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Saturday, May 30, 2009

तरही कविता - मंदी के मारे उर्वशी और पुरुरवा




तरही कविता लिखने के दूसरे चरण में इस बार दिनकर जी द्बारा रचित उर्वशी पर नज़र गई. मुझे लगा कुछ तुकबंदी फिर से इकठ्ठा हो सकती है. फिर ट्राई किया तो तुकबंदी इकठ्ठा हो गई. आप झेलिये.

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रात का समय. आकाश मार्ग से जाती हुई मेनका, रम्भा, सहजन्या और चित्रलेखा पृथ्वी को देखकर आश्चर्यचकित हैं. उन्हें आश्चर्य इस बात का है कि मुंबई के साथ-साथ और भी शहरों के शापिंग माल सूने पड़े हैं. मल्टीप्लेक्स में कोई रौनक नहीं है. दिल्ली में कई निवास पर कोई हो-हल्ला नहीं सुनाई दे रहा. लेट-नाईट पार्टियों का नाम-ओ-निशान नहीं है.

पिछले कई सालों से शापिंग माल और मल्टीप्लेक्स की रौनक देखने की आदी ये अप्सराएं हलकान च परेशान हो रही हैं.

सहजन्या

लोप हुआ है जाल रश्मि का, है अँधेरा छाया
रौनक सारी कहाँ खो गई, नहीं समझ में आया
शापिंग माल में लाईट-वाईट नहीं दीखती न्यारी
कार पार्किंग दिक्खे सूनी, सोती दुनिया सारी

तुझे पता है रम्भे, क्या इसका हो सकता कारण?

रम्भा

कैसा प्रश्न किया सहजन्ये, कैसे करूं निवारण?

हो सकता है इसका उत्तर दे उर्वशी बेचारी
पर अब महाराज पुरु की भी दिक्खे नहीं सवारी

सहजन्या

अरे सवारी कैसे दिक्खे, महाराज सोते हैं
मैंने सुना है, वे भी अब तो दिवस-रात्रि रोते हैं
पृथ्वी पर मंदी छाई है, ठप है अर्थ-व्यवस्था
नहीं पता था, हो जायेगी ऐसी विकट अवस्था

मेनका

अर्थ-व्यवस्था की मंदी तो, दुनियाँ ले डूबेगी

सहजन्या

अगर हुआ ऐसा तो फिर उर्वशी बहुत ऊबेगी

महाराज पुरु की चिंताएं उसे ज्ञात हो शायद
दिन उसके दूभर हो जाएँ स्याह रात हो शायद
मर्त्यलोक की सुन्दरता पर मिटी उर्वशी प्यारी
किसे पता था होगी दुनियाँ इस मंदी की मारी?

पता नहीं किस हालत में उर्वशी वहां पर होगी

मेनका

सच कहती है सहजन्ये वो जाने कहाँ पर होगी

सहजन्या

वह तो होगी वहीँ, जहाँ पर महाराज होते हैं
दिन में विचरण करते हैं, और रात्रि पहर सोते हैं
पिछली बार गए थे दोनों, गिरि गंधमादन पर
हो सकता है अब जाएँ वे, किसी धर्म-साधन पर
लेकिन उनका आना-जाना, अब दुर्लभ हो शायद
मंदी के कारण न उनको, अर्थ सुलभ हो शायद

चित्रलेखा

अरी कहाँ तू भी सहजन्ये मंदी-मंदी गाती
महाराज को कैसी मंदी, दुनियाँ उनसे पाती

मेनका

पाने की बातें करके, ये अच्छी याद दिलाई
सखी उर्वशी को क्या मिलता, उत्सुकता जग आई
तुझे याद हो शायद, उसका कल ही जन्मदिवस है

सहजन्या

महाराज क्या देंगे उसको, मंदी भरी उमस है.

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महाराज पुरुरवा के साथ उर्वशी उद्यान में विचरण कर रही है. कल उसका जन्मदिवस है. महाराज चिंतित हैं. उसे इस बार क्या उपहार दें? पिछले बार इक्यावन तोले का नौलखा हार दिया था. पाश्चात्य देशों से मंगाया गया बढ़िया परफ्यूम और चेन्नई से मंगाई गई नेल्ली चेट्टी की साडियां दी थी.

लेकिन इस बार छाई मंदी की वजह से प्रजा से भी धन वगैरह की प्राप्ति नहीं हुई है. खजाने में केवल एक सप्ताह के आयात के लिए ही फॉरेन एक्सचेंज बचा है. ऐसे में इम्पोर्टेड चीजें मंगाकर उपहार स्वरुप उर्वशी को देना संभव नहीं है. महाराज सोच रहे हैं कि उर्वशी कुछ मांग न बैठे. इसलिए वे आज के लिए उर्वशी से विदा होना चाहते हैं.....

पुरुरवा

चिर-कृतज्ञ हूँ, साथ तुम्हारा मन को करता विह्वल
जब से हम-तुम मिले, लगे ये धरा हो गई उज्जवल
मन के हर कोने में, बस तुम ही तुम हो हे नारी
लेकिन हमको करनी है, अब चलने की तैयारी

उर्वशी

चलने की तैयारी! लेकिन क्योंकर कर ऐसी बातें?
चाहें क्या अब महाराज, हो छोटी ही मुलाकातें?
शायद हो स्मरण कि मेरा जन्मदिवस है आया
एक वर्ष के बाद हमारे लिए, ख़ुशी है लाया
पिछले बरस मिला था मुझको हार नौलखा,साड़ी
मैं तो चाहूँ मिले इस बरस, बी एम डब्यू गाड़ी


पुरुरवा

गाड़ी दूं उपहार में कैसे, मंदी बड़ी है छाई
ज्ञात तुम्हें हो अर्थ-व्यवस्था, है सकते में आई
खाली हुआ खजाना मेरा, समय कठिन है भारी
अब तो हमको करनी है, बस चलने की तैयारी

उर्वशी

फिर-फिर से क्यों बातें करते हमें छोड़ जाने की?
जाना ही था कहाँ ज़रुरत थी वापस आने की?
या फिर देख डिमांड गिफ्ट का छूटे तुम्हें पसीना
समझो नहीं मामूली नारी, मैं हूँ एक नगीना

समझो भाग्यवान तुम खुद को, मिली उर्वशी तुमको

पुरुरवा

नाहक ही तुम रूठ रही हो, थोड़ा समझो मुझको

पैसे की है कमी और अब लिमिट कार्ड का कम है
धैर्यवान हो सुनो अगर, तो बात में मेरी दम है
मुद्रा की कीमत भी कम है, ऊपर से यह मंदी
क्रेडिट क्रंच साथ ले आई, पैसे की यह तंगी

उर्वशी

ओके, समझी बात तुम्हारी, मैं भी अब चलती हूँ
वापस जाकर देवलोक में, सखियों से मिलती हूँ
जब तक मर्त्यलोक में मंदी, यहाँ नहीं आऊँगी
देवलोक में रहकर, सारी सुविधा मैं पाऊँगी
थोड़ा धीरज रखो, शायद अर्थ-व्यवस्था सुधरे
हो सुधार गर मर्त्यलोक में, और अवस्था सुधरे
अगर तुम्हें ये लगे, कि सारी सुविधा मैं पाऊँगी
एक मेल कर देना मुझको, वापस आ जाऊंगी


इतना कहकर उर्वशी आकाश में उड़ गई. पुरुरवा केवल उसे देखते रहे.

अब पृथ्वी पर अर्थ-व्यवस्था में सुधार की राह देख रहे हैं. कोई कह रहा था कि अर्थ-व्यवस्था जल्द ही सुधरने वाली है.

Friday, May 29, 2009

तरही कविता ---मंदी लाई दिन काला




आजकल तरही गजल की बात खूब हो रही है. कई बार सोचा कि तरही कविता की बात क्यों नहीं होती. आज सोचा तरही कविता ट्राई की जाए. ट्राई किया तो ये पाव-किलो तुकबंदी इकट्ठी हो गई. आप झेलिये.

पाठक बन्धुवों को अगर बुरा लगे तो उसके लिए एडवांस में क्षमा प्रार्थी हूँ.

