो गए होंगे. बोर होते-होते सोचा होगा कि; "बोर क्यों होना? जब बैठे ही हैं तो कुछ सोच डालते हैं."

बस उन्होंने सोचना शुरू कर दिया होगा; ' अज्ञातवास ख़त्म होने दो, वापस हस्तिनापुर जायेंगे. कृष्ण को बुला लेंगे. उनके साथ बैठकर प्लान बनायेंगे. पहले सीधे-सीधे युद्ध नहीं करेंगे. पहले पाँच गाँव मांगेंगे. दुर्योधन है तो काइयां, इसलिए आराम से तो देगा नहीं. गाली-वाली बकेगा ऊपर से. उसकी वोकावुलरी कित्ती तो खराब है. उसके 'लुक्खेपन' की वजह से हम जनता की सारी सहानुभूति इकट्ठी कर लेंगे. जनता को बताएँगे कि देखो, ये दुर्योधन हमें गद्दी तो छोडो, पाँच गाँव भी नहीं दे रहा. युद्ध की पचास प्रतिशत भूमिका केवल इसी बात पर तैयार कर लेंगे. युद्ध शुरू हो जायेगा तो कौरवों के महारथियों को एक एक करके रास्ते से हटाते जायेंगे. गुरु द्रोण से भी थोडा झूठ बोलना पड़े तो चलेगा. आख़िर युद्ध में सब कुछ जायज है.'

यह सोचते-सोचते अचानक युधिष्ठिर ने यूरेका-यूरेका चिल्लाना शुरू कर दिया होगा. द्रौपदी ने चेहरे पर आश्चर्य के भाव रखकर पूछा होगा; "आप यूरेका-यूरेका नामक गीत क्यों गा रहे हैं, हे आर्यपुत्र?"

युधिष्ठिर ने बताया होगा कि; "प्रिये अभी-अभी मुझे पता चला कि मन सबसे तेज भागता है."

यह सुनकर द्रौपदी जी ने कहा होगा; " ओह. पता चल गया. बहुत बढ़िया बात. अब इसे याद रखियेगा. जब यक्ष प्रश्न करेंगे तो फट से जवाब दे दीजियेगा."

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तो भइया अभिषेक, युधिष्ठिर जी के बहकावे में आकर हम दुपट्टा चोरी काण्ड पर अपने मन को यहाँ-वहां, जहाँ-तहाँ दौड़ा दिए थे.वैसे यक्ष जी ने और भी प्रश्न पूछे थे. उन प्रश्नों के ऊपर भी कभी मन दौड़ाया जाएगा....:-)

Tuesday, June 23, 2009

जाने वो कैसा चोर था, दुपट्टा चुरा लिया




जैसे ही शेव करना शुरू किया, वैसे ही टीवी पर चल रहे एक गाने के बोल सुनाई दिए; "जाने वो कैसा चोर था, दुपट्टा चुरा लिया."

कैसा तो गाना है. मन में आया कि अगर नायिका का दुपट्टा चोरी काण्ड फेमस हो जाए तो क्या होगा?

फ़र्ज़ कीजिये कि जिस नायिका का दुपट्टा चोरी हो गया वह अगर थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दे तो अपनी इन्वेस्टीगेशन के बाद थानेदार क्या रिपोर्ट दे सकता है? शायद कुछ ऐसी;

"नायिका द्बारा दुपट्टे चोरी की रिपोर्ट दर्ज कराने के बाद हमने मामले की विस्तृत और समग्र तहकीकात की. दुपट्टा चोरी की ऐसी कोई घटना हमारे थाने के इलाके में इससे पहले कभी नहीं हुई है. यह नए किस्म का चोर है जो केवल दुपट्टा चुराता है. नायिका भी चोर के इस कर्म से हैरान है. नायिका के द्बारा इस घटना के ऊपर एक गाना भी गया गया है. गाने की पहली लाइन सुनकर ही लग रहा है कि नायिका भी इस बात से आश्चर्यचकित है कि यह कैसा चोर है जो दुपट्टा चुराता है. तहकीकात के दौरान ही यह पता चला कि नायिका ने दुपट्टे के साथ अपने सलवार और कमीज़ भी धोकर सूखने के लिए डाला था. लेकिन चोर ने सलवार और कमीज़ में कोई इंटेरेस्ट नहीं दिखाया. उसका टारगेट केवल दुपट्टा चोरी करने का था. चूंकि दुपट्टा चोरी की यह पहली घटना है इसलिए हम पास्ट रिकार्ड्स देखकर और पहले से सॉल्व किये गए किसी केस का रेफेरेंस लेकर चोर को पकड़ सकें, इसका भी कोई चांस नहीं है. लिहाजा हम सरकार से दरख्वास्त करते हैं कि यह केस सीबीआई की उस शाखा को सौंप दिया जाय जो कपड़ों की चोरी के मामले हैंडल करता है."

थानेदार रिपोर्ट तो लिख देगा. लेकिन तब तक मामला अखबार में छप चुका होगा. दुपट्टे की चोरी की ऐसी सनसनीखेज घटना को कवर करने के लिए टीवी वाले पहुँच जायेंगे. इस घटना पर टीवी वाले शायद कुछ इस तरह का कवरेज करें;

स्टूडियो में विशेष कार्यक्रम "चोरी हुआ दुपट्टा" का संचालन कर रहे एंकर, नीलाभ जी बहुत एक्साइटेड रहेंगे. आखिर यह विशेष कार्यक्रम बिलकुल नए विषय पर है. स्टूडियो में खड़े-खड़े नीलाभ जी कहेंगे;

"जी हाँ. चोरी भी किस चीज की? दुपट्टे की. दुपट्टे की चोरी की घटना शायद ही पहले हुई हो. आज हम आपको इस सनसनीखेज घटना पर विशेष दिखाने जा रहे हैं. कहीं न कहीं दुपट्टे की चोरी की यह घटना बहुत ही गंभीर है. आखिर किसने की दुपट्टे की चोरी? कौन है वह जो सोने-चांदी चोरी करने के बजाय दुपट्टा चोरी कर रहा है? कौन है वह चोर?..... यह जानने के लिए चलते हैं हमारे संवाददाता सुधीर विनोद के पास.....सुधीर आपको हमारी आवाज़ आ रही है?"

