लोकतंत्र के कई खंबे हैं. पहला है. दूसरा है. तीसरा है. चौथा भी है जो कभी-कभी पहला बनने की कोशिश करता है. सोमनाथ बाबू हाल के वर्षों में तीसरे के पहले बनने की कोशिशों से चिंतित दीखते थे. तीसरा इसलिए चिंतित रहता है कि पहला अपने स्थान पर दिखाई नहीं देता.
ऐसी चिंता अतिक्रमण को बढ़ावा देती थी.
ये तो खंबों की बातें हैं. लेकिन लोकतंत्र की नींव क्या है? नींव समय के हिसाब से बदलती रहती है. ऐसा केवल लोकतंत्रीय नींव में होता है. जैसे चुनाव के वक्त उल्लंघन ही असली नींव होती है. नेता चुनावी-मुद्रा में आया नहीं कि हलकान होते हुए उल्लंघन करने लगता है.
चुनावी-मुद्रा को किसी हालत में छायावादी दृष्टिकोण से मत देखिये. यह न सोचिये कि चुनावी-मुद्रा का मतलब चुनाव में बाँटीं जाने वाली मुद्रा से है. मेरे कहने का मतलब केवल इतना है कि चुनावों के दौरान नेता की मुख-मुद्रा भी तो बदलती रहती हैं. सुख-मुद्रा, मतलब करेंसी तो निकलने ही लगती है. मुद्राओं की कमी थोड़े न है.
आचार संहिता का उल्लंघन करने से साबित होता है कि लोकतंत्रीय व्यवस्था पक्की है. ऐसे उल्लंघन न हों तो पता ही न चले कि लोकतंत्र के सारे खंबे खड़े हुए हैं. सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा है.
अब देखिये न, नेता उल्लंघन करता है. चुनाव आयोग जवाब मांगता है. वकील मुकदमा दायर करता है. जज साहब एंटीसिपेटरी बेल देते हैं. मीडिया रिपोर्टिंग करता है. लोकतंत्र का वृत्तचित्र पूरा हो जाता है. ऐसी और कौन सी क्रिया होगी जिसकी वजह से लोकतंत्र के जिन्दा रहने का सुबूत मिलता है? मानते हैं न, कि नहीं होगी.
आनेवाले समय में आचार संहिता का उल्लंघन किसी भी नेता के बायोडाटा में एक ऐडेड एडवांटेज का सुबूत माना जायेगा. अब वो ज़माना धीरे-धीरे जा रहा है जब पार्टियाँ बदलने वाला नेता ही असली नेता होता था. अजीत सिंह जी तक को लोगों ने अब असली नेता मानने से इनकार कर दिया है.
आप पूछेंगे कि वो क्यों? इसका जवाब यह है कि वे बेचारे आचार संहिता का उल्लंघन नहीं कर पाते न.
आनेवाले समय में किसी भी नेता द्बारा आचार संहिता के उल्लंघन का रेकॉर्ड्स ही उस नेता को नए दलों के साथ जुड़ने का कारगर माध्यम बनेगा. नेता जी टिकट न पाकर असंतुष्ट होंगे तो किसी दूसरे दल में शामिल होने जायेंगे. जिस दल में जाना चाहेंगे उसके अध्यक्ष बोलेंगे; "कैसे लें आपको अपने दल में? आपने तो पिछले दो चुनावों में एक बार भी आचार संहिता का उल्लंघन नहीं किया?"
नेता जी यह सुनकर शरमा जायेंगे. हो सकता है मुंह लटका कर वापस आ जाएँ. यह भी हो सकता है कि बोल उठें; "ये तो हमसे गलती हो गई. लेकिन आप चिंता न करें, अब आपके दल में आ गए हैं तो अगले तीन-चार दिन में ही दस-बारह बार आचार संहिता का उल्लंघन कर डालेंगे. बस, आप हमें अपने दल में शामिल कर लें."
अध्यक्ष जी बोलेंगे; "लेकिन आपका भरोसा कैसे कर लें? कैसे मान लें कि आप जल्द ही आचार संहिता का उल्लंघन करेंगे?"
नेता जी बोलेंगे; "इतना तो विश्वास करना ही पड़ेगा आपको. आखिर मैं एक नेता हूँ. वैसे भी पहले में प्रतिक्रियावादी ताकतों के साथ था. अब मैं सेकुलर हो गया हूँ. जिसने विचार संहिता का उल्लंघन कर डाला, उसे आचार संहिता का उल्लंघन करने में कितनी देर लगेगी?"
अध्यक्ष जी यह सुनकर संतुष्ट हो जायेंगे. नेता जी को अपने दल में शामिल कर उन्हें सेकुलर बना डालेंगे.
कल्पना कीजिये कि कैसे-कैसे सीन देखने को मिल सकते हैं.
चुनाव प्रचार के दौरान पार्टी की मीटिंग हो रही है. चुनाव प्रभारी उपस्थित नेताओं को लताड़ते हुए कह रहे हैं; "लानत है. पंद्रह दिन हो गए आचार संहिता लागू हुए. विपक्षी पार्टियों के बत्तीस नेताओं ने संहिता का उल्लंघन किया. एक हमारी पार्टी है, जिसकी तरफ से एक बार भी उल्लंघन नहीं हुआ. ऐसे कैसे चलेगा?"
उपस्थित नेता सफाई देते हुए हलकान हो रहे हैं. एक नेता कह रहा है; "आप चिंता न करें. आज से ही हमारे नेता आचार संहिता का उल्लंघन करना शुरू कर देंगे."
चुनाव प्रभारी और खीज उठेंगे. बोलेंगे; " आचार संहिता का उल्लंघन सबसे पहले पैसा बांटने से शुरू होता है. फिर इलाके के कलेक्टर वगैरह को गाली देनी पड़ती है. विपक्ष के न जाने कितने नेताओं ने यह काम पहले ही कर डाला. अब चुनाव आयोग इन मामलों पर दृष्टि जमाये हुए है. हमारे हाथ से उल्लंघन करने के दो तरीके तो निकल गए न."
उपस्थिति नेताओं में से एक कहेंगा; " वो बात तो है. लेकिन अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. एक काम करते हैं. किसी कंसल्टेंट को हायर करके यह पता लगवाने की कोशिश की जाय कि अचार संहिता के उल्लंघन के लिए क्या-क्या काम किये जा सकते हैं जो बाकी पार्टियाँ नहीं कर रही हैं. जो पैसा लगेगा उसकी चिंता न करें. फंड की कमी नहीं है."
पार्टी किसी कंसल्टेंट को हायर करने की कवायद शुरू कर देगी. कंसल्टेंट स्टडी करके अचार संहिता के उल्लंघन के कुल पैंतालीस तरीके बता डालेंगे. वो भी लिखित. पार्टी के नेता खुश होकर उल्लंघन करना शुरू कर देंगे.
पार्टियों में एक अलग ही सेल होगा. जैसे पार्टी के माएनोरिटी सेल, मेजोरिटी सेल, इकनॉमिक सेल वगैरह होते हैं वैसे ही अचार संहिता उल्लंघन सेल होगा. इस सेल के हेड ऐसे नेता बनेंगे जिनके ऊपर चुनावों के दौरान अचार संहिता उल्लंघन के कम से कम पचास मामले पहले से दर्ज हों.
उल्लंघन करने की नीति को एक अलग ही आयाम मिलेगा. लोकतंत्र पुख्ता होता जायेगा. पुख्ता...और पुख्ता.
Friday, March 27, 2009
लोकतंत्र पुख्ता होता जायेगा. पुख्ता...और पुख्ता.
Monday, March 23, 2009
इलाके के लोग हमें पहचानते हैं.....
भारतीय चुनावों का इतिहास बहुत गौरवशाली रहा है. यह बात विद्वान बताते हैं. वैसे विद्वानों की मानें तो इतिहास ही हमेशा गौरवशाली रहता है. वर्तमान तो ख़तम और भविष्य खतम-तम रहता है. अब जो चीज गौरवशाली रहेगी, उससे तमाम किस्से वगैरह जुड़े ही रहेंगे. लिहाजा भारतीय चुनाव और लोकतंत्र में भी किस्से-कहानियों की भरमार है.
