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Sunday, September 30, 2007

स्वराज मुखर्जी के भ्रम के सेतु





मुझे आलोक पुराणिक जी से बड़ी इर्ष्या होती है। इर्ष्या भी केवल इसलिए कि उन्हें न जाने कितनी बार बीए के उन छात्रों का परीक्षा में लिखा हुआ निबंध मिल जाता है, जिन्होंने हिन्दी के पेपर में टाप किया है। फिर मैं ये सोचकर ख़ुद को समझा लेता हूँ कि पुराणिक जी तो ख़ुद शिक्षक हैं, और शिक्षक को परीक्षार्थी का लिखा निबंध आसानी से उपलब्ध हो ही सकता है.

लेकिन ऐसा कुछ मेरे साथ भी हुआ.पिछले दिनों कलकत्ते में बहुत बरसात हुई और कई घरों में पानी घुस गया। मुझे सड़क पर जमे पानी पर तैरती एक चिट्ठी के दर्शन हुए, जो किसी स्वराज मुख़र्जी नामक नौजवान ने भारत सरकार को लिखी थी. अब इस नौजवान ने परीक्षा में निबंध लिखा होता, तो मैं पता लगाने की कोशिश करता कि उसने परीक्षा में टाप किया या नहीं. लेकिन बात चिठ्ठी की थी सो मैंने ऐसी कोई कोशिश नहीं की. प्रस्तुत है उस चिट्ठी का हिन्दी अनुवाद.

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आदरणीय भारत सरकार,

मैं यहाँ पर कुशल पूर्वक हूँ और आपकी कुशलता की कामना प्रकाश करात जी से करता हूँ। अखबारों की रपट देखकर आपकी कुशलता के बारे में संदेह बना हुआ है. वैसे सच कहूं तो मेरी कुशलता में भी पिछले दिनों भ्रम की मिलावट हो गई है. कह सकते हैं कि इस मिलावट की वजह से मेरी कुशलता भी आधी रह गई है. इंसान भ्रमित होगा तो भ्रम को दूर करने का प्रयास भी करेगा. इसी प्रयास का परिणाम है ये चिट्ठी, जो मैं आपको लिख रहा हूँ.

सरकार, मेरे मन में भ्रम की उत्पत्ति के कारण बहुत से हैं। पहला कारण है आपका 'राम-सेतु तोड़ अभियान'. भाग्यविधाता, मन में भ्रम इस बात को लेकर है कि आपने अपने इस प्रोजेक्ट का नाम 'सेतु-समुद्रम' क्यों रखा. मुझे समझ में नहीं आया कि आप समुद्र पर सेतु बनाना चाहते हैं, या पहले से बने हुए सेतु को नष्ट करना चाहते हैं. अगर सेतु बनाना चाहते हैं, तो उसकी उपयोगिता मुझे समझ में नहीं आई, क्योंकि पानी में चलने वाले जहाज सेतु के ऊपर से होकर गुजरते हैं, इस बात पर मुझे संदेह है. अगर आप सेतु तोड़ना चाहते हैं, तो इसका मतलब आप स्वीकार कर रहे हैं कि वहाँ पर एक सेतु पहले से था. कौन सी बात सच है, मैं फैसला नहीं कर पा रहा हूँ. अगर मेरे इस भ्रम को दूर कर सकें, तो बड़ी कृपा होगी.आपने हलफनामा देकर कहा कि राम नहीं थे, इसलिए राम-सेतु के होने का सवाल ही नहीं है। सरकार, ये क्या किया आपने? पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री राजीव गाँधी ने अयोध्या के जिस सबसे प्रसिद्ध ताले को खुलवाया था, वो क्या किसी के घर का ताला था? उन्हें राम पर विश्वास नहीं था? आपने सुप्रीम कोर्ट में दिए गए हलफनामे को वापस ले लिया. लेकिन भ्रम अभी भी बना हुआ है कि आपने क्या मान लिया कि राम थे. आप तीन महीने के बाद एक और हलफनामा दाखिल करेंगे. ये तीन महीने का समय क्यों माँगा आपने? क्या सीबीआई की जांच बैठायेंगे? और सीबीआई भी क्या जांच करेगी. राम के बारे में उसे दस्तावेज कहाँ से मिलेंगे? बीस साल हो गए, बोफोर्स मामले की जांच करते. जहाँ दस्तावेज मौजूद हैं, वहाँ तो सीबीआई कुछ कर नहीं पाई, यहाँ, इस मामले में क्या कर सकेगी? कहीँ तीन महीने का समय इस लिए तो नहीं माँगा, क्योंकि आपके पास हलफनामा टाईप करने वाले नहीं हैं?

आपने बताया है कि इस सेतु के रहने से पैसे, तेल और समय का बड़ा नुकसान वगैरह होता है। किसके पैसे का नुकसान होता है? आपके राज्य में पैसे के नुकसान का सबसे बड़ा कारण क्या ये सेतु ही रह गया है? मेरी समझ में आता है कि अगर 'जहाजी कम्पनीयों' का नुकसान हो रहा है तो वे कहीँ न कहीँ से वसूल कर ही लेंगे. हाँ, अगर सरकार का नुकसान हो रहा है तो आपको क्या फिक्र. लगा दीजिये कोई टैक्स और वसूल कर लीजिये अपना नुकसान. वैसे भी खाने-पीने से लेकर उठने-बैठने तक पर टैक्स वसूल कर लेते हैं आप. फिर क्या चिंता. एक टैक्स और सही. टैक्स का नाम कुछ भी रख दीजिये, जैसे 'राम-सेतु टैक्स'. वैसे ऐसा नाम रखने पर वोट बैंक खिसक जाने का ख़तरा है. इसलिये आप एक कमेटी बैठा दीजिये जो नाम खोजकर आपको बता देगी.

अखबारों की खबरों से लगता है कि देश की अर्थव्यवस्था सही पटरी पर चले, इसके लिए इस सेतु का टूटना जरूरी है। देश का विकास और किसी बात पर निर्भर नहीं करता क्या? मेरी एक छोटी सी बात सुनिये और आप ख़ुद ही सोचिये. मैं रहता हूँ कलकत्ते में. यहाँ रांची से सब्जियाँ आती हैं. तीन दिन लगते हैं ट्रक को रांची से कलकत्ते पहुँचाने में. ख़ुद ही सोचिये, जो दूरी बारह घंटे में तय की जा सकती है, उसके लिए तीन दिन. इसकी वजह से सब्जियों के दाम आसमान पर रहते हैं. इसके लिए कुछ कीजिये जहाँपनाह. आम जनता को भी राहत मिलेगी.स्थल मार्ग के चलते भी पैसा और समय नष्ट होता है, और आप हैं कि जल-मार्ग के पीछे पड़े हुए हैं. सडकों की हालत पर गौर कीजिये. मैंने सुना था कि जो मिन्ट-मिन्ट पर गौर करे, वही 'गौरमिन्ट' है. लेकिन आप गौर करते भी हैं, तो सालों के बाद. मैं ये नहीं कहता कि आप कोशिश नहीं करते, लेकिन कोशिश कर रहे हैं, सारी उर्जा इस बात को दिखाने पर खर्च करते रहते हैं.

कई बातों में तो आप सालों के बाद भी गौर नहीं करते। शिक्षा की हालत सुधारने के लिए आप 'एडुकेशन सेस' वसूल कर लेते हैं. लेकिन शिक्षा की अवस्था में बदलाव दिखाई नहीं दे रहा. कुछ कीजिये हुजूर. आतंकवादियों के हमले से मरने वालों की संख्या के मामले में अब केवल इराक हमसे आगे है. ज़रा इसके बारे में भी सोचिये. न्याय-व्यवस्था को ठीक कराने का कोई उपाय देखिये. पूरे देश के किसानों की स्थिति ख़राब है. ये अलग बात है कि पिछले दो-तीन सालों में अखबार बाजी से लगता है कि देश के विदर्भ नामक इलाके में ही किसान रहते हैं, बाकी के इलाके में उद्योगपति रहते हैं. उनकी समस्या भी आप अनोखे ढंग से सुलझाते हैं.आप के प्रधानमंत्री कुछ नेताओं और कुछ टीवी पत्रकारों को लेकर वहाँ पहुँच जाते हैं और शाम तक किसानों की समस्या हल कर के चले आते हैं. सरकार, इस तरह से आप क़रीब चार बार विदर्भ के किसानों की समस्या सुलझा चुके है. लेकिन आश्चर्य की बात है कि समस्या फिर से खडी हो जाती है. वैसे तो छोटा मुँह और बड़ी बात होगी, लेकिन मैं कहूँगा कि एक बार दिल्ली में रहकर ही समस्या का समाधान खोजिए, हो सकता है समाधान हो जाए.

सरकार, सुना है पिछले दो सालों में केवल सार्वजनिक वितरण प्रणाली से ३१ हजार करोड़ रुपये खुरचन में निकल गये. अब इसमें रक्षा-शिक्षा, रेल-खेल, हेल्थ-वेल्थ, ट्रांसपोर्ट-एयरपोर्ट वगैरह को जोड़ लें तो खुरचन की मात्रा लाखों करोड़ में पंहुच जायेगी. तो सरकार इस खुरचन को जाने से रोकने के लिये कोई जुगत लगायें क्यों कि इसे भी आर्थिक नुक्सान के नाम से जाना जाता है.

आज देश के शेयर बाजार ने आपको दुनिया में मशहूर कर दिया है। सभी आपकी नीतियों की प्रशंसा करते नहीं थकते. लेकिन सुना है इसी बाजार में आतंकवादियों का पैसा भी लगा हुआ है. गृहमंत्री को शेरवानी बदलने और बाल सवारने से फुर्सत निकालने के लिए कहिये. कुछ कीजिये नहीं तो जिस शेयर बाजार की वजह से आपकी साख इतनी ऊपर है, उसी में कुछ गड़बड़ होने से समस्या खडी हो जायेगी. इलेक्शन सामने है, कुछ भी गड़बड़ हुआ नहीं कि गाडी पटरी से उतरी. इफ्तार पार्टियों से फुर्सत मिले तो इन बातों की ओर भी ध्यान दीजिये.