"जी हाँ. नीलाभ मुझे आपकी आवाज़ आ रही है"; सुधीर विनोद जी बोलेंगे.

"सुधीर क्या है यह पूरा मामला? दुपट्टे की इस चोरी के पीछे किसका हाथ हो सकता है? क्या कहती है वह नायिका जिसका दुपट्टा चोरी चला गया है?" नीलाभ जी पूछेंगे.

"नीलाभ दुपट्टे के चोरी चले जाने के बाद उस नायिका को इतना गहरा सदमा लगा है कि उसने पिछले दो दिन से कुछ खाया नहीं है. लिहाजा इस घटना पर बात करने के लिए वे हमारे साथ नहीं है"; सुधीर विनोद जी बोलेंगे.

इतना सुनकर नीलाभ जी आश्चर्यचकित रह जायेंगे. वे कहेंगे; "लेकिन सुधीर खबर है कि दुपट्टा चोरी की घटना के बाद नायिका ने एक गाना भी गाया कि; "जाने वो कैसा चोर था, दुपट्टा चुरा लिया." ऐसे में नायिका के सदमे वाली बात कहाँ तक सही है?"

नीलाभ की बात सुनकर सुधीर बोलेंगे; "नीलाभ इस गाने की बाबत मैंने नायिका के पड़ोसियों से सवाल दागा था. लगभग सभी का कहना था कि नायिका ने वह गाना सदमा लगने की वजह से ही गाया था. उसने गाना खुश होकर नहीं गाया था. पडोसियों का कहना है कि नायिका का पास्ट रिकार्ड्स बताता है कि जब उसे सदमा लगता है, वह गाने गाती है."

नीलाभ जी बोलेंगे; "सुधीर, क्या अभी वहां पर नायिका का कोई पड़ोसी मौजूद है?"

सुधीर जी बोलेंगे; "नीलाभ पड़ोसियों को और काम ही क्या है? टीवी कैमरा देखकर सब अपना-अपना घर छोड़कर सड़क पर आ गए हैं. आप देख सकते हैं, मेरे आजू-बाजू, पीछे-आगे पड़ोसी ही पड़ोसी मौजूद हैं. चलिए इनमें से कुछ के साथ बात करते हैं....हाँ क्या नाम है आपका?"

"पप्पू. जिनका दुपट्टा चोरी हुआ है, मेरा घर उनके घर के बायें तरफ है"; पप्पू जी बोलेंगे.

"जी ये बताइए कि आपको कब पता चला कि नायिका का दुपट्टा चोरी चला गया?"; सुधीर विनोद सवाल दागेंगे.

"देखिये मैं आपको शुरू से बताता हूँ. मैं सुबह उठा. बिना ब्रश किये मैंने नाश्ता किया. माँ ने बाज़ार से सब्जी लाने के लिए कहा तो मैंने मना कर दिया. फिर मैं टीवी पर डब्लू डब्लू ऍफ़ देखने लगा.........फिर..."; पप्पू जी

"संक्षेप में बताइए. हम आपको इतना फूटेज नहीं दे सकते"; सुधीर विनोद बोलेंगे.

"नहीं. मैं संक्षेप में ही बता रहा था. आपने मुझे बीच में क्यों रोका? वैसे भी आपलोग कभी कोई बात संक्षेप में नहीं करते तो हम कैसे करें?"; पड़ोसी पप्पू बोले.

इतना कहने के बाद पप्पू जी को लगा कि संवाददाता उनके हाथ से माइक छीन न ले. वे डर गए. फिर बोले; "ओके ओके...ठीक है मैं संक्षेप में बताता हूँ. मुझे करीब दोपहर के बारह बजे तब पता चला जब उन्होंने गाना शुरू किया कि; "जाने वो कैसा चोर था, दुपट्टा चुरा लिया"; पप्पू जी बोलेंगे.

"नीलाभ जैसा कि आप देख सकते हैं. नायिका के पड़ोसी पप्पू जी को गाने की वजह से करीब बारह बजे पता चला कि दुपट्टा चोरी चला गया है. इसका मतलब करीब दस बजे की घटना होनी चाहिए. चोर ने करीब दस बजे दुपट्टा चोरी किया होगा. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि दस बजे दुपट्टा चोरी गया होगा तो नायिका को इस बात का पता करीब ग्यारह बजे चला होगा. उसके बाद दस मिनट तक वो सदमे में होगी. फिर करीब सवा ग्यारह बजे से उसने गाना लिखना शुरू किया होगा. करीब पंद्रह मिनट में गाना लिखा गया होगा. फिर एक्स्ट्रा कलाकारों और सखियों को इकत्र करने में और ऑर्केस्ट्रा के प्रबंध करने में करीब आधा घंटा लगा होगा. फिर जाकर बारह बजे से नायिका ने गाना शुरू किया होगा....हमारा तो यही मानना है...जी... नीलाभ"; सुधीर विनोद जी जवाब देंगे.

