Show me an example

Monday, June 30, 2008

डॉक्टर बनकर हमारी नाक कटवावोगी क्या?




किसी बांग्ला टेलीविजन चैनल पर डांस रियलटी शो में भाग लेने वाली एक बच्ची,सृन्जिनी सेनगुप्ता की बोलती अचानक बंद हो गई. अस्पताल में भर्ती है. उसकी हालत पर सब दुखी हैं. टीवी न्यूज़ चैनल से लेकर अखबार तक, सब जगह चर्चा हो रही है. कहा जा रहा है कि शो के जज लोगों ने उसे कड़े शब्दों में कुछ कह दिया था, जिसकी वजह से उसे सदमा लग गया. जज बेचारे चैनल वालों को सफाई देते फिर रहे हैं कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा जिसकी वजह से बच्ची को सदमा लग सके. एक जज को सफाई देते हुए मैंने देखा. कह रहे थे; "शो से निकलने के एक सप्ताह बाद भी बच्ची वापस रियल्टी शो में एक डांस प्रोग्राम में हिस्सा लेने आई थी. काफी खुश थी. देखने से नहीं लग रहा था उसके ऊपर हमारे कहने से कोई बुरा प्रभाव पड़ा था."

मुझे इन जज साहब से सहानुभूति है. क्यों है? वो इसलिए है कि रियल्टी शो में जज लोगों को हिदायत दी जाती है कि वे प्रतियोगियों को भला-बुरा कहें. डांट लगायें. ऐसा करने से शो नेचुरल लगता है. अब जज भला-बुरा कहना शुरू करेगा तो कहाँ जाकर रुकेगा, कौन जानता है? अब डांट लगाने के नाम पर जज बेचारा दवाई तो दे नहीं सकता. अगर ऐसी कोई व्यवस्था होती तो जज लोग डांट का कैप्सूल खिला देते. साफ़-साफ़ कह देते; "आज तुम्हारे स्टेप्स एक दम ठीक नहीं थे. तुम्हें मैं डांट की एक बीस मिलीग्राम की टिकिया देता हूँ." परफेक्ट डांट के लिए अलग-अलग पावर के कैप्सूल होते. जैसे कोई कैप्सूल दस मिलीग्राम का होता. कोई कैप्सूल बीस मिलीग्राम का होता. डांट की मात्रा के हिसाब से कैप्सूल दे दिया जाता. लेकिन फिर ये रियल्टी शो कहाँ रहता?

इस बच्ची के पिता को देखा. बहुत दुखी दिख रहे थे. कह रहे थे हमने मीडिया के थ्रू ये मामला इसलिए उठाया है जिससे आगे किसी और बच्ची की हालत सृन्जिनी जैसी न हो. मुझे इन महाशय के साथ कोई सहानुभूति नहीं है. क्यों नहीं है? वो इसलिए नहीं है क्योंकि जब तक इनके जैसे माँ-बाप को पुरस्कार में पाँच-दस लाख रूपये दीखते हैं, ये बच्चों से कुछ भी करवाने के लिए तैयार रहते हैं. बिना ये सोचे-समझे कि बच्चे इस तरह का तनाव सह पायेंगे, या नहीं. जब तक बच्चे इस तरह के शो से बाहर नहीं हो जाते, ये माँ-बाप उनके साथ लगे रहते हैं. अपना काम-धंधा छोड़कर. कई बार तो मुझे लगता है जैसे बच्चों और माँ-बाप के बीच संवाद कुछ इस तरह का होता होगा;

"नहीं माँ, मैं डॉक्टर बनना चाहती हूँ. मुझे डांस नहीं सीखना है"; बच्ची कहती होगी.

"क्या कहा!, डॉक्टर बनना चाहती हो? डॉक्टर बनकर हमारी नाक कटवावोगी क्या? बेटा, आजकल कोई डॉक्टर इंजीनियर बनता है भला?"; माँ कहती होगी.

"नहीं माँ. प्लीज मेरी बात सुनो. डांस की प्रैक्टिस करके मैं थक जाती हूँ. फिर पढाई नहीं कर पाती"; बच्ची कहती होगी.

"अरे बेटा, क्या जरूरत है पढाई करने की? आजकल कोई पढाई करता है भला?"; माँ कहती होगी.

"मेरी बात सुनो तो माँ. हमारी टीचर भी कहती हैं कि दुनियाँ में हर कोई सफल नहीं हो सकता. मैं मानती हूँ कि मैं डॉक्टर बनने से असफल कहलाऊंगी. तो क्या हुआ? मैं एवरेज बच्ची हूँ इसलिए डॉक्टर बन जाऊंगी. जो बच्ची तेज है, वो डांसर बन जायेगी. यही तो होगा"; बच्ची बोलती होगी.

माँ उसी जगह से पतिदेव को आवाज लगती होगी; "अजी सुनते हो?"

पतिदेव वहीँ से जवाब देते होंगे; "अरे क्या हुआ, क्यों शोर मचा रही हो?"

"शोर नहीं मचाऊंगी तो और क्या करूंगी. सुन लो, तुम्हारी लाडली बेटी क्या कह रही है. कह रही है डॉक्टर बनेगी. लो और सर पर चढ़ाकर रखो इसे. डॉक्टर बनकर हमारा नाम डूबोने के लिए ही बड़ा कर रहे हैं हम इसे"; माँ जवाब देगी.

अब बच्ची को समझाने की बारी पिताश्री की होगी; "बेटा, एक बार कांटेस्ट में पार्टीसिपेट कर लो. अगर नहीं जीत पाओगी तो हम अपने किस्मत को रो लेंगे. फिर तुम्हारी जो इच्छा हो, करना. हम तुम्हें डॉक्टर बनने से नहीं रोकेंगे."

बच्ची मान जाती होगी.

लेकिन इस पार्टिसिपेशन की वजह से बच्ची को क्या-क्या झेलना पड़ता होगा. घंटों तक डांस की प्रैक्टिस. जो डांस सिखाते होंगे, उनकी डांट. स्कूल में जाती होगी तो दोस्तों की अपेक्षाएं. घर में माँ-बाप की अपेक्षाएं. जज लोग अगर टीवी स्क्रीन पर सारी दुनियाँ के सामने बच्ची को अच्छा डांसर बता देंगे तो जज की अपेक्षाएं. इन सब के साथ-साथ उन लोगों की अपेक्षाएं, जिनसे बच्ची वोट की अपील करेगी. जो रुपया खर्च करके अपना वोट देते होंगे. ऊपर से प्रोग्राम के सेट पर एक्टिंग करने की काबिलियत चाहिए. घर वाले मिलने आते हैं. बच्चों को रोना पड़ता है. क्या करेंगे, स्क्रिप्ट ही ऐसी लिखी गई है. आख़िर रियल्टी शो है.

अब इतनी सारी अपेक्षाओं पर खरा उतरना एक तेरह-चौदह साल की बच्ची के लिए हिमालय को हटाने जितना बड़ा काम है. और कोशिश करने के बाद अगर हिमालय अपनी जगह से जरा भी नहीं हटा तो क्या होगा. यही होगा, जो हुआ. बच्ची की बोलती बंद हो जायेगी.

टीवी न्यूज़ चैनल वाले भी बहुत दुखी हैं. कह रहे हैं कि अब इस बात पर बहस होनी चाहिए कि बच्चों के ऊपर इस तरह का दबाव कहाँ तक जायज है? क्यों भइया, दो साल हो गए, इस तरह का ड्रामा शुरू हुए, आपको बहस की जरूरत अब महसूस हुई है. आप भी सरकार की तरह हैं, जो बम विस्फोट हो जाने के बाद रेड एलर्ट घोषित करती है. वैसे सोती रहती है. आपलोग पूरे साल भर भूत-प्रेत दिखाते रहते हैं. स्टिंग ऑपरेशन करते रहते हैं. अमिताभ बच्चन की मन्दिर यात्रा कवर करते नहीं थकते. और ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर तीस मिनट का प्रोग्राम नहीं दिखा सकते?

सृन्जिनी सेनगुप्ता की इस हालत से मेरे मन एक ही बात आई. अगर बच्ची बीमार हो ही गई थी तो फिर माँ-बाप के लिए क्या यह जरूरी नहीं था कि वे शान्ति से उसका इलाज करवाते? क्या जरूरत थी इस बात का ढिंढोरा पीटने की. अस्पताल में बेड पर पड़ी एक बच्ची के सामने कैमरे फ्लैश करवाने की. कहीं ऐसा तो नहीं कि मीडिया की सामने दहाड़ मार कर रोने का कार्यक्रम भी एक योजना के तहत किया गया है? मुझे लगता है ऐसा ही है. और हमें आश्चर्य नहीं होगा, अगर इस साल के दुर्गापूजा में हम सृन्जिनी सेनगुप्ता को पूजा पंडाल का उदघाटन करते हुए देखें तो.

Friday, June 27, 2008

हम बिजी हैं...




"प्रधानमंत्री इस्तीफा देंगे?"

"न न, वो ऐसा नहीं करेंगे."

"लेफ्ट वाले ही समर्थन वापस ले लेंगे."

"लेकिन अभी चुनाव कोई नहीं चाहेगा. कौन रिस्क लेगा इस मंहगाई में?"

"लेकिन प्रधानमंत्री की भी कोई इज्जत है कि नहीं?"

"अब काहे की इज्जत? जितनी थी, सब गंवा दिए."

"सुना है समाजवादी पार्टी से कांग्रेस वालों की बातचीत हो गई है. लेफ्ट वाले समर्थन वापस भी ले लें तो सरकार नहीं गिरेगी."

"अरे भइया, सब पब्लिक को बेवकूफ बना रहे हैं."

"अजीब होती है, ये राजनीति भी. आज जो साथ में है, वो कल साथ में नहीं रहेगा. आज जो दूर में है, वो कल पास में रहेगा."

"ठीक कहते हो भइया, अभी तीन महीने पहले तक अमर सिंह और मुलायम सिंह कांग्रेस वालों को मीडिया के सामने गाली देते थे. आज साथ-साथ हैं."

"सब पैसे का खेल है जी. सहारा वाले पैसा खर्चा करके दोनों को करीब ले आए हैं."

"उन्हें भी सरकार, रिज़र्व बैंक और कोर्ट से राहत चाहिए थी."

"अब राजनीति अलग तरह की होगी."

"अरे, अलग तरह की क्या होगी? सब वैसी ही रहेगी. साठ साल से वैसे ही है."

"लेकिन मर रही है तो जनता. इनलोगों को क्या?"

"अरे भइया, जनता कम नहीं है. इनलोगों को नेता किसने बनाया? इसी जनता ने."

"वैसे क्या लगता है? बीजेपी वाले चुनाव जीतेंगे?"

"अरे जीते चाहे हारें. वो कौन से दूध के धुले हुए हैं?"

"मंहगाई में इलेक्शन कराएँगे तो मंहगाई और बढेगी."

"सुनने में आ रहा है कि कल पीएम रिजाइन कर देंगे."

"क्या करेंगे? ख़ुद उनकी पार्टी वाले समर्थन नहीं दे रहे हैं."

"नहीं-नहीं, पार्टी वाले देंगे समर्थन. पार्टी उनको ऐसे ही मजधार में छोड़ देगी?"

