Show me an example

Wednesday, October 31, 2007

दलों का दलदल और बंद का कीचड





कुछ साल पहले एक प्रस्ताव आया था की पश्चिम बंगाल का नाम बदल कर बंग प्रदेश रख दिया जाय.जिन लोगों ने प्रदेश के लिए ये नाम सुझाया था, उनका कहना था कि ऐसा नाम रखने से राज्य ज्यादा देसी लगेगा और हमारी संस्कृति की रक्षा भी हो जायेगी.बाद में राज्य की 'बंद संस्कृति' का मजाक उडाते हुए लोगों ने कहा कि बंग प्रदेश क्यों, इस राज्य का नाम तो बंद प्रदेश होना चाहिए.खैर, नाम बदलो अभियान रोक दिया गया और राज्य का नाम पश्चिम बंगाल ही रहा.मतलब, 'संस्कृति' पर ख़तरा बना हुआ है.

मेरा मानना है कि राज्य का नाम 'बंद प्रदेश' रख देना चाहिए।देखिये न, कल बंद था.आज बंद है.शायद कल भी रहे.वैसे अभी तक किसी पार्टी ने कल बंद कराने का एलान अभी तक तो नहीं किया, लेकिन शाम तक समय है.कोई भी पार्टी कल बंद का एलान कर सकती है.बंद की वजह से आज सात बजे ही आफिस आना पडा.बंद कराने वाले भी आलसी होते हैं.बेचारे नौ बजे तक सो कर उठेंगे, तब सडकों पर उतरेंगे बंद कराने.मैंने थोड़ा उनके आलसी होने का फायदा उठाया और थोड़ा अपने आलस्य को दूर करते हुए आफिस पहुँच गया.

आज का बंद ममता बनर्जी ने किया है।आप ये सोच रहे हैं कि मैंने ये क्यों नहीं कहा कि बंद का एलान उनकी पार्टी ने किया है.मतलब साफ है.ममता बनर्जी माने ही त्रिनामूल कांग्रेस.बंद भी बड़ी अनोखी बात का सहारा लेकर किया गया.ममता का कहना है कि जब वे नंदीग्राम जा रही थीं तो उनके ऊपर किसी ने गोली चलाई.ये और बात है कि उनकी 'बुलेट थ्योरी' में काफ़ी बड़ा 'होल' है.उन्होंने एक जिंदा कारतूस लेकर फोटो खिचाई और बंद का एलान कर दिया.पुलिस का कहना है कि जब गोली चलती है तो गोली का खोखा हथियार के पास रहता है, न कि दूर जाकर गिरता है.लेकिन राजनीतिज्ञों (?) की बातें हमेशा से ही निराली रहती हैं.

जिनको अपने नौकरी प्यारी है, वे बेचारे तो ऐसे बंद में भी आफिस जाते ही हैं।आज भी लोग निकलेंगे, मुझे इस बात का पूरा भरोसा है.लेकिन शाम को ममता जी एक प्रेस कांफ्रेंस बुलाएंगी और बंद की सफलता के लिए जनता को धन्यवाद देंगी.साथ में बुद्धदेव भट्टाचारजी इस्तीफे की मांग भी कर डालेंगी,ये कहते हुए कि 'आज जनता ने हमारे बंद को सफल बनाते हुए साबित कर दिया है कि आपको शासन करने का अधिकार नहीं रहा.'

अद्भुत ढंग से सब कुछ चल रहा है।आगे भी चलता रहेगा.लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आती.कोई पार्टी सामने आकर क्यों नहीं कहती कि कुछ सालों के लिए बंद की राजनीति बंद की जानी चाहिए.लेकिन कहेगा कौन.वामपंथी इस मामले में ममता के ताऊ हैं.वे भी बंद करते हैं.मजे की बात ये कि अगर ममता बनर्जी बंद करती हैं तो सरकार पुलिस का ख़ास इंतजाम करती है.ज्यादा से ज्यादा सरकारी बसें चलाई जाती हैं.लेकिन जब ये वामपंथी बंद करते हैं तो न पुलिस का इंतजाम और न ही बसों का.ऐसे में कोई बंद करने की खिलाफत करेगा, इस बात की आशा बहुत कम है.

हमारे एक 'ब्लॉगर मित्र' एक बार इन बंद कर्मियों के हाथों पिट चुके हैं।बेचारे बंद के दिन आफिस जा रहे थे.वामपंथियों ने रोक लिया.इन्होने समझाने की कोशिश की.ये कहते हुए कि 'बंद से बड़ा नुकसान वगैरह होता है.देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचता है.लोगों को तकलीफ होती है.' बस फिर क्या.बंद कर्मियों को लगा कि 'ये तो भाषण दे रहा है.कहीं ऐसा न हो कि आगे चलकर नेता बन जाए.और उन्होंने हमारे मित्र की पिटाई कर दी.बेचारे उसके बाद से बंद के दिन घर से बाहर नहीं निकलते.

लेकिन मैं ऐसे बंद को एक चैलेन्ज के रूप में लेता हूँ.मेरा मानना है कि अगर साल के तीन सौ साठ दिन मेरा आफिस मेरे हिसाब से चलता है तो बंद के दिन भी मेरे हिसाब से ही चलेगा.किसी ममता बनर्जी या वामपंथियों के हिसाब से नहीं.

