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Tuesday, May 22, 2007

आम आदमी/उसकी ताकत/उसका राज मिथक है




शिव कुमार मिश्र (पिछली पोस्ट में) हर इलेक्शन के समय पर होने वाले आम आदमी के यशोगान को अपने व्यंग का टार्गेट बना रहे हैं. वे यह इंगित भी कर रहे हैं कि आम आदमी न होता है; न ताकतवर होता है.जो भी ऐसी ताकत की अनुभूति करता हैं उसकी ताकत की केवल छ महीने में कलई उतर जाती है.

गोवर्धन पर्वत कृष्ण ने अपनी कनिष्ठिका पर उठा लिया था. पर सारे गोकुल वासी गुमान में रहे कि उनके हाथ लगाने से; उनके डण्डा अड़ाने से वह उठा है. कृष्ण काल का प्रतीक हैं. समय ने मायावती को जिता दिया. समय ने मुलायम को हरा दिया. पर हर डण्डा अड़ाने वाला गोकुल वासी मगन है कि उसने जीता चुनाव.

जनता पार्टी वाले प्रयोग के समय हम नासमझ थे. सन 1977 में रात भर जगे. श्रीमती गान्धी व उनके पुत्र के हारने का समाचार आकाशवाणी दे ही नहीं रहा था. हमें आम आदमी की जीत का एनाउंसमेण्ट सुनना था. हार कर सवेरे वह समाचार दिया. रेडियो जब मंगलाचरण गा रहा था तब हम मगन हो रहे थे कि जनता जीत गयी है. पर जो जीते; वो दूसरे ही थे. साल-डेढ़ साल में पूरी कलई खुल गयी. उन्होने आपसी खींचातान में जेपी की विचारधारा को ठिकाने लगा दिया. लोग सोचने लगे कि इससे तो श्रीमती गान्धी बेहतर थीं. आम आदमी वाला मिथक तब टूटा.

उत्तर प्रदेश में भी आम आदमी/बहुजन/सर्वजन का राज नहीं आया है.शिव कुमार मिश्र की मानें और मानने में मुझे कोई हिचक नहीं है तो 6 महीने के हनीमून में सब साफ हो जायेगा.

कभी-कभी तो लगता है कि नानी पालकीवाला सही कहते थे वयस्क मताधिकार लागू कर भारत ने पिछली सदी की सबसे बड़ी भूल की थी. जब जनता मताधिकार के लिये परिपक्व है ही नहीं; तो एक आदमी-एक वोट का क्या मायने? और जनता अभी भी परिपक्व नहीं है.

फिर यह आम आदमी चीज क्या है? मुहल्ले वालों को पढ़ो तो आम आदमी कुछ और है; लोकमंच वालों के लिये कोई और है; मायावती के लिये कोई और है. मुलायम के लिये कोई और है. सिवाय लक्ष्मण के कार्टून में परिभाषित होने के, वह कोई मूर्त व्यक्ति नहीं है. मीड़िया अपनी दुकान चलाने को आम आदमी गढ़ता है. सैफोलोजिस्ट उसमें गणित और सांख्यिकी का चोला पहनाता है. फिर 6 महीने में आम आदमी का कैरीकेचर बदल जाता है. नेता का भी चित्र बदल जाता है।

आम आदमी/उसकी ताकत/उसका राज मिथक है. मिथक नहीं है तो वह है समय. समय कनिष्ठिका पर गोवर्धन उठाये है और तथाकथित आम आदमी अपना डंडा अड़ा, अपनी ताकत से मगन, अपने क्वासी-हिस्टिरिकल नशे में, आनन्दमार्गी नृत्य किये जा रहा है!!!

मीड़िया साइडलाइन में खड़ा, उसे जोश दिलाने को मृदंग/खरताल बजा रहा है!

Monday, May 21, 2007

उत्तर प्रदेश में आम आदमी जीता है क्या?




उत्तर प्रदेश में चुनाव ख़त्म हुये. नतीजे आये. मायावती जीत गईं. मुलायम सिंह हार गए. जनता खुश हैं. लोगों ने जनता को विश्वास दिला दिया हैं की उसकी जीत हुई हैं. ये वही लोग हैं जो जनता को समय-समय पर ये बताते रहते हैं कीलोकतंत्रमें सबसे ज्यादा ताकतवर आप जनता ही हैं. मैंने एक वेबसाइट पर एक आम आदमी का कमेंट पढा थाजनता कीविजयहुई और गुंडा शक्तियों की पराजय”. जनता और विशेषज्ञों का विश्वास देखने लायक हैं. दोनो का आत्मविश्वास आसमान छू रहा हैं. उत्तर प्रदेश में एकनए युगका आरम्भ हो चुका हैं.कुछ लोगों ने अभी से कहना शुरू कर दिया हैं की उत्तर प्रदेश अब उत्तम प्रदेश होकर रहेगा. कुछ विशेषज्ञों को मायावती की जीत में सामाजिक क्रान्ति दिखाई दे रही हैं. ब्राह्मणों और दलितों के जिस झगडे को बडे-बडे ऋषि, साधू और ज्ञानी नहीं सुलझा सके, उसे मायावती और सतीश चन्द्र मिश्र ने चार महीने में सुलझा दिया. हम बिना मतलब आज के नेताओं और उनकी क्षमता पर शक करते हैं.