आते-जाते, उठते-बैठते, सुबह-शाम, यही सारे वाक्य सुनाई दे रहे हैं. वो भी उस समय, जब देश में मंहगाई बढ़ती जा रही है. आर्थिक विकास रुकने के कगार पर है. जलाने के तेल से लेकर खाने के तेल तक में आग लगी है. कठिन समय के लिए क्या केवल नेता जिम्मेदार हैं?

Thursday, June 26, 2008

बुश बाबू के आडिटर......




अमेरिका वाले आश्चर्यचकित हैं. वैसे तो पिछले कई सालों से जैसे ये लोग चकित होने की ड्यूटी पर हैं लेकिन इस बार ये आश्चर्य उपजा है आतंकवाद को समूल नष्ट करने के लिए पाकिस्तान को दिए गए धन से.

धन से बहुत कुछ उपजता है. भ्रष्टाचार से लेकर आश्चर्य तक. और धन अगर सहायता राशि के रूप में मिले तो फिर कहना ही क्या.

आज अखबार में एक रिपोर्ट पढ़ रहा था. पता चला कि अमेरिका ने अपने आडिटर भेजे थे. पाकिस्तान जाकर पता लगाने के लिए कि साल २००१ से आतंकवाद का नाश करने के लिए उसने पाकिस्तान को जितना धन दिया, वो ठीक से खर्चा हुआ या नहीं.

सालों बाद जागे. हो सकता है, ख़ुद जागे हों. हो सकता है, वहां की किसी कमिटी ने जगाया होगा. या फिर ये भी हो सकता है कि एक दिन मिसेज बुश ने रसोई में चाय बनाते हुए आवाज लगाई होगी; "अजी सुनते हो, सात साल हो गए. देवर जी को पैसे दिए ही जा रहे हो. कभी उनसे हिसाब भी माँगा? एक बार देखो तो सही कि इन पैसों का क्या कर रहे हैं? आतंकवाद से लड़ रहे हैं या फिर अपने रिटायरमेंट का बंदोबस्त कर रहे हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि इन्ही पैसों से अपना पेंशन प्रीमियम भर रहे हैं."

हो सकता है बुश बाबू तुंरत मान गए होंगे. ये भी हो सकता है कि कुछ तू-तडाक भी हुई होगी.

अगर यही धन भारत ने दिया होता और बुश बाबू भारत के नेता होते तो ये भी कह सकते थे; "अरी भागवान चुप कर. जब किसी चीज के बारे में नहीं मालूम है तो मत बोलाकर. तुझे क्या लगता है, ये जो बेटी की शादी में इतना खर्च हुआ है, वो कहाँ से आया है. ये सब उसी दान में निकाला गया परसेंटेज है."

लेकिन बुश बाबू ठहरे अमेरिका के नेता. सुनते हैं, बड़े पाक-साफ़ टाइप होते हैं ये अमेरिका वाले. सो उन्होंने आडिटर भेज दिए.

आडिटर पकिस्तान तक आकर वापस गए तो बुश बाबू को हिसाब-किताब का व्यौरा थमा दिया. बोले; "सर जी, आपके छोटे भाई तो बड़ा घपला किए बैठे हैं. पाँच बिलियन डॉलर में से दो बिलियन डॉलर के खर्चे का कोई हिसाब नहीं है. एक्कौ बिल नहीं है. वाऊचर के साथ सपोर्टिंग नदारद है. कहीं-कहीं टैंक का बिल भी सादे कागज़ पर उर्दू में लिखकर लगा दिया है. एक उर्दू पढ़ने वाले को साथ लेकर गए थे. एक बिल देखकर बोला कि ये बिल कराची के चोर बाज़ार के एक दुकान का है. रसीद तो एक भी वाऊचर के साथ नहीं है."

बुश बाबू ने कहा होगा; "अच्छा, जरा डिटेल में बताओ तो क्या-क्या हुआ है."

"अरे होना क्या है. अनाप-सनाप खर्चा दिखाया है आपके छोटे भाई ने. पन्द्रह मिलियन डॉलर तो एक रोड बनाने में लगा दिया. हमने कहा रोड दिखाओ तो पता चला कि ऐसी कोई रोड ही नहीं बनी. और तो और एक गाड़ी की मरम्मत पर एक साल में दो लाख बीस हज़ार डॉलर खर्चा हुआ है"; आडिटर ने बताया.

"अरे बाप रे. ऐसा कर दिया है उसने. बेवकूफ है. अरे चोरी करो लेकिन कम से कम गणित के हिसाब से करो"; बुश बाबू ने कहा.

उनकी बात सुनकर आडिटर बोले; "अभी क्या सुने. पहले पूरी बात सुनिए. एयर डिफेन्स रडार सिस्टम पर दो सौ मिलियन डॉलर खर्च दिए. हमने पूछा, ये किसलिए. अल कायदा के पास तो एयरक्राफ्ट है नहीं. तो बोले कि हम जो कुछ करते हैं भविष्य को देखते हुए करते हैं. क्या पता कल को अल कायदा वाले एयरक्राफ्ट खरीद लें."

मिसेज बुश ये सब सुन रही होंगी तो बोलेंगी; "देखा, मैं कहती थी न. मेरी बात तो कभी मानते नहीं हो. दिए जा रहे हो पैसे. लो भोगो अब. और ये जो फ्यूचर में एयरक्राफ्ट की बात कर रहा है वो इसलिए कि कोई प्लान बनाया होगा आईएसआई ने अलकायदा वालों को एयरक्राफ्ट बेचने का."

बुश बाबू की समझ में नहीं आया होगा कि क्या कहें. सर झुकाए सोच रहे होंगे; 'फालतू में आडिटर भेजे. जब एक बार पैसा दे दिया था तो क्या जरूरत थी ये पता लगाने की, कि पैसा कैसे खर्च हो रहा है. इससे अच्छा तो भारत वाले हैं जो इस मुहावरे को दोहराते जीते हैं कि 'नेकी कर दरिया में डाल'.

Wednesday, June 25, 2008

अशोक चक्रधर जी की एक कविता




आज आप अशोक चक्रधर जी की एक कविता पढिए. १९८८ में होली के मौके पर दूरदर्शन द्बारा आयोजित कवि सम्मलेन में अशोक जी ने यह कविता सुनाई थी. अब चूंकि याद के सहारे लिख रहा हूँ तो कुछ गलती-सलती भी हो सकती है. आप कविता पढिये;

दरवाजा पीटा किसी ने सबेरे-सबेरे
मैं चीखा; "भाई मेरे"
घंटी लगी है, बटन दबाओ
मुक्केबाजी का अभ्यास मत दिखाओ"
दरवाज खोला तो सिपाही था
हमारे दिमाग के लिए तबाही था
सुबह-सुबह देखी खाकी वर्दी
तो लगने लगी सर्दी

मैंने पूछा; "कैसे पधारे?"
वो बोला; "आपको देख लिया है.
आपको देख लिया है
इसलिए रोजाना आयेंगे आपके दुआरे"
सुनकर पसीने आ गए
खोपड़ी पर भयानक काले बादल छा गए
मैंने कहा; "क्या?
रोजाना आयेंगे
यानि आप मुझे किसी झूठे केस में फसायेंगे

उसने कहा; "नहीं-नहीं, अशोक जी ऐसा मत सोचिये
आप पहले पसीना पोछिये
मैं करतार सिंह, पुलिस में हवालदार हूँ
लेकिन मूलतः एक कलाकार हूँ
मुझे सही रास्ता दिखा दें
मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ
मुझे कविता लिखना सिखा दें

सुनकर तसल्ली हुई
हम भी हैं छुई-मुई
बेकार ही घबराए हैं
तो आप कविता सीखने आए हैं
लेकिन पुलिस और कविता
ये मामला थोड़ा नहीं जमता

उसने कहा मामला तो मैं जमाऊंगा
बस तुम शिष्य बना लो
जो कहोगे लिख के दिखाऊंगा
मैंने सोचा ये तो आप से तुम पर आ गया
मामले को तो नहीं
मुझे अपना शिष्य जरूर बना गया
फिर भी मैंने कहा; "ठीक है, पहले लिख कर दिखाओ
अच्छा लगा तो शिष्य बनाऊंगा
वरना क्षमा चाहूंगा"

उसने कहा; "अभी लिखूं? अभी सुनाऊं?"
मैंने कहा; "नहीं
पहले मैं विषय बताता हूँ
उसपर लिखना है
उसने कहा; "क्या विषय है?"
मैंने कहा; "शाम का समय है
पहाड़ों के पीछे सूरज डूब रहा है
चिडियां चहचहा रही हैं
मेढक टर्रा रहे हैं
पहाड़ों के पीछे सूरज डूब रहा है
और एक आदमी बैठा ऊंघ रहा है
तो शाम का समय और आदमी की उदासी
इसपर कविता लिखा कर दिखाओ
लम्बी नहीं, जरा सी

उसने कहा; "अच्छा नमस्कार चलता हूँ
कल फिर लौट कर मिलता हूँ
मैंने सोचा
'कविता लिखना कोई ऐसी-वैसी बात तो है नहीं
लेकिन वो तो अगले दिन फिर आ धमका
एक हाथ में डंडा और दूसरे में कागज़ चमका
बोला; "सुनिए गुरूजी और देना शाबासी
कविता लम्बी नहीं जरा सी
शाम का समय और आदमी की उदासी

अब सिपाही कविता सुना रहा है;

कोतवाली के घंटे जैसा पीला-पीला सूरज
धीरे-धीरे एसपी के चेहरे सा गुलाबी हो गया
जी सिताबी हो गया
एक जेबकतरे की फोड़ी हुई खोपड़ी सा लाल हो गया
जी कमाल हो गया
हथकड़ियों की खनखनाहट
जैसी चिडियां चहचहाएं
मेढक के टर्राटों जैसे जूते ऐसे चरमराएँ
और ऐसे सिपाही की वर्दी में सूरज
दिन-दहाड़े सब के आगे
पहाडों के पीछे
तस्करों की तरह फरार हो गया
जी अन्धकार हो गया
ये शाम क्या हुई, सत्यानाश हो गया
और ऐसे में एक सिपाही जेबकतरे की
जेब खली मिलने से उदास हो गया
जी निराश हो गया
ये शाम क्या हुई सत्यानाश हो गया

बोला; "कहिये गुरूजी
कैसी रही कविता
चेला जमता कि नहीं जमता
मैंने कहा; "मान गए यार
तुम कवि भी उतने अच्छे हो, जितने अच्छे हवलदार

उसने कहा; "फिर नारियल लाऊँ?
गंडा बांधू?
मैंने कहा; "ये नारियल-वारियल सब बेकार है
तुम्हें शिष्य बनाना हमें स्वीकार है
जो देखो, वही लिखो, यही गुरुमंत्र है
वैसे तुम्हारी लेखनी स्वतंत्र है
कुछ भी लिखो, लेकिन मस्त लिखो

इतना कहकर मैंने उसे टरकाया
लेकिन साहब वो तो दूसरे दिन फिर आया
मैंने पूछा; "क्या हुआ करतार?"
वो बोले; "गुरूजी गजब हो गया
मैंने पूछा; "क्या हुआ?"
बोला; "एक आदमी का कतल हो गया
मैंने पूछा, किसका हुआ?
वो बोला; "भगवान की दुआ"
गजब हो गया, मैंने इसलिए नहीं कहा कि कतल हो गया
वो तो होते रहते हैं
लेकिन इस कतल के चक्कर में
अपनी नई कविता बन गई गुरूजी
मुकद्दर इसको कहते हैं

उसने एक और कविता ठेल दी

डंडे का जैसे ही काम ख़त्म हुआ था
मुजरिमों को पीट के निश्चिंत हुआ था
इतने में दरोगा ने बुला लिया मुझे
बोला, कत्ल हो गया है जाओ जल्दी से
दरवाजे पर औंधे मुंह एक लाश पडी थी

सस्पेंस देख रहे हैं गुरु जी क्या होता है?

