कट्टा कानपुरी की ताज़ी ग़ज़ल पढी जाय.
अगर आप को लगे कि इस मीटर की ग़ज़ल आपने पहले कहीं पढ़ी है तो यह समझें कि वो महज एक संयोग है और संयोग से बढ़कर और कुछ नहीं. कट्टा कानपुरी केवल ओरिजिनल गज़लें लिखते हैं. वैसे कानपुर से लखनऊ ज्यादा दूर नहीं है:-)
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जो उसका है वो तेरा भी अफसाना हुआ तो,
कल को तेरा भी घर जेलखाना हुआ तो?
तू आज तो बचने की जुगत खूब करो हो,
मज़मून नोट वाला कातिलाना हुआ तो?
तुझको भी ठेल देगा वो इक सेल देखकर,
पकड़ेगा जो तुझे वो दीवाना हुआ तो?
जेलों की जियारत का सफ़र कल को करोगे,
जेलों के रास्ते में गर मयखाना हुआ तो?
तेरे तो आस-पास वैसे हैं सभी हलकट,
उनमें भी अगर कोई शरीफाना हुआ तो?
देगी तेरा वो साथ कहे दोस्तों की फौज
लेकिन कोई गर उनमें भी बेगाना हुआ तो?
सालों से खाते आया है तू मालपुआ-खीर
खाने को मिले कल जो रामदाना हुआ तो?
'कट्टा' को आज समझे है तू दुश्मन-ए-जानी,
लेकिन उसी से कल को याराना हुआ तो?
Saturday, September 24, 2011
कल को तेरा भी घर जेलखाना हुआ तो? ...
Thursday, September 22, 2011
ऐ मेरे दाता.....
गाने के रियलिटी-शो में दस साल के बच्चे ने हारमोनियम बजाते हुए एक ग़ज़ल इस तरह से गाई जैसे बड़े-बड़े उस्ताद गाते हैं. उसने मेंहदी हसन स्टाइल में ग़ज़ल के शेरों को सुर और मुर्कियों के बल पर पहले तो कंट्रोल में लिया फिर उन्हें पटका. उसके बाद उनका कॉलर पकड़ कर उनके ऊपर चढ़ बैठा. काफी देर तक वह उन्हें तरह-तरह से रगेदता रहा. कुछ मिनटों तक ग़ज़ल पर आवाज़ की ठनक, सरगम की सनक और राग का प्रहार होता रहा. जैसे-जैसे उसपर बच्चे का आक्रमण बढ़ता जा रहा था, ग़ज़ल के शेर कमज़ोर पड़ते जा रहे थे. दर्शक ताली बाजा रहे थे और जज-गुरु लोग़ बच्चे की आवाज़ के अनुसार अपना हाथ ऐसे ऊपर-नीचे कर रहे थे जैसे कोई बच्चा हवा में हाथों की गाड़ी बनाकर उसे उड़ाता है.
एक समय ऐसा आया जब लगा कि बेचारे शेर अब पूरी तरह से पस्त हो चुके हैं. उनमें अब कोई जान नहीं रही कि गायक बच्चा उन्हें और रगेदे. समय सीमा, समय का अभाव या फिर शायद ग़ज़ल के माफीनामे की वजह से बच्चे ने प्लेटफॉर्म पर धीरे-धीरे रुकने वाली रेलगाड़ी स्टाइल में अपना गाना रोका. स्टैंडिंग ओवेशन की बहार आ गई. ऐंकर ने बच्चे को दोनों हाथों से उठा लिया. महागुरु आश्चर्यचकित होने की अपनी चिर-परिचित मुख मुद्रा लुटाने लगीं. कुल मिलाकर विकट रियलटीय टेलीविजन के दर्शन होने लगे.
कुछ देर तक बच्चे को अपनी गोद में रखने के बाद ऐंकर ने उसे नीचे उतारा और अपने ऐन्करीय धर्म का पालन करते हुए शुरू हो गया; "गुरु कैलाश? क्या कहना चाहेंगे आज आप?"