Tuesday, October 30, 2007

एक ही फॉण्ट से थक गया




आपने देखा - हिन्दी के लिये एक ही फॉण्ट है - मंगल। उसी का साइज बड़ा कर लो, इटैलिक्स कर लो, बोल्ड बना लो। बस। उसका प्रयोग कर इण्टरनेट पर हिन्दी ब्लॉगिंग अब तक अच्छी लगी। हिन्दी में अभिव्यक्त करने की आजादी प्रदान कर रही थी। पर अब एक ही फॉण्ट (मंगल) से थक गया हूं! बोरियत होती है। अंग्रेजी जो विविधता है अक्षरों के बनावट की, वह मोहित करती है।

हिन्दी में केवल मंगल है।

mangalमंगल बोर है। 

मंगल बोर है।

मंगल बोर है।

मंगल बोर है।

मंगल बोर है।
मंगल बोर है।

मंगल बोर है।

मुझे मालूम है - लोग यह पढ़ कर खिसिया कर चल देंगे। ज्यादातर लोग बोरियत की सीमा तक नहीं पंहुचे हैं। कुछ लोग जो इस दिशा में जद्दोजहद कर चुके हैं, हाई-टेक समाधान बतायेंगे। शायद ढेरों फॉण्ट बतायें। पर फलाना फॉण्ट ढिमाके ब्राउजर पर नहीं चलेगा। उसके लिये तिमाके वाला ऐड-ऑन चाहिये। फिर भी कीड़े नजर आयेंगे यदा-कदा-सर्वदा!

अगर हिन्दी ब्लॉगरी में और लोग जुड़ने है, तो विविधता तो लानी होगी। कमसे कम 4-5 फॉण्ट तो और होने चाहियें। कोई कुछ कर रहा है?

 

******************* 

शिवकुमार मिश्र काकेश की संगत कर दुख शास्त्र का प्रतिपादन कर रहे हैं। दुखी होने में हमें सहभागी नहीं बनाया। यह भी बोरियत का कारण है। आज हम बोर-शास्त्र ही ठेलेंगे। फिर कुछ नहीं करेंगे। न पढ़ेंगे, न टिपेरेंगे। घास भी नहीं छीलेंगे।


Monday, October 29, 2007

काकेशजी के दुख-शास्त्र का आगामी चुनावों में महत्व







काकेश जी हिन्दी ब्लॉग जगत के 'ब्लॉगर-विभूषण' हैं।उन्होंने दुःख का उत्पादन कर के सुख खोजने की कला पर दो निबंध लिखे - दुखी होने के फायदे और दुखिया दास कबीर है.करीब एक सप्ताह तक यह निबंध केवल ब्लॉग जगत के लोग पढ़ते थे और अपने-अपने तरीके से दुःख का उत्पादन कर सुख की आस लगाए बैठे थे. लेकिन पिछले कुछ दिनों से उनके इन निबंधों ने राजनीति के गलियारों में हलचल मचा दी है. प्रस्तुत है राजनीति के गलियारों में दुःख का सहारा लेकर सुख पाने की कवायद पर एक रिपोर्ट.

सत्तासीन कांग्रेस पार्टी की वर्किंग कमिटी की मीटिंग चल रही थी (बांयी ओर का चित्र 'द हिन्दू' के एक नेट पेज का है)। मीटिंग में भाग लेने वाले सारे नेताओं को मीटिंग का एजेंडा दिया जा चुका था. लगभग सारे नेता एजेंडे वाला कागज़ पढ़ रहे थे. केवल प्रधानमंत्री कुछ और पढ़ रहे थे. बाकी नेताओं को बहुत आश्चर्य हुआ कि एजेंडे के बारे में न पढ़कर प्रधानमंत्री ये क्या पढ़ रहे हैं. लेकिन किसी ने उन्हें नहीं टोका. बाद में कांग्रेस अध्यक्षा ने ही प्रधानमंत्री से पूछा. प्रधानमंत्री ने जवाब देते हुए कहा; "देखिये मेरे हाथ एक प्रसिद्ध चिट्ठाकार के लिखे गए दो बहुमूल्य निबंध लगे है. इसमें उचित मात्रा में दुःख का उत्पादन करके सुख प्राप्त करने के तरीके बताये गए हैं. मुझे लगता है कि हमें अपनी पार्टी के नेताओं को इन निबंधों की एक-एक प्रति देनी चाहिए. साढ़े तीन साल के सत्ता सुख ने उन्हें दुःख से कोसों दूर कर दिया है. लेकिन अब समय आ गया है कि उन्हें दुःख का सहारा लेना चाहिए. ये बात और भी जरूरी इसलिए हो गयी है कि मध्यावधि चुनाव हो सकते हैं."

कांग्रेस अध्यक्षा ने उन्हें बड़े आश्चर्य से देखते हुए कहा; "दुःख का सहारा लेकर सुख की प्राप्ति.ये तो बिल्कुल ही नया ज्ञान है. ज़रा हमें भी दिखाईये."