बाकी क्या लिखूं, आप तो ख़ुद समझदार है। समस्या केवल इतनी है कि समझदारी का काम नहीं करते.

आपका शुभाकांक्षी

स्वराज मुख़र्जी

Monday, September 24, 2007

राम के छिद्रान्वेषक कौन लोग हैं?





राम-सेतु को तोड़ने को लेकर बड़ा बवाल मचा हुआ है. इसे तोड़ने के पक्ष वाले अपने वक्तव्यों में ऐसा तर्क देते हैं, जो आम आदमी के मनोरंजन के साथ-साथ गुस्से का भी जरिया बनता जा रहा है. पहले केन्द्र सरकार ने कहा कि राम थे ही नहीं. और जब राम ही नहीं थे तो राम-सेतु कैसा. फिर सरकार को याद आया कि नहीं-नहीं राम थे. ये कहते हुए सरकार ने दो अफसरों की छुट्टी कर दी. इन अफसरों ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दे डाला था कि राम नाम के कोई भगवान नहीं थे. मंत्री अम्बिका सोनी जी ने बताया कि उन्हें मालूम ही नहीं था कि ये अफसर कोई ऐसा हलफनामा दाखिल कराने वाले थे. अगर उन्हें पता चलता तो वे इन अफसरों को बतातीं कि राम थे, क्योंकि "हमारी नेता सोनिया जी और हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी हर साल रामलीला देखते हैं".

अभी अम्बिका जी की परेशानी ख़त्म नहीं हुई थी कि करूणानिधि जी मैदान में आ गए. उन्होंने भी पहले कहा कि राम नहीं थे. कह ही सकते हैं. जो आदमी अपने बेटे का नाम स्टालिन रख सकता है, वो कुछ भी कह सकता है. उनके इस वक्तव्य पर बवाल पूरी तरह से शुरू भी नहीं हुआ था कि उन्होंने एक और वक्तव्य दे डाला. बोले; "राम तो थे, लेकिन उन्हें भगवान् क्यों मानना. वो तो 'पियक्कड़' थे." लीजिये, कभी कहते हैं राम थे ही नहीं, फिर कहते हैं, कि थे तो लेकिन 'पियक्कड़' थे. अपनी इस बात के पक्ष में उन्होंने कहा कि "बाल्मीकि ने लिखा है कि राम पियक्कड़ थे." अब बाल्मीकि ने ऐसा लिखा है कि नहीं, ये तो मुझे नहीं मालूम. इसके बारे में शायद वाल्मीकि रामायण के विशेषज्ञ ही कुछ प्रकाश डाल सकें.

लेकिन चलो मान ही लें कि ऋषि बाल्मीकि ने ऐसा लिखा था. अब पता नहीं उन्होंने ऐसा क्यों लिखा. हो सकता है राम से नाराज थे उस समय. लेखक जब-तब किसी से भी नाराज हो सकता है. हो सकता है बाल्मीकि इसलिए नाराज हो गए होंगे कि राम इतने बड़े राजा थे. उनके पास इतना पैसा था, लेकिन उन्होंने बाल्मीकि को अपने कोष से कुछ दान न दिया हो. या फिर उन्होंने नगर में एक प्लाट माँगा हो, और राम ने मना कर दिया हो. या शायद इसलिए नाराज होंगे कि सीता जी और उनके बेटे उनके आश्रम में रहते थे. उनका बड़ा खर्चा वगैरह होता होगा. सुनते हैं बाल्मीकि जी पहले जब रत्नाकर के नाम से जाने जाते थे, तो डकैती करते थे. हो सकता है अयोध्या में उनके ख़िलाफ़ कोई मुकदमा चल रहा हो, जिसे लेकर उन्हें सजा होने का चांस हो. कारण जो भी हो, करूणानिधि जी को इस बात का ख़्याल रखना चाहिए था कि बाल्मीकि ने राम के बारे में और क्या-क्या लिखा है. क्या उन्होंने राम को आदर्श पुरूष नहीं माना? क्या उन्होंने राम को आदर्श पुत्र नहीं माना? क्या उन्होंने राम को धर्म की पुनर्स्थापना करने वाला नहीं माना? क्या उन्होंने राम को भगवान् का अवतार नहीं माना? अगर इसका जवाब राम के पक्ष में है, तो फिर ये कहाँ तक उचित है कि हम कहीँ उनके ख़िलाफ़ लिखी गयी एक लाईन को लेकर उनका अस्तित्त्व ही ख़त्म कर दें.

राम को 'पियक्कड़' बताकर करूणानिधि का मन नहीं भरा था, सो उन्होंने राम के बारे में और भी सवाल कर दिए. उन्होंने पूछा; "कौन से इंजीनियरिंग कालेज से राम ने सिविल इंजीनियरिंग का कोर्स किया था?" लीजिये करिये बात इनसे. किसी ने कहीँ नहीं कहा कि राम ने दिन-रात मेहनत करके ये सेतु बनाया था. सब ये बात जानते हैं कि ये काम नल-नील ने किया था. नल-नील ही राम के इंजीनियर थे. उन्हें उस समय उत्प्लावन बल के सिद्धांत की जानकारी थी. उन्होंने ये काम किया था. और राम को इंजीनियरिंग करने की जरूरत भी नहीं थी. वे तो भगवान् थे. जिनका बनाया हुआ सारा ब्रह्माण्ड है, उन्हें पढने-लिखने की क्या जरूरत? लेकिन चूंकि उन्हें आदर्श मनुष्य के रूप में रहकर दुनिया को दिखाना था, सो उन्होंने न केवल पढाई-लिखाई की, बल्कि नल-नील से सेतु बनाने का आग्रह किया.

अब मेरा सवाल करूणानिधि जी से है. सुना है आप लिखते-विखते हैं. फिल्मों की कहानियाँ लिखते हैं. आप राजनीति में आ गए. शासन कर रहे हैं. कई साल हो गए आपको शासन करते. सरकार, आपने कौन से कालेज से राजनीतिशास्त्र की डिग्री ली थी. आप इतने बड़े राज्य पर शासन करते हैं, आपकी क्या योग्यता है? और जहाँ तक लिखने की बात है तो बहुत सारे पत्रकार आपके बारे में भी बहुत कुछ लिखते रहते हैं. अब अगर सारी बातों को सच मान लें तो आपको तो ३०-३५ सालों की सजा हो जायेगी. पत्रकारों ने यहाँ तक लिखा है कि आपके वीरप्पन जी से सम्बन्ध थे और वे आपकी आर्थिक मदद करते थे. इसे सच मान लें? राजीव गाँधी की हत्या की जांच करने वाले जैन साहब ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि आपकी पार्टी और आपकी जांच होनी चाहिए. राजीव गाँधी की हत्या में आप लोगों का हाथ हो सकता है. क्या करें, इसे सच मान लें? आप जिस राज्य से हैं, वहाँ नेताओं की बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ बनाकर जगह-जगह गाड़ दिया जाता हैं. आज से सौ साल बाद अगर कोई सरकार आपकी मूर्तियों को ये कहकर तोड़े कि ऐसा लिखा गया है कि आपके सम्बन्ध वीरप्पन से थे, तो आपके परपोतों को कैसा लगेगा? आपके बारे यहाँ तक सुना गया है कि इस सेतु के टूटने पर आपको लाभ होगा क्योंकि आपकी शिपिंग कम्पनी वगैरह है. इसे सही मान लिया जाय?

एक और महानुभाव को देखा टीवी पर बहस करते हुए. नाम है राजेन्द्र यादव. ये भी लेखक हैं. करूणानिधि और इनमें समानता ये है कि दोनों काला चश्मा लगाते हैं. यादव साहब टीवी पर डिस्कशन पैनल में क्यों थे, मुझे नहीं पता. यादव साहब भी कन्फ्युजियाये हुए थे. पहले बोले राम थे ही नहीं. फिर बोले राम थे, लेकिन उन्होंने सामंतवाद को बढ़ावा दिया. लीजिये, अब इनके बारे में क्या कहें. लेकिन मुझे एक बात समझ में नहीं आई, कि यादव साहब किस कैपेसिटी में थे वहाँ. पर्यावरणविद वो हैं नहीं और न ही अर्थशास्त्री. साईंस-दान भी नहीं हैं. फिर याद आया कि अरे इन्होने ही तो हनुमान जी को विश्व का प्रथम आतंकवादी कहा था. शायद इसीलिये ये साहब वहाँ बैठे थे. ये दोनों महानुभाव लेखक होने के साथ-साथ काला चश्मा भी पहनते हैं. अपने सिवा बाकी लोगों को किस दृष्टि से देखते होंगे, समझा जा सकता है.

इसी पैनल डिस्कशन में अरुण गोविल भी थे. वे वहाँ इस लिए थे क्योंकि उन्होंने राम का रोल लिया था, रामायण में. मुझे याद आया, कि इलाहाबाद में एक चुनाव के दौरान ये साहब राम का रूप धारे कांग्रेस पार्टी का चुनाव प्रचार करते हुए देखे गए थे. वही कांग्रेस पार्टी जिसने कहा है कि राम थे ही नहीं. अरुण गोविल कह रहे थे कि ये आस्था का मुद्दा है और आस्था का सम्मान करना चाहिए. यादव जी अपनी बात पर अड़े हुए थे कि विज्ञान के युग में आस्था के लिए जगह नहीं है. यादव जी की सोच के हिसाब से देखें तो विश्व के जितने भी वैज्ञानिक हैं, वो सारे नास्तिक हैं. उनके मन में धर्म को लेकर कोई आस्था नहीं है. मेरे मन में एक बात है जो मैं बताता चलूँ. मेरा मानना है कि अगर आस्था के युग में विज्ञान के लिए जगह हो सकती है, तो फिर विज्ञान के युग में आस्था के लिए जगह क्यों नहीं हो सकती.