गुरु कैलाश चूल्हे पर रखे पानी के पहले उबाल की तरह शुरू होना ही चाहते थे लेकिन शब्दों की शॉर्ट-सप्लाई के कारण अदबदा गए. कुछ क्षणों तक अ ब स करने के बाद और काफी मशक्कत और खोजबीन के बाद जब कुछ शब्द उनके मुँह लगे तो वे शुरू हो गए; "आज~~~ मैं मेरे दाता से कहना चाहूँगा कि ऐ मेरे दाता, ऐ मेरे मालिक, ऐ मेरे भगवान इन्हें ऐसे ही रखना. इनके ऊपर कृपा करना. मैं तो कहूँगा कि आज मेरे दाता ने इन्हें अपना आशीर्वाद दिया...ये भटकने न पाए... आज इनका यश, इनका ऐश्वर्य पूरी दुनियाँ देख रही है. बच्चे तो भगवान की मूरत होते हैं. 'प्रथ्वी' पर आज इनका जो नाम हो गया है.... आज पूरा ब्रह्माण्ड इन्हें दुआएं दे रहा है. तो ऐ मेरे दाता.......महागुरु, आज तो इसने बावला कर दिया."
जज-गुरु की गलती नहीं है. वे और क्या करेंगे जब ऐसे बिकट टैलेंटेड बच्चे प्रतियोगी बनकर स्टेज पर उतर जायेंगे और सुरों के चौके-छक्के जड़ने लगेंगे? टैलेंटेड, मेहनती और इतने परफेक्ट कि सुनकर मन में आता है जैसे इनका गला बाकायदा ऑर्डर देकर बनवाया गया है. पॉवर-पॉइंट प्रजेंटेशन के बाद. बिलकुल परफेक्ट. कहीं कोई दोष नहीं. हाँ, परफेक्ट होने के चक्कर में इन बच्चों ने अपना बचपना कहाँ और किसके पास गिरवी रख छोड़ा है वह शोध और जांच, दोनों का विषय है. अगर शोध या जांच के बाद यह पता चल भी जाए कि कहाँ और किसके पास रखा गया है तो भी उस बचपने को वापस पाने का कोई अर्थ नहीं क्योंकि तबतक ये इतने उस्ताद हो चुके होते हैं कि इन्हें बचपने और मासूमियत के तीर-कमान की ज़रुरत ही नहीं रहती.
गुरु, महागुरु, गेस्ट गुरु, बैंड वाले, दर्शक, संगीत प्रेमी वगैरह इन बच्चों को देखकर दाँतों तले ऊँगली दबाते हैं. और फिर ऐसा क्यों न हो? दस साल के बच्चे के मुँह से राहत फ़तेह अली खान की आवाज़ इस तरह से निकलती है कि अगर वे सुन लें तो सोचने लग जायें कि; 'ये बच्चा मुझसे मेरी आवाज़ कब चुरा ले गया?' सुनने वालों को यह भी लग सकता है कि 'दो-तीन महीने के लिए ये बच्चा राहत बाबू का गला उधार मांग लाया है.'
न तो इन बच्चों की आवाज में कोई कमी है और न ही हुनर में. अगर किसी ऑड-डे पर ख़ुदा न खास्ता इनसे कोई गलती हो जाती है तो जज साहब उन्हें बताते हैं कि; "ये जो हरकत-उल-आवाज़ तुमने ऐसे ली थी, उसे गाने में रफ़ी साहब ने वैसे लिया है", या फिर; "तुमने गाने को चार से उठाया. अगर तीन से उठाया होता तो जो ऊंची आवाज़ में तुम्हारा सुर गया, वह नहीं जाता."
सब तरह के नुक्श निकाल कर भी जज-गुरु यह कहना नहीं भूलते कि; "फिर भी तुमने कमाल का गाया."