प्रधानमंत्री ने झट से निबंध उनकी तरफ़ बढाते हुए कहा; "मैडम आप इन निबंधों को पढिये तब जाकर आपको पता चलेगा कि मैं कितने दूर की कौडी लाया हूँ।"

कांग्रेस अध्यक्षा ने निबंध लेते हुए जैसे ही उसे पढ़ने के लिए चश्मा लगाया, वे नाराज हो गईं. उन्होंने कहा; "किस तरह का मजाक है आपका? ये तो हिन्दी में लिखा गया है. आपको मालूम है मैं केवल 'रोमन हिन्दी' पढती हूँ."

प्रधानमंत्री को अपनी भूल का एहसास हुआ. माफ़ी माँगते हुए कहा; "मैडम उम्र का तकाजा है.वैसे भी लेफ्ट वालों ने जिस तरह से परेशान कर रखा है, मेरी मानसिक स्थिति कई दिनों से ठीक नहीं है. आप ये निबंध मुझे दीजिये, मैं पढ़कर सुनाता हूँ."

कांग्रेस अध्यक्षा ने कहा; "कोई बात नहीं। मैं अपने 'गुरु' जनार्दन द्विवेदी जी को दे रही हूँ. वे हिन्दी के प्रकांड विद्वान् हैं. उन्होंने मुझे हिन्दी सिखाई थी, वे इस निबंध को पढ़कर हमें सुनायेंगे."

द्विवेदी जी ने दोनों निबंधों का बड़ी तन्मयता से पाठ किया. कमिटी की मीटिंग में आए हर कांग्रेसी के चेहरे खिल गए. सबने प्रधानमंत्री की भूरि-भूरि प्रशंसा की. सभी ने इस बात को स्वीकार किया कि वाकई प्रधानमंत्री दूर की कौडी ले आए हैं. सभी इस निबंध के ज्ञान से संतुष्ट थे. सभी को विश्वास था कि आनेवाले मध्यावधि चुनावों में इस निबंध में लिखी गई बातों पर चलकर वे पर्याप्त दुःख का उत्पादन कर सत्ता-सुख भोगेंगे. वर्किंग कमिटी में प्रस्ताव पारित किया गया:

"कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस वर्किंग कमिटी प्रधानमंत्री के प्रति अपना आभार प्रकट करती है कि उन्होंने बिल्कुल ही अनूठे तरीके से पार्टी को आनेवाले चुनावों में जीत का रास्ता दिखाया है. हम आभार प्रकट करते हैं उन चिट्ठाकार का, जिन्होंने ये निबंध लिखकर न केवल हमें नया रास्ता दिखाया, अपितु पूरे देश को एक नया इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया है। वर्किंग कमिटी ने फैसला किया है कि इन निबंधों की करीब बीस लाख प्रतियाँ छपवा करके देश के कोने-कोने में बसने वाले कांग्रेसियों को भेजी जाय जिससे वे उचित मात्रा में दुःख पैदा कर पार्टी को जीत की राह पर आगे ले जाएँ."
फिर क्या था, इन निबंधों में लिखे गए ज्ञान का प्रयोग कांग्रेसी नेताओं ने अपने-अपने स्तर पर शुरू कर दिया। इसका सबसे पहला उपयोग प्रधानमंत्री ने किया. नियम से रोज सुबह दो घंटा का समय दुःख पैदा करने में लगाने लगे. एक दिन उन्हें लगा कि अब समय आ गया है कि इन निबंधों से प्राप्त हुए ज्ञान को व्यावहारिकता की कसौटी पर कसना चाहिए. उन्होंने एक अखबार समूह द्वारा आयोजित कार्यक्रम में दुखी होते हुए कहा; "अमेरिका के साथ परमाणु समझौते को लेकर हमारे साथी दल हमारा विरोध कर रहे हैं. हम तो चाहते हैं कि परमाणु समझौता हो. लेकिन हम क्या कर सकते हैं. जनता ने ही हमें पर्याप्त मैनडेट नहीं दिया. हमें फ्रैक्चार्ड मैनडेट मिला है. बहुत कुछ चाहते हुए भी हम कुछ नहीं कर पा रहे."

वहाँ बैठे लोगों ने प्रधानमंत्री के साथ हमदर्दी जताई। सभी ने उनके दुःख को समझा और ये कहा कि वाकई प्रधानमंत्री तो चाहते हैं, लेकिन उन्हें पर्याप्त मैनडेट जनता ने ही नहीं दिया. प्रधानमंत्री ने लोगों की प्रतिक्रिया पर खुशी जाहिर की. उन्हें विश्वास हो गया कि निबंधों में लिखा गया ज्ञान काम करता है. पार्टी आश्वस्त हो गई कि आने वाले चुनावों में अगर वे उचित मात्रा में दुःख का उत्पादन कर सके तो जीत तय है

लेफ्ट और समाजवादी पार्टी के नेताओं को बड़ा आश्चर्य हुआ कि अचानक प्रधानमंत्री के प्रति लोगों की हमदर्दी इतनी कैसे बढ़ गई। प्रधानमंत्री कार्यालय में आने-जाने वाले एक पत्रकार को लेफ्ट वालों ने पटा लिया और प्रधानमंत्री के प्रति लोगों की हमदर्दी का कारण पता करना चाहा. उस पत्रकार ने उन्हें बताया कि किस तरह से किसी चिट्ठाकार द्वारा लिखे गए निबंधों के बूते पर प्रधानमंत्री को भर-भर कर सहानुभूति मिल रही है. फिर क्या था इन लोगों ने एक छुटभैये कांग्रेसी नेता को आने वाले चुनावों में संसदीय सीट के लिए टिकट देने का लालच देकर इन निबंधों की कॉपी हथिया ली. निबंध पढ़ने के बाद ये लोग भी निबंध में लिखी गई बातों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके.