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ग्रोथ रुक गई जीडीपी की, मंदी ने मारा पाला
मील-फैक्टरी सूनी पड़ गई, उनपर लटक रहा ताला
लोन लिया था बैंकों से जो, एक्सपेंशन की खातिर वो
ब्याज जोड़कर डबल हो गया, मंदी लाई दिन काला

खूब कमाया डॉलर में, था फारेन ट्रैवेल का मतवाला
यू एस ए हो चाहे यूके, सबको ही सलटा डाला
आज हाल तो ये है, शिमला जाना भी दूभर है अब
लिमिट ख़तम है आज कार्ड का, मंदी लाई दिन काला

आर्डर बुक में जो आर्डर थे, तुरत-फुरत निपटा डाला
डॉलर आया घर में जब, बस शेयर में लगवा डाला
गिरा हुआ है शेयर प्राईस, आर्डर भी अब हाथ नहीं
कैसे खर्च चलेगा भगवन, मंदी लाई दिन काला

एक समय था मिनट-मिनट पर, मिलता था काफी प्याला
वीक-एंड की शामें, ले जाती थी सीधे मधुशाला
बंद हुई ये परिपाटी अब, सारी रौनक चली गई
नहीं मिले अब चाय-वाय भी, मंदी लाई दिन काला

शर्म-ग्रंथि सब जला चुकी हो, जिसके अंतर की ज्वाला
जिसका अंतर्मन ये बोले, दुनियाँ एक धरमशाला
जिसने चमड़ी मोटी कर ली, जो उधार ले जीता हो
वही टिकेगा इस दुनियाँ में, मंदी लाई दिन काला

मुसलमान हो चाहे हिन्दू, सबको घायल कर डाला
मंहगाई की राह पर चलकर, पाँव पड़ा दर्जन छाला
चावल चीनी एक भाव के, दाल की बातें कौन करे
आलू सोलह रूपये किलो, मंदी लाई दिन काला

मृदु भावों वाले जीवन में, कटुता भाव जगा डाला
मीठी स्मृतियों पर पड़ गया, तीखा सा मोटा जाला
ऐसे दिन भी आने थे ये ज्ञात नहीं था हे बंधु
रातों का कटना दूभर है, मंदी लाई दिन काला

बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ मिट गईं, कोई नहीं रोने वाला
बैंक-वैंक तो कितने डूबे, कोई नहीं गिनने वाला
दशकों लगे जिन्हें बनने में, घंटों में वे उखड़ गए
जो हैं बचे डरे जीते हैं, मंदी लाई दिन काला

अर्थ-व्यवस्था की मंदी ने, खेला चौपट कर डाला
बची-खुची थी राजनीति, उसपर भी अब छाया पाला
बन-ठन कर तैयार खड़े थे, शासन में जम जायेंगे
आज खड़े हैं चुप्पी साधे, मंदी लाई दिन काला

पीएम इन वेटिंग थे अब तक, नहीं पहन पाए माला
दांव आख़िरी काम न आया, उलट गया सत्ता प्याला
जीवन भर की सारी मंशा, पल भर में बस हवा हुई
गया रसों से स्वाद सभी अब, मंदी लाई दिन काला

Thursday, May 21, 2009

सेंट मोला मेमोरियल - भाग ५




खेलने के मैदान को स्कूल का हिस्सा न बनाए जाने के लिए राम अवतार जी ने जो तर्क दिया वो अकाट्य था. सही बात है. पैसे से क्या नहीं किया जा सकता? पैसे से स्कूल बनवाया जा सकता है. पैसे से स्कूल हटवाया जा सकता है. पैसे से स्कूल के लिए मैदान बनवाया जा सकता है और पैसे से ही स्कूल के लिए मैदान नहीं भी बनवाया जा सकता है. शायद इसीलिए राम अवतार जी की बात पर रमेश बाबू भी कुछ नहीं बोले.

वैसे भी उन्हें पता था ढेर सारी बातें होती हैं जिनपर क्लायंट का फैसला ही आखिरी फैसला होता है. लिहाजा वे चुप ही रहे.

बात आगे चली तो स्कूल के लिए तमाम और ज़रूरी बातों के बीच से होते हुए बात ह्यूमन रिसोर्स पर जाकर रुकी. स्कूल के लिए मास्टरों की भर्ती कैसे की जानी चाहिए? क्या जुगत लगाई जाय कि सस्ते और टिकाऊ मास्टर मिलें.

आम आदमी को अक्सर यह कहते हुए सुना जा सकता है कि; "सस्ता रोवे बार-बार, मंहगा रोवे एक बार." लेकिन राम अवतार जी कोई आम आदमी तो हैं नहीं. ऐसे में वे हर उस बात को नहीं मानते जिसे आम आदमी मानता है. अगर उनके अपने बिजनेस मॉडल को देखा जाय तो यही साबित होगा कि उनके हिसाब से सस्ती चीज ही अक्सर टिकाऊ होती है.

उनकी तेल-मिल या फिर दूकान पर काम करने वाले मजदूरों को अगर देखा जाय तो राम अवतार जी के इस सिद्धांत की पुष्टि होती है. उन्होंने नियम बना लिया है कि मुटिया-मजदूरों को मजदूरी जितनी कम दी जा सके, उतना ही अच्छा. इसके पीछे तर्क यह है कि अगर मजदूरों को मजदूरी कम मिले तो वे हमेशा हलकान-परेशान रहेंगे. परेशानी से सराबोर मजदूर आगे की सोच ही नहीं सकता. उसे ये सोचने की फुरसत ही नहीं रहेगी कि मजदूरी कम मिल रही है तो कहीं और देखा जाय.

राम अवतार जी को यह सिद्धांत रुपी जायदाद उनके पिताश्री से विरासत में मिली है. माडर्न बिजनेस प्रैक्टिस जिसमे ये माना जाता है कि न्यायपूर्ण मजदूरी किसी भी मजदूर को खुश रखती है इसलिए वह अच्छा काम करता है, के लिए राम अवतार जी के बिजनेस सिद्धांतों की लिस्ट में कोई जगह नहीं है.

खैर, बात जब सस्ते और टिकाऊ मास्टरों की हुई तो काफी बातचीत और ब्रेन स्टोर्मिंग के बाद रमेश बाबू और राम अवतार जी के बीच इस बात पर आम सहमति बनी कि प्राइवेट स्कूल में कम सैलरी पाने वाले अध्यापकों को थोड़ी ज्यादा सैलरी का लालच देकर फोड़ा जा सकता है.

ऐसे अध्यापक जिनका घर-परिवार ट्यूशन किये बिना नहीं चलता. जो प्राइवेट स्कूलों से मिलने वाली सैलरी बिना किसी ना-नुकर के इसलिए ले लेते हैं क्योंकि इन स्कूलों में पढाने से ही उन्हें ट्यूशन मिलते हैं. ये अध्यापक सुबह-शाम उस महापुरुष की आराधना करते हैं जिसने ट्यूशन नामक प्रोफेशन का आविष्कार किया था.

दोनों इस बात पर सहमत हो गए कि सस्ते और टिकाऊ अध्यापकों की खोज प्राइवेट स्कूलों तक जाकर ख़त्म होती है. वहां से आगे जाने की ज़रुरत ही नहीं.

अध्यापकों के बाद बारी आई चपरासियों की. किसी भी स्कूल के लिए अध्यापक के बाद महत्व के पैमाने पर चपरासी का नंबर आता है. चपरासी घंटा न बजाये तो पढाई की शुरुआत न हो. वहीँ चपरासी घंटा न बजाये तो पढाई बंद भी नहीं होगी. चपरासी के महत्व को आगे रखकर दोनों ने बड़ा गहन चिंतन किया.

बातचीत आगे चली तो रमेश बाबू ने सजेस्ट किया कि जैसे अध्यापकों को प्राइवेट स्कूल से खींचा जा सकता है वैसे ही क्यों न चपरासियों को भी वहीँ से खींच लिया जाय. रमेश बाबू के इस विचार को राम अवतार जी ने अपने विचारों की गुलेल चलाकर घायल कर दिया. रमेश बाबू का विचार वहीँ टेबल पर घायल पड़ा बिलबिलाने लगा.

साथ ही अपने विचारों की गुलेल से राम अवतार जी ने एक विचार और दागा. वे बोले; "अरे क्या ज़रुरत है चपरासी बाहर से लाने की? मैं आपको एक तरकीब बताता हूँ. हमारे यहाँ जो मुटिया लोग काम करते हैं, उन्ही में से सात-आठ को चपरासी बना डालते हैं."

उनकी बात सुनकर रमेश बाबू अचंभित. उन्हें समझ में नहीं आया कि राम अवतार जी ऐसा क्यों कह रहे हैं? एक बार के लिए उन्हें लगा कि ऐसा करने से तो राम अवतार जी की तेल-मिलों और दूकानों में काम का हर्ज़ होगा. यही सोचते हुए उन्होंने कहा; "लेकिन फिर आपका काम कैसे चलेगा?"

उनकी बात सुनकर राम अवतार जी मुस्कुरा दिए. बोले; "आप भी न. अरे, मैं इस बात पर ऐसा इसलिए कहा रहा हूँ कि पूरा का पूरा बिजनेस सेंस बनता है यहाँ. अब देखिये, अगर स्कूल के लिए नया चपरासी बाहर से लेने जायेंगे तो उसे चपरासी की सैलरी देनी पड़ेगी. और आप तो जानते ही है कि ऐसा करना कितना मंहगा साबित होगा. ऐसे में अगर दूकान से लाकर किसी मुटिया को चपरासी बना दिया जाय तो दो बातें होंगी. उसकी जगह जिसको भी लेंगे उसे मुटिया की सैलरी मिलेगी. और इसे चपरासी बना देंगे तो ये भी खुश हो जाएगा. एक तरह से इसका प्रमोशन हो जाएगा. मुटिया को अगर चपरासी का काम मिल जाए तो वो इतना खुश हो जाएगा कि सैलरी बढाने की बात करेगा ही नहीं. "

राम अवतार जी की बात सुनकर रमेश बाबू को लगा कि उनके हाथ में होता तो वे राम अवतार जी को चेंबर ऑफ़ कामर्स से गोल्ड मैडल विद सर्टिफिकेट दिला देते. और तो और इनके बिजनेस सिद्धांतों को आई आई एम के पाठ्यक्रम में डलवा देते.