गेस्ट-गुरु के रूप में आया कोई संगीतकार बच्चे को बताना नहीं भूलता कि उसकी आवाज़ रेकॉर्डिंग स्टूडियो के लिए ही बनी है. साथ ही वादा भी कर डालता है कि दो साल बाद वह अपने सारे गाने उसी बच्चों से गवायेगा. पूरे सेट पर ख़ुशी का मौसम आ जाता है. कई-कई बार तो इतनी ख़ुशी आ जाती है कि डर लगता है कि सेट की दीवारें फट न पड़ें. जितना खुश वह बच्चा नहीं होता उससे ज्यादा उसके माँ-बाप खुश होते हैं. ठीक वैसे ही एलिमिनेशन पर बच्चा जितना दुखी नहीं रहता उससे ज्यादा उसके माँ-बाप दुखी होते हैं. उन्हें देखकर लगता है जैसे अब इनका जीवन व्यर्थ हो गया. इनके ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है और अब ये इससे कैसे उबरेंगे?
इन बच्चों में परफेक्शन, गुण, मेहनत, कला वगैरह वगैरह कूट-कूट कर भर गए है.
लेकिन जो चीज इन्हें छोड़कर चली गई है उसकी बात?
जब से हमने तय किया है कि हम अपने देश को इकॉनोमिक सुपर पॉवर और सामरिक दृष्टि से भी महाशक्ति बनायेंगे तबसे देश में रियलिटी शो की संख्या में दिन दूनी नहीं तो रात में चौगुनी वृद्धि तो ज़रूर हुई है. तरह-तरह के विषयों पर रियलिटी शो बनाये जा रहे हैं. यहाँ तक कि अच्छे-खासे घर-दुआर वाले लोग़ जंगलों में जाकर वास कर रहे हैं ताकि रियलिटी शो बन सके. कई लोग़ सांप-छछूंदर, केकड़े-अजगर के साथ खुद को कांच के डब्बे में कैद कर ले रहे हैं और उन जानवरों को सता रहे हैं ताकि जानवरों को तंग करने वाली उनकी हरकतों को कैमरे में कैद करके उसे रियलिटी शो में बदला जा सके.
कई बार मन में आता है कि अच्छा हुआ जो श्री राम ने त्रेता युग में जन्म लेकर खुद को उसी युग में सरयू नदी के हवाले कर दिया. सोचिये अगर आज श्री राम खुद को सरयू नदी के हवाले करते तो क्या होता? उनके जल समाधि को लाइव टेलीकास्ट करने के लिए चैनलों में होड़ लग जाती. ये चैनल वाले एक कांख में अपनी पूरी बेशर्मी दबाये और दूसरी में रूपये की थैली लिए उनके पास एक्सक्ल्यूसिव राइट्स के लिए पहुँच जाते. गारंटी तो नहीं डे सकता लेकिन फिर भी ऐसा ज़रूर लगता है कि अगर वे आज होते तो ये रियलिटी शो वाले उनके वनवास की खबर पर उनके पास भीड़ लगा लेते और उनके वनवास को रियलिटी शो में बदल देने के लिए उन्हें पक्का लालच देते. जनक भले ही विदेह होंगे लेकिन सीता स्वयंवर के अवसर पर कोई न कोई चैनल वाला स्वयंवर के लाइव टेलीकास्ट की एक्स्क्यूसिव राइट्स के लिए पैसे लेकर रोज उनके राजमहल के चक्कर लगाता.