लेफ्ट और समाजवादी पार्टी के नेताओं ने भी निबंधों की प्रतियाँ बनवा लीं। इन लोगों ने तथाकथित थर्ड फ्रांट में शामिल होने वाले सभी दलों के नेताओं को इन निबंधों की एक-एक कॉपी दी और उन्हें भी दुःख पैदा करने के तरीकों पर अपने-अपने तरह से काम करने को कहा. चौटाला जी को जब इस निबंध की कॉपी मिली तो उन्हें समझ में नहीं आया कि क्या करें सो उन्होंने अपने पोतों को बोर्डिंग स्कूल से १५ दिनों की छुट्ठी लेने को कहा जिससे वे घर आकर चौटाला जी के सामने न केवल उन निबंधों का पाठ करें बल्कि उन्हें निबंध में लिखी गई बातों के बारे में समझायें. नायडू हिन्दी में लिखे गए निबंधों को देखकर दुखी हो गए. उन्हें हिन्दी पढ़नी नहीं आती. उन्होंने इस समस्या से निपटने के लिए आनन फानन में हैदराबाद की एक सोफ्टवेयर कम्पनी से इस निबंध को हिन्दी से तेलुगु में अनुवाद करने के लिए सोफ्टवेयर बनाने का अनुबन्ध किया.

थर्ड फ्रंट में शामिल दलों के नेताओं के घरों पर कई दिनों तक इन निबंधों का सामूहिक पाठ चलता रहा। जब इन पार्टियों के नेता काफ़ी मात्रा में दुःख की पैदावार को लेकर आश्वस्त हो गए तब ये एक दिन मीडिया के सामने आए. सभी के चेहरों पर पर्याप्त मात्रा में दुःख दिखाई दे रहा था. थर्ड फ्रंट की तरफ़ से अमर सिंह जी ने मीडिया को बताया; "पहले सरकार के कामों से केवल हम दुखी रहते थे. हमारे साथियों पर इन्कम टैक्स की रेड हो या फिर हमारे बड़े भैया के जमीन का मामला हो, सरकार केवल हमारे पीछे पड़ी रहती थी. लेकिन अब तो हमारे कामरेड साथी भी दुखी हैं. हम दोनों ने अपने-अपने दुखों का विलय करके अपार दुःख की उत्पत्ति कर ली है. हमारे दुखों के साथ अगर आप नायडू और चौटाला जी के दुखों को जोड़ दें, तो हमारे पास इतना दुःख हो गया है कि हम चुनाव लड़ सकें."

एक पत्रकार ने पूछा; "लेकिन आपको नहीं लगता कि आपको अपने दुखों में जयललिता जी के दुखों को शामिल कर लेना चाहिए?"

अमर सिंह जी ने जवाब में कहा; "देखिये हमारे दुखों के साथ चूंकि हमारे कामरेड साथियों के दुखों का विलय हो चुका है इसलिए अब जयललिता जी का दुःख हमारे लिए किसी काम का नहीं रहा। आप इस बात पर ध्यान दें कि हमारा दुःख बड़ा एक्सक्लूसिव तरीके का है. उसके साथ केवल स्पेशल दुखों का ही विलय हो सकता है. इसलिए जयललिता जी का दुखों का ग्रुप हमारे सम्मिलित दुखों के ग्रुप से मैच नहीं करता."

"तो अब आपको लगता है कि आपको पर्याप्त दुःख की प्राप्ति हो चुकी है?", पत्रकार ने पूछा।

"नहीं, अभी हम इसमें जनता का दुःख मिलायेंगे। किसान जनता, दलित जनता, बेरोजगार जनता वगैरह का दुःख हमें मिल जाने की पूरी संभावना है. हम इसपर काम कर रहे हैं"; अमर सिंह ने समझाते हुए कहा.

अबतक लगभग सभी राजनैतिक पार्टियां दुःख शास्त्र का समग्र अध्ययन कर चुकी थीं। भाजपा को किसी ने सलाह दी कि वे लोग भी इस दुःख शास्त्र का सहारा लेकर सुख की प्राप्ति का रास्ता खोजें. जवाब में अरुण जेटली जी ने बताया; "हम पहले से ही काफ़ी दुखी हैं. हम अब सुख और दुःख के रोलिंग प्लान के लायक नहीं रहे. हमारी समस्या ये है कि हमारी पार्टी में लोगों को सुख भोगने की ऐसी आदत लग गई थी कि हम कितनी भी प्रैक्टिस कर लें, सपने में भी इतना दुःख नहीं पैदा कर सकते जिससे इलेक्शन जीता जा सके."