आधे मन से राम अवतार जी को गरियाते और आधे मन से उनकी सराहना करते हुए उन्होंने कहा; " बढ़िया आईडिया दिया आपने."

अध्यापक और चपरासी के बारे फैसला लगभग ले लिया गया. उसके बाद नंबर आया हेडमास्टर साहब का. बात चली तो रमेश बाबू ने कहा; "हेड मास्टर के बारे में आपको चिंता करने की ज़रुरत ही नहीं है. हेड मास्टर तो अपने हाथ में हैं."

उनकी बात सुनकर राम अवतार जी को लगा कि शायद उन्होंने फ़ोन पर बात होने के बाद किसी हेड मास्टर साहब से प्लान के बारे में बात की होगी. यही सोचते हुए उन्होंने रमेश बाबू से पूछा; "आपने किसी हेड मास्टर से बात की है क्या?"

वे बोले; "अरे नहीं. बिना आपसे पूछे मैं किसी से भला कैसे बात कर सकता हूँ? वो तो मैं इसलिए कह रहा था कि अपने एक आरएनपी सर हैं. हायर सेकंडरी में मुझे ट्यूशन पढ़ाते थे. बहुत पुराना सम्बन्ध है अपना. उनका आईटी रिटर्न भी अपने यहीं से मैं ही डलवा देता हूँ. परमेश्वरी विद्यालय में पढ़ाते हैं. एक्सपेरिएंस भी है. काबिलियत भी. वे इस जॉब के लिए परफेक्ट रहेंगे."

अब अगर आपके मन में सवाल उठे कि आरएनपी सर कौन ठहरे तो फिर पढिये.

आरएनपी सर का पूरा नाम राम नारायण पाठक है. अंग्रेजी में एमए किया है. उसके बाद बीएड करके अध्यापन में उतर गए. पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के किसी गाँव के हैं. कलकत्ते में परमेश्वरी विद्यालय में पिछले पचीस साल से पढ़ाते हैं. इन्हें स्कूल से सैलरी उतनी ही मिलती है जितनी प्राइवेट स्कूलों में औरों को मिलती है. घर-परिवार ट्यूशन से चलता है. पाठक सर घर जाकर ट्यूशन पढ़ाते हैं.

पाठक सर की बड़ी तमन्ना थी कि वे किसी दिन परमेश्वरी विद्यालय के हेड मास्टर बनें. जब तक त्रिपाठी जी वहां के हेड मास्टर थे, तब तक पाठक सर को लगता था कि त्रिपाठी जी के बाद वही हेड मास्टर बनेंगे. इस आशा में इन्होने करेसपांडेंस के जरिये इतिहास विषय में भी एमए किया. इन्हें लगा कि डबल एमए करने हेड मास्टर पद के लिए इनकी दावेदारी और पुख्ता हो जायेगी. पाठक सर पूरी तैयारी किये बैठे थे कि त्रिपाठी जी के रिटायरमेंट के बाद यही हेड मास्टर बनेंगे. लेकिन हाय री किस्मत.

इस किस्मत ने इनका साथ छोड़ दिया. इन्हें नहीं पता था कि त्रिपाठी जी के रिटायरमेंट प्लान में एक चैप्टर यह भी था कि वे जब रिटायर होंगे तब अपने रिश्तेदार दूबे जी, जिनकी नौकरी उन्होंने इस स्कूल में लगवाई थी, उन्हें हेड मास्टर बनाकर जायेंगे.

दूबे जी भी हेडमास्टर केवल इसलिए नहीं बने थे कि वे त्रिपाठी जी के रिश्तेदार थे बल्कि इसलिए बन पाए थे कि वे स्कूल के हेड ट्रस्टी सोमानी जी के घर सुबह-शाम रामचरित मानस का सस्वर पाठ करते थे. रामचरित मानस का यह सस्वर पाठ ही उनके हेडमास्टर बनने में सहायक सिद्ध हुआ.

दूबे जी के हेडमास्टर बनने के बाद मानो पाठक जी का परमेश्वरी विद्यालय में अध्यापन से दिल ही उठ गया.

जारी रहेगा....

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२१ मई, २००७ को मैंने पहली पोस्ट लिखी थी. मजे की बात यह कि उसी दिन पब्लिश भी कर दी थी. इस लिहाज से देखें तो आज ब्लागिंग में दो साल पुराने हो लिए हम.

आपने क्या कहा? ये सब मैं क्यों बता रहा हूँ?

अजी साहब, बधाई तो बनती है न.

Wednesday, May 20, 2009

सेंट मोला मेमोरियल स्कूल - भाग ४




पंकज सिंह जी के बारे में याद आते ही राम अवतार जी आश्वस्त हो गए. उन्हें याद आया कि न जाने कितनी बार वे पंकज सिंह जी को रमेश जी के आफिस में देख चुके हैं. जितनी बार उन्होंने पंकज सिंह जी को वहां देखा, हर बार रमेश बाबू ने राम अवतार जी के सामने सिंह जी की तारीफों के पुल ही बांधे थे. उनकी काबिलियत की चर्चा करते हुए रमेश बाबू ने हर बार यही बताया था कि कैसे दिल्ली के मंत्रालय वगैरह में काम करवाना पंकज सिंह जी के बायें हाथ का खेल है.

पंकज सिंह जी की काबिलियत को साबित करने के लिए रमेश बाबू ने न जाने कितनी कहानियां सुनाई होंगी. तरह-तरह की कहानियां. तरह-तरह की उनकी परेशानियां. हर परेशानी का पंकज सिंह जी के द्बारा तरह-तरह से इलाज किया जाना.

कभी कंपनी अफेयर मिनिस्ट्री में कोई काम फंस गया था तो कभी फायनांस मिनिस्ट्री में. कभी सामाजिक न्याय मंत्रालय में तो कभी पंचायत मंत्रालय में. लेकिन हर बार पंकज सिंह जी ने रमेश बाबू को संकट से उबार दिया था.

संकट से हनुमान छोडावें, मन-क्रम बचन ध्यान जो लावें....टाइप हिसाब था दोनों के बीच.

बात आगे बढ़ी तो राम अवतार जी को लगने लगा कि सारी बातें फ़ोन पर नहीं की जा सकतीं. आखिर मामला भी तो कोई छोटा-मोटा नहीं था. धंधे के डाईवर्शीफ़िकेशन की बात थी. सालों से चले आ रहे उनके विश्वास कि तेल के धंधे से बढ़िया और कोई धंधा नहीं है को इस स्कूल के धंधे ने हिला डाला था. और जो बात राम अवतार जी के विश्वास को हिला दे वो किसी भी तरह से छोटी नहीं हो सकती थी. लिहाजा उन्होंने सोचा कि रमेश बाबू के आफिस जाकर ही बाकी की बातें हो सकती हैं.

यही सोचते हुए उन्होंने रमेश बाबू से पूछा; "अच्छा एक बात बताईये. आज शाम को क्या कर रहे हैं?"

राम अवतार जी द्बारा अचानक पूछे गए इस सवाल से रमेश बाबू को जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ. न जाने कितनी बार वे राम अवतार जी द्बारा अचानक पूछे गए ऐसे सवालों को झेल चुके थे. उन्हें पता था कि जब भी राम अवतार जी का कोई काम होता है तो वे फ़ोन पर बात करते हुए अचानक ऐसे ही सवाल दाग देते थे. ऐसे सवालों का मतलब यह होता था कि राम अवतार जी किसी भी हालत में आज शाम को मिलकर रहेंगे. रमेश बाबू का पहले से बनाया हुआ कोई प्रोग्राम रहे या न रहे.

खैर, राम अवतार जी के सवाल के जवाब में रमेश बाबू ने कहा; "मैं शाम को खाली ही हूँ. आप आ जाइये. बाकी बातें यहीं आफिस में करेंगे."

रमेश बाबू ने ये कह तो दिया लेकिन इतना कहने के बाद उन्हें बड़ा पछतावा हुआ. उन्होंने खुद को मन ही मन धिक्कारा. उन्हें लगा कि एक बार में ही मान जाना और राम अवतार जी को आफिस बुलाना ठीक नहीं हुआ. ऐसा करने से इम्पार्टेंस घट जाता है.

उन्हें लगा कि वे कम से कम राम अवतार जी के ऊपर एहसान जताते हुए यह तो कह ही सकते थे कि; "प्लान तो ये था कि आज घर ज़रा जल्दी चला जाऊं. हमारे साले साहब आ रहे हैं शाम को. लेकिन कोई बात नहीं. आपका का काम सबसे से पहले. बाकी काम बाद में होता रहेगा."