पुराने चुनावों को ही ले लीजिये. पहले सांसद बनने के इच्छुक नेता पार्टी अध्यक्ष के पास जाते थे. अध्यक्ष जी से कहते थे; "महोदय, हमें सासाराम से ही टिकट चाहिए."
अध्यक्ष जी के पूछने पर कि सासाराम से ही क्यों टिकट चाहिए, नेता जी बताते थे कि; "वो इसलिए महोदय, कि सासाराम में हमें सब जानते हैं. इलाके के लोग हमें पहचानते हैं."
कालांतर में कुछ वर्षों बाद ही भारतीय लोकतंत्र की 'पट-कथा' से यह सीन लुप्त हो गया. बाद में ऐसी कथा लिखी जाने लगी कि वोटर पटने से इनकार करने लगा. उनदिनों सांसद बनने का इच्छुक नेता पार्टी अध्यक्ष के पास जाता तो कहता; "महोदय हमें सासाराम से टिकट मत दीजिये."
अध्यक्ष जी के पूछने पर कि सासाराम से टिकट क्यों नहीं चाहिए, नेता जी बताते कि; "वो क्या है महोदय, सासाराम में हमें सब जानते हैं. इलाके के लोग हमें पहचानते हैं. इसलिए वहां से टिकट नहीं चाहिए हमें. आप चाहें तो हमें अंडमान का टिकट दे दीजिये. हम अंडमान से चुनाव भिड लेंगे लेकिन सासाराम से भिड़ने की सजा न दें प्रभो."
वैसे यह दौर भी ज्यादा दिनों तक नहीं चला. अगर चलता तो हम देख पाते कि सासाराम के भवानी पाण्डेय उर्फ़ राजा जी अंडमान से चुनाव लड़ रहे हैं. वहां के आदिवासियों को पटाते हुए कह रहे होते; "हम आपलोगों से वादा करते हैं कि आपलोगों के लिए हर साल हम मदिरा महोत्सव करवाएंगे. इसके लिए हम सरकार से एक अलग ही डिपार्टमेंट खोलवा देंगे."
अब तो टिकट वितरण समारोह में गजब-गजब सीन होते होंगे. सांसद बनने के इच्छुक नेता अब चिरौरी करते हुए कह रहे होंगे; " आप त कहे रहे कि मिनिमम क्वालिफिकेशन के तौर पर प्रार्थी के लिए तेईस मर्डर और चालीस किडनैपिंग जरूरी है. हमारे बायोडाटा में त हम डिटेल जानकारी दिए रहे कि हमारे ऊपर सत्ताईस मर्डर और उनहत्तर किडनैपिंग का केस चल रहा है. फिर भी आप हमरा अप्लिकेशन रिजेक्ट कर दिए."
अध्यक्ष जी कहते होंगे; "वो सब तो ठीक है. आप के पास मिनिमम क्वालिफिकेशन तो है. लेकिन जिनको टिकट मिल रहा है उनका क्वालिफिकेशन आपसे ज्यादा है. ऊपर से किडनैपिंग का उनका साम्राज्य कलकत्ता तक फैला हुआ है. पिछले साल ही उन्होंने कलकत्ते से आठ व्यापारी किडनैप करवाए थे. आपका किडनैपिंग साम्राज्य तो केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश तक फैला है. ऐसे में प्रिफरेंस तो उनको मिलना ही था."
कहीं पर सांसद बनने का इच्छुक नेता कहता होगा; "मैंने तो टिकटार्थी के नामों की घोषणा की तारीख से पहले ही पचीस लाख दे दिए थे. फिर भी टिकट महतो जी क्यों मिला?"
अध्यक्ष जी कहते होंगे; "आप पचीस दिए थे. लेकिन उन्होंने पूरे इकतालीस लाख दिए हैं टिकट के लिए. ऐसे में हम उनको टिकट नहीं देते तो उनके साथ अन्याय हो जाता. और लोकतंत्र में हम सबकुछ बर्दाश्त कर लेंगे लेकिन अन्याय कभी बर्दाश्त नहीं करेंगे."
कहीं पार्टी की चुनाव समिति के संयोजक कह रहे होंगे; "मैडम, ये फितूर जी चाहते हैं कि वे हमारी पार्टी में शामिल होकर नेता-गति को प्राप्त हो लें. आपका क्या कहना है? वैसे, मैडम पढ़े-लिखे आदमी हैं. पार्टी की ईमेज बनाने के काम आयेंगे."
"इनको कहीं से चुनाव लड़ने का तजुर्बा है?"; मैडम पूछती होंगी.
"काहे का तजुर्बा, मैडम? पिछले पचीस सालों से भारत में ही नहीं हैं. लेकिन चुनाव और लोकतंत्र पर किताब-विताब लिखा है, मैडम इन्होंने. हाँ, चुंनाव से याद आया मैडम, इन्होंने य़ूनाईटेड नेशन्स के सेक्रेटरी जनरल का चुनाव लड़ा था. देखा जाय तो तजुर्बा तो है, मैडम"; संयोजक जी बताते होंगे.
मैडम बोलती होंगी; "ठीक है. तब दे दीजिये."
"कहाँ का टिकट दूं मैडम?"; संयोजक पूछते होंगे.
मैडम सुनकर कहती होंगी; "कहीं से भी दे दीजिये. लेकिन यूपी, बिहार, दिल्ली वगैरह से मत दीजियेगा. जमानत जप्त हो जायेगी. एक काम कीजिये. इनको साउथ से कहीं का टिकट थमा दो. वैसे भी जीतना तो है नहीं, ऐसे में वहां का टिकट थमाओ जो जगह पढ़े-लिखे लोगों की चारागाह हो."
फितूर साहब को टिकट मिल जाता होगा. फितूर साहब त्रिवेंदम से चुनाव लड़ने के लिए नई टाई की खरीद के लिए निकल जाते होंगे.
कहीं-कहीं ऐसा भी सीन होता होगा.
संयोजक जी पार्टी अध्यक्ष के पास जाते होंगे. कहते होंगे; "अरे ऊ टिकट मांग रहा है."
अध्यक्ष जी कहते होंगे; "ऊ माने कौन?"
संयोजक कहते होंगे; "अरे ओही, रतीराम. आपके ऊपर चालीसा लिखा था न. ओही."
अध्यक्ष जी पूछते होंगे; "हमरे ऊपर त हर साले कोई न कोई चालीसा लिखता रहता है. ई कौन वाला है?"
संयोजक जी कहते होंगे; "अरे ओही, जिसको आप होल मीडिया के सामने 'आज का दिनकर' का उपाधी दिए थे."
अध्यक्ष जी कहते होंगे; "अरे उसको त पक्का ही टिकट दो. जो आदमी हमरे ऊपर इतना बढ़िया चालीसा लिख सकता है, उसको समाज को बदलने में जरा भी टाइम नहीं लगेगा."
'आज के दिनकर' को टिकट मिल जायेगा. वे दूसरे दिन से ही 'बन्दरकाण्ड' की रचना शुरू कर देंगे.
Saturday, March 21, 2009
चुरातत्व हीन पोस्टें
शिवकुमार मिश्र हलकायमान और हड़कायमान रहते हैं कि उनकी पोस्टें फलाने तिवारी छाप देते हैं अखबार में। छाप देना तो ठीक, उसमें कटपेस्ट का कमाल भी दिखाते हैं। और फिर लीपापोती में बुलशिट टिप्पणी करने की सीनाजोरी भी करते हैं।
हम ने तो कालजयी न लिखने का सवा आने का संकल्प कर रखा है – कुछ ऐसा लिखो ही मत जिसमें चुरातत्व हो। टीएसाआई (थेफ्टोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया) उसपर अपना अधिपत्य ही न जमा सके। जब वह तत्व ही न हो तो कौन छापेगा?!
लिहाजा हमें चिरकुट टाइम्स में अपने ब्लॉग के जिक्र का डंका पीटती पोस्ट भी न बनानी पड़ेंगी और उस अखबार के आठवें कॉलम के कोने का फोटो स्कैन कर ब्लॉग पर ठेलने से भी बच सकेंगे। पर क्या बतायें, शिव ने अपने लेखन का कमाल ऐसा जमा लिया है कि उन्हें पोस्ट की सज्जा या फोटो चेंपने की जरूरत ही नहीं महसूस होती। उनकी पोस्टें कालजयी छाप होती हैं। सुयोधन की डायरी कालान्तर में एमए/एमबीए में पढ़ाई न जाने लगे – बड़ी आशंका है मुझे!