आज इन शो बनाने वालों को परफेक्ट सिंगर और परफेक्ट डांसर वगैरह की तलाश है लेकिन इस परफेक्शन से ये दर्शकों को कितने वर्षों तक चमत्कृत या फिर बोर कर पायेंगे? मुझे तो पक्का विश्वास है कि एक समय ऐसा भी आएगा जब शो बनाने वाले ये लोग़ ऐसे बच्चों को ढूढेंगे जिनके पास मासूमियत होगी. जिनमें बचपना होगा. जिनमें परफेक्शन नहीं होगा. जो बच्चे 'कम्प्लीट' सिंगर या 'कम्प्लीट' डांसर नहीं होंगे. और फिर ये लोग़ उन बच्चों की मासूमियत, तुतलाहट वगैरह पर रियलिटी शो बनायेंगे.
और तब हमें जज-गुरु द्वारा सुनने को मिलेगा; "आज~~ मैं मेरे दाता से कहूँगा कि ऐ मेरे दाता, ऐ मेरे ईश्वर, ऐ मेरे मालिक, इनको हमेशा मासूम बनाये रखो....ये जो इनकी तुतलाहट है वो हमेशा ऐसे ही बनी रही. ऐ मेरे दाता इनकी नाक ऐसे ही बहती रहे जिससे ये बच्चे लगें....आज पूरी 'प्रथ्वी' में इनकी मासूमियत की चर्चा हो रही होगी........................."
समस्या एक ही है. आज रियलिटी शो है...कल भी रियलिटी शो ही रहेगा. बिक्री के लिए केवल कमोडिटी बदल जायेगी.
Friday, September 9, 2011
जसौदा कहाँ कहौं मैं बात.....
आपसे अनुरोध है कि इस ब्लॉग पोस्ट को श्री कृष्ण के खिलाफ लिखा हुआ न मानें. इसे केवल एक पैरोडी के रूप में लिया जाय और कुछ नहीं.
जसौदा कहाँ कहौं मैं बात
तुम्हरे सुत को करतब अब तो
कहौं कहे नहीं जात
जंह-जंह मौका मिले हौं ओकू
इधर-उधर घुसि जात
सखा सबै अब तंह संग मिलि के
चाटि-चाटि सब खात
करौं रपट जौं सीएजी तौं
मारत ओकूं लात
जसौदा कहाँ कहौं मैं बात
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नचावत सबै जसौदा-लाल
पग-पग, नग-नग तंग करत हों
चलत कुसंगति चाल
संग सखा सब कोरस टेरत
नानाविध दै ताल
माया कौ कटि फैंटा बांध्यो
दियो मुलायम माल
ममता संग मिलि सबहि नचावत
करि स्कैम बवाल
गोकुल वासी दुखी सभी जन
कब बदलेगा काल
नचावत सबै जसौदा लाल
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मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
पंद्रह परसेंट तो मैंने खायो, बाकी तोको खिलायो
मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
ग्वाल-बाल सब हमरौ संगी, ताको हेल्प भी पायो
मैं नहिं बालक जानौ सब बिधि, विदेश से डिग्री लायो
मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
जोर भयो ज्यों छूट दियो तौं, हिम्मत भीतर आयो
सबौं मिनिस्ट्री सखा लगाकर, भारी माल कमायो
मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
तू जननी मन की नहि भोली, पूत को सिर पे बिठायो
सब माखन तू ही खा लेवे, छींको मैं तुड़वायो
मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
सीएजी तो पकड़े मोकूं, तू तो बचि-बचि जायो
जब-जब भी अकुलाइ उठूं मैं, सुषमा मन हरसायो
मैया मोरी मैंने ही माखन चुरायो
Monday, September 5, 2011
दुर्योधन की डायरी - पेज ३७१
आज शिक्षक दिवस है. मैंने सोचा कि एक बार उलट-पलट कर देखा जाय कि युवराज दुर्योधन ने शिक्षक दिवस पर कुछ लिखा है क्या? पता चला कि उन्होंने शिक्षक दिवस पर तो कुछ नहीं लेकिन अपने समय के शिक्षक और शिक्षा पर कुछ लिखा है. पढ़कर लगा कि ज्यादा कुछ बदलाव नहीं आया है.