लेकिन अब तो बात निकल गई थी. अचानक उनकी नज़र अपने चेंबर की दीवार पर चिपके उस स्टिकर पर गई जिसपर कई चीजों की लिस्ट बनी थी. वे चीजें जो वापस नहीं आतीं. लिस्ट लम्बी थी. हरिद्वार बेस्ड किसी धार्मिक मठ ने यह स्टिकर बनवाया था.

आखिर देश में सामजिक चेतना को जगाने की जिम्मेदारी मठों के ऊपर है.

इस लम्बी लिस्ट में तमाम चीजों का जिक्र था जो वापस नहीं आतीं. इन चीजों की लिस्ट में लिखा था;

तीर कमान से
बात जुबान से

स्टिकर देखकर वे खिसिया गए. उन्हें लगा कि सालों से स्टिकर उनके चेंबर की दीवार पर चिपका है लेकिन इसके बावजूद उनसे गलती हो गई और बात जुबान से निकल गई.

उनके चेहरे पर "धिक्कार है" टाइप भाव उभर आये.

खैर, अब कुछ किया नहीं जा सकता था. अब उनके हाथ में कुछ नहीं था. वैसे भी, उन्हें इस बात से कोई ऐतराज नहीं था कि शाम को राम अवतार जी उनके आफिस में आयेंगे और उन्हें झेलना पड़ेगा. उन्हें ऐतराज इस बात से था कि एहसान जताने के एक मौका उनके हाथ से जाता रहा.

गुस्से में उन्होंने चपरासी को झाड़ दिया. चपरासी की गलती केवल इतनी थी कि वो गिलास में रखे पानी को ढांकना भूल गया था.

उधर राम अवतार जी ने फैसला कर ही लिया था कि बाकी की बातें रमेश बाबू के आफिस जाकर करनी हैं. वे शाम को दूकान से जल्दी निकलने की तैयारी करने लगे. अपने मैनेजर याने मौसी के बेटे को बुलाया.

आप मन ही मन ज़रूर खिसिया रहे होंगे कि;"क्या मैं हर बार "मौसी का बेटा-मौसी का बेटा" लिखता रहता हूँ. अरे, इस मैनेजर याने मौसी के बेटे का कोई नाम भी तो होगा?"

आपका खिसियाना जायज है. मौसी के इस बेटे का ज़रूर एक नाम है.

जैसे पूरी दुनियाँ के माँ-बाप शेक्सपीयर बाबू से प्रभावित नहीं हुए और उनकी ये बात नहीं मानी कि; "नाम में क्या रक्खा है?" वैसे ही मौसी के इस बेटे के माँ-बाप भी शेक्सपीयर बाबू से बिलकुल प्रभावित नहीं हुए.

लिहाजा उन्होंने अपने बेटे का नाम रख कर शेक्सपीयर बाबू के इस सदुपदेश की ऐसी-तैसी कर डाली. नाम रक्खा सुशील.

तो अब से मौसी के इस बेटे को हम सुशील के नाम से जानेंगे.

हाँ, तो राम अवतार जी ने सुशील को बुलवाया. सुशील जब उनके चेंबर में दाखिल हुआ तो उन्होंने कहा; " सुन, आज शाम को मैं नहीं रहूँगा. हावड़ा वाले गोदाम में सरसों गिरेगी आज. उसको देख लेना. और टू चालान पर साइन मत करना. बोलना भैया कल करेंगे."

जैसे अदालतों में जज साहब लोग अपना फैसला सुनाते हैं, वैसे ही राम अवतार जी ने अपना फैसला सुना डाला.

इसके अलावा उन्होंने सुशील को दो-चार और हिदायतें दी जो किसी लिहाज से ज़रूरी नहीं थीं. मालिक द्बारा दी गई हिदायतें ज़रूरी हों, ये किसी बिजनेस-शास्त्र की किताब में नहीं लिखा है. आफिस से निकलने के पहले मालिकों द्बारा दी जाने वाली ज्यादातर हिदायतें गैर-ज़रूरी ही होती हैं. मालिक ऐसी हिदायतें केवल इसलिए देता हैं क्योंकि उसे मालिक-धर्म का पालन करना रहता है.

कई समाज-शास्त्री भाइयों की मानें तो मालिक अगर हिदायत न दे तो उसके पेचिस से पीड़ित होने का चांस रहता है. ऐसे में यही श्रेयस्कर है कि मालिक उठते-बैठते ज़रूरी-गैर ज़रूरी हिदायतें देता रहे. उसका स्वास्थ ठीक रहता है.

राम अवतार जी तो इस सिद्वांत को आँख मूंदकर फालो करते हैं. लिहाजा वे हमेशा स्वस्थ रहते हैं.

खैर, शाम को राम अवतार जी पहुँच गए रमेश बाबू के आफिस. मिलते ही दुआ-सलाम का बाजा बजा. बात आगे चली तो रमेश बाबू ने कहा; "ठीक सोचा है आपने. आज के डेट में इससे बढ़िया कोई धंधा नहीं है."

रमेश बाबू की बात सुनकर राम अवतार जी ने मन ही मन अपना कालर ऊपर कर डाला. मुस्कुराते हुए बोले; "अरे, मेरा तो दिमाग ही फिर गया. सनी का एडमिशन करवाने न जाता तो ये आईडिया तो आता ही नहीं. फिर सोचा कि बड़ा झमेले वाला काम होगा. ऐसे में इसके बारे में सोचना ठीक नहीं होगा. वो तो उस दिन आपसे बात की तब जाकर थोड़ा कांफिडेंस आया कि इस बिजनेस में उतरा जा सकता है."

उनकी बात सुनकर रमेश बाबू ने उन्हें एक बार फिर अस्योर करते हुए कहा; "आप तो अपने आदमी हैं. मैंने तो उस दिन भी कहा कि बस आप सारा काम मेरे ऊपर छोड़ दीजिये. अरे सबसे बड़ा काम है मंत्रालय से मान्यता दिलवाना. दिल्ली वाला सारा काम पंकज कर ही देगा. आप कहें तो उसको कल ही बुलवा लूँ."

राम अवतार जी एक बार फिर से आश्वस्त हुए. मालिक टाइप लोग समय-समय पर आश्वस्त होते रहें तो आस-पास के कई लोगों की उम्र बढ़ जाती है.

कुछ सोचते हुए बोले; "आप तो हैं ही. फिर मुझे किस बात की चिंता? मुझे तो इतना मालूम है कि स्कूल बनेगा तो केवल मेरा नहीं होगा. स्कूल तो आप का ही होगा. सारा क्रेडिट आपका. मेरा क्या है, मैं तो केवल इतना मानता हूँ कि भगवान ने समाज के लिए कुछ करने लायक बनाया है तो अपना भी धरम बनता है कि जो कुछ बन पड़े किया जाए."

इतना कहकर वे रमेश बाबू की तरफ देखने लगे. शायद उन्हें रमेश बाबू के रिएक्शन का इंतजार था. दोनों की नज़रें मिलीं तो दोनों ठहाका लगाकर हंसने लगे.

हंसी रुकी तो रमेश बाबू बोले; "बिल्कुल जी बिल्कुल. मैंने तो आपको कहा ही कि दिल्ली का काम आप मेरे ऊपर छोड़ दें. आप तो बस ज़मीन वगैरह का इंतजाम कीजिये. वैसे आप कहेंगे तो स्टेट गौव्मेंट से ज़मीन की बात भी चलाई जा सकती है. चैनल सब है अपने पास. हाँ, लेकिन एक बात है. स्टेट गौव्मेंट के पास गए तो थोडी देर हो सकती है. जानते ही हैं सरकारी काम इतने जल्दी तो होने से रहा."

रमेश बाबू की बात सुनकर राम अवतार जी बोले; " वो तो ठीक रहेगा. अरे अपने अप्लाई तो कर ही देते हैं. देर से ही सही, ज़मीन तो मिल ही जायेगी. जब मिल जायेगी तो स्कूल का काम आगे बढा देंगे. एक और ब्रांच खोल देंगे. हाँ जब तक गौव्मेंट से ज़मीन नहीं मिलती, तबतक पहले स्कूल के लिए अपने पास जगह की कमी नहीं है."

रमेश बाबू उनकी बात सुनकर खुश हो गए. बोले; "मतलब ज़मीन है आपके पास?"

राम अवतार जी ने उनकी बात का जवाब देते हुए कहा; "ज़मीन तो नहीं है, हाँ वो अपना बी टी रोड वाला गोदाम है न, अरे वही बड़ा वाला गोदाम. वैसे ही पड़ा है सालों से. किसी काम तो आता नहीं. इसी काम में आ जायेगा. पिताजी ने बड़े सस्ते में काबाडा था उसे."

रमेश बाबू ने पूछा; "क्या एरिया होगा उसका?"

राम अवतार जी ने बताया कि गोदाम करीब बारह हज़ार स्क्वायर फीट का है. पूरा खाली. आगे बोले; "बस स्ट्रक्चर ही तो चेंज करना है. गोदाम को स्कूल बनाने में कितना समय लगेगा?"

रमेश बाबू को इस गोदाम के बारे में जानकारी थी. राम अवतार जी का गोदाम को स्कूल में बदलने का आईडिया उन्हें अच्छा तो लगा लेकिन उनके मन में कुछ सवाल भी आये.