तो दरवाजे पर औंधे मुंह एक लाश पडी थी
और लाश की कलाई में विदेशी घड़ी थी
गले में सोने की चेन, रस्सी के निशान
चार बार चाकू किया पीठ में प्रदान

हत्यारा भी कोई बुद्धिजीवी बड़ा था
एक भी निशान उसने नहीं छोड़ा था
फिर भी फोटो लिए, फोटोग्राफर ने उतारी
मैं भी खडा था, मेरी भी फोटो आ गई

तो कल जाकर फोटोग्राफर से एक कॉपी लाऊँगा
लाश को काटकर फ्रेम में लगाऊंगा
उसके बाद पंचनामा तैयार करवाया
फिंगरप्रिंट वाला जरा देर से आया
हमने मिलकर लाश को मॉर्ग में फेंका
हमने सबकी नज़रें बचाकर मौका एक देखा
पिछवाडे आया तो बेंच एक दिखी
बैठकर उस बेंच पर ये कविता लिखी

कहिये गुरूजी कैसी रही कविता?
मैं मौन था
मैंने कहा, जिस आदमी का कत्ल हुआ
वो कौन था?
वो बोला, अरे कोई न कोई तो होगा
ये सब तो पता करेगा दरोगा

मैंने कहा; दरोगा कि तुम?
बाहर निकल जाओ तुम
ये कविता है?
हाथ में विदेशी घड़ी, गले में सोने की चेन
ये कविता, या कविता की चिता है?
उसने कहा; "वही तो लिखा है, जो दिखता है"

मैंने कहा; "बस, तुझे यही सब दिखता है?
तुझे और कुछ नहीं दिखता है?
तुझे अपना देश नहीं दिखता?
तुझे अपना समाज नहीं दिखता?
तुझे अपना घर नहीं दिखता?
तू इन सब पर क्यों नहीं लिखता?

तो साहब, वो लौट गया
और जब आखिरी बार आया
तो कुछ उदास-उदास, मुरझाया-मुरझाया
मैंने पूछा; "क्या हुआ करतार?"
बोला; "घर पर लिखी है इसबार"
"घर पर लिखी है इसबार"
शीर्षक है "हर बार"

हर बार दमियल माँ की अंग्रेजी दवाई
हर बार आंटा, दाल, गुड की मंहगाई
हर बार बराबर की तनख्वाह खा जाती है
हर बार मुनिया स्लेट को रोती रह जाती है
हर बार चंपा की धोती रह जाती है

हर बार मकान-मालिक सिपाही से नहीं डरता है
हर बार राशन वाला इंतजार नहीं करता है
हर बार वर्दी धुलवाना मजबूरी है
हर बार जूते चमकाना मजबूरी है
लेकिन मुरझाये चेहरों पर चमक नहीं आती है
आफतों की काँटा-बेल घर पर छा जाती है
हर बार मुनिया स्लेट को रोती रह जाती है
हर बार चंपा की धोती रह जाती है

हर बार मुनिया स्लेट को रोती रह जाती है..हरबार
हर बार चंपा की धोती रह जाती है..हरबार
मैंने कहा; "वाह करतार, बधाई है
इसबार तो तुने सचमुच कविता सुनाई है
और अब मैं गुरु और चेले की बात भूलूँ
तेरे चरण कहाँ हैं, ला छू लूँ

और ये सच है करतार
मेरे परम मित्र, मेरे यार
कि कविता लिखना कोई क्रीडा नहीं है
जिसमें मानवता की पीड़ा नहीं है
जिसमें जमाने का गर्द नहीं है
जिसमें इंसानियत का दर्द नहीं है
वो और कुछ हो सकती है
कविता नहीं है
कविता नहीं है
कविता नहीं है

Monday, June 23, 2008

पोस्टर पर चिपकी खुशी




हमारी गिनती देश के जागरूक नागरिकों में होती है. अब ये मत पूछियेगा कि कौन करता है? किसी और को करने की क्या जरूरत है, हम ख़ुद ही कर लेते हैं. ऐसे महत्वपूर्ण गिनती के लिए दूसरों पर आश्रित क्यों रहें? और फिर, कोई दूसरा करे, उससे अच्छा है हम ख़ुद ही कर डालें. ठीक वैसे ही जैसे सब कर लेते हैं. सुबूत के तौर पर आपको हिसाब दे सकते हैं कि रोज हम देश की राजनीति, क्रिकेट और फिल्मों पर कितने घंटे चर्चा करते हैं. अब आप ही बताईये, जो आदमी क्रिकेट, राजनीति और फिल्मों पर चर्चा करता हो, उसे जागरूक नहीं कहेंगे तो किसे कहेंगे?

अक्सर ऐसा होता है कि बीती रात पूरी दुनियाँ में घटने वाली घटनाओं पर हम सुबह-सुबह चर्चा करके फारिग हो लेते हैं. हर सुबह इन घटनाओं पर चर्चा करते हुए हम अपनी हैसियत के हिसाब से सुखी और दुखी हो लेते हैं. आखिर सुखी और दुखी होने के अलावा और कर भी क्या सकते हैं? अब देखिये न, कच्चे तेल का दाम बढ़ गया. उसके वजह से देश में पेट्रोल और डीजल का दाम बढ़ गया. रसोई गैस का दाम बढ़ गया. अब इसपर तो हम केवल दुखी हो सकते हैं. अपनी हैसियत केवल दुखी होने की है क्योंकि मंहगाई बढ़ गई है. जिनकी हैसियत बड़ी है वे चिंतित होते हैं. जैसे प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री दुखी होने की बजाय चिंतित होते हैं क्योंकि उनकी हैसियत बड़ी है.

रोज सुबह सात बजे सुदर्शन घर से निकलता है तो मुझे फ़ोन कर लेता है. बात शुरू होती है तो दुनियाँ भर की बातें होती हैं. आधा घंटा का समय लगता है उसे आफिस पहुँचने में. उस आधे घंटे के अन्दर तरह-तरह की बातें होती हैं. एक नमूना देखिये;

"अरे सर, आप तो सौ रुपया हार गए. कल तो इटली हार गया स्पेन से. बड़ा ही उलट-फेर हो रहा है. नहीं? वैसे एक बात पूछनी थी आपसे. सौ रुपया लेने के लिए स्टाफ भेज दूँ?"; सुदर्शन ने कहा.

उसकी बात सुनकर मुझे याद आया कि मैंने इटली की जीत पर सौ रूपये की शर्त लगाई थी. मैंने कहा; "अरे पूछो मत यार. सारा का सारा उलट-फेर हो रहा है. वैसे रूस ने हॉलैंड को हराया था तो मेरा पचहत्तर रुपया क्रेडिट था तुम्हारे पास. इसलिए तुम्हें केवल पच्चीस रूपये मिलेंगे."

"लेकिन मुझे लगता है मैंने पचहत्तर दे दिए थे पहले ही. हा हा हा. हम लोग भी पापी हैं. नहीं? लेकिन सर, ये क्रूड आयल तो फिर से भाग गया ऊपर. क्या लगता है? आज मार्केट कैसा रहेगा?"; सुदर्शन ने पूछा.

"अरे यार, पूछो ही मत. जरा भी राहत नहीं है. वैसे सुना है चिदंबरम साहब गए हैं ओपेक वालों को समझाने-बुझाने"; मैंने कहा.

"क्या सर, आप भी न. चिदंबरम की यहाँ कोई सुन ही नहीं रहा है, वहां कौन सुनेगा. यहाँ लेफ्ट वाले रोज धो रहे हैं. ऐसे में ये किंग अब्दुल्लाह के सामने जाकर पता नहीं क्या बोलेंगे?"; मेरी बात सुनकर सुदर्शन ने कहा.

सुदर्शन की बात सुनकर मुझे हँसी आई. लेकिन उसका कहना सही था. जिसे अपने ही देश में कोई नहीं सुन रहा है, उसे वहां पत्ता देगा? मैंने कहा; "अब देखो, गए हैं तो कुछ न कुछ तो बोलना ही था. सुना है कि ओपेक वालों को क्रूड में मंहगाई रुके, इसके लिए प्लान बता दिया है उन्होंने."

"अरे मंहगाई रोकने का इतना फूलप्रूफ़ प्लान है तो पहले अपने देश में ही आजमाना चाहिए था न. खैर छोडिये. ये बताईये, आज शेयर मार्केट कैसा रहेगा?"; सुदर्शन ने पूछा.

मैंने कहा; "क्या कहें, बहुत 'गिरा हुआ मार्केट' है. लेकिन कर ही क्या सकते हैं? जो दिखायेगा, देखना पड़ेगा."

अचानक ड्राईवर ने ब्रेक लगा दिया. दूसरी तरफ़ से सुदर्शन की आवाज़ आई; "क्या कहें, कैसे-कैसे लोग हैं. जरा भी डिसिप्लिन नहीं है. अभी कुछ हो जाए, तो लोग आकर ड्राईवर की धुनाई शुरू कर देंगे. वैसे सर, आरुशी मर्डर केस में ऐसा क्या हो गया कि पता ही नहीं चल रहा है कि मर्डर किसने किया. क्या लगता है आपको?"

"क्या कहा जाए. पता नहीं क्या हो रहा है. जंगल में भी मर्डर हो जाता है तो पुलिस खोज लेती है. लेकिन यहाँ शहर में मर्डर हो गया है लेकिन पता नहीं चल रहा है. टेस्ट पर टेस्ट...."; मैं अपनी बात पूरी करने वाला था कि सुदर्शन दाहाडें मार कर हंसने लगा.

मैंने पूछा; "क्या हुआ?"

बोला; "सर, पिक्चर का नाम सुनेंगे? 'एगो चुम्मा दे द राजा जी'. बाप रे बाप, क्या नाम है सर."

मुझे समझ में आ गया कि उसकी गाड़ी भवानी सिनेमा के सामने पहुँच चुकी थी. जो लोग कलकत्ते में रहते हैं, उन्हें पता होगा कि टालीगंज से धरमतल्ला जाते समय रास्ते में भवानी सिनेमा है. कुछ साल पहले तक बंद रहता था. लेकिन जब से भोजपुरी फिल्मों ने एक बार फिर से 'धूम मचाई' है, तब से ये सिनेमा हाल फ़िर से खुल गया है. केवल भोजपुरी फिल्में लगती हैं यहाँ. इसके पहले भी भोजपुरी की धूम मचाती कितनी ही फिल्में दिखा चुका है ये सिनेमा. मुझे याद है, पिछले साल 'दरोगा बाबू आई लव यू' खूब चली थी. हाल ही में 'निरहुआ चलल ससुराल' खूब चली.