उनकी बात सुनकर नीलाभ जी बोलेंगे; "जी हाँ. सुधीर, धन्यवाद. आप इस घटना पर अपनी नज़र बनाये रखें. आप अगले तीन दिन तक वहीँ जमे रहिये. प्रोग्राम एडिटर से आर्डर है कि अभी अगले पॉँच दिन तक हमें इस घटना पर रोज एक विशेष दिखाना है. तो ये था हमारा विशेष कार्यक्रम "चोरी हुआ दुपट्टा." आगे की खबरों के लिए देखते रहिये परसों तक..."

अब बात टीवी तक पहुँच गई तो समाज के बाकी तपके भी टूट पड़ेंगे. समाजशास्त्री इस घटना की व्याख्या करते हुए लिखेंगे;

"कई सौ वर्षों से भारतीय समाज में दुपट्टा इज्ज़त का प्रतीक माना जाता रहा है. जैसे पुरुष के केस में पगड़ी को इज्ज़त का प्रतीक माना जाता है ठीक उसी तरह महिलाओं के केस में दुपट्टे को इज्ज़त का प्रतीक माना जाता रहा है. लेकिन आज तक किसी नायक ने ऐसा कोई गाना नहीं गाया जिससे पता चले कि किसी चोर ने किसी पुरुष की पगड़ी चोरी की हो. आजतक ऐसा कहीं नहीं सुना गया कि पगडी चोरी चली जाने से किसी पुरुष ने गाना गाया हो कि; 'जाने कैसा चोर था, जो पगड़ी चुरा गया'. इससे यह सिद्ध होता है कि दुपट्टा चोरी करके एक बार फिर से महिलाओं को नीचा दिखाने की कोशिश की गई है. सदियों से चली आ रही समाज पर पुरुष की पकड़ का प्रतीक है दुपट्टा चोरी की यह घटना. आज एक बार फिर से यह साबित हो गया कि महिलाओं को आदर देना भारतीय पुरुष कभी नहीं सीखेगा"

जहाँ समाजशास्त्री इस तरह का वक्तव्य देगा वहीँ इतिहासकार शायद ऐसा कुछ लिखे;

"इतिहासकारों का मानना है कि दुपट्टा चोरी की घटना आधुनिक भारतीय इतिहास में पहली बार हुई थी. हालांकि इससे पहले चोर काजल, नज़र वगैरह चुराता रहा है लेकिन ज्यादातर इतिहासकारों का मत है कि नब्बे के दशक के मध्य में समाज में चोरी की घटनाओं में जो इजाफा हुआ, उनमें से साठ से सत्तर प्रतिशत घटनाएं हलाँकि कपडों की चोरी की हुई थी. लेकिन ज्यादातर केस में धोती-कुरता और लुंगी चोरी हुई थी. इतिहासकार इस बात से एकमत हैं कि कुछ विदेशी तस्कर भारतीय संस्कृति से जुड़े शिलालेख, मूर्तियाँ, और हस्तकला की चीजें चोरी करवा कर बोर हो चुके थे लिहाजा उन्होंने कपड़ों की चोरी करवानी शुरू कर दी. इस घटना से एक बात और प्रकाश में आती है कि इस दशक में जितने भी लोग चोरी के पेशे से जुडे उनमें से ज्यादातर कपड़े की चोरी के पेशे में आये......"

मन भी कितना तेज दौड़ता है. ये सब युधिष्ठिर जी की वजह से...

Friday, June 19, 2009

दुर्योधन की डायरी - पेज १६०५




मिल गई इज्ज़त मिट्टी में. इज्ज़त भी अजीब चीज है. किसी को दे दो तो खुद को भी मिलती है. नहीं दो तो मिट्टी को मिल जाती है. जिसने भी इज्ज़त के इस लेन-देन की नीति निर्धारित की थी, उसे इस तरह की किसी भी अनिवार्यता को रखना ही नहीं चाहिए था. मैं पूछता हूँ कि ये कहाँ की नीति है कि इज्ज़त दो तभी इज्ज़त मिले? मैं कहता हूँ, कम से कम राजपुत्रों को इस अनिवार्यता से बरी कर देना चाहिए था. उनके लिए अलाऊ रहे कि वे इज्ज़त दें या न दें, उन्हें इज्ज़त मिलनी ज़रूर चाहिए.

नहीं मालूम था कि द्रौपदी के स्वयंवर में जाकर यह हाल हो जाएगा. गए थे जीतने द्रौपदी को, जीत तो पाए नहीं, ऊपर से जब से वहां से लौटे हैं, पूरे कुनबे में किच-किच मची हुई है.

सब एक-दूसरे पर दोष दाग रहे हैं. दुशासन मुझे गरिया रहा है. मामाश्री मुझे और दुशासन को गरिया रहे हैं. कर्ण उधर भुरकुसाए बैठा है. इस बात पर भुरकुसाए बैठा है कि कि द्रौपदी ने उसे सूद्पुत्र क्यों कहा? विकट इमोशनल बन्दा है ये कर्ण भी. मैं कहता हूँ कह दिया तो कह दिया. औरतों की बात को लेकर इतना इमोशनल होने से चलेगा क्या?

मैं तो कहता हूँ कि काहे नहीं ऑन द स्पॉट झूठ बोल दिया कि वो सूद्पुत्र नहीं बल्कि बहुत बड़े क्षत्रिय खानदान का चिराग है. ये तो कुम्भ के मेले में खो गया था बोलकर उसका लालन-पालन सूद के घर हुआ. कुम्भ के मेले में खोया है तो एक न एक दिन तो अपनी माँ से मिलेगा ही. जिस दिन माँ से मिलेगा उसदिन एस्टेब्लिश कर देगा कि वह क्षत्रिय है.