वे बोले; "लेकिन वो तो बड़े कंजेस्टेड जगह में है. सामने तो बिलकुल भी जगह नहीं है. मेरे कहने का मतलब है कि स्टूडेंट्स के खेलने-कूदने के लिए भी तो कुछ जगह रहनी चाहिए?"

राम अवतार जी को ये सवाल बिलकुल नहीं भाया. मन ही मन सोचने लगे कि स्कूल में बच्चों के खेलने-कूदने की क्या ज़रुरत है? अरे बच्चे वहां पढने आयेंगे कि खेलने-कूदने? पता नहीं किस जाहिल ने स्कूल में खेल-कूद को प्राथमिकता देने की बात कही? क्या ज़माना आ गया है कि लोग पढाई-लिखाई से ज्यादा खेल-कूद को महत्व देने लगे हैं.

ऐसे में तो देश का फ्यूचर पूरी तरह से बरबाद हो जाएगा.

उन्हें यह भी लगा कि जितनी जगह बच्चों के खेलने के लिए छोड़ी जाती है, उसमें एक पूरा हाऊसिंग काम्प्लेक्स डेवलप हो सकता है. खेलने-कूदने के लिए जगह छोड़ना तो करोडों रूपये की बरबादी है. पता नहीं लोगों को बिजनेस सेंस कब आएगा?

खैर, यही सोचते हुए वे बोले; "अरे क्या ज़रुरत है खेल-कूद की? वैसे अगर खेल-कूद के लिए जगह न होना स्कूल की मान्यता प्राप्त करने के रास्ते में रुकावट बनेगी तो अन्दर एक रूम बनवा देंगे. एक टेबल टेनिस का टेबल और कैरम वगैरह का प्रबंध करवा देंगे. क्या है? वैसे भी हर काम पैसे से होता है. वो सब ठीक हो जाएगा."

जारी रहेगा......

Thursday, May 14, 2009

सेंट मोला मेमोरियल स्कूल - भाग ३




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भाग २ पढने के लिए यहाँ क्लिकियायें

रमेश बाबू राम अवतार जी को झेलने के लिए कमर कस चुके थे. और कर भी क्या सकते थे? राम अवतार जी को झेलने का उनका अनुभव हमेशा उनके काम आता है. वैसे भी राम अवतार जी जैसे ट्रेडर के साथ 'ट्रेडरई' कैसे की जाती है, उन्हें बखूबी पता है.

इंस्टीच्यूट ने अपने सिलेबस में नहीं रक्खा तो क्या हुआ, ऐसे क्लाइंट के साथ बात करके सब सीख जाते हैं.

खैर, राम अवतार जी के सवाल कि; "बच्चे कैसे हैं?" के जवाब मेंने
चोखानी जी ने कहा; बच्चे तो ठीक-ठाक हैं. पिछले पंद्रह दिनों से छोटे वाले के एडमिशन के लिए बहुत बिजी था."

उनका जवाब सुनकर मानो राम अवतार जी की बांछे खिल गईं. उन्होंने प्लान बनाकर रखा था कि अगला सवाल वे श्याम बाबा के कीर्तन समारोह में उनकी अनुपस्थिति के बारे में पूछेंगे लेकिन जैसे ही चोखानी जी ने बच्चे के एडमिशन की बात की, उन्होंने सवाल को ड्राप करना ही उचित समझा.

इससे पहले कि बात कहीं और खिसके वे तुंरत बोल पड़े; "अरे मत पूछिए. मैं भी उसी चक्कर में फंसा था. क्या ज़माना आ गया है. एक हम लोग थे जो बीस रूपये फीस देकर बी कॉम तक पढ़ लिए और एक आज का हाल है कि दूसरी क्लास में एडमिशन के लिए पचीस हज़ार तो डोनेशन देना पड़ता है."

चोखानी जी ने भी शायद अपने बेटे की एडमिशन कथा अभी तक किसी के साथ शेयर नहीं की थी. लिहाजा दोनों ने एक साथ करीब पांच मिनट तक एडमिशन को लेकर अपने अनुभव शेयर किये. दोनों के मन में रखी भड़ास धीरे-धीरे करके मुंह के रास्ते बाहर हो रही थी.

जैसे ही राम अवतार जी को लगा कि कहीं बात खिसक कर जमाने के खराब होने पर पहुंचे वैसे ही उनका व्यापारी दिमाग बोल पड़ा; "अब असली मुद्दे पर आ जाओ."

दिमाग का सुझाव मानते हुए वे चोखानी जी से बोले; "लेकिन एक तरह से देखें तो सरकार भी कितना करेगी शिक्षा के लिए? वैसे भी सरकार मदद ही तो कर रही है. मैं कह रहा हूँ, जिसके पास पैसा है, उसके स्कूल के धंधे में जाने का रास्ता तो दिखा ही दिया है सरकार ने."

राम अवतार जी की बात सुनकर रमेश बाबू मन ही मन सोचने लगे कि असली व्यापारी इसे कहते हैं. आखिर जो आदमी विषम परिस्थियों में भी व्यापार का आईडिया निकाल ले, उससे बड़ा व्यापारी और कौन है? न जाने कितने उद्योगपति और व्यापारी इस बात का इंतजार करते हैं कि कोई सूखा आये...कोई बाढ़ आये...और कुछ नहीं तो कहीं युद्ध वगैरह ही शुरू हो जाए.

ऐसी विषम परिस्थितियां मौजूदा व्यापारियों को सुदृढ़ तो करती ही हैं, नए लोगों को भी व्यापार वगैरह करने का मौका देती हैं.

खैर, रमेश बाबू कुछ सोचते हुए बोले; "एक दम सही बात कह रहे हैं. मैं तो कहता हूँ कि इस बारे में आपको खुद भी सोचना चाहिए. कोई बहुत बड़ी बात नहीं है स्कूल खोलना. अरे मैं कहता हूँ, पैसा है तो आदमी कुछ भी कर सकता है."

राम अवतार जी को रमेश बाबू की बात खूब जमी. लेकिन कहीं रमेश बाबू को उनके प्लान और उनकी उत्सुकता के बारे में पता न चल जाए इसलिए वे बोले; "अरे क्या बात कह रहे हैं आप? मैं और स्कूल के धंधे में! नहीं-नहीं ये काम हमसे नहीं होगा. भाई अपना जमा-जमाया काम ही काफी है."

रमेश बाबू बोले; "अरे क्यों नहीं होगा? आप क्या समझते हैं, जिन लोगों के स्कूल हैं वे क्या पहले से स्कूल चलाते थे? आखिर बिड़ला जी भी तो पहले एम्बेसडर ही बनाते थे. सीमेंट ही तो बनाते थे. जब वे कर सकते हैं तो आप क्यों नहीं कर सकते? वैसे भी आपको क्या करना है? आप तो बस हाँ कीजिये. बाकी का काम तो मुझपे छोडिये."

राम अवतार जी को लगा कि अब ज्यादा फूटेज खाने की जरूरत नहीं रही. फिर भी आखिरी मनौव्वल का रास्ता साफ़ करते हुए उन्होंने पूछ लिया; "आपको लगता है मैं इस धंधे में जा सकता हूँ?"

रमेश बाबू को लगा कि इन्हें कांफिडेंस देने की ज़रुरत है. वे बोले; "अरे मैंने कहा न कि बाकी का काम आप मेरे ऊपर छोडिये. आप तो बस हाँ कीजिये उसके बाद देखिये. आपका हर काम तड-तड होगा."

दोनों एक दूसरे को उकसा रहे थे.

राम अवतार जी अब तक आश्वस्त हो चुके थे कि उनका निशाना ठीक जगह लगा. फिर भी रमेश बाबू को थोड़ा और उकसाने के लिए उन्होंने फिर कहा; "बड़ा झमेला है रमेश जी. स्कूल की मान्यता वगैरह दिलाना. हेड मास्टर खोजना. मास्टर खोजना.....सबसे बड़ा झमेला है सरकारी मान्यता दिलाना."

उनकी बात सुनकर रमेश जी को लगा कि कहीं सरकारी मान्यता मिलने या फिर सी बी एस ई से एफिलियेशन न मिलने के डर से कहीं ये अपना प्लान त्याग न दें. वे तुंरत बोल पड़े; "अरे राम अवतार जी, मैंने कहा न कि आपको चिंता करने की ज़रुरत नहीं है. ये सारा काम मेरे ऊपर छोडिये."

राम अवतार जी को लगा कि रमेश बाबू के मन को एक बार फिर से टटोलने की ज़रुरत है. उन्होंने पूछा; "तो क्या कोई आदमी है आपके पास जो दिल्ली में सी बी एस ई वाला काम वगैरह करा दे?"

"अरे मैंने कहा न कि आप मुझपे छोडिये. वो अपना पंकज है न, अरे वही पंकज सिंह, आपका दिल्ली से रिलेटेड हर काम करवा कर देगा. उसके रहते आप को किस बात की चिंता?"; रमेश बाबू ने राम अवतार जी को फिर से आश्वस्त किया.