क्या कहा आपने? मैं ऐसा क्यों लिख रहा हूँ? आप खुद ही पढ़ लीजिये कि मैं ऐसा क्यों लिख रहा हूं.
दुर्योधन की डायरी - पेज ३७१
सालाना इम्तिहान को अब केवल दो महीने रह गए हैं लेकिन गुरु द्रोण हैं कि पिछले तीन दिन से क्लास में आ ही नहीं रहे हैं. कोई खबर भी नहीं है कि कहाँ हैं? विद्यार्थी अपनी-अपनी तरह से अनुमान लगाये जा रहे हैं. अर्जुन कह रहा था कि वे अवंती में छुट्टियाँ बिताने गए हैं तो वहीँ भीम ने बताया कि हस्तिनापुर में ही किसी फ़ूड फेस्टिवल का उद्घाटन करने गए हैं. इस भीम को खाने की बातों के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं. इसकी नज़र हमेशा खाने पर रहती है. पेटू कहीं का. मैंने कई बार अश्वथामा से पूछने की कोशिश तो टाल गया. मामला क्या है समझ नहीं आ रहा.
खैर, मामला चाहे जो हो लेकिन गुरुदेव इस तरह से पढायेंगे तो सिलेबस कैसे ख़त्म होगा? तीन दिन पहले जब मैंने सवाल किया कि गुरुदेव परीक्षा को अब केवल दो महीने रह गए हैं लेकिन आपने भूगोल और समाजशास्त्र का सिलेबस पूरा नहीं किया तो भड़क गए. बोले; "तुम्हें समाजशास्त्र का ज्ञान है कोई? जितना पढ़ा है, उसे भी अपने व्यवहार में प्रयोग किया है कभी? कल शाम को क्रीड़ास्थल पर मिले थे तो मुझे प्रणाम नहीं किया. और कहते हो कि समाजशास्त्र का सिलेबस ख़त्म नहीं हुआ."
ये अर्जुन, भीम वगैरह को फेवर तो करते ही थे अब बात-बात पर हमें डाटते रहते हैं. हमें डाटने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते. अब इन्हें कौन समझाए कि दिन में सत्रह बार प्रणाम करते-करते छात्र एक-आध बार भूल भी तो सकता है. समाजशास्त्र के सिलेबस में क्या बस प्रणाम करना लिखा है? और कुछ नहीं लिखा? समाज क्या केवल प्रणाम और आशीर्वाद से ही चलता है? मानता हूँ कि गुरुदेव ब्राह्मण हैं और उन्हें न केवल विद्यार्थियों से लेकिन राज्य के साधारण नागरिकों से प्रणाम लेना अच्छा लगता है लेकिन प्रणाम के लिए इतना भी क्या लालायित रहना? मैं कहता हूँ कि दो-चार प्रणाम कम भी मिलेंगे तो क्या उनका डिमोशन हो जाएगा? कई बार तो मन में आता है कि इनके ब्राह्मण होने की बात को प्रजा में उछाल दिया जाय और पिछड़ी जाति के नागरिकों को इनके खिलाफ भड़का दिया जाय लेकिन चचा विदुर की वजह से रुक जाता हूँ.
मेरा मानना है कि इनके ब्राह्मणत्व की बात को अगर उछाल दिया जाय फिर एकलव्य को इनके खिलाफ खड़ा किया जा सकता है. दुशासन तो कह रहा था कि मैं ही एकलव्य को फिनांस करके गुरु द्रोण की शिकायत उप-कुलपति से करवा दूँ कि ये गुरुदक्षिणा में रुपया-पैसा, ज़मीन-जायदाद नहीं बल्कि अंगूठा कटवा लेते हैं. एक बार एकलव्य इनकी शिकायत उप-कुलपति से कर दे फिर हज़ार-पाँच सौ विद्यार्थियों को कुछ पैसा-वैसा खिलाकर इनके निवास स्थान पर नारे लगवा दूँ. इनका कैरियर खराब हो जाएगा. रिटायरमेंट के बाद पेंशन के लिए मोहताज़ हो जायेंगे ये.