हमारी समस्या ये है कि हमारे देश में इस तरह के मुद्दों पर बात करते हुए ऐसे लोगों को देखा जा सकता है जिसे मुद्दों के बारे में दूर-दूर तक जानकारी नहीं है.


Sunday, September 23, 2007

समस्या आहत मन की है - सेतु की नहीं





सेतु मुद्दा नहीं लगता मुझे. वह पर्यावरण वादी और अर्थशास्त्री/बिजनेस की समझ वाले सलटें. मुझे समस्या अपने आहत मन की लगती है. अगर जरूरी हो तो सेतु हटाया जा सकता है. स्वयम राम ने शिव का पिनाक ध्वस्त किया था स्वयम्वर में. पर ध्वस्त करने के पहले गुरु का ही मन ही मन स्मरण कर उनका अनुमोदन लिया था. यह आवाहन/अनुमोदन श्रद्धा के स्तर पर होता है - लिखित सैंक्शन जैसा नहीं होता. मुझे विश्वास है, राम भी - जो खुद अपने समय से आगे चले, हमें इतिहास/मिथक से मात्र चिपके रहने को विवश नहीं करेंगे.

परषुराम जी से संवाद में राम कहते भी हैं "छुअतहि टूट पिनाक पुराना" - अर्थात पुराना और अप्रासंगिक तो मात्र निमित्त ढ़ूंढ़ता है अवसान को. अत: सेतु अगर अप्रासंगिक होगा तो जायेगा ही.

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मुझे विश्वास है, राम भी - जो खुद अपने समय से आगे चले, हमें इतिहास/मिथक से मात्र चिपके रहने को विवश नहीं करेंगे.

पर वह है, जब हम राम को आदर्श मानें तब न! हम तो यह देख रहे हैं कि उन्हें नकारा जा रहा है. उनकी उपेक्षा की जा रही है. अपमान किया जा रहा है. और यह सब किया जा रहा है कि धर्म निरपेक्षता के लेबल का पट्टा अपने खेमे में सिक्योर रखा जा सके.

आज शिवकुमार मिश्र ने यह मुद्दा बालकिशनजी के माध्यम से उठाया है. मुझे लगता है कि इस मुद्दे पर वे आगे भी बोलेंगे. मैं उनकी ड्राफ्ट पोस्ट का अवलोकन कर रहा हूं; जो स्पष्ट नहीं है कि पब्लिश होगी या उनकी कई पोस्टों की तरह काफी समय तक लटकती रहेगी और अन्तत: विषय अप्रासंगिक हो जायेगा. खैर, वे लिखें - सेतु के पक्ष में या विपक्ष में; मुझे तो सेतु मुद्दा लगता ही नहीं. मुझे तो अपनी आहत भावना दीख रही है. यही भावना और लोगों की होगी और उसे राजनैतिक लोग/दल चुनाव में भुनाने का प्रपंच रचेंगे. प्रारम्भ हो ही गया है खेल.

पता नहीं राम क्या करने जा रहे हैं. पर जो भी वे करेंगे, उसमें उनका अपना ही विधान होगा. मेरे मन की दशा में भी उनका अपना ही विधान है.

हे राम; मेरे विचलित मन में सही और गलत की समझ बनाये रखें. वह भीड़ या उद्वेग का शिकार न बने - यह कृपा करें.


राम सेतु पर लेखन का बालकिशन जी का सुझाव!






भले लोग वाकई भले होते हैं. मित्र, बाल किशन मिल गए. आश्चर्य न करें. मित्र भी भले होते हैं. वो तो शायर लोग दोस्तों के बारे में 'भड़काऊ' शेर लिखकर आम लोगों के मन में दोस्तों के प्रति कुछ शंका पैदा करते रहते हैं. लेकिन मेरा अनुभव ये है कि दोस्त उतने ख़राब नहीं होते, जितना शायर लोग बताते हैं. राजेश रेड्डी साहब ने लिखा है;
रोशन हूँ इतनी तेज हवाओं के बावजूद
जिंदा हूँ दोस्तों की दुआओं के बावजूद
पता नहीं उनके साथ क्या हुआ कि उन्होंने ऐसा लिखा. वे अकेले नहीं हैं. कितने सारे शायरों के शेर पढ़कर लगता है कि उनके दोस्तों ने उनके 'पीठ में खंजर' घोंप दिया था. लेकिन मैं शायर तो हूँ नहीं इसलिए किसी दोस्त से ख़तरा नहीं महसूस करता. वैसे समाजशास्त्र का विद्यार्थी इस बात पर शोध कर सकता है कि शायरों को उनके दोस्तों ने धोखा क्यों दिया. कारण जो भी निकले, एक बात जो मेरे मन में आती है, वो आपको बताता चलूँ. मेरे ख़्याल से ये शायर लोग जब भी नई गजलें लिखते होंगे तो दोस्तों को सुनाने में जुट जाते होंगे. दोस्त को बर्दाश्त नहीं होता होगा, तो वो छुरा चला देता होगा. गजल सुनाने से दोस्त अगर छुरा चला सकता है तो दुश्मन तो तोप चला देगा. लेकिन एक बात के बारे में आजतक सोच नहीं पाया, कि ये दोस्त लोग पीठ में ही छुरा क्यों उतारते थे. शायद शायर लोग उनकी तरफ़ पीठ करके गजलें सुनाते थे.

भटक गया मैं. हमारे ज्ञान भइया होते तो तुरंत टोक देते कि विषयान्तर हो रहा है. चलिए शायर, शेर, छुरा और दोस्ती से हटकर दोस्त की बातें करते हैं. हाँ, तो बाल किशन मिल गए. बाल किशन के बारे में मैंने पहले भी लिखा था कि किस तरह से उन्होंने मुझे अच्छा ब्लागिया बनने के उपाय बताये थे. छूटते ही बोले; " बीस पोस्ट लिखने के लिए कहा था इसका मतलब जैसे-तैसे, जो-तो लिखोगे क्या?"

मैंने पूछा; "यार ऐसा क्यों बोल रहे हो? कोई पोस्ट तुम्हें नागवार गुज़री क्या?"

बोले; "गुजरेगी नहीं! भविष्य की आड़ लेकर भूतकाल की बातें लिखते हो. कभी-कभी वर्तमान के बारे में भी सोचो. देश को आज ब्लागवीरों की जरूरत है. दो-तिहाई ब्लॉग-सेना देश के लिए अपना समय और की-बोर्ड निछावर कर दे रही है और तुम हो कि अगड़म-बगडम जो मन में आ रहा है लिखे जा रहे हो."

आश्चर्यचकित होते हुए मैंने पूछा; "ब्लागवीरों की सेना! ऐसी कोई सेना है क्या?"

बोले; "ब्लॉग लिखते-लिखते चार महीना हो गया. लेकिन नतीजा वही. कुल धान बाईस पसेरी. अरे एक तरफ़ तो इतने जागरूक ब्लॉगर हैं, और एक तरफ़ तुम. आज देश को ब्लॉगर-सेना की जरूरत है.कम से कम एक पोस्ट तो वर्तमान के बारे में सोचकर लिखो."

मैंने कहा; "जरूरत है, मानता हूँ. लेकिन लड़ाई कहाँ लड़नी है, जब तक ये नहीं पता चले तो लैपटाप हाथ में लेकर कौन से सीमा पर जाएँ?"

बोले; "सीमा तय करने की आदत नहीं गयी तुम्हारी. अच्छा ब्लागिया कभी सीमा के बारे में नहीं सोचता. उच्चकोटि का ब्लागिया वो है जो असीम चिंतन करे."

मैंने कहा;"अरे यार पहेलियाँ बुझाते रहोगे या साफ-साफ बताओगे भी कि बात क्या है. किस मुद्दे पर लिखने को कह रहे हो?"

बोले; "राम और रामसेतु. पिछले बीस दिनों में क़रीब नब्बे पोस्ट आ चुकी हैं. रोज इस आशा के साथ तुम्हारे ब्लॉग पर आता हूँ कि आज शायद लिखा हो. तुम्हारे विचार क्या हैं. तुम क्या सोचते हो. लेकिन एक पोस्ट तो क्या एक लाईन भी नहीं दिखाई दी तुम्हारी".

(यह रामसेतु है)
मैंने पूछा; "हाँ ये बात तो है. मैंने तो इस विषय पर सोचा ही नहीं. लेकिन तुम्हें क्या लगता है, किसकी बात जोरदार लगती है तुम्हें? उनकी जो राम-सेतु तोड़ने के पक्ष में हैं, या उनकी जो नहीं चाहते कि राम-सेतु टूटे?"

बोले; "राम-सेतु तोड़ने और न तोड़ने की बात किसी ने की ही नहीं. सब तो राम की बात कर रहे हैं. मसलन राम थे कि नहीं. राम के नाम पर राजनीति हो रही या नहीं है. हिन्दुओं को भड़काने का काम हो रहा है. राजनैतिक पार्टियां रोटी सेंक रही हैं. उबलने के लिए चावल भी चूल्हे पर रख दिया है, आदि-आदि."

मैंने पूछा; "तो तुमको क्या लगा? ब्लॉग-सैनिकों का प्रदर्शन कैसा रहा?"

बोले; "कुछ समझ में ही नहीं आया. ब्लॉग-सैनिक अपनी-अपनी तलवारें हवा में भांज रहे हैं. कौन क्या कहना चाहता है पता ही नहीं चला. पोस्ट पढ़कर लगा जैसे ब्लॉग पोस्ट नहीं छायावाद का निबंध है." आगे बोले;" नसीरुद्दीन साहब को ही ले लो. राम-सेतु के नाम पर क्या-क्या लिख गए. उन्होंने तो मामला व्यक्तिगत, राज्यगत, गांवगत तक बना डाला. कह रहे थे सीता जी उनके गाँव की थीं. राम उनके गाँव के दामाद थे, लेकिन उन्होंने सीता जी को बड़ा दुःख दिया. बहुत नाराज दिख रहे थे राम से. कह रहे थे , राम ने अच्छा नहीं किया, सीता को दुःख देकर.यहाँ तक कहा कि राम समर्थ थे, अपना हक भरत से लड़कर ले सकते थे.लेकिन जान-बूझ कर सीता को इतना दुःख दिया."