अब अगर आपके मन में यह सवाल उठा रहा है कि पंकज सिंह कौन हैं, तो फिर पढिये कि वे कौन हैं.

पंकज सिंह जी को बोल-चाल की भाषा में 'बहुत पहुँची हुई चीज' कहा जाता है. ग्रेजुयेशन तक की पढ़ाई की है सिंह जी ने. ग्रेजुयेशन के दौरान तो क्या उससे न जाने कितने पहले से दुनियाँदारी की सारी बातें वे सीख चुके थे. ग्रेजुयेशन की पढ़ाई तो इसलिए की क्योंकि माँ-बाप चाहते थे कि ग्रैजुएट हो जाएँ तो शादी-व्याह में कोई असुविधा नहीं होगी.

जब राजनीतिशास्त्र से बीए की पढ़ाई कर रहे थे तभी इन्होने सबसे बड़े सामाजिक सत्य का पता लगा लिया था. और वो ये था कि पढ़ाई-लिखाई का काम बेवकूफ करते हैं. पढ़-लिख कर पैसा ही तो कमाना है. ऐसे में अगर कोई अपनी प्रतिभा के दम पर बिना पढ़े-लिखे ही पैसा कमाने की काबिलियत रखता हो तो क्या ज़रुरत है पढाई-लिखाई की?

कालेज के दिनों से ही छात्र राजनीति के आधार स्तंभ बन चुके थे. छात्रों की भलाई का काम इन्होने अपने मज़बूत कन्धों पर ले लिया था. जैसे-जैसे भलाई करते गए इनके कंधे मज़बूत होते गए. कालेज में एडमिशन लोलुप छात्रों का पैसे लेकर एडमिशन करवाने का धंधा इन्होने छात्र जीवन में ही शुरू कर दिया था. कद धीर-धीर बढ़ने लगा तो मार-पीट जैसा पूण्य कार्य भी करने लगे.

आज के एक 'राजनेता' से पंकज सिंह जी बहुत बहुत प्रभावित रहते थे. हमेशा कहते थे कि उनको देखो. पहले क्या थे? छात्र नेता ही तो थे. कलकत्ते के ही थे. अरे यहीं सेंट्रल एवन्यू में जाम वगैरह करवाने का काम करते थे. और आज देखो. हिन्दुस्तान की सरकार बनेगी कि बिगडेगी, इस बात का निर्धारण वही करते हैं.

इन राजनेता से प्रभावित पंकज सिंह जी उन्ही के पदचिन्हों पर चल रहे हैं. महीने में पचीस दिन कलकत्ते से दिल्ली आते-जाते रहते हैं. एक पाँव कलकत्ते में तो दूसरा राजधानी एक्सप्रेस में रहता है. किसी भी मंत्रालय में कोई भी काम करवाने का दावा करते हैं. कंपनी अफेयर मिनिस्ट्री हो या फिर फायनांस मिनिस्ट्री, स्टील मिनिस्ट्री हो या फिर ह्युमन रिसोर्स मिनिस्ट्री, हर मिनिस्ट्री में कोई भी काम करवा सकते हैं.

जब कलकत्ते में रहते हैं तब हनुमान जी के मंदिर में शाम को जाना नहीं भूलते. वहां जाते हैं, इस बात का पता इनके माथे पर सिन्दूर वाले चन्दन को देखने से लग जाता है. लगता है जैसे भगवान जी को धंधे में पार्टनर बना रक्खा है इन्होने.

जारी रहेगा...

Monday, May 11, 2009

दुर्योधन की डायरी - पेज ३४५९




आज पढ़िए युवराज दुर्योधन की डायरी का वह पेज जिसमें उन्होंने मामाश्री शकुनि द्बारा भेद-नीति को एक नया ही आयाम दिए जाने के बारे में लिखा है. कहते है यह प्रसंग महाभारत के प्रथम संस्करण में था. बाद के संस्करणों से इस प्रसंग को निकाल दिया गया. इतिहास में से बहुत सारा कुछ निकलता रहता है. कभी-कभी कुछ जुड़ भी जाता है. यह प्रसंग उन्ही में से एक है.

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धन्य है मामाश्री भी. हलचल मचवाना कोई उनसे सीखे. सच कहें तो उनसे सीखने के लिए क्या कुछ नहीं है इस संसार में. प्रेस मैनेजमेंट से लेकर पितामह मैनेजमेंट तक, कोई ऐसी बात नहीं है जिसे मामाश्री मैनेज नहीं कर सकें. माताश्री के तथाकथित विचारों की काट से लेकर चचा विदुर की खाट तक, मामाश्री सबकुछ खड़ी कर सकते हैं.

कभी-कभी लगता है जैसे ये नहीं होते तो पृथ्वी रसातल में चली जाती.

परसों की ही बात ले लो. जैसे ही गुप्तचरों के एक ग्रुप ने फील्ड से वापस आकर रिपोर्ट दी कि कुरुक्षेत्र में हमारी हार हो सकती है, हमारा तो दिमाग घूम गया. एक मिनट के लिए लगा कि इतनी मेहनत सब बेकार चली जायेगी? क्या-क्या नहीं किया? द्वारका जाकर केशव की सेना माँगी. तिकड़म लगाकर मद्र नरेश महाराज शल्य को अपनी तरफ ले आया. कर्ण को पटाया. न जाने कितने पापड़ बेले. लेकिन गुप्तचरों के द्बारा इस तरह का सन्देश लाने से तो कुछ समय के लिए मेरा हर्ट का टुकड़ा-टुकड़ा हो गया.

जहाँ गुप्तचरों द्बारा दी गई सूचना से मैं हलकान हुआ जा रहा था, वहीँ मामाश्री बिना किसी टेंशन के बैठे थे. मैंने उनसे टेंशन न करने का कारण पूछा तो बोले; "चिंता तो चिता से भी डेंजर होती है पुत्र दुर्योधन."

गजब आदमी हैं. इन्हें किसी बात का टेंशन ही नहीं रहता. वैसे भी ठीक ही है. जो आदमी हमेशा दूसरों को टेंशनग्रस्त रखे, उसे किस बात की टेंशन?

फिर भी समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या किया जाय. मैंने जब अपनी बात रखी तो बोले; "अब तो युद्ध की तैयारी पूरी हो चुकी है भांजे, अब क्या किया जा सकता है? वैसे भी तमाम नरेश, रथी, अधिरथी, महारथी वगैरह तो अपना-अपना समर्थन दोनों दलों को दे ही चुके हैं."

जब मैंने पूछा कि क्या अब कोई उपाय नहीं है तो बोले; "ऐसा कैसे हो सकता है? मेरे रहते उपाय न रहे ऐसा सपने में भी न सोचना वत्स."

लो कर लो बात. जब उपाय है तो उसे बताईये. काहे फूटेज खा रहे हैं. मुझे लगता है कि ज्ञानी और विद्वान टाइप लोग कोई उपाय तुंरत बता दें तो उनका महत्व कम हो जाता है. इसीलिए मामाश्री भी इतनी भूमिका बाँध रहे हैं.

लेकिन जब उन्होंने उपाय बताया तो मैं दंग रहा गया.

कुछ देर तक आँखें बंद रखने के बाद अचानक ध्यान-मुद्रा में ही कहना शुरू किया. बोले; "साम, दाम, दंड वगैरह के लिए समय भले ही चला गया हो वत्स दुर्योधन लेकिन भेद के लिए समय कभी नहीं जाता. इसलिए अब भेद का सहारा लेना ही नीतिगत सही होगा."

मैं सोच रहा था कि भेद कहाँ से लायेंगे?

शायद मेरी सोच को ताड़ गए. मुझे देखते ही बोले; "यही सोच रहे हो न वत्स कि मैं क्या कहने वाला हूँ? तो सुनो. भेद-नीति के तहत कल सुबह ही तुम एक प्रेस कांफ्रेंस कर डालो."

जब मैंने पूछा कि मुझे प्रेस कांफ्रेंस में बोलना क्या है तो बोले; "मेरी बात ध्यान देकर सुनो वत्स. प्रेस कांफ्रेंस की शुरुआत में ही पत्रकारों से कहो कि बलराम, जो अभी तक निष्पक्ष थे, अब हमारी तरफ से लड़ेंगे."

मैंने जब इस बात पर शंका जाहिर की, कि अगर पत्रकार डिटेल मांगेंगे तो मैं क्या कहूँगा तो बोले; "तुम्हें केवल इतना कहना है कि बलराम जी से हमारी बात हुई है. उन्होंने हमें ही समर्थन देने का वादा किया है." आगे बोले; "और लगे हाथ पत्रकारों को यह भी बता देना कि अभी तक खुद को निष्पक्ष बताने वाले विदर्भ नरेश रुक्मी भी अब हमारी तरफ से लड़ेंगे."

क्या कांफिडेंस है इनका. मान गए इन्हें. मैंने जब उनसे बहस करनी चाही तो बोले; "कल सुबह प्रेस कांफ्रेंस में ये बात तुम बोलना. फिर में दोपहर में एक प्रेस कांफ्रेंस दुशासन से करवा दूंगा. वो भी यही बात बोलेगा. शाम को टेलीविजन के पैनल डिस्कशन में एक चैनल पर जयद्रथ को और दूसरे पर कर्ण से भी यही बात कहलवा देंगे. बस इतने में अपना काम बन जाएगा."