दुःख का सहारा लेकर सारी पार्टियां चुनाव मैदान में उतरने वाली हैं. सबसे अच्छी बात ये है कि सभी ने अबतक काकेश जी को उनके 'दुःख शास्त्र' लेखन के लिए सार्वजनिक तौर पर धन्यवाद दे डाला है. मुझे आशा है कि आने वाले चुनावों में सरकार चाहे जिसकी बने, भारतीय राजनीति में योगदान के लिए काकेश जी को पद्मश्री का सम्मान पक्का है.

Tuesday, October 23, 2007

बुद्धू बक्से का नारसीसिज्म(narcissism)|





टिप्पणीकार मेरे पसन्दीदा ब्लॉग/ब्लॉगर बनते जा रहे हैं। बावजूद इसके कि बेनाम हैं और बेनामियत की शख्सियत का पता लगाने को मैं बेताब हूं। फुरसतिया सुकुल से पूछा भी - पर उन्होने जवाब नहीं दिया। एक शक राजीव टण्डन पर जाता है; पर इल्जाम कैसे लगायें सीधे सीधे! वैसे उनके अंतरिम ब्लॉग पर अंतिम पोस्ट भी टिप्पणीशास्त्र विषयक है।

खैर कल की उनकी पोस्ट "भूत-चुड़ैल दिखाने वालों के पेट में दर्द : मोदी पतित कि पत्रकार" ने मुझे बहुत मजा दिया है! मित्रों; आप मेरी पोस्ट पढ़े, न पढ़े; पर यह पोस्ट जरूर पढ़ें।

और हां टिप्पणी मेरी पोस्ट पर करें!

TV यह टीवी वाले ब्लॉगरों और टीवी वालों मे गजब का नारसीसिज्म है। जनता ने भी इन्हे 'लार्जर देन लाइफ' चढ़ा रखा है। और गजब बिरादरी का एका है। मुझे आप गरियायें तो एक भी अफसर नहीं आयेगा तरफदारी को। शिवकुमार मिश्र भी शायद न आयें! पर एक टीवी वाले/वालों पर क्या कहा बेनामी भाई ने कि चिपट गये गुरु दिबांग (बतर्ज बाबा राम देव) के शिष्यगण।

ज्यादा लिखा तो अपने आप को और स्टूप डाउन (stoop down) कराना होगा।

आप तो टिप्पणीकार जी की पोस्ट देखें!


Friday, October 19, 2007

एक फिल्मी पोस्ट: प्यार में बड़ी ताक़त होती है





वे देवनागरी लिपि के पत्रकार हैं। टीवी चैनल पर 'लीपते' रहते हैं। कल मिल गए। चेहरे पर खुशी की कई सारी सामानांतर रेखाओं के साथ। दुआ-सलाम के बाद मैंने पूछा; "क्या बात है, आज बड़े खुश नजर आ रहे हैं|"

बोले; "हाँ भाई, खुशी की बात तो है ही।"

मैंने पूछा; "क्या हुआ, राशन कार्ड बन गया क्या?"

बोले; "छोटा आदमी मुँह खोलेगा तो छोटी बात ही करेगा।"

उनकी बात सुनकर में स्पॉट पर ही दुखी हो लिया। लेकिन मेरी भी गलती नहीं थी। मुझे राशन कार्ड का बन जाना सबसे कठिन और खुशी देने वाला काम लगता है। फिर भी मैंने अनुमान लगाते हुए कहा; "शायद प्रधानमंत्री की इफ्तार पार्टी कवर कर आए हैं|"

बोले; "इफ्तार-उफ्तार तो कोई भी कवर कर लेता है। मैं तो कुछ और ही कवर कर आया आज|"

मेरी उत्सुकता बढ़ गई। मैंने कहा; "ठीक है। चलिए आप ही बता दीजिये।" मुझे डर था, कहीं एक और अनुमान लगाकर अपने छोटेपन का कोई और सबूत न दे डालूँ।

बोले; "तुमको नहीं मालूम? करीना कपूर और सैफ अली खान में प्रेम हो गया।"
मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने उनसे कहा; "लेकिन करीना कपूर तो रणधीर कपूर की बेटी हैं."
बोले; "तो क्या हुआ। रणधीर कपूर की बेटियों को प्यार करने की मनाही है क्या?"