सुदर्शन की हँसी सुनकर मुझे भी हँसी आ गई. मैं इस बात से दंग था कि दुनियादारी की इतनी तकलीफों का तोड़ फिल्मों के नाम में छिपा है. पहली बार इस बात का एहसास हुआ.

मैं सोच रहा था कि सुदर्शन की आवाज आई; "वैसे सर, क्या लगता है आपको? किसने मारा होगा आरुशी को?"

मैंने कहा; "अब क्या कहें यार? सी बी आई वाले लगे हैं. कुछ न कुछ तो निकलेगा ही. अच्छा, तुमसे एक बात पूछना भूल ही गया. सरकार ने जीडीपी का टार्गेट तो रिवाईज कर दिया. क्या लगता है, आठ परसेंट भी अचीव कर सकेंगे, या इसमें भी कोई डाऊट है?"

मेरी बात सुनकर सुदर्शन थोड़ी देर के लिए चुप था. फिर बोला; "देखिये सर. हमलोग बोलते थे वही हुआ. अरे सर, साल दर साल ऐसे ही नौ परसेंट के रेट से ग्रो कर नहीं सकते. इस तरह से अगर चले तो एक दिन दुनियाँ ही हमारी होगी. लेकिन इनलोगों को लगता है सबकुछ ऐसे ही चलेगा. जापान का उदाहरण सामने है. अमेरिका का उदाहरण सामने है."

मैंने कहा; "वो तो है ही. रघुराम राजन ने भी तो वही कहा था. यही ग्रोथ रेट सस्टेन करने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर में बहुत बड़ा बदलाव चाहिए. खैर, अब तो क्या कर सकते हैं. देखो, अगर अभी भी नींद से जागें तो कुछ हो."

हम अभी अपना रोना रो रहे थे कि सुदर्शन का ठहाका फिर से सुनाई दिया. बोला; "सर, एक और पिक्चर का नाम सुनिए. 'होके तू रहबू हमार'. मजा आ गया सर. जो जो नाम. अच्छा देखिये सर, अभी हमलोग रो रहे थे. अब पिक्चर का नाम पढ़कर खुश हैं."

मुझे पता चल गाया कि सुदर्शन आफिस के पास पहुँच चुका था. गली में घुसते ही सिनेमा के पोस्टर चिपके दिखाई देते हैं. शायद वही देखकर हंस रहा था. मुझे लगा इस दुनियादारी से परेशान व्यक्ति के लिए खुशी दिखाई भी दे रही है तो सिनेमा के पोस्टर पर.

Thursday, June 19, 2008

ब्लागिंग पर और चर्चा




टीवी न्यूज चैनलों की वजह से देश में चर्चा को एक नई दिशा मिल गई है. न जाने कितने लोग चर्चा की वजह से चर्चित हुए जा रहे हैं. ये चर्चित लोग अपने रख-रखाव पर खूब खर्च कर रहे हैं. दो चर्चा में भाग लेकर विशेषज्ञ का सर्टीफिकेट लिए घूम रहे हैं. नए शूट सिलाए जा रहे हैं. इनके जो कपड़े सप्ताह में एक बार धुलते थे, अब तीन बार धुल रहे हैं. टाई की विक्री बढ़ गई है. नए कालेज खुल गए हैं जिनमें विशेषज्ञ तैयार किए जा रहे हैं ताकि चर्चा संस्कृति विकसित हो. देखकर लग रहा है जैसे आनेवाले दिनों में विकास का एक पैमाना इसे भी माना जायेगा कि चर्चा संस्कृति में विकास की दर क्या रही. वो दिन दूर नहीं जब मानव संसाधन विकास मंत्रालय हर महीने एक रिपोर्ट जारी करेगा जिसमें उस महीने में हुई चर्चाओं पर एक समीक्षा करते हुए बतायेगा कि इस महीने में पिछले महीने की तुलना में चर्चा की विकास दर क्या रही. ठीक वित्त मंत्रालय की तर्ज पर जो हर हफ्ते मंहगाई के आंकड़े जारी करता है.

चर्चा के लिए चर्चित विषयों की भी कमी नहीं है. वैसे आजकल जितनी चर्चा ब्लागिंग के ऊपर चल रही है उतनी अमेरिका के साथ खटाई में पड़ी न्यूक्लीयर डील को लेकर भी नहीं हो रही. अखबारों में, टीवी चैनल पर, पत्रिकाओं में और न जाने कहाँ-कहाँ. हाल ही में ब्लागिंग के ऊपर चर्चा एक टीवी चैनल पर हुई. निहायत ही जरूरी लोगों को बुला रखा था चैनल वालों ने. इन जरूरी लोगों में एंकर के अलावा एक ब्लॉगर, एक साहित्यकार और एक आलोचक हैं. दूर मुम्बई स्टूडियो में बैठे एक विज्ञापन गुरु भी हैं. चर्चा शुरू हुई. एंकर ने सबसे पहले साहित्यकार से सवाल किया; " ब्लॉग के बारे आपकी क्या राय है?"

छूटते ही साहित्यकार बोले; "देखिए ब्लॉग साहित्य नहीं है. ब्लागिंग अनुपयुक्त चीज है."

साहित्यकार की बात सुनकर आलोचक जी खीज गए. बोले; "ब्लागिंग अनुपयुक्त चीज है, ये कहने का अधिकार मुझे है, आपको नहीं. आप अपने अधिकार क्षेत्र में रहकर बोलिए."

साहित्यकार सहम गए. उन्हें याद आया कि उनकी हाल ही में छपी किताब इन आलोचक के पास है जो उन्होंने आलोचना के लिए भेजी थी. कहीं इनका दिमाग घूम गया तो किताब की ऐसी-तैसी तय है. कोर्स में लगाने के लिए जो हिसाब बैठा रखा है, वो भी बिगड़ जायेगा. वे चुप हो लिए.

उसके बाद एंकर ब्लॉगर से मुखातिब था. उसने सवाल किया; "अच्छा, ब्लॉगर जी ये बताईये, क्या ये सही है कि ब्लॉग साहित्य नहीं है."

"खबरदार, अगर किसी ने ब्लॉग को साहित्य कहा तो. जहाँ भी चर्चा होती है ये साहित्यकार शुरू हो जाते हैं. शोर मचाने लगते हैं, ये कहते हुए कि ब्लॉग साहित्य नहीं है, ब्लॉग साहित्य नहीं है. अरे मैं पूछता हूँ कि किसने कहा कि ब्लॉग साहित्य है?"; ब्लॉगर जी नाराज होते हुए बोले.

उनकी बात सुनकर एंकर बोला; "तो आप मानते हैं कि ब्लॉग साहित्य नहीं है?"

"अरे इसमें न मानने का सवाल ही कहाँ है? हम ब्लॉगर तो कभी नहीं चाहते कि ब्लॉग को साहित्य माना जाय. ऐसा हो गया तो हमारा ब्लॉग कोई पढेगा ही नहीं. ठीक वैसे ही जैसे साहित्य नहीं पढा जाता"; ब्लॉगर जी ने तैश में जवाब दिया.

"अच्छा-अच्छा, मैं आपकी बात मानता हूँ. वैसे आप ब्लागिंग को क्या मानते हैं? क्या ब्लॉग पर जो कुछ भी लिखा जाता है, वो सब दिल की भडास है?"; एंकर ने दोबारा सवाल किया. अभी एंकर अपना सवाल कर ही रहा था कि आलोचक बोल पड़े; "देखिये, मैं बीच में टोक रहा हूँ लेकिन ब्लॉगर जी की ये बात सच नहीं है कि साहित्य कोई पढता ही नहीं."

आलोचक जी की बात सुनकर ब्लॉगर जी हंस दिए. साथ ही साथ फब्ती कस दी. बोले; "हाँ, हाँ पढ़ते हैं न. साहित्य को आलोचक पढ़ते हैं." उन्होंने साहित्यकार जी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा; "ये लिखते हैं और आप पढ़ते हैं साहित्य."

"नहीं, देखिये मैं आपके पास आऊंगा"; एंकर ने आलोचक जी को बताया. उसके बाद उन्होंने ब्लॉगर जी से फिर वही सवाल किया; "क्या ब्लॉग-लेखन को दिल की भड़ास माना जाय?"

उनकी बात सुनकर ब्लॉगर जी तैश में आ गए. बोले; "पहले तो आप मुझे ये बताईये कि भड़ास से आपका क्या मतलब है?"

"देखिये भड़ास से मेरा मतलब था कि दिल में जमा हुआ आक्रोश तो नहीं है जो ब्लॉगर हर दिन अपने ब्लॉग पर उतरता फिरता है"; एंकर ने अपने आशय को स्पष्ट करते हुए कहा.

"तब ठीक है. मैंने भड़ास का मतलब कुछ और ही निकाल लिया था. कोई बात नहीं. देखिये, ब्लॉग-लेखन को भड़ास न मानकर आप ये कहिये कि ब्लॉग-लेखन अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता लिए ब्लागर के हाथ में एक ऐसा हथियार है जिससे वो अपने दिल की बात करता है"; ब्लॉगर ने समझाते हुए कहा.

उनकी बात से संतुष्ट एंकर ने इस बार साहित्यकार की तरफ़ सवाल दागा; "आपको ब्लॉग-लेखन से आपत्ति क्यों है?"

साहित्यकार जी ने अपनी बात सामने राखी. बोले; " अब मैं क्या कहूं? इस बार दिसम्बर के पहले सप्ताह में मैं ब्लॉग-विचरण कर रहा था. एक भी कविता नहीं दिखाई दी जो बाबरी मस्जिद के ऊपर लिखी गई हो. एक भी लेख नहीं दिखाई दिया जो गाजा में इसराईली हमले की निंदा करते हुए लिखा गया हो. अब आप ही बताईये, अगर ये सब कुछ नहीं कर सकते तो फिर ब्लागिंग का क्या औचित्य?"

अभी साहित्यकार जी बोल ही रहे थे कि आलोचक जी ने कमान संभाल ली. बोले; "आज देश में किसानों की हालत ख़राब है. बिजली नहीं है. पीने का पानी नहीं है. देश की सत्तर प्रतिशत आबादी के पास कम्यूटर नहीं है. ऐसे में ब्लॉग लिखना कहाँ तक जायज है?"

उनकी बात सुनकर ब्लॉगर जी बोल पड़े; "वैसे तो देश की वही आबादी साहित्य की मंहगी किताबें भी नहीं खरीद पाती. तो आपलोग साहित्य लिखना क्यों नहीं बंद कर देते?"

ब्लॉगर जी की ये बात सुनकर साहित्यकार और आलोचक खीज गए. अभी आलोचक जी कुछ बोलते तभी मुंबई में बैठे विज्ञापन गुरु बोल पड़े; "हा हा हा. ये ब्लॉगर और साहित्यकार की लड़ाई केवल अपने देश में होती है. एंड दैट इज नॉट विजिबल एनी ह्वेयर एल्स इन दिस वर्ल्ड." विज्ञापन गुरु अपनी बात कह ही रहे थे कि उनका कनेक्शन काट दिया गया.

एंकर ने हँसते हुए कहा; " जी मैं आपके बात को और आगे बढाता लेकिन हमारे पास समय बहुत कम है. हमें कार्यक्रम यहीं ख़त्म करना पड़ेगा. आप सब का धन्यवाद जो आपलोग समय निकाल कर यहाँ आए. शायद ब्लागिंग के ऊपर चर्चा के लिए हमें और समय चाहिए."