मैंने कहा; "तो जब इतने सारे लोग इतना कुछ लिखकर भी 'कुछ नहीं लिख सके' तो फिर मैं क्या लिखूंगा. और अगर लिख भी दिया तो मेरे विचार इतने बड़े झगड़े में कौन सुनेगा?"

बोले; "फिर भी देखो. हो सके तो कुछ लिखो. हो सकता है ब्लॉग समाज के लोगों के लेखन से ही समस्या का समाधान मिल जाए."

मैंने सोचा लेखन से समस्या खडी हुई है. पहले सरकार ने सेतु तोड़ने के लिए प्लान लिखा होगा. फिर वित्त-मंत्री ने बजट लिखा होगा. उसके बाद कैबिनेट ने अपना फैसला लिखा होगा. फिर आर्कियोलोजिकल सर्वे के अफसरों ने हलफनामा लिखा होगा. आगे चलकर अम्बिका सोनी जी अपना इस्तीफ़ा भी लिख सकती हैं.

तुम्ही ने दर्द दिया और तुम्ही दवा देना वाले दर्शन पर चलकर हो सकता है लेखन से ही समस्या ख़त्म भी हो जाए.

Wednesday, September 19, 2007

सामूहिक विवेकगाथा - ट्रक या रेल दहन





अखबार पढ़ रहा हूँ। पहले पन्ने पर एक फोटो छपी है। फोटो में ट्रकों को जलते हुए देखा जा सकता है. संवाददाता ने फोटो के नीचे जानकारी दे दी है. केवल बारह ट्रक जल रहे हैं. और जल सकते थे, लेकिन केवल बारह ही जलाए जा सके. भारतवर्ष के बाकी ट्रक भाग्यशाली रहे कि उस जगह पर नहीं थे.

(समाचारपत्र में छपे ट्रक दहन के चित्र)
आसनसोल की घटना है। एक ट्रक ने मोटरसाईकिल पर सवार एक युवक को 'कुचल' दिया. युवक की मृत्यु हो गई. यही मौका था, समाज के अति उत्साही लोगों के पास कि वे अपने ऊपर से समाज के कर्ज को उतार पाते. सो उन्होंने ट्रकों को जलाकर समाज के कर्ज को उतार दिया. विवेक एक ऐसा गुण है जो जानवरों के अन्दर नहीं पाया जाता, केवल मनुष्य के अन्दर पाया जाता है. यही विवेक मनुष्य को जानवर से ऊंचा दर्जा दिलाता है. रास्ते पर कितने ही जानवर ट्रकों और बसों से कुचले जाते हैं, लेकिन उनके पास विवेक नहीं होता, सो वे ट्रक और बसों को नहीं जला पाते. एक अकेले इंसान का विवेक ऐसे मामलों में देखने को मिलता है. और सामूहिक विवेक के तो क्या कहने!

अब ऐसे अति उत्साही जिम्मेदार नागरिकों से कौन सवाल करे कि; 'भैया एक ट्रक ने कुचल दिया, तो ग्यारह और जलाने की जरूरत कहाँ पड़ गई.' या फिर ऐसा करके क्या मिलेगा. लेकिन पूछे कौन? और अगर किसी ने हिम्मत करके पूछ भी लिया तो उससे क्या होने वाला है? इन जिम्मेदार नागरिकों ने अपना काम तो कर दिया.

पर एक बात जरूर है. अपने काम को ठीक बताने के लिए ये लोग कुछ भी तर्क दे सकते हैं. फर्ज करें कि किसी पत्रकार ने अगर पूछ लिया तो वार्तालाप शायद कुछ ऐसा होगा:

पत्रकार; "ये क्या किया आपने? इससे क्या फायदा हुआ?"
नागरिक ;" आपको नहीं मालूम। ये ट्रक बड़े बदमाश हैं। इन्होने जान बूझकर उस लडके को मार डाला।"
पत्रकार; "लेकिन गलती तो उस लडके की भी हो सकती है"।
नागरिक; "उस लडके की गलती कैसे हो सकती है? ट्रक बड़ा है कि मोटरसाईकिल?"
पत्रकार; "ट्रक बड़ा है।"
नागरिक; "तो जब आप मान रहें है कि ट्रक बड़ा है, तो फिर गलती मोटरसाईकिल वाले की कैसे हो सकती है"।
पत्रकार; "हो सकता है कि उस मोटरसाईकिल वाले ने सड़क के नियमों का पालन न किया हो।"
नागरिक; "हो ही नहीं सकता। आपको आईडिया नहीं है। छोटी सवारी वाले हमेशा सड़क के नियमों का पालन करती हैं। आपको इतना भी नहीं मालूम? किसने आपको पत्रकार बना दिया?"
पत्रकार; "चलिए मैंने मान लिया कि मुझे आईडिया नहीं है। लेकिन ऐसा करके आपने तो कितने लोगों का नुकसान कर दिया। ये करना तो ठीक नहीं रहा. ट्रक तो कोई इंसान ही चला रहा होगा."
नागरिक; "आपको नहीं मालूम. ट्रक का ड्राईवर धीरे-धीरे चला रहा था. लेकिन इस ट्रक ने ही जिद की, तेज चलाने की."

पत्रकार अपना माथा पीट लेगा। ये सोचते हुए वहाँ से चला जायेगा कि; 'यही मोटरसाईकिल सवार अगर सकुशल अपने मुहल्ले पहुँच जाता तो इस समय दोस्तों के बीच बैठे डीगें हांक रहा होता कि आज उसने एक ट्रक के साथ रेसिंग की और जीत गया’.

'सामूहिक विवेक' की बात पर एक घटना और याद आ गई। १४ सितंबर के दिन कुछ कावरियों को ट्रेन ने 'कुचल' दिया. धर्म यात्रा पर निकले ये लोग सरयू किनारे रेलवे के एक पुल को स्टेशन समझकर उतर गए. मैंने तो यहाँ तक सुना कि चेनपुलिंग करके उतरे थे क्योंकि पुल पर से 'मंज़िल' तक पहुचना आसान होता. पुल पर उतरने के बाद सामने से आती एक रेलगाड़ी ने इन्हें कुचल दिया. कुछ तो जान बचाने के लिए नदी में कूद गए. क़रीब बीस लोग मारे गए. यहाँ भी वैसा ही हुआ, जैसा आसनसोल में हुआ था. कुछ लोगों का सामूहिक विवेक जाग गया और उन्होंने रेलवे संपत्ति को जला डाला. ये लोग स्टेशन तक जला देने पर उतारू थे, लेकिन बाद में केवल थोड़ी सी संपत्ति जलाकर संतोष कर लिया.

इनसे अगर कोई पत्रकार इनकी हरकतों के बारे में सवाल पूछता तो वार्तालाप शायद कुछ ऐसा होता:

पत्रकार; "आप लोगों ने रेलवे का इतना नुकसान कर दिया, इससे क्या मिला?"
कांवरिया; " ये तो होना ही था. एक रेलगाड़ी हमें मार डाले और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें, ऐसा कैसे हो सकता है?"
पत्रकार; "लेकिन आप लोगों को उस पुल पर उतरना नहीं चाहिए था. वहाँ तो पैदल चलने का रास्ता भी नहीं था".
कांवरिया; "हम भोले बाबा के दर्शन के लिए जा रहे हैं. कौन से रास्ते से जाना है ये हम तय करेंगे. धर्म के काम में रेलवे तो क्या किसी को भी हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है."
पत्रकार; "लेकिन इतना तो सोचना चाहिए थे कि ख़तरा है."
कांवरिया; "धर्मपालन में खतरों से डरेंगे तो कैसे चलेगा. भोले बाबा के दर्शन के लिए हम किसी भी खतरे का सामना करने के लिए तैयार रहते हैं."
पत्रकार; "लेकिन आपको बचाने की कोशिश तो उस ट्रेन के ड्राईवर ने की. उसने ब्रेक लगाया तो था।"
कांवरिया; "पूरी कोशिश नही की. अगर ब्रेक लगाने से काम नहीं बना तो ड्राईवर का कर्तव्य था कि वो ट्रेन को मोड़ लेता. ऐसी आधी-अधूरी कोशिश से क्या फायदा."

यहाँ भी पत्रकार अपना माथा पीट लेगा। ये सोचते हुए चला जायेगा कि; ' ये कांवारिये अगर भोले बाबा के दर्शन करके खुशी-खुशी घर पहुच जाते तो अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से शेखी बघारते कि पूरे एक सौ मील पैदल चलकर बिना खाए-पीये गये और भोले बाबा का दर्शन किया। पाँव पूरे छाले से भर गए.'

Tuesday, September 18, 2007

ब्लॉगरों में बढत – सब तरफ





शिवकुमार मिश्र हिन्दी ब्लॉगरों की बढ़ती संख्या का भविष्य दर्शन कर रहे हैं. उनकी तीन "भविष्य में लिखी वर्तमान के इतिहास" की पोस्टें आ चुकी हैं और पाठक इस कड़ी को समाप्त नहीं करने देना चाहते.

ब्लॉगिंग में बूम केवल हिन्दी का फिनॉमिना नहीं है. आप टेक्नोरेती के Sifry's Alerts के 5 अप्रैल की इस पोस्ट का अवलोकन करें. इसमें ब्लॉगिंग यातायात के बहुत से चार्ट हैं. मैं यहां पर दो चार्ट प्रस्तुत कर रहा हूं. पाठक कृपया नोट करें कि यह सामग्री टेक्नोरैती की है और चार्ट में उसका चिन्ह भी है.