मैंने कहा; "नहीं मनाही क्यों होगी. लेकिन ये करीना कपूर तो शाहिद कपूर के साथ प्यार करती थीं।"

उन्होंने कहा; "यही तो खुशी की बात है।अब वे शाहिद कपूर से नहीं सैफ अली से प्यार करती हैं।"

मुझे बड़ा अजीब लगा । कोई किसी से प्यार करे या किसी से प्यार तोड़े। इसमें टीवी वालों को खुशी क्यों होने लगी। मैंने उनसे पूछा; "तो इसमें आपलोगों को खुशी हुई, ये बात समझ में नहीं आई।"

बोले; "तुम समझ भी नहीं सकते । पूछो हम टीवी वालों से, हम कितने खुश हैं।"

मैंने वजह पूछी तो बोले; "ये करीना कपूर जब देखो टीवी चैनल पर शाहिद कपूर के साथ ही दिखाई देती थी। दोनों एक दूसरे की बड़ाई कर के जनता के साथ-साथ हमें भी बोर करते थे। पिछले तीन महीनों से फिल्मी दुनिया में कोई ख़बर ऐसी नहीं थी, जिसे बढ़िया कहा जा सके। ये तीन महीने की बोरियत आज जाकर ख़त्म हुई।"

मैंने कहा; "लेकिन फिल्मी दुनिया में और भी तो बढ़िया खबरें हैं। आजकल तो फिल्में भी हिट हो रही हैं। उसके बारे चर्चा कीजिये। भारतीय सिनेमा अब विदेशों में धूम मचा रहा है, उसके बारे में चर्चा कीजिये।"

बोले; "फिल्मों के बारे में चर्चा उतनी हिट नहीं होती जितनी फ़िल्म वालों के बारे में। जब से अमित जी ने अपनी किसानी वाली जमीन उस ग्राम सभा को वापस की है, उनके बारे में भी कुछ कहने का मौका नहीं मिल रहा था। शाहरुख खान की 'सिक्स पैक' वाली बाडी भी अब पुरानी हो चली थी। करन जौहर के बारे में सुन-सुन कर लोग बोर हो रहे थे। लेकिन सैफ अली खान और करीना ने प्यार करके हमें बचा लिया।"

मैंने कहा; "लेकिन आपको क्या लगता है। इन दोनों का प्यार कितने दिन चलेगा?"

बोले; "मुझे तो इन दोनों का प्यार सच्चा प्यार लग रहा है। तुमको मालूम है, दोनों में सच्चा प्यार कैसे हुआ?"

मैंने कहा; "नही, मुझे नहीं मालूम।"

बोले; "घर से आफिस और आफिस से घर। काम करते-करते मरो। इसके अलावा और कुछ जानते हो कि नहीं। तुम जैसे छोटे आदमी की जिंदगी में और है ही क्या।"

मैंने सोचा, ठीक ही तो कह रहे हैं। अपनी जिंदगी में और है ही क्या। फिर मैंने पूछा; "आपने बताया नहीं। कैसे प्यार हुआ इन दोनों के बीच में?"

बोले; "दोनों अफ्रीका में शूटिंग कर रहे थे। करीना के फैंस ने उन्हें घेर लिया। तब सैफ ने जाकर उन्हें बचाया। इस तरह दोनों में प्यार हो गया। और एक बात कहूँगा, कि इस तरह से होने वाला प्यार सच्चा प्यार है।"

मेरे मन में बात आई कि किस तरह हिन्दी फिल्मों में हीरो पहले किराए के गुंडों से हिरोइन को आतंकित करवाता है और बाद में उसकी रक्षा करके उससे सच्चा प्यार कर लेता है। मुझे लगा चलो टीवी वाले खुश हैं। जनता भी दो-तीन महीने खुश रहेगी। सैफ अली और करीना भी खुश होंगे। मैंने उनसे कहा; "अब समझ में आ गया आपकी खुशी का राज।"

बोले; "धमाका तो अभी बाकी है। आज हमारे चैनल ने उनके प्यार होने के उपलक्ष में एक पार्टी रखी है। हम सब जश्न मनायेंगे। हम तो ट्राई कर रहे हैं कि दोनों हमारे ही चैनल को पहला इंटरव्यू दें। अभी दोनों के समय के लिए और भी चैनल वाले लगे हुए हैं। दोनों ने अभी इंटरव्यू देने का रेट डिसाईड नहीं किया है। बाकी के चैनल भी कोशिश कर रहे हैं. लेकिन हम लोग उन्हें कुछ भी करके अपने चैनल पर ले आयेंगे।"

मैंने कहा; "जरूर ले आईये। हम भी देखेंगे। सवाल-जवाब का कार्यक्रम हो तो मुझे भी सवाल पूछने का मौका दीजिये। मैंने ख़ुद को टीवी पर नहीं देखा कभी।"

बोले; "जरूर जरूर। मैं तुमको बताऊँगा। अभी तो मैं जाता हूँ। आज पार्टी में जाने की तैयारी करनी है।" इतना कहकर वे चले गए।

मुझे महापुरुषों की बात याद आ गई; 'प्यार में बड़ी ताक़त होती है।'


Thursday, October 18, 2007

दिल्ली में दुर्गा-पूजा पर मार्क्स, लेनिन और सीपीएम





शिव कुमार मिश्र ने पश्चिम बंगाल में दुर्गा-पूजा पर साम्यवादी दल द्वारा पूजा उत्सव में शरीक होने का वर्णन किया है। ऐसा ही दिल्ली में होने जा रहा है।