टीवी पर एक और चर्चा अध्याय समाप्त हो चुका था.

वैसे सुनने में आया है कि जब चर्चा में भाग ले रहे ब्लॉगर से उसके एक मित्र ने पूछा कि; "तुम इतना तैश में क्यों बोले जा रहे थे?" तो उनका जवाब था; "टीवी चैनल ने कमिट किया था कि चर्चा के दौरान वे लोग मेरा ब्लॉग स्क्रीन पर आठ बार दिखाएँगे लेकिन उन्होंने केवल चार बार दिखाया. इसलिए मुझे बहुत गुस्सा आ गया था."

Friday, June 13, 2008

तुम मीर हो या गालिब?




कल बाल किशन फिर आफिस में आए. हमारे आफिस के आस-पास ही उनके एक वकील साहब रहते हैं. उनसे मिलने के बाद आफिस में आए थे. ब्लागिंग की बातें होने लगीं. अचानक पूछ बैठे; "अच्छा एक बात बताओ, तुम मीर हो या गालिब?"

सवाल बड़ा अटपटा लगा मुझे. मैंने कहा; "यार गजलें तुम लिखते हो और पूछ मुझसे रहे हो कि मैं मीर हूँ या गालिब. ये बात कुछ समझ में नहीं आई."

बोले; "नहीं नहीं, बताओ न. तुम मीर हो या गालिब?"

मुझे लगा, पता नहीं क्या पूछना चाहते हैं. मैंने फिर अपना बचाव करते हुए कहा; "अरे भाई, आजतक जिसने एक भी शेर नहीं लिखा तुम उससे पूछ रहे हो कि वो मीर है या गालिब. हाँ, एक बात है. अगर मैंने दो-चार शेर भी लिखे होते तो तुम्हें जरूर बताता कि मैं मीर हूँ या गालिब."

मेरी बात सुनकर कुछ देर चुप रहे फिर बोले; "लेकिन इस बात का फैसला कैसे करते कि ख़ुद को मीर बताओ या गालिब?"

मैंने कहा; "बहुत आसान है. सिक्का उछालकर फैसला कर लेता. कुछ भी आता तो अपना क्या जाता? या तो मीर कहलाते नहीं तो गालिब."

मेरी बात सुनकर मुस्कुरा दिए. बोले; "असल में बात ये है कि कल राजेश रोशन जी के ब्लॉग पर कुछ लोगों का नाम देखा. नाम के ऊपर कैप्शन में लिखा था; 'मैं तुझे मीर कहूं तू मुझे गालिब'. बहुत सारे नामों में तुम्हारा नाम भी था. अब आज तुम्हारे साथ ब्लागिंग के बारे में बात हो रही थी तो पूछ लिया. बाकी लोगों को मेल करके पूछ लूंगा. पता चल जायेगा तो भविष्य में संबोधन करने के लिए ठीक रहेगा."

मैंने कहा; "वाह. रोशन साहब ने ब्लागिंग भी शुरू कर दी! संगीत के ऊपर लिखते होंगे अपने ब्लॉग पर. शायद इसीलिए शायरों को याद किया."

मेरी बात सुनकर कुछ देर के लिए चुप हो गए. लगा जैसे मेरी किसी बात से आश्चर्य हुआ उनको. फिर बोल पड़े; "अरे तुम क्या संगीतकार राजेश रोशन की बात कर रहे हो? नहीं-नहीं, ये वो राजेश रोशन नहीं हैं. ये तो कोई और हैं. शायद पत्रकार हैं."

मैंने रोशन साहब के ब्लॉग का एड्रेस टाइप किया और उनके ब्लॉग पर पहुँच गया. वहाँ जाकर देखा तो मामला समझ में आया. ये कैप्शन ब्लॉगरोल के लिए लिखा गया था. लेकिन फिर भी इस कैप्शन के बारे में सोचते हुए मुझे लगा कि रोशन साहब ने ऐसा क्यों लिखा? अनुमान लगाते हुए मैंने बाल किशन से कहा; "शायद उनके लिखने का मतलब है कि रोशन साहब अमित गुप्ता जी को, काकेश जी को, जीतू जी को, फुरसतिया जी को, तरकश वाले भाई बंधू को, ज्ञान दत्त जी को और मुझे मीर कहेंगे और चाहते हैं कि हमसब उन्हें गालिब कहें. लेकिन जहाँ तक मेरा ख़याल है, जितने लोगों का नाम है वहाँ, उनमें से कोई शायर तो है नहीं. फिर उन्हें मीर क्यों कहेंगे वे?"

बाल किशन ने कहा; "हो सकता है वे ख़ुद गालिब कहलाने का शौक रखते हों."

उनकी बात सुनकर मैंने कहा; "हाँ, ये हो सकता है. कविता वगैरह तो लिखते हैं पहले से. शायद भविष्य में गजल में भी हाथ आजमाने का प्लान बनाया हो. मुझे लगता है, यही बात है."

मैंने कहा; "भाई, अगर ऐसी बात है तो मैं उन्हें आज से ही गालिब कहना शुरू करता हूँ. उन्हें मीर कहने की जरूरत नहीं है. हाँ, अगर भविष्य में मैंने कभी कोई एक-आध शेर मारा तो उन्हें सूचित कर दूँगा कि वे भी मुझे मीर कहना शुरू कर दें."

बाल किशन बोले; "तुम्हारा कहना एक दम ठीक है.यही होना ही चाहिए. मैं तो कहता हूँ कि हो सके तो रोशन साहब को आज ही सूचित कर दो."

रोशन साहब, ये पोस्ट आपको सूचना देने के लिए है. आप निश्चिंत रहें, मैंने आज से ही आपको मीर कहना शुरू कर दिया है. जब मैं शेर मारूंगा तो आपको सूचित कर दूँगा.

Thursday, June 12, 2008

हम ईर्ष्या सप्ताह मना रहे हैं




कल बाल किशन आफिस में आए. बिना किसी पूर्व सूचना के. पहले बताते तो आफिस में ही सही, कैमरे का इंतजाम करके रखते. तीन-चार फोटो-सोटो खींचते और चिट्ठाकार सम्मेलन कर डालते. ब्लॉग के लिए एक पोस्ट लिख मारते. लेकिन ये बन्दा शायद चाहता ही नहीं कि मैं इस तरह की कोई पोस्ट लिखूं. पहले भी एक बार अपील की थी, कि कलकत्ते के चिट्ठाकार एक बार तो कहीं मिलकर सम्मेलन कर डालते. तब भी किसी ने ध्यान नहीं दिया.

खैर, आफिस में बिना बताये पधारे तो मैंने शिकायत कर दी. मैंने कहा; "भइया, पहले बताते तो हम कैमरा का जुगाड़ कर के रखते."

मेरी बात सुनकर बोले; "क्यों? कैमरा किसलिए?"

मैंने कहा; "अरे भइया कैमरा से फोटो खींचते. सम्मेलन की तस्वीरें लगाकर एक पोस्ट लिख डालते."

बोले; "चिट्ठाकार सम्मेलन अब आऊटडेटेड बात हो गई. अब तो कोई नई बात खोजो जिसे चिट्ठाकारिता का टॉनिक कहा जा सके."

मैंने काफी सोच-विचार किया लेकिन कोई नई बात नहीं मिली जिसे टॉनिक कहा जा सके. टॉनिक की खोज हर बार विवादों तक जाकर रुक जाती. खैर, मैंने खोज बंद की. हम चाय पी रहे थे तो बातें होने लगी. बातों की बीच में बाल किशन बोले; "और, क्या कर रहे हो?"

मैंने कहा; "पिछले तीन-चार दिनों से करने के लिए कुछ नहीं था. जब और कुछ नहीं मिला तो मैंने सोचा बैठे-बैठे क्या करेंगे, चलो कुछ ईर्ष्या कर लेते हैं."

मेरी बात सुनकर उछल पड़े. बोले; "क्या बात कर रहे हो? ईर्ष्या भी पूरा प्लान बनाकर करते हो?"

मैंने कहा; "हाँ. मैंने ईर्ष्या करना शुरू किया तो लगा कि लिस्ट लम्बी हो रही है. फिर मुझे लगा कि एक दिन में पूरी तरह से ईर्ष्या कर नहीं पाऊंगा इसलिए ईर्ष्या सप्ताह मना लेता हूँ."

मेरी बात सुनकर बोले; "वाह, ईर्ष्या सप्ताह! माने पूरा सप्ताह भर ईर्ष्या करोगे?"

मैंने कहा; "अब क्या करें? एक-आध दिन में मामला पूरा होते नहीं दिख रहा था, सो मैंने सोचा पूरा सप्ताह ही ईर्ष्या के नाम समर्पित कर देते हैं."

बोले; "तो लिस्ट में किसका नाम है?"

मैंने कहा; "सबसे पहला नाम तुम्हारा है. जिस तरह से तुम्हें पोस्ट पर टिप्पणियां मिल रही हैं, उसके लिहाज से तुम्हारा नाम लिस्ट में सबसे ऊपर है."

सुनकर मेरी तरफ़ बड़े तिलमिलाहट के साथ देखने लगे. बोले; "मतलब ये कि मुझे मिली दस-बीस टिप्पणियां भी तुमको हजम नहीं हुई? वैसे ये बताओ, और किसका नाम है लिस्ट में?"

मैंने कहा; "तुमको इतनी टिप्पणियां मिल रही हैं, तो हजम कैसे होगी. वैसे भी यहाँ एक ब्लॉगर दूसरे ब्लॉगर से बात कर रहा है. मैं पहले ब्लॉगर हूँ उसके बाद तुम्हारा दोस्त."

मेरी बात सुनकर बोले; "बाप रे बाप. कम्पीटीशन इतना बढ़ गया हिन्दी ब्लागिंग में! हमें पता नहीं था. वैसे लिस्ट में और कौन-कौन है, ये नहीं बताया तुमने."

मैंने कहा; "तुम्हारे बाद दूसरे नंबर पर प्रधानमंत्री हैं."

बोले; "बड़ी लम्बी छलाँग लगा दी. मेरे बाद सीधा प्रधानमंत्री तक जा पहुंचे. मतलब ये कि मेरे और प्रधानमंत्री के बीच में और कोई नहीं है?"

मैंने कहा; "नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं है. तुम्हारे और प्रधानमंत्री के बीच मंहगाई है न."

बोले; "हाँ यार, वो तो है. वैसे प्रधानमंत्री से ईर्ष्या क्यों कर रहे हो?"

मैंने खुलासा करते हुए उन्हें बताया; "अरे उनसे ईर्ष्या नहीं करूंगा तो और क्या करूंगा. देखो न, कितना कंट्रोल है उनका अपने लोगों पर. मंहगाई बढ़ गई तो तो उन्होंने झट से खर्च कम करने के लिए आर्डर दे डाला. और सुना है कि लोगों ने उनकी बात भी मान ली है. एक मैं हूँ कि मंहगाई बढ़ने के बाद भी खर्च कम करने का आर्डर नहीं दे सका. एक बार दिया था लेकिन घर वालों ने कहा कि खर्च कम करने का मतलब ये है कि हम खाना न खाएं, बस में न चढें, बच्चों को स्कूल से वापस बुला लें. अब तुम्ही बताओ, ऐसे में प्रधानमंत्री जी से ईर्ष्या नहीं होगी?"