इस चार्ट में टैक्नोरैती द्वारा मार्च 2003 से मार्च 2007 के बीच ट्रैक किये गये चिठ्ठों की संख्या दर्ज है. और जैसा दिखता है - यह संख्या मार्च 2005 से गति पकड़ कर एक्स्पोनेंशियल बढ़ती नजर आती है. हिन्दी के विषय में हम 2 वर्षों का फेज़ लैग मान कर चल सकते हैं. यहां भी बढ़त प्रारम्भ हो गयी है पर अभी भी हम ब्लॉगिंग के "भारतेन्दु या आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी युग" में ही हैं.



इस दूसरे पाई-चार्ट में भाषा के आधार पर ब्लॉगों की संख्या बताई गयी है ( सन 2006 के अंतिम तीन महीनों के आंकड़े के आधार पर). इसके अनुसार जापानी भाषा में 37%, अंग्रेजी में 36% और चीनी भाषा में 8% ब्लॉग हैं. फारसी में भी एक प्रतिशत ब्लॉग हैं - शायद अब और बढ़े हों. अन्य (जिसमें हिन्दी भी है) 5% हैं. एक कोण से देखें तो हिन्दी का प्रतिशत नगण्य है. पर दूसरे कोण से देखें तो आगे बहुत बढ़ोतरी की सम्भावनायें हैं. समग्र रूप से ब्लॉग जिस रेट से बढ़ रहे होंगे; हिन्दी ब्लॉगों में बढ़त मेरे अनुमान में उनसे तीन गुना ज्यादा है.

प्रोब्लॉगर ब्लॉग (फीडबर्नर फीड संख्या > 31,000!) ने एक इण्टरनेट सर्वेक्षण किया है. यह प्रो-ब्लॉगर के इस पन्ने पर उपलब्ध है. इसके निम्न पाई चार्ट का अवलोकन करें. (कृपया नोट करें कि यह सामग्री प्रोब्लॊगर की है और चार्ट में उसका चिन्ह भी है.)



इस सर्वेक्षण के अनुसार उस साइट पर जाने वाले और/या ब्लॉग रखने वाले जो 2151 लोग सर्वेक्षण में शामिल हुये उसमें से 58% या तो बिना ब्लॉग के हैं या उनका ब्लॉगिंग 1 वर्ष से कम उम्र का है. कुल मिला कर कहा जाये तो यह कि अंग्रेजी में भी ब्लॉगिंग अभी नर्सरी अवस्था में है और लोग तेजी से जुड़ रहे हैं.

अत: शिवकुमार मिश्र हिन्दी ब्लॉगिंग में जिस तेज बढ़ोतरी की बात कहते हैं - उसे मात्र कल्पना की उड़ान न माना जाये. मेरे ख्याल में वे हिन्दी ब्लॉगों की संख्या के विषय में जूल्स वर्ने छाप कल्पना कर रहे हैं - जो देर सबेर प्रगटित होगी! वह दिन दूर नहीं जब प्रत्येक हिन्दी लेखन में सक्षम व्यक्ति के पास अपनी नेट आइडेण्टिटी के लिये एक ब्लॉग होगा.

आप चिठ्ठाजगत पर लॉग-इन कर इस पन्ने पर पिछले चार माह के आंकड़े देखें. आप अन्दाज लगा पायेंगे कि हिन्दी ब्लॉगों और ब्लॉग पोस्टों में जबरदस्त उछाल है!

Saturday, September 15, 2007

हिंदी ब्लागिंग का इतिहास (साल २००७)- भाग ३






(सं)वैधानिक अपील: ब्लॉगर मित्रों से अनुरोध है कि इस अगड़म-बगड़म पोस्ट को केवल मनोरंजन की दृष्टि से देखें.
साल २००७ के अगस्त महीने में इलाहबाद में घटी एक सड़क दुर्घटना को केन्द्र में रखकर नवोदित चिट्ठाकार श्री ज्ञान दत्त पाण्डेय के 'उच्च-मध्य वर्ग की अभद्र रुक्षता' शीर्षक से प्रकाशित लेख ने समाजिक वर्गीकरण के अलावा वित्त मुद्दों और आयकर के ऊपर नए सिरे से बहस का दरवाजा खोल दिया। श्री पाण्डेय के लेख के अन्तिम भाग में पाठकों के लिए सुझाए गए 'निम्नलिखित' 'तत्त्व-ज्ञान' का सबसे बड़ा उपयोग भारत सरकार के वित्त मंत्रालय ने किया.
तत्त्व-ज्ञान - आप झाम में फंसें तो वार्ता को असम्बद्ध विषय (मसलन पैन नम्बर, आईटीसीसी) की तरफ ले जायें। वार्ता स्टीफेंस वाली (अवधी-भोजपुरी उच्चारण वाली नहीं) अंग्रेजी में कर सकें तो अत्युत्तम! उससे उच्च-मध्य वर्ग पर आपके अभिजात्य वाला प्रभाव पड़ता है.
इस तत्त्व-ज्ञान को आधार बनाकर वित्त मंत्रालय ने नागरिकों से कर वसूलने का नया रास्ता निकाला। वित्त मंत्रालय ने कुल २६ आयकर आधिकारियों को ट्रैफिक सिपाही के वेश में इलाहबाद की सडकों पर ट्रैफिक नियंत्रण के आड़ में कर वसूलने के काम पर लगा दिया. ये आयकर अधिकारी कार वालों से पैन कार्ड की डिमांड करते थे. पैन कार्ड न मिलने पर ये अधिकारी वहीँ पर कार की साईज के हिसाब से कर निर्धारण करके कर वसूल लेते थे. शुरू-शुरू में इन अधिकारियों को अवधी और भोजपुरी उच्चारण वाली अंग्रेजी बोलने की वजह से कुछ दिक्कत हुई लेकिन बाद में इन अधिकारियों को रैपीडेक्स अंग्रेजी कोर्स में भर्ती कर दिया गया जिससे इनकी अंग्रेजी में वांछित बदलाव आ गया. वित्त मंत्रालय के इस तरीके से सरकार ने एक साल में ही क़रीब ३०० करोड़ रुपये वसूल किए. बाद में मंत्रालय ने अपने इस प्लान को इन्दौर में भी लागू किया जहाँ ॥(आगे का पन्ना गायब है..)

(नोट: कुछ पाठकों ने श्री पाण्डेय द्वारा इस्तेमाल किए शब्द जैसे उच्च वर्ग, उच्च-मध्य वर्ग या फिर निचले तबके जैसे शब्दों पर आपत्ति जताई। इन पाठकों का मानना था कि 'भारतवर्ष में वर्गीकरण लगभग सौ साल पहले ही ख़त्म हो गया था. इसलिए श्री पाण्डेय को ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था.')

इसी साल के अगस्त महीने में प्रसिद्ध चिट्ठा-व्यंगकार और शिक्षक श्री आलोक पुराणिक ने एक ऐसा निबंध लिखा जिसने साहित्य के साथ-साथ व्यापार और सरकार को भी प्रभावित किया। श्री पुराणिक का 'पूरी छानना और लेखन एक जैसे हैं' शीर्षक से छपे निबंध ने पूरे देश के हलवाईयों को साहित्य सृजन के लिए प्रेरित किया. दिल्ली के प्रगति मैदान में देश भर के हलावाईयों की एक सभा में श्री पुराणिक का सार्वजनिक अभिनन्दन हुआ. उन्हें धन्यवाद देते हुए 'अखिल भारतीय हलवाई संघ' के अध्यक्ष ने बताया; 'हमें धन्यवाद देना चाहिए पुराणिक जी का, जिन्होंने पूरी छानने और लेखन में न केवल समानता स्थापित की, अपितु पूरे देश के हलावाईयों में ये विश्वास स्थापित किया की वे भी लेखन कर सकते हैं.'

इस सभा में २५००० हलवाईयों ने सितंबर महीने से लेखन की शुरुआत करने की शपथ ली। हलवाईयो के इस शपथ ने सरकार को सकते में डाल दिया. सरकार की 'मंहगाई रोक कमेटी' ने सरकार को रिपोर्ट सौपते हुए जानकारी दी कि; 'हलवाईयो के ऐसे कदम से देश में मिठाईयों के दाम में वृद्धि सरकार को नुकसान पहुँचा सकती है. सरकार की नीतियों से फैलती कटुता को जनता मिठाई खाकर दूर करती है. लेकिन हलवाईयो के लेखन में कदम रखने से न सिर्फ़ मिठाईयों की कीमतें बढेगी बल्कि जनता के बीच कटुता का प्रवाह बढ़ जायेगा. ऐसी स्थिति में सरकार चुनाव भी हार सकती है.'

'मंहगाई रोक कमेटी' की इस रिपोर्ट को गम्भीरता से लेते हुए सरकार ने हलावाईयों से इतने बड़े पैमाने पर लेखन के क्षेत्र में न उतरने की अपील की। बाद में 'अखिल भारतीय हलवाई संघ' और सरकार के बीच हुई बैठक में इस बात पर समझौता हो गया कि हलावाईयों की तरफ़ से कलकत्ते निवासी विश्व प्रसिद्ध हलवाई मुन्ना महाराज ही लेखन करेंगे. मुन्ना महाराज ने केवल दो महीनों में ही निम्नलिखित छह उपन्यास लिखे:
  1. तौलत मांगे ख़ून
  2. बिका हुआ इंसान
  3. आत्मा की गवाही
  4. एक कटोरा खून
  5. लूट की दौलत
  6. लंगडा कानून
इतने कम समय में इतनी बड़ी मात्रा में उपन्यास लिखकर उन्होंने एक कीर्तिमान स्थापित किया। इतने अल्प समय में छह उपन्यास लिखने का राज बताते हुए मुन्ना महाराज ने जानकारी दी थी कि; 'हमने नियम बना लिया था - एक दिन में जितनी पूरी छानेगे, उतने पन्ने रोज लिखेंगे.'