बिजनेस स्टेण्डर्ड ने कल एक न्यूज आइटम में लिखा है कि दिल्ली में दुर्गा पूजा के दौरान चीन के सामान - टॉर्च से ले कर जलशोधकों (वाटर प्यूरीफायर) तक की स्टॉलें लगेंगी। उनमें पूजा छूट भी उपलब्ध होगी। "मार्क्स और लेनिन दुर्गा के दरवाजे पर आयेंगे"। यही नहीं कम्यूनिष्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के किताब के स्टोर भी लगेंगे पूजा पण्डालों में|

Marx

ऐसे एक स्टोर का उद्घाटन चित्तरंजन पार्क दुर्गा-पूजा मेला ग्राउण्ड में 17 अक्तूबर को बृन्दा कारत करेंगी (यानी कर चुकी होंगी)। वे सीपीएम की अकेली पॉलितब्यूरो मेम्बर हैं जो दिल्ली में रहेंगी। ये स्टॉल लाल रंग में रंगे होंगे। ऐसे चार स्टॉल प्लॉन किये हैं पार्टी ने दिल्ली में।

"दास केपीटल" कैपेटल में आ रहा है - पूजा पण्डालों में!


Tuesday, October 16, 2007

दुर्गा पूजा पर एक रिजेक्टेड निबंध





सूचना

सूचित किया जाता है कि, निम्नलिखित निबंध साल २००६ में दुर्गा-भक्तों द्वारा आयोजित निबंध प्रतियोगिता में रिजेक्ट कर दिया गया था। 'देवी-भक्तों' ने प्रतियोगिता की निबंध पुस्तिकाओं के मॉडरेशन का काम 'स्टैण्डर्ड एण्ड पूअर' को सौंपा था. जहाँ माडरेशन एजेंसी को बाकी के निबंध 'स्टैंडर्ड' के लगे वहीं ये निबंध उन्हें 'पूअर' लगा.

जहाँ स्टैण्डर्ड एण्ड पूअर का मानना था कि 'अगर इस निबन्ध को चुना गया और प्रसारित किया गया तो श्रद्धेक्स ('एस एंड बी लोकल इंडेक्स', यानी श्रद्धा और भक्ति का स्थानीय सूचकांक - सेंसेक्स से कंफ्यूज़ करें!) में 300 प्वाइण्ट की गिरावट तय है, वहीं देवी-भक्तों का मानना था कि 'किसी 'पापी' द्वारा लिखे गए निबंध को शामिल नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐसे निबंध पढ़ने से श्रद्धा स्खलित हो सकती है'.

आप लेख का अवलोकन कृपया उक्त राइडर के साथ करें:




पश्चिम बंगाल में दुर्गा-पूजा

दुर्गा-पूजा वैसे तो देश में एक त्यौहार की तरह मनाया जाता है, लेकिन पश्चिम बंगाल में इसे उद्योग का दर्जा मिल चुका हैअस्सी के दशक में राज्य से बाकी उद्योगों के ख़त्म होने के बाद सरकार और नागरिकों के सामने प्रश्न था कि कौन से उद्योग की स्थापना की जाय, जो राज्य से लुप्त होते उद्योगों का स्थान ले सकेइसी योजना के तहत दुर्गा-पूजा नामक उद्योग की स्थापना हुई. इस उद्योग के विकास के साथ-साथ इससे जुड़े बाकी के एंसीलरी उद्योगों का भी विकास हुआ. चन्दा उद्योग और गुंडा उद्योग इनमें से प्रमुख हैं. चन्दा उद्योग के विकास ने कालांतर में पूजा-उद्योगपतियों की चाल-ढाल और बोल-चाल पर भी गहरा प्रभाव डाला. हर साल दुर्गा-पूजा आने के क़रीब एक महीना पहले से ही इस उद्योग में काम करने वाले उद्योगपतियों और उनके कर्मचारियों की भाषा में अद्भुत बदलाव जाता है जिसका प्रभाव पूजा ख़त्म होने के क़रीब एक महीने बाद तक रहता है. इन लोगों के शब्दकोष में क़रीब दस से पन्द्रह गाली-सूचक शब्द जुड़ जाते हैं जो चन्दा उद्योग को चलाने में मदद करते हैं. जहाँ इन शब्दों से काम नहीं चलता वहाँ सामाजिक व्यवस्था में त्वरित बदलाव का सहारा लिया जाता है. जैसे अगर कोई 'पापी' मनुष्य पूजा के लिए मुँह माँगा चन्दा नहीं दे तो उसकी उचित धुलाई के साथ-साथ उसका सामजिक बहिष्कार किया जाता है. इसका परिणाम ये होता है कि मुहल्ले में रहने वाले लोग उससे बात नहीं करते और मुहल्ले का जनरल स्टोर्स उन्हें अपनी दूकान से सामान नहीं देता.

दुर्गा-पूजा के आने पर कलकत्ता शहर में लोकतंत्र उफान पर रहता हैपंडाल बनाने से लेकर नाच-गाने का कल्चरल प्रोग्राम बीच सड़क पर होता हैशहर की एक-चौथाई सडकों पर बसों और कारों का स्थान कुर्सी और शामियाने ले लेते हैंपूजा ख़त्म होने के बाद मूर्ति-भसान के सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए भी सडकों को पूजा उद्योगपतियों को सौंप दिया जाता है. मूर्ति-भसान के लिए जाते हुए जुलूस को देखकर अंतर्राष्ट्रीय संगठन भी इस बात से आश्वस्त हो जाते हैं कि पश्चिम बंगाल और देश में लोकतंत्र केवल जिंदा है, बल्कि आगे भी बढ़ रहा है.