असली झमेला तो बाहर वालों की वजह से है. कोई कह रहा है कि वाण चलाने की पर्याप्त प्रैक्टिस नहीं होने की वजह से हारे. कोई कह रहा है कि जाने से पहले कम से कम चार सप्ताह का शिविर होना चाहिए थे. शिविर में जमकर प्रैक्टिस की जाती तो धनुष-वाण के खेल में पास हो जाते. ऐसे में द्रौपदी को अर्जुन नहीं जीत पाता.

लेकिन किसे पता था कि ऐसे विकट खेल का आयोजन होगा?

कोई नहीं देखता कि कितना कठिन काम था वहां. अरे आज तक तो कहीं नहीं देखा था कि मछली को ऊपर टांग कर घुमाया जाय और कहा जाय कि नीचे रखे बर्तन के तेल में देखकर मछली पर वाण दागना है. मैं कहता हूँ कि प्रतियोगिता तो ऐसी होनी चाहिए थी कि दस फीट की दूरी पर रस्सी में बांधकर मछली को लटका देते और वाण चलाने के लिए कहते. देखते फिर कि हर वाण सही निशाने पर लगता.

इतनी कठिन परीक्षा भी लेता है कोई भला? मुझे तो इसमें केशव की चाल लगती है. उन्हें पता था कि हमलोग इसमें नहीं सकेंगे. बस उन्होंने मरवा दिया हमें.

उधर अर्जुन वगैरह इतने खुश हैं कि मुझे तो ज्यूस तक नहीं पच रहा.

मीडिया तो पीछे ही पड़ गई है. हर अखबार, हर टीवी चैनल मज़ाक उड़ा रहा है. एडिटोरियल में पूरे कुनबे की ऐसी-तैसी की जा रही है. कोई कह रहा है कि गुरु द्रोण के आश्रम में रहकर मैंने क्या झक मारा है? क्या कुछ नहीं सीखा? कोई कह रहा है कि मुझे वाण पकड़ने तक की तमीज नहीं है. पढ़कर लग रहा है कि ये लिखने वाले सामने होते तो इन्हें दौड़ा-दौड़ा कर मारता.

आखिर अभी एक महीना भी नहीं हुआ जब यही लोग धनुष-वाण, भाला प्रक्षेपण और तलवारबाजी के अभ्यास शिविर देखकर मेरी, दुशासन और कर्ण की बड़ाई करते नहीं अघाते थे. आज यही लोग कह रहे हैं कि अभ्यास शिविर में वाण चलाना एक बात है और सही जगह पर चलाना दूसरी.

अब इन मीडिया वालों को कौन समझाए कि एक योद्धा के लिए क्या धनुष-वाण चलाना ही काम है? और कोई काम नहीं है क्या? घूमना-फिरना, आखेट करना, हाट में जाकर वस्त्र, परफ्यूम वगैरह खरीदना क्या काम नहीं है? वो कौन करेगा?

ऊपर से एक गुरु द्रोण हैं. उन्हें जो कुछ कहना था पिताश्री के सामने कहते. क्या ज़रुरत थी मीडिया के सामने सबकुछ कहने की? हस्तिनापुर की मीडिया के सामने कह दिया कि अभ्यास शिविर में धनुष-वाण वगैरह चलाकर हम थक गए थे. हद आदमी हैं गुरु द्रोण भी. अरे हम थक रहे थे तो आप क्या कर रहे थे? हमें थकने से रोका क्यों नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि आप दिल से चाहते थे कि आपका प्रिय शिष्य अर्जुन स्वयंवर जीत जाए?

दुशासन ने तो कह दिया कि गुरु द्रोण अपनी औकात में रहे, यही उनके लिए अच्छा है.

इसी महीने के अंत में एक और स्वयंवर है. क्या करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा. सभी इस बात के पीछे पड़े थे कि कुनबे की बागडोर मुझसे छीनकर किसी और को दे दी जाय. कुछ लोग तो विकर्ण का नाम सुझा भी चुके हैं. वो तो भला हो पिताश्री और कृपाचार्य जी का जिन्होंने एक बार फिर से मुझे ही कुनबे की बागडोर संभला दी है.

अब देखते हैं इस स्वयंवर में क्या होता है?

Tuesday, June 16, 2009

शत-प्रतिशत निरापद-लेखन




निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद निरापद
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Monday, June 15, 2009

अम्मा जरा देख तो ऊपर




कक्षा एक में ये कविता पढ़ी थी. कोर्स की किताब में थी. बहुत प्यारी कविता है. मुझे तो तब से याद है. आपको भी याद होगी. अगर याद नहीं हो, तो याद ताजा कर लें.


अम्मा जरा देख तो ऊपर
चले आ रहे हैं बादल
गरज रहे हैं, बरस रहे हैं
दीख रहा है जल ही जल

हवा चल रही क्या पुरवाई
भीग रही है डाली-डाली
ऊपर काली घटा घिरी है
नीचे फैली हरियाली

भीग रहे हैं खेत, बाग़, वन
भीग रहे हैं घर, आँगन
बाहर निकलूँ मैं भी भीगूँ
चाह रहा है मेरा मन

बचपन में किसी पत्रिका में पढ़ी एक और कविता याद आ गई. आप भी पढें.

छुक-छुक करती, छुक-छुक करती
रेल चली जब दिल्ली से
टीटी चूहा झट आ पहुंचा
टिकट मांगने बिल्ली से
लेकिन बिल्ली बिना टिकट की
चूहे ने तब ली खिल्ली
झट जुर्माना करके बोला
गंदी होती है बिल्ली
....................................................................

फिल्म कलाकार जोगिन्दर नहीं रहे. उन्हें मेरी श्रद्धांजलि.

....................................................................