खैर हास्य-व्यंग अपार्ट, मैने पाया है कि अखबार अपना स्पेस भरने को चुरातत्व पर या सरकारी प्रेस विज्ञप्तियों पर निर्भर रहते हैं। जितना प्रेम से मेहनत हम अपनी छोटी सी पोस्ट पर करते हैं, उसका एक आना भी इन अखबारों के अधिकांश स्क्राइब्स अपनी रिपोर्टिंग/स्टिंग/फीचर में नहीं करते।
मैं फिर चाहूंगा कि शिव कुछ बेकार छाप लेखन करने लगें, जिससे तुलनात्मक रूप से मैचिंग पोस्ट इस ब्लॉग पर ठेलने में मुझे झेंप न महसूस हो।
सुन रहे हो प्यारे भाई!
Friday, March 20, 2009
मौजत्व पर धोये...
विषय मिले या ना मिले, खुलकर मौज मनाय
मौज चौगुना हो रहा, विषय अगर मिल जाय
सतत मौज की बात तो, जैसे बरखा मास
आँखें निरखत मौज को देखि देखि आकाश
पूरी फुरसत जो मिले, मौज-पृष्ठ भरि जाय
फुरसत गर आधी मिले, खुला रहे अध्याय
आफिस टाइम कर रहा मौज बीच आघात
आधे में ही मौज को चले छोड़कर भ्रात
मौज-मौज तो सब करें, मौज लेय न कोय
मौज बड़ा ही कठिन है सबसे मौज न होय
मौज मिले तो समझ लें दिन सुन्दर बन जाय
मिले नहीं गर मौज तो भृकुटी फिर तन जाय
गर तनाव हो जाय तो, हो दिमाग जो बंद
मौज-नीति फालो करो, पाओ परमानन्द
उत्तम कछु नहि मौज से, सबका ये आधार
नहीं अगर यह पास तो, ले लो मौज उधार
पाठ पढ़े जो मौज का, ब्रह्मज्ञान वो पाय
जीवन में सबकुछ मिले, पेट-वेट भर जाय
सब तत्वों से बड़ा है दुनियाँ में मौजत्व
इसके आगे फेल हैं जीवन के हर तत्त्व
कानपुरी मौजत्व की बात निराली होय
इसके चक्कर जो पड़े खड़ा-खड़ा वो रोय
Wednesday, March 18, 2009
शर्म से होती है सत्ता-नीति को हानि
पिछली पोस्ट में मैंने लिखा था कि द्वितीय सर्ग के लिए तुकबंदी इकठ्ठा करने की कोशिश करूंगा. लीजिये, एक बार फिर डेढ़ सौ ग्राम तुकबंदी इकठ्ठा हो गई है. चुनाव-कथा के द्वितीय सर्ग के लिए. आप भी झेलिये.
शर्मराज ने आँखें खोली, और
शांत-मुख लेकर
बोले; "सुन लो भ्रात आज तुम
चित्त, कान सब देकर"
जिस रस्ते पर चलकर चाहो
सत्ता सुख को पाना
उसे चुनो और बुन डालो तुम
पक्का ताना-बाना
सच तो यह है आज राजसुख
उतना इजी नहीं है
इसे प्राप्त करने के हेतु ही
हर दल आज बिजी है
विकट सत्य को समझो कि यह
गठबंधन का युग है
विचलित न हो लोग कहें गर
'शठ-बंधन' का युग है
शर्म छोड़ कर शठ बन जाओ
खोजो और शठों को
अगर ज़रुरत हो तो चुन लो
कुछ धार्मिक मठों को
राजनीति हो अलग धर्म से
गीत सदा यह गाकर
प्राप्त करो सत्ता सुख को
'शठ-बंधन' धर्म निभाकर
शर्म से होती है सत्ता-नीति को हानि
....................शर्महीनता ही सत्ता-नीति का आधार है
एक बार शर्म छोड़ बेशर्म बन जाओ
................... और फिर देखो कैसे बढ़ता बाज़ार है
ले लो ज्ञान मुझसे और कूद पडो दंगल में
....................सत्ता पाने के लिए जुगत हज़ार है
बात सुनो भ्रात मेरी ध्यान-कान देकर तुम
....................तुम्हें ज्ञान देने को शर्मराज तैयार है
सबसे पहले बाँट डालो देशवासियों को तुम
....................इसके पश्चात अपने वोटर को चुन लो
कर समापन यह चुनाव पानी में उतारो नाव
...................वोटर को लुभाने के तरीके भी सुन लो
कर डालो वादे और खा डालो कस्में तुम
...................इन सारे तरीकों को शांत-चित्त गुन लो
इसके साथ पैसे और शराब का कम्बीनेशन हो
...................इसपे भी वोटर न रीझे, गुंडे भेज धुन दो
मुद्दा हो निकास का या आर्थिक विकास का हो
..................उसके बारे में भूल से भी मत बोलना
दलों का जो दलदल है उसको पहले निहारो
..................कितना कीचड़ है उसमें इसको तुम तोलना
अपने दल के कीचड़ को बाकी से तुलना कर
..................कसकर कमर को अपनी सीटों को मोलना
बारगेनिंग का कर हिसाब अगले की पढ़ किताब
..................उतरकर दलदल में तुम धीरे-धीरे डोलना
चुनाव के मंचों पर तो साथ में दिखना, परन्तु
..................विपक्षी के साथ भी तुम रखना रिलेशन
जाने कौन काम आये चुनाव परिणाम बाद
..................असली सत्ता सुख का ये पहला कंडीशन
इसके साथ-साथ याद रखना पहले पाठ को तुम
..................जिससे मिले एंट्री का क्वालिफिकेशन
नारों और गानों की लिस्ट तैयार कर
..................सुबह-शाम करते रहना उनका रेंन्डीशन
धर्मनिरपेक्षता पर खतरे की बातें करो
..................जो भी तुम चाहोगे वही हो जायेगा
देश को बचाने का रच डालो स्वांग गर
..................राजधर्म कोसों दूर पीछे रह जायेगा
सत्ता में आने के बाद भत्ता हड़प डालो
..................जनता हलकान हो पर प्लान फल जायेगा
धरते पकड़ते रहो दल और नेताओं को बस
..................राज करो पांच साल, देश चल जायेगा
साथी दल को संग लेकर लड़ लो चुनाव किन्तु
..................कहीं-कहीं उन्ही संग 'फ्रेंडली' कंटेस्ट हो
ट्राई कर लंगी मार उनको गिरा डालो
..................अगर उस सीट पर भी उनका इंटेरेस्ट हो
इससे भी न काम बने दो-चार कैंडीडेट खोज
..................उनको खड़ा करने का इंतजाम परफेक्ट हो
भ्रात सारे घात सीख उतरो मैदान में तुम
..................मेरी तरफ से तुमको आल द बेस्ट हो
शर्मराज की बात सुनी और लेकर उनका ज्ञान
बेशर्मी पर उतर गए और शुरू हुआ अभियान
Friday, March 13, 2009
वोट निंद्य है शर्मराज.....
आज बहुत दिनों बाद एक बार फिर से तुकबंदी इकठ्ठा करने की कोशिश की. करीब ढाई सौ ग्राम तुकबंदी इकठ्ठा हो गई. उसे ही ठेल रहा हूँ. आप झेलिये.
यह चुनाव कथा का प्रथम सर्ग है. कोशिश करूंगा कि द्वितीय सर्ग के लिए भी तुकबंदी इकठ्ठा हो.