मैंने जब फिर से शक जाहिर किया तो बोले; "तुम डरते बहुत हो पुत्र दुर्योधन. मैं तो सोच रहा हूँ कि दो दिन बाद तुम्ही से फिर एक प्रेस कांफ्रेंस करवा दूँ. उसमें तुम पत्रकारों को बताना कि जब से बलराम और विदर्भ नरेश रुक्मि ने हमारी तरफ से लड़ने के लिए हामी भरी है, खुद सात्यकि, महाराज विराट और शिखंडी तक अपने स्टैंड पर पुनः विचार करने लगे हैं. इन लोगों से हमारे योद्धा संपर्क बनाये हुए हैं. ये हमारी तरफ से लड़ेंगे."

बाप रे बाप. मान गए मामाश्री को.

जब से मैंने एक प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर प्रेस को बताया है कि बलराम और विदर्भ नरेश महाराज रुक्मि हमारी तरफ से लड़ेंगे तभी से बवाल हो गया है. एक बार तो लोगों ने मेरी बात पर शक जाहिर किया. लेकिन जब मेरी दी हुई बाइट्स को मामाश्री ने 'अपने चैनल' पर दिन भर चलवा दिया तो शक-सुबो की कोई गुन्जाईस ही नहीं रही.

उसके बाद तो बवाल हो गया. मीडिया में एक ही सवाल. जनता भी परेशान सी यही पूछ रही है कि बलराम ने ये क्या कर डाला? उधर पांडव बार-बार बलराम से पूछ रहे हैं कि क्या सच है? खुद बलराम कल दोपहर से ही हलकान हुए जगह-जगह कैमरे के सामने मेरी बात को डिनाय कर रहे हैं.

तेरह चैनलों पर तो खुद महाराज रुक्मि सफाई दे चुके हैं कि वे हमारी तरफ से नहीं लड़ेंगे लेकिन कोई उनकी बात मानने के लिए तैयार ही नहीं है.

अब तो पांडव भी सकते में आ गए हैं. जब बलराम और महाराज रुक्मि को लेकर ये हाल है तो कल जब प्रेस कांफ्रेंस में ये बताऊँगा कि शिखंडी, विराट और सात्यकि वगैरह हमारी तरफ से लड़ेंगे तो न जाने क्या हो जाएगा? पूरा हड्कम्पे मच जाएगा.

मान गए मामाश्री को. इनका बस चले तो मुझसे प्रेस कांफ्रेंस में यहाँ तक कहलवा दें कि केशव ने हमारी तरफ से लड़ने का फैसला किया है.

धन्य है भेद-नीति. मामाश्री के लिए एक ठो नारा लगाने का मन कर रहा है. बाहर जाकर तो बोल नहीं सकते. डायरिये में लिख देते हैं...

जब तक सूरज चाँद रहेगा
मामा तेरा नाम रहेगा

Friday, May 8, 2009

सेंट मोला मेमोरियल स्कूल - भाग २




जब से बेटे के स्कूल से लौटे, तभी से उन्हें लगने लगा कि अपने करेंट बिजनेस को डाइवर्सीफ़ाई करने का एक तरीका उन्हें मिल गया है. वैसे भी मालिकाना हक़ जितनी चीजों पर बढ़े, उतना ही अच्छा. उन्हें लगता कि करेंट लिस्ट में अगर स्कूल भी जुड़ जाए तो क्या कहने.

दिन-रात वे इसी बारे में सोचने लगे. एक दिन दूकान पर बैठे-बैठे ही मौसी के बेटे, जिसे मैनेजर बनाकर उन्होंने मौसा-मौसी और खुद उसके ऊपर एहसान किया था, से कह बैठे; "वैसे देखा जाय तो धंधा है चोखा?"

मौसी के बेटे की समझ में कुछ नहीं आया. उसे लगा कि सोचते-सोचते अचानक किस बात पर बोल पड़े? वो बेचारा अपने चेहरे पर क्वेश्चन मार्क का स्टिकर चिपकाए उन्हें निहारने लगा.

उसका यह व्यवहार उन्हें खल गया. फट से बोले; "तू भी रहेगा गधे का गधा ही. अरे मैं स्कूल के धंधे की बात कर रहा हूँ."

अपने गदहपन का जिक्र होते ही वह जैसे जाग गया. आखिर बेचारा ठहरा मैनेजर. मैनेजर की नींद अक्सर मालिक द्बारा गधा कहे जाने पर खुल जाती है.

सकपकाकर बोला; "हाँ, भैया आप ठीक कह रहे हैं. मैं तो कई दिनों से सोच रहा था कि इस धंधे के बारे में आपको बताऊँ. फिर सोचा कि आप पता नहीं कैसे रिएक्ट करेंगे."

वो भी कैसे हाँ में हाँ नहीं मिलाये. वैसे भी हाँ में ना मिलाने का कोई कारण भी नहीं था. उसकी नज़र में भी स्कूल का धंधा सब धंधों में चोखा था.

आगे बोला; " अरे भैया, खुद बिड़ला जी को ही देख लीजिये. कलकत्ते में ही कम से कम दस स्कूल हैं उनके. और फिर नोपानी जी, अरे वही बिड़ला जी के दामाद. उनके स्कूल का भी कितना नाम है. कलकत्ता तो जाने दीजिये, रांची तक में स्कूल है उनका."

मैनेजर की बात सुनकर एक क्षण के लिए उससे प्रभावित हो लिए. उन्हें लगा तेल की दूकान और तेल-मिल के काम के अलावा भी इसे कई बातों का ज्ञान है.

एक बार तो मन में आया कि उसकी प्रशंसा कर दें. वे ऐसा करने ही वाले थे कि उनकी अंतरात्मा की आवाज़ ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया. अंतरात्मा से आवाज़ आई; " क्या करने जा रहे हो? मालिक होकर मैनेजर की प्रशंसा करोगे? छि..."

अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर ठहर गए. प्रशंसा करने का विचार त्याग दिया और कुछ क्षणों में ही नॉर्मल हो गए.

नॉर्मलता जब ठहर गई तो बोले; "ठीक है ठीक है. तुझे इन सब बातों में माथा लगाने की ज़रुरत नहीं है. तू तो ट्रांसपोर्ट वाले को फ़ोन कर और देख अगर सरसों आ गई हो तो गोडाउन में रखवाने का इंतजाम कर."

वो बेचारा मुंह लटकाए ट्रांसपोर्ट वाले को फ़ोन करने चला गया.

उसके जाने के बाद फिर सोचने लगे. स्कूल के धंधे वाली बात मन से जा ही नहीं रही थी. लेकिन अब इस बात पर पछताने लगे कि मैनेजर को वहां से भगाना ठीक नहीं हुआ. आखिर कोई तो चाहिए इस नए धंधे के बारे में बात करने के लिए. दूकान पर काम कर रहे मुटिया-मज़दूरों से तो यह बात की भी नहीं जा सकती. उन्हें क्या मालूम कि प्राइवेट स्कूल किस चिड़िया का नाम है. हाँ, अगर कोई म्यूनिसिपल स्कूल और उनमें छाई अराजकता के बारे में बातें करता तो ये मजदूर बहुत कुछ बोल सकते हैं. उन्होंने इन स्कूलों को बड़े नज़दीक से देखा है.

मैनेजर के जाने से वे और व्याकुल हो लिए. अब इस मुद्दे पर किससे बात करें? दोस्त-यार तो थे नहीं. रिश्तेदारों से नए बिजनेस के बारे में बात करना उनके हिसाब से बिजनेस-धर्म के खिलाफ बात थी.

फिर किससे बात करें? सोच ही रहे थे कि उन्हें रमेश चोखानी याद आ गए.

अगर आपके मन में सवाल उठा रहा हो कि रमेश चोखानी कौन ठहरे, तो फिर उनके बारे में भी जानिए.

चोखानी जी राम अवतार मोहन लाल फर्म के ऑडिटर हैं. चार्टर्ड एकाउंटेंट. अकाऊंटिंग, कंपनी ला, इनकम टैक्स पार्टनरशिप एक्ट,....वगैरह वगैरह की जानकारी रखने और राम अवतार जी के फर्म का ऑडिट करने के अलावा भी बहुत से ऐसे काम है जिनमें चोखानी जी माहिर हैं. क्रिकेट की भाषा में बोले तो आलराउन्डर.

कह सकते हैं कि अपने विषयों की जानकारी हो या न हो, लेकिन आजतक कोई काम रुक गया हो, ऐसा नहीं हुआ. हर डिपार्टमेंट में हर काम करने वाले लोग हैं इनके पास. राम अवतार जी के खाते का ऑडिट तो करते ही हैं, गाहे-बगाहे हर सरकारी विभागों का काम भी यही करवाते हैं. ट्रेड लाईसेन्स के रिन्यू करने से लेकर.......