अभी ये पूरे डेढ़ महीने की छुट्टी बिताकर आए हैं. प्रयाग गए थे. संगम के किनारे माघ महीने में कल्पवास करने. अपनी जगह अपने किसी रिश्तेदार को पढ़ाने का काम सौंप गए थे. रिश्तेदार हमें पढाता था लेकिन हाजिरी रजिस्टर में गुरुदेव की हाजिरी लगती थी. प्रयाग से लौटने के बाद पूरे महीने की सैलरी भी उन्ही को मिली. ये सब बातें अगर पिताश्री को बता दूँ तो इनकी शामत आ जायेगी. बिदुर चचा को बताने का कोई फायदा तो है नहीं. वे तो गुरुदेव को ही सपोर्ट करते हैं. वैसे भी मेरी बात पर उन्हें ज़रा भी विश्वास नहीं सो उन्हें बताने का कोई फायदा भी नहीं है. फिर सोचता हूँ कि गरीब आदमी हैं, इनकी नौकरी चली गई तो इनका घर-परिवार कैसे चलेगा?
फिर भी ये जिस तरह से हमारे साथ व्यवहार करते हैं मन तो करता ही है कि इनके खिलाफ अफवाहें उड़ा कर इन्हें बदनाम कर दूँ. ह्विसपर कैम्पेन चला दूँ कि मैंने पाठशाला में तमाम तरह की अनर्गल बातें नोट की हैं. कि गुरुदेव ये मिड-डे मील के रिकार्ड में गड़बड़ करते हैं. कि पाठशाला को मिलने वाली राशि से कुछ निकालकर इन्होने अश्वथामा के नाम एफडी कर ली है. फिर सोचता हूँ कि अगर मैं इनके खिलाफ खड़ा हो गया तो ये कहीं के न रहेंगे.
ऐसा नहीं है कि पाठशाला में गुरुदेव कोई गड़बड़ी नहीं करते. पिछली छमाही इम्तिहान के बाद उन्होंने हमारी कापी जांचने का काम अश्वत्थामा से करवाया था. ख़ुद बैठे-बैठे ताश खेलते थे और अश्वत्थामा कॉपी जांचता था. ये बात तो मुझे तब पता चली जब मैं, दु:शासन और अश्वत्थामा फ़िल्म देखने गए थे. अश्वत्थामा ने ही बताया था कि मैं गणित में फेल हो रहा था लेकिन उसने मेरा नंबर इसलिए बढ़ा दिया क्योंकि पिछले महीने मैंने उसे आईसक्रीम खिलाई थी.
गणित में मेरी कमजोरी तो मुझे ले डूबेगी.
हस्तिनापुर में प्राथमिक शिक्षा की हालत सचमुच बहुत ख़राब है. जानते सभी हैं लेकिन कोई इसके बारे में कुछ करने के लिए तैयार नहीं है. करने के नाम पर चचा विदुर और कृपाचार्य कभी-कभी मीडिया में प्राथमिक शिक्षा पर चिंता व्यक्त कर देते हैं. जब वे चिंता व्यक्त करते हैं तो पूरे हस्तिनापुर के नागरिकों को लगता है कि ये लोग़ सच में चिंतित हैं और कुछ करना चाहते हैं. एक बार चिंता व्यक्त करके ये लोग़ फिर साल-छ महीने चुप रहते हैं और जब कहीं कोई पत्रकार या सम्पादक कुछ लिख देता है तो ये सभी एक बार फिर से चिंता व्यक्त कर देते हैं. उधर प्राथमिक शिक्षा की हालत खराब होती जा आरही है और इधर इन लोगों की चिंता व्यक्त करने की कला निखरती जा रही है. कई बार तो ये लोग़ यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं कि श्री राम के दिनों में अयोध्या में भी प्राथमिक शिक्षा की हालत ऐसी ही थी और विश्वामित्र और वशिष्ट जैसे महागुरु भी केवल चिंता ही व्यक्त करते थे और कुछ नहीं करते थे.