दुर्गा-पूजा पर दुर्गा माँ और उनके परिवार के अपने सिंहासन पर विराजने का कार्यक्रम भी बड़ा निराला हैदुर्गा माँ अपने पूरे परिवार के साथ ट्रक-यात्रा कर पूजा पंडाल के द्वार तक कर रुक जाती हैंउन्हें ख़ुद आगे जाने की इजाजत नहीं हैआगे जाने के लिए उन्हें किसी रीमा सेन, राईमा सेन जैसे फिल्मी कलाकार या किसी नेता का परमिशन लेना पड़ता हैये लोग एक कैंची लेकर आते हैं और रीबन काट कर उन्हें आगे जाने की इजाजत देते हैंइन्हें कैंची लेकर आते देख कर प्रतीत होता है जैसे ये 'उदघाटक' दुर्गा माँ का रास्ता काटने आते हैंदुर्गा-पूजा के उद्घाटन पर साल २००५ तक केवल फिल्मी हस्तियों, क्रिकेट खिलाडियों और नेताओं की मोनोपोली थी. उनकी इस मोनोपोली को खत्म करने का काम पहली बार सन २००६ में हुआ जब कुरुक्षेत्र निवासी और अपनी 'कुआँ-यात्रा' के लिए मशहूर बालक 'प्रिन्स' ने कलकत्ते में कुछ पूजा पंडालों में जाकर उद्घाटन का काम किया.

पश्चिम बंगाल में दुर्गा-पूजा समय का भी सूचक होता हैसरकार के टेंडर से लेकर कलकत्ता कार्पोरेशन के सड़क के ठेके का टेंडर इसी मौसम में निकलता है. अगर कोई सड़क ख़राब हो जाती है तो लोग ये सोचकर संतोष कर लेते हैं कि 'इस पूजा को जाने दो, अगले पूजा में सड़क की मरम्मत हो जायेगी.' साथ-साथ कई सारे सामजिक परिवर्तन भी दृष्टिगोचर होते हैं. साल में ११ महीने १५ दिन तक दिखाई देने वाला जमादार अचानक सक्रिय हो जाता है. उसे दस दिन के काम का बक्शीश लेना रहता है. पूरे साल देर से अखबार देने वाला भी दस दिन के लिए अति सक्रिय हो जाता है. बक्शीश का सवाल जो है. अन्य परिवर्तनों में सबसे बड़ा परिवर्तन शराब की बिक्री में दिखाई देता है. साथ ही दवाईयों की बिक्री बढ़ जाती है क्योंकि शराब के साथ-साथ बिरियानी का सेवन अचानक बढ़ जाता है जिसकी वजह से दवाईयों की बिक्री बढ़ जाती है.

दुर्गा-पूजा अन्य लोगों के साथ-साथ वयस्क होते लड़कों के लिए भी अच्छे दिन लेकर आता हैपूरे साल शराब के सेवन का इंतजार कर रहे ये बच्चे अपनी शराब-सेवन की महत्वाकांक्षा को हकीकत में परिवर्तित होते देख पाते हैंशराब-सेवन के पश्चात पूजा परिक्रमा का आनंद लेते हैंआध्यात्मिकता और शराब की जुगलबंदी का ये ड्रामा देखने लायक रहता है. पूजा का इंतजार उन साम्यवादियों को भी रहता है जो साल भर जनता को बताते रहते हैं कि उन्हें देवी-देवताओं पर विश्वास नहीं रहता. ये साम्यवादी पूजा पंडालों के बाहर अपनी साम्यवादी साहित्य की दुकान खोलकर बैठ जाते हैं. अपनी बात जनता तक पंहुचाने के लिए इन्हें भी देवी दुर्गा के सहारे की जरूरत पडती है. ये मौसम टैक्सी वालों के लिए भी अच्छे दिन लेकर आता है. जो टैक्सी वाले पूरे साल ग़लत मीटर लगाकर जनता को लूटते हैं, इस मौसम में टैक्सी के मीटर ही बंद कर देते हैं और जनता से भाडे के साथ-साथ प्रीमियम भी चार्ज करते हैं.

बहुत सारे मामलों में दुर्गा-पूजा को नेताओं के नाम से भी जाना जाता है. कलकत्ते शहर में हमें सुब्रत मुख़र्जी का पूजा और सौमेन मित्र का पूजा के साथ-साथ और बड़े नेताओं के पूजा पंडाल के दर्शन होते हैं. इन नेताओं द्वारा आयोजित पूजा के बारे में सुनकर जनता को भ्रम हो जाता है कि 'यहाँ माँ दुर्गा की पूजा होती है या नेताओं की.' रोशनी का इंतजाम इतना विकट होता है कि सब कुछ साफ-साफ देखा जा सकता है.

लेकिन शायद माँ दुर्गा की आंखें इतनी भीषण रोशनी में चौधिया जाती हैं