वोट निंद्य है शर्मराज, पर,
कहो नीति अब क्या हो
कैसे वोटर लुभे आज फिर
पाँव तले तकिया हो
कैसे मिले हमें शासन का
पेडा, लड्डू, बरफी
किस रस्ते पर चलकर लूटें
चाँदी और अशर्फी
क्या-क्या रच डालें कि;
जनता खुश हो जाए हमसे
दे दे वोट हमें ही ज्यादा
हम फिर नाचें जम के
अगर कहो तो सेकुलर बन, हम
फिर महान हो जाएँ
नहीं अगर जंचता ये रस्ता
राम नाम हम गायें
अगर कहो तो गाँधीगीरी कर
त्यागी कहलायें
शासन के बाहर ही बैठे
जमकर हलवा खाएं
तुम कह दो तो गठबंधन कर
दें जनता को धोखा
तरह तरह के स्वांग रचें हम
मारें पेटी खोखा
कल तक जो थे साथ, कहो तो
साथ छोड़ दें उनका
नहीं समर्थन मिले हमें तो
हाथ तोड़ दें उनका
तुम कह दो तो एक कमीशन
बैठाकर फंसवा दें
अगर कहो तो खड़े-खड़े ही
पुलिस भेज कसवा दें
नीति-वीति की बात करे जो
उसका मुंह कर काला
भरी सड़क पर उसे बजा दें
हो जाए घोटाला
बाहुबली की कमी नहीं
गर बोलो तो ले आयें
उन्हें टिकट दे खड़ा करें, और
नीतिवचन दोहरायें
दलितों की बातें करनी हो
गला फाड़ कर लेंगे
बात करेंगे चावल की, पर
उन्हें माड़ हम देंगे
तुम कह दो तो कर्ज माफ़ कर
हितचिन्तक बन जाएँ
मिले वोट तो भूलें उनको
उनपे ही तन जाएँ
गठबंधन का धर्म निभाकर
पॉँच साल टिक जाएँ
आज जिन्हें लें साथ, उन्ही को
ठेंगा कल दिखलायें
किसे बनाएं मुद्दा हम, बस
एक बार बतला दो
जो बोलोगे वही करेंगे
तुम तो बस जतला दो
अगर कहो तो बिजली को ही
फिर मुद्दा बनवा दें
अगर नहीं तो सड़कों पर ही
पानी हम फिरवा दें
शर्मराज जो भी बोलोगे
हम तो वही करेंगे
शासन में रह मजे करेंगे
अपना घर भर लेंगे
Thursday, March 12, 2009
फॉर 'सेविंग' द ग्रेट इंडियन डेमोक्रेसी..?
यूपीए माइनस मुलायम सिंह रिजल्ट्स इन टू?
दस गाली एंड थ्री शेर.
पांच गाली बाई दिग्विजय सिंह
पांच गाली ऐंड थ्री शेर बाई अमर सिंह.
मुलायम सिंह प्लस थर्ड फ्रंट रिजल्ट्स इन टू?
थर्ड फ्रंट माइनस मायावती
थर्ड फ्रंट माइनस मायावती रिजल्ट्स इन टू?
एनडीए प्लस मायावती
एनडीए प्लस मायावती रिजल्ट्स इन टू
जयललिता लुकिंग ऐट अदर ऑप्शन्स
जयललिता लुकिंग ऐट अदर ऑप्शन्स मीन्स
आडवानी हैज सम होप
यूपीए माइनस शरद पवार रिजल्ट्स इन टू?
यूपीए माइनस वन प्राइम मिनिस्टरियल कैंडिडेट
थर्ड फ्रंट प्लस शरद पवार रिजल्ट्स इन टू?
थर्ड फ्रंट प्लस वन प्राइम मिनिस्टरियल कैंडिडेट
थर्ड फ्रंट प्लस वन प्राइम मिनिस्टरियल कैंडिडेट मीन्स?
थर्ड फ्रंट विद थ्री प्राइम मिनिस्टरियल कैंडिडेट
एनडीए माइनस नवीन पटनायक रिजल्ट्स इन टू
थर्ड फ्रंट प्लस नवीन पटनायक
थर्ड फ्रंट प्लस नवीन पटनायक रिजल्ट्स इन टू?
जेडीयू लुकिंग ऐट डिमांडिंग मोर सीट्स
थर्ड फ्रंट प्लस जयललिता रिजल्ट्स इनटू ?
करुनानिधि लुकिंग ऐट समथिंग डिफरेंट
एनडीए माइनस जेडीयू रिजल्ट्स इन टू ?
आडवानी ट्राइंग टू लुक सेकुलर
आडवानी ट्राइंग टू लुक सेकुलर मीन्स
जयललिता हैज सेकंड थाट
.................................................
.................................................
आल दीज इक्वेशंस रिजल्ट इन टू
डेमोक्रेसी बीइंग सेव्ड फॉर शेक ऑफ़........?
Monday, March 9, 2009
मेरे ब्लॉग के लेख किसी भी अखबार में छपने के लिए नहीं हैं.
हमारे राज्य पश्चिम बंगाल में एक रिवाज है जो प्रदेश की राजनीति को पिछले कई वर्षों से प्रभावित करता आ रहा है. आये दिन पूरा राज्य ही बंद और हड़ताल ग्रस्त हुआ रहता है. राजनीतिक दल जनता को डरा धमका कर बंद करने का पुण्य कार्य करते रहते हैं. दिन में पुण्य कार्य करके बंद करवा देते हैं और शाम को एक प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर नेता जी लोग जनता को धन्यवाद दे डालते हैं.
डरने के लिए नहीं. बंद को सफल बनाने के लिए.
मेरी हालत कल से ही कुछ ऐसी ही हो गई है. ऐसा क्यों है? इसे जानने के लिए आपको ये मेल पढ़ना पड़ेगा.
Manish Tripathi to me
show details 11:55 AM (6 hours ago) Reply
आदरणीय शिव जी,
दैनिक जागरण होली विशेषांक की प्रति आपको भेज रहा हूं। आपके योगदान के बिना इसकी परिकल्पना असंभव थी, आशा है भविष्य में भी आपका स्नेह एवं आशीर्वाद प्राप्त होता रहेगा।
होली की शुभकामनाओं सहित
सादर
मनीष त्रिपाठी
दैनिक जागरण
कानपुर
यह मेल मुझे दैनिक जागरण के फीचर डिपार्टमेंट के श्री मनीष त्रिपाठी ने भेजा है. मनीष त्रिपाठी जी दैनिक जागरण, कानपुर में हैं.
इन्होंने बिना अनुमति लिए मेरे लेख अपने अखबार के होली विशेषांक पर छाप दिए. मुझे शाम को पता चला कि ऐसा कुछ हुआ है. जब मैंने इनसे फ़ोन पर बात की तो इन्होंने मुझे बताया कि ये मेरे छोटे भाई जैसे हैं. ऐसे में अनुमति लेना इन्हें ज़रूरी नहीं लगा.
समझ में नहीं आता कि उत्तर प्रदेश वाले भाई और बहनों से इतने प्रभावित क्यों रहते हैं?
और यह है मनीष जी को लिखा गया मेरा मेल...
Shiv Mishra to Manish
show details 12:48 PM (7 hours ago) Reply
मनीष जी,
बहुत दुःख के साथ लिखना पड़ रहा है कि आपने और आपके अखबार ने जो भी किया वह मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगा. बिना किसी अनुमति के आपलोगों ने मेरे लेख छाप दिए. आपने फ़ोन पर मुझसे कहा था कि आप मेरी अनुमति लेकर ही कुछ छापेंगे और आपने ऐसा नहीं किया. मुझे यह तक पता नहीं चला कि मेरे कौन से लेख छपे हैं. मेरे लेख छपे हैं, इसकी जानकारी मुझे किसी और से मिलती है. लेख में क्या-क्या बदलाव किये गए, मुझे वह भी नहीं पता.
पिछले वर्ष भी बिना किसी पूर्व सूचना के आपने मेरे लेख से कई अंश निकाल दिए. आपलोग शायद यह सोचकर काम करते हैं कि एक बार छप गया तो कोई क्या कर लेगा? लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि अब से ऐसा बिकुल नहीं होगा. भविष्य में मेरे लेख किसी अखबार में नहीं छपेंगे.
मुझे समय नहीं मिला. समय मिलते ही मैं इस घटना पर एक पोस्ट लिखूंगा. आप देख लीजियेगा.
शिव
दैनिक जागरण देश के कोने-कोने में लोकतंत्र की रक्षा करने में जुटा हुआ है. लेकिन इसे चलाने वाले कैसे लोग हैं? ये लोग शायद यह सोचकर काम करते हैं कि; "एक बार छाप दो, छप गया तो स्साला कर भी क्या सकता है? दो-चार मिनट भुर्कुसायेगा. उसके बाद शांत हो जायेगा."