औत अंत में:

कल हुए ट्वेंटी-ट्वेंटी वर्ल्ड कप के मुकाबले में इंग्लैंड ने भारत को हरा दिया. इस हार की वजह से भारतीय टीम अब वर्ल्ड कप प्रतियोगिता से बाहर हो गई है. भारतीय टीम के प्रशंसक दुखी हैं. वैसे मेरा मानना है कि टीम ने खेल भावना के साथ अपना काम किया. जीत-हार तो खेल का हिस्सा है.

Thursday, June 11, 2009

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कीमत




हम ब्लॉगर लोग आम आदमी हैं. इसलिए ब्लॉग लिखते हैं. आते-जाते जो कुछ भी देखते हैं, टांक देते हैं ब्लॉग पर. ई ससुर गूगल ने सर्वर क्या दिया हमारी तो खिल गईं. अरे मैं बाँछों की बात कर रहा हूँ. खिल गईं. एक आईडी क्रीयेट किये और शुरू हो गए. क्या-क्या नहीं लिख डाला.

आज हमको रास्ते में यह दिखा. कल शाम को वह दिखा था. ई राजनीति बहुत गंदी हो गई है. आतंकवाद बहुत बढ़ गया है. मंहगाई बढ़ गई है. अंग्रेजी बढ़ गई है. हिंदी कम गई है. अंग्रेजी को बढावा देना गुलामी की निशानी है. आतंकवादी से सख्ती से निबटना होगा. कसाब को डायरेक्ट फांसी काहे नहीं दे देती सरकार? अफ़ज़ल गुरु की फांसी में इतना दिन काहे लग रहा है? वर्ण व्यवस्था कब ख़तम होगी? किसान काहे आत्महत्या कर रहा है? महिला आरक्षण को लेकर इतना हंगामा क्यों है? कसाब अपना बयान काहे बदल दिया? हम सेकुलर हैं, तो तुम कम्यूनल काहे हो? साध्वी प्रज्ञा के साथ इतनी बदसलूकी काहे हो रही है? हिन्दू आतंकवाद शब्द काहे इस्तेमाल किया जा रहा है? कम्यूनिष्ट इतनी बुरी तरह से काहे हारे? क्या दुनियाँ से कम्यूनिज्म के ख़तम होने की शुरुआत हो गई है? उड़ीसा में चर्च पर काहे हमला हो रहा है? मुतालिक जैसों की धुलाई काहें नहीं होनी चाहिए?

भारतीय भुजंग काट लेगा तो क्या होगा? वेद में व्यवस्था को लेकर ई कहा गया है. जंगल की आग से छुटकारा कैसे पाया जा सकता है? पर्यावरण खराब क्यों हो रहा है? हबीब तनवीर को श्रद्धांजलि. आदित्य जी को श्रद्धांजलि. गत्यात्मक ज्योतिष खराब है. फलित ज्योतिष अच्छा है. जलित ज्योतिष उससे भी अच्छा है. हम ऐसा मानते हैं तुम क्या कर लोगे? हिन्दू कौन थे? हिंदी भाषा किधर जा रही है? किस रफ़्तार से जा रही है? परसों तक कहाँ पहुँच जायेगी? कविता क्या है? कविता इंसान को जगाती है या फिर गौरैया के लिए लिखी जाती है?

काहे? काहे? काहे?

मतलब यह है कि आम आदमी हैं तो यही सब लिखेंगे न. ख़ास होते तो किसी मैगजीन में लिख रहे होते. केंचुकी फ्रायड चिकेन और मैकडोनाल्ड की वजह से एक ख़ास समाज किस दिशा में जा रहा है उसका विश्लेषण कर रहे होते. तब अगर कसाब के मुक़दमे की बात करते तो इस बात को ध्यान में रखकर करते कि अंतर्राष्ट्रीय कूटिनीति का इस मुक़दमे पर क्या असर पड़ता है. अमेरिका का मीडिया क्या चाहता है? एमनेस्टी इंटरनेशल के लोग इस मुद्दे पर क्या विचार रखते हैं? अफ़ज़ल गुरु को फांसी देने की बात करते तो यह ध्यान में रखते कि यूरोपियन यूनियन भारत से क्या चाहता है? मैकडोनाल्ड की किसी खास वर्ग के लोगों पर पड़े प्रभाव को देखते तो उससे उपजने वाली आर्थिक नीतियों का अध्ययन करते हुए लिखते.

लेकिन भैया, हम तो आम आदमी हैं. ऐसे में जो कुछ लिखेंगे वह सब आम आदमी की भाषा में ही होगा. हम तो यह सुनकर लिखना शुरू किये थे कि; "ब्लॉग अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है."

किसी ब्लॉग विशेषज्ञ ने यह लाइन गढी होगी. लेकिन हमें तो मरवाने पर उतारू दीखता है यह ब्लॉग विशेषज्ञ.

यह वाक्य सुनकर हम तो उड़ने लगे. जो मन में आया, लिख डाला. ऊपर से संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी वाला सर्टिफिकेट दिया है. अब इस सर्टिफिकेट और कुछ टूटे-फूटे विचारों से लैस हम निकल लिए ब्लॉग लिखने. आम आदमी छोटे-छोटे काम कर के महान होने के सपने देखता रहता है. वही बात हम ब्लॉगर लोगों के साथ है. सोचते हैं;"चलो ब्लॉग लिखकर महान हो लेते हैं."

अब ऐसे में अगर कोई आकर यह कहे कि ऐसा करने से फंस जाओगे तो? हमें तो लगेगा न कि यहाँ हम ब्लॉग लिखकर महान हुए जा रहे थे और आप आ गए बीच में. हमारी महानता पर ताला लगाने. महान होने का हमारा प्लान चौपट करने. आम आदमी को महान होने का हक़ नहीं है क्या?