(नोट: व्यापारी वर्ग द्वारा लेखन के क्षेत्र में उतरने का ये पहला मौका था। वैसे कुछ इतिहासकार मानते हैं कि ऐसा पहले भी हो चुका था. ऐसे इतिहासकारों का कहना है कि जॉर्ज बर्नाड शा के नाटक आर्म्स एंड द मैन से प्रेरित होकर सन १९०५ में अमेरिका के १६७५ हथियार व्यापारियों ने हथियारों का धंधा छोड़कर लेखन के क्षेत्र में उतरने का फैसला एक सम्मेलन में किया था. बाद में अमेरिकी सरकार के आग्रह पर ये व्यापारी अपने फैसले से पीछे हट गए. अमेरिकी सरकार का मानना था कि व्यापारियों के लेखन में कदम रखने से सरकार का वो सपना टूट जाता जिसके तहत 'अमेरिका पूरे विश्व को हथियार बेचना चाहता था!')

हिन्दी चिट्ठाकारिता की वजह से लेखन में सत्याग्रह, इतिहास में पहली बार देखने को मिला। इसी साल ६ सितंबर के दिन प्रसिद्ध चिट्ठाकार-दल महाशक्ति ने इलाहबाद में कृष्ण भक्तों पर पुलिस द्वारा लाठीचार्ज का विरोध करते हुए एक दिन 'लेखन कार्य रोको' प्रस्ताव पारित किया और पूरे दिन अपने किसी भी चिट्ठे पर लेख प्रकाशित नहीं किया. साहित्य और लेखन के इतिहास में इससे पहले ऐसा उदाहरण नहीं मिलता. उनके इस कदम ने न सिर्फ़ विरोध का नया रास्ता दिखाया बल्कि लेखकों और सरकार के बीच नए समीकरणों की उत्पत्ति की. कुछ इतिहासकार मानते हैं कि; 'इससे पहले सरकारें और राजनीतिज्ञ तब डर जाते थे, जब कोई लेखक सरकार की नीतियों का विरोध करते हुए लिखता था'. उनके इस निर्णय की वजह से उत्तर प्रदेश में सत्ता के गलियारों में हलचल मच गई. स्थिति तब और बिगड़ गई जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को महाशक्ति के चिट्ठे पर लिखी 'पंच लाईन' का पता चला. इस चिट्ठाकार दल के नारे, 'हमसे जो टकराएगा, चूर-चूर हो जायेगा' की वजह से पूरी सरकार सकते में आ गई. मुख्यमंत्री ने गृह सचिव, सूचना मंत्रालय के सचिव और सांस्कृतिक विभाग के मुख्य सचिव का एक दल बनाया और इस दल को तत्काल इलाहाबाद रवाना करके इन चिट्ठाकारों को लेखन कार्य पुनः शुरू करने का आग्रह किया. सरकारी दस्तावेजों से इस बात की पुष्टि होती है कि गृह सचिव ने महाशक्ति के लेखन-शाला जाकर उनके कंप्यूटर को चालू कर उन्हें लिखने का अनुरोध किया. इस घटना के बाद राज्य सरकार ने एक कमेटी बनाई जिसका काम केवल ये देखना था कि चिट्ठाकार बराबर लिखते रहें और॥(आगे का पन्ना गायब है..)

साल २००७ के अगस्त महीने में विख्यात हिन्दी चिट्ठाकार श्री अनूप शुक्ला के 'अपने-अपने यूरेका' शीर्षक वाले लेख ने विश्व भर में वैज्ञानिकों को न्यूटन और उनके द्वारा परिकल्पित भौतिक शास्त्र के सिद्धांतों पर नए सिरे से सोचने के लिए विवश कर दिया। प्रसिद्ध वैज्ञानिक आर्किमीडीज द्वारा उत्प्लावन बल के बारे में दी गई परिकल्पना के बारे में लिखते हुए श्री शुक्ल ने लिखा:
'सेव को गिरता देखकर न्यूटन गुरुत्व के नियम खोज लिये। आज कोई कृषि वैज्ञानिक/आर्थशास्त्री साबित कर सकता है कि यह जो लोन की प्रथा है वह पेडो़-पौधों में प्रचलित है। सेव का पेड़ धरती से तमाम पोषण तत्व उधार लेता है। फ़सल हो जाती है तब चुका देता है। पहले जब बिचौलिये न थे तब सीधे धरती को दे देता था। सेव नीचे गिर कर टूट जाता था। अब सब काम ठेके पर दे दिया। अब तो जो पेड़ उधार नहीं चुका पाते उनकी लकड़ी बेंचकर उधारी की रकम बसूल कर ली जाती है। जैसे कि बैंक वाले करते हैं।'
श्री शुक्ल के इस निबंध का अंग्रेजी रूपांतरण 'अमेरिकन जर्नल ऑफ़ साईंस' में प्रकाशित हुआ। प्रकाशन के बाद वैज्ञानिकों में इस बात को लेकर संदेह पैदा हो गया कि न्यूटन एक वैज्ञानिक थे, जैसा वे अब तक मानते आए थे, या फिर एक अर्थशास्त्री. कुछ लोगों ने न्यूटन को कृषि वैज्ञानिक मान लिया. सात देशों के वैज्ञानिकों के एक दल ने न्यूटन और उनके गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पर पुनः खोज करना शुरू किया.

श्री शुक्ल की इस परिकल्पना के उपयोग को मानते हुए भारतीय सरकार ने त्वरित कदम उठाने का फैसला किया। सेब और पृथ्वी के बीच में बिचौलिए नहीं होने के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली से बिचौलियों को पूरी तरह निकाल फेंकने का फैसला किया. इस पर काम करने के लिए और वितरण प्रणाली को मजबूत बनाने के लिए सरकार ने एक कमेटी बनाई लेकिन इस कमेटी द्वारा दी गयी रिपोर्ट किसी बिचौलिए ने .....(आगे का पन्ना गायब है)

(अब बस किया जाये?....)

Friday, September 7, 2007

हिंदी ब्लागिंग का इतिहास (साल २००७)- भाग २






(सं)वैधानिक अपील: ब्लॉगर मित्रों से अनुरोध है कि इस अगड़म-बगडम पोस्ट को केवल मनोरंजन की दृष्टि से देखें।



इसी साल (२००७ में) भारत में पहली बार किसी राजनैतिक पार्टी ने अपना हिन्दी ब्लॉग शुरू किया। नवम्बर महीने के शुरू में सत्तासीन कांग्रेस पार्टी ने अपना 'रोमन' हिन्दी ब्लॉग बनाया. ब्लॉग बनाने का काम सन २००८ में होने वाले मध्यावधि चुनावों को ध्यान में रखकर किया गया. वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं की एक कमेटी ने जनता तक पहुचने के लिए पार्टी को ब्लॉग बनाने की सलाह दी थी. चूंकि ब्लॉग 'रोमन' हिन्दी में था इसलिए उसके सम्पादन का कार्य तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने अपने हाथों में लिया. पार्टी के इस 'रोमन' हिन्दी ब्लॉग के लिए सलाहकार के रूप में अप्रवासी भारतीय और इटली में रहने वाले श्री राम चंद्र मिश्र को चुना गया. बाद में पार्टी के नेताओं के बीच सलाहाकार के चुनाव को लेकर मतभेद पैदा हो गया. पार्टी के एक धड़े का मानना था कि चूंकि श्री मिश्र पहले से भगवद्गीता पर लिखते रहे थे, इसलिए सलाहकार के पद पर उनकी नियुक्ति पार्टी के 'इमेज' के साथ नहीं जाती और पार्टी का वोट बैंक खिसकने का भय था. बाद में मिश्र जी को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा और 'रामानियो' नामक इटालियन को इस पद पर नियुक्त किया गया. सन २०१७ में तत्कालीन बीजेपी सरकार ने 'रामानियो' के बारे में जानकारी लेने के लिए रा की मदद ली तो पता चला कि ये रामानियो कोई और नहीं बल्कि मिश्र जी का ही छद्म नाम था. रा की रिपोर्ट को प्रकाशित करते हुए बीजेपी सरकार ने बताया कि छद्म नाम वाले सलाहकार की नियुक्ति कांग्रेस पार्टी के छद्म धर्मनिरपेक्षता के साथ………॥(आगे का पन्ना गायब है)

ब्लॉग समाज के बढ़ते प्रभाव ने जहाँ राजनैतिक दलों को अपने ख़ुद के चिट्ठे बनाने के लिए विवश किया वहीँ सन २००८ के संभावित मध्यावधि चुनावों को देखते हुए हिन्दी चिट्ठाकारों के लिए तरह-तरह के प्रस्ताव और प्रलोभन भी दिए गए। कांग्रेस पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में इस बात की घोषणा की; 'अगर पार्टी सत्ता में आती है तो एनसीईआरटी की किताबों में हिन्दी चिट्ठाकारों द्वारा लिखे गए निबन्धों को प्राथमिकता दी जायेगी.’ बाद में पार्टी के मानव संसाधन विकास समिति ने हिन्दी चिट्ठाकारों द्वारा लिखे गए निबन्धों को पाठ्यपुस्तकों में शामिल करने के लिए सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण देने का प्रस्ताव रखा. हालांकि कांग्रेस पार्टी को ये प्रस्ताव मंजूर था, वामपंथियों ने ऐसे किसी प्रस्ताव का विरोध किया. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि 'वामपंथी पार्टियां इस बात से डरी हुई थी कि नन्दीग्राम और सिंगुर पर लिखे गए निबंध अगर पाठ्यपुस्तकों में शामिल कर लिए गए तो उन्हें समस्या हो सकती है'. कांग्रेस पार्टी ने इसका समर्थन करते हुए सन २००९ से पाठ्यपुस्तकों में चिट्ठाकारों द्वारा लिखे गए निबन्धों को शामिल करने के लिए संसद में एक प्रस्ताव रखा. बाद में इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए कुछ नेताओं ने चिट्ठाकारों के क्रीमी लेयर को आरक्षण का लाभ न देने को लेकर विवाद शुरू कर दिया. इस विवाद के समाधान के लिए सरकार ने एक समिति बनाई जिसकी रिपोर्ट आजतक …(आगे का पन्ना गायब है)