या फिर शायद यह सोचते होंगे कि; "हम मीडिया वाले हैं. देश हमीं से चल रहा है. लोकतंत्र की रक्षा के बहाने हम कुछ भी कर सकते हैं." या फिर यह कि एक ब्लॉग लिखने वाले की औकात ही क्या है? इसके लेख हम छाप रहे हैं ऐसे में इसे तो मेरा एहसान मानना चाहिए.
अखबार वाले बड़े पावरफुल लोग होते हैं. सुनते हैं इनसे बड़े-बड़े लोग डरते हैं. ये लोग सरकार से उठक-बैठक करवा देते हैं. मैं मानता हूँ कि सर्वशक्ति संपन्न लोग शक्ति के नशे में में छोटी-छोटी औपचारिकताएं भूल जाते हैं. लेकिन क्या नशा कुछ ज्यादा नहीं है?
कुछ महीने पहले इंदौर के एक अखबार ने भी बिना किसी पूर्व अनुमति के मेरे लेख छाप दिए थे.
मेल पढ़कर आपको लगेगा कि इन्होंने जिस तथाकथित सहयोग के लिए मुझे धन्यवाद दिया है, वही सहयोग लेने शायद फिर कभी आयें. लेकिन मनीष जी और तमाम अखबार वालों से मुझे यही कहना है कि मेरे ब्लॉग के लेख किसी भी अखबार में छपने के लिए नहीं हैं.
Friday, March 6, 2009
चिट्ठाकारों का गुझिया सम्मेलन- भाग २
....आगे का हाल
नीरज जी गजल सुना रहे थे. लगभग सारे चिट्ठाकार वाह वाह कर रहे थे. लेकिन जैसे ही उन्होंने शेर सुनाया कि;
हमारी तो समझ लेना उसी दिन यार तुम होली
बिपाशा हाथ से अपने खिलाये जब पकी गुझिया
फुरसतिया जी तड से बोल पड़े; "फिर तो समझ लीजिये कि आपकी होली हो चुकी. बिपाशा गुझिया पका दे, यह तो उसके इस जनम में होने से रहा."
फुरसतिया जी की बात सुनकर सब हंस पड़े.
शास्त्री जी बोले; "आप शायद ठीक कह रहे हैं. आधुनिकता का यह हाल है कि बहू-बेटियाँ हमारी संस्कृति की पहचान गुझिया तक को भूलती जा रही हैं. फिर भी मैं कहूँगा कि भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए बिपाशा को कोशिश तो करनी ही चाहिए."
अपना वक्तव्य ख़त्म करके शास्त्री जी ने कहा; "सस्नेह शास्त्री."
शास्त्री जी की बात सुनकर फुरसतिया जी ने कहा; " कोई फायदा नहीं है. फ़र्ज़ कीजिये कि बिपाशा गुझिया बना भी दे. क्या होगा उससे? वो तो जैतून के तेल में गुझिया पका डालेगी. डायट गुझिया. इतनी हैल्थ कांशस बच्ची है, ऐसे में वो तो चाहेगी कि मुनक्का, छुहाड़ा, किशमिश वगैरह भी 'लो कैलोरी' वाला रहे. ऐसी गुझिया खाकर होली मनाने से तो अच्छा है कि नीरज जी मेरी गुझिया खाकर होली मना लें."
फुरसतिया जी की इस बात पर सारे हो हो करके हंसने लगे.
नीरज जी को पता चल चुका था कि काव्यपाठ में तर्क ने व्यवधान डाल दिया. दुनियाँ भर में तर्क की वजह से न जाने कितनी कवितायें बनते-बनते रह गईं और न जाने कितनी पढ़ी नहीं गईं. तर्क ने विज्ञान को ही आगे बढाया. साहित्य को तो पीछे ढकेल दिया.
वे आगे का शेर पढ़ने की कोशिश करते हुए सबको चुप कराने लगे तभी किसी ने आवाज़ लगाई; "नीरज जी आपकी इस गजल को आपके गुरुदेव का आशीर्वाद तो मिला ही नहीं."
यह सुनकर नीरज जी बोले; "गुरुदेव का आशीर्वाद कैसे मिलता? आजकल वे हास्य गजलों को एडिट करने में व्यस्त हैं. चेले भी तो बहुत हो गए हैं अब."
उसके बाद फुरसतिया जी की तरफ देखते हुए बोले; "शुकुल जी, भाई हम तो आपकी गुझिया ही खा लेंगे. आपकी गुझिया कड़ी तो होती है, लेकिन उसमें स्माइली लगाकर आप सबकुछ बैलेंस कर देते हैं. वैसे भी बिपाशा की बनाई गुझिया की ऐसी भयानक तस्वीर आपने पेश की है कि उसकी गुझिया तो मैं खाने से रहा."
नीरज जी की बात पार फुरसतिया जी बोले; "असल में कड़ी गुझिया ज्यादातर फेंक कर मारने के काम आती है. ऐसे में स्माइली लग जाय तो लोग खाने के लिए तैयार हो जाते हैं."
उनकी बात सुनकर कुश बोले; "सत्य वचन सत्य वचन."
कुश की बात पर फुरसतिया जी का ध्यान उनकी तरफ गया. वे बोले; "तुम्हारी गुझिया कहाँ है? दिखाओ"
उनकी बात पर कुश बोले; "मेरी बनाई हुई गुझिया का आप केवल फोटो देख सकते हैं. मैंने एक ऐसा टेक्नालागिकल इनोवेशन किया है जिससे आप गुझिया के फोटो पर क्लिक करके असली गुझिया पर पहुँच जायेंगे."
कुश की बात पर सबने उन्हें बहुत सराहा. शायद फोटो वाली चिट्ठाचर्चा करते-करते यह आईडिया आया होगा. उनके इस इनोवेशन पर गुझिया इंसपेक्टर अनीता जी बहुत प्रभावित दिखीं. उन्होंने कुश को सलाह दी कि वे तुंरत अपनी इस खोज का पेटेंट करवा लें.
शास्त्री जी ने कुश को अनीता जी की सलाह मानने के लिए सजेस्ट किया. उन्होंने बताया कि कुश ने तुंरत पेटेंट नहीं करवाया तो पश्चिमी देश का कोई 'कुशाग्र बुद्धि' गुझिया कुक अपने नाम से इसका पेटेंट करवा लेगा.
किसी ने कुश की एक गुझिया खाकर उसे स्वादिष्ट बताया. अपनी गुझिया से प्रभावित होकर कुश ने घोषणा कर डाली कि "टोस्ट विद टू होस्ट" का नाम अगले सीजन में "गुझिया विद टू बुझिया" रख दिया जायेगा.
कुश की इस घोषणा पर सबने वाह वाह किया. कुछ तो वहीँ पर अगले सीजन के लिए बुकिंग कराने पर आमादा हो गए. सबसे ज्यादा उत्साह पूजा जी ने दिखाया. पूजा जी का उत्साह देखकर कुश ने उनसे पूछा; "पहले तुम बताओ, तुमने कितनी गुझिया बनाई?"
कुश के सवाल पर पूजा जी ने कहा; "मैंने बिलकुल अलग ढंग की गुझिया बनाई है. सबसे अलग गुझिया. असल में मैंने पुराने गुझिया रूल्स फालो नहीं किया. मैंने अपना नया गुझिया रूल्स बनाया. मेरी सारी गुझिया मेरे बनाए गए रूल्स के हिसाब से बनी हैं."
सब उत्सुक हो गए. यह जानने के लिए पूजा जी ने नए किस्म की कैसी गुझिया बनाई है? देखने पर पता चला कि उनकी बनाई गई गुझिया सचमुच अलग थी. मैदा की जगह मावा ने ले ली थी और जहाँ मावा रहना चाहिए वहां मैदा भरा हुआ था. किसी ने कहा; "ऐसी गुझिया को मान्यता नहीं मिलनी चाहिए."
"आपके कहने से कुछ नहीं होता. अपनी बनाई गुझिया के लिए मुझे गुझिया इंसपेक्टर से पहले ही सर्टिफिकेट मिल चुका है"; पूजा ने बताया.
कुश ने कहा; "सर्टिफिकेट पहले ही मिल चुका है! क्या करोगी इस सर्टिफिकेट का?"