हम ब्लॉग लिखेंगे तो आम आदमी की तरह. इसलिए जब अफ़ज़ल गुरु की बात करते हैं तब केवल यह याद रहता है कि उसे फांसी की सज़ा हो गई है. यह भी याद रहता है कि कुछ नेताओं ने और कुछ मानवाधिकार वालों उसे बचाने की मुहिम छेड़ रखी है. हमें इस बात से क्या लेना-देना कि यूरोपियन यूनियन अफ़ज़ल गुरु के मामले में भारत पर क्या दबाव डाल रहा है?

ऐसे में हम क्या लिखें?

हम जब किसानों की आत्महत्या की बात करेंगे तो यही न लिखेंगे कि सरकार की नीतियों की वजह से किसान मारा जा रहा है? हमें नहीं मालूम कि विदर्भ और बुंदेलखंड की आर्थिक दशा क्या है? किसान किस फसल की खेती करता है? वहां उपलब्ध साधन क्या हैं? हम तो जी आम आदमी की तरह यही सोचते मरे जा रहे हैं कि न जाने कितने लोग अपना जीवन ख़त्म कर ले रहे हैं.

हम जब न्याय-व्यवस्था पर लिखेंगे तो एक आम आदमी की धारणा लिए लिखेंगे. हमें तो केवल इतना पता है कि अदालतें न जाने कितने वर्षों से चल रहे न जाने कितने मुकदमें निबटा नहीं पा रही. क्यों नहीं निबटा पा रही, उसपर दिया जलाकर रौशनी दिखाना ख़ास लोगों का काम है. हमें केवल इतना जानते हैं कि वकील अपने दांव-पेंच कैसे चलाते हैं. हमें केवल इतना पता है कि इसकी वजह से मुकदमें कैसे खिंचते हैं.

हमें क्या पता कि आम आदमी की सोच लिए हम अगर कुछ लिख देंगे तो उससे अदालत की अवमानना होगी? हमें तो बस इतना मालूम है कि नेता टाइप लोग न जाने कितनी बार उच्चतम न्यायालय तक की अवमानना करते नहीं अघाते. लेकिन उनके खिलाफ कुछ नहीं होता. हमें तो बस इतना पता है कि आये दिन न्याय पालिका में भ्रष्टाचार की बातें होती रहती हैं.

इन मुद्दों के फ़ाइनर पॉइंट्स पर प्रकाश डालने का काम किसी प्रशांत भूषण, किसी फली नारीमन या किसी सोली सोराबजी के जिम्मे है.

ऐसे में हम और क्या लिखेंगे? ब्लॉग लिखने से बदलाव होता है, ऐसा कोई गुमान नहीं पाल रक्खा है हमने. हमें तो यही समझ में आता है कि टीवी के पैनल डिस्कशन या फिर सेमिनार आयोजित करने से अगर बदलाव नहीं आ पाया तो फिर शायद ब्लॉग का नंबर आये..:-)

लेकिन अब क्या अनिवार्य हो जाएगा कि ब्लॉग लिखने से पहले भारतीय अचार संहिता की धाराएं रट लो? साइबर कानूनों को घोंट डालो. हमारे लेख से किस-किस को नाराजगी होगी उसकी एक लिस्ट बना लो. इतना सबकुछ कर लो उसके बाद लिखना. चार साल लग जायेंगे सारी तैयारी करने में. हो सकता है उसके बाद जब लिखने की बारी आये तो पता चले कि गूगल जी ने फ्री की सुविधा हटा ली. ऐसे में हमारा ब्लॉग कैरियर तो शुरू होने से पहले ही ख़त्म हो जाएगा.

अभिव्यक्ति का माध्यम क्या केवल ब्लॉग ही है?

यह तो अभी आया है. हाल ही में. इससे पहले जो लोग व्यंग वगैरह लिख डालते थे उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं थी? क्या होता अगर कोई अधिकारी, कोई मास्टर, कोई नेता, कोई राजनीतिक पार्टी, कोई डॉक्टर, कोई वकील, कोई थानेदार, कोई गवर्नर, कोई मुख्यमंत्री किसी परसाई जी, किसी शरद जोशी जी या किसी श्रीलाल शुक्ल जी से नाराज़ हो जाता तो?

समाज में न जाने किन-किन विसंगतियों पर इन लोगों ने लिखा. किसी को छोड़ा नहीं. लेकिन मैंने तो नहीं सुना कि किसी ने इन्हें अदालत में घसीट लिया हो. ऐसा होता तो क्या-क्या हो सकता था?

देखते कि सन पचहत्तर से ही परसाई जी केवल अदालतों के चक्कर काट रहे हैं. किसी दिन जबलपुर में मुक़दमे की सुनवाई रहती तो यह कहते सुने जाते कि;"क्या कहें, वकालत में व्याप्त विसंगतियों के बारे में लिख दिया था. गवाह कैसे तोडे जाते हैं. तारीख कैसी ली जाती है. जबलपुर बार असोसिएशन ने मुकदमा ठोक दिया. अब तो झेलना पड़ेगा ही. मेरी भी मति मारी गई थी. काहे व्यंग लिखने गए?"

कोई कहता कि; " कोई बात नहीं. ऐसा होता रहता है. सब ठीक हो जाएगा."

इस बात पर शायद बोलते; "अरे क्या ख़ाक ठीक हो जाएगा? अभी कल ग्वालियर में मुक़दमे की सुनवाई है. रानी नागफनी की कहानी में डॉक्टर भाई लोगों के बारे में लिख दिया था कि कैसे जब मार्केट में कोई दवाई भारी मात्रा में आ जाती है डॉक्टर लोग हर रोग में मरीज को वही दवाई प्रिस्क्राईब कर देते हैं. कल की तारीख निबट जाए तो अगले मंगलवार को हैदराबाद जाना है. राजनीति पर लिखे गए एक लेख में चेन्ना रेड्डी को खींच लिए थे. भाई ने आंध्रप्रदेश हाई कोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया है."