इसी साल के मध्य में हिन्दी चिट्ठाकारिता के स्तम्भ श्री प्रमोद सिंह "अजदक" जी ने अपनी बहुचर्चित चीन यात्रा की। उन्होंने अपनी इस यात्रा पर कुल मिलकर २७५ पोस्ट लिखी और पूरी यात्रा का वर्णन विस्तारपूर्वक अपने चिट्ठे पर किया. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि प्रमोद सिंह जी ने अपनी इस यात्रा का पूरा व्यौरा चिट्ठाकारों के साथ नहीं बाँटा. ऐसे इतिहासकारों का मानना है कि अपनी इस यात्रा के दौरान श्री सिंह ने क़रीब पचीस हज़ार चीनी नागरिकों को हिन्दी चिट्ठाकारिता के गुर सिखाये. ये बात तब सामने आई, जब इन चीनी नागरिकों ने साल २००८ के मार्च महीने में अपने हिन्दी चिट्ठों का पंजीकरण के साथ-साथ प्रकाशन भी शुरू किया. श्री सिंह के इस योगदान की सराहना करते हुए चीन की सरकार ने उन्हें 'निशान-ए-चीन' के खिताब से सम्मानित किया. सन २०२० में चीन की स्कूली पाठ्यपुस्तको में श्री सिंह के ऊपर एक पूरा अध्याय शामिल कर लिया गया. इतिहासकारों का मानना है कि ऐसा करके चीन सरकार ने भारत के उस एहसान का बदला चुका दिया जिसके तहत भारतीय स्कूली पाठ्यपुस्तकों में ह्वेनसांग और उनकी भारत यात्रा के बारे में पूरा एक अध्याय था. कुछ विद्वान् यह भी मानते हैं कि श्री सिंह ने हु जिंताओ के उस अनुरोध को ठुकरा दिया जिसमें उन्हें चीन की नागरिकता….(आगे का पन्ना गायब है)

साल के मध्य में एक ऐसी घटना घटी, जिसने हजारों साल की हिंदू संस्कृति की मान्यताओं पर एक प्रश्नचिन्ह लगा दिया. मई महीने में प्रसिद्ध 'चिप्पीकार' और विचारक श्री अभय तिवारी के 'हम सब गंगू हैं' शीर्षक से प्रकाशित निबंध ने सालों से प्रतिष्ठित सांस्कृतिक मान्यताओं पर नए सिरे से बहस का दरवाजा खोल दिया. इस निबंध ने न केवल सांस्कृतिक बल्कि संवैधानिक संकट भी पैदा कर दिया. उनके निबंध को साल २००८ से एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों में शामिल करने को लेकर बवाल खडा हो गया. तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री श्री अर्जुन सिंह जहाँ इस निबंध को पाठ्यपुस्तकों में शामिल करने के पक्ष में थे, वहीँ हिंदू वादी संगठनों ने इसका जमकर विरोध किया. इन संगठनों का मानना था कि इस निबंध के निष्कर्ष को मान्यता देने से पूरे हिंदू समाज पर घोर संकट आ जायेगा. इन संगठनों ने एक श्वेतपत्र जारी करते हुए बताया; 'कल्पना कीजिये कि ऐसे निबंध को मान्यता देने का नतीजा क्या होगा. हमारे द्वारा दिया गया नारा; 'गर्व से कहो हम हिंदू हैं' का मतलब पूरी तरह से बदल जायेगा. कुछ संस्थान, जैसे 'विश्व हिंदू परिषद्' और उनके द्वारा किए गए सम्मेलनों को लोग मजाक की दृष्टि से देखेंगे. अगर ऐसा होता है तो बनारस हिंदू युनिवर्सिटी का नाम बदलकर क्या रखा जायेगा'. इस निबंध को लेकर विवाद इतना बढ़ गया कि श्री अभय तिवारी के निवास स्थान पर कई दिनों तक इन संगठनों ने प्रदर्शन किया. इन हिंदू धार्मिक संगठनों के साथ साथ अखिल भारतीय मुहावरा बचाओ समिति ने भी इस निबंध से निकलने वाले आशय का विरोध किया. समिति का कहना था कि अगर ऐसा हुआ तो 'कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली' नामक मुहावरे पर संकट आ जायेगा और मुहावरा इतिहास से मिट जायेगा. जहाँ सरकार को बाहर से समर्थन वाले वामपंथी इस निबंध को पाठ्यपुस्तकों में रखने के पक्ष में थे, वहीँ धार्मिक संगठनो…..(आगे का पन्ना गायब है)

आगे भी जारी है....

Thursday, September 6, 2007

हिंदी ब्लागिंग का इतिहास (साल २००७)- भाग १





(सं)वैधानिक अपील: ब्लॉगर मित्रों से अनुरोध है कि इस अगड़म-बगडम पोस्ट को केवल मनोरंजन की दृष्टि से देखें।
स्कूल में मास्टर जी ने बताया था; 'जब कोई बात पुरानी हो जाती है तो इतिहास का हिस्सा बन जाती है।' कुछ महीने पहले तक जब भी उनकी बात याद आती थी, तब ये सोचकर मन मार लेते थे कि; 'अपन नेता नहीं बन सके. घर से भागकर बंबई भी नहीं जा सके, सो अभिनेता बनने का चांस भी पहले ही गँवा बैठे हैं. इसलिए इतिहास का हिस्सा तो बनने से रहे.' मास्टर जी की इस 'सूचना' का मेरे लिए कोई ख़ास महत्व नहीं था.

लेकिन जब से ब्लॉग समाज की सदस्यता ली है, ऐसे विचार मन में नहीं आते. अब तो हाल ये है कि सड़क पर चलते-चलते अगर कोई पीछे से आवाज दे देता है तो पहली बात जो दिमाग में आती है वो है; 'शायद आटोग्राफ लेने के लिए बुलाया है इसने'. अब तो दिन में कई बार बैठे-बैठे गुनगुना लेता हूँ; 'साला मैं तो ब्लागर बन गया…!' हाल ये है कि अब ये सोचकर निश्चिंत हो जाता हूँ कि जब भी हिन्दी ब्लागिंग का इतिहास लिखा जायेगा, अपने ऊपर भी चार लाईन का ही सही, एक पैराग्राफ जरूर लिखा जायेगा. और क्या पता, आगे चलकर अगर सरकार का दिमाग फिर जाए, तो एक ताम्रपत्र के साथ-साथ कुछ ब्लॉगर पेंशन का इंतजाम भी हो सकता है.

मेरी सोच का आधार ये है कि हिन्दी ब्लागिंग का भी अपना इतिहास होगा। कहते हैं पूत के पाँव पालने में दिखाई देते हैं. ब्लॉग समाज के सदस्य कितनी सारी बातों पर बहस करते हैं. कभी-कभी झगडा भी कर लेते हैं. ब्लॉग पोस्ट हो या फिर उसपर टिप्पणी, हिन्दी साहित्य का इतिहास हो या फिर हिन्दी भाषा, अमेरिका की खिलाफत हो या साम्प्रदायिकता और नरेन्द्र मोदी पर बहस, लगभग सारे मुद्दों पर बहस और झगडा करते हुए हम हिन्दी ब्लागिंग का समाजशास्त्र लिख रहे हैं. जिसे हम आज समाजशास्त्र मानकर चल रहे हैं, आगे चलकर इतिहास में परिवर्तित हो जायेगा. हम सभी भावी इतिहास का हिस्सा बन रहे हैं. मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर सन २०७० में हिन्दी ब्लागिंग का इतिहास नामक पुस्तक किसी को मिले तो उसमें क्या लिखा होगा? मेरा मानना है कि किताब में साल के आधार पर इतिहास लिखा होगा. अब तकनीकी दृष्टि से अति विकसित समय में किताब की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है. ऐसी किताब के पन्ने बीच-बीच से गायब मिलेंगे. उसमें सन २००७ का वर्णन शायद कुछ ऐसा हो:

'साल २००७ हिन्दी चिट्ठाकारिता का स्वर्णसाल था। इस साल हिन्दी चिट्ठों और चिट्ठाकारों की बाढ़ सी आ गई. तरह तरह के विचारों और मुद्दों पर चिट्ठे लिखे गए. साम्यवाद से लेकर शेयर बजार, वेदों पर चर्चा से लेकर गजलों पर चर्चा, कुछ भी बचा नहीं रहा. चिट्ठों की इस बाढ़ ने फीड एग्रीगेटर को पूरे साल परेशान रखा. जहाँ पर चिट्ठे नहीं परेशान कर सके, वहाँ परेशान करने का काम चिट्ठाकारों ने किया. चिट्ठों में आई बाढ़ ने विचारों का बाँध खोल दिया. …॥(आगे का पन्ना गायब है)

साल २००७ के अगस्त महीने तक चिट्ठों की संख्या में बढोतरी सामान्य रही। सितंबर महीने के मध्य से चिट्ठों की संख्या में अभूतपूर्व बढोतरी देखी गई. इस तरह की असामान्य बढोतरी को लेकर इतिहासकारों में अलग-अलग मत हैं. कुछ का मानना है कि ऐसी बढोतरी उन लोगों की वजह से हुई जो अगस्त महीने तक केवल इसलिए चिटठा नहीं लिख पाते थे क्योंकि वे अपना पूरा समय भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम को मेल लिखने और सवाल पूछने में बिताते थे. ए पी जे अब्दुल कलाम के राष्ट्रपति पद छोडने के बाद ऐसे लोगों के सामने समस्या उत्पन्न हुई कि अब ये क्या करें. काफ़ी सोच विचार के बाद और 'समय बिताने के लिए करना है कुछ काम' पर अमल करते हुए इन लोगों ने अपना हिन्दी चिट्ठा लिखना शुरू किया.