चुनाव जनता के लिए टॉनिक का काम करता हैं. चुनाव के आते ही जनता आम से खास हो जाती हैं. उसके अन्दर एक अलग तरह का आत्मविश्वास आ जाता हैं. साथ में जनता ताकतवर दिखाई देने लगती हैं. देखने से लगता हैं रोज च्यवनप्रास का सेवन कर रही हैं. वह सत्ताधारी दल को जड़ से उखाड़ फेकने की तैयारी शुरू कर देती हैं. सबेरे जल्दी उठने लगती हैं. कभी-कभी कसरत भी कर लेती हैं. गुंडा ताकतों को आनेवाले चुनाव में हराना जो हैं. सत्ताधारी पार्टी को गद्दी से हटाने का सुख भोगने के लिए तैयार होने लगती हैं. जैसे जैसे चुनाव नजदीक आते हैं, कसरत के लिए और समय देने लगती हैं. सोने की सुध नहीं रहती. खाना नहीं खाने से भी चलेगा. बीच बीच में न्यूज़ चैनल्स के कैमरे के सामने नेताओं को चेतावनी भी दे देती हैं : “हम बेवकूफ नहीं रहे अब, समझ आ गई हैं हमें. अब हमें बेवकूफ बनाना आसान नहीं रहा. हम जागरूक हो गए हैं.” उसे ये नहीं पता की उसके इस संदेश को देख कर नेता हँसता हैं. मानो कह रहा हो की बेवकूफ बनाना आसान नहीं रहा तो क्या हुआ थोड़ी मुश्किल से बनायेंगे. लेकिन बनायेंगे ज़रूर!

जनता को असली ख़ुशी सत्ता में बैठे लोगों को हरा कर मिलती हैं.सत्ता में रहने वाली पार्टी को हराकर कई महीनो तक सीना तानकर चलती हैं. कुछ महीने बीतने के बाद उसे महसूस होता हैं की असल में जिसे वह अपनी जीत समझ रही थी, उसकी हार निकली. फिर क्या करे. फिर से जीतने के सपने सजोने लगती हैं. समस्या केवल इतनी हैं की ये सपना लगभग चार साल तक सजोना पड़ता हैं. फिर चुनाव आते हैं. फिर से ‘गुंडा शक्तियों’ को हराती हैं. और फिर से छः महीने तक सीना तानकर चलती हैं. जीत और हार का ये ‘रोलिंग प्लान’ अनवरत चलता रहता हैं. जनता वोट देकर खुश और नेता वोट लेकर. सालों से चलते आ रहे इस प्लान में जरा भी परिवर्तन नहीं हुआ. जनता को लगता हैं की आज वो समझदार हो गई हैं. नेता ये सोचता हैं की ऐसी बात नहीं हैं. जनता आज भी उतनी ही बेवकूफ हैं, जितनी कल थी. चरित्र दोनो के नहीं बदले. आख़िर अपने-अपने कर्म से दोनो खुश हैं.

हर पांच साल पर जनता की जीत का भ्रम क्या टूट नहीं सकता? ये सवाल जनता क्या खुद से करेगी? अभी तक तो नहीं किया. जिन्हें जनता से ऐसे सवाल पूछने चाहिए उन्होने उसे इस बार का विश्वास दिला दिया हैं की लोकतंत्र में असली ताकत तो आप ही हैं. ये नेता वेता तो आते-जाते रहेंगे लेकिन आप वहीँ रहेंगे जहाँ हैं. जनता से उसकी वोटर की कुर्सी कोई छीन नहीं सकता. नेताओं का क्या हैं, उनकी कुर्सी तो हमेश ख़तरे में रहती हैं.
इन सभी बातों के बीच एक बात बिल्कुल साफ हैं. जनता अपनी जीत के इस भ्रम को टूटते हुये देखना नहीं चाहती. जनता अगर चाहती तो उसकी हालत ऐसी नहीं रहती. अगर उसने अपने जीत (या फिर हार) के बारे में कभी सोचा होता तो शायद जातिगत राजनीति के लिए जगह कम बचती.
जनता खुद केवल वोटर कहलाना पसंद नहीं करती. उसे खुद को ब्राह्मण वोटर, ठाकुर वोटर, यादव वोटर, दलित वोटर, मुस्लिम वोटर कहलाने में बड़ा मज़ा आता हैं. उसके इसी विचार की वजह से ब्राह्मण नेता, ठाकुर नेता, दलित नेता, यादव नेता और न जाने कौन-कौन से नेता पैदा होते रहते हैं. उन्हें जनता का नेता बनने की ज़रूरत नहीं पड़ती क्योंकि जनता का नेता बनकर केवल जनता के लिए काम करना पड़ेगा न कि यादव जनता, ब्राह्मण जनता या फिर दलित जनता के लिए.