देखते कि सन पचहत्तर के बाद उन्होंने कुछ लिखा ही नहीं. तब से सन पंचानवे तक बेचारे मुकदमों में उलझे-उलझे इस असार संसार से कूच कर जाते.

कैसा लगता अगर ऐसा कुछ हो जाता तो?

संजय गांधी की खिंचाई न जाने कितनी बार की होगी उन्होंने. अशोक मेहता से लेकर राम मनोहर लोहिया, और जय प्रकाश नारायण से लेकर राज नारायण तक किसी को नहीं छोड़ा. लेकिन क्या इन लोगों ने उनको मुकदमों में फंसाकर जोत डालने की कसम खाई?

या फिर उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कुछ और मायने थे? या कहीं ऐसा तो नहीं कि परसाई जी अपने समय के बाहुबली थे जिनसे सब डरते थे इसलिए किसी ने डर के मारे मुकदमा नहीं दायर किया?

आखिर एक आम आदमी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कीमत क्या है? जेलयात्रा?

Monday, June 8, 2009

बाँट रहे सर्टिफिकेट गाकर सेकुलर राग




कभी नहीं सोचा था कि इस तरह का कुछ लिखना पड़ेगा. क्योंकि सेकुलर और कम्यूनल जैसे मुद्दों पर बहस का काम बड़े-बड़े ज्ञानी, विद्वान् करते हैं. लेकिन इनमें से ही एक विद्वान जी ने कुछ ब्लॉग पोस्ट पर टिप्पणी करने की वजह से मुझे कम्यूनल घोषित कर दिया है.

अब घोषित कर दिया है तो कर दिया है. विद्वान् हैं. विद्वान टाइप लोग कुछ भी करते रहते हैं. लेकिन भैया, मेरा कहना है कि मैंने क्या टिप्पणी की, वह तो देख लेते. केवल टिप्पणी करने की वजह से ही कम्यूनल घोषित कर दिया आपने?

इन विद्वान जी के विद्वत्ता देखकर सेकुलर और सेकुलरिज्म के जो मायने मुझे समझ में आये, वह इन 'धोयों' में हैं. देखिये जरा, आप सेकुलरिज्म की जो परिभाषा जानते हैं, वो ऐसी ही है क्या?

.....................................................

हम सेकुलर हैं जनम से और कम्यूनल हैं आप
संग हमरे जो न चले लेंगे गर्दन नाप

खुद को सेकुलर कह दिए ठप्पा लिया लगाय
वे टस से मस न करें चाहे सब मरि जाय

साठ साल से गा रहे अपना सेकुलर गान
बाकी चाहे जो कहें सुनें न उनका तान

बाँट रहे सर्टिफिकेट गाकर सेकुलर राग
सेकुलर साबुन यूज कर छुपा लिए सब दाग

वे जिसको सेकुलर कहें वह सेकुलर हो जाय
जिसको वे कम्यूनल कहें मिट्टी में मिल जाय

बैठे हैं जो उस तरफ देते अपनी राय
उन्हें समर्थन दे अगर फट सेकुलर हो जाय

किया बहाना बहस का पोस्ट दिया है चढाय
चार नाम ले लिख दिया सब कम्यूनल है भाय

'बहसी पोस्ट' चढाय जो चहु दिक् फैले नाम
बड़े-बड़े सेकुलर यहाँ करते उन्हें सलाम

हम समझायें धर्म क्या तुम बस सुनते जाव
जो कह दें वह फाइनल हमरा ऊंचा भाव

सेकुलर ही जाने यहाँ क्या है हिन्दुस्तान
बाकी सब चिरकुट यहाँ उनको नहि कछु ज्ञान

जिसकी चाहें फिक्स कर 'हाफ-पैन्टिया' जात
ले लाठी दौडाय दें, उसकी क्या औकात

Friday, June 5, 2009

साहेब, यूरिया पर सब्सिडी बढा देते तो......




अस्सी और नब्बे के दशक तक दूध वाला घर पर दूध दे जाता था. गाय का 'प्योर' दूध. बेचारा कभी-कभी पानी मिलाना भूल जाता था. जिस दिन पानी मिलाना भूल जाता था, हम सब को दूध के प्योर होने पर शंका होने लगती थी. उस दिन कहना नहीं भूलते थे कि; "आज दूध कुछ ठीक नहीं लग रहा."

दूसरे दिन जब उससे कहते कि कल का दूध ठीक नहीं लगा तो हंसते हुए बोलता; " कल पानी मिलाना भूल गए थे."

दूध वाले से हमेशा शिकायत ही रहती थी. उसके सामने तो कुछ नहीं कहते थे लेकिन उसके जाने के बाद शुरू हो जाते थे; "इसकी बदमाशी बढ़ गई है. पहले केवल पानी मिलाता था, आजकल मूंगफली पीस कर दूध में मिला देता है जिससे दूध गाढा दिखे. इसे अब छुड़ाना ही पडेगा."

लेकिन दूसरे दिन फिर पानी वाला दूध पीकर संतोष कर लेते थे.

आजकल दूध वाले को गाली देना बंद हो गया है. आज तो उस दूध वाले को याद करके आँखों में आंसू आ जाते हैं. यह कहते हुए ठंडी सांस लेते हैं कि; "अब कहाँ मिलेंगे ऐसे ईमानदार दूधवाले? कितना ईमानदार था बेचारा. दूध में केवल पानी और मूंगफली मिलाता था."