"मुझे जब गुझिया पर डॉक्टरेट मिलेगा तब यह सर्टिफिकेट काम आएगा. वैसे गुझिया बनाने के साथ-साथ मैंने एक कविता भी लिखी है. सुनिए;
लड़की हूँ मैं
मुझे गुझिया मत समझना
मत समझना कि
गुझिया की तरह बंद हूँ मैं
लड़की हूँ मैं
मत समझना कि
मुझे ज़रुरत है
मैदे के किसी कवर की
उस कवर की
जो आंच बढ़ जाने पर टूट जाता है
उसकी ज़रुरत
गुझिया के मसाले को होती है
मुझे नहीं
लड़की हूँ मैं
गुझिया के मसाले में
लुप्तप्राय हो जाने वाला पोस्ता भी नहीं हूँ मैं
न ही मैं हूँ
गुझिया में छिपी हुई किशमिश
जिसका अस्तित्व
गुझिया के कवर में छिप जाता है
जो दिखाई नहीं देता
जिसे धूप भी घायल कर जाती है
वो किशमिश भी नहीं हूँ मैं
लड़की हूँ मैं
पूजा जी ने जैसे ही कविता पाठ ख़त्म किया, समीर भाई ने कहा; "सुन्दर अभिव्यक्ति. बधाई."
तबतक फुरसतिया जी बोले; "पूजा मैडम को टिप्पणी के साथ आप अपनी अति मीठी गुझिया भी दें."
फुरसतिया जी की बात सुनकर ज्ञान जी बोले; "अति मीठी साधुवादी गुझिया बोलिए."
फुरसतिया जी बोले; "सही है. सही है. समीर जी साधुवादी गुझिया का पेटेंट करवा लें."
....जारी रहेगा
Wednesday, March 4, 2009
चिट्ठाकारों का गुझिया सम्मलेन - भाग १
"बड़ी देर से कोशिश कर रहा हूँ लेकिन गुझिया पर स्माइली नहीं लगा पा रहा हूँ. इब क्या करूं?" फुरसतिया जी ने अपनी समस्या बताते हुए जैसे मदद की गुहार कर डाली.
"गुझिया पर स्माइली! समस्या तो है. इसके लिए तो शायद ई-गुरु से संपर्क करना पड़ेगा. आप चाहें तो मैं अंकित से पूछ कर बताता हूँ"; अजित भाई ने समाधान सुझाया.
"एक बार और कोशिश कर लेते हैं"; यह कहते हुए फुरसतिया जी स्माइली लगाने में लीन हो गए.
स्माइली लगाते-लगाते बोले; "भारत का मानचेस्टर कुली-कबाड़ियों का शहर न होकर हलवाइयों का शहर होता तो स्माइली लगाने में दिक्कत नहीं होती. किसी भी हलवाई को फ़ोन करके पूछ लेते."
अचानक अजित भाई से मुखातिब होते हुए बोले; "वैसे, गुझिया शब्द के सफ़र के बारे में कुछ बताएं";
होली के मौके पर गुझिया सम्मलेन में सारे चिट्ठाकार गुझिया बनाने की कोशिश में जुटे थे. डॉक्टर अनुराग के कहने पर होली के मौके पर किये गए इस सम्मलेन को क्षेत्रीय सम्मलेन न मानकर भारतीय सम्मलेन के रूप में आयोजित किया गया था.
लिहाजा पूरे भारत के चिट्ठाकार जुटे थे.
फुरसतिया जी द्बारा गुझिया शब्द के सफ़र के बारे में पूछे जाने पर अजित भाई उत्साहित हो गए. उन्होंने गुझिया शब्द के बारे में बताते हुए कहना शुरू किया; "गुझिया शब्द असल में संस्कृत की धातु...."
"लग गई स्माइली. लग गई स्माइली"; अचानक फुरसतिया जी उठकर चिल्लाने लगे. उन्हें देखकर लग रहा था कि आर्कीमीडीज ने यूरेका-यूरेका नामक गीत इसी राग में गाया होगा.
फुरसतिया जी की इस घोषणा पर समीर भाई बोल पड़े; "बहुत बेहतरीन स्माइली लगाई है भाई. इसके लिए आपको साधुवाद और बधाई."
"आपने बिना गुझिया पर स्माइली देखे कैसे जाना कि मैंने बेहतरीन स्माइली लगाई है?"; फुरसतिया जी ने समीर भाई से पूछ लिया.
फुरसतिया जी के अचानक किये गए इस सवाल से समीर भाई अकबका गए. थोड़ा संभले और कहा; " आप अपनी पोस्ट पर इतनी धाँसू स्माइली लगाते हैं. ऐसे में गुझिया पर भी धाँसू ही लगाया होगा."
फुरसतिया जी समीर भाई की बात से असहमत होते हुए बोले; "आपको मेरी पोस्ट और मेरी गुझिया में कोई अंतर दिखाई नहीं देता?"
"अंतर क्या होगा? जैसे पोस्ट पर मौज लेते हैं वैसे ही गुझिया पर भी मौज ही लिया होगा"; समीर भाई ने अपने निष्कर्ष पर पहुचने का कारण बताया. उनकी बात सुनकर सब हंस पड़े.
वैसे समीर भाई की टिपण्णी सुनकर फुरसतिया जी को लगा कि कहीं समीर भाई अपनी टिपण्णी को आगे बढ़ाकर कविता में परिवर्तित न करे दें. उन्हें इस बात का भी डर था कि एक बार टिपण्णी कविता बनी नहीं कि समीर भाई उसको गाने लगेंगे.
लिहाजा उन्हें रोकने की चाहत लिए फुरसतिया जी ने और ही बात छेंड़ दी. वे बोले; "और आप की बनाई गुझिया कहाँ है? दिखाइये."
फुरसतिया जी द्बारा बात को मोड़ दिए जाने से समीर भाई की टिप्पणी को कविता बनाने की कोशिश नाकाम हो गई. वे बोले; "मैं गुझिया बनाना चाहता था लेकिन भाई लोगों ने मेरे मसाले में उतनी ही चीनी डाली है जितनी दूसरों के. मेरी गुझिया दूसरों से ज्यादा मीठी नहीं होगी तो मेरे लिए गुझिया बनाना संभव नहीं होगा."
"ये तो ठीक बात नहीं है"; ताऊ जी ने समीर भाई की बात को उठाते हुए कहा. इधर-उधर देखते हुए ताऊ जी ने बीनू फिरंगी को आवाज़ देते हुए कहा; "ओय बीनू, कठे है तू?"
उनकी बात सुनकर बीनू फिरंगी दौड़ते हुए आये. बोले; "मैं तो अठे ही था ताऊ. बता, के काम है?"
"काम ये है कि जल्दी से आधा किलो चीनी ले आ और समीर जी के मसाले में डाल"; ताऊ जी ने बीनू फिरंगी को निर्देश देते हुए कहा.
"अभी लाया ताऊ"; कहते हुए बीनू फिरंगी चीनी लाने दौड़ पड़ा.
समीर भाई के लिए चीनी का इंतजाम हो रहा था कि ज्ञान जी आ गए. उन्हें देखकर ताऊ जी बोले; "भाई, सही बात है. समीर जी की गुझिया बाकियों से मीठी तो होने ही चाहिए. वैसे ज्ञान जी, आपका तो ये दूसरा गुझिया सम्मलेन होगा?"
"हाँ, ये मेरा दूसरा गुझिया सम्मलेन है. पिछले साल मैंने करीब तीन सौ गुझिया बनाई थी. इस बार पता नहीं उतना बना पाऊँगा कि नहीं"; ज्ञान जी ने उनके द्बारा अटेंड किये गए गुझिया सम्मेलनों के बारे में बताया.
" अरे क्यों नहीं होगा? बिलकुल होगा जी. इस बार भी आप उतनी ही गुझिया बनायेंगे. आपकी गुझिया तो ब्लॉग-जगत की पहचान बन गई है"; ताऊ जी ने उनका हौसला बढ़ाते हुए बताया.
उनकी बात सुनकर ज्ञान जी कहा; "कोशिश रहेगी जी. लेकिन समस्या एक ही है. कभी-कभी लगता है कि एक ही तरह की गुझिया बनाते-बनाते गुझिया का मसाला ही ख़तम हो जायेगा."
ज्ञान जी की बात पर फुरसतिया जी ने मौजाते हुए कहा; "आप तो केवल गुझिया बनाईये. वैसे भी जब आपको लगे कि एक ही तरह की मीठी गुझिया बनाते-बनाते बोर हो रहे हैं तो दो-चार दर्जन नमकीन गुझिया बना डालिए."