खाते के ऑडिट का काम तो सबसे बाद में किया जाता है. वे खाते जो हिंदी में लिखे जाते हैं. राम अवतार जी के हिसाब से हिंदी में खाता रखने का बड़ा फायदा है. रोकड़ लिखते-लिखते एकाउंटेंट कोई भी एंट्री काट सकता है और कारण के रूप में वहां बड़े आराम से लिखा जा सकता है; "भूल से."

वैसे भी उन्हें इस बात का विश्वास है कि बही-खाता अगर हिंदी में लिखा हुआ रहे तो इनकम टैक्स डिपार्टमेंट से निबटने में ज्यादा परेशानी नहीं होती. ज्यादातर इनकम टैक्स अफसरों को हिंदी पढ़ने नहीं आती.

यह काम उनके पिताश्री के जमाने से होता आया है. उनके पिताश्री ने उन्हें व्यपार का यह नियम बहुत अच्छी तरह से समझा दिया था. और उनकी बनाई हुई लकीर पर राम अवतार जी आज तक चल रहे हैं.

लकीर पर चलते रहे फिर भी उन्हें फ़कीर नहीं कहा जा सकता.

खैर, रमेश चोखानी जी याद आये तो राम अवतार जी ने उन्हें फ़ोन कर डाला. बोले; "रमेश जी, राम अवतार बोलूँ."

जिस अंदाज़ में इन्होने 'राम अवतार बोलूँ' कहा, उसी से रमेश जी को पता चल गया कि ये कोई नई बात के पीछे पड़ गए हैं. उन्होंने व्यावहारिकता की चादर से अपनी आवाज़ को ढांपते हुए पूछा; "क्या हाल है?"

इन्होने इस तरफ से कहा; "हाल तो बढ़िया है. आपके घर का क्या हाल है? बच्चे कैसे हैं?"

रमेश बाबू को समझ आ गया कि ये आज उन्हें छोड़ने वाले नहीं. अब ये बच्चे, भाभीजी, माँ, वगैरह के बारे में तो पूछेंगे ही, साथ में और भी बहुत कुछ पूछेंगे. गाड़ी आजकल क्या माइलेज दे रही है? पिछले हफ्ते खाटू वाले श्याम बाबा के कीर्तन में आप क्यों नहीं आये? अगले हफ्ते हमारे यहाँ भी जागरण का प्रोग्राम है....वगैरह..वगैरह.

इन सब बातों के बारे में सोचते हुए रमेश बाबू खुद को इनके वार झेलने के लिए तैयार करने लगे.

.......जारी रहेगा.

Tuesday, May 5, 2009

सेंट मोला मेमोरियल स्कूल - भाग १




नाम : राम अवतार.
पिता का नाम : मोहन लाल.
फर्म का नाम : राम अवतार मोहन लाल.

एक घर, दो तेल-मिल, तीन दूकान, एक पत्नी, दो बच्चे और साठ कर्मचारियों के मालिक.

इनकी मानें तो दुनियाँ में दो प्रकार के लोग रहते हैं. पहले प्रकार के लोगों को नौकर कहते हैं और दूसरे प्रकार के लोगों को मालिक. धंधे से टाइम मिलने पर जब घर जाते हैं तो घर के मालिक बन जाते हैं. जब तक धंधे पर हैं तो दूकान, तेल-मिल और कर्मचारियों के मालिक.

घर पहुँचने पर अगर किसी दिन पता चले कि घर के किसी सदस्य ने अपने मन से कोई काम कर दिया है तो उसे फटकारते हुए एक ही सवाल पूछते हैं; " हमसे पूछा क्यों नहीं? मालिक कौन है, तुम कि मैं."

इनकी यह बात घर में भी इनके मालिक होने का एहसास दिलाती रहती.

तेल के व्यापारी हैं. सरसों का तेल बेचते हैं. कच्ची घानी वाला सरसों का 'आगमार्का' शुद्ध तेल. बेंचते तो और भी कई प्रकार के तेल हैं, लेकिन चूंकि मिलावट के चलते बाकी के तेल सरसों के तेल में गायब हो जाते हैं, लिहाजा बाकी के तेलों की सूची बनाने का भारी-भरकम काम करने की ज़रुरत नहीं पड़ती.

'आगमार्का' की सैंकटिटी भी बनी रहती है.

कई बार मज़ाक करते हुए कहते हैं; "मिलावट न करें तो ग्राहक शंका ज़ाहिर करते हुए पूछता है, क्या बात है, इस बार का तेल देखकर लगा रहा है जैसे प्योर नहीं है?"

बी कॉम तक की पढ़ाई की है. जब पढ़ते थे उन्ही दिनों इनके पिताश्री ने इन्हें दुनियाँ का सबसे बड़ा रहस्य समझा दिया था. उन्होंने बताया था; "किसी से दोस्ती मत करना."

यह बताते हुए पिताश्री ने इस रहस्य की व्याख्या करते हुए कहा था; "दोस्ती में क्या आनी-जानी है? तुम्हें तो धंधा करना है. वैसे भी दोस्ती करने से पैसे और समय, दोनों की बरबादी है."

इन्होने अपने पूज्य पिताजी की बात गाँठ बंधकर रख ली थी. इन्होने किसी से दोस्ती नहीं की. इन्हें कोई दोस्त नहीं मिला. मिले तो सिर्फ व्यापारी.

कक्षा आठ में जब पढ़ते थे, तभी से पिताजी के धंधे की सारी बारीकियां सीख गए थे. सरसों के तेल में कितनी मात्रा में कौन सा तेल मिलाया जाता है? किसे कितने दिन के उधार पर माल देना है? रेपसीड आयल कितनी मात्रा से ज्यादा नहीं मिलाना चाहिए? ज्यादा से ज्यादा कितना तक रेपसीड आयल मिलाया जा सकता है जिससे खाने वाले को लकवा मारने का चांस नहीं रहता...वगैरह..वगैरह.

बी कॉम की पढ़ाई के वक्त सहपाठियों को उठते-बैठते एक ही बात बताते. कहते; "पैसा कैसे कमाया जाता है, कभी मेरी दूकान पर आकर देखो. उड़ता है पैसा वहां. बस पकड़ने वाला चाहिए."

सहपाठी उनकी बात सुनकर आश्वस्त थे कि वे बी कॉम करने के बाद और नहीं पढेंगे.

दस बरस पहले तक का रिकार्ड देखें तो पता चलेगा कि राम अवतार जी शायद ही कभी किसी से प्रभावित होते बरामद हुए हों. गाहे-बगाहे उन लोगों से प्राभावित हो लेते जो उनके व्यापारी थे. जिन्हें वे तेल सप्लाई करते थे.

अब आप पूछेंगे कि व्यापारियों से प्रभावित क्यों होंगे भला? और अगर आप यह सोच रहे हैं कि शायद उन व्यापारियों से प्रभावित होते होंगे जो उनसे भारी मात्रा में माल खरीदते होंगे तो लगे हाथ आपको बता दूँ कि ऐसी कोई बात नहीं. वे तेल के उन व्यापारियों से प्रभावित होते थे जो उनका पैसा कई दिनों तक बकाया रखते थे.

जो व्यापारी उनका पैसा वक्त पर नहीं देता वे उससे यह सोचते हुए प्रभावित हो लेते थे कि;; "मान गए इसे. है कलेजे वाला आदमी. इससे सीखना चाहिए कि पैसा बकाया कैसे रखा जाता है."

अपने इन उधार-खाऊ व्यापारियों के अलावा पहली बार किसी से प्रभावित हुए तो वे हैं एक प्रसिद्द उद्योगपति.

करीब पांच बरस पहले बेटे का एडमिशन कराने इन उद्योगपति द्बारा राष्ट्रसेवा में चलाये जा रहे स्कूल में गए थे. वहीँ जाकर पता चला कि लगभग सभी बड़े उद्योगपति स्कूल के धंधे में हैं. बस, तभी से ये हर उस उद्योगपति से प्रभावित होते रहे जो स्कूल के धंधे में हैं.

बेटे के एडमिशन के लिए अगर एक दिन के लिए दूकान छोड़कर नहीं जाते तो उन्हें पता ही नहीं चलता कि तेल बेचने के अलावा भी कोई धंधा है जिससे पैसा पैदा किया जा सकता है. बहुत मन मारकर उस दिन दूकान को अपने मौसी के बेटे और कुछ कर्मचारियों के हवाले कर गए थे.

जाते समय पढाई-लिखाई को तो गाली दी ही, साथ में ही उन स्कूल वालों को भर पेट गरियाया था जो बेटे का नहीं बल्कि उनका इंटरव्यू लेना चाहते थे.

उसके पहले तो वे यह मानने के लिए भी तैयार नहीं थे कि तेल बेचने के अलावा भी दुनियाँ में कोई धंधा है जिससे पैसा कमाया जा सकता है. बेटे का एडमिशन हो गया. बेटे के एडमिशन के लिए दिए गए डोनेशन के पैसे ने उनके अन्दर यह विश्वास भर दिया कि स्कूल का धंधा तेल बेचने के धंधे से ज्यादा लाभदायक है.

...जारी रहेगा.