सच में. अगर ऐसे दूध वाले मिल जाते तो पूरा मोहल्ला मिलकर राष्ट्रपति को एक ज्ञापन दे डालता कि; "इस ईमानदार दूधवाले को गोल्ड मेडल दिलवाईये क्योंकि यह दूध में केवल पानी और मूंगफली मिलाता है."

आखिर ऐसा क्यों न हो?

अब बाजार से पैकेट वाला दूध आता है. सालों तक ये कहकर पीते रहे कि "दूध ताजा तो नहीं रहता लेकिन प्योर रहता है."

लेकिन यह क्या? टीवी न्यूज चैनल ने स्टिंग ऑपरेशन करके बताया कि दूध में यूरिया, डिटर्जेंट, शैंपू वगैरह मिलाया जाता है. कहते हैं यूरिया मिलाने से दूध ज्यादा गाढा और सफ़ेद लगता है. उसके प्योर दिखने में कोई शक नहीं रहता.

जब से पता चला है, गिलास में रखे दूध को शक की निगाह से देखते हैं. खुद से मन ही मन 'लाऊडली' सवाल पूछ लेते हैं; "दूध पी रहे हो कि यूरिया?"

सरकार के लोगों के अलावा टीवी पर दूध कंपनी के कर्मचारियों को देखा. एक मंत्री बता रहे थे कि किसी को छोडेंगे नहीं. अब इसपर क्या कहा जाय? राजू श्रीवास्तव की तरह खीसें निपोरते हुए पूछ लें कि; " भैया छोड़ने की बात तो तब आएगी जब पहले पकड़ोगे."

मिलावटी मामलों पर सरकार के एक अफसर को टीवी पर बोलते हुए देखा. उन्होंने समझाया कि किस तरह से खाने की चीजों में मिलावट रोक पाना आसान नहीं है. कह रहे थे "देखिये, हमारे देश में कानून ढीला है. सालों से बदलाव नहीं हुआ है. फ़ूड इंसपेक्टर कम हैं. नगर निगम ध्यान नहीं देता. ये मिलावट करने वाले एक्सपर्ट होते हैं. पुलिस भी इनसे मिली हुई है. फिर भी हम कोशिश तो कर ही रहे हैं."

मैं अपने आपसे बहुत नाराज हुआ. मन में अपने आपको धिक्कारा. मैंने सोचा "एक ये हैं जिन्हें देश में होने वाले हर वाकये की जानकारी है और एक मैं हूँ जिसे कुछ नहीं पता. कम से इतना तो पता कर सकता हूँ कि मिलावट करने वाले बड़े एक्सपर्ट होते हैं. देश का कानून पुराना और ढीला है."

टीवी वाले बता रहे थे कि लगभग पूरे उत्तर भारत में बिकने वाला दूध इसी तरह का है.

मतलब यह कि पूरी तरह से आर्गेनाइज्ड ऑपरेशन है. यही हाल रहा तो आने वाले दिनों में कुछ ऐसा देखने को मिलेगा.

टीवी पर दूध में मिलावट करने वाले गिरोह के लोग शिकायत भरे लहजे में कह रहे हैं; "अब इस मिलावट के धंधे में भी ज्यादा कुछ प्राफिट नहीं रहा अब. पानी के अलावा बाकी सब कुछ मंहगा है. सरकार ने यूरिया पर से जब से सब्सिडी घटाई
है, हमारा तो धंधा ही चौपट हो गया. डिटर्जेंट पर एक्साईज ड्यूटी इतनी बढ़ गयी है कि अब दूध के मिलावट वाले धंधे में मुनाफा कमाना बहुत कठिन हो गया है. "

मानवाधिकार वाले कहेंगे; " क्या कर रही है सरकार? समाज के किसी वर्ग को तो मंहगाई की मार से बचाए. इन लोगों के लिए कम से कम यूरिया और डिटरजेंट तो सस्ता करवा सकती है."

भाई लोग यह भी कह सकते हैं कि; "धंधा करने के लिए पुलिस से लेकर इलाके के नेता को पैसा देना पड़ता है. कम से कम नेताओं और पुलिस वालों से तो कह सकती है कि भैया, इन लोगों का ख़याल रखो. इनके लिए अपनी 'फीस' में से कुछ छोड़कर इन्हें राहत दो."

बजट आ रहा है. प्रणब बाबू जल्द ही बजट पेश कर देंगे. अभी दो दिन पहले ही उद्योगपतियों का एक दल गिरोह बनाकर वित्त मंत्री से मिल चुका है. ये भाई लोग अपने-अपने उद्योगों के लिए कस्टम और एक्साईज में कटौती की मांग वांग तैयार कर चुके होंगे.

ऐसे में मैं तो इस बात के पक्ष में हूँ कि मिलावट उद्योग के लोगों को भी वित्तमंत्री से मिलना चाहिए. दूध में मिलावट करने वाले कम से कम यूरिया पर मिलने वाली सब्सिडी को बढ़ाने की मांग कर ही सकते हैं. साथ में डिटरजेंट और बाकी के 'रा मैटीरियल' पर सेल्स टैक्स, कस्टम, एक्साईज वगैरह कम करने की मांग भी जरूर करें. भाई, सरकार को भी इनकी मांगें माननी चाहिए.

क्या पता? आज ये लोग यूरिया, डिटर्जेंट, शैंपू मिला रहे हैं. हो सकता है कल को इनका कोई प्राइवेट वैज्ञानिक यह खोज कर ले कि दूध में एसिड मिलाने से दूध न सिर्फ सुन्दर दीखता है बल्कि स्वादिष्ट भी हो जाता है.

सोचिये, तब क्या होगा?