मेरी बात सुनकर बोले; "अच्छा, तो ये बात है. मतलब ऐसे भी लोग हैं भारतवर्ष में जो प्रधानमंत्री जी से भी ईर्ष्या कर सकते हैं. अब मुझे समझ में आ रहा है कि जो आदमी प्रधानमंत्री से ईर्ष्या करने की हैसियत रखता हो, वो कितना बड़ा चिरकुट होगा. वैसे आगे कौन-कौन है लिस्ट में?"

मैंने कहा; "बहुत सारे लोग हैं बाल किशन. एक तो मिसेज एंड मिस्टर झुनझुनवाला हैं. उनके अलावा शेयर मार्केट के एक्सपर्ट हैं जो लैपटॉप सामने रखकर मार्के के बारे में फटाफट बता देते हैं. मुझे इन लोगों से प्रोफेशनल ईर्ष्या होती है."

मेरी बात सुनकर बोले; "प्रोफेशनल ईर्ष्या तो होगी ही. तुम उस तरह से नहीं बता पाते होगे जिस तरह से ये लोग बताते हैं. लेकिन ये मिसेज एंड मिस्टर झुनझुनवाला कौन हैं?"

मैंने बाल किशन से कहा; "ये झुनझुनवाला दम्पति का नाम आजकल बहुत चर्चा में है. इन दोनों ने महान संत किरीट भाई और उनके चेलों का करीब सौ करोड़ रुपया मार्केट में डूबा दिया. केवल संत किरीट जी का ही चार करोड़ रुपया डूब गया."

मेरी बात सुनकर बोले; 'लेकिन तुम्हें झुनझुनवाला दम्पति से क्यों ईर्ष्या हो रही है?"

उनकी बात सुनकर लगा जैसे जले पर नमक छिड़क दिया हो. मैंने कहा; "अब तुम्ही बताओ, ईर्ष्या नहीं करूंगा तो और क्या करूंगा? एक मैं हूँ कि अपने क्लाइंट को शेयर मार्केट में निवेश करने से पहले कम्पनी का पूरा इतिहास-भूगोल बताता हूँ. सारा रेकॉर्ड देता हूँ. और पचास हज़ार इन्वेस्ट करने के लिए कहता हूँ तो लोग मानते ही नहीं. और ये लोग हैं कि इनलोगों को सौ-सौ करोड़ मिल जाते हैं मार्केट में इन्वेस्ट करने के लिए. ऊपर से तुर्रा ये भारत गरीबों का देश है. तुम्हें पता है संत किरीट के भक्तों में से किसी-किसी का तो सात करोड़ रुपया तक डूब गया."

मेरी बात बाल किशन की समझ में आई. बोले; "तुम्हारी ईर्ष्या जायज है गुरु. वैसे ये बताओ ये किरीट भाई से किसी ने पूछा नहीं कि बाबा आप तो भक्तों को मोह-माया से दूर रहने की बात करते हैं और ख़ुद पैसे इतनी माया किए बैठे हैं."

मैंने कहा; "किया था. किसी ने ये सवाल किया था. लेकिन ये संत लोग बड़े चंट होते हैं. किरीट भाई ने जवाब दिया कि पैसे से मोह-माया नहीं थी तभी तो शेयर मार्केट में पैसा लगाया. नहीं उसी पैसे का बैंक में ऍफ़डी नहीं कर लेते."

मेरी बात सुनकर बाल किशन मुझसे सहमत हुए. बोले; "सही कहा यार संत जी ने. वैसे तुम्हारा प्लान देखकर लग रहा है कि पूरा सप्ताह ईर्ष्या में गुजारने का मन बना लिए हो. इस तरह से तो लिस्ट खत्म ही नहीं होगी."

मैंने कहा; "हाँ यार. अब तो ईर्ष्या करके पेट भर जाए, तब कोई और काम शुरू करूं. वैसे भी ज्ञानियों ने कहा है कि कोई काम अधूरा नहीं छोड़ना चाहिए."

बातचीत करते-करते हम दोनों आफिस से निकल रहे थे. सामने से शर्मा जी आते दिखाई दिए. बोले; "आज जल्दी जा रहे हैं घर?"

मैंने कहा; "हाँ. असल में मैंने सोचा कि आज घर जल्दी जाऊं तो कुछ घर का काम कर लूंगा."

मेरी बात सुनकर शर्मा जी बोले; "आपसे कभी-कभी बड़ी ईर्ष्या होती है. हमें देखिये हम तो रात को आठ बजे निकलकर फैक्ट्री जायेंगे उसके बाद घर का नंबर आएगा."

उनकी बात सुनकर लगा जैसे पूरी दुनियाँ ही ईर्ष्यामय है.

Tuesday, June 10, 2008

रतीराम को आप भी विश कीजिये...नया धंधा शुरू कर रहे हैं.




कल रतीराम जी की पान दुकान पर गया था. निंदक जी मिल गए. इधर-उधर की बात हुई. बात करते-करते बोले; "सुने कि नहीं? ई रतीरमवा बिजनेस डाईभर्सीफाई कर रहा है."

मैंने कहा; "हाँ सुना था मैंने. वो आईपीएल की टीम का आक्शन हो रहा था तो गए थे टीम खरीदने.

मेरी बात सुनकर बिदक गए. बोले; "का महराज आप भी न. खाली ब्लागिंग में लगे रहते हैं. बाकी दुनियाँ में का हो रहा है, कौनौ ख़बर नहीं रखते."

मैंने कहा; "मतलब? और कुछ नया हो गया क्या?"

बोले; "अरे ऊ किरकेट टीम का मामला पुराना है. अब तो ई और भी केतना बिजनेस खोलने का बात करने लगा है."

मैं जानने के लिए उत्सुक हो गया. मैंने कहा; "अच्छा. क्या बिजनेस करना चाहते हैं रतीराम जी?"

निंदक जी ने इशारे से कुछ दिखाया. बोले; "ई देखिये. केतना-केतना प्रोजेक्ट रिपोर्ट मंगाकर रक्खा है ई. उधर देखिये का-का बिजनेस का रिपोर्ट है."

मैंने देखा तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. रतीराम जी जहाँ बैठकर पान लगाते हैं, वहीं पर तीन-चार प्रोजेक्ट रिपोर्ट रखी हुई थी. मैंने उलट-पलट कर देखा. एक प्रोजेक्ट रिपोर्ट हिन्दी टीवी न्यूज़ चैनल की थी. एक और रिपोर्ट क्रिकेट लीग शुरू करने के बारे में थी. एक और रिपोर्ट मनोरंजक टीवी सीरियल बनाने को लेकर थी और चौथी रिपोर्ट टीवी रियलटी शो की थी. रियलटी शो के भी दो प्रकार थे. एक रियलटी शो गाने के बारे में थी और दूसरी डांस प्रोग्राम की थी. मैं इनके बारे में जानने के लिए उत्सुक हो गया. मैंने सोचा रतीराम जी से ही बात कर लूँ.

मैंने रतीराम जी से पूछा; "क्या बात है रतीराम जी? नया प्रोजेक्ट के बारे में सोच रहे हैं क्या?"

मेरी बात सुनकर हंस दिए. बोले; "हाँ. असल में हम कोशिश त पहले भी किए रहे, बाकी फेल हो गए. देखिये टीम तो मिला नहीं हमको त सोचे कि नया हिसाब बैठाएं कुछ.फिर हम प्रोजेक्ट कंसलटेंट से बात किए त ऊ बोला कि तीन-चार धंधा है जो बहुत हिट चल रहा है. अब एही तीन-चार में से कौनौ एक धंधा कर लो."

मैंने पूछा; "वैसे कौन से धंधे के बारे में बताया कंसलटेंट ने?"

बोले; "ओही सब धंधा है. एक ठो तो न्यूज़ चैनल का है. दूसरा गाना और डांस का रियलटी शो का है. तीसरा टीवी सीरियल का है अऊर एगो है किरकेट लीग शुरू करने का."

मैंने कहा; "तो इन चार में से आपको कौन सा ठीक लगा?"

बोले; "हमको त ई नाच गाना का रियलटी शो बहुत निक लगा. कंसलटेंटवा कह रहा था कि ऊ लोग एगो एस्टिमेट निकाला है जिसके हिसाब से साल २०२० तक पूरा भारत में करीब दस करोड़ लोग गाना गाने वाला और आठ करोड़ लोग नाचानेवाला बन जायेगा. और अभी साल २००८ तक टारगेट में से खाली अस्सी हज़ार लोग नाचने वाला और एक लाख आठ हज़ार लोग ही गाने वाला बन पायेगा. त इसके हिसाब से गैप बहुत बड़ा रहेगा. अऊर ऊ गैप भरने के लिए देश में केवल साल २०१३ तक करीब पैंसठ हज़ार नया रियलटी शो बनेगा."

उनकी बात और एस्टिमेट सुनकर मैं दंग था. मैंने कहा; "माने पूरा होमवर्क कर लिए हैं."

मेरी बात सुनकर बोले; "अरे का कहें? होमवर्क त हम किरकेट टीम खरीदने के बखत भी किए रहे. लेकिन धोखा हो गया. टीम मिला नहीं हमको. एही वास्ते सोच रहे हैं कि इस बार कुच्हौ छूट नहीं जाए. मजे का बात ई है कि ई धंधा में ज्यादा खर्चा भी नहीं है. अऊर साइड का कमाई ऊपर से है. हमरे कहने का मतलब एसएमएस का भोटिंग से ही रुपिया का अम्बार लग जाता है. देख के लगता है कि कौन ससुर कहता है कि देश में गरीबी बढ़ गया है."

मैंने कहा; "और न्यूज़ चैनल का हिसाब नहीं जमा?"

बोले; "ऊ धंधा भी ख़राब नहीं है. अब देखिये न्यूज़ चैनल त नाम का है. असल में त है ससुर पूरा का पूरा मनोरंजक चैनल ही. आ सबसे बड़ा हिसाब त एही है कि चौबीस में से बारह घंटा त ससुर बाकी चैनल पर चलने वाला प्रोग्राम का ही फीड देखाना है. उसके बाद समय बचा त रखी सावंत और खली हैं ही. और फिर क्राईम, सनसनी, भूत-प्रेत से दो-तीन घंटा कटा देंगे. अरे मिसरा बाबू का कहें. थोड़ा पैसा का दिग्दारी हो रहा है नहीं तो हम तो दुन्नो धंधा खोल लेते."

मैंने कहा; "आईडिया बुरा नहीं है. वैसे आपको क्या फाइनेंस की समस्या हो रही है?"

बोले; "हाँ ऊ तो है. ओईसे एक दलाल से बात किए हैं. बोला है कि बैंक से लोन दिला देगा. बात चल रहा है. फिर सोचे कि गाँव में जो भाई-भतीजा रहता है सब, ऊ लोगों को वहीं से कृषि लोन का जुगाड़ बैठाकर ऊ पईसवा भी एही धंधा में लगा देंगे."

मैंने कहा; "लेकिन इसमें तो समस्या आ जायेगी. कृषि लोन को इस धंधे में लागने नहीं देगा बैंक."