फुरसतिया जी की बात सुनकर सब हंस पड़े.
तबतक डॉक्टर अनुराग आ धमके. सबको देखकर बोले; " अच्छा हुआ आप सब ने गुझिया सम्मलेन को क्षेत्रीय नहीं बनाया. वैसे गुझिया है भी बड़े मजे की चीज. तरह-तरह के आकार की गुझिया. ये त्रिभुजाकार गुझिया देखकर मन में आता है जैसे बनाने वाले ने त्रिवेणी लिख दी हो."
त्रिवेणी की बात आते ही फुरसतिया जी का मौजत्व कुलांचे मारने लगा. अनुराग जी से मुखातिब होते बोले; "और वो पैराबोलिक गुझिया को देखकर मन में क्या आता है?"
अनुराग जी इस सवाल के लिए तैयार नहीं थे. अचानक किये सवाल से अदबदा गए. कुछ सोचकर बोले; "उन गुझिया को देखकर मन में आता है जैसे किसी ने नज़्म लिख दी है."
अनुराग जी की बात सुनकर कुश ने टिप्पणी दे मारी. बोले; "आप हमेशा दिल की बात कहते हैं जी. इसीलिए तो हम आपकी त्रिवेणी और नज्मों सॉरी आपके गुझिया के दीवाने हैं."
कुश की बात सुनकर अनुराग जी यादों में खो गए. बोले; "हॉस्टल में रहते हुए एक बार गुझिया बनाने की कोशिश की थी. जाट के साथ बाईक पर सामान लाने गए थे. जितने पैसे लेकर निकले उनमें से एक पैकेट सिगरेट...."
अनुराग जी यादों में खोये ही थे कि कविता जी आ गईं. उन्हें देखकर फुरसतिया जी बोले पड़े; " कविता जी, आपने कितनी गुझिया बनाई? कहाँ हैं आपकी बनाई हुई गुझिया?"
फुरसतिया जी की बात सुनकर कविता जी ने सफाई देते हुए कहा; "गुझिया तो हमने बनाई है लेकिन उसे बक्शे में रखकर ताला लगा दिया है. आपको पता है कि नहीं, गुझिया चोरी की कई घटनाएं हो चुकी हैं?"
"ठीक ही किया आपने. ये चोर लोग पता नहीं कब सुधरेंगे? हमने भी जितनी गुझिया बनाई थी, सबको बंद करके ताला लगा दिया है"; अचानक डॉक्टर अमर कुमार बोल पड़े.
डॉक्टर साहब की बात सुनकर फुरसतिया जी पूछ बैठे; "आपने गुझिया बनाई? कब बनाई, मैंने तो आपको गुझिया बनाते देखा ही नहीं?"
फुरसतिया जी की बात सुनकर डॉक्टर साहब ने बताया; "मैंने तो तीन बजे सुबह ही उठकर करीब अस्सी गुझिया बना ली थी. वैसे आप देखना चाहेंगे क्या?"
सबकी उत्सुकता बढ़ गई. सबने एक साथ गुझिया देखने की फरमाईस की. डॉक्टर साहब ने ताला खोलकर जब गुझिया दिखाया तो सब हंसने लगे. एक से बढ़कर एक डौल, सुडौल, बेडौल गुझिया थी. डॉक्टर साहब बोले; "मैं तो ऐसी ही गुझिया बनाता हूँ. बेबाक गुझिया. आपको आकार पसंद न आये तो मैं क्या करूं?
गुझिया पर्यवेक्षण करते हुए अरविन्द जी बोले; "डॉक्टर साहब की बनाई गुझिया देखकर एक बार फिर से साबित हो गया की गुझिया के विकास का इतिहास सचमुच बड़ा रोचक था."
"गुझिया के विकास का भी कोई इतिहास है क्या?"; अचानक फुरसतिया जी पूछ बैठे.
फुरसतिया जी की बात सुनकर अरविन्द जी को लगा कि अब गुझिया पर्यवेक्षण ढंग से कर दिया जाय. वे बोले; "असल में शुरुआती रूप को देखा जाय तो शुरू-शुरू में गुझिया गोलाकार होती थी. जैसे बाटी होती है. लेमार्क ने इस विषय पर अपनी पुस्तक "आधुनिक गुझिया का विकास" में लिखा है...."
तबतक फुरसतिया जी बोल पड़े; "बड़े मौजी लोग थे ये लेमार्क और डार्विन. भाई गुझिया तक को नहीं छोडा! उसके विकास का भी इतिहास लिख डाला?"
उनकी इस बात पर शास्त्री जी बोले; " गुझिया पर अगर अंग्रेजी में किताब लिखी गई है तो मैं गुझिया नहीं बनाऊंगा. मैं हर वो चीज नहीं करूंगा जो अंग्रेजी से किसी भी तरह जुड़ी हो."
शास्त्री जी की बात सुनकर फुरसतिया जी बोले; " कोई भी भाषा बुरी नहीं होती. गुझिया के बारे में अगर अंग्रेजी में लिखा गया है तो इससे तो भारतीय संस्कृति को बढ़ावा ही मिला होगा."
शास्त्री जी फुरसतिया जी से प्रभावित नहीं हुए. बोले; "मैं आपसे सहमत नहीं हूँ. इस विषय पर आपसे शास्त्रार्थ करने के लिए भी तैयार हूँ. आप मानिए कि एक बार किसी चीज की अंग्रेजी हो गई तो आधुनिकता में सराबोर लोग पब में भी गुझिया बेचने लगेंगे. मेरा तो मानना है कि...."
शास्त्रार्थ की बात सुनकर सबने विमर्श के महत्व पर टिप्पणी दे डाली.
शास्त्रार्थ और विमर्श जैसी भारी-भरकम चीजों से दूर नीरज गोस्वामी जी एक जगह कागज़ सामने रख पेंसिल को दांत तले दबाये आसमान पर ताक-झाँक कर रहे थे. उन्हें देख किसी ने आवाज़ लगाईं; "नीरज जी, आप गुझिया नहीं बना रहे हैं?"
वे बोले; "अभी तो मैं फिलहाल गुझिया पर गजल लिख रहा हूँ. लगभग मुकम्मल हो चुकी है. मुलाहिजा फ़रमाएँ"; इतना कहते हुए उन्होंने गजल पढ़नी शुरू कर दी...
गज़ब की ये मिठाई है कहें जिसको सभी गुझिया
बिना मावा भरे किसकी बता अच्छी बनी गुझिया
कभी तुम भूल कर मत देखना इसको हिकारत से
अगर किस्मत में हो लिख्खी तभी मिलती सही गुझिया
हमारी तो समझ लेना उसी दिन यार तुम होली
बिपाशा हाथ से अपने खिलाये जब पकी गुझिया
... जारी रहेगा.
गुड आईएसआई और बैड आईएसआई.
- जनाब, दहशतगर्दों ने क्रिकेटरों पर हमला कर दिया, जनाब.
- क्रिकेटरों पर हमला कर दिया! चलो उन्हें भी नया टारगेट तो मिला. वैसे भी और कोई बचा नहीं था हमले करने को. होटल, मोटेल, आर्मी, स्कूल वगैरह पर हमला करके ये बेचारे भी बोर हो गए होंगे.
- वो तो ठीक है जनाब. बोरियत की बात तो समझ में आती है. लेकिन अब क्या किया जाय जनाब?
- क्या किया जाय? हम क्या कर सकते हैं? पूछो कि क्या कहा जाय?
- मेरा मतलब वही था जनाब.
- स्टेटमेंट दे दो कि हम हिन्दुस्तान के साथ मिलकर दहशतगर्दी को ख़त्म करना चाहते हैं.
- हिन्दुस्तान के साथ मिलकर? लेकिन जनाब हमला तो श्रीलंका के क्रिकेटरों पर हुआ है.
- तो कह दो हम श्रीलंका के साथ मिलकर दहशतगर्दी को ख़त्म करना चाहते हैं.
- श्रीलंका के साथ हम कैसे मिलेंगे जनाब? पड़ोसियों के साथ तो आजतक मिल नहीं सके. ऐसे में श्रीलंका....