एक दिन मैने गुरुदेव से प्राथमिक शिक्षा की ख़राब हालत के बारे में कहा तो बोले; "राजमहल से ऐसे आदेश मिले हैं कि सारी इनर्जी उच्च शिक्षा पर लगाई जाय. हमें ज्यादा से ज्यादा मैनेजमेंट ग्रैजुएट पैदा करने हैं."
मैं कहता हूँ कि जब आधार ही मजबूत नहीं रहेगा तो उच्च शिक्षा की पढाई करके क्या फायदा? लेकिन मेरी बात कौन सुने? फिर सोचता हूँ, मुझे भी इन सब बातों में नाक घुसाने की जरूरत नहीं है. लेकिन सच बात पर कोई ध्यान नहीं देता. नागरिकों को कहाँ मालूम है कि उच्च शिक्षा पर जोर और मैनेजमेंट ग्रेजुयेट पैदा करने के पीछे मामाश्री और उनके लोगों का हाथ है. किसी को नहीं पता कि मामाश्री ने अपने लोगों को लगाकर तमाम मैनजेमेंट कालेज खुलवा दिए हैं और अपने कुछ और रिश्तेदारों को महाजन बनाकर आगे कर दिया है ताकि विद्यार्थियों को लोन देकर इन कालेजों में एडमिशन दिलवाया जा सके और धंधा मस्त चले. महाजनों, इन कालेज के बोर्ड और मामाश्री की लॉबी का कमाल है जो दिन-रात हस्तिनापुर में मैनेजमेंट ग्रैजुयेट पैदा होते चले जा रहे हैं. ये कालेज वाले हर साल फीस बढ़ा देते हैं और विद्यार्थियों को भी फीस पेमेंट करने में कोई अड़चन नहीं दिखाई देती क्योंकि मामाश्री के अप्वाइंट किये गए महाजन इन विद्यार्थियों को लोन देने के लिए पैसा हाथ में लेकर खड़े हैं.
खैर, इन सब बातों से मुझे क्या लेना-देना? मेरे पिताश्री का क्या जाता है? मैं अगर ऐसी टुच्ची बातों के बारे में सोचूँगा तो फिर राजा कैसे बनूंगा? और फिर मुझे पढ़-लिख कर कौन सा क्लर्क बनना है? मैं तो राजा बनूंगा. और एक बार मैं राजा बन गया तो हजारों मैनेजमेंट ग्रेजुयेट मेरे लिए काम करेंगे.
मुझे तो अपनी राजनीति की फिकर है. मुझे लगता है कि नयी खुराफात करने का मौका आ गया है. आज दु:शासन बता रहा था कि राजमहल से ख़बर आई है कि एकलव्य ने कुछ युवकों का दल बना लिया है और कल राजमहल के सामने प्रदर्शन कर रहा था और नारे लगा रहा था. गुरुदेव ने उसे शिक्षा दे देती होती तो आज ऐसा नहीं होता. जब दु:शासन से मैंने पूछा कि एकलव्य क्या चाहता है तो उसने बताया कि वो मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग कालेज में आरक्षण चाहता है. जिस दिन गुरुदेव ने उसे लौटाया था उस दिन मैं मिला होता तो उसके लिए ज़रूर कुछ करता. लेकिन अब सोचता हूँ कि एकलव्य और उसके साथियों को आरक्षण दिलाने का वादा मैं ख़ुद ही कर दूँ. भविष्य में जब भी अर्जुन वगैरह से झमेला होगा तो ये एकलव्य बहुत काम आएगा.
कल ही एकलव्य से अप्वाईंटमेंट फिक्स करूंगा.