मेरी बात सुनकर हंसने लगे. बोले; "आप भी न. बड़े भोले हैं. आपको का लगता है? ई जो सरकार साठ हजार करोड़ माफ़ किया है अभी, ऊ सब पैसा कृषि में लगा था?"

मैंने कहा; "जरूर ऐसा ही होगा." मेरी बात सुनकर उनके चेहरे पर ऐसे भाव आए, जैसे कह रहे हो 'कैसा बकलोल मनई है.'

मेरी बात सुनकर बोले; "ओईसे आपको एक सॉलिड धंधा बतायें, मिसरा बाबू?"

मैंने कहा; "हाँ-हाँ कोई आईडिया हो तो जरूर बतायें."

बोले; "आप न एगो काम कीजिये. आप तीन-चार ठो संस्था खोल लीजिये जिसमें रियलटी शो में जजबाजी के लिए शिक्षा दीजिये. आख़िर इतना शो चलेगा त जज ससुर भी त होने चाहिए. ऊ सब कहाँ से आएगा?"

उनकी बात सुनकर मैं दंग रह गया. देश में आईडिया की कमी नहीं है. उपजाऊ आईडिया देने वालों को जितना अपने आईडिया पर विश्वास नहीं है, उससे ज्यादा विश्वास देशवासियों की बेवकूफी पर है. मैं रतीराम जी को उनके नए धंधे ठीक-ठाक चलने के लिए विश किया और अपना पान मुंह में दबाये खिसक लिया.

आप के पास भी धंधे का कोई आईडिया हो तो एक पूल बनाईये. हो सकता है भविष्य में काम आए.

Thursday, June 5, 2008

दुर्योधन की डायरी - पेज २९६२




जब से स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स और हॉस्टल तोड़कर अपनी प्रतिमा लगवाई है, उसका फायदा दिखाई दे रहा है.

पिछले सप्ताह मामाश्री के सुझाव पर दो दिन की पदयात्रा पर निकल गया था. प्रजा के बीच जाकर लगा जैसे ईमेज कुछ ठीक हो रही है. लेकिन मुझे बहुत फूंक-फूंक कर कदम रखने की जरूरत है. मामाश्री कह रहे थे मुझे सबसे ज्यादा जरूरत इस बात पर ध्यान देने की है कि संवाददाता सम्मेलनों में मुंह से कुछ उलटा-पुल्टा न निकल आए.

पिछले महीने एक सभा में भाषण देते-देते जोश में गलती कर बैठा. कुछ पुरानी परियोजनाएं जो महाराज भरत के जमाने से चल रही हैं, उन्हें पिताश्री के द्वारा शुरू की गई परियोजनाएं बताने की गलती कर बैठा. अखबारों के सम्पादकों ने इस बात पर मेरी बहुत खिल्ली उडाई थी.

मामाश्री की कृपा से हस्तिनापुर का युवा वर्ग मुझमे अपना भविष्य देखने लगा हैं. हुआ ऐसा कि पदयात्रा के दौरान मामाश्री ने अपने 'लड़कों' की एक टोली अचानक भेज दी. एक गाँव में मेरे पहुँचने से पहले ही उनके लड़के पहुँच चुके थे. और मेरे पंहुचने के साथ-साथ इन लोगों ने नारा लगना शुरू कर दिया;

जब तक सूरज चाँद रहेगा, सुयोधन तेरा नाम रहेगा

सुयोधन तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं

हस्तिनापुर का राजा कैसा हो, सुयोधन के जैसा हो

नारे लगाते इन लड़कों को देखकर प्रजा के बीच से भी कुछ नौजवान आगे आए और उन्होंने भी नारे लगाने में मामाश्री द्वारा भेजे गए लड़कों का हाथ बटाया. बड़ी सुखद अनुभूति थी. वैसे संघर्ष करने की बात वाले नारे पर मुझे एक बार के लिए हंसी आ गई थी. मेरे मन में आया कि मैं ठहरा राजकुमार. मुझे किससे संघर्ष करने की जरूरत पड़ गई भला? फिर मामाश्री की बात याद आई.

एक बार राजनीति का पाठ पढ़ाते हुए उन्होंने कहा था; "एक बात हमेशा याद रखना वत्स दुर्योधन, राजनीति में सफल होना है तो नारों का सहारा कभी न छोड़ना. नारों का कोई मतलब निकले या न निकले. नारों में मतलब ढूढना बेवकूफ राजनीतिज्ञ की निशानी होती है."

कुछ नौजवानों से वार्तालाप करके पता चला कि वे हस्तिनापुर में नेतृत्व परिवर्तन चाहते हैं. कहते हैं राज-काज देखने वाले लोग बूढ़े हो गए हैं. वैसे ज्यादातर नौजवान यही मानते हैं कि राज-काज देखने वाले लोग, जैसे पितामह, विदुर चाचा, गुरु द्रोण वगैरह बहुत सक्षम हैं. मुझे ऐसे नौजवान अच्छे नहीं लगे.

जब मैंने ये बात मामाश्री को बताई तो उन्होंने बड़ा अच्छा सुझाव दिया. उन्होंने बताया कि मैं अपने गुप्तचरों द्वारा ये व्हिस्पर कैपेन चला दूँ कि पितामह आजकल बीमार रहते हैं. बैठे-बैठे सो जाते हैं. मामाश्री ने तो यहाँ तक कहा कि इस बात को भी फैला देना चाहिए कि विदुर चाचा पिछले महीने पन्द्रह दिन के लिए अस्पताल में भर्ती थे और उन दिनों राज-काज का सारा काम मैं देखता था. मैंने फैसला कर लिया है, मामाश्री के सुझावों का तुरंत पालन करूंगा.

मामाश्री ने एक सुझाव और दिया है. कह रहे थे कि कुछ छंटे हुए नौजवानों का एक प्रतिनिधिमंडल लेकर विदुर चाचा से मिलूं और पूरे हस्तिनापुर के नौजवानों के कल्याण के लिए कुछ योजनायें चलाने का सुझाव दूँ. ऐसे में नौजवानों के बीच मेरी छवि और अच्छी होगी. नौजवानों को लगेगा कि मैं उनके बारे में सोचता हूँ.

मुझे मामाश्री के इस प्लान पर शक हो रहा था. मुझे डर था कि कहीं ऐसा न हो कि विदुर चाचा मेरी मांग ठुकरा दें. बाद में मैंने माताश्री से इस योजना के बारे में बात की तो उन्होंने आश्वासन दिया कि वे विदुर चाचा को समझा देंगी.

प्लान ये है कि जब मैं प्रतिनिधिमंडल लेकर विदुर चाचा से मिलूंगा तो वे पत्रकारों के सामने ही मेरे प्लान की बहुत सराहना करेंगे और मेरा प्लान तुरंत मानते हुए नौजवानों के लिए सुझाई गई परियोजाओं के लिए धन मुहैया कराने का वादा कर देंगे.

बहुत अच्छा लग रहा है. मेरा कद ऊंचा हो रहा है.

Tuesday, June 3, 2008

एक बार फिर से फील गुड......




बीजेपी का फील गुड़ याद है? नहीं? क्या बात कर रहे हैं! अरे साल २००४ की बात है. चार साल ही तो हुए है अभी. याद नहीं है? खैर, कैसे याद रहेगा? उसके बाद भारत में कितना कुछ हो गया. क्रिकेट टीम ट्वेन्टी-ट्वेन्टी वर्ल्ड कप जीत गई. फिफ्टी-फिफ्टी वर्ल्ड कप हार गई. आई पी एल का आयोजन हो गया. करन जौहर की फ़िल्म पिट गई. खली जी पहलवान बन गए. राखी सावंत स्टार बन गईं. नवजोत सिंह सिद्दू हँसी के शाहंशाह बन गए और हास्यास्पद रस के प्रसार में ख़ुद को झोंक दिया. शिबू सोरेन निर्दोष साबित हो गए. लालू जी ने रेलवे को प्राफिट में ला खड़ा किया. आडवानी जी ने जिन्ना को महान बता डाला. अमिताभ बच्चन जी ने तिरुपति और वैष्णो देवी की यात्रा कर डाली. टीवी न्यूज चैनल साल दर साल सर्वश्रेष्ठ होते गए. रावण के हवाई अड्डे खोज लिए गए. युधिष्ठिर जिस सीढ़ी पर चढ़ कर स्वर्ग पहुंचे थे, उसकी खोज हो गई. अब इतने सारे नए फील गुड़ फैक्टर के बीच पुराने को कौन पूछे.

खैर, नहीं याद है तो दुखी मत होईये. आख़िर हम और आप ठहरे आम आदमी. वैसे अगर कोई ख़ुद को ख़ास समझता हो तो अलग बात है लेकिन सच तो यही है कि हम आम आदमी हैं. वैसे आम आदमी शब्द सुनकर मुझे नहीं पता कि आपके मन में कैसे भाव आते हैं, मेरे मन में जो आते हैं वो मैं बताता चलूँ. मुझे लगता है कि आम आदमी उसे कहते हैं जिसे आम की तरह चूसा जा सके. अब आम को हमेशा सिर की तरफ़ से ही चूसते हैं. लिहाजा चूसा हुआ आम आदमी का अपना दिमाग भी चूसा जाता है. इसलिए आम आदमी की याददाश्त इन मामलों में ठीक नहीं होती. वो तो बेचारा केवल ये बात याद रख सकता है कि बीस साल पहले पड़ोसी ने क्या कहकर गरियाया था. लेकिन ये कभी याद नहीं रखता कि देश के नेता आए दिन उसके साथ क्या-क्या करते रहते हैं. वो तो जी छोटी-छोटी चीजों में खुशी का मजा लेते आगे निकल लेता हैं.

लेकिन क्या उन्हें याद है, जो ख़ास हैं? अब देखिये जी, एक लोकतंत्र में ख़ास कौन हो सकता है? लोकतंत्र में दो ही तो लोग होते हैं. एक जनता और दूसरा नेता. आप कहेंगे कि नेता तो विपक्षी भी हो सकता है. तो उसपर मेरा कहना ये है जी कि विपक्ष वालों को अब नेता ही नहीं माना जाता. नेता तो केवल उसी को माना जाता है जो शासन में हो. अब शासन में तो जी कांग्रेस पार्टी है. जी हाँ, वही पार्टी जिसने बीजेपी के फील गुड़ वाले विज्ञापनों का मजाक उड़ाया था. क्या उसे याद है? लगता तो नहीं कि याद है. मेरे ऐसा कहने के पीछे कारण है. और वो कारण है पिछले दो महीने से टीवी पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन. देखकर 'कन्फर्मामेंट' (आम आदमी की अंग्रेजी है जी) हो गया है कि कांग्रेस भी वही विज्ञापन का खेला खेल रही है. इसको भी उसी फील गुड़ कीटाणु ने डस लिया है.