- तुम कैसे अमले हो? तुम्हें ये भी पता नहीं कि जिस देश के ऊपर हमला होता है हमें उसी के साथ मिलकर दहशतगर्दी के खिलाफ लड़ाई लड़नी है?
- माफ़ी जनाब. मैं असल में आफिसियल स्टैंड के बारे में भूल गया था, जनाब.
- ऐसे भूलोगे तो कैसे चलेगा. कैसे भूल गए कि अमेरिका के ऊपर हमला हुआ तो हम अमेरिका के साथ मिलकर दहशतगर्दी को ख़त्म कर रहे हैं. हिन्दुस्तान के ऊपर हमला हुआ तो.....
- जी समझ गया जनाब. बिलकुल समझ गया. और क्या कहना है जनाब?
- कह दो कि इस हमले में इंडियन एजेंसी का हाथ है.
- ज़रूर जनाब. जो हुकुम जनाब.
- पहले पूरी बात सुनो. केवल इंडियन एजेंसी का हाथ कहने से नहीं चलेगा. कह दो कि बरामद असलहों पर हिन्दुस्तान का मार्क है.
- ऐसा कहना ठीक होगा जनाब? मेरा मतलब कौन से मार्क होने की बात करें जनाब?
- कह दो कि असलहों पर आई एस आई का मार्क है.
- आई एस आई, इससे तो हमारे मुल्क का नाम बदनाम हो जायेगा जनाब?
- बेवकूफ हो तुम. आई एस आई का मार्क हिन्दुस्तान का है.
- लेकिन कन्फ्यूजन तो होगा न जनाब?
- कोई कन्फ्यूजन नहीं होगा. जैसे गुड तालिबान और बैड तालिबान, वैसे ही गुड आई एस आई और बैड आई एस आई.
Monday, March 2, 2009
पंद्रहवीं लोक सभा का चुनाव - पिंटू जी की रिपोर्टिंग
लोकसभा के चुनावों की तैयारियां चल रही हैं. जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आते जायेंगे, पूरा देश ही चुनावग्रस्त होता जायेगा. मजे की बात यह कि बच्चों के स्कूल के इम्तिहान भी नज़दीक आ गए हैं. ऐसे में मास्टर साहब लोग बच्चों को चुनाव के तैयारियों पर निबंध लिखने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं.
अगर आपके मन में यह सवाल उठे कि छोटे-छोटे बच्चों से चुनाव और राजनीति के ऊपर निबंध लिखवाना तर्कसंगत नहीं होगा तो मैं इतना ही कहूँगा कि हमारे देश में इम्तिहान का मतलब यह पता लगाना नहीं होता कि विद्यार्थी क्या-क्या जानता है? मास्टर साहब लोग यह पता लगाने की कोशिश करते हैं कि विद्यार्थी क्या-क्या नहीं जानता?
यही कारण है कि कक्षा तीन-चार से लेकर सात-आठ तक के छात्रों को इन चुनाव की तैयारियों पर निबंध लिखने के लिए शिक्षक दबाव डाल रहे हैं.
प्रस्तुत है कक्षा चार के एक छात्र पिंटू जी का लिखा एक निबंध.
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शोकसभा के नावों के लिए ऐयारी चल रही है. नेता लोग अपने-अपने आग-लश्कर के साथ ऐयार हो रहे हैं. धानमन्त्री जी तबियत खराब होने के बावजूद नाव प्रचार में टुट गए हैं. हर टोस्टर पर उनका ही मोटो लिखाई दे रहा है. सारे मंत्री रोज शिला-नाश कर रहे हैं.
हर ताजनीतिक बल भत्ता पर काबिज होना चाहता है.
ऐयारियों का हाल यह है कि सारे मंत्री ईजी हो गए हैं. तेल मंत्री ने परसों ही पटना में हमाम परियोजनाओं का बनावरण किया. उन्होंने नावी पोषनाओ के बारे में बताते हुए कहा कि पूरे प्रदेश में लड़कों को चौड़ा किया जायेगा. वे बता रहे थे कि ओजगार के साधन बढ़ाये जायेंगे.
राष्ट्रीय बनता दल वालों को विश्वास है कि उनकी पार्टी के यक्ष इस बार धानमन्त्री बनेंगे. यक्ष जी ने इन फाहों को चिराधार बताया. उन्होंने बताया कि वे जानते हैं कि वे धानमन्त्री बनेंगे लेकिन कब बनेंगे नहीं मालूम. एक साक्षात्कार में उन्होंने गाया कि; "वन डे ताई विल बिकम प्राईम सिनिस्टर."
टीवी वाले तेल मंत्री के कहे का तलब निकाल रहे हैं.
खाद्यान्न मंत्री का नाम भी धानमन्त्री के रूप में सामने आ रहा है. उन्होंने भी इन फाहों को चिराधार बताया.
बाजा टीवी विज्ञापनों के अनुसार तर प्रदेश में जुर्म एक बार फिर से दम हो गया है. टीवी विज्ञापनों के अनुसार जुर्म दम होने का कारण यह है कि सबके पास 'उनका' साथ है. शोकसभा नावों में हमेशा से महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे इस प्रदेश में ऐयारी 'जोरों' के हाथ दिख रही हैं. तर प्रदेश की मुख्यमंत्री यावती जी ने भी ऐयारियों में कोई कसर नहीं छोड़ी है. उन्होंने हाल में (और पार्क में भी) अपनी तिमा का बनावारण किया.
उधर बिहार से केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल मंत्री श्री सवान जी भी ऐयारी में टुट गए हैं. तर प्रदेश के अपूर्व मुख्यमंत्री यम सिंह जी भी धानमन्त्री बनने के लिए तन बनाये बैठे हैं. इस शोकसभा के गाठन के बाद देश को ढेर सारे धानमन्त्री मिलने की उम्मीद है.
रतीय जनता पार्टी शोकसभा के नावों के लिए मुद्दे की लाश में टुटी है. एक्सपर्ट लोग बता रहे हैं कि यह पार्टी इस बार आम को मुद्दा नहीं बनाएगी. शायद अब इस मुद्दे में दम नहीं रहा. अब यह मुद्दा पार्टी के लिए नोट निश्चित नहीं कर सकता.
पंद्रहवीं शोक सभा के गठन का दाम नावों के परिणाम आने के बाद शुरू हो जायेगा. क्षिण भारत के चारों प्रदेश के नेता-पण हर बार की तरह इस बार भी हंगामा करने के लिए तन बनाये बैठे हैं. सान्ध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री शिष्टाचार के रोपों से बिंध चुके हैं. इन रोपों की वजह से उन्हें कई बार दिल्ली में जिरी बजानी पड़ी है.
ऐयारियों में टुटे ये नेता इसबार गोली कैसे मनाएंगे, ये देखने वाली बात होगी. नाव आयोग ने गोली के मौसम में नावों की पोषना करके नेताओं को किल में डाल दिया है. तुछ नेताओं का मानना है कि अप्रैल महीने में होने वाले क्रिकेट मैच नावों को प्रभावित कर सकते हैं. तुछ नेताओं ने इसका तोड़ काल लिया है. वे क्रिकेट खिलाडियों से ही नाव प्रचार करवाने की राख में हैं.
अमावस्या केवल नेताओं की नहीं है. अभनेता भी अमावस्या में फंसे हैं. इलम की हूटिंग में फंसे अभिनेता नाव प्रचार के आम कैसे खाएँगे, यह भी देखने वाली बात होगी.
इतनी ऐयारी के बावजूद अभी तक नावी मुद्दे तय नहीं हुए हैं. तुछ नेता जली, तड़क और पानी को मुद्दा बता रहे हैं तो तुछ दुर्गति और आर्थिक निकास को मुद्दा बनाने की राख में हैं. हास पर नज़र डालें तो पता चलता है कि ये मुद्दे हमेशा से खले आ रहे हैं. पहली शोक सभा में भी यही मुद्दे थे और पंद्रहवीं में भी यही मुद्दों को सही मुद्दे ताया जा रहा है.
पंद्रहवीं शोकसभा के नावों पर बार और टीवी के पत्रकार बृष्टि बनाये हुए हैं. टीवी के नल डिस्कशन से लगता है जैसे शंकु शोकसभा होने की भावना है. बार के वाददाताओं की माने तो शोकसभा के नावों से सोचक समीकरण भरेंगे.