इस वर्ष में हिन्दी ब्लॉगर असुरक्षा की भावना से भी ग्रस्त रहे। अकेले पड़ जाने के अहसास को मिटाने के लिये जबरदस्त नेटवर्किंग की गयी. पत्रकार लोगों ने पत्रकारों को, शिक्षकों ने शिक्षकों को, अपने पड़ोसियों, बच्चों को .... जो जिसके करीब का मिला, उसे हिन्दी बॉगरी में लुभा कर उनसे ब्लॉग बनवाया. एक ने पांच, पांच ने पच्चीस का आंकड़ा बनवाया ब्लॉगरी में जोड़ने का. यह प्रक्रिया वर्ष के प्रारम्भ में शुरू हुयी थी पर अपने पूरे यौवन पर सितम्बर मास में आ पायी.

चिट्ठों में आई असामान्य बढोतरी का सबसे बड़ा असर चिट्ठों की पोस्ट पर टिपण्णी की कमी के रूप में सामने आया। चिट्ठाकार इस बात से दुखी रहने लगे कि उनकी प्रति पोस्ट पर टिप्पणियों की संख्या घटकर औसतन क़रीब 1.०८ रह गई. चिट्ठाकारों का दुःख तब और बढ़ गया जब एक ब्लॉग समाजशास्त्री ने अपने अध्ययन के आधार पर ये रिपोर्ट निकाली कि; 'आनेवाले साल में टिप्पणियो की संख्या घटकर औसतन 0.७६ रह जायेगी'. चिट्ठाकारों की इस चिन्ता का समाधान खोजा उस समय के मूर्धन्य चिट्ठाकार और अपनी टिप्पणियों के लिए लोकप्रिय, कनाडा में रहने वाले अप्रवासी भारतीय श्री समीर लाल ने. समीर लाल जी ने गूगल के साथ मिलकर जबलपुर में टिप्पणीकार बनाने के लिए एक संस्थान कि स्थापना की. इस संस्थान से पहले ही वर्ष क़रीब तीन हजार फुल-टाइम टिप्पणीकारों को स्नातक का प्रमाणपत्र मिला. कालांतर में इस संस्थान की नौ साखायें भारत और विदेशों में स्थापित हुईं. साल २०११ में संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस संस्थान को साहित्य और वैश्वीकरण में योगदान के लिए पुरस्कृत किया.

साल २००७ को इतिहास में चिट्ठाकारों के सम्मेलन के लिए याद रखा जायेगा. इस साल देश के कई शहरों में ब्लॉगर मीट का आयोजन किया गया. दिल्ली, कानपुर, इलाहाबाद और आगरा जैसे शहरों में आयोजित चिट्ठाकार सम्मेलन काफ़ी चर्चा में रहे. इस तरह के सम्मेलनो में चिट्ठाकारों की संख्या को लेकर भी काफ़ी चर्चा हुई. सबसे ज्यादा पब्लिसिटी उन सम्मेलनों को मिली जिनमें केवल दो चिट्ठाकार रहते थे. कुछ सम्मेलनों में 'डिजिटल कैमरे' की अनुपलब्धता ने मज़ा किरकिरा किया. कालांतर में गूगल ने चिट्ठाकारों के ऐसे सम्मेलनों को अपने फोटोग्राफ़र भेजकर कवर कराया. उस समय सभी चिट्ठाकारों ने गूगल की इस पहल की सराहना की. लेकिन गूगल की ये पहल पूरे तौर पर 'मुनाफिक' (मुनाफा कमाने के लिए) थी, इस बात का खुलासा तब हुआ जब सन २०३३ में गूगल ने ऐसे सम्मेलनों में ली गई तस्वीरों को क्रिस्टीज की एक नीलामी के दौरान ६० लाख डालर में बेंच दिया. भारत के लिए गर्व की बात ये थी कि इन तस्वीरों को विजय माल्या के पुत्र ने खरीद लिया...(आगे का पन्ना गायब है)
(....... भाग २ में जारी रहेगा.)

Sunday, September 2, 2007

मिलिए नीरज भैया (नीरज गोस्वामी) से






नीरज भैया (नीरज गोस्वामी) : एक परिचय
तुम्हें जब याद करता हूं, मैं अक्सर गुनगुनाता हूं
हमारे बीच की जो दूरियां हैं, यूं मिटाता हूं

इबादत के लिए तुम ढूढते फिरते कहां रब को
गुलों को देख डाली पर, मैं अपना सर झुकाता हूं

नहीं औकात है अपनी, मगर ये बात क्या कम है
मैं सूरज को दिखाने दिन में भी दीपक जलाता हूं

मुझे मालूम है तुम तक नहीं आवाज पंहुचेगी
मगर तनहाईयों में मैं तुम्हें अक्सर बुलाता हूं

मैं हूं तनहा तो दरिया में मगर डरता नहीं यारों
जो कश्ती डगमगाती है, उसे मैं साथ पाता हूं

अन्धेरी सर्द रातों में ठिठुरते उन परिन्दों को
अकेले देखकर कीमत मैं घर की जान जाता हूं

घटायें, धूप, बारिश, फूल, तितली, चांदनी ‘नीरज’
ये सब हों साथ तेरे, सोचकर मैं मुस्कुराता हूं

ये वो गजल है, जिसे मैनें ई-बज़्म पर पढी। मेरी एक आदत थी। जब भी मुझे कोई गजल पसन्द आती थी, तो मैं उस गजल के शेरों से मिलते-जुलते एक-दो शेर लिखकर वहां चिपका देता था। इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ. मैने काफी मेहनत करके एक शेर लिखा और वहां पर दे मारा. शेर था:

खडे हो जाओगे नीरज कभी तुम उन कतारों में
जहां जब भी नजर जाये, तो मैं ‘नीरज’ को पाता हूं

मेरी इस पचास ग्राम शुद्ध तुकबन्दी वाले शेर को उन्होनें पढा. मुझे एक मेल लिखा. वहां से शुरु हुआ ये ‘मेल-मिलाप’ आजतक चल रहा है. और भगवान करें कि हमेशा चलता रहे.

अब मैं आपको नीरज भैया (जी हां एक मेल के बाद ही पता चल गया कि उनको नीरज या फिर नीरज जी कहना मेरी गलती थी) के बारे में बताता हूं. उनके बारे में लिखना मुझ जैसे इंसान के लिए सम्भव नहीं है.

नीरज गोस्वामी, जिन्हें मैं बडे प्यार से नीरज भैया बुलाता हूं, एक सामान्य से दिखने वाले असामान्य इंसान हैं. मुम्बई के पास एक जगह है, खोपोली. वहां रहते हैं. एक स्टील कम्पनी में वाईस प्रेसीडेंट के पद पर कार्यरत हैं. लेकिन उन्हें इस बात की शिकायत रहती है. कहते हैं - “बन्धुवर हम वहां हैं, जहां हमें नहीं होना चाहिए. कभी-कभी तंग आ जाते हैं समझदारों की बीच में रहते-रहते”. नीरज भैया अच्छी गजलें लिखते हैं, अच्छा साहित्य पढते हैं. दुनियां की सारी अच्छी बातों में रुचि रखते हैं. जीवन जीने का तरीका अद्भुत है. अभी भी बच्चों के साथ क्रिकेट खेलते हैं. हंसते हैं तो दिल खोलकर. जब कभी हम दोनो फोन पर बतियाते हैं तो पूरा लाफ्टर क्लब खोलकर बैठ जाते हैं. कई बार उन्होने मुझे बताया है - “जब भी मैं आपके साथ बात करते हंसता हूं तो मेरे आफिस के कई सारे लोग आकर देख जाते हैं कि मेरी तबीयत ठीक है कि नही”.

जब मैने नीरज भैया से पहली बार बात की उन्होने मुझे बताया; “बन्धुवर इस दुनिया में दो मूर्खन के सरताज हैं, आप और मैं”. उन्होंने मेरी भेजी चिट्ठियों को पढकर ये बात कही थी. जब कभी मैं उनसे शिकायत करता हूं कि; “क्या बात है भैया, आजकल आप चिट्ठी नहीं भेज रहे” तो जवाब आता है - “बन्धुवर आजकल मुझे समझदारों को समय देना पड रहा है. अब आप बतायें समझदारों के बीच में रहते हुए कैसे चिट्ठी भेजूं आपको. अगर आपको लिखी चिट्ठी किसी समझदार ने देख ली, तो मेरी मूर्खता लोगों को पता चल जायेगी”. मैनें कई बार उनसे कहा कि समझदारों के बीच में रहकर तो बहुत कुछ सीखा जा सकता है, तो कहते हैं; “हां सीखा तो जा ही सकता है कि; दो और दो का जोड चार होता है”.

पिछले दिनों मैनें उनसे हिन्दी ब्लाग लिखने के लिये कहा। मुझे पता नहीं कि वे लिखेंगे कि नहीं. लेकिन एक बात हुई है जरूर. उन्होने पिछले दिनों कुछ ब्लाग पोस्ट पर अपनी टिप्पणी लिखनी शुरु कर दी है. और मेरा मानना है कि टिपियाना ब्लागर बनने की पहली सीढी है. सो मेरी आशा बनी है कि वे एक न एक दिन हिन्दी ब्लाग लिखना शुरु करेंगे.

वैसे जब तक वे हिन्दी ब्लाग लिखना शुरु नहीं करते हम उनकी गजलें और कवितायें पढ कर आनंद ले सकते हैं. हम उनकी गजलें सहित्यकुंज और अनुभूति पर पढ सकते हैं.


चलते-चलते:
पिछले कई दिनों से कई सारे ब्लाग पोस्ट पर उनके कमेंट देखकर ज्ञान भैया ने उनके बारे में कहा “अगर वे हमारे समय की पैदाइश हैं तो मैं उन्हें बधाई दूंगा कि उन्होने अपने में बचपन और हंसोड़ - दोनो को सहेजे रखा है। जबरन बुद्धिमत्ता के सलीब पर नहीं चढ़ा दिया.”

एक दिन मैने जब नीरज भैया को बताया कि मैं उनके ऊपर एक पोस्ट लिखना चाहता हूं तो उनका कहना था;
“आप जो मुझ पर ब्लॉग लिखने की रिस्क ले रहे हैं उससे उपजे परिणामों के लिए मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी ये पहले बता देता हूँ ताकी सनद रहे और वक्त पे काम आए.”