लेकिन पुराने फील गुड और नए फील गुड के विज्ञापनों में अन्तर है जी. पुराना फील गुड शूट-बूट और टाई वालों को हुआ था. नया वाला तो जी गंजी और धोती पहने लोगों को हो रहा है. हो रहा है से मेरा मतलब है विज्ञापनों में हो रहा है. आय हाय, क्या विज्ञापन है जी. बिल्कुल नया सलवार-कमीज धारण किए एक महिला सिर पर मिट्टी से भरा पलरा उठाये दिखती है. एक ट्रैक्टर दिखता है जिसमें मेकअप लगाकर बड़ी मेहनत करके गरीब बनाए गए लोग बैठे रहते हैं. फावड़ा और पलरा लिए हुए. कैलाश खेर बैकग्राऊंड में गाकर बताते हैं कि रोज कितने गावों में बिजली पहुँचाई जा रही है. कितने गावों में टेलीफोन और सड़क बनाई जा रही है. आंकडे देखकर लगा कि सालों से जिस जनता ने विकास नहीं देखा, उसे अचानक इतना विकास दिखा देंगे तो दस्त से पीड़ित हो जायेगी जी. आदत नहीं है जी इतना विकास देखने की.

वैसे विज्ञापन इस बात का भी बनाया जा सकता है जिसमें सरकार के बाकी कारनामे दिखाए जा सकते थे. मंहगाई में बढ़ोतरी, किसानों की समस्या, चावल का दाम, ऑस्ट्रेलिया से आयातित सड़ा हुआ गेहूँ, और ऐसे ही न जाने कितने कारनामे हैं जो विज्ञापन के कैमरे की तरफ़ बड़ी हसरत भरी निगाहों से देख रहे हैं.

हे सरकार, इन्हें भी मौका दीजिये.

Sunday, June 1, 2008

आपको डॉक्टर चड्ढा याद हैं?..




आपको डॉक्टर चड्ढा याद हैं? अरे वही मुंशी प्रेमचंद की कहानी मंत्र के डॉक्टर चड्ढा. हाल ही में मुझे बहुत याद आए. जब कक्षा सात में पढता था, तब पहली बार यह कहानी पढ़ी थी. कोर्स में थी. दस साल की उम्र थी इसलिए उस समय कहानी पढ़कर एक बात मन में आई थी कि बूढे भगत ने डॉक्टर चड्ढा के बेटे को मंत्र के सहारे जिंदा तो कर दिया लेकिन वो डॉक्टर साहब से बिना मिले क्यों चला गया. थोडी देर के लिए रुका होता तो शायद डॉक्टर साहब से ईनाम मिलता. कुछ पैसे मिलते तो गरीब की मदद हो जाती.

बाद में कई बार कहानी पढ़ी. हर बार यही बात मन में आती कि डॉक्टर चड्ढा की मुलाक़ात अगर बूढे भगत से हो जाती तो वे क्या करते? कुछ भी कर सकते थे. हो सकता है डॉक्टर चड्ढा रोते हुए उस बूढे के पाँव पर गिर पड़ते. हो सकता है उसे कुछ दान वगैरह दे देते. या हो सकता है उसे सौ रूपये का ईनाम दे देते. सोचता हूँ तो लगता है शायद मुंशी प्रेमचंद को डॉक्टर चड्ढा पर भरोसा नहीं था. एक लेखक को शायद डॉक्टर साहब के ऊपर इतना भरोसा नहीं था कि वे पूरे विश्वास के साथ बता पाते कि बूढे भगत से मिलने के बाद डॉक्टर साहब क्या करते. अब सोचता हूँ तो लगता है जैसे मुंशी प्रेमचंद ने डॉक्टर साहब को उस बूढे भगत से न मिलाकर अच्छा ही किया. जो इंसान पेशे से एक डॉक्टर होते हुए भी किसी मरीज को इसलिए नहीं देखता क्योंकि उसके गोल्फ खेलने का समय हो चुका था, वो कुछ भी कर सकता था.

हाल ही में डॉक्टर चड्ढा की याद आने का एक कारण है. हुआ ऐसा कि करीब दस दिन पहले ही पता चला कि मेरे ससुर जी को लंग कैंसर हो गया है. उन्हें लेकर एक डॉक्टर के पास गया. डॉक्टर ने देखकर बताया कि उन्हें लंग कैंसर हो चुका है और तुरंत अस्पताल में भर्ती करना पड़ेगा. हमने उन्हें अस्पताल में भर्ती करने का फैसला कर लिया था लेकिन हम यह भी चाहते थे कि एक दूसरे डॉक्टर से भी सलाह ले लेनी चाहिए.ऐसा करने का कारण ये था कि जिस डॉक्टर ने हमें इस कैंसर स्पेशेलिस्ट के पास भेजा था उन्होंने बताया था कि ये डॉक्टर हैं तो बहुत अच्छे लेकिन लालची भी हैं. लिहाजा इलाज के दौरान कभी-कभी कुछ ऐसा भी कर जाते हैं जिसकी जरूरत नहीं रहती.

हम उन्हें लेकर एक और नामी डॉक्टर के पास गए. ये डॉक्टर मेरे ससुर जी की कालोनी में ही रहते हैं. उन्होंने कहा कि कलकत्ते में कैंसर के जो सबसे बड़े डॉक्टर हैं, उन्हें दिखाया जाय. उन्होंने इन सबसे बड़े डॉक्टर का नाम बताया. मैंने अप्वाईंटमेंट के लिए उन्हें फ़ोन किया. उन्होंने कहा; "देखिये आज तो मैं नहीं देख सकूंगा. आप उनका नाम लिखा दीजिये और कल चार बजे शाम को आ जाइये, मैं सबसे पहले उन्हें ही देख लूंगा." उनकी बात सुनकर मुझे लगा पेशेवर लोग हैं. इनके कहने के हिसाब से ही चलना पड़ेगा. दूसरे दिन हम इन डॉक्टर साहब के क्लिनिक पर चार बजे पहुँच गए. लेकिन इन डॉक्टर साहब के पेशेवर होने को लेकर मेरी सोच जाती रही. वहाँ जाकर पता चला कि उनके क्लिनिक में आने का समय है तो चार बजे लेकिन लगभग रोज ही छ बजे के बाद ही आते हैं. सात बजे तक हमने इंतजार किया, लेकिन डॉक्टर साहब नहीं आए. हमें उन्हें बिना दिखाए ही लौट आना पड़ा. हम डॉक्टर साहब के क्लिनिक से ही हॉस्पिटल चले गए और ससुर जी को भर्ती कर दिया.

अब एक और डॉक्टर साहब की बात सुन लीजिये. मैंने ससुर जी तमाम टेस्ट रिपोर्ट अपने छोटे भाई को मेल किया. ये पिछले रविवार की बात है. उसने बताया कि उसका एक दोस्त जो डॉक्टर है और भाई के शहर में ही रहता उसी दिन भारत पहुँचा है. भाई ने ये भी बताया कि वो उसी दिन अपने दोस्त को फ़ोन करके बोल देगा और चूंकि उसका दोस्त इसी मर्ज का स्पेशिलिस्ट है, इसलिए वो जाकर देख लेगा. भाई को दोस्त पर बड़ा भरोसा होगा. लेकिन समस्या ये हुई कि भाई के पास इस दोस्त का फ़ोन नंबर नहीं था इसलिए उसने एक मेल भेज दिया. शुक्रवार को भाई के इस दोस्त ने मुझे फ़ोन किया. बोला; "आप रिपोर्ट लेकर आ जाइये मैं देख लूंगा." मैंने बताया कि रिपोर्ट वगैरह तो अभी हॉस्पिटल में है. शनिवार को केमोथैरेपी के बाद जब उन्हें डिसचार्ज कर दिया जायेगा तो मैं रिपोर्ट लेकर आऊँगा. उन्होंने बताया कि वे घर में ही रहेंगे. शनिवार को मैं रिपोर्ट लेकर हॉस्पिटल से सीधा उसके घर जाने की तैयारी कर ली. उनके घर पर फ़ोन किया तो पता चला कि वे घर में नहीं हैं. आफिस फ़ोन किया तो उनसे बात हुई. मैंने उनसे कहा कि मैं आफिस ही चला जाता हूँ. आफिस तक जाने में मुझे दस मिनट से ज्यादा नहीं लगते. वे वहीं रिपोर्ट देख लें. लेकिन वे बोले कि उनके पास समय नहीं है. अगर मैं चाहूँ तो रात को आठ बजे के बाद उनके घर जाकर दिखा सकता हूँ. उनकी बात सुनकर मैंने उनके घर जाने से मना कर दिया. मजे की बात ये कि वे आफिस में काफ़ी देर तक रहे. भाई का फ़ोन आया. मैंने उससे कहा कि अपने दोस्त को बता देना कि मैं उसके घर नहीं जाऊंगा. भाई भी बड़ा दुखी था. मुझसे तुरंत तो कुछ नहीं बोला लेकिन उसे शर्मिंदगी जरूर हुई. उसने मुझे मेल लिखकर माफ़ी भी मागी.

इस घटना के बाद मुझे लगा कि किसी के पेशेवर होने का मतलब क्या यह है कि पेशेवर होना तब तक जरूरी है जब तक उनका पेशा केवल उन्हें लाभ पहुचाए. यहाँ देखने वाली बात ये है कि केवल कुछ पेशे ऐसे होते हैं जिनमें पेशेवर इंसान का काम सीधा-सीधा आम आदमी को प्रभावित करता है. जिसमें पेशेवर इंसान की डीलिंग सीधे-सीधे आम आदमी के साथ होती है. डॉक्टर, अध्यापक और वकील इनमें से प्रमुख हैं. और आज की तारीख में इन्ही पेशे में काम करने वाले लोगों से आम आदमी को सबसे ज्यादा शिकायत है. जहाँ तक बाकी के पेशेवरों की बात है, ज्यादातर लोगों को आम आदमी से सीधा-सीधा डील करने की जरूरत नहीं पड़ती. चार्टर्ड एकाउंटेंट, इन्जीनीयर्स वगैरह को ज्यादातर कार्पोरेट के साथ डील करना पड़ता है इसलिए वे डरते हैं क्योंकि कार्पोरेट मजबूत होता है.

वैसे एक प्रश्न मेरे मन में हमेशा उठता है. पेशेवर होना ठीक है लेकिन पेशेवर होने से अगर कहीं मानवता की रक्षा न हो तो फिर इस तरह से पेशेवर होना कहाँ तक जायज है. या फिर मानवता की बात आगे तब रखी जायेगी जब मानवता ख़ुद एक पेशा हो जाए.

चलिए, बेकल उत्साही के कुछ शेर पढिये...

समुन्दर पार से जब कोई विज्ञापन निकलता है
तो मेरे गाँव से घर बेचकर निर्धन निकलता है

जमीं कितनी भी हो फिर भी इरादा कम निकलता है
मकां कैसे बने बुनियाद में जब बम निकलता है

बीमार माँ के इलाज की स्कीम गाँव वाले बना रहे होंगे
माँ के आंसू ये सोचते होंगे, मेरे बेटे कमा रहे होंगे

डॉक्टर बन के चंद वर्षों से बेटा लंदन में काम करता है
बाप अपने वतन में टीबी से रोज जीता है, रोज मरता है

एक बीमार माँ के बेटे ने कपड़े भेजे हैं मानचेस्टर से
डाकिया लेकर पार्सल पहुँचा उठा न पाई मगर वो बिस्तर से

ये मेरा जिस्म है जो मैली, फटी चादर पे रक्खा है
वो मेरा खून पहरेदार के बिस्तर पे रक्खा है

मगन हैं गाँव वाले थोडी सी ठंडी हवा पाकर
मगर सूरज का मंसूबा अभी छप्पर पे रख्खा है